Posts

Showing posts from June, 2016

आहिंसा non violence, ahinsa

 अहिंसा परमो धर्म अधिकांश धर्म/मतों में अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। ष्सत्य की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाेता है तो सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। अहिंसा ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है। अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहरू . व्यासभाष्यए योगसूत्र 2। 30द्ध। अहिंसा का अर्थ है सर्वकाल में कर्म, वचन मन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करना अहिंसा का सामान्य अर्थ है श्हिंसा न करना । इसका व्यापक अर्थ है . किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है जैन दृष्टि से सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है, सत्प्रवृत्तिए स्वाध्यायए अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है...

ब्रह्मचर्य Celibacy Brahmacharya

ब्रह्मचर्य मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/प्रभू साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य (वीर्यरक्षण  / वेदाध्ययन (सद्ग्रंथों का अध्ययन) / ईश्वरचिन्तन या ध्यान) अनिवार्य शर्त है। आरती ऊँ जय जगदीश हरे की प्रश्न स्वरूप पंक्ति किस विधि मिलूं दयामय भी इसकी पुष्टि करती है, जिसका उत्तर भी उसी में बताया गया है विषय-विकार (इन्द्रियों के भोग व काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) मिटाओ पाप हरो देवा। अर्थात् मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण के लिये विषय-विकार से मुक्त होना व निष्पाप होना अनिवार्य शर्त है। इतिहास साक्षी है कि जिसने ब्रहचर्य का पालन किया है तथा जो विषय-विकार से दूर रहता हुआ निष्पाप रहा है उसने ही उस परमानन्द/मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-मरण से मुक्ति पायी हैः- जैसे कि शंकराचार्यजी, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द, राम कृष्ण परमहंस जी, स्वामी विवेकानन्द, जैमल सिंह जी आदि (ये सभी आत्मायें विषय-विकार से दूर थीं तथा निष्पाप थीं) अथार्त जो विषय-विकार व पाप में लिप्त है वह ब्रह्मचारी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिस समय वह विषय-विकार व पाप से ग्रस्त होगा उस समय वह ब्रह्म से दूर होगा...

तप Austerity Tapasya

तप तप का अर्थ तपना नहीं है अपितू द्वंदो/संघर्ष की स्थिति में सत्यपथ से विचलित नहीं होना ही तप हैै। तपस्वी बनने के लिये जैसे लोहे को अग्नि में तपाकर पक्का किया जाता है, जैसे कुम्हार घड़े को अग्नि में तपा कर पक्का करता है, जैसे स्वर्ण अग्नि के सम्पर्क में आने से कुन्दन बन जाता है, वैसे ही सत्कर्म रूपी तपस्या से तप कर ही कोई तपस्वी बन सकता है। अभ्यास के द्वारा ही जब तप करते करते ऐसी स्थिति आ जाती है कि उस मनुष्य को सुख-दुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि किसी भी द्वन्द्व के कारण ना तो प्रसन्नता होती है, ना दुख ही होता है, ना किस से राग या द्वेष होता है, ऐसी परिपक्व अवस्था वाला मनुष्य ही तपस्वी कहलाता है। इतिहास साक्षी है कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द आदि किसी भी अवस्था में विचलित नहीं हुए जिन्होंने उनके प्राण लेने चाहे उन्हें भी उन्होंने क्षमा कर दिया तथा अपने तेज व उपदेश द्वारा असुर प्रवृत्ति वालों को भी सात्विक प्रवृृत्ति का बना दिया। संक्षेप में ऊपर उठना/उर्ध्वगति ही तप है, नीचे गिरना, आमोद-प्रमोद में रत रहना आसान है, जैसे कि फल को पेड़ से नीचे गिरने में काई मेहनत नहीं करन...

सत्य SATYA TRUTH

सत्य सत्यं यथार्थेे वांगमनसे। जैसा हमने इन्द्रियों से देखा प्रमाणों से जाना ठीक वैसा ही वाणी से कहना और मन से चिन्तन करना सत्य है। असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योर्तिगमय मृत्योमा अमृतंगमय। इस मंत्र में भी सत्य ही सत्य झलकता है। है प्रभू मुझे असत्य से सत्य की ओर अंधेर से प्रकाश की ओर मृत्यू से अमृत्व की ओर ले चलो। असत्य अर्थात् तम प्रधान रहने पर उसे अमृत/मोक्ष/परमनन्द की अनुभूति नहीं मिल सकती है क्योंकि असत्य तम/असुर का द्योतक है तथा सत्य सत/देवत्व का , इसी तरह अंधेरा तम का तथा प्रकाश सत का तथा असत्य के कारण ही बार-बार जन्म व मृत्यु का सामना करना पड़ता है यह तम तत्व की प्रधानता के कारण होता हैं। अमृत्व (मोक्ष) सत (परमात्मा) की अनुभूति कर बार-बार जन्म-मृत्यु रूपी दुख से छ्टना है। सत्य की महिमा महाराज मनु कहते हैंः- नहि सत्यात परो धर्मों नानृतात् पातकं परम। नहि सत्यात परं ज्ञानं तस्मात सत्यं विषिश्यते।। मनु 5@6 सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं । महर्शि व्यास जी महाभारत में लिखते हैं कि हजार अष्वमेघ यज्ञों की अपेक्षा सत्य का स्थान ऊंचा है। नह...