तप Austerity Tapasya
तप
तप का अर्थ तपना नहीं है अपितू द्वंदो/संघर्ष की स्थिति में सत्यपथ से विचलित नहीं होना ही तप हैै। तपस्वी बनने के लिये जैसे लोहे को अग्नि में तपाकर पक्का किया जाता है, जैसे कुम्हार घड़े को अग्नि में तपा कर पक्का करता है, जैसे स्वर्ण अग्नि के सम्पर्क में आने से कुन्दन बन जाता है, वैसे ही सत्कर्म रूपी तपस्या से तप कर ही कोई तपस्वी बन सकता है। अभ्यास के द्वारा ही जब तप करते करते ऐसी स्थिति आ जाती है कि उस मनुष्य को सुख-दुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि किसी भी द्वन्द्व के कारण ना तो प्रसन्नता होती है, ना दुख ही होता है, ना किस से राग या द्वेष होता है, ऐसी परिपक्व अवस्था वाला मनुष्य ही तपस्वी कहलाता है। इतिहास साक्षी है कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द आदि किसी भी अवस्था में विचलित नहीं हुए जिन्होंने उनके प्राण लेने चाहे उन्हें भी उन्होंने क्षमा कर दिया तथा अपने तेज व उपदेश द्वारा असुर प्रवृत्ति वालों को भी सात्विक प्रवृृत्ति का बना दिया।
संक्षेप में ऊपर उठना/उर्ध्वगति ही तप है, नीचे गिरना, आमोद-प्रमोद में रत रहना आसान है, जैसे कि फल को पेड़ से नीचे गिरने में काई मेहनत नहीं करनी पड़ती है लेकिन किसी वस्तु या तत्व को ऊपर पहुंचाने के लिये मेहनत करनी पड़ती है, यही तप है। जैसे आपको पानी की टंकी में पानी चढ़ाना है तो बिना मोटर के या श्रम के आप पानी ऊपर नहीं पहुंचा सकते हैं लेकिन यदि पानी नीचे चाहिये तो नल घूमाते ही पानी मिल जायेगा।
तपस्यामय जीवन जीने के लिये अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अथक संघर्श करना भी तप ह ै। तप मन, वचन व कर्म से करना होगा तभी तप करने का लाभ है अन्यथा नहीं।
आत्मानन्द/ परमानन्द /प्रभू साक्षात्कार/ मोक्ष के लिये निम्न तप अनिवार्य है।
सत्य - मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं कि उसे मजबूर होकर असत्य बोलना पड़ता है। तो यह भी एक तप ही है कि वह प्रयास करे कि किसी भी स्थिति में मन, वचन व कर्म से असत्य नहीं बोलने का अभ्यास करे। जैसे कई लोगों का असत्य बोलने का अभ्यास इतना अधिक होता है बात-बात में झूठ बोलकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, जैसे किसी दुकारदार के पास या किसी भी व्यक्ति से कोई कार्य करवाने के लिये उससे झूठ बोलते हैं कि अन्य दुकारदार या व्यक्ति तो कम दाम में यह वस्तु देने अथवा यह कार्य करने को तैयार है। तो इससे बचने के लिये वह जितने दामों में वह वस्तु खरीदना चाहता है या कार्य करवाना चाहता है, उतना मूल्य उसे बता दे, इतना तो दुकानदार और वह व्यक्ति भी जानता है कि आजकल कोई सत्य नहीं बोलता है, अतः असत्य नहीं बोलना भी बहुत बड़ा तप है। बहुत बड़ा सत्कर्म है।
अंहिसा - अंहिसा को परम धर्म कहा गया है, अतः परम धर्म का पालन करना भी एक तप ही है। मनुष्य के जीवन को तप से गिराने में हिंसा भी एक बहुत बड़ी बाधा है, आप अपने जीवन को सावधानीपूर्वक जीयंे यदि आप कहीं से गुजर रहें हैं तो यदि सम्भव हो तो चलते हुए नीचे भूमि पर चलने वाले कीड़ों का भी ध्यान रखते हुए चले। वैसे तो हमे मालूम नहीं होता है कि हमारे द्वारा कितने सूक्ष्म जीवों की अन्जाने में मृृत्यु होती है, लेकिन कम से कम हम जानते हुए तो किसी की हिंसा नहीं करें।
जैसे कि आपकी आंखों के सामने दूध में या किसी वस्तु में मख्खी या अन्य कोई कीड़ा गिर जाता है, तो अधिकांश मनुष्य उसे त्याज्य समझते हैं, उसको ग्रहण नहीं करते लेकिन यदि आपको पता नहीं है और दूध आपके घर में पहुंचने से पहले ही उसमें कोई कीड़ा अथवा मख्खी-मच्छर गिर जाये तो दुकानदार या दूध बेचने वाला उसे निकाल कर फेंक देता है और दूध बेच देता है लेकिन हम अन्जान होने के कारण उस दूध को ग्रहण कर लेते हैं, अतः हम कम से कम जान-बूझ कर तो किसी भी तरह की हिंसा नहीं करें।
इसी तरह से किसी के प्रति मन में भी हिंसा का भाव नहीं आने दें, हिंसा पूर्ण वचन भी नहीं बोलें तथा किसी की हिंसा भी नहीं करें तथा ना ही किसी अन्य व्यक्ति से करवायें तो यह भी एक बहुत बड़ा तप है।
अस्तेय - मन, वचन, कर्म से चोरी नहीं करना, अर्थात् किसी का भी सामान उसके बिना पूछे नहीं लेना तथा यदि मजबूरी में लिया जाये तो जिसका सामान है, उसे अवगत कराना तथा यदि क्षतिपूर्ति आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति करना तथा यदि अंजाने में तुम्हारे पास किसी की कोई वस्तु आ गई है तथा तुम्हें असली मालिक का पता हो तो उसे वापस लौटायें। यदि मालिक का पता नहीं हो तो कम से कम उस वस्तु की कीमत के बराबर दान करें। अपने जीवन को इतनी बारीकी से जीना भी एक बहुत बड़ा तप है।
