संतोष satisfaction संतुष्टि, gratification contentment, quietness, quietude
संतोष
महर्षि गौतम ने कहा है :-
असन्तोषं परं दुखं संतोषः परमं सुखं। सुखार्थी पुरुषस्तस्मात्
संतुष्टः सततं भवेत॥
अर्थात-हे मनुष्य! इस संसार में दुःख का कारण असन्तोष है और सन्तोष
ही सुख है। जिन्हें सुख की कामना हो वे सन्तुष्ट रहा करें। “
संतोष ही परम सुख है। असन्तोषी तृष्णा/कामना/वासना आदि की पूर्ति
में ही लगा रहता है तथा ईर्ष्या, राग-द्वेष से ग्रसित रहने
के कारण दुखी रहता है। उसमें स्वार्थ भाव की अधिकता रहती है, परहित से वह कोसों दूर रहता है और यदि परहित करता भी है तो बिना
सोच-विचार के केवल और केवल अपने निकटतम संबंधियों का जैसे कि कहावत है अंधा बाटे
रेवड़ी फिर-फिर अपने को देय।
संत तुलसी दास ने इसे कहकर व्यक्त किया है। बिना सन्तोष आये
कामनाओं का अन्त नहीं होता। कामनाओं से सुख संभव नहीं है।
बिनु सन्तोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
चाणक्य ने लिखा है
मनुष्य का विनाश क्रोध के कारण और तृष्णा वैतरणी नदी के समान है
जिसका कभी अन्त नहीं होता। विद्या कामधेनु के समान है तथा सन्तोष नन्दन वन के समान
हैं।
अर्थात् मनुष्य का विनाष क्रोध के कारण होता है, क्रोध भी दो तरह का होता हैः-
(1) मन्यु - समाज सुधार की दृष्टि से अति-आवष्यक है, मन्यु बिना होष खोये मनुष्य के सुधार की दृष्टि से किया जाता है, जैसे-एक गुरू का छात्र को दण्ड देना मन्यु का एक उदाहरण है।
(2) क्रोध - मनुष्य अपना होष खो देता है और अनर्थकारी कृत्य कर देता
है। जबकि बदले की भावना से किसी के साथ हाथ-पैर तौड़ देना क्रोध का उदाहरण है।
जैसे की नदी में पानी बिना रूके बहता रहता है, उसी तरह से तृष्णा भी ऐसी ही जिसका अन्त नहीं होता है। ज्ञान से ही
सभी अभिष्ठ लक्ष्य प्राप्त होते हैं।
संतोष सभी सुखों का जनक है, सुख-शांति लाने वाला है। संतोषी को पानी की बूँद भी समुद्र के समान
प्रतीत होती है और असंतोषी को समुद्र भी बूँद के समान प्रतीत होता है।
कबीरदासजी कहते हैं-
चींटी चावल ले चली, बीच में मिल गई दाल। कहत कबीरा दो ना मिले, इक ले दूजी डाल॥
अर्थात- एक चींटी अपने मुँह में चावल लेकर जा रही थी, चलते-चलते उसको रास्ते में दाल मिल गई। उसे भी लेने की इच्छा हुई, लेकिन चावल मुँह में रखने पर दाल कैसे मिलेगी? दाल लेने को जाती तो चावल नहीं मिलता। चींटी का दोनों को लेना का
प्रयत्न था। हम भी संसार के विषय-भोगों में फँसकर अतृप्त ही रहते है। इसी तरह से
प्रभू का साक्षात्मकार अथवा मुक्ति भी तभी प्राप्त हो सकती है जब हम इस संसार के
आकर्षण का पूर्णतः त्याग करके उस अदृष्य शक्ति का वरण करेंगे। दोनों में से एक को
ही प्राप्त किया जा सकता है, दोनों को नहीं अर्थात् या
तो जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा या फिर परमानन्द/प्रभू साक्षात्कार अथवा मुक्ति की
प्राप्ति।
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान। जब आवे
संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
सभी सुख के आकांक्षी हैं, अर्थात् ऐसा कोई नहीं जिसे सुख की आकांक्षा नहीं हो। हम सोचते हैं
