GOD WORSHIP प्रभु /ईश्वर प्राणिधान
ईश्वर प्राणिधान
ईश्वर प्राणिधान का अर्थ है, ईश्वर की आज्ञा के
अनुसार तामसिकता (विषय-विकार/पाप) का त्याग करने का अभ्यास तथा केवल और केवल
सात्विक कर्म (अष्टांग योग में उल्लेखित सतकर्म) करने का अभ्यास करते हुए अंतत
पूर्णतः सात्विक बन कर उस अदृष्य शक्ति की अनुभूति करना।
जितने भी विषय-विकार व पाप से रहित
धर्मगुरू हुए हैं चाहे भगवान बुद्ध हो, महावीर स्वामी हो या
अन्य कोई उन्होंने ने भी यही उपदेश दिया है कि तामसिकता का त्याग करके केवल
सात्विक कर्म करने का अभ्यास करते हुए अंततः पूर्णतः सात्विक बनने पर ही वे दुखों
से अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा सकते हैं। दोनों का लक्ष्य एक ही है
दुखों से छुटकारा पाना, दोनों एक ही दिषा में बढ़ रहे हैं,
अंतर केवल इतना है कि आस्तिक ईश्वर का पल-पल स्मरण करते हुए उस
दिषा में बढ़ता है तथा सात्विक प्रवृत्ति का नास्तिक पल-पल मुक्ति को ध्यान में
रखते हुए सत्य ज्ञान के अनुसार उस दिषा में बढ़ता है।
मुक्ति प्राप्ति के लिये आस्तिक हो या
नास्तिक दोनों को ही निष्काम कर्म करने पड़ते हैं, निष्काम कर्म का अर्थ
है बिना किसी फल/परिणाम की कामना के कर्म करना, इसका एक
उदाहरण सत्य घटना के रूप में इस प्रकार हैः-
महात्मा आनन्द स्वामी ने अपनी
पुस्तकों में लिखा है कि उनके समय में जब भी कहीं भी कोई विपदा आई आर्यसमाजीयों का
दल उनकी सेवा के लिये वहां पर गया और आपदा पीड़ितों की बिना किसी पारिश्रमिक के मदद
की। उन्होंने लिखा है कि एक समय मुल्तान में प्लेग की महामारी फैली थी, महात्मा आनन्द स्वामी और पंडित रलाराम और कुछ अन्य आर्यसमाजी पीड़ितों की
सेवा के लिये वहां गये। वहां पर एक व्यक्ति के गले के पास प्लेग की गांठ थी जो पक
चुकी थी और उस पर चीरा लगा कर मवाद व गंदगी को निकालना अत्यंत आवष्यक था। पं
रलाराम जी ने आनन्द स्वामी जी से कहा कि कोई डाक्टर या वैद्य हो तो उन्हें बुलवाया
जाये, लेकिन इस महामारी से बचने के लिये उस गांव के बहुत से
लोग घर छोड़कर कहीं अन्यत्र जा चुके थे, कुछ थोड़े से लोग ही
वहां थे। अतः डाक्टर/वैद्य का मिलना असम्भव था। तब पं. रलाराम ने कहा कि कोई चाकू,
छूरी या पैनी चीज हो तो वही ले आयें। लेकिन वहां पर ऐसा कुछ नहीं
मिला। तब पं. रलाराम ने कहा कि तुम्हारे पास स्प्रिट तो है, उससे
इसके गले के पास की गिल्टी को साफ कर दो। पं. रला राम ने अपने दांतों से उस गिल्टी
को काटा, बिना अपने प्राणों की परवाह किये, ऐसा ही होता है निष्काम कर्म।
केवल हाथ में झाडू लेकर अपनी फोटो
खिंचवाने वाले तथा उसे अखबार में प्रकाषित करवाने वाले तथा उसके द्वारा किसी भी
तरह के चुनाव में या अन्य स्थान पर उसके बदले में कुछ मांगने वालों को निष्काम
कर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। अर्थात्
बिना किसी भी पदार्थ की प्राप्ति की आकांशा के परहित के लिये कार्य करना। प्रत्येक
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, अतः हर कर्म का फल अवष्यमभावी है,
अतः हमें बिना किसी लोभ-लालच के कर्म करने चाहिये। जैसे कि कबीर जी
ने कहा है सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाये, मैं भी भूखा
ना रहूं साधू ना भूखा जाये।
अर्थात - तामसिकता रहित केवल और केवल
सात्विक कर्म ही मुक्ति की चाबी है अथवा वास्तविक ईश्वर प्राणिधान है। धर्मपरायण
व्यक्ति चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, गुरू को ईश्वर से
बढ़कर मानने वाला हो अथवा ईश्वर को ही सर्वस्व मानने वाले हो, उसे धर्म पथ पर चलते हुए केवल सात्विक शुभ कर्म करने का अभ्यास करते हुए
पूर्णतः परिपक्व होने पर ही प्रभू साक्षात्कार/मुक्ति प्राप्त हो सकती है अन्यथा
नहीं।
इस संसार में अधिकतर 4
तरह के विचार वाले लोग होते हैं उन चार में भी सत, रज,
तम तीन तरह की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति होते हैं।
यदि व्यक्ति में सात्विकता की अधिकता
है और सात्विकता का अभ्यास करते-करते वह पूर्ण सात्विक बन जाता है तथा उसका
सांसारिक वस्तुओं/शक्लों से आकर्षण नहीं रहता है तो उसे वापस शरीर बंधन में नहीं
आना पडेगा, लेकिन यदि आकर्षण है तो सात्विकता की अधिकता होने पर
भी चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक उसे पुनः शरीर धारण करना होगा, सात्विकता के आधार पर उसका अगला जन्म शुभ होगा।
यदि व्यक्ति में सात्विक व तामसिक
दोनों गुणों का मिश्रण है तो यह बिलकुल साफ है कि वह मोह-माया, राग-द्वैष, काम, क्रोध,
लोभ, मद, मोह, आदि से ग्रसित है और ऐसा व्यक्ति इस संसार की वस्तुओं/शक्लों से पूर्णतः
अनासक्त हो ही नहीं सकता है, और ऐसे व्यक्ति को कभी भी प्रभू
साक्षात्कार नहीं हो सकता अथवा मुक्ति नहीं मिल सकती है, चाहे
ऐसा व्यक्ति आस्तिक हो या नास्तिक। गुरू का परम भक्त हो या ईश्वर का भक्त हो,
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों की सीमा के आधार पर वहीं
प्राप्त होता है, जो उसके मन/चित्त में वासना/कामना के रूप
में समाहित है। ईश्वर उसे उसके कर्मों के आधार पर मनोवांछित फल देता है।
यदि व्यक्ति में तमो गुण की अधिकता है, तो चाहे वह आस्तिक हो, नास्तिक हो, गुरू भक्त हो, ईश्वर भक्त हो, ऐसे व्यक्ति को ना तो मुक्ति प्राप्त होगी, ना ही
प्रभू साक्षात्कार होगा, ना ही उसका अगला जन्म शुभ होगा,
उसे जिस भी योनि में जन्म मिलेगा उसके जीवन में दुखों की अधिकता
रहेगी।
1. नास्तिक ना ईश्वर को ना ही मुक्ति को मानने वाले
(।) अधिकाधिक शुभ कर्म करने के अभ्यास वाले (सात्विकता की अधिकता)
(।।) शुभ-अषुभ मिश्रित कर्म करने वाले (राजसिक- सत-तम का मिश्रण)
(।।।) अधिकाधिक अशुभ कर्म करने वाले (तामसिकता की अधिकता)
2. नास्तिक केवल धर्मगुरू को मानने वाले -
(।) धर्म की पूर्ण जानकारी होने
से अधिकाधिक शुभ कर्म करने के अभ्यास वाले (सात्विकता की अधिकता)
(।।) धर्म
की जानकारी होने पर भी विषय-विकार/पाप से ग्रसित होने के कारण शुभ-अषुभ मिश्रित
कर्म करने वाले (राजसिक- सत-तम का
मिश्रण)
(।।।) धर्म की अपूर्ण जानकारी के कारण अधिकाधिक अषुभ कर्म करने वाले
(तामसिकता की अधिकता)।
3. आस्तिक, गुरू को ईश्वर से भी बढकर मानने वाले तथा
केवल गुरू कृपा से मुक्ति मानने वाले
(।) धर्म की जानकारी होने से तथा गुरू के प्रति तन-मन-धन से समर्पित
उनकी आज्ञानुसार अधिकाधिक शुभ कर्म करने के अभ्यास वाले (सात्विकता की अधिकता)
(।।) केवल गुरू धारण करने से मुक्ति मानने वाले, गुरू
के प्रति श्रद्धा रखने वाले, लेकिन विषय-विकार/पाप से ग्रस्त
होने के कारण गुरू आज्ञा की कुछ पालना व कुछ अवहेलना करने वाले शुभ-अषुभ मिश्रित
कर्म करने वाले (राजसिक- सत-तम का मिश्रण)
(।।।) केवल गुरू धारण करने से
मुक्ति मानने वाले लेकिन विषय-विकार/पाप से ग्रस्त होने के कारण तथा पूरी तरह से
स्वार्थी होने के कारण अधिकाधिक अशुभ कर्म करने वाले (तामसिकता की अधिकता)।
4. आस्तिक, गुरू के ज्ञान के आधार पर ईश्वर को सबसे
बड़ा मानने वाले, लेकिन
(।) कर्मों के आधार पर मुक्ति को मानने वाले तथा अधिकाधिक शुभ कर्म
करने वाले (सात्विकता की अधिकता)
(।।) इन्द्रियों के वषीभूत होकर शुभ-अषुभ मिश्रित कर्म करने वाले
(राजसिक- सत-तम का मिश्रण)
(।।।) विषय-विकार व पाप में लिप्त होने के कारण अधिकाधिक अषुभ कर्म करने
वाले। (तामसिकता की अधिकता)।
इस संसार में हर एक अहंकारी व्यक्ति
आपने को अक्लमंद और दूसरे को मूर्ख समझता है, लेकिन इसका निर्णय
कोई अहंकार से परे व्यक्ति ही कर सकता है कि कौन मूर्ख है और कौन अकलमंद। जैसे कि
न्यायालय में दो पक्षों में विवाद होने पर न्यायाधीश दलीलें सुनने के बाद
निर्धारित करता है कि कौन सही है कौन गलत। न्यायाधीश चाहे गलत फैसला भी कर दे
लेकिन अहंकार से परे व्यक्ति कभी गलत निर्णय नहीं दे सकता है।
इस बात को स्पष्ट करने के लिये एक कथा
दी जा रही हैः-
एक पिता के 12 पुत्र हैं, वह एक पत्र पर यह लिखकर घर छोड़कर कहीं
चला जाता है कि मेरे जो भी पुत्र सदाचारी होंगे, अपनी
मां/गुरू/उपदेशक की आज्ञा का पालन करेंगे और पूर्ण पुरूषार्थ करते हुए अपनी उन्नति
के साथ दूसरों की उन्नति व दूसरों के हितों का भी ध्यान रखने का प्रयास करेंगे ऐसे
पुत्रों को तथा इनके विपरीत चलने वाले पुत्रों को मैं अपनी गुप्त सम्पत्ति में से
उनके कर्मों के अनुरूप हिस्सा दूंगा।
उनका पिता अपनी दाड़ी-मूंछ बढ़ाकर कुछ
समय बाद भेष बदलकर गुप्त रूप से उनके मौहल्ले के पास ही कहीं रहने लगता है और यह
देखता है कि उसका कौन सा पुत्र आज्ञाकारी है,
पुत्रों को पता नहीं होता है कि यह हमारे पिता है, लेकिन उसे पता होता है कि यह मेरे पुत्र हैं वह उनके कर्मों पर नजर रखता
है कि कौन सदाचारी है और कौन दूराचारी कौन परमार्थी है, कौन
स्वार्थी है, कौन आज्ञाकारी है, कौन
उद्दंड है, कौन चापलूस है आदि।
मां ने बचपन में ही इस वसीयत से सभी
भाईयों को अवगत कराया, उन सभी को अलग-अलग गुरूओं से षिक्षा दिलवायी।
12 पुत्रों के गुरू अलग-अलग थे,
लेकिन उन्हें उनके कर्मों के अनुरूप अदृष्य सम्पत्ति में से हिस्सा
देने वाला उनका पिता एक ही था, लेकिन तामसिक व राजसिक
प्रवृत्ति के आठों पुत्र अहंकार से ग्रसित होने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या-द्वैष
रखते थे, आपसे में झगड़ते रहते थे, एक-दूसरे
की पीठ-पीछे बुराई करते थे और उनके पीठ पीछे यही कहते थे कि हमारे गुरू इनके गुरू
से महान हैं, लेकिन आठों भाईयों के अधिकतर कर्म गुरू के
आदेषों के विपरीत ही रहते थे। वे सभी मन ही मन या उनकी पीठ के पीछे अपने परिवार के
सदस्यों से कहते थे कि यह भाई तो मुर्ख है, हमारे गुरूजी
इसका उद्धार कर सकते है। सभी को अपने गुरूजी पर विष्वास था, लेकिन
फिर भी उनकी आज्ञा का पालन पूरी तरह नहीं करते थे, कहते थे
कि गुरू के प्रति श्रद्धा अत्यंत आवष्यक है, उन बेचारों को
तो श्रद्धा का अर्थ भी पता नहीं था। गुरू के प्रति श्रद्धा का वास्तविक अर्थ तो
यही है कि उसके द्वारा बताये गये सत्य उपदेश के अनुसार अपने प्रत्येक कर्म को करने
का प्रयास करना। ऐसे व्यक्ति अपनी पूरी उम्र बिता देते हैं, लेकिन
पूर्णतः गुरू के आदेषों का पालन करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। जीवन भर
गुरू-गुरू कहने तथा गुरू की समस्त उपदेषों की पालना नहीं करना गुरू के प्रति सबसे
बड़ी अश्रद्धा है। सात्विक प्रवृत्ति वाले चारों भाई उन आठों भाईयों को देखकर मन ही
मन दुखी होते थे, वे चारों ही सात्विकता के कारण अहंकार से
मुक्त थे, तथा ऐसे गुरू जो विषय-विकार व पाप से मुक्त हैं
उनका पूर्ण सम्मान करते थे। उन्हें भी अपने गुरू के समकक्ष मानते थे। लेकिन अहंकार
से ग्रसित होने के कारण उनके समझाने पर भी आठों भाई उन चारों सात्विक भाईयों की
बात नहीं मानते थे और अपने अतिरिक्त सभी को मूर्ख समझते थे।
चार पुत्रों में सतोगुण की अधिकता थी, अन्य चार में सतोगुण व तमोगुण दोनों का मिश्रण था तथा अन्य चारों में
तमोगुण की अधिकता थी।
सतोगुण वाले चारों भाई शांत प्रकृति
के थे, वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते थे, अपनी मां व गुरूजनों का आदर करते थे, उनकी आज्ञा का
