MUKTI NIRVANA, MOKSHA मुक्ति निर्वाण मोक्ष

मुक्ति  

आज रामू बहुत खुश था, कि आज मेरा जीवन सफल हो गया, क्योंकि आज ही मुझे गुरूजी से नामदान प्राप्त हुआ था। रामू सबको बता रहा था कि मेरी मुक्ति का रास्ता खुल चुका है, मैंने अमुक गुरूजी से नामदान प्राप्त किया है। उनका बड़ा नाम है, बड़े-बड़े अफसर उनके चेले हैं। मैं तो अल्प बुद्धि हूँ, जबकि वे तो सभी बुद्धिमान हैं, इसलिये उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था कि आज वह भी इतने बड़े लोगों के समतुल्य हो गया है, वह भी इन बुद्धिमान लोगों की तरह ही मुक्त हो जायेगा।
       वह चाहता था कि सभी का भला हो, इसलिये सभी से कहता था कि आप भी मेरे गुरूजी से नामदान लेकन अपनी मुक्ति निष्चित कर लो। लेकिन उसके इतना कहने पर वे कहते कि नहीं हमारे गुरूजी सबसे विद्वान हैं, चमत्कारी हैं वे ही सबसे बड़े हैं। तो कोई अन्य कहता कि नहीं हमारे गुरूजी बहुत महान हैं, चमत्कारी हैं, असाध्य रोगों को भी ठीक कर देते हैं, उनके द्वारा दिया गया नाम ही मुक्त करा सकता है अन्य नाम से तो मुक्त हो ही नहीं सकते।
उनकी बातें सुनकर उसकी खुशी छूमंतर हो गई और उसने एक के बाद एक बहुत से गुरू बदल दिये। लेकिन उसे पूर्ण रूपेण संतुष्टि नहीं मिली क्योंकि अन्य मत वाले उसे मुर्ख समझते थे।
       अब उसे तलाश हुई ऐसे गुरूजी की जो उसे मुक्ति के लिये सही नाम का दान कर सके तथा सही ज्ञान दे सके। उसे ऐसे गुरूजी मिल गये जो सभी गुरूओं की आलोचना करते थे तथा दूसरे धर्मों के उपदेशकों द्वारा बतायी गयी मिथ्या बातों के आधार पर अथवा उनके उपदेषों को तोड़-मरोड़ कर उन्हें गलत सिद्ध करते थे और दावा करते थे कि उनके द्वारा नाम लेने वाला ही मुक्त हो सकता है अन्य नहीं, क्योंकि वह ही प्रभू का असली भक्त है तथा उसे ही सच्चा ज्ञान है, वह अवतारों से भी बढ़कर है, जो प्रभू नहीं कर सकता वह कार्य वह कर सकता है। शेश सभी गुरू मूर्ख बना रहे हैं। लेकिन नादान रामू यही समझता था कि वह सही कहते हंैं। अतः उसने उनसे नामदान ले लिया।
       अब वह सन्तुष्ठ था कि अब तो वह अवष्य ही मुक्त हो जायेगा, लेकिन उसकी यह खुषी कुछ सालों तक ही रही क्योंकि स्वयं को अवतारों से भी बढ़कर बताने वाले गुरूजी को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। रामू ने स्वयं से प्रष्न किया कि क्या सामाजिक निमयों का उल्लंघन करने के कारण जेल में बन्द होने वाले गुरूजी अवतारों से बढ़कर हो सकते हैं, अन्दर से जवाब मिला नहीं क्योंकि श्रीकृष्ण जी को भरी सभा में दुर्योधन बंदी नहीं बना सका तो फिर यह गुरूजी अवतारों से बढ़कर नहीं हो सकते हैं। यह उपदेश देते हैं कि मोह-माया का त्याग कर दो और स्वयं विषय-विकार व पाप कर्मों  (काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, माया, इन्द्रियों के भोग) में लिप्त रहने के कारण जेल में बंद हुए हैं। । 
       प्रभू की कृपा से कुछ समय पष्चात् उसकी मुलाकात ऐसे विद्वान से हुई जिसे बहुत से धर्मों के बारे में जानकारी थी, उन्होंने उसे समझाया कि हमारे सभी धर्मों में जो समान बातें हैं वही ईष्वर का असली ज्ञान माना जा सकता है तथा जो बातें तर्क व प्रमाणों के आधार पर कहीं गई हैं व ही मान्य हैं।
उन्होंने बताया कि मनुष्य जीवन का उद्देष्य उस सचिदानन्द की अनुभूति कर मुक्त होना ही है। जिसकी पुष्टि निम्न मंत्र करते हैः-
वेदाहमेतं पुरूषं मान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय।। (यजुर्वेद 31/19)
मैं उस प्रभू को जानूं जो सबसे महान है, जो करोड़ा, सूर्यों के समान देदीप्यमान है, जिसमें अविद्या और अन्धकार का लेश भी नहीं है, उसी परमात्मा को जानकर मनुष्य दुखों से, संसाररूपी मृत्यू सागर से पार उतरता है, मोक्ष प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है।
इह चेवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनिष्टः (केन उपनिषद 2/5)
भावार्थः अगर तूने (आत्मा को-अपने आपको) उसे यहाँ इस जन्म में जान लिया तो ठीक है, अगर यहाँ नहीं जाना तो विनाश ही विनाश - महानाश है। 
मुक्ति का रास्ता बहुत कठिन है, गुरू से केवल हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा ऐसा भक्त जो विषय-विकार व पापों से दूर हो तथा गुरू की समस्त आज्ञाओं का पालन कर रहा हो केवल उसी को गुरू अपनी शक्ति से प्रभू का साक्षात्कार करवा सकता है अथवा परमानन्द की प्राप्ति करा सकता है, सभी षिष्यों को नहीं।
प्रभू के अतिरिक्त कोई सच्चा साथी नहीं है मोह-माया का त्याग आवष्यक है, इसीलिये आरती में कहा गया है कि तुम बिन और ना दूजा, गीता का उपदेश भी मोह त्याग कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये ही दिया गया था।
जैसे बचपन में बच्चे को बहलाने के लिये माता-पिता उसे खिलौने से बहलाते हैं। बच्चा खिलौनों के लिये आकर्षित होता है, लेकिन बड़ा होने पर वह उन्हें निरर्थक समझता है। उसी तरह यह परमपिता परमात्मा की माया है, जिसमें प्रभू हमें बड़े-बड़े खिलौन पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि के रूप में प्रदान करता है, जिसे गुरू की कृृपा या प्रभू कृृपा से यह ज्ञान हो जाता है कि यह सब नष्वर है प्रभू/मुक्ति ही सत्य है वह इन माया रूपी बड़े खिलौनों की हकीकत को जान जाता है तथा परमानन्द/प्रभू की अनुभूति कर सदा के लिये मोह-माया का त्याग कर निर्लिप्त जीवन जीता है तथा उसे वापस इस दुनिया में नहीं आना पड़ता है।

