नाम की महिमा

नाम  


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 इस संसार में अलग-अलग मान्यताओं के लोग हैं। कोई सत्य को ही सत्य मानता है, कोई असत्य को ही असत्य मानता है, 

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कोई अज्ञानतावश सत्य को असत्य मानता है। कोई अज्ञानतावश ही असत्य को सत्य मानता है। 

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कोई आधे-अधूरे ज्ञान अथवा अपने मन की गति के कारण उपदेश /ज्ञान पूरे मन से नहीं सुन पाने के कारण कभी सत्य को सत्य मान लेता है। कभी असत्य को असत्य मान लेता है। तो कभी सत्य को भी असत्य मान लेता है। अथवा कभी असत्य को ही सत्य मान लेता है। 

🌺 एक छोटा सा उदाहरण है, सत्य घटना है बहुत से लोग सत्संग में शामिल हुए, अब उनमें से कुछ लोगों का मन तो इतना अत्यधिक गतिमान था कि उन्हें यह भी नहीं दिखा कि गुरूजी ने चश्‍मा पहन रखा था, और वे लोग आपस में चर्चा करने लगे कि गुरूजी ने चश्‍मा नहीं पहन रखा था, ऐसा नहीं है कि उनकी आंखें कमजोर थी, उनकी आंखें नहीं उनका मन अत्यंत गतिमान था, जबकि वास्तविकता तो यह थी कि उन्होंने चश्‍मा पहना हुआ था और वे उनके पास से भी गुजरे थे। 

🌺 दूसरा उदाहरण यह है कि गुरूजी ने शिष्यों को खूब समझाया कि आप कर्म करोगे तो आपको उसका परिणाम भी प्राप्त होगा, कोई चाहे गलत हो, गलत व्यवहार करे, लेकिन तुम्हें तो या तो उसकी प्रतिक्रिया नहीं करनी है अथवा बदले में गलत व्यवहार नहीं करना है, 

🌺 अर्थात् चाहे कोई गलत हो लेकिन तुम्हें तो सुधरना ही होगा, तुम्हें तो ध्यान करना ही होगा।

 🌺 लेकिन अफसोस शिष्य चर्चा कर रहे थे गुरू महिमा कि ना कि उनके ज्ञान की। 

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उनका ज्ञान समझा रहा था कि मनुष्य का जन्म अनमोल है, 

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 इसका सदुपयोग करना चाहिये 

🌺 लेकिन अधिकतर शिष्यों का मन गतिमान रहने के कारण इस बात की गहराई नहीं समझ सका। 

🌺 काश इस संसार के लोगों के समझ में आ जाये कि इस संसार में गुरू का सबसे अनमोल खजाना कुछ है तो वह केवल और केवल उसकी वाणी है, 

 🌺 जिसकी पालना एक कोयले को भी हीरे में पतिवर्तित कर देती है और जिसके विपरीत आचरण ऐसा ही है जैसे कि हीरे को अग्नि पर रख दिया जाये, 

🌺 यानि गुरू वाणी/ज्ञान के विपरीत आचरण हीरे को भी राख में परिवर्तित कर देता है। 

🌺 एक शिष्य द्वारा की गई गुरू महिमा में कृतिमता हो सकती है, बनावटीपन हो सकता है, लेकिन यदि किसी शिष्य का आचरण देखकर कोई उसकी तारीफ करता है तो वह उस शिष्य की नहीं अपितु उस गुरू की सच्ची तारीफ/महिमा करता है, जिसने उसे अपना आचरण सुधारने का उपदेश दिया था । 

🌺 यानि के एक गुरू की महिमा और निन्दा दोनों ही उनके शिष्यों के आचरण से जुड़ी होती है। 

🌺 उनके शिष्यों का आचरण देखकर ही लोग कहते हैं कि यह कितना सदाचारी है, कितना शीलवान है, और दूसरी और शिष्य का गलत आचरण देखकर ही लोग कहते हैं कि इनके गुरू इन्हें यही सिखाते हैं। 


🌺 जरूरी नहीं है कि कोई किसी को बोलकर ही सदाचारी अथवा दुराचारी कहे, मन तो स्वतः ही बिना बोले निर्णय कर देता है कि शिष्य सदाचारी है अथवा दुराचारी है अथवा शिष्य में सदाचार और दुराचार दोनों ही गुण समाहित हैं। 