पालन करते थे, और चारों ही पुरूषार्थी थे, उनमें से एक पहला ईश्वर /मुक्ति को नहीं मानता था, इसलिये
वह इन्द्रियों के भोगों को भी सात्विकता के साथ भोगता था, और
उसका संसार से जुड़ाव था। शेष तीनों भाई इन्द्रिय निग्रह को तथा सत्कमों को मानते
थे, सभी का आदर करते थे किसी का निरादर नहीं करते थे। चारों
भाईयों ने अपना जीवन संवारा तथा ईमानदारी पूर्वक अपना जीवन यापन किया, जैसे कि लाल बहादुर शास्त्री,
गांधीजी, कबीर, जी रैदास
जी, महात्मा आनन्द स्वामी जी ने किया था। सभी ने सात्विकता
को अपनाते हुए ही जीवन-निर्वाह किया। उन्होंने धन को महत्व नहीं दिया अपितू धन
कमाने के साथ-साथ जन कल्याण में भी धन को खर्च किया।
उन चारों के कर्म एक से थे, अंतर केवल इतना था कि एक भाई ईश्वर को तथा मुक्ति को नहीं मानता था।
दूसरा केवल मुक्ति को मानता था। तीसरा
प्रभू को तो मानता था, लेकिन गुरू को सबसे बड़ा मानता था।
चौथा भाई ईश्वर को ही सबसे बड़ा मानता था, लेकिन सभी का
सम्मान करता था।
शेष आठों भाई सभी को भला-बुरा कहते
रहते थे, अहंकार, मोह-माया, विषय-विकार से ग्रसित होने के कारण स्वयं के शरीर/शक्लों/पदार्थों में ही
उलझे रहते थे, राग-द्वैश से ग्रसित रहते थे, स्वार्थ सिद्धि में ही लगे रहते थे।
04 तमोगुण व 04 रजोगुण की प्रबलता वाले भाईयों ने अपना जीवन बर्बाद कर लिया, रजो गुण वालों में अच्छाई और बुराई का मिश्रण था, जबकि
तमोगुण वालों में तो अच्छाई नगण्य थी बुराई की भरमार थी। तमोगुण वाले ना ही
पूर्णतः दिल से मां का सम्मान करते थे, ना ही पिता की आज्ञा
को मानते थे, ना ही गुरू के उपदेषों की पालना करते थे। सदैव
स्वार्थ सिद्धी के बारे में सोचते रहते थे। आठों भाईयों में से किसी ने उंचे दर्जे
की नौकरी हासिल की किसी ने मध्यम दर्जे की और किसी ने निम्नतम दर्जे की आजीविका
हासिल की। सभी को पैसे की भूख थी, सभी पैसे से चिपक कर रहते
थे, उसका त्याग बड़ी मुषिकल से करते थे। तमोगुण वालों का तो
यही मंत्र था कि राम-राम जपना पराया माल अपना। चारों ही रिष्वतखोरी, बेईमानी में लगे रहे, चारों का ही जीवन अषांत
था। लेकिन इन सभी के मन में दिल से किसी
के लिये भी सम्मान नहीं था, यदि किसी के प्रति सम्मान था तो
वह केवल दिखावे के लिये था। रजोगुण वाले चार भाई तमोगुण वालों की तुलना में अच्छे
थे, वे मां का सम्मान करते भी थे तो कभी नहीं भी करते थे,
गुरू का सम्मान करते थे, लेकिन उनकी कुछ बात
मानते थे और कुछ नहीं मानते थे। उनमें अच्छाई और बुराई का बराबर मिश्रण था। लोभ वश
स्वार्थ सिद्धी के लिये असत्य भी बोलते थे।
12 पुत्रों में से केवल 03 सात्विक पुत्रों को ही पिता मिला
और उन्हें गले से लगाया तथा तीनों को 25-25 प्रतिशत सम्पति
दी। चौथा सात्विक पुत्र जो सात्विकता के दायरे में रहते हुए मोह-माया, विषय-विकार में उलझा हुआ था उस पुत्र से पिता नहीं मिला, केवल उसे अपनी सम्पत्ति का 8 प्रतिशत हिस्सा उसके
पास पहुंचा दिया। 04 राजसिक पुत्रों को 4-4 प्रतिशत हिस्सा दिया तथा 4 तामसिक पुत्रों के पास (
. ( प्रतिशत धन पहुंचा दिया।
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि
केवल गुरू का गाण करते रहने से या केवल प्रभू का गाण करते रहने से ना तो गुरू ही
प्रसन्न होते हैं ना ही ईश्वर, ये तभी प्रसन्न होते हैं जब इनकी
आज्ञा का पालन किया जाये। मुक्ति भी केवल तभी मिल सकती है, जब
शरीर/शक्लों/पदार्थों से अनासक्ति हो। जिन्हें 25 प्रतिशत
मिला और पिता ने गले लगाया अर्थात ईश्वर का साक्षात्कार हुआ उन्हें पिता के साथ
परमानन्द/षांति रूपी सुख की प्राप्ति हुई, उनके सभी दुख
समाप्त हो गये। जिसे संसार चाहिये था उसे सात्विकता की अधिकता के कारण अधिक
धन/सम्पत्ति/ऐष्वर्य की प्राप्ति हुई लेकिन साथ में संसार का दुख भी रहा। जिनकी
प्रवृत्ति तामसिक थी, उन्हें अल्पतम सुख तथा अधिकतम दुखों की
प्राप्ति हुई।
आरती ॐ जय जगदीश हरे भी ईश्वर प्राणिधान अपनाते हुए मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार का संदेश देती हैः-
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट, दास जनों के संकट, क्षण में दूर करे,
ॐ ही इस सम्पूर्ण जगत के ईश हैं उनकी जय। जो दास भाव अथवा भक्ति भाव से उनके प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाता है ऐसे भक्तों के कष्टों को वे दूर कर देते हैं, जैसे कि स्वामी दयानन्द जी अपनी वन यात्रा के दौरान कांटों से पत्थरों से तथा भूख की वजह से भूमि पर गिर गये थे तब प्रभू ने एक भालू के माध्यम से उनकी मदद की भालू उनके लिये शहद लाया और उनके पास रखकर चला गया, जिसे ग्रहण करने से उन में पुनः शक्ति का संचार हुआ। इस तरह के कई उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिल सकते हैं।
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का, सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का
जो उनका ध्यान लगाता है, उसे उसका फल भी प्राप्त होता है, जैसे कि पूर्व में आश्रम व्यवस्था थी तथा छात्र गुरूकुल में पढ़ते थे और बाल्यावस्था से ही धर्म के ज्ञान व प्रभू के ध्यान के साथ शिक्षा अर्जित करते थे, तो इस तरह से जो बाल्यावस्था से ही उस ब्रह्म का ध्यान करते हुए अपने अध्ययन काल को पूर्ण पुरूषार्थ से पूरा करते थे, तथा गृहस्थ आश्रम में भी प्रतिदिन पुरूषार्थ करते हुए प्रभू का ध्यान करते थे, तथा वानप्रस्थ आश्रम में सभी भोगों का त्याग
करते हुए केवल एक ब्रह्म का ही स्मरण करते थे, ऐसे व्यक्तियों के मन का दुख न्यून हो जाता है और सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है अथवा आंतरिक शांति रूपी
सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है और मन का दुख समाप्त होने से मन प्रसन्न रहने से तन का कष्ट भी समाप्त हो जाता है।
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी, तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी
हमारे लिये माता-पिता इस जन्म के लिये देव-स्वरूप हैं उनका रिश्ता केवल और केवल इसी जन्म तक के लिये सीमित है, लेकिन वह परम-शक्ति हम सभी की माता भी है और पिता भी है और हर जन्म में वही हमारा सच्चा साथी रहेगा, इसलिये उस सच्चे साथी का आश्रय ही सर्वोत्तम है, उसके आश्रय से ही हम उसका साक्षात्कार कर अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। उसके अतिरिक्त हमारा दूसरा कोई सच्चा साथी नहीं है, हमें सभी धोखा दे सकते हैं, लेकिन वह हमें कभी धोखा नहीं देता है, उसकी अपेक्षा करना ही सर्वोत्तम है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मोह को तोड़ने के लिये ही गीता का ज्ञान दिया था।
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी, पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी
है प्रभू आप ही समस्त जगत में एकमात्र पूर्ण हैं, आपके अतिरिक्त इस संसार में कोई भी ऐसा नहीं जो कि पूर्ण हो, सभी में किसी ना किसी तरह की कमी है, अतः आप ही इस संसार के समस्त जीवों के स्वामी हो, तीनों लोको में आपसे बड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं है। आप सर्वत्र विद्यमान हैं क्योंकि आप अन्तरयामी हैं और कोई भी कितना ही चमत्कारी/सिद्ध पुरूष क्यों ना हो वह समस्त संसार के जीवों के अंतरमन/चित्त में संग्रहित बातों को नहीं जान सकता है। हां इतना अवष्य है कि वह एक समय में अपनी सिद्धी के आधार पर एक व्यक्ति के अंतरमन/चित्त की बातों को बता सकता है।
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता, मैं मूरख फलकामी, मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता
है प्रभू तुम जैसा करूणा वान भी कोई नहीं है, तुम्हारी करूणा तुम्हारे भक्तों के लिये तो रहती ही है, लेकिन पापियों के प्रति भी तुम्हारी करूणा सदैव बनी रहती है, तुम पापियों को भी सदचरित्र महापुरूषों के माध्यम से सुधरने का अवसर देते हो। आप ही समस्त जगत के पालनकर्ता हैं आपने ही सबके लिये दाना-पानी की व्यवस्था कर रखी है, आपकी रचना के कारण ही भूमि से हमें अन्न, फल-फूल आदि प्राप्त होते हैं। मैं मूरख हूं कि आपसे हमेशा कुछ ना कुछ पाने की कामना ही करता रहता हूं, जबकि आपका सच्चा सेवक बनने के लिये केवल और केवल आपकी कामना ही मुझे करनी चाहिये। है मेरे स्वामी, मेरे प्रभू मुझ भक्त पर कृपा करो कि इस नश्वर संसार से जुडी हुए कामनाओं को न्यून करने का अभ्यास करते-करते, सच्चे अर्थों में इस संसार के स्थान पर तेरा भक्त/सेवक बन सकूं।
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति, किस विधि मिलूं दयामय तुमको मैं कुमति
है प्रभू आप अगोचर है अर्थात् दिखाई नहीं देते हैं। सभी जीवों के अंदर प्राणों का संचार करने वाले हैं तथा प्राणों को निकालने वाले हैं, अतः आप सभी के प्राणों के स्वामी हैं। है दयामय महान प्रभू आप दिखाई नहीं देते हैं तो आप ही मुझे बताईये कि में कुमति किस तरह से आप का साक्षात्कार करूं।
दीन.बन्धु दुःख.हर्ता, ठाकुर तुम मेरे, स्वामी रक्षक तुम मेरे, अपने हाथ उठाओ, अपने शरण लगाओ, द्वार पड़ा तेरे
है प्रभू आप ही तो हैं जो ऐसे दीन जिनका कोई बन्धू नहीं है, उनके भी आप बन्धू हैं। आपके भक्त के समक्ष यदि दुख भी आता है तो आप उस दुख को हल्का कर देते हैं, उसे दुख सहने की शक्ति देते हैं, इस तरह आप दुखहर्ता हैं। है प्रभू आप ही मेरे लिये सबसे बड़े महाराजधिराज हैं आप ही मेरे रक्षक है। है प्रभू जैसा कि यह परम सत्य है आपके अतिरिक्त मेरा कोई दूसरा नहीं है, आपने मुझे जीवन देकर इस शरीर रूपी माया जाल को बिछाया है तथा इससे भी बड़े माया जाल के रूप में इस संसार की रचना की है, ये सभी नश्वर है, लेकिन यह ऐसा जाल है, जो आपकी माया के कारण सभी को अति-प्रिय लग रहा है, लेकिन सत्यता तो यही है कि आपका सानिध्य ही तीनों लोकों में सबसे बड़ा है। अतः मैं आपके द्वार पर खड़ा हुआ हूं, आपका सानिध्य पाने के लिये आपकी तरफ अपना हाथ बढ़ा रहा हूं,। है प्रभू मुझे अपनी शरण में ले लो।
विषय.विकार मिटाओ, पाप हरो देवा, श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा
है प्रभू मेरे जीवन का सबसे बड़ा उद्देष्य अपने कर्तव्य कमों को निष्काम कर्मों द्वारा पूरा करना है तथा अपने अंतरमन से नश्वर पदर्थों/शक्लों से नाता तोड़कर आपसे नाता जोड़कर आपका साक्षात्कार कर जन्म-मरण के चक्र से छूटना है।
अतः में आपके साक्षात्कार का अभिलाषी हूं अथवा आपका सानिध्य पाना चाहता हूं, लेकिन वह तो तभी सम्भव हो सकता है जब में ऐसे महान संत जो विषय (इन्द्रियों के भोग)-विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) से मुक्त हैं निष्पाप हैं और जो संसार के माया जाल को तोड़कर निरन्तर सत्य पथ पर चलने के कारण आपका साक्षात्कार कर चुके हैं, और जीते जी ही आपके सानिध्य में रहते हैं। आपके सानिध्य में रहने के कारण ही आपकी वाणी का उपदेश सब को कर रहे हैं। ऐसे महापुरूषों के सत्य उपदेश का पालन करना ही तो सच्चे अर्थों में श्रद्धा भक्ति है। है प्रभू मुझ पर कृपा करना की मैं उनकी सेवा करते हुए उनके सानिध्य में रहते हुए तथा उनके सत्य उपदेश का पालन करते हुए तथा वैराग्य का अभ्यास करत हुए सत्य पथ पर चलते हुए विषय (इन्द्रियों के भोग)-विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) व पाप से मुक्त होकर आपका साक्षात्कार कर सकूं।
