ब्रह्मचर्य Celibacy Brahmacharya

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-1

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

⚘️

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

भारतीय दर्शन ब्रह्मचर्य का समर्थक है

और पाश्‍चात्य दर्शन ब्रह्मचर्य के सिद्धांत को नहीं मानता है

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भारतीय दर्शन के अनुसार

जब तक मनुष्‍य का मन

विषय, विकार से विरत नहीं होता

पाप से रहित नहीं होता तब तक

ना ही उस अव‍िनाशी तत्‍व को जाना जा सकता है

और ना ही मुक्ति का लक्ष्‍य ही

हासिल किया जा सकता है

इसकी पुष्टि वेद, गीता, उपनिषद व दर्शनों में भी की गई है

बौद्ध और जैन दर्शन तथा

आरती का भी यही संदेश है कि

निर्विषयता, निर्विकारिता, निष्‍पापता

के आधार पर ही आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य हासिल किया जा सकता है

जब मन विषय-विकार व पाप से मुक्‍त हो जाता है

तब मन स्‍वत: ही ब्रह्मचर्य में स्‍थापित हो जाता है

और जिसका मन ब्रह्मचर्य में स्‍थापित हो जाता है

उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्‍त हो जाता है

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ब्रह्मचर्य के पथ पर चलने वाला पथ‍िक

जन्‍म जन्‍मांतरों से हर योनि में

काम से संयुक्‍त होने के कारण

बार-बार इस पथ से विचलित होता है

जिसका एकमात्र कारण

अज्ञानतावश अनित्‍य नश्‍वर पदार्थ/शक्‍लों

को नित्‍य मानकर जीना है

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जैसा कि कहा है

धीरे धीरे रे मना

धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सौ घडा

ऋतु आये फल होय 

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तो साक्षी भाव से प्रत्‍येक कर्म का निरीक्षण करने पर

और प्रत्‍येक पदार्थ/शक्‍ल को

अनित्‍य मानकर जीने का निरंतर

अभ्‍यास करने पर अंतत: एक छोटा सा बीज

वृक्ष का आकार ले लेता है और

ब्रह्मचर्य जैसा असम्‍भव प्रतीत होने वाला

लक्ष्‍य सम्‍भव हो जाता है

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साक्षी भाव से इन्द्रियों का उपभोग करने पर

ज्ञात होने लगता है कि

अधिकतर इन्द्रियों के सुखों के साथ

दुख भी जुडा हुआ रहता है

जैसे ही मन में विषय वासना जाग्रत होती है

सम्‍पूर्ण शरीर में हलचल प्रारम्‍भ हो जाती है

रक्‍त संचार तीव्र हो जाता है

श्‍वांस की गति तेज हो जाती है

दिल की धडकन तेज हो जाती है

और इन्द्रिय संयोग के बाद

शरीर शिथिल हो जाता है

आलस्‍य आने लगता है

और आयु अधिक होने पर अंतत:

ऐसी स्थिति आ जाती है कि

मनुष्‍य इन्द्रिय संयोग के योग्‍य नहीं रहता

लेकिन साक्षी भाव और ज्ञान के अभाव में

मनुष्‍यों का मन इन्द्रिय संयोग के चिंतन से विरत नहीं होता

यानि कि ज्ञान के अनुसार

अनित्‍य के प्रति अनासक्‍त रहते हुए

साक्षी भाव से जीवन जीने पर ही

अंतत: ब्रह्मचर्य में मन समाहित हो पाता है

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ब्रह्मचर्य का वर्णन  वेद, उपनिषद,

बौद्ध, जैन, दर्शन, गीता, रामायण,

महाभारत आदि समस्‍त ग्रंथों में मिलता है 

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मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/

प्रभू साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य

वीर्यरक्षण  / सत्‍कर्म,

वेद/सद्ग्रंथों का अध्ययन

ईश्वरचिन्तन एवं ध्यान

स्‍वयं के कर्मों का निरीक्षण  करते हुए

अपवित्र से पवित्र बनना अनिवार्य शर्त है।

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ब्रह्मचर्य की महिमा

समस्‍त सद्-ग्रंथों में विद्यमान है

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ब्रह्मचर्य यानि कि

ब्रह्म/अदृश्‍य शक्ति की चर्या में,

उस चश्‍मदीद गवाह/साक्षी को सर्वत्र

उपस्थित मानते हुए दूराचरणों से दूर रहना

(इन्द्रियों की आसक्ति से दूर रहना) और

निष्काम शुभाचरण करना ब्रह्मचर्य है।

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ब्रह्चर्य के लिये सदाचरण अनिवार्य शर्त है।

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ब्रह्मचारी बनने से पहले

सदाचारी बनना होता है

उसके उपरांत ही सदाचारी

ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है,

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ब्रह्मचर्य की प्रथम अवस्‍था यही है कि

अपनी स्‍त्री अथवा अपने पति के

अतिरिक्त किसी अन्‍य स्‍त्री/पुरूष का

चिंतन भी मन में नहीं आना चाहिये

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ब्रह्मचर्य की यह प्रथम अवस्‍था

जब तक नहीं आती तब तक

ब्रह्मचर्य की अंतिम अवस्‍था तक

पहुंचना भी सम्‍भव नहीं है और जो

ब्रह्मचर्य की अंतिम अवस्‍था तक

नहीं पहुंचता वह बंधन में रहता है

जन्म से लेकर मृत्यु तक

ब्रह्मचर्य की यात्रा चलती है

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विद्या अध्ययन के साथ ही

ब्रह्म से  मन जुड़ जाता है, लेकिन

साथ ही मन परिवारजनों तथा

सांसारिक पदार्थों/शक्लों के साथ भी

जुड़ा रहता है ।

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गृहस्थ आश्रम में भी  ब्रह्म से

मन जुड़ा रहता है लेकिन साथ ही

अपने जीवन साथी तथा

परिवारजनों के साथ तथा

सांसारिक पदार्थों/शक्लों के साथ भी

मन जुड़ा रहता है ।

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वानप्रस्थ अर्थात सेवानिवृत्ति के पश्चात

मन का संबंध केवल ब्रह्म से ही शेष रह जाता है ।

कमल की तरह परिवार / समाज से

तन जुड़ा रहता है  लेकिन मन 

परिवार/समाज/सांसारिक पदार्थों/शक्लों से

पृथक हो जाता है और ब्रह्म से

मन का संबंध स्‍थापित हो जाता है

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संयास आश्रम यानी कि वृद्धावस्था में

सांसारिक/पदार्थ शक्‍लों से तन और मन

दोनों से ही संबंध विच्‍छेद हो जाता है

तन और मन में ब्रह्म ही शेष रह जाता है 

⚘️

लगातार----2-----

सर्वे भवंतु सुखिन:

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ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

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भाग-2

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

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हमारी प्राचीन संस्‍कृति के अनुसार

जन्‍म के साथ ही ब्रह्मचर्य की शुरूवात होती है

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बच्‍चा जब जन्‍म लेता है तो

शून्‍य के रूप में जन्‍म लेता है

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जब मुस्‍काता है तो ऐसा प्रतीत होता है

कि वह अदृश्‍य परम तत्‍व ही

उस बच्‍चे के माध्‍यम से मुस्‍करा रहा है

⚘️

फिर जैसे-जैसे वह बडा होता है

आस पास के वातावरण के अनुसार

वैसा ही बनने लगता है

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जैसा कि मेंजियस का बचपन का प्रसंग है 

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मेंजियस की मां  बुद्धिमान थी।

पुत्र  के भले के लिए

उसने कई बार  घर बदला।

सर्वप्रथम घर कब्रिस्तान के पास था।

मेंजियस कब्रिस्तान में अक्सर लोगों को

रोते हुए विलाप करते हुए देखता था

ऐसा देखने का असर मेंजियस के मन पर पडा

और मेंजियस उन्‍हीं की तरह हरकतें करने लगा ।

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मां ने तुरंत घर बदल कर

बाजार में घर लिया, 

कुछ दिन बाद मां ने देखा कि

पुत्र किसी दुकानदार की तरह

अभिनय करने लगा ।

अपने खेलने के सामानों को

दुकानदार की तरह फैला लेता और

दूसरों से ऐसे  बात करता जैसे

दुकानदार अपने ग्राहकों से या

दूसरे व्यापारियों से घुमा – फिरा कर

बात करते थे।

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मां विचलित हुई और घर बदल कर

स्कूल के पास घर लिया।

⚘️

कुछ दिन बाद मां ने देखा कि

पुत्र विद्वानों की भांति व्यवहार करने लगा।

पुत्र नये - नये विषयों को पढ़ता

और उन्हें सीखने की कोशिश करता था।

अब उसकी मां बहुत खुश थी।

और उसने महसूस किया कि यही

स्‍थान उनके लिये सर्वोत्‍तम है

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मेंजियस बड़ा होकर

एक महान चीनी विद्वान बना।

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बच्‍चा शून्‍य की तरह

इस संसार में आता है

समाज व शिक्षक उस शून्‍य में

अच्‍छे और बुरे दोनों ही तरह के

संस्‍कारों को भरने का  माध्‍यम बनता है

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इसीलिये पूर्व में आश्रम व्‍यवस्‍था के अनुसार

बच्‍चे को विद्याध्‍ययन के लिये

गुरूकुल भेजा जाता था

जहां पर ज्ञान के साथ ही साथ

तन, मन और वाणी की पवित्रता को

जीवन में उतारने की शिक्षा दी जाती थी

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ब्रह्म पवित्र है, और जो  भी

पवित्र जीवन जीता है

उसका मन स्‍वत: ही उस

अदृश्‍य ब्रह्म से जुड जाता है

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आरती ऊँ जय जगदीश हरे

का  संदेश भी  यही है कि

यदि उस अदृश्‍य अगोचर का

साक्षात्‍कार करना है तो

उसकी एकमात्र विधी है कि

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विषयी से निर्विषयी बनें 

विकारी से निर्विकारी बनें

पापी से निष्‍पाप बने

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ब्रह्मचर्य में स्‍थापित होने के लिये अथवा

आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिये

इन तीनों की पालना अनिवार्य है 

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निर्विषयता/निर्विकारिता/निष्‍पापता

तीनो ही सुख/शांति/परमानन्‍द/स्‍वर्ग

मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/कैवल्‍य के आधार हैं

जहां यह तीनों होते हैं

ब्रह्मचर्य वहां स्‍वत: ही स्‍थापित हो जाता है

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विषय से तात्‍पर्य है कि जिन भी

पदार्थ/शक्‍लों की ओर हमारा मन

इन्द्रियों के माध्‍यम से राग-द्वैष से ग्रसित होता है

जैसे मनमोहक पदार्थ/शक्‍ल व दृश्‍य

देखने के लिये आंखें आकर्षित होती है

अज्ञानपूर्वक देखने के कारण

मन में या तो

काम जाग्रत होता है अथवा

क्रोध जाग्रत होता है अथवा

लोभ जाग्रत होता है अथवा

मोह/राग जाग्रत होता है अथवा

द्वैष जाग्रत होता है अथवा

अहंकार जाग्रत होता है

⚘️

आंखों के कारण ही

जिव्‍हा और स्‍पर्श इन्‍द्री प्रभावित होती है

⚘️

श्रवण इन्‍द्री व घ्राण इन्‍द्री के कारण भी

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग-द्वैष

आदि जाग्रत होते हैं

⚘️

श्रवण इन्‍द्री जब ज्ञान के सम्‍पर्क में आती है

तब इन्‍द्रियों  के विषयों का ज्ञान होता है

यानि कि विषयों के कारण ही विकारों 

(काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग-द्वैष)