 🌺 कहने का तात्पर्य यह है कि जब भी गुरू का उपदेश सुनें तो यदि सम्भव हो तो अपने नेत्रों को बंद कर लें, कानों को श्रवण इन्द्री को सतर्क कर लें, सभी चिंतन छोड़ दें 

 🌺 केवल उनकी वाणी पर ध्यान एकाग्र करें और यह मानते हएु सुनें कि उनका एक-एक शब्‍द उस परम अदृश्‍य शक्ति का अनमोल, बहुमूल्‍य, अतुल्‍य, अनुपम, अद्भूत, अ‍द्वीतीय प्रसाद है 

🌺 फिर उस वाणी रूपी अनमोल, बहुमूल्‍य, अतुल्‍य, अनुपम,अद्भूत, अ‍द्वीतीय प्रसाद की पालना का अभ्यास करें, तब ही कल्याण हो सकता है। 

🌺 इसीलिये कहा है कि नाम का सहारा तुम्‍हें मंजिल तक ले जायेगा और असली नाम जप तो वही है जब उस नाम जप के साथ तन, मन, वाणी से कोई भी दुष्‍कर्म नहीं किया जाये। नही तो जैसा कि उपर उदाहरण दिया है कि मनुष्‍य देखता, सुनता कुछ और है लेकिन मन की तीव्र गति के कारण कुछ उल्‍टा ही, असत्‍य को ही सत्‍य मान बैठता है।

 🌺 इसीलिये मन की तीव्र गति को नहीं समझने के कारण कुछ लोगों को तो इतना बड़ा चश्‍मा भी दिखाई नहीं देता है और उनका मन उस अनमोल वाणी में से कुछ ग्रहण नहीं कर पाता है। 

 🌺 जैसे की नींबू में से रस निकाल कर शेष भाग फेंक दिया जाता है, 

 🌺 तो अधिकतर लोग उपदेश जो कि सार है, उसको तो निरर्थक समझ कर एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं और नींबू का जो छिलका आदि होता है उसे मन में बसा लेते हैं। 

 🌺 यानि के गुरू महिमा तो करते हैं, लेकिन उनके उपदेश को गम्‍भीरता से नहीं लेते। जो गम्‍भीरता से उनके द्वारा दिये गये नाम का जाप करता है और उनके द्वारा दिये गये ज्ञान की पालना करता है, वही मंजिल तक पहुंचता है। 

 🌺 तीसरा उदाहरण जो यह सिद्ध करता है कि असली नाम जो सभी में एक है - यह गुरूग्रंथ में कबीर जी की वाणी के रुप में सम्मिलित है। जिसमें कहा गया है कि - उस परमशक्ति को अक्षर में नहीं लिखा जा सकता है, यानि के वह अलख है, उसके नाम को लिखा नहीं जा सकता, उस सत्य नाम की केवल अनुभूति की जा सकती है। 

 🌺 इसी कारण भगवान बुद्ध ने उस अदृश्य शक्ति को अव्यक्तम कहा, यानि के उस अदृष्य शक्ति को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है। 🌺 उपनिषद ने भी इसीलिये नेति-नेति शब्द का उपयोग किया है, कि नहीं अव अदृष्य शक्ति यह भी नहीं, वह भी नहीं 

🌺 यानि कि वह अदृश्य शक्ति अनामी है और जो उसका असली नाम है, वह अंदर गुंजायमान हो रहा है। 

🌺 उसका जो प्रकाश है वह अंदर भी विद्यमान है उसकी केवल अनुभूति की जा सकती है। 

 🌺 जो नाम हम जपते हैं, भजते हैं, जिसका हम सुमिरण करते हैं, वह तो एकमात्र जरिया है, एक साधन है उस अनामी तक पहुंचने का उसकी अनुभूति करने का । 

 🌺 जैसे एक वाहन हमें अपने गन्तव्य तक पहुंचाता है तो उसी तरह यह नाम भी वह सहारा है, वह माध्यम है, वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं, उस अनामी तक पहुंचते हैं, उस अनामी की अनुभूति करते हैं, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, 