कि वही सुखी है जो स्वस्थ है, धनवान है, जिसका भरा-पूरा परिवार है, जिसका मान-सम्मान व प्रतिष्ठा है, जिसकी अच्छी संतान है, अच्छी पत्नी है।
वैसे तो कहा गया है कि प्रथम सुख निरोगी काया, यह सत्य है, लेकिन सबसे बड़ा सुखी तो
वही हो सकता है जो हर स्थिति में हर परिस्थिति में संतुष्ट रहता है, चाहे दुख हो या सुख।
किसी कवि ने सही लिखा है कि-
सुख की धूप कभी सर पर है, तो कभी है सुख की छाया, बदल-बदल कर समय सभी पर बारी-बारी आया।
सुख भी मुझे प्यारे हैं, दुख भी मुझे प्यारे हैं, छोडूं में किसे भगवन दोनों ही तुम्हारे हैं,
दुख ऐसा कौन है, जिसने कभी ना देखा हो, रविन्द्रनाथ टैगोर अपनी कविता ’’वरदान’’ में कहते हैं कि है प्रभू
तू मुझे दुखों से छुड़ा यह प्रार्थना लेकर मैं तेरे दर पर नहीं आया, हां दुख को सहन करने की शक्ति दे, दुख भले ही कितना मर्जी दे, लेकिन सहन करने की शक्ति दे।
मलूकदासजी ने कितना सुन्दर कहा - जे दुखिया संसार में खोओ तिनका
दुख, दलिद्र सौंप मलूक को औरन दीजे सुख। है प्रभू सारे संसार का दूख मुझ
दे दो और जो मेरा जो थोड़ा सा सुख है सारे संसार को बांट दो।
बाबा फरीद ने बड़ा सुन्दर लिखा - फरीदा जानिये में दुखी तो सुखी
सारा जग, उंचे चड-चड़ देखिया तो घर-घर ऐहो अग्ग। ऐसा कौन है जिसने कभी दुख
नहीं देखा।
सुख-दुख ही दुनिया की गाड़ी को चलाते हैं, सुख दुख ही हम सबको इन्सान बनाते हैं, संसार की नदिया के दोनों ही किनारे हैं, छोड़ू में किसे भगवन दोनों ही तुम्हारे हैं।
जैसे सोने की कसौटी अग्नि है, वैसे ही मानव की कसौटी दुख है, याद रखिये दुख आपके उपर जितनी बार भी आयेगा एक नई शक्ति देकर
जायेगा। कभी गुलदस्ते को ध्यान से दुखना उसमें घास-फूल ज्यादा होती है, लेकिन फूल कम होते हैं, उन थोड़े से फूलों को गुलदस्ता बनाने वाला इस तरह से सजाता है कि
गुलदस्ता देखने में सुन्दर लगता है, पता लगा कि दुख ज्यादा है और सुख कम, लेकिन घास को इस तरह से सजाओ अपने सुखों को कुछ फुलों को इस तरह
सजाओ कि देखने में सुन्दर लगे।
खुदा देता है जिनको खुषी, उनको गम भी होते हैं, जहां बजती है शहनाई वहां मातम भी होते हैं। दुख आजकल कोई चाहता
नहीं छोटी सी चींटी भी जानती है कि सुख क्या होता है, चीनी डालिये तो फौरन उसको पकड़ लेगी, लेकिन यदि चीनी की बजाय आप नमक रखिये तो चींटी उसको छुयेगी भी
नहीं। छोटा सा जीव भी सुख-दुख की परिभाषा जानता है, छोटे से बच्चे से बोलिये कि बेठा यह पालक की सब्जी खा ले। पालक की
सब्जी नहीं खायेगा। कहेगा मां ये तेरा भगवान भी अजीब है सारे विटामिन पालक में भर
दिये हैं, पालक की सब्जी नहीं खानी मैं तो चाकलेट खाउंगा। छोटा सा बच्चा वो
भी सुख और दुख जानता है।
दुख चाहे ना कोई भी सब सुख को तरसते हैं, दुख में सब रोते हैं, सुख में सब हंसते हैं, सुख मिले उसके पीछे दुख ही तो सहारे हैं छोडू में किसे भगवन दोनों
ही तुम्हारे हैं।
महान बनने के लिये दुख उठाना पड़ता है, सूर्य को महान बनने के लिये जलना पड़ता है, सोने को भी चमकने के लिये तपना पड़ता है और हीरे को अपना मूल्य