ईश्वर सर्वव्यापक है, अतः जो सर्वव्यपाक है वह एक ही हो सकता है, अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव में होने से वह सबसे सूक्ष्म है तथा पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होने से उससे बड़ा कोई नहीं हो सकता है। सर्वत्र विद्यमान होने के कारण उसे अन्तयार्मी कहा गया है। पंच तत्व से निर्मित शरीर में प्राणां को डालने वाला निकालने वाला भी वही है अर्थात् जो सर्वत्र विद्यमान होगा वही तो एक समय में असंख्य शरीरों में प्राण डाल सकेगा और असंख्य शरीरों से प्राण निकाल सकेगा, इसलिये उसे प्राण-पति कहा गया है। अतः जो सर्वत्र विद्यमान है, सभी के प्राणों का स्वामी है तथा अगोचर है उसकी मूर्ति भी नहीं बनायी जा सकती है। वह शक्ति एक ही है चाहे उसे माता-पिता, बन्धू-सखा अथवा किसी भी नाम से पुकारा जाये। वेद में, गीता में तथा उपनिषदों में ओम् नाम ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। कैसी यह देर लगाई है दुर्गे, हे मात मेरी हे मात मेरी।
है जगदम्बे कब से तेरे दर्षन की आस
लगी है, लेकिन तूने यह कैसा विलम्ब कर रखा है कि तेरे दर्षन
नहीं हो पा रहे हैं। अर्थात् यदि मृर्ति के दर्षन से तृप्ति हो जाती तो इस भजन को
लिखने की आवष्यकता नहीं थी, मूर्ति तो सामने विद्यमान है,
फिर भी भक्त उस समस्त संसार की मां के दर्षन के लिये तरस रहा है।
भक्त के दर्षन क्यों नहीं हो रहे हैं इसका रहस्य भी अगली पंक्तियों में दर्षाया
गया है।
भव सागर में घिरे पड़े हैं, काम आदि गृह में घिरे पड़े हैं। मोह आदि जाल में जकड़े पड़े हैं।
है मां में काम, को्रध, लोभ, मद, मोह के कारण इस संसार रूपी भवसागर में पड़ा हुआ हूं तथा मोह-माया, राग-द्वेष रूपी जालों में कैद हो रहा हूं। अर्थात् जितने भी समस्त
विषय-विकार है, पापकर्म है इनके कारण संसार के बंधन में बंधा
हुआ हूं, और इसी कारण तेरा साक्षात्कार नहीं हो पा रहा है।
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयं
ही इनमें जकड़ा हुआ है, उसे स्वयं ही इन्हें छोड़ने का अभ्यास करना होगा। इन
बंधनों से मुक्त होने पर ही उस सर्वव्यापक/आनन्दस्वरूपा/ज्योतिस्वरूपा जगत की माता
का साक्षात्कार हो सकता है।
ना मुझ में बल है, ना मुझ में विद्या, ना मुझ ने भक्ति ना मुझ में शक्ति।
शरण तुम्हारी गिरा पड़ा हूँ, ना अपना कोई कुटुम्भ साथी, ना अपना यह शरीर साथी।
आप ही उभारो पकड़ के बाहें, चरण कमल की नौका बना कर, हम पार होंगे खुशी मना कर।
यम दूतों को मार भगा कर।
है जगत की मां मैं तुम्हारे प्रति
समर्पित होने का प्रयास कर रहा हूं, लेकिन मेरी निर्बलता,
शक्तिहीनता, अज्ञानता के कारण इस भौतिक संसार
से जु़ड़े हुए मोह-माया, विषय-विकार, राग-द्वैष
से ग्रसित होने के कारण इनमें ही उलझा रहता हूं और इसीलिये जब भी में आपका ध्यान
लगाने का प्रयास करता हूं तो बार-बार भटक कर तेरे स्थान पर नष्वर शक्लों व पदार्थों
का ध्यान करने लग जाता हूं और इस तरह भक्तिहीन हो जाता हूं।
मां मुझे यह ज्ञान हो चुका है कि तेरे
अतिरिक्त मेरा कोई भी सच्चा साथी नहीं है, मेरे जो कुटुम्ब के
संबंधी या रिष्तेदार हैं व मेरे सच्चे साथी नहीं है, जब तक
मेरे पुत्र/पुत्री रिष्तेदारों की मुझ से स्वार्थ पूर्ति होगी तब तक ही वे मुझे
कुछ थोड़ा आदर-सम्मान देंगे, उसके बाद वे भी मेरे निर्धन होने
या वृद्ध होने के बाद मुझे मेरे हाल पर छोड़ देंगे तथा यदि कभी मुझे भूले भटके
पूछेंगे तो भी केवल स्वार्थपूर्ति के लिये ही मुझे पूछेंगे। पुत्री का विवाह होने पर वह भी मुझे छोड़कर अपने
ससुराल चली जायेगी और पुत्र का विवाह होने के बाद उनकी पत्नियों का रूप व मोह मुझे
पुत्र से दूर कर देगा तथा पुत्र के लिये उसकी पत्नी और उसके पुत्र-पुत्री ही
सर्वस्व हो जायेंगे और उनकी नजरों में मेरा मूल्य एक निकम्मे व्यकित के जैसा हो
जायेगा। अतः मैं तुम्हारी शरण में हूं मेरी मदद करो है मां कि मैं शक्लों/पदार्थों
का ध्यान छोड़ कर निर्विकार/निर्विचार होकर केवल तेरा सिर्फ तेरा ही ध्यान कर तेरा
साक्षात्कार कर सकूं।
चरण-कमल की नौका अर्थात् तुझ को
तन-मन-धन से समर्पित होने पर ही ऐ मां तू मेरा हाथ थामेगी और मुझे हंसते हुए इस
नष्वर संसार से अर्थात् जन्म-मरण से मुक्ति मिल सकेगी। जिसके साथ तू हो उससे यम के
दूत अर्थात् मृत्यु भी दूर भाग जाती है अर्थात् इस संसार का सब कुछ त्याग कर जो
तेरा हो जायेगा वह अपने निर्धारित मृत्यु समय पर स्वयं हंसते हुए प्राणों का त्याग
करेगा।
सदा ही तेरे गुणों को गाऊं, सदा ही तेरे स्वरूप को ध्याऊं।
नित प्रति तेरे गुणों को गाऊं, ना हम किसी का ना कोई हमारा, छाया है चारो तरफ
अँधियारा।
पकड़ के ज्योति दिखा दो रस्ता, शरण पड़े हैं हम तुम्हारी, करो दो नैया पार हमारी।
है मां लेकिन मैं तभी इस कठिन परीक्षा
में उत्तीर्ण हो सकूंगा जब तेरे गुणों का गाण करूं अर्थात् जैसी तू है वैसे ही मैं
भी परोपकारी/सेवाधारी/कल्याणकारी /न्यायकारी बनकर तुझे हर पल हर क्षण याद रखते हुए
नित्य तेरे स्वरूप का ध्यान करता रहूं और तेरा सच्चा ध्यान तो तभी सम्भव है मां कि
जब मै किसी भी क्षण किसी भी पल बुरा कर्म नहीं करूं तथा बुरे विचारों को अपने मन
में स्थान नहीं दूं। सदा यह याद रखूं कि मेरा इस संसार में तेरे अतिरिक्त और कोई
नहीं है, यह सब रिष्ते-नाते घनघोर अंधेरे के समान है, जिनमें जकड़े रहने के कारण तेरा दर्षन नहीं किया जा सकता है।
तुझ में आसक्त और समस्त सांसारिक
शक्लों/पदार्थों से अनासक्त रहने का सतत अभ्यास करने पर ही मेरे जीवन में मेरी
कामनायें/वासनायें कम होते होते न्यून हो जायेगी तथा मेरी आत्मा पर जो बूरे
विचारों/संस्कारों/कर्मों की कालिख लगी हुई है वह भी कम होते-होते स्वाहा हो
जायेगी और जैसे-जैसे मैं शुद्ध होउंगा वैसे-वैस ही मेरे अंतर में विद्यमान तेरी
ज्योति भी तीव्र होती जायेगी। तेरी ज्योति के माध्यम से तेरा साक्षात्कार करने के
पष्चात ही मेरी नैया पार हो सकती है, अर्थात मैं जन्म-मरण
रूपी इस पंच तत्व के शरीर से मुक्त हो सकता हूं।
है मां तुझ से प्रार्थना है कि मुझे
इतनी शक्ति दे कि मैं तेरी छत्र-छाया में रहते हुए विषय-विकार व पाप से दूर रहते
हुए निष्काम कर्म करते हुए तेरा साक्षात्कार कर जीते जी मुक्त होकर अंत में हंसते
हुए प्राणों को त्याग कर जन्म-मरण रूपी बंधन से छूट सकूं।
हम जब तक अंतर मन में केवल और केवल
प्रभू/मुक्ति के लक्ष्य को पाने की कामना रखते हुए विषय-विकार व पाप से मुक्त होने
तथा निष्काम सत्कर्म करने का अभ्यास कर प्रगति करने का प्रयास कर पूर्णत सात्विक
नहीं बन जाते तब तक हमें प्रभू साक्षात्कार/परमानन्द की प्राप्ति अथवा मुक्ति
मिलना असम्भव है। निम्न भजन भी इसकी पुष्टि करते हैंः -
जीवन की नैया डोले जब भेद अगर ना
खोले। ईश्वर का मन जो हौले फिर खाये ना हिचकोले। मन कामी है मन है लोभी तेरी
सदगति कैसे होगी? मन काबू में जब आये तब ही बनते हैं योगी। तूही तूही
जब तक ना मनवा बोले जीवन की नैया डोले। मन दिखलाता है सपने हरि नाम नहीं दे जपने
हर बार ही रह जाते हैं सपने बनकर के सपने। ईश्वर है केवल षाक्ति जिससे मिलती है
भक्ति, बिन भक्ति किये जन्मों से ओ भक्त मिलेगी ना मुक्ति।
तूही तूही जब तक ना मनवा बोले जीवन की नैया डोले।
अर्थात् तब तक यह जीवन रूपी नैया
बार-बार इस संसार रूपी भवसागर में डूबती रहेगी जब तक यह रहस्य नहीं खुल जाता कि इस
जीवन रूपी नैया में जो विषय-विकार व पाप रूपी छेद हैं उन्हें दूरूस्त नहीं किया
जाता तब तक यह नैया बार-बार डूबती रहेगी। जो इन छिद्रों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह, शौच, संतोष,
तप, स्वाध्याय, ईश्वर
प्राणिधान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि रूपी लेप से नहीं भर देता तब तक यह नाव बार-बार डूबती
रहेगी। अर्थात् मनुष्य जन्म-मरण के बंधन में बंधा रहेगा।
मन ही मनुष्य को भोगी या योगी बनाता
है, जब मन में ईश्वर के प्रति प्रेम उठता है तो उसकी प्रभू से निकटता बढती है
तथा वह योगी हो जाता है और जब उसमें काम का अथवा लोभ का भाव उठता है तो वह
कामी/भोगी हो जाता है और ईश्वर से दूर हो जाता है। मन ही उसे सपने दिखाता है कि
प्रभू का नाम ले लिया है काफी है अब अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में लग जा, और मन रूप का स्मरण करता है और यह रूप का स्मरण ही स्पर्ष सुख की पूर्ति
के लिये आग में घी का काम करता है, मन रस का स्मरण करता है
और उसकी पूर्ति के लिये ऐसे पदार्थ शरीर में जाते हैं, जो
धीमे जहर का काम करते हैं, और व्यक्ति को रोगी बना देते हैं।
अर्थात् मन व्यक्ति को इतना उलझा देता है कि व्यक्ति प्रभू स्मरण के स्थान पर यही
सोचता रहता है कि यह खाउं, यह पीयूं, यह
पहनूं, यह सुगंध अपने तन पर लगाउं, यह
तान (संगीत) सुनू, स्पर्ष सुख प्राप्त करूं। और इस तरह प्रभू
के स्थान पर इन्द्रियों के विषय और विकार के संस्कार मन में संग्रहित हो जाते हैं
और मृत्यु के समय प्रभू के स्थान पर उन्हें इन्हीं का स्मरण, इन्हीं की चिंता सताती है, और उसे बार-बार इस संसार
में आना पड़ता है।
जो सब कुछ अनित्य/नष्वर
शक्लों/पदार्थों को छोड़कर केवल और केवल प्रभू को ही सत्य मानकर उसे ध्यान में रखते
हुए निष्काम सत्कर्म करता है वही भवसागर से पार हो सकता है, अन्य नहीं।
जप चाहे जीतना कर ले, तप चाहे जितना करले लेकिन प्रभू को नही ंतो पायेगा,
रे बन्दे जब तक खुदी को ना मिटायेगा।
खुद ही है जहां भगवान नहीं है,
जिसमें मैं हैं वो इन्सान नहीं है। तू
खूद को जान प्यारे खुद को पहचान प्यारे, वरना बहुत पछतायेगा।
क्यूं करता है मेरा मेरा सच में तो बन्दे कुछ नहीं तेरा। तन भी ले लेगा ईश्वर धन
भी ले लेगा ईश्वर, क्या तेरा रह जायेगा। मैं से किया जो
गुणगाण नहीं वो खुद ही ना मिटाई किया दान नहीं वो,
चाहे तू दान कर ले चाहे गुण गाण कर ले
कुछ भी काम नहीं आयेगा।
जब तक खुदी को ना मिटायेगा। बन्दे तू
जल्दी से खुद ही को बिसारे दे, तू तू को रट ले
मैं को तू मार दे, तू से तू जोड़ रिष्ता मैं से तू तोड़ रिष्ता जन्म सफल हो जायेगा।
विषय-विकार व पाप, राग-द्वैष मोह-माया में लिप्त रहते हुए किया हुआ जप उस प्रभू का जप हो ही
नहीं सकता है, वह तो विषय-विकार, पाप,
राग-द्वैष मोह-माया का जप है, अतः ऐसा जप
कितना भी कर ले, प्रभू का साक्षात्कार नहीं हो सकता है।
विषय-विकार, पाप, राग-द्वैष मोह-माया
ही अहंकार का कारण है, इनका दमन होने पर अहंकार भी समाप्त हो
जाता है, जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि जब मैं था तब हरी
नहीं अब हरी है मैं नाही । अर्थात् अहंकार समाप्त होने पर मनुष्य ऐसा बन जाता है
कि कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
मन से विषय-विकार, पाप, राग-द्वैष मोह-माया को दूर करने के बाद ही आत्म
साक्षात्कार अर्थात् खुद को जाना जा सकता है, और जिसने स्वयं
को नहीं जाना, प्रभू को नहीं जाना उसे अंत समय में पछताना ही
पड़ेगा। क्योंकि वास्तव में उसके अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ/शक्ल/संबंध सत्य नहीं
है, सब कुछ उस परम शक्ति का ही है, हमारा