ब्रह्मचर्य - (कम से कम आश्रम व्यवस्था अनुसार काम का उपभोग करना, जैसे की पच्चीस वर्ष की उम्र तक अपने अध्ययन में तन-मन से लगे रहना अर्थात् अपने अध्ययन को ही तप मानना, उसके पश्चात् गृहस्थ में आने पर अपने माता-पिता पत्नी, गुरू, उपदेशक, पुत्र-पुत्री भाई बहिन आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना तथा अपने हृदय को उस सत्य तत्व ब्रह्म की ओर लगाये रखना। उस ब्रह्म को पल-पल ध्यान रखते हुए अपने कर्तव्य कर्मों को सात्विक निष्काम कर्मों को करना यह भी एक बहुत बड़ा तप है क्योंकि आज हम माया के वषीभूत होकर मनोरंजन में ही लगे रहते हैं और जितना हम मनोरंजन में लगेंगे उतना ही हमारा मन ब्रह्म से दूर होता जायेगा, लक्ष्य से दूर होता जायेगा। आज हम माता-पिता जो कि सबसे पहले देव हैं, जिन्हें प्रसन्न करने से ही वह ब्रह््म प्रसन्न होता है तथा हमारी सात्विक अवस्था उन्नत होती है उसे भूल कर हम अपने पत्नी व बच्चों का ही ध्यान रखने में लगे रहते हैं कई भाई तो माता-पिता को व््द्धाश्रम में छोड़ देते हैं। अतः परमानन्द की प्राप्ति हेतु हमें अपने स्वजनों सहित विशेषकर हमारे माता-पिता, गुरू, अतिथी (उपदेशक सन्यासी) को प्रसन्न रखने का अभ्यास करना होगा। इसमें अपवाद स्वरूप ऐसा भी होता है कि किसी योगी की साधना अधूरी रहने पर पुर्नजन्म होने पर पूर्व जन्म के वैराग्य के संस्कारों की मात्रा अधिक होने के कारण उसे उस अज्ञात तत्व को जानने अथवा परमानन्द को प्राप्त करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सुझता है, ऐसे लोगों की संख्या कम होती है और व अल्प आयु में ही संन्यास ग्रहण कर लेते हैं, जैसे शंकराचार्य जी, दयानन्द जी, विवेकानन्द जी आदि।
पंाच परमेश्वमेर में माता-पिता, गुरू, उपदेशक, अतिथी तथा परमात्मा आते हैं, प्रथम चारों का आदर-सम्मान करने पर ही वह परमात्मा ब्रह््म प्रसन्न होता है।
माता-पिता बच्चे के सबसे पहले गुरू होते हैं उनके संस्कारों के अनुसार ही बच्चों में सद््गुण व दुगुर्ण आते हैं। उनका ऋण बहुत बड़ा होता है, जिसे उन्हें प्रसन्न रखकर उनकी सेवा करके ही उतारा जा सकता है। माता-पिता इस धरा पर उस परमेश्वर का ही साकार रूप है। हां ऐसा भी होता है कि बुरे संस्कारों में रहे हुए स्त्री/पुरूष एक अच्छे माता-पिता साबित नहीं हो, लेकिन ऐसी स्थिति में भी अपना कर्तव्य तो पूरा करना ही होगा, जैसा कि कबीर जी ने कहा हैः- जो ताको कांटे बुवे वाई बोय तो फूल । तोको फूल को फूल है वाको है त्रिशूल। अर्थात्् हम जैसा करेंगे उसी के अनुरूप हमें परिणाम मिलेगा फूल तो बदले मेें फूल तथा कांटे तो बदले में कांटे मिलेंगे।
महर्षि दयानन्द जी ने अपने माता-पिता का त्याग कर दिया था, लेकिन अपने पुत्र के लिये एक रोती हुई मां को देखकर उन्हें अपनी मां के त्याग की स्मृति हुई तो उन्होने उस पुत्र की मां के लिये अपना जीवन तक दांव पर लगा दिया। पूर्व में नर बली के लिये किसी ब्राह्मण के बच्चे को कुछ लोग ले जा रहे थे, उसकी मां बहुत रूदण विलाप कर रही थी, दयानन्द जी ने उनसे पूछा कि मां क्या बात है, आप क्यों रो रही हैं, मां ने बताया कि यह लोग मेरे पुत्र की बली चढ़ाने के लिये ले जा रहे हैं। तब दयानन्द जी ने उन लोगों से कहा कि मैं भी ब्राह्मण हूं आप इस बच्चे की जगह मेरी बलि चढ़ा दें। उनकी गर्दन पर तलवार चलने ही वाली थी कि सैनिकों की फायरिंग की आवाज हुई, जिसे सुनकर वे सब लोग भाग गये और इस तरह दयानन्द जी बच गये। किसी अन्य मां के लिये अपनी जान कुर्बान करना बहुत कठिन कार्य है।
गुरूः
गुरूकुल में या विद्यालय में अध्ययन करवाना वाला गुरू होता है, जिसके कारण वह विद्या का अध्ययन करने लायक बनता है अथवा अपनी आजीविका के लायक बनता है। यद्धपि हम इसके एवज में उसे शुल्क देते हैं, लेकिन फिर भी उसका एहसान हमारे ऊपर रहता है। हालांकि आज कलियुग में कुछ गुरू भी ऐसे हैं कि अपनी श्ष्यिा से ही विवाह कर लेते हैं या उनके साथ दुष्कर्म कर लेते हैं, लेकिन हमें ऐसे भ्रष्ट/पतित गुरू को छोड़कर तथा उनसे अन्यों को सावधान करके, शेष गुरूओं का तो सम्मान करना ही चाहिये क्योंकि वह आपके जीवन को उन्नत बनाने का माध्यम है। गुरू की शिक्षा को तन-मन से ग्रहण करना भी सबसे बड़ा तप है, जैसे कि अर्जुन ने धर्नुविद्या में तप किया था। गुरू के आदर की पराकाष्टा तो एकलव्य है जिसने अपने जीवन भर की साधना अर्थात् धनुर्विद्या के लिये आवश्यक दाहिने हाथ के अंगूठ को गुरू के मांगने पर तुरन्त उनके चरणों में अर्पित कर दिया। आज उनका जैसा आज्ञाकारी शिष्य मिलना बहुत मुश्किल है, चापलूस तो बहुत मिल जाते हैं। अतः सदाचारी गुरू का सम्मान भी आवश्यक है उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करने का अभ्यास आवश्यक है, तभी वह परमात्मा प्रसन्न होता है।