का जन्‍म होता है और

ज्ञान के अभाव में विकारों की

परत दर परत चढती ही रहती है 

⚘️

ज्ञान के अनुसार आचरण करने पर

विकारों की परतें उतरने लगती है

⚘️

अर्थात् ब्रह्मचर्य में स्‍थापित होने के लिये

अथवा मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण के लिये

अथवा आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य के लिये

विषय-विकार से मुक्त होना व

निष्पाप होना अनिवार्य शर्त है।

⚘️

इतिहास साक्षी है कि जिसने भी

ब्रहचर्य का पालन किया तथा

विषय-विकार से दूर रहा

निष्पाप रहा उसने ही

समता में स्‍थापित होने के कारण

सुख-शांति/परमानन्द/दिव्‍य सुख को

प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्र से

मुक्ति पायी थी - जैसे कि

शंकराचार्यजी, भगवान बुद्ध,

महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द,

राम कृष्ण परमहंस जी,

स्वामी विवेकानन्द, जैमल सिंह जी आदि

ये सभी आत्मायें विषय-विकार से

रहित थीं निष्पाप थीं

⚘️

अथार्त जो विषय-विकार व पाप में लिप्त है

वह ब्रह्म को भूला हुआ है

मन की विकार रहित अवस्‍था में

अदृश्‍य ब्रह्म से निकटता बढ जाती  है

ब्रह्म से योग हो जाता है

और

मन की  विकारी अवस्‍था में

ब्रह्म से दूरी बढ जाती है

ब्रह्म से वियोग हो जाता है

⚘️

लगातार -----3----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-3

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

ब्रह्मचर्य दो शब्दों

ब्रह्म + चर्य के योग से बना है,

⚘️

ब्रह्म शब्‍द अनेकार्थी है जैसे

ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म,

गुरू, सुख, सत्य, ज्ञान

⚘️

चर्य का अर्थ है

तन मन से किया गया प्रत्‍येक कर्म

आचरण, चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन,

सेवा, ध्येय, साधना और कर्म आदि

⚘️

ब्रह्मचर्य की महिमा

⚘️

ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां,

वीर्य लाभो भवत्यपि,

सुरत्वं मानवो याति,

चान्ते याति परां गतिम्।

⚘️

भावार्थः

ब्रह्मचर्य का पालन करने से

वीर्य का लाभ होता है,

ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले

मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है और

साधना पूरी होने पर परमगति (मोक्ष)

मिलती है।

ब्रह्मचर्य की साधना द्वारा करोड़ों ऋषि

ब्रह्मलोक में वास करते हैं।

⚘️

हेमचन्द सूरि जी का कथन है किः-

जो लोग विधिवत

ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं

वे दीर्घायु, सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्तव्य,

तेजस्वितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं।

ब्रह्मचर्य सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है,

इसका पालन करता हुआ मनुष्य,

सुपूजित लोगो में भी पूजा जाता है।

⚘️

धन्वन्तरि जी का कथन है किः-

मैं इस बात को तुम लोगों से

सत्य-सत्य कहता हूं कि

मरण रोग तथा

वृद्धता का नाश करने वाला

अमृत रूप और बहुत बड़ा उपचार

मेरे विचार से ब्रह्मचर्य है।

⚘️

जो सुख, शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य

और उत्तम सन्‍तान चाहता है,

उसे  संसार के सर्वोत्तम धर्म

ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये

जैस कि श्री कृष्ण जी ने

उत्तम सन्तान हेतु 12 वर्ष तक

ब्रह्मचर्य धारण किया था,

यानि कि केवल सन्तान उत्पत्ति हेतु

ब्रहचर्य का खंडन भी

ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं है।

ब्रह्मचर्य से सभी प्रकार का

अशुभ नष्ट हो जाता है।

⚘️

तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं,

ब्रह्मचर्यणानुविन्दते,

तेषामेवेष, ब्रह्मलोकस्तेषाः

सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति

- छान्दोग्यापनिषद

⚘️

भावार्थः

ब्रह्मचर्य से ही ’ब्रह्मलोक मिलता है।

ब्रह्मचारी ही ब्रह्मलोक के अधिकारी हैं

ब्रह्मचर्य के अभाव में पुन:

जन्‍म मरण के चक्र के बंधन में

आना पडता है ।

जो ब्रह्मचर्य संयुक्त पुरूष हैं

वे सभी लोको में विचरण कर सकते हैं।

⚘️

जैसा कि सदग्रंथ के अनुसार

⚘️

जो कुछ ब्रह्माण्ड में है

वही इस पिण्ड अर्थात शरीर में भी है।

⚘️

अतः ब्रह्मलोक सब लोको मे श्रेष्ठ है

वह इस पिण्ड में

सबसे उपर मस्तिष्क में है,

प्राणों के वहां पहुंचने से

जीव का मोक्ष होता है।

ऐसे मनुष्‍य को दुखों से

मुक्ति मिल जाती है,

इसलिये ब्रह्मलोक का आशय है,

परमानन्द/दिव्‍य सुख/परम शांति

⚘️

ब्रह्मचर्य के पालन करने से ही अंतत:

आत्मज्ञान, आत्‍म साक्षात्‍कार

आत्‍मोनूभूति होती है

आत्म ज्ञान के पश्चात् ही

परमानन्द/दिव्‍य सुख/परम शांति

की प्राप्ति सम्‍भव होती है।

⚘️

ब्रह्मर्चेण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत

- अथर्ववेद

⚘️

ब्रह्मचर्य रूपी तप से

देवों को अमरता प्राप्त हुई।   

⚘️

यानि कि जिसने भी पवित्र जीवन जिया

सकाम से निष्‍काम बन गया

दानव से देव बन गया

दयावान बन बया

कृपण से दानी बन गया

दुष्‍कर्मों से विरत रहते हुए

निष्‍काम सत्‍कर्मी बन गया                                                                                                    

ऐसे देव पुरूष अमर हो जाते हैं

जन्‍म मरण के चक्र के बंधन से मुक्‍त हो जाते हैं

⚘️

ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छते। 

- अथर्ववेद

अर्थात्

जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है

ऐसा ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला गुरू

शिष्यों का हित कर सकता है

विकारों से ग्रस्‍त कामी गुरू

शिष्‍यों को गुमराह करने का ही कार्य करते हैं

जो विकारों से ग्रसित है

चाहे वह गुरू हो चाहे शिष्‍य

विकारी मनुष्‍य मुक्‍त नहीं हो सकता है

⚘️

लगातार -----4----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-3

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लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

ब्रह्मचर्य दो शब्दों

ब्रह्म + चर्य के योग से बना है,

⚘️

ब्रह्म शब्‍द अनेकार्थी है जैसे

ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म,

गुरू, सुख, सत्य, ज्ञान

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चर्य का अर्थ है

तन मन से किया गया प्रत्‍येक कर्म

आचरण, चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन,

सेवा, ध्येय, साधना और कर्म आदि

⚘️

ब्रह्मचर्य की महिमा

⚘️

ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां,

वीर्य लाभो भवत्यपि,

सुरत्वं मानवो याति,

चान्ते याति परां गतिम्।

⚘️

भावार्थः

ब्रह्मचर्य का पालन करने से

वीर्य का लाभ होता है,

ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले

मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है और

साधना पूरी होने पर परमगति (मोक्ष)

मिलती है।

ब्रह्मचर्य की साधना द्वारा करोड़ों ऋषि

ब्रह्मलोक में वास करते हैं।

⚘️

हेमचन्द सूरि जी का कथन है किः-

जो लोग विधिवत

ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं

वे दीर्घायु, सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्तव्य,

तेजस्वितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं।

ब्रह्मचर्य सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है,

इसका पालन करता हुआ मनुष्य,

सुपूजित लोगो में भी पूजा जाता है।

⚘️

धन्वन्तरि जी का कथन है किः-

मैं इस बात को तुम लोगों से

सत्य-सत्य कहता हूं कि

मरण रोग तथा

वृद्धता का नाश करने वाला

अमृत रूप और बहुत बड़ा उपचार

मेरे विचार से ब्रह्मचर्य है।

⚘️

जो सुख, शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य

और उत्तम सन्‍तान चाहता है,

उसे  संसार के सर्वोत्तम धर्म

ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये

जैस कि श्री कृष्ण जी ने

उत्तम सन्तान हेतु 12 वर्ष तक

ब्रह्मचर्य धारण किया था,

यानि कि केवल सन्तान उत्पत्ति हेतु

ब्रहचर्य का खंडन भी

ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं है।

ब्रह्मचर्य से सभी प्रकार का

अशुभ नष्ट हो जाता है।

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तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं,

ब्रह्मचर्यणानुविन्दते,

तेषामेवेष, ब्रह्मलोकस्तेषाः

सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति

- छान्दोग्यापनिषद

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भावार्थः

ब्रह्मचर्य से ही ’ब्रह्मलोक मिलता है।

ब्रह्मचारी ही ब्रह्मलोक के अधिकारी हैं

ब्रह्मचर्य के अभाव में पुन:

जन्‍म मरण के चक्र के बंधन में

आना पडता है ।

जो ब्रह्मचर्य संयुक्त पुरूष हैं

वे सभी लोको में विचरण कर सकते हैं।

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जैसा कि सदग्रंथ के अनुसार

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जो कुछ ब्रह्माण्ड में है

वही इस पिण्ड अर्थात शरीर में भी है।

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अतः ब्रह्मलोक सब लोको मे श्रेष्ठ है

वह इस पिण्ड में

सबसे उपर मस्तिष्क में है,

प्राणों के वहां पहुंचने से

जीव का मोक्ष होता है।

ऐसे मनुष्‍य को दुखों से

मुक्ति मिल जाती है,

इसलिये ब्रह्मलोक का आशय है,

परमानन्द/दिव्‍य सुख/परम शांति

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ब्रह्मचर्य के पालन करने से ही अंतत:

आत्मज्ञान, आत्‍म साक्षात्‍कार

आत्‍मोनूभूति होती है

आत्म ज्ञान के पश्चात् ही

परमानन्द/दिव्‍य सुख/परम शांति

की प्राप्ति सम्‍भव होती है।

⚘️

ब्रह्मर्चेण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत

- अथर्ववेद

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ब्रह्मचर्य रूपी तप से

देवों को अमरता प्राप्त हुई।   

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यानि कि जिसने भी पवित्र जीवन जिया

सकाम से निष्‍काम बन गया

दानव से देव बन गया

दयावान बन बया

कृपण से दानी बन गया

दुष्‍कर्मों से विरत रहते हुए

निष्‍काम सत्‍कर्मी बन गया                                                                                                    

ऐसे देव पुरूष अमर हो जाते हैं

जन्‍म मरण के चक्र के बंधन से मुक्‍त हो जाते हैं

⚘️

ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छते। 

- अथर्ववेद

अर्थात्

जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है

ऐसा ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला गुरू

शिष्यों का हित कर सकता है

विकारों से ग्रस्‍त कामी गुरू

शिष्‍यों को गुमराह करने का ही कार्य करते हैं

जो विकारों से ग्रसित है

चाहे वह गुरू हो चाहे शिष्‍य

विकारी मनुष्‍य मुक्‍त नहीं हो सकता है

⚘️

लगातार -----4----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-4

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

जैसा कि कबीर जी का वचन है

कामी, क्रोधी, लालची

इनसे भक्ति ना होय,

भक्ति करे कोई सूरमा

जाति वरण कुल (अहंकार) खोई।

⚘️

एक कनक और कामिनी

जग में बड़े फंदा

जो इनमें ना बंधा

वही दाता में बंधा

⚘️

नश्‍वर पदार्थ/ शक्‍ल से राग

बंधन का कारण बनता  है और

नश्‍वर पदार्थ/शक्‍ल से मन की अनासक्ति

मुक्ति का मार्ग प्रशस्‍त करती है।

⚘️

श्री रामकृष्ण परमहंस जी का वचन है

जहां काम है

वहां राम नहीं।

⚘️

अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करने

अथवा पालन करने का

अभ्यास करने वाले शिष्यों को ही

मंजिल प्राप्त हो सकती है

अन्यों को नहीं।

⚘️

प्रश्नोपनिषद का एक प्रसंग है -

⚘️

ब्रह्मज्ञान की शिक्षा के लिये

कबन्धी और कात्यायन

ऋषिवर पिप्पलाद के आश्रम गये और

ब्रह्मज्ञान देने के लिये निवेदन किया।

⚘️

पिप्पलाद ने कहा कि तुम दोनों 

एक वर्ष तक नियमानुसार

ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए

हमारे पास रहें, उसके पश्चात्

जो भी प्रश्न पूछना चाहो पूछ लेना

हम यथाशक्ति तुम्‍हें समझायेंगे।

⚘️

अर्थात

आत्म/ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

के लिये ब्रह्मचर्य आवश्यक है।   

⚘️

भगवान शंकर का वचन -

न तपस्तप इन्याहुर्बह्मचर्य तपोत्तमम्।

उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु से देवो न तु मानुषः।।

अर्थात्

ब्रह्मचर्य के समक्ष तप कुछ भी नहीं है,

ब्रह्मचर्य ही सबसे उत्तम तप है,

जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया है

वह मनुष्‍य नहीं है, अपितु  देव स्वरूप है

⚘️

एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य तथैकतः

- छान्दोग्योपनिषद

⚘️

यदि एक तुला एक पलड़े में

चारों वेद रख दिये जायें  तथा

दूसरे पलड़े में ब्रह्मचर्य को रखा जाये

तो दोनो ही पलड़े बराबर रहेंगे ।

अर्थात्

ब्रह्मचर्य चारों वेदों के समान है।

⚘️

तेषामेवैष स्वर्गलोको येषां

तपो ब्रहचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठिम्। -

प्रश्नोपनिषद

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उन मनुष्‍यों को ही स्‍वर्ग-सुख मिलता है,