कुछ भी नहीं ना हम कुछ लायें थे ना ले जा सकते हैं सिर्फ कर्म ही हमारे साथ रहते
हैं। ईश्वर इस संसार में हमें तन और धन आदि उपलब्ध कराता है, और वही वापस हम से ले लेता है। अतः इन से प्रीति नहीं रखकर प्रभू से
प्रीति रखनी चाहिये। विषय-विकार व पाप,
राग-द्वैष मोह-माया से ग्रसित रहते हुए किया गया दान भी उसके बंधन
का ही कारण बनता है। ईश्वर सब कुछ वापस कैसे लेता है इसे स्पष्ट करने के लिये एक
कथा निम्नानुसार हैः-
एक राजा के कोई संतान नहीं थी, उसे उत्ताधिकारी चाहिये था, उसने मंत्री से चर्चा कर
यह घोषणा कर दी कि जो भी राजा बनना चाहता है, उसकी एक कठिन
परीक्षा ली जायेगी, जिसमें उत्तीर्ण होने पर ही उसे राजा
बनाया जा सकेगा, स्त्री या पुरूष कोई भी इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता है। एक वर्ष का
समय परीक्षा के लिये निर्धारित किया गया, जिससे कि प्रतिभागी
इस 1 वर्ष में अपना शरीर व बुद्धि दोनों की वृद्धि कर सके।
एक युवक अत्यंत पुरूषार्थी था, बुद्धिमान था, उसने एक अनुभवी गुरू का आश्रय लिया और ब्रह्मचर्य धारण करके पूरे वर्ष
नियमित व्यायाम व पौष्टिक आहार द्वारा अपने बाहुबल को बढाया।
राजा ने मायानगरी का निर्माण करवाया। 25 किलोमीटर लम्बे स्थान में 5 दरवाजे बनाये। हर 5 किलोमीटर पर प्रतियोगियों के लिये वस्तुयें रख दीं और कहा कि जो राजा
नहीं बनाना चाहे वो इनमें से कोई भी वस्तु अपने साथ मुफ्त में ले जा सकता है।
सभी स्त्री-पुरूषों ने सोचा कि चलो
राजा नहीं भी बने तो कुछ तो मुफ्त में मिल ही जायेगा। बूढे, बच्चे, जवान पुरूष व स्त्रीयां राजा बनने की दौड़ में
शामिल हो गये। पहले दरवाजे में अंदर घुसते ही सबने देखा कि जगह-जगह पकवान सजे हुए
हैं, जिसका जो इच्छा हो खाये। सभी खाने में लग गये, लेकिन उस युवक को जैसा कि उसके गुरू ने समझाया था कि यदि रस्ते में गरिष्ठ
भोजन खाया तो 25 किलोमीटर की दूरी तय करना मुष्किल हो
जायेगा। अतः उसने लस्सी पी और आगे बढ़ गया । शेष सभी ने खूब-खाया, खूब-प्रसन्न हुए। 5 किलोमीटर की दूरी तय करते-करते
ही बहुत से लोगों के पैर दूखने लग गये वे दूसरे दरवाजे में प्रविष्ठ हुए वहां पर
कीमती वस्त्र/बर्तन चांदी आदि का ढेर लगा था, बहुत सारे लोग
उनपर टूट पडे़ और लगभग 75 प्रतिषत लोग वापस घर की और लौट
चले। तीसरे दरवाजे में सोने के आभूषणों का
ढेर लगा था, अत। उनमें 20 प्रतिशत लोग
भी सोने के आभूषणों पर टूट पडे़ और वापस घर की और लौटने लगे। चौथे दरवाजे में
घुसने पर तथा पांचवे द्वरवाजे के पास पहुंचने पर उन्हांन देखा कि एक स्थान पर
हीरे-जवाहरात का ढेर लगा था तथा पास में ही एक विषालकाय पहलवान भी खड़ा था उससे
युद्ध करके ही कोई पांचवे दरवाजे में प्रवेश कर सकता था। वे सभी लोग बहुत थक गये
थे, उससे लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाये और एक को छोड़कर शेष
सभी हीरे-जवाहरत लेकर घर की और चल पड़े। उस युवक ने बुद्धिमता पूर्वक उस पहलवान से
युद्ध किया और विजयी हुआ तथा पांचवे द्वार में प्रवेश किया, वहां
पर राजा उसका इंतजार कर रहा था। राजा ने उसे गले लगाया। उसे राजा बनाया। शेष सभी से जिन्होंने इस
प्रतियोगिता में शामिल होकर प्राप्त किया था प्रथम द्वार पर खड़े द्वारपालों ने
पुनः ले लिया और उन्हें खाली हाथ जाना पड़ा, उनके हाथ कुछ
नहीं लगा।
अर्थात् इस संसार से हम कर्म के
अतिरिक्त कुछ नहीं ले जा सकते हैं, और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के
लिये सर्वस्व त्याग करने वाले को ही राज्य मिलता है अर्थात् मुक्ति मिलती है।
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के
लिये अपने साधन रूपी शरीर को पुष्ट करना पड़ता है। ज्ञान का अर्जन करना पड़ता है, उस ज्ञान के अनुसार कड़ा परिश्रम करना पड़ता है, अभ्यास
करना पड़ता है। अपने लक्ष्य को प्रतिपल याद रखना पड़ता है, तब
ही कोई अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना के मंत्र
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव
। यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
तू सर्वेष सकल सुख दाता शुद्ध स्वरूप
विधाता है, उसके कष्ट नष्ट हो जाते जो तेरे ढिंग आता है, सारे दुर्गुण, दुरव्यसनों से हमको नाथ बचा लीजे मंगल
मय गुण कर्म पदार्थ प्रेम सिंधु हमको दीजे
है प्रभू आप ही सुख/ज्ञान/प्रकाश के
भंडार है, इस संसार को उत्पन्न करने वाले हैं। है प्रभू जो भी
तेरी शरण में आता है, उसके कष्टों को तू नष्ट देर कर देता है,
है प्रेम के सागर, दया के सागर, है प्रभू, है नाथ आपसे प्रार्थना है कि जितने भी
दुर्गुण है, दुर्व्यसन हैं उनसे हमें दूर कर देना और जितने
भी सद्गुण है, हमें प्रदान करना और ऐसी कृपा करना कि हम उन
सद्गुणों को अपने जीवन में धारण करते हुए सदैव निष्काम सात्विक कर्म करते रहने में
सक्षम हो सके।
हिरण्यगर्भर समवर्त्तताग्रे भूतस्य
जातरू पतिरेक आसीत् ।स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम
तू है स्वयं प्रकाश सुचेतन शुद्ध
स्वरूप शुभ त्राता है, सूर्य चन्द्र लोक आदि को तो रचता और टिकाता है,
पहला था, अब भी तू ही घट-घट में व्यापक स्वामी
योग भक्ति तप द्वारा तुझ को पाये हम अंतरयामी।
है प्रभू यह समस्त संसार आपके ही
प्रकाश से प्रकाषित हो रहे हैं, केवल आप ही परम शुद्ध हैं,
शेष सभी पूर्णतः शुद्ध नहीं है, अर्थात् उनमें
किसी ना किसी तरह की अषुद्धता का संयोग रहता ही है। आप ने ही सूर्य, चन्द्र, तीनों लोकों की रचना की है और आपके आधार पर
ही यह सब टिके हुए हैं, आपकी शक्ति से ही ये सभी गतिमान हैं।
आप अनादि है संसार की रचना से पहले भी आप विद्यमान थे, वर्तमान
में भी हैं और प्रलय के बाद भी आप विद्यमान रहेंगे। है प्रभू ऐसा कोई स्थान नहीं
है जहां आप नहीं हो। है महान् प्रभू, परमेष्वर, स्वामी, अंतरयामी हमें शक्ति दो कि हम तेरा ध्यान
लगाकर, तेरी भक्ति करते हुए अर्थात् तुझे सर्वत्र विद्यमान
मानते हुए सात्विक/निष्काम सत्कर्म करें तथा तेरा साक्षात्कार कर सकें।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते
प्रशिषं यस्य देवारू।यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युरू कस्मै देवाय हविषा विधेम
तू ही आत्मज्ञान बल दाता सुयश विज्ञ
जन गाते हैं, तेरी चरण शरण में आकर भव सागर तर जाते हैं, तुझको जपना ही जीवन है मरण तुझे बिसराने में मेरी सारी शक्ति लगे प्रभू
तुझ से लगन लगाने में।
है प्रभू आपसे बड़ा दाता इस संसार मे
कोई नहीं आप ही आत्म ज्ञान को पुष्ट करते है, अतः आपकी महिमा का
गुणगान सभी विद्वान करते हैं। है प्रभू केवल तेरा और तेरा आश्रय लेकर ही हम
जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। है प्रभू तेरा स्मरण करना
ही मेरा जीवन है अर्थात् में तुझे पलश्-पल याद रखते हुए अपने कर्म करूंगा तो कोई
भी बुरा कर्म नहीं कर सकूंगा, लेकिन जिस क्षण या पल या समय
मे कोई भी बूरा कर्म करूंगा तो उस समय आपको भूलने के कारण ही तो ऐसा मूर्खतापूर्ण
कर्म करूंगा तथा अषुभ कर्म करना ही तो मेरी मृत्यु है प्रभू। मुक्ति पथ में सबसे
बड़ी बाधा है प्रभू। है प्रभू मुझ पर कृपा करो मुझे आषीर्वाद दो कि मैं अपने
कर्तव्य कर्मों को पूरा करते हुए अपनी
शक्ति इस नष्वर संसार से अनासक्त रहते हुए तुझ परमसत्य से लगन लगाने में ही
लगाउं और तेरा साक्षात्कार कर सकूं।
यरू प्राणतो निमिषतो महित्वैक
इन्द्राजा जगतो बभूव। ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदरू कस्मै देवाय हविषा विधेम
तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्याति
जगाई है, मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है, अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं भक्ति भाव की भेंट लेकर
तब चरणों में आते हैं।
है प्रभू आप ने ही अपनी माया से इस
जगत को प्रकाषित किया है, आप महान हैं
प्रभू आपने ही मनुष्य और पषुओं को उत्पन्न किया है, आपके
अतिरिक्त कोई भी यह महान कार्य करने में सक्षम नहीं है। है परमेष्वर मैं अपने हृदय
रूपी सिंहासन पर केवल और केवल तुझे ही विराजित करता हूं अर्थात हृदय में केवल और
केवल तेरा ही सर्वोपरि स्थान है। है प्रभू तेरी वास्तविक भक्ति तो यही है कि हम
कोई भी अषुभ कर्म नहीं करें, तो तुझ से प्रार्थना है कि हम
शुभ कर्म रूपी भेंट तुझे अर्पित करने हेतु तेरी शरण में आये।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन
स्वरू स्तभितं येन नाकरू । अन्तरिक्षे रजसो विमानरू कस्मै देवाय हविषा विधेम
तारे, रवि चन्द्र आदि रचकर
निज प्रकाश चमकाया है, धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लगाया
है, तू ही विष्व विधाता पौषक तेरा ही हम ध्यान करें शुद्ध
भाव से भगवन तेरे भजनामृत का पान करें।
है प्रभू आपने ही तारे, सूर्य, चन्द्र आदि की रचना करके उन्हें प्रकाश
प्रदान किया है। है महान प्रभू आपने ही इस इतनी विषाल पृथ्वी को धारण कर एक अदभूत
कौषल को प्रदर्षित किया है। है प्रभू आप ही इस सम्पूर्ण विष्व के स्वामी हैं,
पालनकर्ता है। है प्रभू हम केवल और केवल तेरा ही ध्यान करें। है
प्रभू हम तुझे पल-पल ध्यान में रखते हुए सदैव केवल और केवल शुभ कर्म करते हुए
शुद्ध मन से तेरी ही महिमा का श्रवण करें और तेरी ही महिमा का गुण-गाण करें।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा
जातानि परिता बभूव ।यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्
तुझ से भिन्न ना कोई जग में सब में तू
ही समाया है, जड़ चेतन सब तेरी रचना, तुझ में
आशय पाया है, है सर्वोपरि विभू विष्व का तूने ताज सजाया है,
हेतु रहित अनुराग दीजिये यही भक्त को भाया है।
है प्रभू इस संसार में ऐसा कोई नहीं
जो तुझ से अलग हो, आप तो सर्वत्र विद्यमान हैं प्रभू। चाहे जड़ (अचल)
पदार्थ हो या चेतन(चलायमान) सब आपने ही बनाये हैं और आपही पर आश्रित हैं। है प्रभू
आप ही इस सम्पूर्ण विष्व में सबसे बड़े हैं आपसे बड़ा अन्य कोई भी नहीं है। है प्रभू
आपसे विनीत है कि आप अपने इस तुच्छ भक्त को ऐसा आषीर्वाद दें कि आपसे ऐसा प्रेम
मेरे मन में बना रहे कि मैं आपसे केवल और केवल आप ही को मांगू पिता अन्य किसी भी
वस्तु को नहीं। है प्रभू मुझे आप ही सबसे अधिक प्रिय हैं, अन्य
कोई नहीं।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि
वेद भुवनानि विश्वा।यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त
तू गुरू है प्रजेश भी तू है, पाप पुण्य फल दाता है, तू ही सखा बन्धू मम तू ही तुझ
से ही सब नाता है, भक्तों को इस भव बंधन से तू ही मुक्त
कराता है, तू है अज-अद्वैत महाप्रभू सर्वकाल का ज्ञाता है।
है प्रभू आप ही इस संसार के सबसे
प्रथम गुरू हैं, उपदेशक हैं, आप ही सम्पूर्ण जगत
के स्वामी हैं, आप न्यायाकारी हैं अतः आप ही धर्मराज हैं,
आप ही सब को उनके कर्मों के अनुसार निष्पक्ष भाव से सुख-दुख अथवा
मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। है प्रभू आप ही मेरे मित्र हैं, आप ही मेरे भाई हैं, मेरे सारे रिष्ते आप ही से हैं
प्रभू क्योंकि इस जन्म के रिष्ते-नाते तो इस जन्म तक ही सीमित हैं। है प्रभू आपके
अतिरिक्त इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो तेरी कृपा के बिना इस जन्म-मरण के चक्र से