अतिथीः-
तपस्वी साधु/संत/उपदेशक ही अतिथी है, जो प्रभू के आदेश से सभी को अवगत कराता है तथा मुक्ति पथ का रास्ता दिखाता है। इस जगत की असत्यता/नश्वरता को सामने रखता है तथा बताता है कि यह शरीर, यह संसार तथा इसकी प्रत्येक वस्तु नश्वर है। इनसे मोह नहीं रखना है, माया से भ्रमित नहीं होता है तथा सत्य पथ पर चलते हुए आत्म/परमात्म दर्शन या परमानन्द की अनुभूति करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।
उपरोक्त चारों की आज्ञा पालन से ही मनुष्य धर्म पूर्वक अर्थ अर्जित करके अपने कर्तव्य कर्मों से निवृृत्त होकर तपस्वी बनकर अंत में उस परमानन्द की अनुभूति तक पहंुचता है।
अपरिग्रह -किसी भी वस्तु/विचार का आवश्यकता से अधिक संकलन नहीं करना।
यह भी बहुत बड़ा तप है, जैसे कि हमें बुरे विचारों का संग्रह नहीं करना चाहिये हमें समस्त अच्छे विचारों को ही मन में स्थान देना चाहिये सबसे अच्छा विचार तो उस ब्रह्म का चिंतन करना ही है। यहि हमारे पास आवश्यकता से अधिक धन है तो हमें उससे जरूरतमंदांे की मदद करनी चाहिये , सुपात्र को दान देना चाहिये। अपरिग्रह लोभ का नाश करता है, जो कि एक बहुत बड़ा विकार है।
शौच - शुद्धि
बाहर की शुद्धिस्वास्थ्य के लिये तथा आंतरिक षुद्धि ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये आवष्यक है, जो इन्हें शुद्ध रखता है वहीं असली तपस्वी है।
बाहर की शुद्धि- बाहर की शुद्धिके लिये प्राणायाम नितांत आवष्यक है, जैसे कि आपके कमरे में आप नित्य झाडू या पौंचा नहीं लगायेंगे तो उसमें गंदगी बढती जायेगी तथा धूल-मिट्टी की परत बडती जायेगी, जिसे साफ करने के लिये काफी मेहनत करनी पड़ती है उसे ब्रश से रगड़कर साफ करें तब वह गंदगी साफ होती है, इसी तरह यदि हम प्राणायाम रूपी झाडू द्वारा अपने शरीर को साफ रखेंगे तो निरोगी रहेंगे। मनोरंजन को त्याग कर ब्रह्म का स्मरण करते हुए प्राणायाम करना भी तप का ही एक हिस्सा है, जिसके कारण हम इस लोक में सुखी रहते हैं तथा चिरकाल तक इसका अभ्यास करने से उस परमानन्द को भी प्राप्त करते हैं।
आंतरिक (मन की) शुद्धि - जब तक मन से व्यर्थ विचार नहीं हटेंगे, जैसे कि असत्य निन्दा, असत्य चुगली, या किसी की असत्य बुराई करना, इन सभी को हटाकर खाली समय रहने पर ब्रह्म के स्मरण में रत रहना भी बहुत बड़ा तप है। जैसा कि कबीर जी ने भी ढोंगी पाखंडियों की निन्दा की है, तथा यह भी कहा है कि
निन्दक न्यारे राखिये, आंगन कुटी छंवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय
निन्दक को हमारे निकट रखना चाहिये जिससे कि वह हमारे दोषों को बतायेगा तो हम उन दोषों को भी दूर कर अपना अंतकरण शुद्ध कर सकते हैं निर्मल कर सकते हैं अन्यथा हम अपने मियां मिट्ठू बने रहेंगे, जो कि हमारे पतन का कारण है।
कबीर ने यह भी बहुत अच्छा कहा है कि बुरा जो देखने में चला बुरा ना मिलया कोई, जो तन खोजा आपना मुझ से बुरा ना कोई ।
कबीर इतने बड़े भक्त थे, लेकिन मानव शरीर रज और तम के मिश्रण का परिणाम होने के कारण कुछ ना कुछ असुरत्व के संस्कार या इस संसार से आकर्षण के संस्कार तो मनुष्य में रहते ही हैं, इसलिये उसे मनुष्य का जन्म मिलता है। जब आत्म निरीक्षण करते-करते तथा अपना सुधार करते-करते सत्व संस्कारों की वृद्धि होती है तभी मनुष्य बुराई से मुक्त होता है और सत्व तत्व (ब्रह्म) से उसका मिलन हो जाता है।
अर्थात् हमें आत्म चिंतन करते रहना चाहिये कि हममें कोई बुराई तो शेष नहीं है, क्योंकि बुराई खत्म होने पर ही अंतकरण शुद्ध होता है, उसके पश्चात् ही आत्मा/ब्रह्म की अनुभूति होती है। अंतकरण/मन को शुद्ध रखना परम तप है।
संतोष:
हमें जीतना मिला है, उतने में संतोष करना भी तप है, जैसा कि कबीर जी ने कहा हैः-
सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समायें, मैं भी भूखा ना रहूं साधू भी भूखा ना जायें।
अर्थात् मनुष्य के पास इतनी सम्पत्ति है कि वह अपने सभी परिवारजनों का पालन पोषण कर सकता है तथा साधू को भोजन या दान भी प्रदान कर सकता है तो वह उसके लिये पर्याप्त है, क्योंकि कहा है कि पूत समूत तो क्यों धन संचय पूत कपूत तो क्यूं धन संचय, यदि पुत्र अच्छा होगा तो आवश्यकतानुसार सम्पत्ति में वृद्धि कर लेगा और यदि कपूत है तो संचय किये हुए धन को भी समाप्त कर देगा। नानक जी का एक लखपति चेला था, लाख रूपये संग्रह होने पर एक झंडा लगा देता था, एक दिन नानक जी उसके यहां भोजन ग्रहण करने रूके तब उसने बताया कि मैं जब भी लाख रूपये संचय करता हूं तो एक नया झंडा छत पर लगा देता हूं। नानक जी भोजन ग्रहण करके जाने लगे तब उससे कहा कि यह संुई रख लो अगले जन्म में मुझे वापस दे देना। चेले ने अपनी पत्नी को बताया तब पत्नी ने कहा कि मरने के बाद हमारा शरीर जल जायेगा तो हम बिना शरीर के यह संुई उन्हें कैसे देंगे। तब उन्होंने नानक जी से पूछा, नानक जी ने उन्हें समझाया कि जब तुम यह एक छोटी संुई साथ नहीं ले जा सकते हो तो फिर इतना धन संचय करके क्या करोगे इसे परहित मंे लगाओ।