जैसा कि भगवान बुद्ध ने कहा है कि आप्पो दीपो भवःअपना दीपक स्वयं बनना होगा अर्थात् शिष्य को गुरू से ज्ञान प्राप्त करने के पष्चात् स्वयं मेहनत करनी होगी उनका जैसा बनने का अभ्यास करना होगा तथा शुद्ध होना होगा, उसके पष्चात् ही प्रभू का साक्षात्कार किया जा सकता है, जैसे कि मैले दर्पण में या हिलते हुए पानी में अपना अक्स सही नहीं दिखायी दे सकता है, उसी प्रकार मैले मन/चित्त के कारण हम आत्मा/परमात्मा का साक्षात्कार अथवा परमानन्द की प्राप्ति नहीं कर सकते।

आप्पो दीपो भव का मतलब है कि जैसे व्यक्ति को किसी भी माध्यम से ज्ञान प्राप्त हो जाता है यानि की प्रभू की प्रेरणा से या गुरू से या सत्संग से तो उस ज्ञान के अनुरूप कार्य करने से ही सफलता मिल सकती है, जैसे कि आप किसी नये शहर में जाते हैं तो किसी से पता करके आगे बढ़ते हंै, यदि कोई शंका हो तो अन्य व्यक्तियों से भी पता पूछ कर पुष्टि करते हैं तो उनकी बतायी गयी दिषा में बढ़कर ही आप मंजिल तक पहुंच सकते हैं अर्थात् रास्ता पता करने के बाद अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के बाद आपको सही दिषा में बढने पर ही मंजिल मिल सकती है। सही दिषा की और बढ़ना ही आपो दीपो भव है। मंजिल तक आपको स्वयं ही जाना होगा अपने पैरांे पर चलकर जाना होगा  यदि कार में  या अन्य किसी भी वाहन से जाते हैं तो वाहन तक तो पहंुचना ही होगा इसी परिश्रम को आप्पो दीपो भव कहा गया है।
यदि हमें पता पूछने पर कुछ शंका हो तो अन्य व्यक्तियों से पूछ कर पुष्टि कर सकते हैं का तात्पर्य है कि जिस पते की पुष्टि इंटरनेट, दिषा सूचक यंत्र व अन्य बहुत से व्यक्ति कर रहे हों तो वह गलत नहीं हो सकता है।
अर्थात जिन बातों की सभी धर्मगुरू एक स्वर में पुष्टि करते हैं, उस पर शंका करने का कोई कारण हीं नहीं रह जाता है।