छुटकारा पा सके, क्योंकि आप तो न्यायाकारी हैं प्रभू अतः आप
सतोगुण वाले निष्काम कर्म करने वाले भक्त की पूर्ण मदद करते हैं और आप कृपा करके
उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त भी कर देते हैं। है प्रभू आप भूत-वर्तमान-भविष्य
सभी कालों के ज्ञाता हैं। है प्रभू आप जन्म और मृत्यु से परे हैं, आप के जैसा इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई भी नहीं है प्रभू कोई भी नहीं
है।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि
देव वयुनानि विद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम
तू है स्वयं प्रकाश रूप प्रभू सबका
सृजन हार तू ही रसना निस दिन रटे तुम्हीं को मन में बसना सदा तूही, अध-अनर्थ से हमें बचाते रहना हर दम दया निधान अपने भक्तजनों को भगवन दीजे
यही विशद वरदान
है प्रभू इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
केवल और केवल आप ही ऐसे हैं जो स्वयं प्रकाशमान है और अपने प्रकाश से सबको
प्रकाषित कर रहे हैं। है प्रभू आप ही सबको बनाने वाले हैं। है महान प्रभू मुझे
आषीवार्द दो कि ऐसा कोई दिन, ऐसा कोई भी फुर्सत का क्षण मेरे जीवन में नहीं आये जब
कि मेरी यह रसना अर्थात् जीव्हा तेरा सिमरण नहीं करे। है प्रभू आप इस तुच्छ भक्त
पर इतनी कृपा अवष्य ही करना कि मेरे मन की अषुद्धता समाप्त हो जाये और है षुद्ध
स्वरूप उस अषुद्धता के स्थान पर केवल और केवल आप ही मेरे मन में विराजित रहें। है
प्रभू हम तुझ से केवल और केवल यही वरदान मांगते हैं कि हम सभी अनर्थ कारी कर्मों
से दूर रहें। है प्रभू हम अनर्थकारी कर्मों से बचे रहेंगे तभी तो तेरा सानिध्य
हमें प्राप्त होगा।
ईश्वर प्राणिधान और अहिंसा - हिंसक
व्यक्ति जब तक पूरी तरह से हिंसा का त्याग कर सात्विक नहीं बन जाये या फिर कोई भी
पापी अपने पापों का त्याग कर सात्विक नहीं बन जाये, निष्काम कर्म नहीं
करे तब तक उसे ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता है, और ईश्वर
का साक्षात्कार अथवा दिव्य सुख की अनुभूति किये बिना किसी को भी मुक्त नहीं मिल
सकती है, हां सिद्धियां अवष्य मिल सकती है।
ईश्वर प्राणिधान और सत्य - ईश्वर तो
परम सत्य है, जो असत्य का त्याग करने का अभ्यास करते हुए पूर्णतः
सत्य वादी नहीं बनता पूर्णतः सतो गुण में समाहित होने का प्रयास नहीं करता,
उसे भी ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। अर्थात् जिसके हृदय में
सत्य नहीं, कर्मों में सात्विकता नहीं उसे प्रभू का
साक्षात्कार नहीं हो सकता अथवा मुक्ति नहीं मिल सकती है
ईश्वर प्राणिधान और अस्तेय - जिसके
मन में लोभ है, लालच है, दूसरों के पदार्थ/शक्लों
को पाने की लालसा है, उसे भी ईश्वर का साक्षात्कार/मुक्ति
नहीं मिल सकती है। क्योंकि ईश्वर कर्मों के आधार पर यथा सम्भव वही देता है जो
उसके मन में होता है।
ईश्वर प्राणिधान और ब्रह्मचर्य -
बिना ब्रहम्चर्य के ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है। आनन्द स्वामी जी
पूर्णतः सात्विक महात्मा थे, उनके गुरू श्री योगेष्वरानन्द जी ने उन्हें ईश्वर का
साक्षात्कार कराने के लिये अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग किया। गुरूजी के आदेषानुसार
आनन्द स्वामी जी ध्यान में बैठे गुरूजी ने अपनी ज्योति की दृष्टि को उनके
ब्रह्मरंध में फेंका, तभी आनन्द स्वामी जी 2-3 फुट उपर उछले और वापस भूमि पर आ गिरे, उनका आसन
नहीं खुला। तब योगेष्वरानन्द जी ने उनसे कहा कि आप गृहस्थ में रहने के कारण उस
प्रभू की परम शक्ति को झेल नहीं सके, अब मैं आपको आत्म दर्षन
ही करा सकूंगा। उन्होंने फिर कम शक्ति का प्रयोग करते हुए ज्योति फेंकी तथा उन्हें
8 दिन में कुल 19 घंटे में पूरे आंतरिक
शरीर का, पांचों कोषों का तथा आत्मा का साक्षात्कार करवाया ।
ईश्वर प्राणिधान और अपरिग्रह - जिसके
मन में सेवा भाव, परहित है, स्वार्थ नहीं है,
दान की भावना है, सात्विक विचार वाला है वही
वास्तव में अपरिग्रह का पालन करने वाला है, वही ईश्वर को
प्यारा है, और वैसे भी ईश्वर का साक्षात्कार या मोक्ष तो
तभी हो सकता है, जब उसके मन से सभी विकारों सहित लोभ रूपी
विकार समाप्त हो जाये। निम्न भजन में अपरिग्रही के कुछ उदाहरण हैंः-
मधुबन खुशबू देता हैए सागर सावन देता
हैए जीना उसका जीना हैए जो औरों को जीवन देता हैए
सूरज न बन पाए तोए बनके दीपक जलता चलए
फूल मिलें या अँगारेए सच की राहों पे चलता चलण्
प्यार दिलों को देता हैए अश्कों को
दामन देता हैए चलती है लहराके पवनए के साँस सभी की चलती रहेए
लोगों ने त्याग दिये जीवनए के प्रीत
दिलों में पलती रहेए दिल वो दिल है जो औरों को अपनी धड़कन देता है
अर्थात् सार्थक जीवन तो उसका ही जो
औरों को जीवन देने के लिये जीता है। जैसे कि सभी निस्वार्थ भाव से अपने लिये नहीं
रखकर दूसरों को कुछ ना कुछ देते हैं, हम भी अपरिग्रह का
पालन करते हुए वैसा ही बनने का प्रयास करेंः-
उद्यान में लगे पुष्प हमें सुंगध देते
हैं, सागर के दान के कारण उसका पानी सूर्य किरणों से भाप बनकर उपर जाता है और
वर्षा के रूप में हमें प्राप्त होता है, सूर्य उदय होता है
तो भी लाल होता है तथा अस्त होता है तो भी लाल होता है, अर्थात
कैसी भी परिस्थिति हो समअवस्था में रहता है। हम भी सूर्य (महान पुरूषों) की तरह
समस्त संसार को ज्योति (ज्ञान) प्रदान नहीं कर सकें तो कुछ को तो दीपक रूपी ज्योति
बनकर ज्ञान प्रदान करें। हवा इसलिये चलती है कि सभी की जीवन बना रहे, महापुरूषों ने इस जगत के कल्याण के लिये सत्य का उपदेश दिया बदले में दुख
उठाया लेकिन कुछ को तो स्वार्थी लोगों के कारण अपने प्राणों का बलिदान भी करना
पडा। जो अपनी सम्पदा को अस्थायी/नष्वर समझते हुए त्याग कर दूसरों को जीवन देता है
वही महान है, उसी का जीना सार्थक है।
ईश्वर प्राणिधान और शौच - जहां मन
(अंतकरण) की पवित्रता है वहीं पर प्रभू का प्रकटीकरण हो सकता है, उसे ही मुक्ति मिल सकती है, यद्धपि तन की शुद्धि भी
आवष्यक है, लेकिन तन को तो कितना भी शुद्ध कर लो वह अंदर से
तो मलिन ही रहेगा आंखों में गीढ, नाक में सीढ़, मुंह में थूक, कानों में मैल आंतों में मल आदि 24 घंटे ही भरे रहते हैं, यह गंदगी केवल मृत्यु के
पष्चात् पंच तत्व में विलीन होने पर ही समाप्त होती है।
ईश्वर प्राणिधान और संतोष - जहां पर
संतोष है, वहीं पर प्रभू प्रकट हो सकते हैं। लेकिन ईश्वर भी
तभी प्रकट होंगे जब उसकी प्राप्ति के लिये मन में तीव्र असंतोष हो। जैसा कि
महापुरूषां ने कहा हैः-
शंकराचार्य जी कहते हैं ऐसी इच्छा
होनी चाहिये जैसे पानी के बाहर आई मछली पानी में वापस जाने को तड़पती है, बैचेन होती है।
दयानन्दजी कहते हैं कि जैसे कई दिन का
भूखा और प्यासा व्यक्ति अमृत भरे भोजन के लिये तरसता है, उसी प्रकार भगवान के लिये तड़फन हो तो समझना चाहिये कि मुक्ति की इच्छा
जागी है।
योगी अरविंद जी कहते हैं कि जैसे कोई
व्यक्ति काफी समय तक पानी में रहने के कारण तड़पने के बाद असहनीय स्थिति होने पर
बाहर आता है, उतना परिश्रम करने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
ईश्वर प्राणिधान और तप - तप के बिना ईश्वर
प्राणिधान का पालन नहीं किया जा सकता है। अर्थात् सभी को सात्विकता के साथ अपने
कर्तव्य कर्मो को पूरा करना ही तप हैः- जैसे कि
1. ब्रह्मचारी है तो अपने अध्ययन में सफलता हासिल करना तथा माता-पिता,
गुरू आदि का आदर करना उनकी आज्ञा का पालन करना तथा साथ ही ब्रह्म की
आरधना भी करना आदि।
2. गृहस्थ है तो माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन, गुरू,
उपदेशक के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण करने के साथ अभ्युदय व निश्रेयस
में रत रहना आदि।
3. वानप्रस्थी अर्थात् अंतरमन से गृहस्थ का त्याग करते हुए इन्द्रिय निग्रह
का अभ्यास करना, आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करना, ध्यान करना, परहित करना आदि।
4. संयास अर्थात् निरन्तर इन्द्रिय निग्रह का अभ्यास परिपक्व होने पर तथा
समस्त सांसारिक पदार्थों/शक्लों से पूर्णत अनासक्त होने के पष्चात् संयास धारण
करना, मुक्ति का संदेश जन-जन में फैलाना, ध्यान करना आदि।
ईश्वर प्राणिधान और स्वाध्याय :-
चाहे ब्रहमचारी हो, गृहस्थ हो, वानप्रस्थी हो,
संयासी हो जो भी स्वाध्याय करेगा वही ईश्वरप्राणिधान का पालन कर
सकता है, अन्य नहीं।
अर्थात् जो धर्मग्रंथों का अध्ययन करेगा, जो सत्य
पुरूषों का संग करेगा, जो ध्यान करेगा, चित्तवृत्तियों का निरोध करेगा वही तो शुभ सात्विक निष्काम कर्म कर सकता
है।
यदि सभी सत्संग/स्वाध्याय/ध्यान आदि
करे तथा उनके आधार पर अपने जीवन को परिवर्तित करे तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाये, लेकिन आज हमने मत-मतांतरों के अहं में धर्म को गौण कर दिया है। परम आवष्यक
तो यही है कि हम इस कठिन डगर पर चलने का अभ्यास करें, हम सतत
निष्काम सत्कर्म करें तथा स्वयं का सुधार कर स्वयं को सात्विक बनायें। भगवान बुद्ध
और महावीर स्वामी ने तो कर्मों पर ही जोर दिया था। वास्तव में कर्म ही सर्वोपरि
है।
महात्मा ईसा की वाणी के रूप में
प्रचलित भजन ‘‘जिस ने मुझ को देखा है, उसने
पिता को देखा है, जो सुनता मेरी वाणी, वो
सुनता उसकी वाणी, जो माने मेरा आदेश वो माने उसका आदेश,
जो चलता मेरे संग-संग, वो चलता उसके संग’’
यही संदेश देता है कि हमें सत्य ग्रर्थों का अध्ययन करना चाहिये,
सत्य वचनां को सुनना चाहिये तथा उनके अनुसार अपने आचरण को बनाना
चाहियेः-
जिस ने मुझ को देखा है, उसने पिता को देखा है,
आज महात्मा ईसा अथवा किसी भी
गुरू/संत/महात्मा को केवल और केवल आध्यात्मिक साधना करते हुए मन पवित्र होने पर ही
देखा जा सकता है तथा जिसका मन निर्विकार होकर पवित्र हो जाये तो उसे संसार की सबसे
बड़ी दौलत प्रभू का सानिध्य/परमानन्द/आलौकिक अदृष्य शक्तियां प्राप्त हो जाती है
तथा वह भी साधारण से असाधारण मनुष्य बन जाता है। जैसा कि कबीर जी ने कहा है -’’ कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर प्रभू पुकारता फिर रहा कहता कबीर-कबीर।
अधिकतर सभी धर्मगुरूओं ने भी कहा है कि मन पर विजय प्राप्त करने पर ही मुक्ति
सम्भव है।
जो सुनता मेरी वाणी, वो सुनता उसकी वाणी
जिसका मन निर्विकार होकर पुर्णतः
पवित्र/षुद्ध हो जाता है, उसे प्रभू का सानिध्य प्राप्त हो जाता है। अतः
महात्मा ईसा ने कहा कि जो मेरी वाणी सुनता है, वह प्रभू की
वाणी सुनता है। अतः जब तक हमारे अंदर श्वास चल रही है, तब तक
हमें सत्संग/स्वाध्याय/ध्यान आदि को नहीं छोड़ना चाहिये।
जो माने मेरा आदेश वो माने उसका आदेश
सत्य पथ पर चलने से प्रभू का सानिध्य
मिलता है और प्रभू का सानिध्य मिलने से उनकी वाणी प्रभू की वाणी है, तो उनका आदेश भी तो उनकी वाणी के माध्यम से ही प्रकट हुआ है, अतः जो ऐसी महान निर्विकार आत्माओं के आदेषों का पालन करेगा तो स्वतः ही
प्रभू के आदेषों की पालना हो जायेगी।
जो चलता मेरे संग-संग, वो चलता उसके संग।
महात्मा ईसा सत्य मार्ग के पथिक थे, अतः जो भी सत्य पथ पर चलता है, प्रभू भी उसके
साथ-साथ चलता है। उनका और अन्य कुछ धर्मगुरूओं का यह कहना कि आप मेरी भेंडे हैं,