हमें असंतोष करना ही है तो ब्रह्म चिंतन/स्मरण में करना चाहिये जो कि सत्य है नश्वर वस्तुओं में नहीं।
संतोष को ही परम सुख कहा है, किसी के वैभव ऐश्वर्य को देखकर हमें ईष्र्या नहीं करनी चाहिये, बल्कि हमें अपने से नीचे जीवन यापन कर रहे प्राणियों को देख कर संतोष करना चाहिये कि हम उस की अपेक्षा तो सुखी हैं। यह सत्य है कि जीवनयापन के लिये अर्थ/धन आवश्यक है, लेकिन आवश्यकता से अधिक अपार धन तप में बाधक है, जैसा कि ईसामसीह ने कहा है कि सूंइ के नाके से ऊँट का निकलना सम्भव है लेकिन किसी धनिक का स्वर्ग में प्रवेश असम्भव है।
स्वाध्याय
प्रमाद, मनोरंजन आदि से मनुष्य को क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है, लेकिन उसके बदले में उसे दुख भी मिलता है। अतः इस क्षणिक सुख को त्याग कर ध्यान लगाना, सदग्रंथों का अध्ययन तथा सत्य लोगों अथवा ब्रह्म का संग (ध्यान ) करना भी तप ही है। गीता में लिखा है कि इन्द्रियों के सुख शुरू में तो अच्छे लगते हैं लेकिन उनका अंत विषतुल्य होता है, इसी तरह स्वाध्याय/ब्रह्म चिंतन में लगना शुरू में तो अच्छा नहीं लगता है, लेकिन उसका परिणाम अंत में अमृत की तरह होता है। अतः प्रमाद, आलस्य, मनोरंजन का त्याग भी एक बड़ा तप है।
आसान (व्यायाम) -
व्यायाम भी एक तप ही है इससे शरीर लचीला व सुडोल बनता है जो कि शरीर को तपा कर मजबूत बना देता है। इसके अतिरिक्त अन्य तप का पालन करने का लाभ तो उतना दिखाई नहीं देता, जितना की व्यायाम करने वाले मनुष्य का शरीर ही उसके तपस्वी होने का प्रमाण देता है, उसका उत्तम स्वास्थ्य ही उसके तप का प्रमाण है। बिस्मिल जी नियमित व्यायाम करते थे उन्हें मृृत्युदंड मिला था, इसके बावजूद भी वे जेल में भी प्रतिदिन व्यायाम करते थे। जिस दिन उन्हें फांसी दी जानी थी उस दिन भी उन्हें व्यायाम करते देख जेलर ने पूछा कि अब व्यायाम करने से क्या लाभ होगा, उन्होंने कहा कि मैं मेरे जीवन से जूड़े हुए अपने संस्कारों का पालन मैं अंतिम श्वांस तक करता रहूंगेा।
प्राणायाम
इससे मन की शुद्धि होती है तथा तन भी स्वस्थ रहता है। प्राणायाम करने वाला निरोगी रहता है, हार्ट के डाॅक्टर व अन्य डाॅक्टर भी प्राणायाम के लिये कहने लगे हैं।
प्राणायाम मन निर्मल करता है तथा यदि मन ही निर्मल हो जाये तो फिर शेष कुछ नहीं रहता है, जैसा कि कबीर जी ने कहा है कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर प्रभू पुकारता फिर रहा कहता कबीर, कबीर। अर्थात् जब तक मन में विषय-विकार, पाप है तब तक ब्रह्म/परमानन्द की अनुभूति नहीं की जा सकती है।
प्रत्याहार
इंद्रियों का संयम यह भी बहुत बड़ा तप है, गीता में तो जगह-जगह पर इन्द्रियों के संयम के लिये लिखा हुआ है।
अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान, आसन (व्यायाम), प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सभी तप हैं, जिनका परिणाम उस परम तत्व परमानन्द की प्राप्ति है।
मनुस्मृति में (11-56) ब्राहमण के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति, क्षत्रिय के द्वारा समाज की रक्षा, वैश्य के द्वारा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य तथा शुद्र के द्वारा सेवा। सामाजिक दष्टि से यह स्वधर्म- अपने कर्तव्यों का पालन - ही सबमें महत्वपूर्ण तप है।
भगवद्गीता में (17-14-19) तप का वर्णन निम्नानुसार हैः-
शारीरिक तप - देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है।
वाचिक तप - अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है।
मानसिक तप - मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और शुद्धि से सिद्ध होता है।
सात्विक तप - श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जाने वाला राजस तप है । भारतीय तप में जीवन के शाश्वत मूल्यों मोक्ष की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है और निष्काम कर्म उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
सांराश
सभी द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति ही तप है। चारों आश्रमों में सात्विक आचरण करके परिपक्व होकर ही कोई उस परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। परमानन्द/मोक्ष ही तपस्वी का असली उद्देश्य होता है। संन्यासी/उपदेशक बनने पर सर्वस्व त्याग आवश्यक है। मोक्ष या संसार में आवागमन से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही नहीं अपितू नैतिक जीवन भी आवश्यक है।