 🌺 उस अनुपम दिव्य ज्योति/प्रकाश का अपने अंतर में ही दर्शन करते हैं, 

🌺 उस शब्द/नाद का अपने अंतर में ही श्रवण करते हैं 

 🌺 अंदर का शब्द/नाद भी तभी सुनाई देता है जब बाहर के शब्द की पालना की जाती है, यानि कि गुरु वाणी की पालना की जाती है। गुरु वाणी की पालना के बिना कुछ नहीं मिलता। और अंततः ग्यान के अनुसार आचरण करने पर ही उस दिव्य सुख/परमानन्द/ब्रह्मानन्द की अनुभूति करते हैं, जिसकी तुलना में सांसारिक सुखों को धूल के समान बताया गया है। 

 🌺 जब उसकी अनुभूति होती है तो अंधकार समाप्त हो जाता है, मन प्रकाशित हो जाता है, मन उजियारा हो जाता है, अंतकरण ज्यांर्तिमय हो जाता है और तमसो ज्योतिगर्मय मंत्र सार्थक हो जाता है। 

🌺 जैसे कुछ लोग श्वांस/स्पंदन आदि पर मन को एकाग्र करते हैं तो कुछ लोग श्वांस/स्पंदन के साथ नाम का भी जप करते रहते हैं, 

 🌺 कुछ अजपा जप भी करते हैं। लेकिन सभी जप करने का सबसे बड़ा फायदा तो यह होता है कि 1. मन नाम जप में रमने के कारण शांत हो जाता है, क्योंकि मन निर्विचारिता की ओर अग्रसर होने लगता है, व्यर्थ के विचार समाप्त होने लगते हैं। 2. जिस समय मनुष्य का मन गम्भीरता से नाम जप/सुमिरण में लगता है, उस समय बुराई मन से दूर रहती है और मन का स्नान हो जाता है। 

 🌺 लेकिन इस संसार में नाम जप करने वालों की प्रवृत्ति/स्वभाव भी अलग होता है। जैसे कि कुछ लोग जप नाम जप/सुमिरण करने बैठते हैं तो मन उन्हें संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों के चिंतन में उलझा देता है और नाम-जप/सुमिरण सार्थक नहीं हो पाता। ऐसे लोग तामसिक श्रेणी के होते हैं। 

🌺 कुछ लोग जप नाम जप/सुमिरण करने बैठते हैं तो कभी मन गुरू की वाणी की पालना के लिये नाम-जप सुमिरण करने लगता है और कभी संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों का चिंतन करने लग जाता है। ऐसे लोग राजसिक श्रेणी के होते हैं। 

🌺 कुछ लोग जप नाम जप/सुमिरण करने बैठते हैं तो उनका मन केवल और केवल नाम जप/सुमिरण में ही लीन रहता है, संसार से कट जाता है, ऐसे लोग सात्विक श्रेणी के होते हैं। ऐसे लोग ही सच्चा नाम जप करते हैं और ऐसे लोग ही भव सागर से पार होते हैं, यही सच्चा नाम जप/सुमिरण होता है। 

 🌺 यदि कुछ अपवाद छोड़ दें तो जन्म से कोई पूर्णतः सात्विक उत्पन्न नहीं होता। जब किसी की भी राजसिक अवस्था में मृत्यु होती है तो उसे इस संसार में जन्म लेना ही पड़ता है।

 🌺 जो नाम जप अथवा ध्यान के माध्यम से असत्य से सत्य की और गतिमान होते हुए पूर्णतः सात्विक बन जाता है, तो असतो मा सदगमय मंत्र पूर्ण होता है, जो कि उस अदृश्यत तत्व की अनुभूति करने की पहली सीढ़ी है।

 🌺 जैसे ही उस अदृश्य तत्व की अनुभूति होती है, तमस/अंधकार/अज्ञान हट जाता है और मन ज्योति/प्रकाश/ज्ञान से भर जाता है। यह दूसरी सीढ़ी है, जो अंतिम लक्ष्य के निकट पहुंचा देती है। 