उसका अर्थ भी बहुत से षिष्यों को पता नहीं है। भेड़ का यह स्वभाविक
गुण होता है कि वह अपने चरवाहे के पीछे-पीछे चलती है, अर्थात्
षिष्य को अपने गुरू के पद चिन्हों पर चलना आवष्यक है, उनके
जैसे कर्म कर उसके जैसा बनना परम आवष्यक है।
संध्या और ईश्वर प्राणिधान
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु
पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः॥
है सर्वरक्षक प्रभू आप सब प्रकार से
रक्षा कर रहे हो, आपकी सुरक्षा में सतत सुरक्षित हूं प्रभू कृपा करके
और सुरक्षा प्रदान कीजिए, हे दिव्य गुणों से युक्त जगदीशवर
सबको प्रकाषित करने वाले प्रभू आपने ही सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को प्रकाषित किया प्रकट
किया मुझे आत्मा के लिये शरीर बनाकर मुझ आत्मा को प्रकाषित किया प्रकट किया,
आपके कारण मैं अपने आपको जान पा रहा हूं प्रभू । हे सर्वत्र
विद्यमान जगदीशवर आपकी विद्यमानता सब जगह है प्रभू। है प्रभू मैं आपसे निवेदन करता
हूं कि हमको मनोवांछित सांसारिक सर्वोत्कृष्ठ अभ्युदय सुख (धर्म, अर्थ, काम) को, पूर्णान्द रूपी
निश्रेयस रूपी मुक्ति सुख को प्रदान कर कल्याण करो प्रभु। कृपा करके दोनों प्रकार
के सुखों की चारों ओर से वर्षा कीजिए प्रभू।
यही मेरा उद्देष्य है, यही मेरा लक्ष्य है, यही मेरा संकल्प है, यही मेरी प्रतिज्ञा है, इस शरीर में रहते हुए
सांसारिक सर्वोत्कृष्ठश्अभ्युदय सुख को प्राप्त करना चाहता हूं तथा इस सुख को
प्राप्त करते हुए निश्रेयस रूपी मुक्ति सुख को पाना चाहता हूं।
ओम वाक-वाक, ओम प्राणः-प्राणः, ओम चक्षुः-चक्षुः, ओम श्रोत्रं-श्रोत्रं, ओम नाभिः, ओम हृदयं, ओम कंठः, ओम षिरः,
ओम् बाहुभ्याम यषोबलम, ओम करतल करपृष्ठे।
है जगदीशवर मेरा लक्ष्य महान है मैं
इस लक्ष्य को बिना स्वस्थ शरीर के, बिना शक्ति के बिना सामर्थ्य के
प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आपसे प्रार्थना है कि मेरी वाणी मधुर हो, मेरा शरीर, प्राण, आंखें,
कान, नाभि, हृदय,
कंठः, सिर व मस्तिष्क, भुजायें,
हाथ मेरे शरीर के सभी अंग, प्रत्यंग, उत्तक, कौषिका दृढ हो बलवान हो।
ओम भू पुनातु षिरसि, ओम भुव पुनातु नेत्रयोः। ओम स्वः पुनातु कण्ठे, ओम
महः पुनातु हृदये, ओम जनः पुनातु नाभ्याम्, ओम तपः पुनातु पादयो। ओम सत्यं पुनातु पुनषिरसि, ओम
खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।
वह प्राणस्वरूप, प्राणप्रिय परमेष्वर मेरे सिर (मस्तिषक) में पवित्रता करे। सर्व दुःख विनाशक
प्रभु मेरे दोनों नेत्रों में पवित्रता करें, आनन्द स्वरूप ईश्वर
मेरे कण्ठ में मेरी वाणी में पवित्रता करें। सबसे महान् पूज्य प्रभू मेरे हृदय
(आत्मा) में पवित्रता करें। हे सवोत्पादक प्रभु मेरे नाभि प्रदेश में पवित्रता
करें। हे दुष्टों के सन्तापक और ऐष्वर्यवान, ज्ञानविज्ञान
स्वरूप प्रभु मेरे दोनों पेरों में पवित्रता करे। हे सत्यस्वरूप, सत्प्रेरक, अविनाषी प्रभु मेरे सिर (मस्तिष्क) में
पुनः पुनः पवित्रता करे। हे सर्वव्यापक महान ईश्वर मेरे सम्पूर्ण शरीर में
पवित्रता प्रदान करें। है प्रभू मेरे अंतःकरण और बाह्यकरण आदि शुद्ध और पवित्र कर
दीजिये।
ओम भूः, ओम भूवः, ओम स्वः, ओम महः, ओम जनः,
ओम तपः, ओम सत्यम्
है प्रभू आप ही मेरे प्राण है, आप ही मेरे लिये सर्वप्रिय हैं, आप ही दुखों का नाश
करने वाले हैं, आपे ही आनन्दस्वरूप हैं, सभी सुखों के देने वाले हैं, आप ही सबसे महान पूजनीय
हैं, आप ही सबको उत्पन्न करने वाले हैं, आप ही समस्त दुख सन्तापक का नाश करने वाले तथा ज्ञान-विज्ञान प्रदाता हैं,
आप ही सत्य स्वरूप है, सत्य की प्रेरणा करने
वाले हैं, आप ही अविनाषी हैं। है प्रभू मैं आपको सदैव स्मरण करता रहूं,
मेरा आचरण शुद्ध हो मेरी बुद्धि, स्मृति,
एकाग्रता, मानसिक बल, प्रसन्नता,
बढ़े तथा कुसंस्कारों का नाश और सुसंस्कारों की वृद्धि हो। आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम
निरन्तर बढ़ता रहे एवं आपकी अनुभूति भी मुझे होती रहे।
ओम ऋतन्च सत्यण्चाभीद्धात तपरोध्य
जायतः ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विष्वस्य मिषतो वषी।
सूर्या चन्द्रमसो धाता यथापूर्वमकल्पयत। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्ष मथो
स्वः।
हे अतुल बल-पराक्रमी, सृष्टिकर्ता जगदीष्वर, आपने अपने अनन्त ज्ञान और
सामर्थ्य से सब सत्य विद्याओं के मूलाधार वेद एवं त्रिगुणमय कार्य जगत की रचना की
है। आपने ही पृथ्वी पर स्थित समुद्र, नदी, पर्वत, जंगल, वायुमंडल,
वनस्पति, कन्दमूल, फल
फूल, घास अन्न, शाकादि पदर्थों को
बनाया है। मनुष्य, पशु, पक्षी कीट,
पतंग, कृमि आदि समस्त जीवों के शरीरों की रचना
भी आपने ही की है अन्य किसी ने नहीं।
अतः है जगत्कर्ता। आपकी इन अनन्त
शक्तियों और गुणों का ध्यान रखते हुए हम पाप करने से डरें और सदा शुभ कर्म ही करें
पाप कर्म नहीं। है प्रभो आप अघमर्षक हो, हमारे पापों का मर्षण
(विनाश) कीजिये और हमें सर्वथा निरघ-निष्पाप बना दीजिये।
हे समस्त चराचर जगत को वश में रखने
वाले परमात्मन। आकाश और पृथ्वी के समुद्रों की रचना के पष्चात् अपने ही क्षण, पल, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु,
अयन, संवत्सर, युग
मन्वन्तर आदि के रूप में काल का विभाग किया है। हे सर्वनियन्ता आप ही इन सम्पूर्ण
लोक-लोकान्तरों के वास्तविक स्वामी हो, इन्हें अपने सहज
स्वभाव से वश में रखनेवाले हो और यथासमय प्रकृति रूप कारण से सृष्टि, प्रलय करते रहते हो।
है समस्त संसार के निर्माता, धारक, पोषक नियामक प्रभो। जगत रचना का जैसा
ज्ञान-विज्ञान आपकी सर्वज्ञता में पहले से था, ठीक वैसा ही
सूर्य, चन्द्र आदि लोकों (ग्रह, उपग्रहों)
को सूर्यादि के रूप में अपने सर्वात्तम प्रकाश पृथ्वी लोक को और अन्तरिक्ष लोक को
तथा ब्रह्माण्ड के मध्य स्थित अन्य लोक-लोकान्तरों को एवं सभी जीवों के पाप,
पुण्य के अनुसार उनके देहादि को पूर्व कल्प की सृष्टि के समान ही
बनाया है।
हे सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी परमेष्वर। आप समस्त जगत के कण कण में व्यापक होकर इसका
नियन्त्रण-नियमन कर रहे हो। सम्पूर्ण विस्त्र के सभी प्राणियों द्वारा मन, वाणी शरीर से की जाने वाली सभी क्रियाओं के आप प्रत्यक्ष द्रष्टा ,
ज्ञाता हो, आपसे छिपकर कोई भी प्राणी कभी भी,
कहीं भी, किसी भी कर्म को नहीं कर सकता। हे
न्यायकारी जब आप मेरे प्रत्येक कर्म के ज्ञाता हैं ही तो आपकी उपस्थिति सर्वत्र
जानकर में कभी भी एक क्षण क लिये भी मन वचन कर्म में पाप भावना को न लाऊं, मुझे ऐसा सामर्थ्य, ज्ञान, बल
प्रदान करे, यही मेरी आपसे विनय है, जिसे
आप अपनी कृपा से अवष्य
प्राची दिगग्निरधिपतिरासितो रक्षितादित्या
इषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तुण्
यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मःण्
हे सर्वज्ञ परमेश्वर! आप हमारे सम्मुख पूर्व
दिशा की ओर विद्यमान हैंण् स्वतंत्र राजा और हमारी रक्षा करने वाले हैंण् अपने
सूर्या को रचा है जिसकी बाण रुपी किरणों द्वारा पृथ्वी पर जीवन रुपी साधन आता हैण्
आपके उन अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार
नमस्कार हैण् जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैंए उसे
आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैंण्
दक्षिणा दिगिन्द्रो अधिपति स्तिराश्चिराजी
रक्षिता पितर इषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो
अस्तुण् यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मःण्
हे परम ऐश्वर्यवान भगवन! आप हमारे
दक्षिण दिशा की और व्यापक हैंण् आप हमारे राजाधिराज और भुजंग आदि बिना हड्डी वाले जंतुओं की जो पंक्ति है उनसे
हमारी रक्षा करते हैंण् और ज्ञानियों के द्वारा हमें ज्ञान प्रदान कराते हैंण्
आपके उन अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार
नमस्कार हैण् जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैंए उसे
आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैंण्
प्रतीची दिगवरुणोअधिपतिः पृदाकू
रक्षिताअन्नमिषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो
अस्तुण् यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मःण्
हे सौंदर्य के भण्डार! आप पश्चिम दिशा की और
हैंण् हमारे महाराज हैंए बड़े बड़े हड्डी वाले और विषधारी जंतुओं से हमारी रक्षा
करते हैंण् और अन्नादि साधनों के द्वारा हमारे जीवन कि रक्षा करते हैंण् आपके उन
अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार हैण्
जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैंए उसे आपके न्याय
रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैंण्
उदीची दिक् सोमोअधिपतिः स्वजो रक्षिता शनिरिषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो
रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तुण् यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं
वो जम्भे दध्मःण्ण्
हे पिता! आप हमारे बायीं उत्तर दिशा की ओर
व्यापक और हमारे और हमारे परम ऐश्वर्य युक्त स्वामी हैंण् आप स्वयंभू और रक्षक
हैंण् आप ही विद्युत् द्वारा समस्त संसार के लोक लोकान्तरों की गति तथा संसार के
प्राणी मात्र में रमण कर रुधिर को गति प्रदान कर प्राणों की रक्षा कराते
हैंण् आपके उन अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन
रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार हैण् जो अज्ञान वश हमसे द्वेष
करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैंए उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते
हैंण् ण्
ॐ ध्रुवा दिग्विष्णु राधिपतिः कल्माष ग्रीवो
रक्षिता विरूध इषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो
अस्तुण् यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ण्
हे सर्व व्यापक प्रभो आप नीचे की दिशा के देशों
में विद्यमान जगत के स्वामी हैंण् आप हरित रंग वाले वृक्षादी और बेलों के साधन
द्वारा हमारे प्राणों की रक्षा करते हैंण्
आपके उन अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको
बारम्बार नमस्कार हैण् जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते
हैंए उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैंण्
ॐ ऊर्ध्वा दिग बृहस्पति राधिपतिः
श्वित्रो रक्षिता वर्ष मिषवःण् तेभ्यो नमोअधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इषुभ्यो
नम एभ्यो अस्तुण् यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ण्
हे महान प्रभो! आप ऊपर की दिशा की ओर के लोकों
में व्यापक पवित्रात्माए हमारे स्वामी और रक्षक हैंण् आप वर्षा करके हमारी कृषि को
सींचते हैंण् जिससे हमारे जीवन का साधन खाद्यान्न उत्पन्न होता हैण् आपके उन अधिपत्यए रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान
के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार हैण् जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा
जिससे हम द्वेष करते हैंए उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैंण्
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्वः
