आहिंसा non violence, ahinsa
अहिंसा परमो धर्म
अधिकांश धर्म/मतों में अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है।
ष्सत्य की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाेता है तो सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है।
अहिंसा ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है।
अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहरू . व्यासभाष्यए योगसूत्र 2। 30द्ध।
अहिंसा का अर्थ है सर्वकाल में कर्म, वचन मन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करना
अहिंसा का सामान्य अर्थ है श्हिंसा न करना । इसका व्यापक अर्थ है . किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है
जैन दृष्टि से सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है, सत्प्रवृत्तिए स्वाध्यायए अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है। किसी भी जीवित प्राणी को किसी भी जंतु को किसी भी वस्तु को जिसमें आत्मा है न मारो न ;उससे अनुचित व्यवहार करो न अपमानित करो न कष्ट दो और न सताओ।
मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा भाव रखे।
सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है सुख अनुकूल है दुख प्रतिकूल है। व्यक्ति दूसरे प्राणियों का हनन करके अपनी आत्मा का ही हनन करता है।
असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़ने वाले हैं इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोजन वश करता है तो काई बिना प्रयोजन भी।
अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास।
इसी प्रकार बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी अहिंसा की बड़ी महिमा है।
कबीर जी ने भी अंहिसा पर बहुत से दोहे लिखे हैं, उनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैः-
जहाँ दया तहाँ धर्म हैए जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप हैए जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
जहां पर अहिंसा है वहां धर्म का वास है, अर्थात् कबीर जी के अनुसार भी यदि हमारे अंदर दया भाव विद्यमान है तो ही हम धर्म की राह पर हैं, हम धार्मिक हैं, अन्यथा नहीं। यदि हम लोभी हैं तो हम पाप (अधर्म) के कारण ही दूसरों का हक दूसरों का धन या वस्तु लेने का प्रयास करते हैं, जो कि पूर्णतः अधर्म है क्योंकि मनुष्य अपने कर्मों के अतिरिक्त इस संसार से कुछ नहीं ले जा सकता है। यदि हम क्रोधी हैं तो हम क्रोध में आकर अधर्म कर सकते हैं, अतः क्रोध भी त्याज्य है। जिसने अपना बुरे चाहने अथवा बुरा करने वाले को भी क्षमा कर दिया तो वह महान है, जैसे कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, महर्षि दयानन्द, ईसा मसीह आदि ऐसी विभूतियां हीं ईश्वर प्राप्ति/मुक्ति की अधिकारी हैं।
दाया भाव ह्र्दय नहीं ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे सुनि.सुनि साखी शब्द
हिंसा नरक का द्वार है, हिंसक मनुष्य चाहे कुछ भी कर ले, लेकिन हिंसा करने वाले को ईश्वर/परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता ना ही मुक्ति मिलती है। अर्थात् एक बार पाप/कुकर्मों का त्याग करने के बाद पुनः पाप/कुकर्म करने वाले को ईश्वर/परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता ना ही मुक्ति मिल सकती है।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
जो तुम्हारे अहित करना चाहे, उसका भी हित करना चाहिये क्योंकि एक फूल का पौधा उगाने पर बहुत से फूल प्राप्त होंगे तथा कांटे बोने वाले को कांटों का भंडार ही प्राप्त होगा। अर्थात् जैसा कर्म करेंगे वैसा ही परिणाम अथवा उससे अधिक परिणाम प्राप्त होगा। जो बुरा करने वाले का भी भला चाहता है ऐसे मनुष्य को सूली की सजा भी कांटों की चुभन सी प्रतीत होती है।
एक साधु दयानन्द जी को रोज गाली देता था, एक दिन दयानन्द जी को किसी ने फलों का टोकरा भेंट किया दयानन्द जी ने अपने शिष्यों से कहा कि जाकर उस साधु को दे आओ। शिष्य फलों का टोकरा देने साधू के पास गये तो साधु ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता यह फल उन्होंने किसी ओर के लिये भेजे होंगे और उसने उन्हें वापस लौटा दिया। दयानन्द जी पुनः शिष्यों को भेजा कि साधु से कहना कि यह फल उसी के लिये भिजवायें हैं। शिष्य पुनः साधु के पास पहुंचे और उससे कहा कि यह फल आपके लिये ही भिजवायें। साधु को बहुत पश्चाताप हुआ वह दयानन्द जी के पास पहुंचा और उनसे अपने व्यवहार के लिये क्षमा मांगी।
ईसा ने जो आत्मोत्सर्ग किया वह प्रेम और अहिंसा का ही उदाहरण था। उन्होंने अपने हत्यारों तक की सद्गति के लिए भगवान से प्रार्थना की और अपने अनुयायियों से स्पष्ट कहा है कि यदि कोई गाल पर प्रहार करे तो दूसरे को भी प्रहार स्वीकार करने के लिए आगे कर दो।
अपनो को तो इस दुनिया में सब प्यार करते हैं, दुश्मन को भी प्यार करना मसीहा सिखाते हैं