जो ब्रह्मचर्य तप का पालन करते हें और

जिनके हृदय में

ब्रह्मचर्य रूपी सत्य विराजमान है।

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ब्रह्मचर्य का पालन करना

मंगलकारी है, उत्‍तम है ।

देवों क लिये भी ब्रह्मचर्य दुर्लभ है,

वीर्य की रक्षा भली भांति होने पर

सब लोको के सुखों की सिद्धियां

स्वत: ही  मिल जाती है।

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भीष्म पितामाह का कथन है कि

जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है,

उसे इस संसार में

कुछ भी दुख नहीं होता।

उसके लिये कोई भी वस्तु/पदार्थ दुलर्भ नहीं होते।

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श्री कृष्ण जी का वचन है कि

ब्रह्मज्ञान के प्राप्त हो जाने पर

मनुष्य बहुत शीघ्र ही

परमानन्द का अधिकारी होता है।

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शंकराचार्य जी का वचन है कि

ऋत ज्ञानान्न मुक्तिः,

अर्थात्

ब्रह्मज्ञान के बिना किसी की भी

मुक्ति नहीं हो सकती

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शंकराचार्य जी के अनुसार

जो विषयों में लिप्त है

वह बंधा हुआ है तथा

जो विषयों से अलिप्त है वह मुक्त है।

वही महाशूर है, महावीर है जो

कामदेव के बाणों से

व्यथित  न हुआ हो।

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जो मनुष्‍य अकाल मृत्यु से मरते हैं

व मोक्ष के अधिकारी नहीं होते हैं।

अकाल मृत्यु से बचने के लिये

ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक है।

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ब्रह्मचर्य का पालन

ब्रह्मपद का मूल है,

जो अक्षय-पुण्य को पाना चाहता है,

वह निष्ठा से जीवन व्यतीत करे

- देवर्षि नारद

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मनुष्य बिना ब्रह्मचर्य धारण किये हुए

कदापि पूर्ण आयु वाले नहीं हो सकते

- ऋग्वेद

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लगातार -----5----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-5

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

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ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्म के स्वरूप के दर्शन होते हैं।

है प्रभो,

निष्कामता प्रदान कर दास को कृतार्थ करें।

- मुनिवर्य भारद्वाज

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ब्रह्मचर्य से मनुष्य

दिव्यता को प्राप्त होता है।

शरीर के त्यागने पर सद्गति मिलती है

- मुनीन्द्र गर्ग

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ब्रह्मचर्य के संरक्षण से ही

मनुष्य को सब लोको में

सुख देने वाली सिद्धियां प्राप्त होती है

- मुनिराज अत्रि

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ब्रह्मचर्य से ही

ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की

योग्यता प्राप्त होती है।

- पिप्पलाद

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ब्रह्मचर्य और अहिंसा

शारीरिक तप है

- श्री कृष्ण

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ब्रह्मचर्य के पालन से

आत्मबल प्राप्त होता है

- पतंजलि

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ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वालों को

मोक्ष मिलता है

- सनत्सुजातमुनि

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जो मनुष्य ब्रह्मचारी नहीं

उसको कभी सिद्धि नहीं होती ।

वह जन्ममरणादि क्लेशों को

बार-बार भोगता रहता है

- अमृतसिद्ध

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ब्रह्मचर्य प्रथम आश्रम है

जन्‍म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु

तक की इसकी अवधि है

ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करते हुए

विद्यार्थियों को भविष्‍य में

धर्मपूर्वक अर्थ कमाने,

धर्मपूर्वक काम का उपभोग करने

तथा धर्म का आचरण करते हुए

मोक्ष प्राप्ति के लिये

जीवन जीने का ज्ञान दिया जाता था 

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जैसा कि ब्रह्म का एक अर्थ ज्ञान भी है,

अतः ब्रह्मचारी को  ब्रह्मचर्य, अर्थात

प्राप्‍त ज्ञान के अनुसार ही

मृत्‍यु पर्यन्‍त आचरण करना चाहिये

⚘️

विद्यार्थी के लिये ज्ञान ही ब्रह्म तुल्य है,

पूर्ण तन्मयता से ज्ञान की प्राप्ति करना ही

विद्यार्थी का मुख्य उद्देश्य होता है।

विद्यार्थी को ब्रह्म चिंतन के साथ

पूर्ण लगन से ज्ञान का अर्जन करना होता है।

ब्रह्मचर्य का पालन करने से

विद्यार्थी की बुद्धि तीव्र होती है,

स्मरण शक्ति भी तीव्र होती है,

चहेरे पर ओज, तेज होता है।

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जैसा कि विवेकानन्द जी का कथन है कि

केवल 12 वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य

का पालन करने से

अद्भूत शक्ति की प्राप्ति‍  होती है।

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ब्रह्मचारी/ब्रह्मचारिणी को

स्त्री/पुरूष के रूप लावण्य का

ध्यान नहीं करना चाहिये तथा

स्त्री/पुरूष के गुण, स्वरूप और

सुख का भी वर्णन नहीं करना चाहिये,

स्त्री/पुरूष के चिंतन से दूर रहना चाहिये

विपरित लिंगी स्त्री/पुरूष के साथ

कोई खेल आदि नहीं खेलना चाहिये

स्त्री/पुरूष की और काम-दृष्टि से

बार-बार नहीं देखना चाहिये,

नजर जाये तो हटा लेनी चाहिये,

एकान्त में किसी पर स्त्री/पुरूष के साथ

नहीं रहना चाहिये,

पर स्त्री/पुरूष के मोह-जाल से

दूर रहना चाहिये।

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यानि कि जीवन के उद्देश्य

मुक्ति/परमानन्द/दिव्‍य सुख की प्राप्ति

को प्रतिपल, प्रतिक्षण ध्यान में रखते हुए

विषय-विकार व पाप से विरत रहने के

अभ्यास को प्रगाढ़ करना चाहिये।

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ब्रह्मचर्य का एक अर्थ

खान-पान पर नियंत्रण करना भी है।

ब्रह्मचारी को माँस, अत्यधिक खट्टे या

नमकीन भोजन, बहुत मसालेदार भोजन से

संयम रखना चाहिये 

गांधीजी, एक उत्‍तम ब्रह्मचारी थे,

उन्‍होंने जीवनभर साधारण भोजन ही ग्रहण किया ।

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ब्रह्मचर्य पर विवेकानन्द जी का कथन है कि

उनका एकमात्र लक्ष्‍य ईश्वर से योग था

और इस एकमात्र लक्ष्‍य को पाने के लिये

उन्‍होंने 12 वर्ष तक

अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ।

⚘️

अखण्‍ड ब्रह्मचर्य के पालन से

ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे

मस्तिष्क से एक परदा  हट गया ।

अखण्‍ड ब्रह्मचर्य के पालन करने का

लाभ यह हुआ कि दर्शन जैसे

सूक्ष्म/गुढ विषय पर भाषण/

उपदेश देने के लिए अधिक तैयारी 

करने की आवश्‍यकता नहीं पडती थी 

और अधिक सोचना नहीं  पडता था  ।

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जैसे कि उन्‍हें अगले दिन भाषण/

उपदेश देना हो तो जो भी

उन्‍हें बोलना है वह उनकी

आंखों के सामने बहुत से चित्रों के

रूप में रात को ही दिखाई दे जाता था

और विवेकानन्‍द जी दूसरे दिन

वह सब शब्‍दों में व्‍यक्‍त कर देते थे,

जो कि उन्‍होंने रात्रि को देखा था।

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जो भी बारह वर्ष तक

अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करेगा,

वह अवश्‍य ही  इस शक्ति को पायेगा।

यदि वेदों के कर्मकाण्ड  का आधार यज्ञ है

ताे ज्ञानकाण्ड का आधार ब्रह्मचर्य है।

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लगातार -----6----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-6

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

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ब्रह्मचारी संस्कृत का शब्द है

कामजित् शब्द का पर्यायवाची है

(यानि कि जिसका कामवेग पर पूर्णत:  नियन्त्रण है)

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मनुष्‍य जीवन का लक्ष्य मोक्ष है और

मोक्ष का लक्ष्‍य  पूर्ण संयम अथवा ब्रह्मचर्य

के बिना कैसे प्राप्‍त किया जा सकता है?

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उनके एक शिष्य ने

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का

सैट देखकर  कहा कि

इन समस्‍त पुस्‍तकों को

एक जीवनकाल में पूरा पढ़ पाना

लगभग असंभव ही है।

विवेकानन्‍द जी पूर्व में ही दस खण्ड पढ चुके थे,

अतः विवेकानन्‍दजी ने कहा कि

इन 10  खण्डों में से जो भी पूछना चाहो

पूछ सकते हो और

मैं तुम्हें सबका उत्तर दूँगा।

⚘️

विवेकानन्‍द जी ने  न केवल

उसके भाव को यथावत् बताया,

अपितु प्रत्‍येक खण्ड में से चयनित किये गये

कठिन विषयों की मूल भाषा भी

कई स्थानों पर दुहरा दी।

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शिष्य यह देखकर स्तब्ध रह  गया,

शिष्‍य ने कहा कि यह

साधारण मनुष्य की शक्ति से बाहर है

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ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहं।

सर्वलक्षणहीनत्वं  हन्यते  ब्रह्मचर्यया ॥

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ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके यानि कि

ब्रह्मचर्य की महिमा/महानता को

स्‍वीकार कर उसका पालन करके

मैं असाध्य को साधता हूँ।

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यानि कि ब्रह्मचर्य में वह शक्ति है,

वल बल है, जिसके बल से

असम्‍भव से प्रतीत होते

आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य की प्राप्ति भी

सम्‍भव हो जाती है ।

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ब्रह्मचर्य से सारी लक्षणहीनताएँ

नष्ट हो जाती हैँ।

यानि कि सतत ब्रह्मचर्य के पालन से

अंतत: लक्षण यानि कि

सद्गुुणों की भरमार हो जाती है

और अवगुण नष्‍ट हो जाते हैं

⚘️

शारिरिक व्‍याधि दूर हो जाती है

आत्‍मोउत्‍थान में आ रही बाधायें

दूर हो जाती हैं

विकार मन से निर्वासित हो जाते हें

विषय वासना मन से

निर्वासित हो जाती है

पाप मन से दूर हो जाता है

निष्‍काम सत्‍कर्म ही शेष रह जाता है

 ⚘️

जब तन-मन से ब्रह्मचर्य का

पालन किया जाता है

कुछ ही दिनों में ब्रह्मचर्य की महिमा

चेहरे पर प्रकट होने लगती है।

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जैसे ही ब्रह्मचर्य का संयम

खंडित होता है उसी समय

अंतर मन इस कृत्‍य के लिये

स्‍वयं को दुत्कारने लगता है,

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वास्‍तव में मनुष्‍य ब्रह्मचर्य में

जीना चाहते हैं, लेकिन मनुष्‍य

अपने हारमोनों से हार जाते हैं

⚘️

अपने पूर्वजन्‍मों के संस्‍कारों से

हार जाते हैं चित्‍त में संग्रहित

वासनाओं से हार जाते हैं

और उस शुभ अवस्था को बचाकर

नहीं रख पाते जिसके कारण

तन और मन में उत्‍तम उत्साह रहता है।

⚘️

श्रीमद् भागवत पुराण के

ग्‍यारहवें स्कन्ध, सतरहवें अध्याय के

पच्‍चीसवें श्‍लोक में ब्रह्मचर्य  का उल्‍लेख है

रेतो  नावकिरेज्जातु  ब्रह्मव्रतधरः  स्वयं।

अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु  यतासुस्त्रिपदां  जपेत् ॥