आप्पो दीपो भव की पुष्टि हेतु दो कथा है।

एक व्यक्ति प्रति सप्ताह अपने गुरू का उपदेश सुनने जाता था। एक दिन उसके पालतू तोते ने कहा कि आपके गुरूजी से मेरी मुक्ति के संबंध में पूछ कर आना। उस व्यक्ति ने सत्संग उपरांत गुरूजी से कहा कि मेरे तोते ने स्वयं की मुक्ति के बारे में पूछ कर आने के लिये कहा है। यह सुनकर गुरूजी थर-थर कांपने लगे और कुछ देर बाद लुड़क कर गिर गये आंखंे बंद करली और बेजान की तरह पड़े रहे, षिष्य उन्हें अंदर ले गये उनकी सार संभाल की और सबको कहा कि गुरूजी ने कहा है कि आप अगले सप्ताह आना गुरूजी अब अगले सप्ताह ही आप से मिलेंगे आपके प्रष्नांे के उत्तर देंगे। उस व्यक्ति ने घर आकर तोते को भला बुरा कहते हुए कहा कि तूने यह कैसा प्रष्न पूछा जो मेरे गुरूजी का ऐसा हाल हो गया, लेकिन तोता उससे अधिक समझदार था, उसने गुरू का मौन उपदेश समझ लिया और वह भी थर-थर कांपने लगा तथा थोड़ी देर बाद निढाल होकर गिर गया। उस व्यक्ति ने सोचा वह मर गया है उसे पिंजरे से निकाल कर बाहर पटक दिया कि सफाईवाला आयेगा तो उसे उठा ले जायेगा, लेकिन उसने जैसे ही उसे बाहर पटका वह पंख फड़फड़ाकर उड़कर पेड़ पर जा बैठा। यही आप्पो दीपो भव है अर्थात्् गुरू के मौन उपदेश को समझ कर आचरण में लाने के कारण ही तोता एक दिन के मौन उपदेश से पिंजरे से मुक्त हो सका।

एक जगह सत्संग हो रहा था, वहां से एक राजा गुजर रहा था, उसने बाहर से ही उपदेश सुना कि प्रभू का साक्षात्कार/मुक्ति ही मनुष्य जीवन का उद््देष्य है। संसार के सुख छलावा हैं कुछ क्षण की तृृप्ति देकर बदले में दुख ही मिलता है, लेकिन प्रभू से प्राप्त परमानन्द ही सच्चा सुख है जो मनुष्य को बड़े से ब़ड़े संकट से बचाता है तथा जिसको प्राप्त करने के बाद कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। यह ऐसा सुख है जो उसकी मृृत्यु के पष्चात् भी उसके साथ रहता है। उसे प्राप्त करने के लिये उसे इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी होगी, विषय-विकार से मुक्त होकर निष्पाप बनना होगा, सदाचारी बनना होगा, परमार्थी बनना होगा क्योंकि उस परमानन्द को प्राप्त करने पर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है, लेकिन स्वयं को जीते जी मारकर ही अर्थात् स्वयं को भूलकर केवल प्रभू के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर उसका ध्यान लगाकर निष्काम कर्म द्वारा ही उस परमानन्द को प्राप्त किया जा सकता है। उससे बढ़कर इस संसार में कुछ भी नहीं है। जैसे कि यदि धन-दौलत, स्त्री या पुत्र सत्य होते तो भगवान बुद्ध इन सबका त्याग नहीं करते। वे एक राजा थे चाहते तो बहुत सी स्त्रियां रख सकते थे, अच्छे-अच्छे पकवानों को भोग सकते थे, लेकिन उन्होंने दुनिया में दुख को देखा और उसके निवारणार्थ ही उन्होंने कर्मों पर जोर देते हुए सदकर्म करते हुए ष्वास पर ध्यान लगाकर निर्विचार होकर उस आनन्द को प्राप्त किया।
राजा ने निष्चय कर लिया कि उसे भी उस परमानन्द को प्राप्त करना है। उसने अथक मेहनत की और कई वर्षों बाद एक दिन उसी स्थान पर पहँुचा जहाँ पर जो लोग लगभग पूर्व मंे सत्संग में दिखाई दिये थे, लगभग वे सभी उसे दिखाई दिये। अर्थात् उन्होंने उपदेश को आचरण में नहीं लिया और अपना समय व्यर्थ गंवाते रहे।
षिक्षाः गुरू अथवा प्रभू अथवा अन्य किसी भी माध्यम से प्राप्त सत्य ज्ञान को आचरण में लाना आवष्यक है। अन्यथा मंजिल नहीं मिल सकती है। जैसे कि तोते ने आचरण में लिया तथा जैसे कि राजा ने आचरण मेें लिया और अपना जीवन सफल बनाया।