बढ़ाने के लिये मूल्यवान बनने के लिये कटना पड़ता है। बिना दुख उठाये कोई महान नहीं
बन सकता, कभी ध्यान से देखिये कोयले और हीरे में यही तो फर्क है। किसी दुकान
पर जाईये और पूछिये कि यह कोयला मैं ले लूं, कितने का है? कोयले वाला वाला कहेगा, कितने का क्या होता है ऐसे ही
ले जाओ। लेकिन यदि आप हीरे की दुकान पर जाकर कहे कि हीरा मैं ले लूं, कितने का है? तो वह आपको उसका दाम
लाखों-करोड़ों में बता सकता है, लेकिन ध्यान देने वाली बात
यही है कि कोयला और हीरा एक ही तत्व से बनता है, दोनों में कार्बन होता है। कोयले के नीचे आग रखोगे तो कोयला जलकर
राख हो जाता है, और हीरे के नीचे आग रखोगे
हीरा भी जलकर राख हो जाता है। फर्क यह हुआ कि हजारों सालों, लाखों सालों तक कोई वस्तु नीचे दबी रही तो कोयला बनी, लेकिन वही वस्तु हजारों लाखों साल और दबी रही तो वही कोयला जो
कोयला था बाद में हीरा बन गया। पता लगा जिसने दुख ज्यादा सहन किया वो कोयला नहीं
हीरा बन गया।
है प्रभू ऐसा बनाओ हमेषा मैं तुम्हें याद करता रहूं कोई भी स्थिति
हो, कोई भी माहौल हो। सुख मैं तेरा शुक्र करूं, दुख में फरियाद करूं, जिस हाल में रखे मुझे, मैं तुमको याद करूं। मैंने तो तेरे आगे ये हाथ पसारे हैं, छोडूं में किसे भगवन दोनों ही तुम्हारे हैं।
सीड़ी का संगमरमर और मूर्ति का संगमरमर दोनों ही एक ही तरह का पत्थर
होता है, लेकिन एक दिन सीड़ी का संगमरमर मूर्ति के संगमरमर से षिकायत करने
लगा कहने लगा, अरे मूर्ति के संगमरमर
सारी दुनिया तेरे उपर फूल चढाकर जाती है और मेरे उपर जूते लेकर आती है। तेरे में
मेरे में क्या फर्क है, मूर्ति के संगमरमर ने
उत्तर दिया कि मूर्तिकार जब हमें खान से निकालकार लाया और अपना छैनी और हथौड़ा लेकर
मारने लगा, मूर्ति बनाने लगा तो मैंने
उस छैनी और हथौड़े की चोट को बर्दाषत किया और सीड़ी के संगमरमर तुम से वो चोट सहन
नहीं हो सकी तुम दूर जाकर गिरे इसलिये तुम्हें संसार सीड़ी में लगा देता है और मेरी
मूर्ति बनाकर अपने मंदिर में लगा लेता है। मैनें दुख को सहन किया इसलिये संसार
मेरी पूजा करता है, जो दुख को सहन करेगा संसार
में उसी का मान है।
सूरज उगता है तो भी लाल रंग का होता है और डूबता है तो भी लाल रंग
का होता है। दुख आये तो भी एक ही रंग रहना और सुख आये तो भी एक ही रंग रहना। सुख में सराहो नहीं, दुख में कराहो नहीं। जैसे गर्मी के बाद बरसात होती है ना, तो बरसात से पहले अगर आप अपनी छत को ठीक कर लें या आप अपना छाता
ठीक कर ले तो जब बरसात आयेगी तो ज्यादा दुख नहीं देगी। ठी उसी तरह से जब आप सुखी
हों तो दुख की तैयारी करके रखिये की दुख भी आने वाला है, आयेगा जरूर, उसके लिये तैयार रहेंगे तो
दुख आकर आपको उतना दुख नहीं देगा, उतना तंग नहीं करेगा जब आप
तैयार रहेंगे। ऐ दिल ना उम्मीद ना हो, नाकाम ही तो है, लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है। गम की अंधेरी रात में, दिल को ना बेकरार कर, सुबह जरूर आयेगी, सुबह का इंतजार कर। है
प्रभू, जो है तेरी रजा उसमें देखूं में पकड़ कैसे, मैं कैसे कहूं मेरे कर्मों के हैं फल कैसे, चख कर भी ना देखूगा मीठे है कि खारे हैं। छोडू में किसे भगवन दोनों
