सत्य SATYA TRUTH
सत्य
सत्यं यथार्थेे वांगमनसे।
जैसा हमने इन्द्रियों से देखा प्रमाणों से जाना ठीक वैसा ही वाणी से कहना और
मन से चिन्तन करना सत्य है।
असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योर्तिगमय मृत्योमा अमृतंगमय।
इस मंत्र में भी सत्य ही सत्य
झलकता है। है प्रभू मुझे असत्य से सत्य की ओर अंधेर से प्रकाश की ओर मृत्यू से अमृत्व की ओर ले
चलो।
असत्य अर्थात् तम प्रधान रहने
पर उसे अमृत/मोक्ष/परमनन्द की अनुभूति नहीं मिल सकती है क्योंकि असत्य तम/असुर का द्योतक है तथा सत्य सत/देवत्व का, इसी तरह अंधेरा तम का तथा प्रकाश सत का तथा असत्य के कारण ही
बार-बार जन्म व मृत्यु का सामना करना पड़ता है यह तम तत्व की प्रधानता के कारण होता
हैं। अमृत्व (मोक्ष) सत (परमात्मा) की अनुभूति कर
बार-बार जन्म-मृत्यु रूपी दुख से छ्टना है।
सत्य की महिमा
महाराज मनु कहते हैंः-
नहि सत्यात परो धर्मों नानृतात्
पातकं परम। नहि सत्यात परं ज्ञानं तस्मात सत्यं विषिश्यते।। मनु 5@6
सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और
झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं ।
महर्शि व्यास जी महाभारत में
लिखते हैं कि हजार अष्वमेघ यज्ञों की अपेक्षा सत्य का स्थान ऊंचा है।
नहिं असत्य सम पातक पुंजा, गिरी सम होहिं कि कोटिक गुंजा - तुलसी दास जी
असत्य के समान पापों का समूह
भी नहीं है अर्थात् असत्य सबसे बड़ा पाप है। क्या करोड़ो घंुघचियां मिलकर भी पहाड़ के
समान हो सकती है? अर्थात्् सत्य पहाड़ के समान बहुत बड़ा है तथा सत्य ही समस्त उत्तम
कर्मों की जड़ है।
कबीर जी ने भी कहा है कि सांच
बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप जाके हिरदे सांच है ताके हिरदे आप।
महाभारत में द्रोणाचार्य वध का
प्रसंग आता है, जिसमें श्री कृष्ण युधिष्ठर से कहते हैं भीम अष्वत्थामा हाथी का वध
करने के उपरांत द्रोणाचार्य जी से कहेगा कि मैंने अष्वत्थामा का वध कर दिया है, तब यदि द्रोणाचार्य इसकी पुष्टि के लिये तुमसे पूछे तो तुम्हें ऐसा
कहना है कि अष्वत्थामा मर गया है, मनुष्य अथवा हाथी जैसे ही तूम अथवा हाथी शब्द बोलोगे हम उसे शंख की ध्वनि में दबा
देंगे। पहले तो युधिष्ठर इससे सहमत नहीं हुए लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं
होने के कारण उन्हें ऐसा कहना पड़ा जो कि अर्द्धसत्य था लेकिन ऐसा कहते ही उनका रथ
जो सत्य वादी होने के कारण भूमि से उंगल भर उपर उठकर चलता था भूमि पर आ गया।
अतः असत्य हमारे पतन का अधोगति
का निम्नगति का कारण बनता है।
सत्यमेव जयतेः-
भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य
है। इसका अर्थ है सत्य ही जीतता है, सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी
लिपि में अंकित है। सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा
बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन यह आदर्श वाक्य मूलतः
मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3 1 6 है पूर्ण मंत्र इस प्रकार है
सत्यमेव जयते नानृतृं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो हृयाप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्
।।
अर्थात अंततः सत्य की ही जय
होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण
हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
चेक और इसके पूर्ववर्ती
चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य भी प्रावदा
वितेजी (सत्य जीतता है) है।
सत्य ही सत्व तत्व है जो कि
देवत्व की ओर ले जाता है, झूठ ही तम तत्व है जो असुरत्व
की ओर ले जाता है। मानव अपने व्यवहार व
कार्य से पहचाना जाता है । जो मानव सत्यवादी होता है वह युधिष्टिर, राजा हरिश्चंद्र व श्रीराम ध्रुव प्रहलाद भगवान बुद्ध महावीर स्वामी महर्षि दयानन्द सरस्वती रामकृष्ण्ण परमहंस विवेकानंद आदि के समान अमर हो जाता है ।