हमारी आरती ऊँ जय जगदीश हरे भी हमें प्रेरित करती है कि उसकी अनुभूति करें। उसका संदेश है कि इस संसार में उसके अतिरिक्त कोई हमारा सच्चा साथी नहीं है, तथा वह शक्ति हमारी प्रत्येक करतूत को देख रही है, अन्त्यार्मी है। वह अगोचर है, दिखाई नहीं देती है, तो फिर उस शक्ति का किस विधी से साक्षात्कार किया जाये। जिसका जवाब तीन शब्दों में दिया गया है दयामय आपकी कृृपा से हम प्रयास करते हुए विषय-विकार से मुक्त होकर तथा पाप रहित होकर ही आपका ध्यान लगाकर आपका साक्षात्कार कर सकते हैं ।
इस तरह गीता में भी लिखा है कि कोई हजारों में से एक और उन हजारों में से भी कोई एक मेरी और अर्थात् मुक्ति की ओर बढ़ता है, अर्थात जो काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, माया, राग, द्वेष से रहित होकर तथा इन्द्रियों के भोगों से दूर रहते हुए सात्विक आचरण/कर्म करता है, वहीं मुक्त होता है।
       अतः यदि तुम चाहते हो कि जन्म-मरण चक्र से छुटकारा मिल जाये तो फिर अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कमल के फूल की तरह संसार में रहना होगा। अर्थात् जैसे कमल की जड़ कीचड़ में होती है लेकिन कमल कीचड़ से ऊपर उठा रहता है, उसी तरह तुम्हें इस कीचड़ रूपी संसार में रहना होगा। उसकी प्राप्ति के लिये जीते जी को मारना प़ड़ता है अर्थात् सभी इन्द्रियों को अपने अनुसार वश में करके सही दिषा में चलाना होता है।
       जैसे कि आत्मा रथी है तथा शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है और 10 इन्द्रिया घोड़े हैं। तो हमें बुद्धि द्वारा मन रूपी लगाम को कसकर इन्द्रिय रूपी घोड़ों को सात्विक दिषा मंे ले जाना होगा। ऐसा नहीं हो कि बुद्धि (सारथी) से काम नहीं लें तथा मन रूपी लगाम को ढीली छोड़ दें और इन्द्रिय रूपी घोड़े हमें तामसिक दिषा में ले जाकर हमें गर्त में गिरा दें और हम रथी (आत्मा) नीचे दब जाये और रथ हमारे उपर पड़ा रह जाये।
       तीन सनातन सत्य हैं, जिसमें परम सत्य तो परमात्मा ही है, परमात्मा के अतिरिक्त आत्मा व प्रकृृति भी सत्य हैं लेकिन इनका आधार परमात्मा ही है, अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार किये बिना कोई भी आत्मा अपनी इच्छा से ना  तो शरीर त्याग सकती है और ना ही शरीर धारण कर सकती है। अतः आत्मा प्रभू आश्रित है। इसी तरह प्रकृृति भी बनती है और बिगड़ती है, जैसे सभी वस्तुओं को कहीं रखने के लिये आधार की आवष्यकता होती हैै, उसी तरह प्रकृृति को भी परमात्मा के सानिध्य की आवष्यकता होती है, प्रकृृति प्रभू के आधार पर टिकी हुई है।  इसलिये परमेष्वर के परम सत्य होने के कारण शंकराचार्य जी ने कहा है कि ब्रह््म सत्य जगत मिथ्या। अतः इन तीनों के अतिरिक्त सभी नाष्वान हैं अतः उनसे अप्रीति कर परमात्मा से प्रीति करनी हैं और उससे प्रीति करने के लिये तुम्हें अपने सभी कर्म धर्मपूर्वक करने होंगे धर्म ही परमात्मा अथार््त्् मुक्ति की तरफ तुम्हें ले जायेगा।
       उन्होंने बताया कि विभिन्न धर्मों की बातों में विरोधाभास अवष्य है, लेकिन व सभी एक स्वर में मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करती हैं। यदि तुम सभी धमों में आई हुई समान बातों का पालन करोगे तो मुक्ति यदि नहीं भी मिली तो तुम्हारा अगला जन्म तो अवष्य ही अच्छा होगा।
सभी धर्मों में निम्न बातें मुक्ति के लिये पालन करने हेतु बताइ्र्र गई हैंः-
अंहिसा, (मन, वचन कर्म से किसी का दिल नहीं दुखाना)
सत्य - (मन वचन से सत्य आचरण करना, सदकर्म करना, सत्व तत्व में रहना) जैसा कि कबीर जी ने कहा है- सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप, जाके हिरदे सांच है ताके हिरदे आप)
अस्तेय (चोरी नहीं करना),
ब्रह्मचर्य (इन्द्रियों का संयम व ईष्वर के ध्यान में रहना),
अपरिग्रह (आवष्यकतानुसार धन का उपभोग करते हुए दूसरों की मदद करना/दान),
षौच (शरीर व अंतरमन को षुद्ध/सात्विक रखना),
संतोष (जितना है उतने में संतोष करना, जैसे किसी के पास एक कार है तो किसी के पास दो कार देख कर ईष्या नहीं करना, अपने से निर्धन व्यक्ति का स्मरण कर सतोष रखना),
तप (अपने माता, पिता, गुरू, अतिथि (उपदेशकों) व परिजानों के प्रति समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार हेतु प्रयास करना) ,
स्वाध्याय (सदग्रंथों का अध्ययन करना, ध्यान लगाना व गुरू का उपदेश सुनना),
ईष्वरप्राणिधान (समस्त सदकर्मों को प्रभू को अपिर्त करना) व्यायाम (योगासन),
प्रत्याहार (इन्द्रिय निग्रह, अर्थात् समस्त इंद्रियों को संयंमित करना),
                         