अर्थ -

जिस मनुष्‍य ने ब्रह्मचर्य का

व्रत धारण किया है,

उसे अपना वीर्य (रेतस)  स्वयं

कभी भी नहीं गंवाना चाहिये ।

और यदि कभी वीर्य स्‍वत: ही

बाहर निकल जाये तो

ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करने वाले को

पानी में अवगाहन करना चाहिये,

⚘️

यानि कि पानी से स्‍नान करना चाहिये

और थोड़ा प्राणायाम करके

गायत्री मन्त्र का जाप करना चाहिये।

⚘️

श्रीमद्भागवत का प्रसंग है -

वपुता और धारिणी दो स्त्रियां थी

दोनों ही स्त्रियों के मन में ब्रह्म ज्ञान

प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी,

अतः दोनों स्त्रियों ने संयमपूर्वक

अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया

और अंत में दोनों को मोक्ष प्राप्त हुआ।

⚘️

महाराज पांडु से अंजाने में

एक ऋषि व उनकी पत्‍नी की

सहवास के दौरान मृत्‍यु हो गई थी

ऋषि ने महाराज पांडु को श्राप दिया था

कि जब भी वह स्‍त्री के साथ सहवास करेगा

उसकी मृत्‍यु हो जायेगी।

महाराज पांडु की दो पत्‍नि‍यां थी

कुंती व सती माद्री

दोनों ही ब्रह्मचारिणी थी।

दोनों ने ही अपने पति के

प्राणों की रक्षा के लिये

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था,

लेकिन श्राप के कारण ब्रह्मचर्य के

खंडन करने से महाराजा पाण्डू की

असमय मृत्यु हुई और माद्री भी

उनके साथ सती हो गई थी।

⚘️

हम चाहे किसी ग्रंथ अथवा किसी व्‍यक्ति विशेष को 

माने या नहीं माने लेकिन

अधिकतर शुद्धात्‍माओं ने ब्रह्मचर्य

की महिमा को स्‍वीकार किया है।

ब्रह्मचर्य के बिना आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य असम्‍भव है

कम से कम आधी उम्र व्‍यतीत होने के पश्‍चात् तो

इस पथ पर चलने का अभ्‍यास करना ही चाहिये।

⚘️

लगातार -----7----

सर्वे भवंतु सुखिन:

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ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

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भाग-7

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लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

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महर्षि च्यवन वन में तपस्‍या कर रहे थे

सुकन्या ने भ्रमवश तपस्या कर  रहे

महर्षि च्यवन  की दोनों आंखें फोड़ दी थी,

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अतः उनके पिता ने प्रायश्चित स्वरूप

सुकन्या को महर्षि च्यवन की

सेवा के लिये समर्पित कर दिया था ।

⚘️

सुकन्या महर्षि च्यवन की

पूर्ण लग्न से सेवा करती रही।

⚘️

अश्विनी कुमारों ने सुकन्‍या को

अपने वश में करने के लिये

बहुत से प्रलोभन दिये लेकिन

सुकन्या का मन ब्रह्मचर्य से तनिक भी नहीं डिगा।

अंत में अश्विनी कुमारों  ने प्रसन्न होकर

महर्षि च्यवन को अपने औषधोपचार से

एक अत्यन्त सुन्दर युवक बना दिया।

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पत्नी के लिये पति ही ब्रह्म है,

उस के साथ नियमानुकूल

आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है।

⚘️

वेदवती ऋषिकन्या थी

वह अत्यन्त सुन्दर तथा सुशील थी,

वह पर्ण कुटी में रहते हुए

निरन्तर तपस्या करती थी,

ब्रह्मचर्य के पालन से उसका मन

शुद्ध और दृढ़ हो गया था।

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एक दिन रावण उसी मार्ग से निकला

और उसे देखकर उस पर मोहित हो गया,

उसने उसे बहुत से प्रलोभन दिये

अंत में उसे बलात् भ्रष्ट करना चाहा।

रावण ने वेदवती के लम्बे बालों को

पकड़ कर खेंचना प्रारम्भ किया,

⚘️

इस पर उस तेजस्विनी वेदवती ने

रावण को इस प्रकार झटका दिया कि

शक्तिशाली रावण दूर जा गिरा।

लेकिन पर-पुरूष यानि कि रावण द्वारा

उसके केशों का स्‍पर्श कर लेने मात्र से ही

वेदवती ने स्‍वयं को अपवित्र मानते हुए

अपना शरीर योग द्वारा उत्‍पन्‍न अग्नि में

स्‍वाहा कर दिया

पुराणों के अनुसार वेदवती का

सीता के रूप में जन्म हुआ था

और वही रावण की मृत्यु का

कारण बनी थी ।

⚘️

शंकराचार्यजी ने अपने शिष्‍य

कुमारिल भट्ट से दक्षिणा मांगी थी कि

वह अवैदिक धर्म का खंडन करे और

सनातन धर्म की महिमा का मण्डन करे।

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कुमारिल भट्ट ने अपने गुरू के

वचन को अंतिम श्‍वांस तक निभाया

और अपना सम्‍पूर्ण जीवन

गुरू वचनों के पालन के लिये

समर्पित कर दिया।

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ब्रह्मचर्य से ओतप्रोत

कुमारिल भट्ट का संक्षिप्‍त प्रसंग है -

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कुमारिल भट्ट जी एक गृहस्थ थे,

लेकिन गृहस्‍थ होते हुए भी

उन्‍होंने अपना सम्‍पूर्ण जीवन

ब्रह्मचर्य में ही व्यतीत किया था,

⚘️

कुमारिल भट्ट की पत्नि भी

ब्रह्मचारिणी स्वरूप थी ।

विवाह के उपरान्त कुमारिल भट्ट ने

अपनी पत्नी से कहा कि

प्रिय हमें हमारे गुरू को दक्षिणा चुकानी है

और उनके आदेश का पालन करने के लिये

हम अभी गृहस्थ जीवन जीना नहीं चाहते हैं,

हम पहले वेदों का भाष्य पूरा करना चाहते हैं,

उसके पश्चात् ही हम इस बारे में सोच सकते हैं।

⚘️

कुमारिल भट्ट की पत्नी भी महान थी,

उनकी पत्नी ने पति की आज्ञा को

अंतरमन से, सच्‍चे दिल से स्वीकारा।

⚘️

वेदों का भाष्य पूरा करते करते ही

कुमारिल भट्ट के कुछ बाल सफेद हो गये,

तब उन्हें अपनी पत्नि को जो वचन दिया था

उन्‍हें उस वचन का स्‍मरण हुआ और

उस वचन को पूर्ण  करने के लिये

उन्‍होंने पत्‍नी से कहा,

⚘️

तब उनकी पत्नी ने प्रसन्‍नचित्‍त

होते हुए उत्‍तर दिया कि हे स्वामी

जब हमने इतने दीर्घ समय तक

ब्रह्मचर्य का पालन किया है तो फिर

अब क्यों इस ब्रह्मचर्य के नियम को तोड़ें।

ब्रह्मचर्य के पालन से दोनों ही प्रसन्न थे

कुमारिल भट्ट जी ने अपना

शेष जीवन धर्म के लिये ही व्‍यतीत किया।

⚘️

उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि

यदि पति-पत्नि दोनों ही धार्मिक हों,

तो गृहस्थ में रहते हुए भी

ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है,

अन्यथा दोनों में से कोई भी

एक भ्रष्ट होगा तो गृहस्थ में

ब्रह्मचर्य का पालन  संभव नहीं है।

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ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने पर

दीर्घ आयु प्राप्त होती है, जैसे कि

भीष्म पितामाह, महर्षि व्यास,

वसुदेव, धृतराष्ट्र, श्री कृष्ण, रामानन्द गिरी,

महात्मा कबीर आदि सभी ब्रह्मचर्य के कारण

100 वर्ष से अधिक आयु तक जीवित रहे

गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, योगेश्वरानन्द आदि

80 से 99 की आयु तक जीवित रहे

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ब्रह्मचर्य - जैन धर्म के अनुसार,

ब्रह्मचर्य एक ऐसा सद्गुण है जो

तन मन दोनों को ही पवित्र बना देता है

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जैन मुनि और आर्यिकाओं को

जब दीक्षा दी जाती है तो

यह स्‍पष्‍ट कर दिया जाता है कि

कर्म, विचार और वचन तीनों में ही

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अनिवार्य है।

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ब्रह्मचर्य का अर्थ है तन मन की शुद्धता ।

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ब्रह्मचर्य व्रत का उद्देश्‍य

तन मन को शुद्ध करना है तथा

ब्रह्मचर्य यौन गतिविधियों में भोग को

नियंत्रित करने के लिए

इंद्रियों को नियंत्र‍ित करने के लिये अभ्यास है।

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अविवाहित जैन श्रावको के लिए,

विवाह से पूर्व यौनाचार से

दूर रहना अनिवार्य है ।

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लगातार -----8----

सर्वे भवंतु सुखिन:

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ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

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भाग-8

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लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

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ब्रह्मचर्य के संदर्भ में विचित्र सेन का प्रसंग है

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विचित्र सेन बौद्ध भिक्षु था,