संसार में सत्य से बढ़कर कोई
धर्म नहीं सत्य से बढ़कर कोई श्रेष्ठ ज्ञान नहीं । सत्य से ही
संसार चल रहा है । असत्य जंहा विनाश का कारण बनता है वंही सत्य से सृष्टि की रक्षा
होती है । इतिहास साक्षी है कि हिरण्यकष्यप कंस दुर्योधन और रावण का असत्य (तामसिक मानसिकता) के कारण
ही वध हुआ था। असत्य (तामसिक मानसिकता) के कारण ही संसार में महायुद्धों का जन्म
हुआ और जन-धन की हानि हुई । सत्य के कारण कई महापुरषों को दुःख सहने पड़े लेकिन अंत
में जीत सत्य की हुई । राजा हरिश्चंद्र ने तो सत्य के लिए अपना राज-पाठ त्याग दिया
था । सत्य के बल पर प्रभु श्रीराम श्री कृष्ण पांडव विजयी हुए थे और प्रहलाद को हिरण्यकष्यप मार
नहीं सका था ।
‘सत्यम ब्रूयात् प्रियम ब्रूयात् ् न ब्रूयात् सत्यम अप्रियम्
प्रियम च नानृत्म बू्रयात्् ऐष धर्मः सनातनः।
सदैव सत्य बोलो और प्रिय बोलो जो अप्रिय लगे ऐसा सत्य न बोलो अर्थात् यदि सत्य
बोलने की शक्ति नहीं हो तो सम्भव हो तो मौन ही रहेंः
जैसे कि कोई गाय आपके पास से
गुजरी जिसके पीछे कसाई आ रहा था
वह आपसे पूछे की गाय किस दिशा
में गई है या तो आप मौन रहें या बताने से मना कर दें। असत्य नहीं बोलना चाहिये
जैसा कि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कहा था कि यदि मेरे हाथ की अंगुलियों की बत्ती
बनाकर जला दी जाये तो भी मैं असत्य नहीं बोलूंगा तथा महात्मा सुकरात की जीवनी भी
यही बताती है।
महात्मा सुकरात को जहर देकर
मारने का दंड दिया गया था
एक दिन पहले उनके मित्र उनसे
मिलने गये तब उनके परम शिष्य क्रेटो ने उनसे कहा कि आपके यहां से भागने का प्रबन्ध
कर दिया गया है। सुकरात ने कहा कि मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा सत्य प्रिय है।
यहां से भागने पर भगवान मुझे भले ही क्षमा कर दें लेकिन इतिहास मुझे क्षमा नहीं
करेगा। मैं सत्य हूं और सत्य कभी मरता नहीं है तुम मर जाओगे लेकिन मैं सत्य
के रूप में जीवित रहूंगा। अर्थात्् सत्य में जीने वाले महापुरूष भले ही इस धरती पर
जीवित नहीं हो लेकिन व इंितहास में जीवित रहते हंै। आज क्रेटो को जानने वालों की
संख्या नगण्य है लेकिन महात्मा सुकरात को जानने वालों की संख्या अधिक है।
बंगाल के खुदीराम चट्टोपाध्याय
को उनके यहां के जमींदार ने झूठी गवाह देने के लिये कहा लेकिन उन्होंने झूठी गवाह देने से मना कर दिया तब जमंीदार ने क्रोध में कहा कि ऐसा नहीं करोगे तो
तुम्हें गांव से निकाल दिया जायेगा। तब खुदीराम ने गाँव छोड़ दिया लेकिन झूठी गवाही
नहीं दी।
अतः यदि अपने संस्कारों के कारण कमजोर है तथा
मजबूरी में उसे बताना ही पड़े तो उसे गलत दिशा बता सकता है जो कि परमार्थ के
उद््देश्य से बोला गया असत्य है
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस उदाहरण को अपने
जीवन में स्थान देते हुए आप अपने स्वार्थ के लिये असत्य बोलने को ही अपना संस्कार
बना लें तथा अपने स्वार्थ के लिये असत्य बोलने लग जाये। अपने स्वार्थ के लिये
विषय-विकारों (इन्द्रियों के भोग
काम क्रोध लोभ मद
मोह) के कारण झूठ बोलने वाले व्यक्ति को आध्यात्मिक
पतन से कोई भी नहीं बचा सकता है। अधिकांश व्यक्ति स्वार्थवश अपने कुकर्मों पर परदा
डालने के लिये ही असत्य बोलते हैं जो कि निन्दनीय है।
प्रिय सत्य और अप्रिय सत्य की
एक कथा हैः-
एक ज्योतिष एक राजा को उसका
भविष्य बता रहा था कि उसके सामने ही एक-एक करके पत्नी पुत्र पुत्री आदि की मृत्यु हो
जायेगी। राजा ने क्रोधित होकर उसे कारागार में डलवा दिया।
कुछ समय पश्चात एक अन्य
ज्योतिष राजा को उसका भविष्य बताने दरबार
में पहुंचा उसने राजा को कहा महाराज आपका जैसा भाग्य तो संसार में किसी का भी नहीं आप तो अपने पौत्र व प्रपौत्र को भी सिंहासन पर
विराजमान होते हुए देखेने के पश्चात इस संसार से विदा होंगे।
राजा सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ उसने ज्योतिष को बहुत सारा धन पुरूस्कार स्वरूप
प्रदान किया।