धारणा - (मन को किसी भी एक स्थान पर टिकाने/एकाग्र करने का प्रयास करना),
ध्यान - मन का एकाग्र होना - निर्विचार होना
समाधि - ध्यान के पष्चात्् की अवस्था (परमात्मा का साक्षात्कार अथवा दिव्य सुख का अनुभव)

निम्न पांच क्लेश मुकित अथवा प्रभू साक्षात्कार में बाधक हैः-
अविद्या (अज्ञान अर्थात असत्य/अनित्य/नाशवान को सत्य/नित्य/स्थाई समझना), - ज्ञान द्वारा समाम्त होती है, इसके लिये ही गुरू की आवष्यकता होती है।
अस्मिता (मैं, मेरे पन की भावना को छोड़ना), जैसा कि कबीर जी ने कहा है, जब मैं था तब हरी नहीं अब हरी है मैं ना ही, सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देखा माही। अर्थात् जब तक अंहकार की भावना है प्रभू साक्षात्कार अथवा परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता है।
अभिनिवेश (मृत्यु भय) -(आत्मा की अमराता को ध्यान में रखते हुए मृृत्यु भय से रहित रहना चाहिये),
राग (अपनों से प्रेम रखना अथा््र््त् जिसने हमारे लिये अच्छा किया उसके लिये राग नहीं रखना चाहिये) द्वेष (जिसने हमारा अहित किया है उसके लिये भी द्वेष नहीं रखना चाहिये, क्योंकि उसे अपने कर्म का फल आज-नही ंतो कल अवष्य मिलेगा हाँ उसकी सद्बुद्धि के लिये प्रार्थना अवष्य करनी चाहिये)
निम्न बातें मन, वचन व कर्म से त्याज्य बताई गई हैं, जिनकी पुष्टिी निम्न से भी होती है।

इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोमृच्छत्यसंषयम। संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि निच्छति।। (मनु 2/93)
इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर मनुष्य निष्चय ही दोश का भाग बनता है, अधोगति को प्राप्त होता है, और इन्द्रियों को वश में करके सिद्धि को प्राप्त होता है।
कुरंग मातंग पतंग -भंग मीना हता पंचभिरेव पंच।
एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच।।गरूड़ पुराण 115/21
हिरण कान के विषय-शब्द पर मस्त होकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है, हाथी स्पर्ष - विषय के वषीभूत होकर अपने प्राण गंवा देता है। पतंगा रूप पर मस्त होकर दीपक पर गिरकर जल मरता है। मछली जिह््वा के स्वाद के प्रलोभन में फंसकर अपना जीवन खो देती है। भौंरा -गुण पर मुग्ध होकर अपने जीवन को समाप्त कर देता है। ये सभी प्रणी एक-एक विषय के कारण मारे जाते हैं, फिर जो मनुष्य अपनी पांचों इन्द्रियों का सेवन करता है वह कैसे बच सकता है।
       जैसा कि कबीर जी ने भी कहा हैः-
       कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति ना होय,
       भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोई।
काम (यह संसार के आकर्षण का सबसे बड़ा कारण है, क्योंकि लगभग हर जन्म में इस का उपभोग किया जाता है, यह कई जन्मों से वासना के रूप में हमारे चित्त में संग्रहित हो रहा है) 
क्रोध (काम के कारण व अन्य कारणों से भी क्रोध उत्पन्न होता है, इसस ेहमारे शरीर में विषैले तत्वों का निर्माण होता है, जिससे हमारी शक्ति का क्षय होता है, जो कि साधना में बाधक है),
लोभ (लोभ वश ही कामनायें जन्म लेती है, लोभवश ही कुकर्मों द्वारा सम्पत्ति व अन्य वस्तुओं को अर्जन किया जाता है),
मद (अहंकार -शरीर भाव में नहीं रहकर आत्म भाव में रहना),
मोह (आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है, जिस भी शरीर में जाती है वैसा रूप ले लेती है, मरणोपरांत अगले जन्म में कोई पुरूष  स्त्री या नपूसंक या अन्य किसी योनि में आ सकता है, इसी तरह स़्त्री व नपूसंक भी किसी भी तरह की योनि में आ सकते हैं, अतः सभी रिष्ते-नाते इस जन्म तक ही हैं जो कि झूठे हैं लेकिन इन्हें सत्य मानकर हम इनसे मोह रखते हैं।

