मकर संक्रांति का अध्यात्मिक संदेश अध्यात्मिक भावार्थ
सर्वे भवंतु सुखिन:
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मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें
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जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
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यह संसार द्वंद्वात्मक है
अधिकतर सब कुछ दो पहलुओं में बंटा हुआ है
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मकर संक्रांति भी हमें यही स्मरण कराती है
रात्रि के पश्चात दिन
कृष्ण पक्ष के पश्चात शुक्ल पक्ष
सर्दी के बाद गर्मी
दक्षिणायण के बाद उत्तरायण
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जिस तरह से जन्म-मरण का चक्र चलता है
उसी तरह यह परिवर्तनीय चक्र सतत चलता ही रहता है
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उत्तरायण - सूर्य दक्षिण दिक्षा से पुन: उत्तर की ओर गमन करता हुआ दिखाई देता है इसे ही उत्तरायण कहा जाता है
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दक्षिणायण - सूर्य उत्तर दिशा से पुन: दक्षिण की ओर गमन करता हुआ दिखाई देता है तो इसे दक्षिणायण कहते हैं।
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यानि कि प्रतिदिन सूर्य के उदय की दिशा में परिवर्तन होता दिखाई देता है
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6 महिने सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर गति करता दिखाई देता है तथा
6 महिने सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर गति करता दिखाई देता है
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य का मकर राशि में प्रवेश उत्तारायण है।
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तो उसी तरह से हमारी आयु भी 2 भागों में विभाजित है
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प्रथम 50 वर्ष में योग और भोग दोनों साथ रहते हैं,
जो कि दक्षिणायण की तरह है
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अंतिम 50 वर्ष में भोग का स्थान संयम ले लेता है
और केवल योग ही शेष रह जाता है
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यानि कि प्रारम्भ के 50 वर्ष सांसारिक जीवन के लिये है तथा
शेष 50 वर्ष वैराग्यता पूर्ण जीवन के लिये है
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महाराज भृतहरि का जीवन भी यही दर्शाता है
जीवन का कुछ भाग भोग में आसक्त होकर व्यतीत किया
श्रृंगार शतक की रचना की
और
जीवन का शेष भाग वैराग्य में अनासक्त रहते हुए व्यतीत किया
वैराग्य शतक की रचना की
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रामायण का भी यही संदेश है कि दक्षिणायण असुरत्व का प्रतीक है, जहां रावण जैसा तामसिक योगी और भोगी का समन्वय हैं
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दूसरी तरफ उत्तरायण देवत्व का प्रतीक है, जहां श्रीराम जैसे परम सात्विक मर्यादा पुरूषोत्तम का वास है।
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यानि मकर संक्रांति का संदेश है
असुरत्व से देवत्व की ओर गमन
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मकर संक्रांति का संदेश है कि
50 वर्ष तक मनुष्य बंटा रहे विभक्त रहे संयम पूर्वक भोग में और साथ ही योग में भी
लेकिन शेष उम्र बटा हुआ नहीं रहे
भक्त बन जाये मन में उस अदृश्य का ही चिंतन रहे
जिसके कारण सब कुछ गतिमान है
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जो कुछ भी नेत्रों से दिखाई दे
चाहे वह कोई पदार्थ हो या शक्ल
उसे साक्षी भाव/दृष्टा भाव से ज्ञान को ध्याान में रखते हुए
नश्वर/परिवर्तनशील मानते हुए आसक्ति रहित होते हुए
राग व द्वैष भाव से रहित होकर ही देखें
याद रखें कि यह सब साधन यहीं इस धरा पर ही छूट जायेंगे।
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मकर संक्रांति का यह दिन स्मरण कराता है कि
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स्नान करें
यानि यह तन का स्नान तो निरोगी रहने के लिये करें और
ज्ञान रूपी साबुन से मन का स्नान भी प्रारम्भ करें
ताकि आध्यात्मिक रूप से मन का उत्तरायण हो सके।
यानि कि जो मन पूर्व में संसार के चिंतन में रत रहता था
वह मन अब या तो शांत रहे
अथवा
ध्यान में रत रहे
अथवा
आध्यात्मिक चिंतन में रत रहे।
यही उल्टी दिशा से सीधी दिशा की ओर गमन है,
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दान करें