🌺 यानि कि उस अदृश्य तत्व की अनुभूति जिसे हो जाती है उसकी मृत्यु पर भी विजय सुनिश्चिूत हो जाती है और इस पंच तत्व से निर्मित शरीर को त्यागने पर ऐसा मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। 

 🌺 यह तीसरी और अंतिम सीढ़ी है जो मृत्योर्मा अमृतंगमय का मंत्र सार्थक करती है। 

 🌺 उस अदृश्य शक्ति को पाने के भी तीन मार्ग बताये गये हैं, 

 🌺 इस संसार के अधिकतर मनुष्य भी उन तीनों मार्गां को अलग-अलग समझते हैं, लेकिन यदि गहराई से देखा जाये तो तीनों ही मार्ग एक हैं, अलग नहीं। जैसे कि 

🌺 भक्ति योग 🌺 

भक्ति योग में भक्त के मन में केवल अपने अराध्य के अतिरिक्त इस संसार में विद्यमान किसी भी पदार्थ/षक्ल की चाह/कामना/वासना नहीं रहती। ना उसे पुत्रेषणा ही प्रभावित करती है, ना लोकेषणा और ना ही वित्तेषणा। 🌺 

यह भक्ति मार्ग है, जो इसकी गहराई को नहीं समझते हैं, वह इसे आसान समझते हैं, जबकि यह भी अन्य मार्गों की तरह अत्यंत कठिन है। इसमें भक्त का मन उसके आराध्य में ऐसा रमता है कि, उसे उसके अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता, हर रंग, हर रूप, हर आकृति में अपना आराध्य ही नजर आता है। 

🌺 जैसे कि नामदेव जी थे उनकी रोटी कुत्ता ले गया, वह उसके पीछे घी का कटोरा लेकर भागे और उस कुत्ते में भी प्रभू को मानते हुए कहने लगे कि प्रभू रोटी सूखी नहीं खायें इस पर थोड़ा घी लगा लें। 

🌺 यह कहानी सत्य है या असत्य प्रश्न यह नहीं है, अपितु समझाने के उद्देश्य से है कि उस भक्त का मन यही गाता है कि सब में प्रभू का नूर समाया कोई नहीं है जग में पराया, और इसे ही याद रखते हुए किसी का भी बुरा नहीं करता है, चाहे वह जलचर हो, थलचर हो या नभचर, अपितु हो सके तो भला ही करता है, क्योंकि एक सच्चा भक्त किसी के साथ बुरा नहीं करता, क्योंकि बुराई/दुष्कर्म भक्त को उस अदृश्य शक्ति की नजरों से गिरा देते है और भलाई/शुभ कर्म उस अदृश्य शक्ति की नजरों में भक्त को ऊंचा उठा देते हैं। 

🌺 यही भक्ति योग है, जो कि अन्य योगों की तरह अत्यंत कठिन है। जिसमें भक्त किसी के भी सुख का कारण बनते हैं तो समझते हैं कि प्रभू को सुख पहुंचाया और यदि किसी के दुख का कारण बनते हैं तो समझते है कि प्रभू को दुख पहुंचाया। 

 🌺 विचार करें कि क्या भक्ति योग भी अन्य योगों की तरह कठिन नहीं? क्या इस तरह का नाम जप आसान है? अधिकतर गुरू नामदान देते हैं और कहते हैं कि इसी से कल्याण हो जायेगा, तो यह उपदेश भक्ति मार्ग की तरह होता है, लेकिन जैसे ही इसमें सेवा शब्द जुड़ता है तो इसमे कर्म योग भी शामिल हो जाता है और जैसे ही सत्संग शब्द जुड़ता है तो इसमे ग्यान योग भी शामिल हो जाता है। सेवा और सत्संग शब्द गागर में सागर की तरह है। सेवा कर्म का प्रतीक है और सत्संग ग्यान का प्रतीक है । अंतिम परम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तीनों में समन्वय आवश्यक है। 

 🌺 सेवा और सत्संग दोनों ही तन, मन, धन से किये जाते है। सेवा से जुड़ा एक प्रसंग है-

 🌺सच्ची सेवा 🌺 

एक बार एक विद्यालय में सच्ची सेवा विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगियों ने सेवा पर शानदार भाषण दिए। परिणाम में एक ऐसे छात्र को चुना, जो मंच पर आया ही नहीं। तब विद्यार्थियों और शिक्षकों ने पूछा कि आखिर ऐसा क्यों किया? 