उसके चेहरे पर एक अद्भुत आभा/चमक थी।

विचित्रसेन भिक्षापात्र लेकर

भिक्षाटन के लिये निकला और अंजाने में

नगरवधू देवयानी के निवास स्‍थान से गुजरा।

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देवयानी अत्‍यंत सुन्दर थी,

राजकुमार, धनवान, व्यापारी, योद्धा इत्यादि

सभी उसकी और आकर्षित थे,

सभी की आंखों में उसके प्रति वासना थी।

⚘️

देवयानी की दृष्ट‍ि अचानक विचित्र सेन पर पडी और

देवयानी ने देखा कि उसने अनेकों  पुरुषों को देखा था

लेकिन विचित्रसेन सभी से अलग था,

हाथ में भिक्षा पात्र था, फटा हुआ चीवर था,

सिर मुंडा हुआ था, लेकिन

उसके चेहरे की आभा अद्भूत थी।

चेहरे पर शांति थी, सौम्‍य मुस्‍कान थी और

⚘️

देवयानी विचित्रसेन के सामने आकर खडी हो गई,

विचित्रसेन रूक गया।

देवयानी उसे अपलक निहारती रही ।

देवयानी ने ऐसा सौंदर्य नहीं देखा था

⚘️

विचित्र सेन ही एकमात्र ऐसा था,

जो उसकी ओर आकर्षित नहीं था,

जिसकी आंखों में वासना नहीं थी।

⚘️

देवयानी ने विचित्रसेन को प्रणाम किया और

अपना परिचय दिया और वर्षाकाल में

उसके यहां निवास करने का निमंत्रण दिया। 

⚘️

विचित्रसेन ने कहा देवी

मुझे तथागत से आज्ञा लेनी होगी ।

आप कल तक मेरी प्रतीक्षा करे,

अगर वो आज्ञा देंगे तो

मैं जरुर आपका आतिथ्य स्वीकारूंगा

⚘️

विचित्रसेन ने सम्‍पूर्ण वृतांत तथागत को सुनाया

और भगवान बुद्ध ने आज्ञा दे दी।

⚘️

देवयानी ने चार माह के लिये

नगरवधु के कार्य को त्‍याग दिया। ,

⚘️

विचित्रसेन  देवयानी के घर पहुचां ।

घर उसके स्‍वागत के लिये सजाया गया था,

अनेकों सुगंधों से महक रहा था।

⚘️

देवयानी ने अलंकारों आभूषणों से सुसज्‍जित होकर

विचित्रसेन का सुन्‍दर फूलों के हार से स्‍वागत‍ किया।

विचित्र सेन ने कहा मुझे  आपके निवास में

चार माह बिताने की आज्ञा तथागत ने दे दी है।

देवयानी ने विचित्र सेन के स्‍वागत सत्‍कार का

अतुलनीय प्रबंध किया था,

जिसे देखकर विचित्र सेन ने कहा कि

आपके स्‍वागत सत्‍कार के लिये आपका धन्‍यवाद,

लेकिन मैं एक भिक्षु हूँ मुझे इस तरह के

स्‍वागत सत्‍कार की आवश्‍यकता नहीं है

⚘️

देवयानी ने चार माह तक विचित्र सेन को

रिझाने का आकर्षित करने का प्रयास किया और

विचित्र सेन देवयानी को प्रतिदिन बुद्ध उपदेश सुनाते रहे।

⚘️

दुसरे भिक्षु , विचित्रसेन की बुद्ध से शिकायत करते कि

देवयानी विचित्र सेन को इत्रो से सुगंधित करती है,

पकवान खिलाती है, अपनी गोद में सुलाती है, 

नृत्य करती है।  भगवान  बुद्ध ने

शिकायतकर्ताओं से कहा कि

वर्षा ऋतु  समाप्‍त होने के बाद

सत्‍यता ज्ञात हो जायेगी। 

⚘️

वर्षा ऋतु समाप्ति के अगले दिन विचित्रसेन ने

प्रात: ध्‍यान करके अपने नेत्र खोले तो देखा कि

देवयानी उसके सामने

भिक्षुणी का वेश धारण करके बैठी हुई है।

⚘️

देवयानी ने कहा मैं भी आपके साथ चलूंगी,

मैं हार गयी और आप जीत गए

⚘️

विचित्रसेन ने भगवान बुद्ध को झुककर प्रणाम किया 

और कहा कि आपकी आज्ञा और

देवयानी की इच्छा के अनुसार

वर्षा ऋतु के चार माह व्यतीत किए हैं,

देवयानी भी आपके संघ में शामिल होने आई है।

⚘️

देवयानी ने कहा कि विचित्रसेन ने

4 माह तक मेरे निवास स्‍थान पर मेरे साथ वास किया।

मैंने चार माह तक विचित्रसेन को आकर्षित

करने का हर सम्‍भव प्रयास किया,

सजना, संवरना, नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर

विचित्र सेन पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पडा। 

हजारों पुरूष मेरे सम्‍पर्क में आये,

पुरूष की मनोस्थिति से मैं वाकिफ हूं,

पुरूष के लिये सुंदर स्त्री के प्रति गहरी

आसक्ति/आकर्षण होता है,

संसारी लोगों के लिये काम सुख से बडा

कोई अन्‍य सुख नहीं होता,

लेकिन विचित्रसेन इस आकर्षण से विरत है,

विचित्र सेन ने जो सुख पाया है

वह इस काम सुख से भी बढकर है,

⚘️

मैं भी उस दिव्‍य सुख को पाना चाहती हूं

जो क्षणिक नहीं हो,

क्षणभर में समाप्‍त होने वाला नहीं हो,

जिसके आगे सभी सुख तुच्‍छ हैं।

⚘️

भगवान बुद्ध ने देवयानी को दीक्षा दी ।

विचित्र सेन ने शीष भगवान बुद्ध के चरणों में रखा।

⚘️

भगवान बुद्ध ने विचित्रसेन को उठाया और

गले से लगा लिया। यह दृश्‍य देखकर

सभी भिक्षुओं की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी,

अब किसी को कोई शिकायत नहीं थी,

अपितु विचित्र सेन सबके लिये

प्रेरणा का स्रोत बन गया ।

⚘️

कामवासना एक ऐसी वासना है

जो जन्‍म जन्‍मांतरों से मनुष्‍य के

चित्‍त मन में समाहित है

इस संबंध में ययाति का प्रसंग है -

⚘️

लगातार -----9----

सर्वे भवंतु सुखिन:

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ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

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भाग-9

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लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

ययाति के जीवन का एक प्रसंग यही दर्शाता है कि

कामवासना से निवृत्ति अत्‍यंत कठिन कार्य है

यह प्रसंग तर्क की कसौटी पर तो नहीं है,

लेकिन प्रेरणादायक है।

⚘️

राजा ययाति शुक्राचार्य के श्राप से

युवावस्था में ही वृद्ध हो गये थे ।

⚘️

ययाति के प्रार्थना करने पर

शुक्राचार्य ने दया करते हुए

ययाति को यह शक्ति दे दी कि

यदि वह चाहे तो अपने  पुत्रों से

युवावस्था लेकर बदले में

अपनी वृद्धावस्‍था उन्हें दे सकते हैं ।

⚘️

तब ययाति ने अपने पुत्र

यदु, तर्वसु, द्रुह्यु और अनु से

यौवन मांगा, लेकिन वे राजी न हुए ।

⚘️

अंत में छोटे पुत्र पुरु ने पिता को

यौवन देकर बुढ़ापा ले लिया ।

⚘️

ययाति ने पुनः युवा होकर

पुन: भोग भोगना शुरु कर दिया  ।

⚘️

ययाति नन्दनवन में विश्वाची अप्सरा

के साथ भोग करने लगे।

⚘️

इस तरह 1000 वर्ष तक

भोग भोगने के बाद भी

ययाति भोगों से संतुष्ट नहीं हुए

तो उन्‍हें अपनी गलती का अहसास हुआ

और अपना बचा हुआ यौवन

अपने पुत्र पुरु को लौटाते हुए कहा :