सब कुछ नश्वर मानते हुए निष्काम भाव से दान करें,
क्योंकि यह पुण्य कर्म ही हमारे साथ जाता है और
हमारी आध्यात्मिक प्रगति का कारण बनता है
यदि इस दान के बदले में कुछ पाने की कामना है
तो यह दान भी जन्म मरण के चक्र के बंधन का कारण बन जाता है,
लेकिन यह दान निष्फल नहीं जाता, क्योंकि जैसे ही हम दान करते हैं उस दान के अनुरूप सुख भी सुनिश्चित हो जाता है
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गुड और तिल -
मन वाणी कर्म गुड की तरह मधुर बन जायें,
मन की सारी कडुवाहट बाहर निकल जाये और निष्काम प्रेम यानि करूणा, मैत्री, मुदिता ही मन में शेष रह जाये,
यही गुड का संदेश है
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जैसे कि तिल के अंदर तेल है,
लेकिन अदृश्य रूप से है, अत: साधनों का उपयोग कर तेल प्राप्त किया जाता है।
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तो वह परमात्मा भी इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अदृश्य रूप से व्याप्त है, उसी के कारण ब्रह्मांड में सब कुछ गतिमान है।
तो नश्वर/परिवर्तनशील दृश्यमान पदार्थ/शक्ल आदि सभी साधन हैं, उस अदृश्य की अनुभूति करने के लिये।
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पतंग
पतंग का भी आध्यात्मिक दृष्टि से यही संदेश है कि
आधा जीवन हमारा सत-तम के तालमेल के साथ बीता यानि कि
कभी उत्कृष्ठ कर्म किये,
कभी निकृष्ठ कर्म किये
राजसिक अवस्था में ही जीवन बिताया लेकिन
अब पतंग की तरह ऊपर उठना है
अब सात्विकता से सराबोर होना है
अब उधर्वगमन करना है
अब उत्तरायण करना है
अब प्रकाश में जीना है
अब शुक्ल पक्ष में जीना है
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अब अंधकारमय पक्ष यानि विषय विकार व पाप से मुक्त होना है
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अब उज्जवल पक्ष यानि कि निष्काम सत्कर्म से युक्त होना है
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पहले मन बुद्धि को भ्रमित करता था
अब ध्यान के माध्यम से मन द्वारा फैलायी जा रही भ्रांतियों के चक्र को तोड देना है
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जैसे कि अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंसा था और बाहर नहीं निकल सका तो
इस संसार के लोग भी अभिमन्यु की तरह
काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग-द्वैष आदि शत्रुओं के मध्य फंसे हुए हैं और
इस चक्र में ही फंसे हुए दम तोड देते हैं
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अभिमन्यु की मृत्यु का कारण अधूरा ज्ञान था
तो उसी तरह इस जन्म मरण के चक्रव्यूह को तोडने के लिये
दृश्यमान पदार्थ/शक्ल साधन मात्र हैं,
इन्हें ज्ञान के अनुसार नश्वर/परिवर्तनशील मानते हुए अनासक्त भाव से साक्षी भाव से दृष्टा भाव से संयमित जीवन जीने पर ही विषय-विकार-पाप से निर्मित चक्रव्यूह को ज्ञान के अनुसार निष्काम सत्कर्म के द्वारा तोडा जा सकता है
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यानि कि विद्यमान पदार्थ/शक्लों की नश्वरता को याद रखते हुए सत्य, अहिंसा अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच संतोष, तप स्वाध्याय, प्राणिधान के द्वारा
एकाग्रता के द्वारा
ध्यान के द्वारा
साक्षी/दृष्टा भाव के द्वारा जन्म मरण के चक्र को तोडा जा सकता है
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जाे संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों की ननश्वरता/परिवर्तनशीलता को ध्यान में रखता हुआ अनासक्त भाव से निष्काम सत्कर्म की यात्रा शुरू कर देता है मानों उसके जीवन में एक ⚘क्रांति ⚘आ जाती है
उत्तरायण का प्रारम्भ हो जाता है
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मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है
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कभी समाप्त नहीं होने वाली शांति
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कभी समाप्त नहीं होने वाले परम आनन्द दिव्य सुख की प्राप्ति होती है।
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जिसकी सांसारिक पदार्थों से आसक्ति नहीं टूटती सकाम भाव से कर्म करता है
तो उसका जन्म मरण का चक्र नहीं टूटता,
उसे पुन: जन्म-मरण के चक्र के बंधन में आना पडता है और
उसे अपने कर्मों के अनुरूप सुख और दुख दोनों का ही सामना करना पडता है।
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सबका भला हो
Bhot badiyaa bhai.
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