 🌺 तब प्राचार्य ने कहा, कि मैं देखना चाहता था कि कौन से छात्र ने सेवा भाव को समझा है। इसलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली रख दी थी। किसी ने उस बिल्ली की ओर ध्यान नहीं दिया। यह अकेला ऐसा छात्र था जिसने वहां रुककर उस बिल्ली का उपचार किया व उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और इस वजह से वह मंच पर नहीं आ सका। यानि सेवा भाव तो आचरण में होना चाहिए। 

 🌺सत्संग🌺

 यानि कि सत्य का संग यानि कि असत्य से संबंध विच्छेद। यानि कि सत्य गुरु की सत्य वाणी से संबंध और दुराचार/दुष्कर्म से संबंध विच्छेद। 

🌺 सत्संग के उपदेश ज्ञान से संबंधित होते हैं। 

🌺 ज्ञान योग 🌺 

इसमें यही उल्लेख होता है कि हम किस तरह के कर्म करें, जिससे हम उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति कर मुक्त हो सकें। 

🌺 ज्ञान योग हमारी आंखों की तरह है, जो हमारा धरना-प्रदर्शन करती हैं। 

 🌺 ज्ञान योग कहता है कि ज्ञान के अनुसार शुभ सत्कर्म करें, अब बात वही आ जाती है कि ज्ञान योग कहता है कि यदि उस अदृश्या शक्ति की अनुभूति करनी है तो सत्य में समाहित होना ही होगा, सात्विक बनना ही होगा, निष्काम सत्कर्म करने ही होंगे। 

🌺 ज्ञान मार्ग भी यही कहता है कि स्वार्थ के लिये नहीं परमार्थ के लिये जीना है। सभी ऐषणाओं/कामनाओं चाहे वह संतान से जुड़ी हो, चाहे संसार से जुडी हो, चाहे धन-सम्पत्ति आदि से जुड़ी हो इन सभी ऐाणाओं/कामनाओं को मन से विसर्जित करना ही होगा और उस अदृश्य शक्ति की ऐषणा/कामना को मन में स्थापित करना ही होगा। उसको ध्यान में रखते हुए ही सभी कर्म सत्कर्म करने होंगे।

 🌺 अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईष्वर प्राणिधान का पालन करना ही होगा, 

🌺 ध्यान करना ही होगा यानि मन को किसी भी केन्द्र बिन्दू चाहे वह श्वांस हो, कोई स्पंदन हो अथवा कोई आंतरिक चक्र उस पर एकाग्र करना ही होगा, 

 🌺 समाधि तक पहुंचना ही होगा। यानि के भक्ति योग में भक्त के मन में अपने आराध्य के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता, तो ज्ञान योग भी यही कहता है कि यदि उस तक पहुंचना है तो केवल और केवल निष्काम शुभ सत्कर्म, केवल और केवल उसका ही ध्यान, उसका ही चिंतन, उसका ही विचार। उससे मिलन की चाह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं। 

 🌺 ज्ञान योग का सारांश यही है कि यह हमें मार्ग बताता है कि कैसे उस अदृश्य शक्ति तक पहुंचा जा सकता है। 

 🌺 जैसे कि हमें रोटी चाहिये तो उसके लिये सर्वप्रथम गेहूं, फिर उसका आटा, चकला-बैलन, ईंधन, पानी, परात, तवा आदि की आवश्येकता होती है। जब इन सभी का संयोग/समन्वय होता है तब रोटी प्राप्त होती है, 

 🌺 तो ज्ञान योग भी यही कहता है कि जब तक निष्कमाम शुभ सत्कर्म नहीं किये जायेंगे, विषय-विकार से दूर नहीं होंगे, पापों से दूर नहीं होंगे, ध्यान नहीं करेंगे, मन को एकाग्र नहीं करेंगे, तब तक उस अदृश्य तत्व की अनूभूति भी नहीं कर सकेंगे। इसमें भी भक्ति मार्ग की तरह सबसे बड़ी समानता यही है कि उस अदृश्य शक्ति की चाह के अतिरिक्त कोई चाह नहीं। 