तप का अर्थ तपना नहीं है अपितू द्वंदो/संघर्ष की स्थिति में सत्यपथ से विचलित नहीं होना ही तप हैै। तपस्वी बनने के लिये जैसे लोहे को अग्नि में तपाकर पक्का किया जाता है, जैसे कुम्हार घड़े को अग्नि में तपा कर पक्का करता है, जैसे स्वर्ण अग्नि के सम्पर्क में आने से कुन्दन बन जाता है, वैसे ही सत्कर्म रूपी तपस्या से तप कर ही कोई तपस्वी बन सकता है। अभ्यास के द्वारा ही जब तप करते करते ऐसी स्थिति आ जाती है कि उस मनुष्य को सुख-दुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि किसी भी द्वन्द्व के कारण ना तो प्रसन्नता होती है, ना दुख ही होता है, ना किस से राग या द्वेष होता है, ऐसी परिपक्व अवस्था वाला मनुष्य ही तपस्वी कहलाता है। इतिहास साक्षी है कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी दयानन्द आदि किसी भी अवस्था में विचलित नहीं हुए जिन्होंने उनके प्राण लेने चाहे उन्हें भी उन्होंने क्षमा कर दिया तथा अपने तेज व उपदेश द्वारा असुर प्रवृत्ति वालों को भी सात्विक प्रवृृत्ति का बना दिया।
संक्षेप में ऊपर उठना/उर्ध्वगति ही तप है, नीचे गिरना, आमोद-प्रमोद में रत रहना आसान है, जैसे कि फल को पेड़ से नीचे गिरने में काई मेहनत नहीं करनी पड़ती है लेकिन किसी वस्तु या तत्व को ऊपर पहुंचाने के लिये मेहनत करनी पड़ती है, यही तप है। जैसे आपको पानी की टंकी में पानी चढ़ाना है तो बिना मोटर के या श्रम के आप पानी ऊपर नहीं पहुंचा सकते हैं लेकिन यदि पानी नीचे चाहिये तो नल घूमाते ही पानी मिल जायेगा।
तपस्यामय जीवन जीने के लिये अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अथक संघर्श करना भी तप ह ै। तप मन, वचन व कर्म से करना होगा तभी तप करने का लाभ है अन्यथा नहीं।
आत्मानन्द/ परमानन्द /प्रभू साक्षात्कार/ मोक्ष के लिये निम्न तप अनिवार्य है।
सत्य - मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं कि उसे मजबूर होकर असत्य बोलना पड़ता है। तो यह भी एक तप ही है कि वह प्रयास करे कि किसी भी स्थिति में मन, वचन व कर्म से असत्य नहीं बोलने का अभ्यास करे। जैसे कई लोगों का असत्य बोलने का अभ्यास इतना अधिक होता है बात-बात में झूठ बोलकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, जैसे किसी दुकारदार के पास या किसी भी व्यक्ति से कोई कार्य करवाने के लिये उससे झूठ बोलते हैं कि अन्य दुकारदार या व्यक्ति तो कम दाम में यह वस्तु देने अथवा यह कार्य करने को तैयार है। तो इससे बचने के लिये वह जितने दामों में वह वस्तु खरीदना चाहता है या कार्य करवाना चाहता है, उतना मूल्य उसे बता दे, इतना तो दुकानदार और वह व्यक्ति भी जानता है कि आजकल कोई सत्य नहीं बोलता है, अतः असत्य नहीं बोलना भी बहुत बड़ा तप है। बहुत बड़ा सत्कर्म है।
अंहिसा - अंहिसा को परम धर्म कहा गया है, अतः परम धर्म का पालन करना भी एक तप ही है। मनुष्य के जीवन को तप से गिराने में हिंसा भी एक बहुत बड़ी बाधा है, आप अपने जीवन को सावधानीपूर्वक जीयंे यदि आप कहीं से गुजर रहें हैं तो यदि सम्भव हो तो चलते हुए नीचे भूमि पर चलने वाले कीड़ों का भी ध्यान रखते हुए चले। वैसे तो हमे मालूम नहीं होता है कि हमारे द्वारा कितने सूक्ष्म जीवों की अन्जाने में मृृत्यु होती है, लेकिन कम से कम हम जानते हुए तो किसी की हिंसा नहीं करें।
जैसे कि आपकी आंखों के सामने दूध में या किसी वस्तु में मख्खी या अन्य कोई कीड़ा गिर जाता है, तो अधिकांश मनुष्य उसे त्याज्य समझते हैं, उसको ग्रहण नहीं करते लेकिन यदि आपको पता नहीं है और दूध आपके घर में पहुंचने से पहले ही उसमें कोई कीड़ा अथवा मख्खी-मच्छर गिर जाये तो दुकानदार या दूध बेचने वाला उसे निकाल कर फेंक देता है और दूध बेच देता है लेकिन हम अन्जान होने के कारण उस दूध को ग्रहण कर लेते हैं, अतः हम कम से कम जान-बूझ कर तो किसी भी तरह की हिंसा नहीं करें।
इसी तरह से किसी के प्रति मन में भी हिंसा का भाव नहीं आने दें, हिंसा पूर्ण वचन भी नहीं बोलें तथा किसी की हिंसा भी नहीं करें तथा ना ही किसी अन्य व्यक्ति से करवायें तो यह भी एक बहुत बड़ा तप है।
अस्तेय - मन, वचन, कर्म से चोरी नहीं करना, अर्थात् किसी का भी सामान उसके बिना पूछे नहीं लेना तथा यदि मजबूरी में लिया जाये तो जिसका सामान है, उसे अवगत कराना तथा यदि क्षतिपूर्ति आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति करना तथा यदि अंजाने में तुम्हारे पास किसी की कोई वस्तु आ गई है तथा तुम्हें असली मालिक का पता हो तो उसे वापस लौटायें। यदि मालिक का पता नहीं हो तो कम से कम उस वस्तु की कीमत के बराबर दान करें। अपने जीवन को इतनी बारीकी से जीना भी एक बहुत बड़ा तप है।