⚘️

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||

 ⚘️

“पुत्र ! मैंने तुम्हारा यौवन लेकर

अपनी रुचि, उत्साह और समयानुसार

विषयों का सेवन किया लेकिन

विषयों की कामना विषय भोग से

कभी शांत नहीं होती, अपितु

जिस तरह घी की आहुति पड़ने पर

अग्नि अधिकाधिक तीव्र/प्रचंड होती है

उसी तरह इन्द्रियों का भोग करने पर

भोग की इच्‍छा और प्रबल होती जाती है ।

⚘️

रत्नों से जड़ी हुई सारी पृथ्वी,

संसार का सारा सुवर्ण, पशु और

सुन्दर स्त्रियाँ यह सब एक पुरुष को

मिल जायें तो भी यह सब

उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे ।

अतः तृष्णा का त्याग करना ही श्रेष्‍यस्‍कर है।

⚘️

अल्‍प बुद्धिवाले लोगों के लिए

इन्द्रियों के भोगों का त्याग करना

एक अत्यंत ही कठिन कार्य है,

इन्द्रिय के भोगों की तृष्‍णा मनुष्य के

बूढ़े होने पर भी कभी बूढ़ी नहीं होती

तृष्‍णा एक प्राणान्तक रोग है

तृष्णा को त्यागने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है ।

⚘️

ययाति ने पुत्र से कहा कि  : -

मैंने 1000 वर्ष विषयों को भोगने में

व्‍यतीत किये, तब भी तृष्णा शांत नहीं हुई 

आज भी प्रतिदिन विषयों के लिये

मन में तृष्णा उत्‍पन्‍न होती है ।

 ⚘️

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः । 

तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वभिजायते ।।

⚘️

हे पुत्र, इसलिए अब मैं विषयों का त्‍याग कर

ब्रह्माभ्यास में ही अपना मन लगाऊँगा ।

निर्द्वन्द्व तथा ममतारहित होकर

यानि कि मन में चल रहे

इन्द्रियों के भोगों के संग्राम के चिंतन से

अनासक्‍त होकर वन में

मृगों के साथ विचरूँंगा ।

तुम्हारा कल्‍याण हो पुत्र,

मैं तुम से प्रसन्न हूँ ।

⚘️

अब तुम अपना यौवन पुनः

वापस प्राप्त करो और

यह राज्य भी मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ ।

⚘️

ययाति ने पुत्र पुरु को राज्य देकर

तपस्या हेतु वनगमन किया ।

⚘️

ययाति की जीवन यात्रा कामुकता

से प्रारम्‍भ होती है और

ब्रह्मचर्य पर समाप्‍त होती है 

⚘️

जैसा कि दोहा है

सुखकारी और सुन्दर नारी,

रूप अजब मन भाया रे।

जीवन ठगनी मोह माया ने

कैसा जाल बिछाया रे।

⚘️

लेकिन यह कथन केवल

स्त्रीयों पर ही नहीं अपितु

पुरूषों पर भी लागू होता है।

⚘️

जैसे कि पद्ममिनी के रूप के आकर्षण के कारण

अलाउद्दीन खिलजी ने पता नहीं

कितने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

⚘️

इसी तरह सूर्पनखा ने

श्रीराम और श्री लक्ष्मण के रूप से

आकर्षित होकर उनसे

विवाह करने का प्रयास किया।

⚘️

इसी तरह नगरवधू वासवदत्ता का मन

भिक्षु उपगुप्त के आकर्षण में फंसा।

⚘️

इसी तरह नगरवधू देवयानी का मन

भिक्षु विचित्रसेन के आकर्षण में फंसा

⚘️

इसी तरह प्रकृति का मन

भिक्षु आनन्द के आकर्षण में फंसा।

⚘️

यानि के इस संसार के

अधिकतर मनुष्‍यों के मन को

स्त्री/पुरूष का रूप अत्‍यधिक

आकर्षित करता है और

जैसे ही किसी स्‍त्री के नेत्रों के समक्ष

किसी पुरूष का चेहरा आता है अथवा

किसी पुरूष के नेत्रों के समक्ष

किसी स्‍त्री का चेहरा आता है

तो नेत्राें का चेहरे/शक्‍ल से सम्‍पर्क होते ही

मन में विचार की तरंगे उत्पन्न हो जाती है

मन चिंतन करना प्रारम्‍भ कर देता है

यदि स्त्री/पुरूष का चेहरा सुंदर हो तो

मन  सुंदरता के  चिंतन  में खो जाता है

⚘️

लगातार -----10----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-10

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

भगवान बुद्ध से मिलने आम्रपाली आयी

आनन्द ने उनका अनुपम रूप/सौन्दर्य देखकर

अपनी आंखों को झुका लिया और

फिर भगवान बुद्ध की ओर देखा

भगवान बुद्ध निर्वासना रूप से

बिना नजर झुकाये

आम्रपाली को उपदेश दे रहे थे।

⚘️

आम्रपाली के जाने के बाद

आनन्द ने इस रहस्य को जानना चाहा

⚘️

भगवान बुद्ध ने कहा कि

इस संसार के लोग केवल रूप को देखते हैं,

उसकी अनित्‍यता, उसकी क्षणभंगुरता को कोई नहीं देखता

मनुष्‍य रूप को नित्‍य/सत्‍य मानते हुए जीते हैं

जबकि सब कुछ प्रतिक्षण/प्रतिपल

परिवर्तित हो रहा है

इस परिवर्तनशीलता के कारण ही

वृद्धावस्‍था आती है और

चेहरे पर झुर्रियां पड जाती है

रूप के पीछे छिपी हुई  गंदगी

मनुष्‍यों  को नजर नहीं आती

रूप को अपरिवर्तनशील मानकर जीने वाले

रूप के आकर्षण में बह जाते हैं।

⚘️

जो भी महान शुद्ध आत्‍माओं की तरह

अनित्‍य परिवर्तनशील को

अनित्‍य परिवर्तनशील  मानते हुए

अनित्‍य परिवर्तनशील से

आसक्ति रहित होकर जीता है

उसे किसी भी शक्‍ल/पदार्थ का

आकर्षण आसक्‍त नहीं कर पाता है

⚘️

शरीर अनित्‍य है,

मनुष्‍य शिशु अवस्‍था में जन्‍म लेता है

शरीर आकृति परिवर्तित होती है

आकृति युवक में परिवर्तित हो जाती है

फिर आकृति वृद्ध में परिवर्तित हो जाती है

और अंतत: मृत्‍यु के साथ ही

अग्नि, मिट्टी के सम्‍पर्क से

आकृति पंचतत्‍व में विलीन हो जाती है

⚘️

आत्मा का कोई लिंग नहीं होता।

जो वर्तमान में स्त्री है

अगले जन्म में वह पुरूष के रूप में जन्‍म ले सकती है

और जो वर्तमान मेंं पुरूष है

वह अगले जन्‍म में स्त्री के रूप में जन्म ले सकता है।

⚘️

माया/भ्रम/अज्ञान के कारण ही अधिकतर मनुष्‍य

इस सत्य को स्वीकार नहीं करते कि

चाहे शरीर विभेद से स्त्री और पुुरूष

अलग-अलग दिखाई देते हैं लेकिन

दोनों की आत्मा में कोई अंतर नहीं।

⚘️

जो ज्ञान के अनुसार नित्‍य अव‍िनाशी तत्‍व

को ध्‍यान में रखकर जीते हैं

उन्हें माया नहीं ठग पाती है

जैसे कमल पानी में रहता है

लेकिन उसे पानी नहीं छूता

उसी तरह सत्‍य ज्ञान से संयुक्‍त

मनुष्‍यों के मन को सांसारिक

शक्‍ल/पदार्थ नहीं छू पाते ।

और जिसके मन से सांसारिक पदार्थ/शक्‍ल निर्वासित हो जाते हैं

वह स्‍वत: ही ब्रह्मचर्य में स्‍थापित हो जाता है।

⚘️

अनित्य/परिवर्तनशील/माया के आकर्षण के कारण ही

मनुष्य को  जन्म मरण के चक्र में  बंधना पड़ता है।

⚘️

आकर्षण पर शुद्धात्‍माओं का कथन है कि

जिसके मन का जिससे भी आकर्षण होगा

वह  मृत्यु के पश्चात वहीं पहुंच जायेगा।

यानि कि यदि मनुष्‍य का मन

नश्‍वर सांसारिक पदार्थ/शक्‍लों की

कामना वासना से आसक्‍त है तो नश्‍वर

सांसारिक पदार्थ/शक्‍लों के भोग की कामना ही

पुनर्जन्‍म का कारण बनती है और यदि

मन नश्‍वर/अनित्‍य से अनासक्‍त हो जाता है

तो जन्‍म मरण के चक्र के बंधन से मुक्‍त हो जाता है

गीता का वचन है

अंत मति सो गति

यानि अंतिम समय में मन में 

जो भी चिंतन चल रहा है,

जिसका भी चिंतन चल रहा है

उसी के अनुसार बंधन अथवा मुक्ति

निश्चित होती है।

⚘️

एक बहुत प्रसिद्ध वैद्य थे,

उनका कहना था कि एक वर्ष तक

तन, मन से  ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए

नियमित रूप से औषध का सेवन करने से

भयंकर रोग भी नष्ट हो सकता है,

इस उपचार विधी का उन्होंने

बहुत से रोगियों पर प्रयोग किया और

इस विधि से रोगोपचार करने में

उन्‍हें सफलता हासिल हुई।

वे नाड़ी का स्‍पर्श करके ही

वीर्यनाशक पुरूष को जान लेते थे

ऐसे व्यक्ति को वे औषधि नहीं देते थे।

वीर्य क्षय से धातु रोग, रक्तविकार,

शिरोरोग, दृष्टिहीनता, अजीर्ण,

कोष्ठबद्धता, ग्रन्थि, वात, पक्षाघात,

मन्दाग्नि आदि व्‍याध्यिां उत्‍पन्‍न होती हैं।

⚘️

लगातार -----11----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-11

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

हातिमताई की कहानी में भी

ब्रह्मचर्य से जुडा 1 प्रश्‍न है कि

वह कौन सी चीज है

जिसे एक बार देखा है,

दूसरी दफा देखने की आरजू है! 

⚘️

प्रसंग तर्क की कसौटी पर तो नहीं है

लेकिन प्रेरणादायक है -

⚘️

एक अति सुन्‍दर स्‍त्री श्राप से ग्रसित थी कि

जब कोई पुरूष उसकी सुन्‍दरता के

आकर्षण में नहीं फसेगा और

उसे ठुकरा देगा तभी वह

श्राप से मुक्‍त हो पायेगी।

⚘️

वह अत्‍यंत सुंदर और आकर्षक थी कि

जो भी पुरूष उसके सम्‍पर्क में आया

उसके आकषर्ण से नहीं बच सका 

जो भी उसके आकर्षण में फंसता था 

उसका सर धड से अलग होकर

एक पेड पर लटक जाता था,

⚘️

आश्‍चर्य तो यह है कि सर धड

से जुदा होने के बावजूद भी

बिना धड के लटके हुए सिरों  की

जिव्‍हा से बार-बार यही शब्‍द निकलता था कि

एक बार देखा है,

दूसरी दफा देखने की आरजू है।

⚘️

हातिमताई एक सच्‍चा पवित्र

नेक दिल इंसान था, उसका

सामना भी उस स्‍त्री से हुआ,

लेकिन हातिमताई उसके

आकर्षण में नहीं फंसा और

हातिमताई ने उस रूपवती की

वासना को पहचानते हुए

उसे परे धकेल दिया और

ऐसा करते ही वह स्त्री

श्राप से मुक्‍त हो गई।

⚘️

इस कहानी का संदेश है

कि मनुष्‍य की मृत्‍यु यदि भोग

विषय वासना से संयुक्‍त

चित्‍त दशा के साथ होती है

तो इस चित्‍त दशा के कारण आत्‍मा

जन्‍म लेकर भोग भोगने के लिये

तडपती रहती है

जो पवित्र होता है तो उसकी पवित्रता ही

उसकी मुक्ति का माध्‍यम बन जाती है

⚘️

⚘️

काम को कुटिल

मृगतृष्णा के समान बताया गया है ।

⚘️

मृगतृष्‍णा

जैसे कि रेगिस्‍तान में भटका हुआ मृग

अपनी प्‍यास बुझाने के लिये

पानी की तलाश करता है

सूर्य के प्रकाश के कारण उत्‍पन्‍न हुए

भ्रम के कारण मृग को दूर से

रेत भी पानी जैसी प्रतीत होती है

लेकिन उस स्‍थल तक पहुंचने के बाद

उसे पानी नहीं मिलता केवल रेत ही रेत दिखाई देती है

प्रकाश के कारण उसे फिर दूर पानी दिखाई देता हुआ प्रतीत होता है

फिर वहां पहुंचता है लेकिन पानी नहीं मिलता

और इस तरह निरंतर प्‍यास से व्‍याकुल होकर भागने से

मृग प्‍यासा ही अपने प्राण त्‍याग देता है

मनुष्‍य का मन नश्‍वर पदार्थों को

प्राप्‍त करने के लिये अंतिम सांस तक

इस संसार रूपी रेगिस्‍तान में

दोडता रहता है, लेकिन

इन्द्रियों के सुख की कामना

कभी पूरी नहीं होती और

यही अतृप्‍त कामना

बंधन का कारण बनती है,

जन्‍म मरण के चक्र में बंधने का

कारण बनती है।

⚘️

अंतर इतना है कि मृग को तो रेगिस्‍तान में

पानी नहीं नसीब होता है लेकिन मनुष्‍य को तो

इस संसार में उसका मनचाहा

ना जाने कितनी ही बार प्राप्‍त हो जाता है,

लेकिन फिर भी मनुष्‍य का मन

कभी तृप्‍त नहीं होता और इसीलिये

अधिकतर मनुष्‍यों के मन में 

समाहित तृष्‍णा रूपी प्‍यास कभी नहीं बुझती

⚘️

आध्‍यात्‍म के अनुसार

मनुष्‍य ही वह मृग है जो इन्द्रियों के भोगों के पीछे

जन्‍म जन्‍मांतरों से व्‍याकुल है और

इन्द्रियों के भोगों की यह प्‍यास यह व्‍याकुलता

जन्‍म जन्‍मांतरों में भी समाप्‍त नहीं होती

कोई विरला ही ज्ञान के सम्‍पर्क में आने पर

और ज्ञान पथ पर चलने पर

इस तृष्‍णा से मुक्‍त हो पाता है और

जिसका मन इन्द्रियों के भोगों से उपराम हो जाता है

उसका मन स्‍वत: ही ब्रह्मचर्य में स्‍थापित हो जाता है

इन्‍द्रजाल/मायाजाल से मुक्‍त हो जाता है

जीते जी ही जीवन मुक्‍त बन जाता है।

⚘️

यम नियम और ब्रह्मचर्य का संबंध

⚘️

जो सात्विक है, सदाचारी है

सत्‍यवादी, सत्‍यमानी, सत्‍यकारी है

ऐसा मनुष्‍य ही ब्रह्मचर्य व्रत को

धारण कर सकता है

⚘️

जब तक कोई हिंसक से

अहिंसक नहीं बनता

तब तक ब्रह्मचर्य व्रत की

पालना असम्‍भव है

अहिंसक ही पूर्णतया ब्रह्मचर्य की

पालना कर सकता है

⚘️

एक बेईमान, चोर, लूटेरा, डाकू,

छली, कपटी जब तक 

बेईमान से ईमानदार नहीं बनता,

चोरी, लूटपाट, डकैती जैसे

दुष्कृत्‍यों से विरत होकर

त्याग भाव मन में उत्‍पन्‍न नहीं करता

मन से छल-कपट का त्‍याग नहीं करता

तब तक ब्रह्मचर्य में समाहित नहीं हो सकता है

⚘️

जब तक मन पर स्‍त्री/पुरूष के

चिंतन से विरत नहीं होता  और

आधी उम्र व्‍यतीत होने पर

इस संसार में विद्यमान समस्‍त

नश्‍वर पदार्थ/शक्‍लों के चिंतन से

मन विरत नहीं होता तब तक

ब्रह्मचर्य में मन समाहित नहीं हो सकता है

⚘️

जब तक मन में

सांसारिक पदार्थों का चिंतन चलता है,

व्‍यर्थ के विचारों का चिंतन चलता है

तब तक मन  ब्रह्मचर्य में पूर्णतया

समाहित नहीं हो पाता है

लगातार -----12----

सर्वे भवंतु सुखिन:

⚘️

ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन)

⚘️

भाग-12

⚘️

लेख का उद्देश्‍य पवित्रता हेतु प्रेरित करना है

ब्रह्मचर्य/पवित्रता ही धर्म की आधारशिला है

आधी उम्र संयमपूर्वक भोग व योग  हेतु है

शेष आधी उम्र मुक्ति/मोक्ष हेतु है।

⚘️

जब तक मन शुद्ध नहीं होता

जब तक मन पवित्र नहीं होता

तब तक मन ब्रह्मचर्य में

पूर्णतया समाहित नहीं हो पाता है

⚘️

जब तक मन से असंतोष का भाव

निर्वासित नहीं होता और

मन संतोषी नहीं होता

तब तक मन ब्रह्मचर्य में पूर्णतया

समाहित नहीं हो पाता है

⚘️

जब तक मनुष्‍य अपने माता-पिता

गुरू, अथिति व स्‍वयं पर

आश्रितों के प्रति अपने कर्तव्‍य का

निवर्हन नहीं करता तब तक

किसी अपवाद को छोड दें

तो मन में ब्रह्मचर्य पूर्णतया

समाहित नहीं हो पाता है

⚘️

जब तक मनुष्‍य अपने मन में

चल रहे विचारों का साक्षी बनकर

सत्‍कर्मी नहीं बनते

सकाम से निष्‍काम सत्‍कर्मी नहीं बनते

तब तक मन ब्रह्मचर्य में पूर्णतया

समाहित नहीं हो पाता है

⚘️

सत्‍कर्म में ही एश्‍वर्य निहित है

निष्‍काम सत्‍कर्म में मुक्ति न‍िहित है और 

यही ईश्‍वर के प्रति सच्‍चा समर्पण है

⚘️

यही उस परम की सच्‍ची भक्ति है

⚘️

निष्‍काम सत्‍कर्मी  ही निष्‍काम प्रेम

में समाहित हो पाते हैं

⚘️

निष्‍काम प्रेम यानि कि जिस प्रेम में

बदले में कुछ पाने की चाह नहीं हो

⚘️

जैसा प्रेम उपगुप्‍त के मन में

वासवदत्‍ता के लिये था

ऐसा प्रेम ही ब्रह्मचर्य में समाहित

होने का माध्‍यम होता है

⚘️

यानि कि ऐसे प्रेम में ना राग होता है

ना ही द्वैष भाव ही होता है

मन में सबके भले की कामना होती है

निष्‍काम प्रेमी, निष्‍काम सत्‍कर्मी ही

ब्रह्मचर्य में समाहित होता है

⚘️

ब्रह्मचर्य मुक्ति कारक होता है और

व्‍याभिचार बंधन कारक होता है

⚘️

सारांश

⚘️

ब्रह्मचर्य के पालन से अपूर्व

बल, बुद्धि, स्मृति, तेज, ओज व शक्ति

आदि की प्राप्ति होती है।

⚘️

आरती मैं भी ब्रह्मचर्य का संदेश है

इसीलिए आरती कहती है कि

विषय विकार पाप से मुक्त होने पर ही

ध्यान के माध्यम से आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त होता है