ही तुम्हार हैं।
भजन का सार
इस भजन में एक महान योगी बनने तथा सच्चा प्रभू भक्त बनने का संदेष
छिपा हुआ है। इसमें भी यही कहा गया है कि हमें कैसी भी स्थिति हो हर स्थिति में
समान रहना चाहिये। चाहे सुख मिले या दुख मिले। सुख में उस अदृष्य शक्ति क धन्यवाद
करना चाहिये, दुख में अरदास करनी चाहिये
कि है प्रभू मुझे दुख तो दे लेकिन दुख सहने की शकित दे। जैसे हीरा/मूर्ति दुख सहकर
मूल्यवान बने हैं, उसी तरह से हम भी उस शमा
की तरह बने जो स्वयं का अस्तित्व मिटाकर भी औरों को प्रकाष देती है। हम अभ्यास और
वैराग्य के द्वारा इस तरह से अपने को तैयार करें कि हम सुख-दुख कैसी भी परिस्थिति
में प्रसन्न रहते हुए जीवन मुक्त बन जायें और जब इस जगत का परम सत्य मृत्यु हमारे
सामने आये तो हम उस से घबरायें नहीं, उसे देखकर रोये नहीं अपितू उसका हंसकर स्वागत करें, उसका हंसकर वरण करे। सही कहा है कि रोते हुए आते हैं सब हंसता हुआ
जो जायेगा वो मुक्कदर का सिकंदर कहलायेगा। अर्थात् यदि हमें मुक्ति चाहिये तो भी
और यदि नहीं चाहिये तो भी हम ऐसे कर्म करें कि जब मौत हमारे सामने आये तो हमारे
शुभ कर्मों के कारण हम हंसते हुए मौत का स्वागत कर सके।
जो हर स्थिति, हर हाल में मस्त रहता है
खुष रहता है वही वास्तव में परम संतोषी है।
संतोष के सबंध में कुछ महान पुरूषों के कथनः-
वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है जो उन चीजों के लिए शोक नहीं करता है
जो उसके पास नहीं हैं, बल्कि उन चीजों के लिए खुश
रहता है जो उसके पास हैं। - एपिक्टेटस
वह समृद्ध है जो संतुष्ट है। - थॉमस फुलर
वह जो ये जानता है कि पर्याप्त है उसके पास हमेशा पर्याप्त होगा। -
लाओ -त्जु
जब हमारे पास वो ना हो जो हम पसंद करते हैं, तो हमें वो पसंद करना चाहिए जो हमारे पास है। - फ्रेंच प्रोवर्ब
अगर आप हमेशा वर्तमान पर ध्यान दे सकें, आप एक सुखी इंसान होंगे। -पाउलो कोएल्हो
वह जो थोड़े से संतुष्ट नहीं होता, किसी से संतुष्ट नहीं होता।- एपिक्यूरस
जो नहीं है उसकी इच्छा करके जो है उसे मत बर्वाद करिए। - ऐन
ब्रैशेयर्स
यम-नियम और संतोष का समन्वय
संतोष और अहिंसा- जो मन, वचन और कर्म से किसे की भी हिंसा नहीं करता है तथा अपने मन में
किसी की हिंसा के भाव नहीं आने देता है, वह ही संतोषी हो सकता है।
संतोष और सत्य- जो व्यक्ति पूर्णत सत्य बोलने वाला है, सत्य को स्वीकार करने वाला है, सत्य व्यवहार करने वाला है, वही असंतोष पर विजय प्राप्त कर सकता है। जिसने असत्य को अपने जीवन का अंग बना लिया हो
और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये असत्य को ही अपना संस्कार बना लिया हो, ऐसा व्यक्ति असंतोषी ही रहता है।
संतोष और अस्तेय - जो व्यक्ति किसी भी पराई वस्तु/पदार्थ/षक्ल/धन
आदि की आकांक्षा नहीं रखता है, वही संतोषी हो सकता है, क्योंकि जिसे अनित्य/नष्वर पदार्थों/षक्लों से ममत्व नहीं है वह
गरीबी हो या अमीरी हर स्थिति में संतुष्ठ रहता है।
संतोष और ब्रह्मचर्य- जिसने इस नष्वर संसार के स्थान पर उस ब्रह्म
