धोना था मन भू ल गया तू धोता रहा तन मलमल के

धोना था मन भूल गया तू धोता रहा तन मलमल के 


जैसा इस भजन में कहा गया है कि -

जब तक मन शुद्ध नहीं होगा

 तब तक आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं मिल सकता

बंधन से छुटकारा नहीं मिल सकता 

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भक्ति योग में 

भक्त को प्रभु के अतिरिक्त कुछ याद नहीं रहता 

इसके अंतर्गत  ऐसे लोग आते हैं  जिनका कार्य  केवल भक्ति करना है ।

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लेकिन जो नौकरी पेशा लोग हैं, व्यवसायी लोग हैं उन्हें अपनी आजीविका के लिए भक्ति के साथ कुछ कार्य भी करना होता है ।

तो ऐसे लोगों का मन शुद्ध होना भक्ति मार्ग के पथिक की अपेक्षा कुछ कठिन है

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 जैसे कि एक गिलास आधा भरा हो 

तो कोई कहे की गिलास आधा भरा है 

और कोई कहे की गिलास आधा खाली है

 दोनों ही बात सत्य हैं 

तो इसी तरह भक्ति योग में सच्चे भक्त के मन में अपने आराध्य के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है तो ऐसा भक्त ही सच्चा भक्त कहला सकता है और उसका मन भी नौकरी पेशा , व्यवसायीयो के  अपेक्षाकृत शीघ्र शुद्ध होता है 


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तो जो नौकरी पेशा है 

व्यवसायी हैं 

उन्हें भी ऐसी स्थिति बनानी होती है की आराध्य के अतिरिक्त मन में कोई भी नहीं । क्योंकि उनके पास दो कार्य होते हैं 

भक्ति और 

जीवन यापन से संबंधित कार्य


 इसलिए उनका मन शुद्ध होने में भक्ति मार्ग के पथिक की तुलना में  अधिक समय लगता है।

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इस तरह से भक्ति योग और ज्ञान/ कर्म योग तीनों एक ही हैं।


 मन पर जितना लिखा जाए उतना कम है 


जब मन में आराध्य के अतिरिक्त कुछ नहीं होता और मन शुद्ध हो जाता है तब मनजीत बनते हैं, इंद्रजीत बनते हैं। और सभी बंधन जीते जी खुल जाते हैं।

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देवों का पूजन - 

जो भी हमें देने वाला है वह देव है 

अब चाहे वह माता पिता हो जिन्होंने हमें जन्म दिया है अथवा गुरु हो 

जिन्होंने हमें ज्ञान दिया है 

उनका पूजन यानी कि उनकी सत्य आज्ञा का पालन करना और गुरु के ज्ञान का पालन करना ही सबसे बड़ी गुरु भक्ति है 

सबसे बड़ा गुरु पूजन है

 सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा है


 इसीलिए गुरु कहते हैं - कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर  प्रभु पुकारता फिर रहा कहता कबीर कबीर


जब मैं था तब हरि नहीं 

अब हरि है मैं नाही सब अंधियारा मिट गया 

जब दीपक देखा माहि

यानी जब अहंकार समाप्त होता है तब जीवन सफल होता है तब उस अदृश्य तत्व का साक्षात्कार होता है।


 सांच बराबर तप नहीं 

झूठ बराबर पाप 

जाके हिरदे सांच है 

ताके हिरदे आप


सत्य में सब कुछ समाहित है एक छोटी सी कथा है - 


एक राजा था शीलवंत था उसके राज्य में सभी सुखी थे उसे वरदान था की जब तक वह न्यायकारी रहेगा तब तक सभी ऐश्वर्य उसके पास रहेंगे

 एक दिन राजा ने देखा की एक साधु पेड़ के नीचे बैठा था। अंधेरी रात थी  कुछ डाकू वहां से गुजरे उनके पीछे सैनिक थे। डाकुओं ने धन-संपत्ति साधुओं के पास पटक दी और भाग गए राजा के सैनिक वहां से गुजरे।

 उन्होंने धन संपत्ति के साथ साधु को देखकर पकड़ लिया और राजा से उसे दंड देने को कहा । 

राजा जानता था की साधु निर्दोष है लेकिन सैनिकों ने उसके लिए दंड की मांग की ।


राजा ने उसे दंड नहीं दिया ।


तब राजा के ऐश्वर्य उससे अलग होने लगे 

पहले लक्ष्मी निकली 

उसके बाद मान मर्यादा निकले, उसके बाद सत्य (धर्म) जाने लगा । 

तब राजा ने सत्य  (धर्म) को रोक लिया और कहा कि आप को तो पता है  कि आपके लिए ही  मैंने  असत्य न्याय  नहीं किया तो फिर आप मुझे छोड़ कर कैसे जा सकते हैं।


 चाहे  लक्ष्मी चले जाए  

मेरी मान मर्यादा चले जाए  लेकिन आप मुझे छोड़कर नहीं जाएं ।


सत्य  (धर्म) को  वहीं रुकना पड़ा ।


सत्य  (धर्म) के रुकते ही मान मर्यादा  वापस लौट आए  

फिर लक्ष्मी भी वापस आ गई 


 उन्होंने कहा  कि जहां सत्य हैं  हमें तो वहां रहना ही होगा ।


सत्य ही वह है शब्द है जिससे मनुष्य की सद्गति होती है । 

जहां सत्य हैं, वहां पर धर्म है 

वहां पर निर्विकारिता है

 निरविषयता है 

निष्पापता है 

परहित है 

परमार्थ है

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जहां असत्य हैं 

वहां पर अधर्म है 

विकारीता है 

स्वार्थ है

अनित्य संसार की तृष्णा है


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सत्य से ही सद्गति होती हैं इसीलिए राजा हरिश्चंद्र्र  शक्ति के बल पर ही चांडाल से पुण: राजा बने।

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