पश्यन्तऽउत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरूत्तमम्। उदु त्यं जातवेदसं देवं
वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्।।
हे परमेश्वर ! सब अन्धकार से अलग, प्रकाशस्वरूप, प्रलय के पीछे सदा वर्तमान, देवों में भी देव अर्थात् प्रकाश करने वालों में प्रकाशक, चराचर के आत्मा, जो ज्ञानस्वरूप और सबसे उत्तम आपको
जान कर हम लोग सत्य को प्राप्त हुए हैं। हमारी रक्षा करनी आपके हाथ में है क्योंकि
हम लोग आपकी शरण में हैं।
हे ईश्वर ! ऋग्वेदादि चार वेद आपसे ही
प्रसिद्ध हुए हैं, आप ही प्रकृत्यादि सब भूतोंमें व्याप्त हो रहे हैं
तथा आप ही सब जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता हैं, इन कारणों से आप ‘जातवेदा’के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप सब देवों के देव
और सब जीवादि जगत् के भी प्रकाशक हैं। अतःआपकी विश्वविद्या की प्राप्ति के लिये हम
लोग आपकी उपासना करते हैं। हे परमेश्वर ! आपकोवेद की श्रुति और जगत् के पृथकदृपृथक
रचना आदि नियामक गुण जनाते और प्राप्त करातेहैं। आपके विश्व के सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी
स्वरूप की ही हम उपासना करें अन्य किसीकी नहीं क्योंकि आप सर्पोपरि हैं।
चित्रं देवानामुदगादनीकं
चक्षुमित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवीः अन्तरिक्षं सूर्यऽ आत्मा
जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा।।
प्राणों और जड़ जगत् के स्वामी व आत्मा
को ‘सूर्य’ कहते हैं। हे ईश्वर ! आप ही सूर्य और अन्य सब
लोकों को बना कर उनका धारण और रक्षा करने वाले हैं। आप ही रागद्वेषरहित मनुष्यों
तथा सूर्य लोक और प्राणों का प्रकाश करने वाले मित्र के समान हैं। आप ही सब उत्तम
कामों तथा वर्तमान मनुष्य में प्राण, अपान और अग्नि का प्रकाश
करने वाले हैं, आप ही सकल मनुष्यों के सब दुःखों का नाश करने
के लिये परम उत्तम बल हैं, वह आप परमेश्वर हमारे हृदयों में
अपने यथार्थ रूप से प्रकाशित रहें।
तच्चक्षुर्देवहितं
पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।
हे ईश्वर ! आप ब्रह्म हैं अर्थात् आप
सब से बड़े हैं। आप सब के द्रष्टा और धार्मिक विद्वानों के परम हितकारक हैं। आप
सृष्टि के पूर्व, पश्चात् और मध्य में सत्यस्वरूप से वर्तमान रहते हैं।
सब जगत् के बनाने वाले आप ही हैं। हे परमेश्वर ! आपको हम लोग सौ वर्ष पर्यन्त
देखें, सौ वर्ष पर्यन्त तक जीवित रहें, सौ वर्ष पर्यन्त तक कानों से आपकी स्तुति व महिमा के गीतों को सुनें और
आपकी महिमा का ही सर्वत्र उपदेश करें। हे परमेश्वर ! हम आपकी कृपा से कभी किसी के
आधीन न रहे अर्थात् पराधीन न हों तथा सदैव स्वाधीन रहें। आपकी ही आज्ञा का पालन और
कृपा से हम सौ वर्षों के उपरान्त भी देखें, जीवें, सुनें सुनावें और स्वतन्त्र रहें। आरोग्य शरीर, दृढ़
इन्द्रिय, शुद्ध मन और आनन्दसहित हमारा आत्मा सदा रहे। हे
ईश्वर ! आपही एकमात्र सभी मनुष्यों के उपास्य देव हैं। जो मनुष्य आपको छोड़ कर आप
से भिन्न किसी अन्य की उपासना करता है, वह पशु के समान होके
सदैव दुःख भोगता रहता है।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नःप्रचोदयात्।।
गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त अर्थ =
ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण अर्थात् वह हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है, वह दुःख निवारक है तथा सभी सुखों को देने वाला है। ईश्वर सब जगत को
उत्पन्न करने वाला है तथा सब ऐश्वर्य का देने वाला है। सब की आत्माओं का प्रकाश
करनेवाला और सबको सब सुखों का दाता है। वह अत्यन्त ग्र्रहण करने योग्य है। वह
शुद्ध विज्ञान स्वरूप है तथा हम लोग सदा प्रेम भक्ति से निश्चय करके उसे अपनी
आत्मा में धारण करें। किस प्रयोजन के लिये? इसलिये कि वह
सविता देव परमेश्वर हमारी बुद्धियों को कृपा करके सब बुरे कामों से हटाकर सदा
उत्तम कामों में प्रवृत्त करे।
हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन
जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणांसद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।
हे ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जो
जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपको समर्पित हैं। हम लोग
आपको प्राप्त होकर ‘धर्म’ जो सत्य
न्याय का आचरण करना है, ‘अर्थ’ जो धर्म
से पदार्थों की प्राप्ति करना है, ‘काम’ जो धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन करना है और ‘मोक्ष’
जो सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना है। इन चार पदार्थों की
सिद्धि हमको शीघ्र प्राप्त हो।
ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः
शंकराय च मयस्काराय च नमःशिवाय च शिवतराय च।।
हे सुखस्वरूप ईश्वर ! आप संसार के
उत्तम सुखों को देने वाले हो, कल्याण के कर्त्ता हो, मोक्षस्वरूप, धर्मयुक्त कामों को ही करते हो,
अपने भक्तों को सुख को देने वाले हो और धर्म कामों में युक्त करने
वाले हो, अत्यन्त मंगलस्वरूप और घार्मिक मनुष्यों को मोक्ष
का सुख देने वाले हो। इसलिए हम बार बार आपको नमस्कार करते है। नमस्कार मन्त्र के
बाद ओ३म् शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः
बोलने का विधान है। तीन बार शान्तिः शब्द का उच्चारण करनेका उद्देश्य यह है कि
तीनों लोकों में षांति रहे।
सारांश
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच,
संतोष, तप, स्वाध्याय का
पालन करने पर ही कोई सच्चे अर्थों में ईश्वर प्राणिधान का पालन कर सकता है
अर्थात् ईश्वर के प्रति सर्मपित हो सकता है। इनका पालन करने वाला ही उस अदृष्य
शक्ति को प्रिय होता है और जो उसे प्रिय है, उसे ही उसका
सानिध्य मिलता है।
यदि हम प्रभू को नहीं मानते हैं और
हमें मुक्ति चाहिये तो भी हमें यम-नियम अर्थात् मुक्ति को ध्यान में रखते हुए
समस्त निष्काम शुभ कर्म तो करने ही पडेंगे, तथा आसक्ति को हटाना
ही होगा। मुक्ति के लिये इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना तथा अंतर्मुखी होना परम
आवष्यक है और इनका पालन करने पर ही मन शुद्ध हो सकता है तथा अंतिम लक्ष्य
मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार/परमानन्द की प्राप्ति की जा सकती है।
यदि हमें यह संसार व उसमें विद्यमान
पदार्थ/शक्ल ही प्रिय है तो हमें अधिकाधिक शुभ सात्विक कर्म करने चाहिये, जिससे कि हमारा अगला जन्म शुभ हो एष्वर्य पूर्ण हो।
योग-निद्रा और ईश्वर प्राणिधान
ष्वासों को देखना बस द्रष्टा बनकर, और यह अनुभव करना कि मैं चेतन्य आत्मा हूं, अज्ञान
में तुम ने अपने आपको शरीर मान लिया, मन मान लिया था,
मन में उठते हुये विकार मान लिये थे तुमने स्वयं को, ना तुम मन हो, ना तुम शरीर हो, तुम चैतन्य आत्मा हो, श्वासों के साथ अपने स्वरूप का ध्यान। फिर भी ना टिक पाये सांसों के साथ
मन, तो सांसों के साथ आप उल्टी गिनती गिने 100 से लेकर 1 तक तो मन और शांत हो जायेगा। हर सांस के
साथ ओम का जाप करो तो भी मन शांत हो जायेगा।
गिनते-गिनते तो बहुत देर हो गई अब तो ओम नाम का जाप करो, ओम नाम की माला जपो, प्रभू नाम की माला जपो। दुनिया
की माला बहुत जपी, बहुत कहा दुनिया से कि मैं तुम से बहुत
प्यार करता हूं, लेकिन जिससे तुमने प्यार किया, वो किसी ओर से प्यार करने लगा, तुम्हारा दिल टूटा,
तूम रोने लगे, तुम आत्म हत्या की सोचने लगे,
जिनका जिंदगी भर हाथ पकड़ कर रखा वो जब साथ छोड़ जाते हैं, जिनके लिये इंसान खून-पसीना बहाता है, रातों की नींद
और दिन का चैन गंवाता है। जब अपने भी पराये हो जाते हैं, तब
आदमी को अवसाद हो जाता है। अब तू अवसाद में मत रहे, तू उतर
अपने भीतर, अपनी चेतना के साथ जुड़ तू है आत्मा, तू अमृत पुत्र है, मैं अमृतपुत्र हूं यह भाव मैं ईश्वर
का पुत्र हूं यह विचार, जो पूरे विष्व का नियन्ता है,
पूरे ब्रह्माण्ड का नियन्ता है, मैं उस भगवान
का पुत्र हूं, मैं ईश्वर का बेटा हू। भगवन तेरी शरण तू ही
मेरा पिता, तू ही मेरा भ्राता, तू ही
मेरा सखा
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि
वेद भुवनानि विश्वा।यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
प्रभू तेरी शरण
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते
प्रशिषं यस्य देवा । यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥
प्रभू,
त्वमेव माता चः पिता त्वमेव, त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविनं
त्वमेव, त्वमेव सर्वम मम देव देव।
प्रभू, अब तू ही मेरा पिता,
तू ही मेरा पति, तू ही मेरा स्वामी, तू ही मेरी मां, प्रभू वातसल्य, अपनी करूणा की
अज्रस्व धारा बहा, प्रभू अब तो तेरी शरण में हूं, अब तो सब रोग, भय, शोक,
संताप मिटा, सब संशय भ्रम मिटा, प्रभू मैं नहीं अकेला तू मेरे साथ, तू युगों युगों
का साथी, तू कभी साथ नहीं छोड़ता, प्रभू
मैं तूझे नहीं देख पाया, तू हर पल मेरे भीतर समाया, बाहर भीतर तू ही था सर्वत्र, मैं तूझे नहीं देख पाया,
इस भाव से जुड़ जाओ अपनी चेतना के साथ गहरे और मिटा दो सब भय,
मिटा दो सब भ्रम, मिटा दो सब चिंतन, तुम अकेल नहीं, वो भगवान तुम्हारे साथ है, यह अकेलापन ही तो अवसाद पैदा करता है और अकेलेपन को भरने के लिये तो तुम
दुनिया से प्रेम करते हो, शादी करते हो विवाह करते हो। लेकिन
फिर भी तृप्ति नहीं मिल पाती। फिर तुम नषा करने लग जाता हो। अकेले में उतर जाओ,
गम भुला दे, दुनिया को भुला दे, दुनिया ऐसे नहीं भुलाई जायेगी, अब तू ऐसी पी मद,
तू ऐसी पी मदिरा, तू पी ओम नाम का प्याला,
प्रभू के अमृत नाम का प्याला, तू मस्त हो
जायेगा, तू मतवाला हो जायेगा, पीकर
प्याला ओम नाम का तू बन मतवाला, सांसों के साथ गहरे खो जाओ।
माता भूमि पुत्रम पृथ्वीया, इस धरती मां की गोद में तुम सर
रख कर सो जाओ, यह धरती तुम्हारी मां, यह
सारी धरती जिसमें अवस्थित है, ये सारा ब्रह्माण्ड जिसमें
अवस्थित है, वो परमपिता परमेष्वर उसमें तुम अवस्थित हो,
उसी से जुडो, उसी से मांगो, दुनिया से क्या मांगो, वो प्रभू जो जगत के कण-कण में
ओत-प्रोत है, जहां तक सृष्टि में तुम्हारी दृष्टि जाती है,
वहां वहां तक उसी प्रभू की महिमा है, उस प्रभू
से मैत्री भाव से जुड जाओ, जो सारी दुनिया का स्वामी है। तेन
तक्तेयन भूंजिता, तू त्याग पूर्वक भोग कर। सब कुछ मेरे भगवान
का है, मैं भगवान का हूं। मागृधाकस्य सिद्धनम, तू लालच मत कर। श्वासों के साथ अपने स्वरूप में गहरे उतरते जाओ। और जब तुम
ब्रह्म से ईश्वर से, परमेष्वर से, परमपिता
से परम सखा से, उस जन्मों-जन्मों की मां से, युगों युगों के उस सखा से, उस वात्सलयमयी, उस करूणामयी मां से जब तुम जुड जाते हो तब कहां रहेगा भ्रम, कहां रहेगी असुरक्षा का भाव सारा मिट जायेगा। असुरक्षा, यह भय, यह अकेलापन, ये सारी
अपेक्षायें, ये तृष्णा सब मिट जायेगी। तू शांति पायेगा,
तू आनन्द पायेगा। अपने ही भीतर, तेरे भीतर सब
कुछ है, तेरे भीतर है भगवान, ए मनुष्य
तू अपने आप को पहचान, जब तुम अपने आप से जुड जाते हो तो मन
के सब आग्रह टूट जाते हैं, तब सारी कल्पनायें मिट जाती है,
तुम वर्तमान से जुड जाते हो, तुम जीते कहां हो,