अथवा मुक्ति का वरण किया हो, उसे ही सच्चे अर्थों में
एक परम संतोषी कहा जा सकता है। इसके विपरीत जो असंतोषी है, उसे ब्रह्म अथवा मुक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता है वह केवल
नष्वर शरीर/षक्ल/पदार्थ के लिये ही जीता है और इनकी पूर्ति के लिये असंख्य
कामनायें/तृष्णायें संजोकर कर असंतोषी बन जाता है। आधुनिक षिक्षा पद्धति ने हमें
धर्म से पतित कर दिया है, अन्यथा जैसा कि पूर्व में
बच्चे का जन्म होने से मृत्यु होने तक वह ब्रह्म का किसी भी अवस्था में किसी भी
आश्रम में त्याग नहीं करता था। और जो अपने जीवन के सभी चरणों में ब्रह्म से जुड़ा
रहा हो, वह कभी भी असंतोषी नहीं हो सकता है, क्योंकि वह प्रत्येक कर्म उस ब्रहम् का स्मरण रखते हुए करता है और
उसके अतिरिक्त सभी को साधन मानते हुए उनसे विरक्त रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करता
है।
संतोष और अपरिग्रह - अमृतसर में श्री लछमणजी संत थे, जो दिन में एक बार चार रोटी भिक्षा में लाते थे, उसके अतिरिक्त किसी से कुछ भी नहीं लेते थे। एक बार कुछ लोग उन्हें
कुछ रूपये देना चाह रहे थे, उन्होंने मना कर दिया, इस पर एक धनी ने उनके कपड़े में जबरन रूपये बांध दिये और चला गया, उसके जाने के बाद उन्होंने उन रूपयों को कपड़े सहित बहती नदी में
फेंक दिया। अर्थात्् उन्हें अपने गुजारे के लिये केवल अन्न की ही अपेक्षा थी धन की
नहीं। यह संतोष और अपरिग्रह का समन्वय है।
को दरिद्रो, यस्य तृष्णा विशाला।
दरिद्र कौन है?
जिसके मन में तृष्णा ज्यादा है, चाह ज्यादा है। जो चाह करता है, वह भिखारी होता है। जो चाह को मार देता है वह शहंशाह हो जाता है।
संतोष और शौच - जिसका मन शुद्ध है, जो परमार्थी है तथा जिसके मन में केवल और केवल ब्रह्म अथवा मुक्ति
की कामना है, वही संतोषी कहा जा सकता
है। जिसका मन मलिन है, जो स्वार्थी है वह येन-केन
किसी भी तरह से अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगा रहता है और इस तरह से स्वार्थी
व्यक्ति का मन कभी शुद्ध नहीं हो सकता है। वह अपने स्वार्थ के कारण नष्वर
शक्ल/पदार्थ की चाह में असंतोषी बना रहता है। वह मृगतृष्णा में फंसा रहता है, उसे नित्य में अनित्य और अनित्य में नित्य का आभास होता है। वह मृग
की तरह रेगिस्तान में काफी दूर रेत को सूरज की चमक के कारण पानी समझ लेता है, भाग कर वहां जाता है, लेकिन उसे पानी नहीं मिलता। उसे दूर से रेत पानी दिखाई देती है, लेकिन पास जाने पर उसे रेत ही मिलती है पानी नहीं और उसकी यह खोज
सूर्य अस्त होने पर समाप्त होती है। उसी तरह से मनुष्य भी भ्रम वष क्षणिक सुखों को
सत्य मान लेता है, लेकिन उस सुख को पाने पर
भी उसकी तृप्ति नहीं होती बार-बार वह उस सुख को पाना चाहता है, लेकिन उसकी क्षणिक भोगों से कभी तृप्ति नहीं होती केवल मृत्यु के
उपरांत ही उसके भोग समाप्त होते हैं और पुनः अगले दिन सूर्योदय होने पर अर्थात्
पुनः जन्म होने पर वह पुनः भोगों की तरफ भागता है और यह जन्म-मरण का चक्र चलता
रहता है।
संतोष और तप - जहां निष्काम भावना होगी वहां संतोष का होना भी