ब्रह्मचर्य - (कम से कम आश्रम व्यवस्था अनुसार काम का उपभोग करना, जैसे की पच्चीस वर्ष की उम्र तक अपने अध्ययन में तन-मन से लगे रहना अर्थात् अपने अध्ययन को ही तप मानना, उसके पश्चात् गृहस्थ में आने पर अपने माता-पिता पत्नी, गुरू, उपदेशक, पुत्र-पुत्री भाई बहिन आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना तथा अपने हृदय को उस सत्य तत्व ब्रह्म की ओर लगाये रखना। उस ब्रह्म को पल-पल ध्यान रखते हुए अपने कर्तव्य कर्मों को सात्विक निष्काम कर्मों को करना यह भी एक बहुत बड़ा तप है क्योंकि आज हम माया के वषीभूत होकर मनोरंजन में ही लगे रहते हैं और जितना हम मनोरंजन में लगेंगे उतना ही हमारा मन ब्रह्म से दूर होता जायेगा, लक्ष्य से दूर होता जायेगा। आज हम माता-पिता जो कि सबसे पहले देव हैं, जिन्हें प्रसन्न करने से ही वह ब्रह््म प्रसन्न होता है तथा हमारी सात्विक अवस्था उन्नत होती है उसे भूल कर हम अपने पत्नी व बच्चों का ही ध्यान रखने में लगे रहते हैं कई भाई तो माता-पिता को व््द्धाश्रम में छोड़ देते हैं। अतः परमानन्द की प्राप्ति हेतु हमें अपने स्वजनों सहित विशेषकर हमारे माता-पिता, गुरू, अतिथी (उपदेशक सन्यासी) को प्रसन्न रखने का अभ्यास करना होगा। इसमें अपवाद स्वरूप ऐसा भी होता है कि किसी योगी की साधना अधूरी रहने पर पुर्नजन्म होने पर पूर्व जन्म के वैराग्य के संस्कारों की मात्रा अधिक होने के कारण उसे उस अज्ञात तत्व को जानने अथवा परमानन्द को प्राप्त करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सुझता है, ऐसे लोगों की संख्या कम होती है और व अल्प आयु में ही संन्यास ग्रहण कर लेते हैं, जैसे शंकराचार्य जी, दयानन्द जी, विवेकानन्द जी आदि।
पंाच परमेश्वमेर में माता-पिता, गुरू, उपदेशक, अतिथी तथा परमात्मा आते हैं, प्रथम चारों का आदर-सम्मान करने पर ही वह परमात्मा ब्रह््म प्रसन्न होता है।
माता-पिता बच्चे के सबसे पहले गुरू होते हैं उनके संस्कारों के अनुसार ही बच्चों में सद््गुण व दुगुर्ण आते हैं। उनका ऋण बहुत बड़ा होता है, जिसे उन्हें प्रसन्न रखकर उनकी सेवा करके ही उतारा जा सकता है। माता-पिता इस धरा पर उस परमेश्वर का ही साकार रूप है। हां ऐसा भी होता है कि बुरे संस्कारों में रहे हुए स्त्री/पुरूष एक अच्छे माता-पिता साबित नहीं हो, लेकिन ऐसी स्थिति में भी अपना कर्तव्य तो पूरा करना ही होगा, जैसा कि कबीर जी ने कहा हैः- जो ताको कांटे बुवे वाई बोय तो फूल । तोको फूल को फूल है वाको है त्रिशूल। अर्थात्् हम जैसा करेंगे उसी के अनुरूप हमें परिणाम मिलेगा फूल तो बदले मेें फूल तथा कांटे तो बदले में कांटे मिलेंगे।
महर्षि दयानन्द जी ने अपने माता-पिता का त्याग कर दिया था, लेकिन अपने पुत्र के लिये एक रोती हुई मां को देखकर उन्हें अपनी मां के त्याग की स्मृति हुई तो उन्होने उस पुत्र की मां के लिये अपना जीवन तक दांव पर लगा दिया। पूर्व में नर बली के लिये किसी ब्राह्मण के बच्चे को कुछ लोग ले जा रहे थे, उसकी मां बहुत रूदण विलाप कर रही थी, दयानन्द जी ने उनसे पूछा कि मां क्या बात है, आप क्यों रो रही हैं, मां ने बताया कि यह लोग मेरे पुत्र की बली चढ़ाने के लिये ले जा रहे हैं। तब दयानन्द जी ने उन लोगों से कहा कि मैं भी ब्राह्मण हूं आप इस बच्चे की जगह मेरी बलि चढ़ा दें। उनकी गर्दन पर तलवार चलने ही वाली थी कि सैनिकों की फायरिंग की आवाज हुई, जिसे सुनकर वे सब लोग भाग गये और इस तरह दयानन्द जी बच गये। किसी अन्य मां के लिये अपनी जान कुर्बान करना बहुत कठिन कार्य है।
गुरूः
गुरूकुल में या विद्यालय में अध्ययन करवाना वाला गुरू होता है, जिसके कारण वह विद्या का अध्ययन करने लायक बनता है अथवा अपनी आजीविका के लायक बनता है। यद्धपि हम इसके एवज में उसे शुल्क देते हैं, लेकिन फिर भी उसका एहसान हमारे ऊपर रहता है। हालांकि आज कलियुग में कुछ गुरू भी ऐसे हैं कि अपनी श्ष्यिा से ही विवाह कर लेते हैं या उनके साथ दुष्कर्म कर लेते हैं, लेकिन हमें ऐसे भ्रष्ट/पतित गुरू को छोड़कर तथा उनसे अन्यों को सावधान करके, शेष गुरूओं का तो सम्मान करना ही चाहिये क्योंकि वह आपके जीवन को उन्नत बनाने का माध्यम है। गुरू की शिक्षा को तन-मन से ग्रहण करना भी सबसे बड़ा तप है, जैसे कि अर्जुन ने धर्नुविद्या में तप किया था। गुरू के आदर की पराकाष्टा तो एकलव्य है जिसने अपने जीवन भर की साधना अर्थात् धनुर्विद्या के लिये आवश्यक दाहिने हाथ के अंगूठ को गुरू के मांगने पर तुरन्त उनके चरणों में अर्पित कर दिया। आज उनका जैसा आज्ञाकारी शिष्य मिलना बहुत मुश्किल है, चापलूस तो बहुत मिल जाते हैं। अतः सदाचारी गुरू का सम्मान भी आवश्यक है उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करने का अभ्यास आवश्यक है, तभी वह परमात्मा प्रसन्न होता है।
अतिथीः-