ध्यान के लिये स्वस्थ शरीर होना आवष्यक है, जिसके लिये आसन आवष्यक है, मन एकाग्र करने के लिये तथा ष्षरीर की नाड़ियों को शुद्ध करने के लिये प्राणायाम आवष्यक है। स्वस्थ ष्षरीर व निर्विकारी जीवन, सेवा, परमार्थ सत्संग (सत्य लोगों का संग व प्रभू का संग) से ही प्रभू का साक्षात्कार किया जा सकता है।
       उपरोक्त बातों का मन, वचन व कर्म से पालन करने वाले व्यक्ति को किसी भी वस्तु की लालसा नहीं रहती, यदि लालसा रहती है तो मुक्ति की आत्मा/परमात्मा के दर्षन की।
       भगवान बुद्ध ने परमात्मा और आत्मा के लिये अव्यक्तम शब्द का  प्रयोग किया है, लेकिन उनके अस्तित्व से भी इन्कार नहीं किया है, जैसा कि उन्होंने कहा है ’’उस दिव्य सुख की तुलना में सांसारिक सुख धूल के समान है’’ काम, क्रोध लोभ, मद, मोह, राग द्वेष को सदा के लिये त्यागने के कारण ही उन्होंने उस दिव्य सुख को प्राप्त किया है उस परमानन्द को प्राप्त किया है, जिसके पाने के पष्चात्् कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। क्योंकि उस दिव्य सुख को पाने के पष्चात्् संसार का कल्याण करने का प्रयास करने के अतिरिक्त उस व्यक्ति के पास कुछ कार्य शेष नहीं रहता है।
       भगवान महावीर स्वामी ने तो जन्म मरण अथवा बंधन का कारण ही काम, का्रेध, लोभ, मद, मोह को बताया है। उनका कहना कि आप भी इनका त्याग करके परमात्मा बन सकते हो का अर्थ यह है कि जैसे काफी समय तक अग्नि के सम्पर्क में रहने पर लोहा अग्निमय हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानावस्था में आत्मा का स्वरूप भी प्रभूमय हो जाता है अथा्र््त लोहा अग्नि जैसा रूप ले लेता है। इस अवस्था को शंकराचार्य जी ने अहम ब्रह््मास्सि कहा है।
       अतः यदि तुम्हें मुक्ति चाहिये तो धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करो, केवल नामदान से कुछ नहीं हो सकता है अर्थात्् सिर्फ दवा से कुछ नहीं होगा जब तक हम परहेज नहीं करें, जैसे किसी को ठंडे पानी के कारण रोग लग गया हो तो, उसे दवा नियमित रूप से लेनी चाहिये लेकिन ठंडे पानी का सेवन नहीं करना चाहिये। इसीलिये भगवान बुद्ध ने कर्म पर जोर दिया है। जैसे किसी को रोटी  चाहिये तो उसे किस तरह से प्राप्त किया जाये यह ज्ञान होना अनिवार्य है कि क्या उसके पास रोटी बनाने के लिये सभी सामग्री है, फिर उनका सही मिश्रण करके, सही आँच पर उसकी सिकाई करके उसे प्राप्त किया जाता है। केवल रोटी-रोटी करने से रोटी प्राप्त नहीं हो सकती उसे पाने के लिये कर्म अनिवार्य है। इसी तरह प्रभू का केवल नाम स्मरण करने से मुक्ति नहीं मिल सकती हाँ इतना अवष्य ही कि जितने भी समय उसने प्रभू का मन से स्मरण किया अथवा    ष्ष्वास-प्रóास पर ध्यान लगाया उतने समय वह बुरे विचारों से बचा अन्यथा व्यक्ति अच्छे विचारों में कम बुरे विचारों में अधिक खोया रहता है। बुरे विचारों के साथ किया गया प्रभू का स्मरण हो नहीं सकता वह तो बुरे विचारों का स्मरण है।
       अतः असली नाम जप यही है कि हम अपने समस्त कर्म प्रभू को हाजिर-नाजिर मानते हुए करें तो हम किसी भी तरह का बुरा कर्म नहीं करेंगे। यदि हम बुरे कर्म नहीं करेंगे तो यह हमारा मुक्ति का आधार नहीं है यह तो हमारे अगले खुशहाल जन्म का आधार है। मुक्ति के लिये तो इस संसार की समस्त वस्तुओं को नष्वर समझते हुए किसी भी वस्तु की कामना मन में नहीं रखते हुए, परोपकार में लिप्त रहते हुए केवल प्रभू को समर्पित रहने पर ही मुक्त हो सकते हंैं।
       जब व्यक्ति के मरणोपरांत शवयात्रा में राम नाम या प्रभू नाम सत्य है, सत्य से गत है कहा जाता है। उसका तात्पर्य यही है कि सत, रज व तम तीन गुण हैं। सत्व गुण वाला ही मुक्त हो सकता है, क्योंकि उसका प्रभू (षुभ कर्म) के अतिरिक्त किसी से नाता नहीं रहता है वह परमार्थ के लिये ही जीता है तथा अपना प्रत्येक कर्म गुरू/प्रभू वाणी के अनुसार सत्य कर्म ही करता है। रज गुण वाले को संसार में वापस आना पड़ता है, क्योंकि वह जब प्रभू का ध्यान करता है तो उस समय तक सात्विक अवस्था में रहता है, उसके पष्चात् शेष समय काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह के वश में होकर कुछ आसुरी व देव प्रवृृत्ति के कर्म भी करता है, जो उसके बंधन के कारण बनते हैं, जिसके आधार पर उसे अपने शुभ-अषुभ कर्मों के आधार पर जन्म लेना ही पड़ता है। तम गुण वाला आसुरी प्रवृृत्ति के कारण सदा दुव्र्यवहार में लिप्त रहता है तथा अधिकांशतः अषुभ कर्मों में ही लिप्त रहता है, अतः उसे अपने कर्मों के आधार पर भोग योनि में आना पड़ता है।