🌺 ज्ञान एक लंगड़े की तरह है, जो स्वयं नहीं चल सकता, लेकिन जिसके पास आंखें हैं और वह अंधों को यह बता सकता है कि किस तरह के कर्म आपको जला देंगे, अर्थात् आपके दुख का कारण बनेंगे। 

🌺 किस तरह के कर्म आपके सुख का कारण बनेंगे। और किस तरह के कर्म आपको आवागमन के चक्र में फंसा देंगे और किस तरह के कर्म आपको आवागमन के चक्र से दूर कर देंगे, आपको मुक्त कर देंगे। 

 🌺 कर्म योग - चाहे कोई सा भी योग हो, मुक्ति के लिये वासना/कामना रहित शुभ सत्कर्म तो करने ही होंगे। 

🌺 संत कबीर जी और संत रैदास जी दोनों में ही कर्मयोग, भक्ति योग ज्ञान योग तीनों ही योगों का संगम था। दोनों ही जो कुछ भी कर्म करते थे, चाहे नित्य कर्म करते थे, चाहे आजीविका अर्जन हेतु कर्म करते थे, चाहे शयन करते थे, चाहे ध्यान करते थे, उनका मन सदैव प्रभू भक्ति में लीन रहता था। 

 🌺 ज्ञान के अनुरूप ही कर्म करते थे, जग में रहते थे, लेकिन उनका मन जग से कटा हुआ रहता था और उस अदृश्य शक्ति से जुडा रहता था। इसीलिये उनका एक दोहा है कि ताका काल क्या करे जो आठ प्रहर होशियार, यानि जो 24 घंटे सतर्क है, उसके आगे काल भी नतमस्तक हो जाता है। 

 🌺 भक्ति/ज्ञान और कर्म इन तीनों ही योगों में समन्वय का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण कबीर जी ने दिया है। 

 🌺 किसी ने उनसे पूछा कोई आजीविका अर्जित करने हेतु कार्य करते समय भक्ति कैसे कर सकता है? तो उन्होंने बड़ा सुन्दर जवाब दिया कि गांव की महिलायें सिर पर घड़ा रखकर बिना उसे हाथ से पकड़े आपस में गपशप करती हुई चलती रहती है और फिर भी घडा नहीं गिरता। 

🌺 देखने वाले सोचते हैं कि उनका ध्यान घड़े की तरफ नहीं है, लेकिन वास्तव में वे चाहे कुछ भी बातें कर रही हों लेकिन उनका मन उस घड़े पर टिका रहता है और इसीलिये घड़ा गिरता नहीं है। 

 🌺 तो कबीर जी यही समझाना चाह रहे थे कि हमारा तन, हमारी इन्द्रियां कुछ भी करें, लेकिन हमारा मन उस अदृश्य शक्ति से जुड़ा रहे। जो नानकजी, कबीरजी, रैदासजी आदि की तरह पूरी तन्मयता से उस अदृष्य शक्ति में अपने मन को रत रखते हुए अपना कर्तव्य पूर्ण करता है, वही कर्मयोगी है। 

🌺 ज्ञान योग - इसके अन्तर्गत उन्हें रखा जा सकता है, जो संयासी, भिक्षु आदि हैं। लेकिन सत्यता तो यह है कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो कर्म नहीं करता हो। संयासी/भिक्षु का भी कर्तव्य है कि जो भोजन उसे मिला है, उसके बदले में जन-कल्याण के लिये सत्य उपदेश दें। 

 🌺 लेकिन इस संसार के अधिकतर लोग ज्ञानवान होते हुए भी अज्ञानी की तरह कर्म करते हैं और वे उस नेत्रहीन की तरह है, जिन्हें ज्ञान रूपी चश्मा मिल गया है, लेकिन जब वह कर्म पथ पर यात्रा करते है तो उस चश्मे को उतार कर कहीं पटक देते हैं और उल्टी दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं। इस बात की भी चिंता नहीं करते कि किस तरफ जाने से सुरक्षित रहेंगे और किस तरफ जाने से खाई /गढढे में गिर जायेंगे, पानी में डूब जायेंगे अथवा आग से झुलस जायेंगे। तो ऐसे नेत्रहीन कभी कुंए में गिर जाते हैं, कभी खाई, गढ़ढ़े में गिर जाते है, कभी पत्थर से टकरा कर गिर जाते है, कभी किसी से टकरा कर गिर जाते है। 