⚘️

जितनी भी शुद्ध आत्माएं इस संसार में अवतरित हुए हैं

सभी शुद्ध आत्माएं विषय विकार व पाप से मुक्ति थी

⚘️

बौद्ध धर्म व जैन धर्म की दृष्टि से

विषय विकार पाप रहित

शुद्ध व पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है,

जैसा कि दोनों ही महापुरूषों के जीवन में

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह रूपी विकारों का

एक भी लक्षण विद्यमान नहीं था,

दोनों ही अत्यंत पवित्र थे।

दोनों के अनुसार अनासक्त

पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है।

⚘️

अन्य अनेको धर्मों/मतों में

प्रभू/परमात्‍मा/परमेश्‍वर/अदृश्‍य शक्ति का

ध्यान करते हुए, उनके नाम का स्मरण करते हुए

अदृश्‍य शक्ति को हर पल हर क्षण स्‍मरण रखते हुए

सत्मार्ग पर चलना,

विषय-विकार से मुक्त होकर

निष्पाप जीवन व्यतीत करना या

ऐसा विषय-विकार रहित जीवन

व्यतीत करने का दृढ़ता से

अभ्यास करना ही ब्रह्मचर्य है,

क्योंकि जब भी कोई दुष्‍कर्म करता है

दुष्‍कृत्‍य करता है उस समय

नाम स्‍मरण भंग हो जाता है

अदृश्‍य शक्ति का स्‍मरण रूक जाता है 

सात्‍विकता का स्‍थान तामसिकता ले लेती है

⚘️

यानि कि सत्‍कर्म ही उसकी बंदगी है

दुष्‍कर्म ही गुरू वचनों की ज्ञान की अवज्ञा है

⚘️

मनुष्‍य के जीवन में एक दिन ऐसी स्थिति आ जाती है कि

वह भोग भोगने लायक नहीं रहता

कम से कम ऐसी स्थिति में तो

सच्‍चे मन से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये

क्‍योंकि ब्रह्मचर्य के पालन बिना

मुक्ति/मोक्ष/कैवल्‍य/निर्वाण अथवा

परमात्‍म अनुभूति सम्‍भव नहीं है

⚘️

सबका भला हो







ब्रह्मचर्य

मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/प्रभू साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य (वीर्यरक्षण  / वेदाध्ययन (सद्ग्रंथों का अध्ययन) / ईश्वरचिन्तन या ध्यान) अनिवार्य शर्त है।

आरती ऊँ जय जगदीश हरे की प्रश्न स्वरूप पंक्ति किस विधि मिलूं दयामय भी इसकी पुष्टि करती है, जिसका उत्तर भी उसी में बताया गया है विषय-विकार (इन्द्रियों के भोग व काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) मिटाओ पाप हरो देवा। अर्थात् मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण के लिये विषय-विकार से मुक्त होना व निष्पाप होना अनिवार्य शर्त है।


इतिहास साक्षी है कि जिसने ब्रहचर्य का पालन किया है तथा जो विषय-विकार से दूर रहता हुआ निष्पाप रहा है उसने ही उस परमानन्द/मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-मरण से मुक्ति पायी हैः- जैसे कि शंकराचार्यजी, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द, राम कृष्ण परमहंस जी, स्वामी विवेकानन्द, जैमल सिंह जी आदि (ये सभी आत्मायें विषय-विकार से दूर थीं तथा निष्पाप थीं)
अथार्त जो विषय-विकार व पाप में लिप्त है वह ब्रह्मचारी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिस समय वह विषय-विकार व पाप से ग्रस्त होगा उस समय वह ब्रह्म से दूर होगा या उसे भूला होगा।

ब्रह्मचर्य दो शब्दों ब्रह्म व चर्य के योग से बना है,
ब्रह्म के भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक अर्थ होते हैं जैसे ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म, गुरू, सुख, सत्य, ज्ञान
चर्य का अर्थ  चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन, सेवा, ध्येय, साधना और कार्य आदि

ब्रह्मचर्य की महिमा

ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां, वीर्य लाभो भवत्यपि, सुरत्वं मानवो याति, चान्ते याति परां गतिम्।

भावार्थः ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है, ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है और साधना पूरी होने पर परमगति (मोक्ष) भी उसे मिलती है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से करोड़ों ऋषि ब्रह्मलोक में वास करते हैं।

हेमचन्द सूरि जी का कथन है किः-
जो लोग विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वे दीर्घायु, सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्तव्य, तेजस्वितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं। ब्रहर्मचर्य सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है, इसका पालन करता हुआ मनुष्य, सुपूजित लोगो में भी पूजा जाता है।

धन्वन्तरि जी का कथन है किः-
मैं इस बात को तुम लोगों से सत्य-सत्य कहता हूं कि मरण रोग तथा वृद्धता का नाश करने वाला अमृत रूप और बहुत बड़ा उपचार मेरे विचार से ब्रह्मचर्य है।

जे शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, स्वास्थ्य और उत्तम सन्तति चाहता है, वह संसार में सर्वोत्तम धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करें (अर्थात् जैस कि श्री कृष्ण जी ने उत्तम सन्तान की उत्पत्ति हेतु 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण किया था, यानी कि केवल सन्तान उत्पत्ति हेतु ब्रहचर्य का खंडन भी ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं है)। ब्रह्मचर्य से सब प्रकार का अशुभ नष्ट हो जाता है।

तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं, ब्रह्मचर्यणानुविन्दते, तेषामेवेष, ब्रह्मलोकस्तेषाः सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति - छान्दोग्यापनिषद
भावार्थः ब्रह्मचर्य से ही ’ब्रह्मलोक मिलता है। ब्रह्मचारियों का ही ब्रह्मलोक पर अधिकार है अन्य का नहीं। जो ब्रह्मचर्य युक्त पुरूष हैं वे सभी लोको में विचरण कर सकते हैं। जैसा कि उपनिषद में कहा गया है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में वहीं इस पिण्ड अर्थात शरीर में भी है। अतः ब्रह्मलोक सब लोको मे श्रेष्ठ है वह इस पिण्ड में सबसे उपर मस्तिष्क में है, प्राणों के वहां पहुंचने से जीव का मोक्ष होता है। उसे फिर दुखों से मुक्ति मिल जाती है, इसलिये ब्रह्मलोक का आशय है, परमानन्द। ब्रह्मचर्य से ही आत्मज्ञान प्राप्त होता है, आत्म ज्ञान के पश्चात् ही परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है।

ब्रह्मर्चेण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत - अथर्ववेद
ब्रह्मचर्य रूपी तप से देवों को अमरता प्राप्त हुई।                                                                                                        

अथर्ववेद में कहा गया है किः - आचार्या ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छते।  अर्थात् जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है ऐसा गुरू ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले शिष्यों का हित कर सकता है कामी गुरू नहीं जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति ना होय, भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोई।

जैसा कि रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा है जहां काम है वहां राम नहीं। अर्थात् ब्रह्चर्य का पालन करने अथवा पालन करने का अभ्यास करने वाले शिष्यों को ही मंजिल प्राप्त हो सकती है अन्यों को नहीं।

प्रश्नोपनिषद में एक कथा है कि कबन्धी और कात्यायन ब्रह्मज्ञान की शिक्षा के लिये ऋषिवर पिप्पलाद के आश्रम में गये और उनसे ब्रह्मज्ञान देने के लिये निवेदन किया। पिप्पलाद ने कहा कि आप दोनों  एक वर्ष तक नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हमारे पास रहें, उसके पश्चात् जो प्रश्न चाहोगे पूछ लेना हम भी यथाशक्ति तुम लोगो को समझायेंगे। अर्थात गुरू से आत्म/ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य आवश्यक है।    

भगवान शंकर का वचन - न तपस्तप इन्याहुर्बह्मचर्य तपोत्तमम्। उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु से देवो न तु मानुषः।।

तप कुछ भी नहीं है, ब्रहचर्य ही उत्तम तप है, जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया है वह देव स्वरूप है, मनुष्य नहीं।

एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य तथैकतः - छान्दोग्योपनिषद

एक और चारों वेद तथा दूसरी और ब्रह्मचर्य दोनों एक तुला पर रखे जायें तो दोनो पलड़े बराबर होंगे। अर्थात् एक ब्रह्मचर्य ही चारों वेदों के बराबर है।

तेषामेवैष स्वर्गलोको येषां तपो ब्रहचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठिम्। - प्रश्नोपनिषद

उन्हीं जनों को स्वर्ग-सुख मिलता है, जिन्होंने ब्रह्मचर्य तप का पालन किया है और जिनके हृदय में ब्रह्मचर्य रूपी सत्य विराजमान है।

ब्रह्मचर्य का पालन करना योग्य है। देवों क लिये भी ब्रह्मचर्य दुर्लभ है, वीर्य की रक्षा भली भांति होने पर सब लोको के सुखों की सिद्धियां स्वयं मिल जाती है।

भीष्म पितामाह ने महाभारत में कहा है कि जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है, उसे इस संसार में कुछ भी दुःख नहीं होता। उसके लिये कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं।

श्री कृष्ण जी ने कहा है कि ब्रह्मज्ञान के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य बहुत शीघ्र ही परमानन्द का अधिकारी होता है।

शंकाराचार्य जी ने कहा है कि ऋत ज्ञानान्न मुक्तिः, अर्थात् ब्रह्मज्ञान के बिना किसी की मुक्ति नहीं हो सकती
शंकाराचार्य जीने कहा है कि जो विषयों में लिप्त है वह बंधा हुआ है तथा जो विषयों से अलिप्त है वह मुक्त है। वही महाशूर है, जो कामदेव के बाणों से व्यथित  न हुआ हो।

जो लोग अकाल मृत्यु से मरते हैं व मोक्ष के अधिकारी नहीं हाते हैं। अकाल मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक है।

मनुष्य बिना ब्रह््मचर्य धारण किये हुए कदापि पूर्ण आये वाले नहीं हो सकते - ऋग्वेद

ब्रह्मचर्य का पालन ब्रह्मपद का मूल है, जो अक्षय-पुण्य को पाना चाहता है, वह निष्ठा से जीवन व्यतीत करे - देवर्षि नारद

ब्रह््मचर्य से ही ब्रह्मस्वरूप के दर्शन होते हैं। है प्रभो, निष्कामता ही प्रदान कर दास को कृतार्थ करें। - मुनिवर्य भारद्वाज

ब्रह्मचर्य से मनुष्य दिव्यता को प्राप्त होता है। शरीर के त्यागने पर सद्गति मिलती है- मुनीन्द्र गर्ग

ब्रह्मचर्य के संरक्षण से ही मनुष्य को सब लोको में सुख देने वाली सिद्धियां प्राप्त होती है- मुनिराज अत्रि

ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होती है। - पिप्पलाद

ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है - योगिराज कृष्ण

ब्रह्मचर्य के पालन से आत्मबल प्राप्त होता है - पतंजलि

ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वालों को मोक्ष मिलता है- सनत्सुजातमुनि

जो मनुष्य ब्रह्मचारी नहीं उसको कभी सिद्धि नहीं होती । वह जन्ममरणादि क्लेशों को बार-बार भोगता रहता है - अमृतसिद्ध

ब्रह्मचर्य  वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार ये 0-25 वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्रहम का अर्थ ज्ञान भी है, अतः ब्रह्मचारी को  ब्रह्मचर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना चाहिये।

विद्यार्थी के लिये ज्ञान ही ब्रह्म तुल्य है, पूर्ण तन्मयता से ज्ञान की प्राप्ति करना ही उसका मुख्य उद्देश्य होता है। उसे ब्रह्म चिंतन के साथ पूर्ण लगन से अपने ज्ञान का अर्जन करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से उसकी बुद्धि तीव्र होती है, उसकी स्मरण शक्ति तीव्र होती है, चहेरे पर ओज, तेज होता है। जैसा कि विवेकानन्द जी ने कहा है कि केवल 12 वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य से अद्भूत शक्ति प्राप्त होती है।