पहले ज्योतिष ने भी सत्य कहा
था लेकिन उसका कहने का तरीका अप्रिय था तथा मूर्खतापूर्ण था उसने आधा सत्य ही कहा वह भी अप्रिय तरीके से पुत्र पुत्री स्त्री आदि तो मर जायेंगे
लेकिन पौत्र-प्रपौत्र तो जीवित रहेंगे। अतः कहा गया है कि पहले तोलो फिर बोलो यदि
वह तोल कर बोलता तो उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती।
शंकाराचार्य जी ने कहा है ‘ब्रहम सत्य
जगत मिथ्या’ अर्थात परमात्मा सत्य है संसार झूठा हैं। जो अजर अमर
अविनाशी है जो भूतकाल वर्तमान और भविष्य काल में एक
समान रहने वाला है ऐसा परमात्मा ही तीन काल मंे सत्य है। परमात्मा सर्वव्यापक है
वह प्रकृति में विद्यमान है इसे ही पुराण में शिव व पावर्ती के अर्द्धनारेश्वर के
प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है अर्थात् शिव परमात्मा का प्रतीक है और पार्वती
प्रकृति का प्रतीक है
इस तरह ईश्वर प्रकृति में
समाहित है।
प्रभू को सब जगह मानकर जैसे कि
यदि हमारे कार्यस्थल पर कैमरा लगा दिया जाये तो हम हमारे कार्यस्थल पर निर्धारित
समयानुसार उपलब्ध रहेंगे और अपना कार्य पूर्ण लगन से करेंगे। उसी तरह यह मानकर कि
वह सबकुछ देख रहा है तथा उस सत्य स्वरूप को सर्वव्यापक अंतर्यामी मानकर हमें अपने आपको सुधारने के लिये तम
के त्याग व सत को अपने जीवन में स्थान
देने का अभ्यास करना होगा।
03 सनातन सत्य हैं परमात्मा आत्मा व प्रकृति। परम सत्य तो
परमात्मा ही है आत्मा व प्रकृति भी सत्य हैं लेकिन इनका आधार
परमात्मा ही है अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार किये बिना कोई भी
आत्मा अपनी इच्छा से ना तो शरीर त्याग
सकती है और ना ही शरीर धारण कर सकती है (परकाया प्रवेष की शक्ति)। अतः आत्मा प्रभू
आश्रित है। इसी तरह प्रकृति भी बनती है और बिगड़ती है (जैसे कि पानी भाप बनकर आकाष
में जाने के पष्चात्् पुनः वर्षा के रूप में धरती पर गिरता है) जैसे सभी वस्तुओं को कहीं रखने के लिये आधार की
आवष्यकता होती हैै उसी तरह प्रकृति को भी परमात्मा के सानिध्य की
आवष्यकता होती है प्रकृति प्रभू के आधार पर टिकी हुई है। इसलिये परमेष्वर के परम सत्य होने के कारण
शंकराचार्य जी ने कहा है कि ’ब्रह््म सत्य जगत मिथ्या’ । अतः इन तीनों के अतिरिक्त सभी नाष्वान हैं।
आत्मा की अमरता के लिये
श्रीमदभागवद्गीता के दूसरे अध्याय में कहा गया है इस आत्मा को शस्त्र नही काट सकते आग जला नही सकती जल गीला नहीं कर सकता और वायु
इसको सुखा नही सकती। भाव
शरीर मरता है आत्मा अमर हैं सदैव रहने वाली है।
जब व्यक्ति के मरणोपरांत
षवयात्रा में राम नाम या प्रभू नाम सत्य है सत्य से गत है कहा जाता है।
उसका तात्पर्य यही है कि सत
रज व तम तीन गुण हैं। सत्व गुण
ही सबसे बड़ा है सत्य पथ पर चलकर ही मनुष्य जीवन का परम उद्देष्य
परमानन्द को प्राप्त करना पूरा हो सकता है। रज प्रवृत्ति वाले में देवत्व व
असुरत्व दोनों ही गुण विद्यमान होता हैA अतः रजोगुण वाले को परमानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती है। तम
प्रवृत्ति वाला पूर्णतः असुर प्रवृत्ति का होता हैA अतः उसे भोग योनि प्राप्त होती
है।
अतः सत्य (सत तत्व) ही सबसे
बड़ा है वह इस लोक व परलोक दोनों में कल्याणकारी है।
हमारे बहुत से मत सम्प्रदाय
वालों ने सत्य के प्रतीक के रूप में कुछ स्थान बनाये हैंः- जैसे कि राधा स्वामी मत
वाले भाईयों ने अपने सत्संग भवन ण्का नाम सच खण्ड रखा है कबीर मत वालों ने सतलोक रखा है पौराणिक भाईयों ने सांचा दरबार कहा है। जिसका
तात्पर्य यही है कि सत्य की राह पर चलकर ही उस असली सचखंड/सतलोक/सांचे दरबार अर्थात््
मोक्षस्थल तक पहुंच सकते हैं वहां पर तामसिक (असत्यवादियों/आसुरी प्रवृतित्तयों
वाले)] राजसिक (देव-आसुरी प्रवृत्ति के मिश्रण वाले) का प्रवेष असम्भव है वहां पर केवल सात्विक (देवत्व प्रवृत्ति) का ही
प्रवेष सम्भव है।
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