       जैसे कि एक पिता के तीन पुत्र हैं एक सात्विक प्रवृृत्ति का है, दूसरा राजसिक तीसरा तामसिक। सात्विक वाला अपने पिता की सभी आज्ञाओं का पूर्ण श्रद्धा से पालन करता है तथा दूसरों की भलाई भी करता है, किसी की बुराई नहीं करता है, क्योंकि उसके पास व्यर्थ समय नहीं रहता है वह पल-पल का उपयोग सात्विक कर्म में करता है। वह माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री सभी के प्रति समान व्यवहार रखता है तथा अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए प्रभू प्राप्ति का प्रयास करता है। 
राजसिक पुत्र पिता की चापलूसी करता है पिता-पिता ही करता रहता है, लेकिन अपनी इच्छा से उनकी आज्ञा का पालन करता है और आज्ञा पालन नहीं करने पर पिता के सामने बहाने बनाता है, बुरे कर्म भी करता है शुभ कर्म भी करता है पीठ पीछे लोगों की बुराई करता है। स्त्री, धन-दौलत एष्वर्य ही उसके लिये सब कुछ होता है।
तीसरा तामसिक सभी से नफरत करता है किसी का सम्मान नहीं करता सभी की बुराई करता है, सभी बूरे कर्म करता है।
यदि पिता सक्षम है तो सभी की इच्छा पूर्ण करने का प्रयास करता है, लेकिन दिल से तो वह उसी को चाहता है, जो उसकी आज्ञा का पालन करता है। चापलूस व एहसान फरामोश को नहीं।
इसी तरह परमात्मा अन्तर्यामी है, उसे पता है कि उसके पुत्र अथवा पुत्री को क्या चाहिये, जैसा उनके मन में होता है, वैसा ही उन्हें उनके कर्मों  के अनुसार प्रदान करता है। जैसे कि बिना डिग्री के किसी को वकील या डाक्टर आदि नहीं बनाया जा सकता है, उसी तरह उसके मन में जो है, उसी के अनुसार उसकी गति होती है। गीता में इसे अंत मति सो गति कहा गया है। क्योंकि 24 घंटों मंे से कितने समय वह प्रभू/ध्यान में रहा शुभ कर्मों में रहा तथा कितने समय वह संासारिक माया के वषीभूत रहा, इस पर ही उसकी मुक्ति निर्भर है।
मुक्ति प्राप्त करने के लिये हमें महापुरूषों के जैसा बनने का प्रयास करना होगा। अपने जीवन के उद््देष्य मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार के लिये एकलव्य जैसा बनना होगा, अर्जुन-कर्ण जैसा बनना होगा। जैसे कि द्रोणाचार्य जी के पूछने पर कि क्या दिखाई देता है, तब केलव अर्जुन ही था, जिसे केवल चिड़िया की आँख दिखाई दे रही थी शेष सभी को चिड़िया के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई दे रहा था। अतः यदि हमें मुक्ति चाहिये तो हमें केवल मुक्ति अथवा प्रभू साक्षात्कार के लक्ष्य को पल-पल  ध्यान में रखकर निष्काम कर्म करने होंगे।
रामू ने विचार किया और देखा कि हाँ लगभग सभी धर्मगुरूओं ने सत्कर्म करने, मोह-माया से दूर रहने तथा विकारों का त्याग करने हेतु उपदेश दिये थे।
       अब उसे अच्छी तरह समझ में आ गया था कि मुक्ति का आधार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, द्वैष रहित षुभ सत््कर्म ही हैं, क्योंकि यही बंधन का कारण है तथा इन्हीं के कारण हम जन्म-मरण में आते हैं, इनका त्याग करके संसार (माया) से अलग होकर परमात्मा का साक्षात्कार (परमानन्द प्राप्त) करने के पष्चात् ही हम मुक्त हो सकते हैं।  परमात्मा का साक्षात्कार होने के बाद उसका परमानन्द प्राप्त करने के बाद उसे संसार से कोई मतलब नहीं रहता है क्योंकि जिसे परमानन्द रूपी समुद्र प्राप्त हो गया हो वह ऐसी बूंदों में नहीं उलझता जिससे कि उसे कुछ क्षण के आनन्द के बदले दुख की प्राप्ति हो।
सारंाश
       सभी ऐसे सच्चे धर्मगुरू जो स्वयं विषय-विकार से मुक्त थे तथा निष्पाप थे जैसा कि उनके जीवन से ही झलकता है, उन्होंने विषय-विकार के त्याग को ही मुक्ति अथवा प्रभू साक्षात्कार के लिये अनिवार्य बताया है, एक तरफ प्रभू (मुक्ति ) है दूसरी तरफ यह संसार है। मुक्ति के लिये केवल परमात्मा को ही चुनना होगा अर्थात समस्त सांसारिक कामनाओं का त्याग करना होगा। सांसारिक कामनाओं की उत्पत्ति का कारण ही विषय-विकार व पाप कर्म हैं।
यदि हमें मुक्ति का मार्ग कठिन लगता है तो हमें पुनः संसार में आना होगा लेकिन यदि हमें संसार का एैष्वर्य ही प्रिय हो तो हमंें अधिक से अधिक शुभ कर्म करने चाहिये, जिससे कि हमारा अगला जन्म एैष्वर्यपूर्ण हो, सुखमय हो।
यजुर्वेद के 34वां अध्याय का यह मंत्र पुष्टि करता है कि चारों वेदों का ज्ञान इस मन में स्थित है, अथा्र््त अंदर ही है। जैसा कि भगवान बुद्ध का कोई गुरू नहीं था उन्होंने अपने अंदर से ही ज्ञान प्राप्त किया था।
यस्मिन्नचः साम यजूंषि यस्मिन प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिष्चित सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः षिवसंकल्पमस्तु।।5।।