तपस्वी साधु/संत/उपदेशक ही अतिथी है, जो प्रभू के आदेश से सभी को अवगत कराता है तथा मुक्ति पथ का रास्ता दिखाता है। इस जगत की असत्यता/नश्वरता को सामने रखता है तथा बताता है कि यह शरीर, यह संसार तथा इसकी प्रत्येक वस्तु नश्वर है। इनसे मोह नहीं रखना है, माया से भ्रमित नहीं होता है तथा सत्य पथ पर चलते हुए आत्म/परमात्म दर्शन या परमानन्द की अनुभूति करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।
उपरोक्त चारों की आज्ञा पालन से ही मनुष्य धर्म पूर्वक अर्थ अर्जित करके अपने कर्तव्य कर्मों से निवृृत्त होकर तपस्वी बनकर अंत में उस परमानन्द की अनुभूति तक पहंुचता है।
अपरिग्रह -किसी भी वस्तु/विचार का आवश्यकता से अधिक संकलन नहीं करना।
यह भी बहुत बड़ा तप है, जैसे कि हमें बुरे विचारों का संग्रह नहीं करना चाहिये हमें समस्त अच्छे विचारों को ही मन में स्थान देना चाहिये सबसे अच्छा विचार तो उस ब्रह्म का चिंतन करना ही है। यहि हमारे पास आवश्यकता से अधिक धन है तो हमें उससे जरूरतमंदांे की मदद करनी चाहिये , सुपात्र को दान देना चाहिये। अपरिग्रह लोभ का नाश करता है, जो कि एक बहुत बड़ा विकार है।
शौच - शुद्धि
बाहर की शुद्धिस्वास्थ्य के लिये तथा आंतरिक षुद्धि ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये आवष्यक है, जो इन्हें शुद्ध रखता है वहीं असली तपस्वी है।
बाहर की शुद्धि- बाहर की शुद्धिके लिये प्राणायाम नितांत आवष्यक है, जैसे कि आपके कमरे में आप नित्य झाडू या पौंचा नहीं लगायेंगे तो उसमें गंदगी बढती जायेगी तथा धूल-मिट्टी की परत बडती जायेगी, जिसे साफ करने के लिये काफी मेहनत करनी पड़ती है उसे ब्रश से रगड़कर साफ करें तब वह गंदगी साफ होती है, इसी तरह यदि हम प्राणायाम रूपी झाडू द्वारा अपने शरीर को साफ रखेंगे तो निरोगी रहेंगे। मनोरंजन को त्याग कर ब्रह्म का स्मरण करते हुए प्राणायाम करना भी तप का ही एक हिस्सा है, जिसके कारण हम इस लोक में सुखी रहते हैं तथा चिरकाल तक इसका अभ्यास करने से उस परमानन्द को भी प्राप्त करते हैं।
आंतरिक (मन की) शुद्धि - जब तक मन से व्यर्थ विचार नहीं हटेंगे, जैसे कि असत्य निन्दा, असत्य चुगली, या किसी की असत्य बुराई करना, इन सभी को हटाकर खाली समय रहने पर ब्रह्म के स्मरण में रत रहना भी बहुत बड़ा तप है। जैसा कि कबीर जी ने भी ढोंगी पाखंडियों की निन्दा की है, तथा यह भी कहा है कि
निन्दक न्यारे राखिये, आंगन कुटी छंवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय
निन्दक को हमारे निकट रखना चाहिये जिससे कि वह हमारे दोषों को बतायेगा तो हम उन दोषों को भी दूर कर अपना अंतकरण शुद्ध कर सकते हैं निर्मल कर सकते हैं अन्यथा हम अपने मियां मिट्ठू बने रहेंगे, जो कि हमारे पतन का कारण है।
कबीर ने यह भी बहुत अच्छा कहा है कि बुरा जो देखने में चला बुरा ना मिलया कोई, जो तन खोजा आपना मुझ से बुरा ना कोई ।
कबीर इतने बड़े भक्त थे, लेकिन मानव शरीर रज और तम के मिश्रण का परिणाम होने के कारण कुछ ना कुछ असुरत्व के संस्कार या इस संसार से आकर्षण के संस्कार तो मनुष्य में रहते ही हैं, इसलिये उसे मनुष्य का जन्म मिलता है। जब आत्म निरीक्षण करते-करते तथा अपना सुधार करते-करते सत्व संस्कारों की वृद्धि होती है तभी मनुष्य बुराई से मुक्त होता है और सत्व तत्व (ब्रह्म) से उसका मिलन हो जाता है।
अर्थात् हमें आत्म चिंतन करते रहना चाहिये कि हममें कोई बुराई तो शेष नहीं है, क्योंकि बुराई खत्म होने पर ही अंतकरण शुद्ध होता है, उसके पश्चात् ही आत्मा/ब्रह्म की अनुभूति होती है। अंतकरण/मन को शुद्ध रखना परम तप है।
संतोष:
हमें जीतना मिला है, उतने में संतोष करना भी तप है, जैसा कि कबीर जी ने कहा हैः-
सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समायें, मैं भी भूखा ना रहूं साधू भी भूखा ना जायें।
अर्थात् मनुष्य के पास इतनी सम्पत्ति है कि वह अपने सभी परिवारजनों का पालन पोषण कर सकता है तथा साधू को भोजन या दान भी प्रदान कर सकता है तो वह उसके लिये पर्याप्त है, क्योंकि कहा है कि पूत समूत तो क्यों धन संचय पूत कपूत तो क्यूं धन संचय, यदि पुत्र अच्छा होगा तो आवश्यकतानुसार सम्पत्ति में वृद्धि कर लेगा और यदि कपूत है तो संचय किये हुए धन को भी समाप्त कर देगा। नानक जी का एक लखपति चेला था, लाख रूपये संग्रह होने पर एक झंडा लगा देता था, एक दिन नानक जी उसके यहां भोजन ग्रहण करने रूके तब उसने बताया कि मैं जब भी लाख रूपये संचय करता हूं तो एक नया झंडा छत पर लगा देता हूं। नानक जी भोजन ग्रहण करके जाने लगे तब उससे कहा कि यह संुई रख लो अगले जन्म में मुझे वापस दे देना। चेले ने अपनी पत्नी को बताया तब पत्नी ने कहा कि मरने के बाद हमारा शरीर जल जायेगा तो हम बिना शरीर के यह संुई उन्हें कैसे देंगे। तब उन्होंने नानक जी से पूछा, नानक जी ने उन्हें समझाया कि जब तुम यह एक छोटी संुई साथ नहीं ले जा सकते हो तो फिर इतना धन संचय करके क्या करोगे इसे परहित मंे लगाओ।