अवष्यमभावी है, जो निस्वार्थ भाव से
निष्काम भाव से अपने समस्त कर्तव्यों को पूरा करने का अभ्यास करता है, पुरूषार्थ करता है, वहीं संतोषी कहलाने योग्य है, अर्थात् जो अभ्युदय रूपी सुख की प्राप्ति के लिये घोर पुरूषार्थ
करता है तथा साथ ही निश्रेयस को भी नहीं छोड़ता तथा त्याग पूर्वक भोग करता है, ऐसा तपस्वी ही संतोषी हो सकता है।
संतोष और स्वाध्याय - ज्ञान और स्वाध्याय एक दूसरे के पूरक हैं, सभी धर्मगुरू जीवन में संतोष को अपनाने का उपदेष देते हैं और हमारे
धर्मग्रंथ भी यही संदेष देते हैं कि अनित्य/नाष्वान वस्तुओं में मोह नहीं रखते हुए
अपना जीवन व्यतीत करें, और जो व्यक्ति स्वाध्याय
के आधार पर अनित्य/नष्वर पदार्थों/षक्लों में मोह नहीं रखते हुए जीता है, वही संतोषी बन सकता है अर्थात् जो सद्ग्रथों का अध्ययन करता है, गुरू की वाणी सुनता हे, ध्यान करता है, और अध्ययन की गई बातों का
तथा गुरू द्वारा बतायी गयी बातों को पालन करने का अभ्यास करता है, वहीं संतोष की और बढ़ता है, और धीर-धीरे अभ्यास करते हुए परम संतोषी बन जाता है।
संतोष और ईष्वर प्राणिधान - जो मुक्ति मार्ग का पथिक है जो प्रभू
साक्षात्कार का अभिलाषी है वहीं संतोषी हो सकता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति अपना प्रत्येक कर्म मुक्ति को अथवा प्रभू
साक्षात्कार को ध्यान में रखता हुआ करता है। वह ध्यान रखता है कि उसके कारण किसी
का भी बुरा नहीं हो तथा यही प्रयास करता है कि उसके किसी भी कर्तव्य कर्म में कोई
त्रुटि नहीं रह जाये। वह मुक्ति अथवा प्रभू साक्षात्कार हतु सांसारिक
इच्छाओं/कामनाओं का त्याग करने के अभ्यास में लगा रहता है और अंततः परम संतोषी बन
कर जीवन मुक्त हो जाता है। वह इस संसार में मेहमान की तरह रहता है, जैसे कि मेहमान कुछ दिन पराये घर में रहता है, फिर वापस अपने घर लौट आता है। उसी तरह से मुक्ति धाम ही हम आत्माओं
का धाम है और यह संसार मेहमान खाना है। ऐसा व्यक्ति इस बात को समझ कर संतोष को
अपने जीवन का अंग बना लेता है तथा निश्रेयस रूपी सुख को स्वीकार कर अंतिम समय में
हंसते हुए प्राणों का त्याग करता है।
सारांष
संतोष के बिना मुक्ति की प्राप्ति अथवा प्रभू का साक्षात्कार नहीं
किया जा सकता है। जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, षौच, तप, स्वाध्याय, ईष्वर प्राणिधान (प्रभू को ध्यान में रखते हुए सत्कर्म करना) का
पालन करता है, वहीं संतोषी भी हो सकता है, इनका उल्लंघन करने वाला पूर्णतः संतोषी हो ही नहीं सकता है, और वही श्रेय मार्ग का पथिक होता है, उसे ही अदृष्य शक्ति का सानिध्य मिलता है।
यदि हमें प्रेय मार्ग अर्थात् संसार व उससे जुडे पदार्थ/षक्ल प्रिय
हैं तथा हमारी इन्द्रियां नियंत्रण में नहीं हैं तो हम पूर्णतः परम संतोषी नहीं बन
सकते हैं, हां कुछ अंषों में अवष्य संतोषी बन सकते हैं, अर्थात् जितनी अधिक हमारी सात्विकता होगी उसी मात्रा में संतोष भी
हमारे अंदर विद्यमान है। जितना हममें संतोष होगा उतनी ही हमारी मृत्यु भी सुख कारक
होगी।
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