ब्रह्मचारी को स्त्रीयों के रूप लावण्य का ध्यान नहीं करना चाहिये तथा उसके गुण, स्वरूप और सुख का भी वर्णन नहीं करना चाहिये, उनसे दूर रहना चाहिये उनके साथ कोई खेल आदि नहीं खेलना चाहिये उनकी और काम-दृष्टि से बार-बार नहीं देखना चाहिये, नजर जाये तो हटा लेनी चाहिये, एकान्त में किसी स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिये, उनके मोह-जाल से दूर रहना चाहिये। एक शब्द में यही है कि अपने उद्देश्य परमानन्द की प्राप्ति को पल-पल ध्यान में रखते हुए विषय-विकार से दूर रहने के अभ्यास को प्रगाढ़ करना चाहिये।

ब्रह्मचर्य का अर्थ अपने खान-पान पर भी नियंत्रण करना भी है। ब्रह्मचारी माँस से, अत्यधिक खट्टे या नमकीन भोजन से और बहुत मसालेदार भोजन से भी संयम रखते हैं। गांधीजी, जो की एक जाने माने ब्रह्मचारी भी थे, ने अपने पूरे जीवनभर सादा ही भोजन किया ।

ब्रह्मचर्य विषय पर स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है कि ईश्वर को पाने के एकमात्र लक्ष्य के साथ, मैंने स्वयं बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया है।  उससे मानो कि एक पर्दा सा मेरे मस्तिष्क से हट गया है। इसलिए मुझे अब दर्शन जैसे सूक्ष्म विषय पर भाषण देने के लिए भी ज्यादा तैयारी  करना या सोचना नहीं पड़ता। मान लो कि मुझे कल व्याख्यान देना है, जो भी मुझे बोलना होगा वह मेरी आँखों के सामने कई चित्रों की तरह आज रात को गुजर जाता है और अगले दिन मैं वही सब, जो मैंने देखा था, शब्दों में व्यक्त कर देता हूँ। जो कोई भी बारह वर्ष के लिए अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करेगा, वह निश्चित रूप से इस शक्ति को पायेगा।
यदि यज्ञ वेदों के कर्मकाण्ड का आधार है ता निश्चित रूप से ब्रह्मचर्य, ज्ञानकाण्ड का आधार है।
संस्कृत का शब्द ब्रह्मचारी है जो कि कामजित् शब्द का पर्याय है (वह जिसका उसके कामवेग पर पूरा नियन्त्रण है)। जीवन का हमारा लक्ष्य मोक्ष है वह ब्रह्मचर्य या पूर्ण संयम के बिना कैसे पाया जा सकता है?
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का सैट देखकर उनके शिष्य ने कहा, इन सारी किताबों को एक जीवन में पढ़ना लगभग असंभव है। स्वामीजी पहले ही दस खण्ड समाप्त कर चुके थे, अतः स्वामीजी ने कहा इन दस खण्डों में से जो चाहो पूछ लो, और मैं तुम्हें सबका उत्तर दूँगा।
स्वामीजी ने न सिर्फ भाव को यथावत् बताया, बल्कि हर खण्ड से चुने गये कठिन विषयों की मूल भाषा तक कई स्थानों पर दुहरा दी। शिष्य स्तब्ध हो गया, उसने किताबें एक तरफ रख दीं, यह कहते हुए कि, यह मनुष्य की शक्ति के अन्दर नहीं है!
ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहं। सर्वलक्षणहीनत्वं  हन्यते  ब्रह्मचर्यया ॥
ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके ही मैं असाध्य को साधता हूँ। ब्रह्मचर्य से सारी लक्षणहीनताएँ (यानी व्याधियाँ, विकार तथा कमियाँ) नष्ट हो जाती हैँ।
ब्रह्मचर्य के ऐसे महान् अभ्यास को कम कैसे आँक सकते हैं। यह तो दो-तीन दिन में ही अपनी महिमा चेहरे पे प्रकट करने लगता है, इस संयम के जाते ही तो तत्काल मन खुद को दुत्कारने लगता है, दरअसल हम सभी ब्रह्मचर्य में ही जीना चाहते हैं, लेकिन हम अपने हारमोनों से हारे रहते हैं और उस अच्छी अवस्था को बचाकर नहीं रख पाते जिसमें हममें उत्तम उत्साह था।

श्रीमद् भागवत पुराण में ब्रह्मचर्य का बड़ा स्पष्ट प्रतिपादन है, उसके 11 वाँ स्कन्ध, 17 वें अध्याय में  25 वाँ श्लोक आता है-
रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयं। अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेत् ॥
अर्थ - ब्रह्मचर्य व्रत धारे हुए व्यक्ति को चाहिये कि अपना वीर्य (रेतस)  स्वयं कभी भी न गँवाए। और यदि वीर्य कभी (अपने आप) बाहर आ ही जाये तो ब्रह्मचर्य व्रतधारी को चाहिये कि वह पानी में अवगाहन करे (यानी नहाये) और थोड़ा प्राणायाम करके गायत्री मन्त्र का जाप करे।

श्रीमद्भागवत में लिखा है कि वपुता और धारिणी नाम की दोनों स्त्रियों में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी, अतः दोनों ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया और अंत में उनको मोक्ष प्राप्त हुआ।

कुंती व सती माद्री महाराज पाण्डू की पत्नी थीं, दोनों ही ब्रह्मचारिणी थी। दोनों ने अपने पति की रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था, लेकिन श्राप के कारण ब्रह्मचर्य के खंडन करने से महाराजा पाण्डू की मृत्यु हुई थी, अतः माद्री भी उनके साथ सती हो गई थी।

सती सुकन्या ने वन में तपस्या कर  महर्षि च्यवन  की भ्रमवश उनकी दोनों आंखें फोड़ दी थी, अतः उनके पिता ने इसके प्रायश्चित स्वरूप सुकन्या को च्यवन की सेवा के लिये समर्पित कर दिया। सुकन्या महर्षि च्यवन की पूर्ण लग्न से सेवा करती रही। अश्विनी कुमार ने उसे अपने वश में करने के लिये बहुत से प्रलोभन दिये लेकिन सुकन्या का मन ब्रह्मचर्य से जरा भी नहीं डिगा। अतः में अश्विनी कुमार ने प्रसन्न होकर च्यवन को अपने औषधापचार से अत्यन्त सुन्दर युवक बना दिया।

पत्नी के लिये पति ही ब्रह्म है, उस के साथ नियमानुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है।

वेदवती ऋषिकन्या थी वह अत्यन्त सुन्दरी तथा सुशीला थी, वह पर्ण कुटी में रहते हुए निरन्तर तपस्या करती थी, उसका मन ब्रह्मचर्य के पालन से शुद्ध और दृढ़ हो गया था। एक दिन रावण उसी मार्ग से निकला और उसे देखकर उस पर मोहित हो गया, उसने उसे बहुत से प्रलोभन दिये अंत में उसे बलात् भ्रष्ट करना चाहा। उसने उसके लम्बे बालों को पकड़ कर खेंचना प्रारम्भ किया, इस पर उस तेजस्विनी ने रावण को इस प्रकार झटका दिया कि वह दूर जा गिरा। लेकिन पर-पुरूष द्वारा उसके केवल केशों को छू लेने से उसने अपने को अपवित्र मानते हुए अपना शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया। पुराणों के अनुसार उसी का सीता के रूप में जन्म हुआ था तथा वहीं रावण की मृत्यु का कारण बनती है।

शंकराचार्यजी ने कुमारिल भट्ट से अवैदिक धर्म का खंडन और सनातन धर्म के मण्डन की दक्षिणा मांगी थी, जिसे उन्होंने जीवन भर पालन कर दिखलाया, जिसकी संक्षेप में कथा इस तरह से हैः-

कुमारिल भट्ट जी ने गृहस्थ होते हुए भी अपना पूरा जीवन ब्रह्मचर्य में ही व्यतीत कर दिया, ऐसी महान विभूतियों को उनकी पत्नि भी ब्रह्चारिणी स्वरूप ही मिलती है। विवाहोपरान्त उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि प्रिय हम अभी गृहस्थ जीवन जीना नहीं चाहते हैं, हम पहले वेदों का भाष्य पूरा करना चाहते हैं, उसक पश्चात् ही हम इस बारे में सोच सकते हैं। उनकी पत्नी भी महान थी, उसने पति आज्ञा को दिल से स्वीकारा। भाष्य पूरा करते करते ही उनके कुछ बाल सफेद हो गये, तब उन्होंने अपनी पत्नि से किया हुआ वादा पूरा करने के लिये कहा, तब उनकी पत्नी ने कहा कि है स्वामी जब हम इतने समय तक ब्रह्मचर्य में रहें हैं तो अब क्यों अपना ब्रह्मचर्य के नियम को तोड़ें। इस पर दोनों ही ने प्रसन्न थे तथा कुमारिल भट्ट जी ने अपना शेष जीवन धर्म प्रचार में ही लगाया।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है, यदि पति-पत्नि दोनों ही धार्मिक हों, अन्यथा दोनों में से कोई भी एक भ्रष्ट होगा तो ब्रह्मचर्य का पालन गृहस्थ में संभव नहीं है।

ब्रह्मचर्य के बल पर ही दीर्घ आयु प्राप्त होती है, जैसे कि भीष्म पितामाह-170, महर्षि व्यास-157, वसुदेव-155, भगवान बुद्ध-140, धृतराष्ट्र-135, श्री कृष्ण-126, रामानन्द गिरी-125, महात्मा कबीर-120, गोस्वामी तुलसीदास-99, सूरदास-80, योगेश्वरानन्द जी-99

एक बहुत बडे़ वैद्य थे, उनका कहना था कि 1 वर्ष नियमित ब्रह्मचर्य (तन, मन व वाणी से) के पालन के साथ औषध सेवन से भंयकर रोग नष्ट हो सकता है, इस चिकित्सा का उन्होंने कई रोगियों पर प्रयोग किया और वे सफल निकले। वे नाड़ी से वीर्यनाशक पुरूष को जान लेते थे ऐसे व्यक्ति को व औषधि नहीं देते थे।
वीर्य क्षय से धातु रोग, रक्तविकार, शिरोरोग, दृष्टिहीनता, अजीर्ण, कोष्ठबद्धता, ग्रन्थि, वात, पक्षाघात, मन्दाग्नि आदि।

ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है । जैन मुनि और अर्यिकाओं को दीक्षा लेने के लिए कर्म, विचार और वचन में ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता । यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास के लिए है । जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है ।

सारांश

ब्रह्मचर्य के पालन से अपूर्व बल, बुद्धि, स्मृति, तेज, ओज व शक्ति आदि की प्राप्ति होती है।

बौद्ध धर्म व जैन धर्म की दृष्टि से शुद्ध व पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है, जैसा कि दोनों महापुरूषों के जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह का एक भी लक्षण नहीं था, दोनों ही अत्यंत पवित्र थे। इनके अनुसार अनासक्त पवित्र जीवन ही ब्रह्मचर्य है।

इसी प्रकार बहुत से अन्य धर्मों/मतों में प्रभू का ध्यान करते हुए, उसे हर पल याद रखते हुए सत्मार्ग पर चलना, विषय-विकार से मुक्त होकर निष्पाप जीवन व्यतीत करना या ऐसा जीवन व्यतीत करने का दृढ़ता से अभ्यास करना ही ब्रह्मचर्य है, क्योंकि जिस समय कोई बुरा कर्म करता है, उस समय वह प्रभू को भूला हुआ रहता है। ब्रह्मचर्य के बिना मुक्ति/मोक्ष अथवा प्रभू साक्षात्कार सम्भव नहीं है।

Comments

  1. Bahut hi achi jankari me like koti koti dhanywad

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  2. Bahut hi achi jankari me like koti koti dhanywad

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  3. माननीय..... क्या ब्रह्मचर्य की अवधि से सम्बन्धित कोई श्लोक है? हो तो बताने का कष्ट करें।

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  4. Dhik balam Kshatriya balam,tejo balam Brahma balam balam.

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  5. BHAGWAN APKI UMAR LAMBI KAREIN, IS TRAH KI JANKARI AJKAL NAHI MILTI, JAI SHRI HARI, JAI HANUMAN

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  6. एक बात ही बहुत अच्छा है काश यह आज की युवा पीढ़ी तक पहुंच सके

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  7. Thank you brahmachary ki mahima kaa Bhavya varnan

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  8. A lot of information about celibacy thank u so much

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  9. Brahmachary hi Jeevan Ka Safar hai brahmachary se tej ,bal aayu,virya,ojas,milta hai

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