हमें असंतोष करना ही है तो ब्रह्म चिंतन/स्मरण में करना चाहिये जो कि सत्य है नश्वर वस्तुओं में नहीं।
संतोष को ही परम सुख कहा है, किसी के वैभव ऐश्वर्य को देखकर हमें ईष्र्या नहीं करनी चाहिये, बल्कि हमें अपने से नीचे जीवन यापन कर रहे प्राणियों को देख कर संतोष करना चाहिये कि हम उस की अपेक्षा तो सुखी हैं। यह सत्य है कि जीवनयापन के लिये अर्थ/धन आवश्यक है, लेकिन आवश्यकता से अधिक अपार धन तप में बाधक है, जैसा कि ईसामसीह ने कहा है कि सूंइ के नाके से ऊँट का निकलना सम्भव है लेकिन किसी धनिक का स्वर्ग में प्रवेश असम्भव है।
स्वाध्याय
प्रमाद, मनोरंजन आदि से मनुष्य को क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है, लेकिन उसके बदले में उसे दुख भी मिलता है। अतः इस क्षणिक सुख को त्याग कर ध्यान लगाना, सदग्रंथों का अध्ययन तथा सत्य लोगों अथवा ब्रह्म का संग (ध्यान ) करना भी तप ही है। गीता में लिखा है कि इन्द्रियों के सुख शुरू में तो अच्छे लगते हैं लेकिन उनका अंत विषतुल्य होता है, इसी तरह स्वाध्याय/ब्रह्म चिंतन में लगना शुरू में तो अच्छा नहीं लगता है, लेकिन उसका परिणाम अंत में अमृत की तरह होता है। अतः प्रमाद, आलस्य, मनोरंजन का त्याग भी एक बड़ा तप है।
आसान (व्यायाम) -
व्यायाम भी एक तप ही है इससे शरीर लचीला व सुडोल बनता है जो कि शरीर को तपा कर मजबूत बना देता है। इसके अतिरिक्त अन्य तप का पालन करने का लाभ तो उतना दिखाई नहीं देता, जितना की व्यायाम करने वाले मनुष्य का शरीर ही उसके तपस्वी होने का प्रमाण देता है, उसका उत्तम स्वास्थ्य ही उसके तप का प्रमाण है। बिस्मिल जी नियमित व्यायाम करते थे उन्हें मृृत्युदंड मिला था, इसके बावजूद भी वे जेल में भी प्रतिदिन व्यायाम करते थे। जिस दिन उन्हें फांसी दी जानी थी उस दिन भी उन्हें व्यायाम करते देख जेलर ने पूछा कि अब व्यायाम करने से क्या लाभ होगा, उन्होंने कहा कि मैं मेरे जीवन से जूड़े हुए अपने संस्कारों का पालन मैं अंतिम श्वांस तक करता रहूंगेा।
प्राणायाम
इससे मन की शुद्धि होती है तथा तन भी स्वस्थ रहता है। प्राणायाम करने वाला निरोगी रहता है, हार्ट के डाॅक्टर व अन्य डाॅक्टर भी प्राणायाम के लिये कहने लगे हैं।
प्राणायाम मन निर्मल करता है तथा यदि मन ही निर्मल हो जाये तो फिर शेष कुछ नहीं रहता है, जैसा कि कबीर जी ने कहा है कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर प्रभू पुकारता फिर रहा कहता कबीर, कबीर। अर्थात् जब तक मन में विषय-विकार, पाप है तब तक ब्रह्म/परमानन्द की अनुभूति नहीं की जा सकती है।
प्रत्याहार
इंद्रियों का संयम यह भी बहुत बड़ा तप है, गीता में तो जगह-जगह पर इन्द्रियों के संयम के लिये लिखा हुआ है।
अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान, आसन (व्यायाम), प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सभी तप हैं, जिनका परिणाम उस परम तत्व परमानन्द की प्राप्ति है।
मनुस्मृति में (11-56) ब्राहमण के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति, क्षत्रिय के द्वारा समाज की रक्षा, वैश्य के द्वारा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य तथा शुद्र के द्वारा सेवा। सामाजिक दष्टि से यह स्वधर्म- अपने कर्तव्यों का पालन - ही सबमें महत्वपूर्ण तप है।
भगवद्गीता में (17-14-19) तप का वर्णन निम्नानुसार हैः-
शारीरिक तप - देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है।
वाचिक तप - अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है।
मानसिक तप - मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और शुद्धि से सिद्ध होता है।
सात्विक तप - श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जाने वाला राजस तप है । भारतीय तप में जीवन के शाश्वत मूल्यों मोक्ष की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है और निष्काम कर्म उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
सांराश
सभी द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति ही तप है। चारों आश्रमों में सात्विक आचरण करके परिपक्व होकर ही कोई उस परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। परमानन्द/मोक्ष ही तपस्वी का असली उद्देश्य होता है। संन्यासी/उपदेशक बनने पर सर्वस्व त्याग आवश्यक है। मोक्ष या संसार में आवागमन से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही नहीं अपितू नैतिक जीवन भी आवश्यक है।
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