भावार्थः-जिस मन में जैसे रथ के पहिये के बीच के काष्ट में अरा लगे होते हैं, वैसे ऋग्वेदन, सामवेद, यजुर्वेद सब ओर से स्थित और जिसमें अथर्ववेद स्थित है, जिसमें प्राणियों का समग्र सर्वपदार्थसम्बन्धी ज्ञान सूत में मणियों के समान संयुक्त है, वह मेरा मन कल्याणकारी वेदादि सत्यषास्त्रों का प्रचार रूप संकल्प वाला हो।


       यजुर्वेद का उपरोक्त मंत्र पुष्टि करता है कि चारों वेदों का ज्ञान मन में ही संग्रहित है। भगवान बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्ति अंदर से ही की थी, अर्थात् बिना किसी माध्यम अथवा गुरू के। हाँ यह सही है कि गुरू के द्वारा ज्ञान आसानी से प्राप्त हो जाता है, सही दिषा आसानी से मिल जाती है, लेकिन सही दिषा मिलने पर उसी दिषा में बढ़ना आवष्यक है अन्यथा गुरू द्वारा ज्ञान प्राप्ति होने के पष्चात्् भी प्राप्त ज्ञान के  अनुसार नहीं चलने या विपरीत दिषा में चलने पर मंजिल कभी भी प्राप्त नहीं की जा सकती है।

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