 🌺 जैसे यदि शरीर रहित आंखें हैं तो जब तक वे किसी के शरीर से संयुक्त नहीं होती तब तक अनमोल होते हुए भी वे निरर्थक है ।

 🌺 उसी तरह से यदि तन आंख रहित है तो वह शरीर अधूरा ही रहता है, और दूसरों पर आश्रित रहता है। यह सभी जानते हैं कि बिना आंख वालों को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। 

🌺 तो जिसने भी ज्ञान रूपी आंखें पा ली हैं और ज्ञान के अनुसार चल रहा है, वही ज्ञान योग का पथिक है और जो ज्ञान के विपरीत चल रहा है उसे ज्ञान मार्ग का पथिक नहीं कहा जा सकता। 

 🌺 गम्भीरता से देखा जाये तो भक्ति, कर्म और ज्ञान योग में कुछ प्रमुख समानतायें हैं, जैसे कि- 

🌺 तीनों का ही मन इस संसार में विद्यमान पदार्थ/ शक्लों से विरत रहता है। 

🌺 तीनों का ही मन छल, कपट से मुक्त रहता है। 

🌺 तीनों ही सदाचारी, परमार्थी होते हैं। 

🌺 तीनों ही दूराचार, दुष्कर्म, स्वार्थ से दूर रहते हैं। 

🌺 तीनों का ही मन प्रेम (वासना/कामना रहित) करूणा, से भरा होता है। 

🌺 तीनों का ही मन परमार्थ से भरा होता है। 

🌺 तीनों ही सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी होते हैं याने के सत्य बोलते हैं, सत्य को मानते हैं, सत्य कर्म ही करते हैं। 

🌺 तीनों का ही मन लोकेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा से रहित रहता है।

 🌺 लोकेषणा - यानि के इस लोक की कामना से रहित। 

🌺 वित्तेषणा - यानि के धन-सम्पत्ति आदि की कामना से रहित। (कर्मयोगी के लिये सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय में भी भूखा ना रहूं साधू ना भूखा जाये) 

🌺 यानि के तीनों का ही मन संसार से कटा हुआ रहता है, 

 🌺 तीनों ही जीते हैं केवल उसकी अनुभूति की आस में, उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति के बाद तीनों की ही आत्मा/मन/चित्त आदि सभी तृप्त हो जाते हैं, 

🌺 सभी इन्द्रियां पूर्णतः शांत हो जाती है, 

 🌺 तीनों को ही परम शांति प्राप्त होती है। 

🌺 कहने का तात्पर्य यह है कि हमने चाहे जो भी मार्ग चुना हो, लेकिन हमें सदाचारी तो बनना ही होगा, 

 🌺 यदि कर्मयोगी हैं तो अपने कर्तव्यों का पालन तो करना ही होगा। यानि कि चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ नहीं चाहिये चह शाहों का शाह।

🌺 यानि के उसकी अनुभूति की चाह को छोड़कर अन्य कोई चाह नहीं, 🌺 उसके चिंतन को छोड़कर अन्य कोई चिंतन/चिंता नहीं, और ऐसे मनुष्य ही उस अदृश्य तत्व की अनुभूति करते हैं, चाहे वह किसी भी योग मार्ग पर चलने वाले हों। 

🌺 सार - गुरू जो नाम प्रदान करते हैं, वह एक साधन है उस अदृष्य तत्व तक पहुंचने का। जैसा कि कहा है नाम बिना तू भव सागर में, डग मग गोते खाये रे, नाम अधार यकीनन तंंझ को मंजिल तक ले जाये रे। 

 🌺 यानि के जैसे जहाज अथवा अन्य किसी भी तरह के यान/विमान के बिना सागर को पार नहीं किया जा सकता है। तो उसी तरह से नाम और कुछ नहीं केवल वह यान/विमान/साधन है जिसके द्वारा हम दूसरे किनारे पर पहुंच सकते हैं और अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं। 