तुम जी रहे थे या तो भूत की गाथाओं में, स्मृतियों
में, राग में, द्वैष में, जिसने तुम्हें सुख दिया, उससे तुम राग करने लगे,
जिसने तुम्हें दुख दिया उससे द्वैष करने लगे, प्रतिशोध
करने लगे, जीवन यूं ही बीत गया समझ ना आया जीवन, जाना नहीं स्वयं को पहचाना नहीं ब्रह्म को, यूं ही
भ्रम में जीते रहे, जो बिना ब्रह्म को जाने, इस दुनिया से प्रयाण करता है वो कृपण है वो कंगाल है, वो भिखारी है, कुछ नां पाया उसने इस दुनिया में,
ईश्वर को जानो, उसको जानकर जाओगे, तुम ब्राह्मण हो, तुम सम्राट, तुम
प्रविराट हो, सांसो के साथ अपने स्वरूप में उतरते हो तो मन
मिट जाता है, पर यह सत्य है कि तुम मन हो ही नही ंना तुम तन
हो ना तुम मन हो, प्राण निर्दोश है, निर्दोश
प्राणों के आश्रय से तुम मन से पार चले जाते हो, पहले
इन्द्रियों का निग्रह मन में होता है, फिर मन का निग्रह
प्राण में हो जाता है, इन्द्रियों का मन में निग्रह यह
प्रत्याहार, मन का प्राण में निग्रह यह धारणा, प्राण का आत्मा में लय होना यह ध्यान, स्थूल से
सूक्ष्म की ओर जा रहे हो, तुम परम सूक्ष्म तत्व आत्मा ही हो,
अपने चित्त की शक्ति का ध्यान करो। अपने आत्मा का परमात्मा में लय यह समाधि प्राणों का निग्रह आत्मा में, और आत्मा का भी अब विराट ब्रह्म में लय यह समाधि, समाधि
जैसी स्थिति की अनुभूति होगी आपको निद्रा में, नींद भी
तुम्हारी समाधि में बदल जायेगी। योग निद्रा सहज हो जाओ, अब
अपने आपको उस विराट के प्रति पूरी तरह से समर्पित कर दो, खोल
दो अपने हृदय के द्वार उस विराट के लिये, मां युग बीत गये,
दुनिया में भटकते-भटकते, आओ लौट चलें अब तो
अपने पिता की ओर दिल को साक्षी भाव से देखो, परमात्मा में
स्थूल से सूक्ष्म की ओर जा रहे हो देह को यहीं छोड दो तुम विराट में असीम ब्रह्म
में विचरण करो तुम्हारे पिता का साम्राज्य है, वो भगवान
मालिक है पूरी दुनिया का, तुम उससे जुडो तो सही, ये स्वर्ण ये आभूषण ये रत्न सब उसी ने गढे हैं, ये
धरती, ये आसमां ये सूरज, ये चांद ये
वृक्ष, ये लतायें ये नदियां, ये झरने
ये मरूभूमि, ये उद्यान, उसी ने सब अपने
अनन्त ज्ञान से, अपनी अनन्त शक्ति से इस सारी सृष्टि की
उत्पत्ति की है, ये सारी माया उसी ब्रह्म की है, उसी की छाया है, सारी सृष्टि में उसी को देख,
तू उस विराट का हो जा, दुनिया में तुझे बहुत
हो गये कोढी-कोढी इकट्ठा करते पूरी जिंदगी बीत गई, तू
करोड़पति बना फिर भी तू तृप्त ना हो सका और धन की इच्छा बढ़ती ही गई, तृष्णा ना जीर्णा वयमय जीर्णा, भोगों को तूने बहुत
भोगने की कोशिश की, भोगा ना भुक्ता वयमय भुक्ता, जैसे अग्नि
में घी डालते हैं और धधकने लगती है, ऐसे ही तूने जितना-जितना
भोग वासनाओं में मन को लगाया और तृष्णा बढ़ती गई, न जातु कामा
कामानाम अब तो तू कुछ ऐसा कर ले, जिससे ये सारे बंधन कट
जायें, ये मन की तृष्णा, जिंदगी बीत गई
खाते-खाते लेकिन रसना कहां तृप्त हो पाई, पूरा जीवन बीत गया
बोलते-बोलते, लेकिन कहां तुम मौन हो पाये, जिंदगी बीत गई सुनते-सुनते, देखते-देखते, भोगते-भोगते दुनिया को, तुम हमेषा अतृप्त रहे। कहीं
अंधेरा ना हो जाये, कहीं देर ना हो जाये, अब जागो बहुत दिन हो गये भोगों की अग्नि में सोते-सोते, बहुत दिन हो गये भोगों की अग्नि में तप्ते-तप्ते, अब
तो योग की ओर लोटो, अब तो जागो, सोते
हुए भी तुम जागते हो, विराट के प्रति समर्पण, अब तुम असीम को पाओ। इन दुनिया के पदार्थों में सुख है ही नहीं, अल्प है दुनिया, जिसको तुम पाते हो वो थोड़ा हो जाता
है। विराट में सुख है। तुम इस विराट के प्रति अपना समपर्ण कर दो और पूरे
ब्रह्माण्ड में उसी ब्रह्म को देखो, तुम प्रभू के प्रभू
तुम्हारा, वो राजाओं का राजा, वो
गुरूओं का गुरू, वो ज्ञानियों का ज्ञानी, परमपिता परमेष्वर तुम उस सर्वज्ञ प्रभू से जुड जाओ। सर्वशक्तिमान प्रभू से
जुड़ जाओ, हर जगह उसी की अनुभूति करो, कलियों
में, फूलों में, बहारों में पतझड में,
बसन्त में सब जगह उसी ब्रह्म की अनुभूति, ये
योग निद्रा विराट ब्रह्म में विचरण करो। सर्वत्र उसी को देखो पिण्ड में ब्रह्माण्ड
में वहीं एक समाया। मैं उस प्रभू का हूं वो प्रभू
मेरा, बाहर इस भाव से भीतर बाहर सर्वत्र भगवान को देख
पाओगे। ये एक तरह का ध्यान भी हुआ ध्यान माने विराट के साथ जुड़ जाना, ध्यान माने असीम के साथ तादात्मय भाव से एकाकार हो जाना, उस विराट को आत्मसात करना, अपने मैं के मिटा देना,
मैं का विसर्जन, क्रोध का विर्सजन, भय का विर्सजन, ईर्ष्या और द्वैष सब छूट गये। बंधन
सब कट गये, भ्रम सब मिट गये। तुम विराट में उतर गये और वो
विराट तुम्हारे भीतर उतर गया, तुम असीम के साथ एकाकार हो
गये। तुम उस विराट में ऐस लीन हो जाना जैसे गंगा यमुना सरस्वती, कावेरी, गोदावरी समुद्र की ओर जाती है और उसमें लीन
हो जाती है, अपने नाम और अस्तित्व को उसी में विलीन कर देती
है। ऐसे ही तुम अपने नाम को अस्तित्व को उस विराट में लीन कर दो। सृष्टि से पहले
शून्य ही तो था, और अगर सब आकृतियां प्रलय के समय विराट में
लीन हो जाती है। तब षून्य ही तो शेष रह जाता है । तुम उसी में अपने आपको समर्पित
करो, है प्रभू अब तेरी शरण में हूं। एक बार अंतर से कह दो बस
तुम विराट हो जाओगे। तुम भी असीम हो जाओगे, तुम्हारा फिर
अस्तित्व उसका लय हो जायेगा विराट में तुम ब्रह्म हो जाओगे, फिर
तुम अंतर से कह उठोगे अहम् ब्रह्मासि, तत्वमसि, ष्वेतकेतु, षिवोहम षिवोहम, षिवोहम, षिवोहम
शांत, शांत फिर से संकल्प जगा भीतर, रात्रि
को सोते समय शिवसंकल्प के मंत्रों का पाठ करना,
है शिव है, है पिता, है परमेष्वर, तुम
अल्लाह कहो उसको, तुम गोड कहो, खुदा
कहो, ओमकार कहो उसको क्या फर्क पड़ता है नाम से एकम बहुधाविध,
प्रभू तेरी शरण, सोते समय ध्यानावस्थित पूरी
तरह विराट में अवस्थित भगवान की आनन्दमय गोद में, उसकी
करूणामय गोद में विश्रांति पाना। मन ही मन अपने भीतर के शिवत्व को जगाना, प्रभू यह मन बहुत चंचल है, जागते हुए भी, सोते हुए भी हर पल भटकता रहता है, जागते हुए भी सपने
देखता है और सोते हुए भी सपनों में जीता है, प्रभू अब मेरे
इस मन में तुमही समा जाओ, तेरा ही संकल्प हो प्रभू, तेरा ही ध्यान, तेरा ही विचार, तेरा ही मन में मनन, ये आंखें तेरा ध्यान करें,
ये कान तेरा श्रवण करें, ये वाणी तेरा ही नाम
जपे, इस मन में है प्रभू
तुम ही समा जाओ मन में तेरा मनन, बुद्वि में तेरा
निष्चय, चित्त में तेरा ही, चित्त।
प्रभू तू मेरे नैनों में समा जा, तू मेरे होंठों पर अधरों पर
आ जा, तू मेरे हृदय में समा जा, प्रभू
मैं तेरा हो जाउं, बहुत होकर देखा दुनिया का कहीं नहीं मिली
शांति, प्रभू अब तो गले लगा, अब तो
अंतर में दीप जलाओ प्रभू बहुत अंधेरा है अंतर में अब तो सब अंधेरा मिटा, असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्यातिर्गमय, मृर्त्योमा अमृतंगमय , प्रभू अब तो तू ही तू समा जा
मेरे अंतर में मेरे मन में। प्रभू में जो कुछ करता हूं आप की कृपा से करता हूं,
क्या है मेरी शक्ति क्या मजाल है जो यह हाथ उपर उठ जाये तेरी शक्ति
के बिना, यह कदम आगे बढ़ रहे हैं तो तेरी शक्ति से, ये वाणी बोल रही है तो तेरी शक्ति से, ये कान शब्द
सुन रहे हैं तो प्रभू तेरी शक्ति से, प्रभू अब मैं तेरा हो
जाउं, तेरी राह पर आगे बढ़ूं, ओम
अग्ननये सुपथाराये अस्मान, प्रभू हमको धर्मयुक्त आप्त
पुरूषों की राह पर ले चल, और जो भीतर कुटिलता है, उसे मिटा, महाजनो येन गतास्य पंथा, आप्त पुरूषों की राह पर ऋषियों की राह पर मुझे ले चलो, जिस राह पर योगी गये, मनीषी गये, उस और मेरे कदम बढ़े मैं चलता रहूं थकूं
नहीं चरेवेति-चरेवेति। प्रभू अब मेरी मंजिल मुझे मिल जाये, प्रभू
तू ही मेरी मंजिल अब तो शरण में ले प्रभू।
जिसमें सब प्राणी सो रहे हैं, योगी जाग रहा है, और जब सब जाग रहे हैं योगी सो रहा
है, उसकी निद्रा भी योगमय हो जाती है। प्रभू सब वेद, सब शास्त्र भीतर ही हैं, ऐसा तूने स्वयं यर्जुवेद
में कहा है, जो मेरा मन भूत-भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता है,
प्रभू जो ये मेरा मन प्रभू तेरा ज्ञाता है, सारे
प्रजाओं में ओत प्रोत यह मन यह समष्टि का मन अब मैं व्यष्टि में ना रह जाउं,
समष्टि के साथ एकाकार हो जाउं, प्रभू अब तो
तुझ में समा जाउं, चारों वेदों का ज्ञान तूने मेरे ही मन में
दिया है, मेरे ही चित्त में दिया है, मेरी
ही चेतना में दिया है, प्रभू अब तो बस तन में सदा शिव संकल्प
रहे, मन में सदा शिवसंकल्प रहे, विराट
के साथ एकाकार, योग निद्रा
प्रभू अब तो तेरा ध्यान, तेरा ही मनन, तेरा ही गान, मैं नहीं मेरा नहीं सब प्रभू तेरा।
प्रभू अब तो तेरा आषीश पाउं चारों ओर से
तेरे साथ में तल्लीन हो जाउं, आत्म भाव में सदा जीयूं,
अब तो मैं आत्म भाव में जीने लगूं। शरीर मन और इन्द्रियों के सब
बंधन तोड़ दो प्रभू अब तो तेरी शरण में आया हॅूं, प्रभू अब तो
काट दो सब बंधन, काट दो सब बंधन, मिटा
दो यह जन्म-मरण का चक्कर, प्रभू तेरी शरण आया हूं, अपनी शरण में ले लो है मां, है पिता, है करूणामय मां अब तो अपनी शरण में ले लो। मैं हर पल तुझ में जीयुं, हर पल तुझे निहारूं, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते
प्रभू तू ही तू समा जाये मेरे अंतर में मेरे मन में। योग-निद्रा- योग-निद्रा इससे
मिट जाती है अनिद्रा, प्रभू तू ओढना बन जा तू बिछोना बन जा
तेरे आनन्द की चादर है ये सारी दुनिया ये धरती तेरा ही स्वरूप तू ही बिछोना ये आकाश
तेरा ही स्वरूप तू ही ओढना। प्रभू कहां
नहीं है तू, जररे जररे में तू है कण कण में तू है, प्रभू में तुझ में जीयूं, हर पल प्रभू मे जीना जैसे जैसे एक मां की गोद में बच्चा विश्राम पाता है,
ऐसे तुम प्रभू की गोद में विश्रांति पाना, अनिद्रा
मिट जायेगी, हृदय की सारी षिरायें सहज षिथिल हो जायेगी।
रात्रि को सोने का यही तरीका है, ओम नाम का जाप करना सांसों
के साथ जाप करना, सांसों के साथ गेहरे अपनी चेतना में उतर
जाना और तुम पाओगे स्वयं को ब्रह्म में निद्रा योग निद्रा हो जायेगी। व्याधि मिट
जायेगी, समाधि लग जायेगी। न रहेगी हृदय की कोई पीड़ा, रोग मिटेंगे, अवसाद मिटेगा, मै
कह रहा था करीब 80 करोड लोग अषांति में जी रहे हैं, मन की पीड़ाओं को सह रहे हैं, हर व्यक्ति आज अषांत है,
शांति है तो तेरे भीतर, भगवान से जुड अपने
अस्तित्व से जुड, आस्तिक हो ले, विराट
के साथ जुड, कहां रहेगा डिप्रेश न, कहा
रहेगा तनाव, तुम बच्चे की तरह निर्मल हो जाओ, निरोग तन, निर्मल मन, लौटेगा
दूबारा से युवा बचपन कितने दिन थे सुहाने, वो लोटेंंग सुहाने
दिन जब तुम मां की गोदी में थे जब तुम पैदा हुए तो भगवान ने मां के स्तनों में दूध
उतार दिया, जब तूम बड़े हुए तब दांत दे दिये खाने को, खाने के लिये अन्न दे दिया, वो तेरी सारी व्यवस्था
करता है, तू उसी से जुड जाना, योग
निद्रा रात को सोते समय ऐसे ही सो जाना, प्रभू की गोद में,
तू सहज हो जाना तू शांत हो जाना फिर देखना तू ताजा होकर उठेगा,
तू नया जन्म पाकर उठेगा, नई उर्जा पाकर उठेगा,
रात को करवट बदलता नहीं रहेगा, हर पल अपने
प्यारे प्रभू से जुड़ा रहेगा, अपनी उस करूणामयी, वात्सल्यमयी मां, आनन्दमयी मां से जुडा रहेगा। यही
है श्वासन यही है योग निद्रा।
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