 🌺 मंजिल यानि उस अदृश्य चेतन तत्व की अनुभूति कर सकते हैं, जिसके बाद जन्म-जन्मांतरों की यात्रा समाप्त हो जाती है, भटकना बंद हो जाता है, सफर थम जाता है, जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। 

🌺 गुरू सम्मानीय हैं, आदरणीय हैं, लेकिन इस संसार में गुरू आते हैं और नाम / ज्ञान रूपी साधन का दान देते हैं। इन साधनों के द्वारा ही उस अदृश्य तत्व की अनुभूति की जा सकती है। यदि किसी महान आत्मा में अपने शि‍ष्‍‍‍य को मुक्त करने की शक्ति होती तो फिर किसी भी तरह के नामदान/ज्ञानदान/सत्संग/ध्यान आदि की आवश्यकता ही नहीं रहती। 

🌺 गुरू द्वारा जो ज्ञान प्रदान किया जाता है, उसमें नाम भी ज्ञान का ही एक भाग है और कर्म भी ज्ञान का ही भाग है। 

 🌺 जो पूर्णतः गुरू के ज्ञान की पालना करता है, उसी का कल्याण होता है। दुकर्म/दुराचार/पापकर्म/वासनामय कर्म के कारण ही मनुष्य डांवाडोल होता है, और 

 🌺 सदाचार, सत्कर्म, वासना/कामना रहित कर्म के कारण ही मनुष्य स्थिर हो जाता है और अपना लक्ष्य प्राप्त कर उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति कर हंसते हुए इस संसार से विदा हो जाता है, इस भवसागर से पार हो जाता है, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। 

🌺 यह वाणी कि नाम बिना तू भव सागर में, डग मग गोते खाये रे। नाम अधार यकीनन तुझको मंजिल तक ले जाये रे। 

 🌺 अलग-अलग मतों में अलग-अलग नाम दिया जाता है, कोई गुरू नाम के साथ ही स्वयं की तस्वीर का, तो कोई गुरू नाम के साथ ही गुरू की आंखों के बीच स्थित बिन्दु का ध्यान करने के लिये समझाता है। 

🌺 यह सब एकाग्रता के साधन है, जो मन की भ् भटकन को रोकते हैं, चक्रों को जाग्रत करते हैं, और गुरू की छवि का भी उद्देश्य यही है कि 

 🌺 जैसे जहां पर कोई कैमरा लगा हो वहां कोई अपराध नहीं करता तो उसी तरह वह छवि भी हमें उनकी वाणी की याद दिलाती है कि उस अदृश्य शक्ति की दृष्टि हमारे प्रत्येाक कर्म पर है, अत: भूलकर भी हम कोई भूल नहीं करें। 

 🌺 इसीलिये किसी कवि ने लिखा है कि - इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो न हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूल कर भी कोई भूल हो ना

 🌺 अगली कड़ी का संदेश गुरू प्रभू प्रसाद के रूप में वितरित करते हैं, उस प्रसाद के द्वारा अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने का प्रयास करते हैं। 

 🌺 दूर अज्ञान के हो अँधेरे तू हमें ज्ञान की रोशनी दे

 🌺 अगली कड़ी में बताया है कि अंधकार क्या है- 

🌺 हर बुराई से बचते रहे हम जितनी भी दे भली जिन्दगी दे बैर हो ना किसी का किसी से भावना मन में बदले की हो न 

🌺 अगली कड़ी जो परमार्थ का उपदेश देती है, स्वार्थ से रहित करती है - हम ना सोचें हमें क्या मिला हैं हम ये सोचें किया क्या है अर्पण फूल खुशियों के बांटे सभी को सबका जीवन ही बन जाये मधुबन अपनी करुणा का जल तू बहा दे 

🌺 करदे पावन हर इक मन का कोना 

🌺 अंतिम कड़ी पवित्रता से जुड़ी है, यदि मन ही पावन हो गया तो फिर उस पावन अदृश्य शक्ति की अनुभूति में कोई बाधा शेष नहीं रहती और कल्याण सुनिश्चित हो जाता है। सबका भला हो।

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