इक गाल पर जो मारे चाँटा दूजा गाल भी देना, ले जाये कोई इक मील जबरन दो मील तुम साथ जाना
अपनो को तो अपना सब कुछ सब लोग देते हैं, गैरों पर भी सब कुछ लुटाना मसीहा सिखाते हैं
अपनो को जैसे वैसे ही अपने पड़ोसी से प्यार करो तुम, यीशु मरा था तेरे पापों के खातिर यह विश्वास करो तुम
यह कितना सच्चा और अच्छा भजन है। इसमें भी यही उपदेश है कि हमें बुरा करने वाले का भी भला करना चाहिये क्योंकि बुरा करने वाले को बुरा परिणाम ही भोगना पड़ता है।
यदि कोई हमसे मदद मांगे तथा हम सक्षम हो तो दुगुने जोश के साथ उसकी मदद करें तथा यदि हमें लगे कि किसी को हमारी मदद की आवश्यकता है, लेकिन वह ग्लानि/शर्म के कारण हमसे मदद नहीं मांग रहा है तो यदि हम सक्षम हों तो उसके बिना मांगे ही उसकी मदद करनी चाहिये।
इस संबंध में दयानंद जी के जीवन का एक प्रसंग है, एक कौड़ी को बहुत से लोगों ने पत्थर से मार-मार कर अधमरा कर दिया, दयानन्द जी वहां से गुजर रहे थे, उन्होंने पूछा कि इसे क्यों मार रहे हो, उन्होंने कहा कि यह कौड़ी है इससे हमें भी कोड़ हो सकता है, और उसे अधमरी हालत में छोड़कर चले गये, तभी एक पुलिसवाला वहां से गुजरा उसने कहा कि इसे पास में एक चिकित्सा शिविर पर ले जाये तो इसके प्राण बच सकते हैं, लेकिन उस समय आवागमन के साधनों की अत्यंत कमी थी, अतः कौड़ी को ले जाने का कोई साधन नहीं था, कौड़ी के पूरे शरीर से पीब और रक्त बह रहा था, ऐसी स्थिति में यदि कोई उसके सम्पर्क में आता तो उसे भी कौड़ हो सकता था, लेकिन दयानन्द जी उस कौड़ी को अपनी पीठ पर लादकर कैम्प तक ले गये। दयानन्द जी उस समय केवल लंगोट ही पहनते थे, अतः उस कोड़ी का पीब व रक्त उनके शरीर पर लग गया था। उसको कैम्प में छोड़ने के पश्चात् उन्होंने स्नान किया। हम कुछ अंशों में तो ऐसी महान विभूतियांे जैसा बनने का अभ्यास करना चाहिये।
एक कहावत है अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे, अर्थात्् इस मोह-माया के वश में आकर हम भी ऐसे नहीं बन जायें कि अपनों का ही लाभ सोचें अन्यों का नहीं अर्थात् स्वार्थ में ही लगे रहें परमार्थ/परोपकार में नहीं। परोपकार ही असली सेवा है।
यदि हम सक्षम हों तो हमें अपनों के अतिरिक्त अन्य बेसहारा जरूरतमंदों की भी मदद करनी चाहिये। जैसे हम अपनों को प्यार करते हैं, वैसे ही हम राग-द्वैष से मुक्त होकर सभी के साथ अच्छा व्यवहार करें।
अंतिम कड़ी यीशू मरा तेरे पापों की खातिर का अर्थ है कि यीशू अथवा किसी भी गुरू की शरण में जाने के बाद हमने अब तक जितने भी पाप किये हैं उनसे तौबा कर लें तथा संकल्प लें कि अब कोई भी पापकर्म नहीं करेंगे। अब हमारे पापांे के कारण किसी को भी क्षति नहीं होनी चाहिये।
लेकिन केवल हम धर्म के अंहकार में अपने धर्म की महिमा ही मंडित करते रहें और हमारे धर्मोपदेशकों के सदुपदेशों के अनुसार व्यवहार नहीं करें तो सब व्यर्थ हो जाता है, हम केवल एक चापलूस ही बनकर रह जाते हैं और हम परमानन्द/ईश्वर/मुक्ति प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। अर्थात्् उपदेशों को जीवन में उतारने का अभ्यास करना परम आवश्यक है।
ईसा मसीह ने भी फांसी देने वालों को माफ कर दिया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने उस सेवक को जिसने उन्हें जहर दिया था, क्षमा कर दिया और उसे कुछ धन देकर कहा कि यहां से कहीं अन्यत्र चले जाओ अन्यथा मेरे शिष्य तुम्हें मार सकतेे है।
इसी तरह एक अन्य ने पान में जहर देकर उन्हें मारने के लिये खिला दिया, लेकिन वह पकड़ा गया तब दयानन्द जी ने कहा कि मेरा उद्देश्य दुनियों को बंधन से मुक्त कराना है, बंधन में डालना नहीं, इसे छोड दो।
यह हिंसा का प्रतिशोध की भावना नष्ट करने के लिए ही था।
अंहिसा व सदाचार का पालन करने वालेे को तेज की प्राप्ति होती है उस तेज के कारण अंहिसक मनुष्य भी हिंसा छोड़ कर साधु बन जाता है, जैस कि भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल जैसे डाकु को अहिंसक बनाया, अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा डाकू था वह लोगोें की हत्या करके उनकी उंगलियों को माला में पिरोकर पहनता था। एक दिन महात्मा बुद्ध वहां से गुजर रहे थे, लोगों ने उन्हें अंगुलीमाल के बारे में बताया और उस ओर जाने से मना किया, लेकिन भगवान बुद्ध निर्भीक उसी दिशा की और बढ़े। अंगुलिमाल ने उन्हें देखा और उन्हें मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा भगवान बुद्ध आराम से चलते रहे जबकि अंगुलिमाल तेजी से दौड़ते हुए भी उन्हें नहीं पकड़ सका। अंगुलिमाल ने उनकी शक्तियों को पहचान लिया और उनके चरणों में नत-मस्तक हो गया और भगवान बुद्ध का उपदेश सुनकर समझकर हमेशा के लिये हिंसा के त्याग का संकल्प लिया और भिक्षु बन गया, भगवान बुद्ध के तेज के कारण उसका इतना अत्यधिक हृृदय परिवर्ततन हुआ कि उस राज्य के राजा द्वारा भगवान बुद्ध से उसे सजा देने का आग्रह करने पर वह स्वयं सजा को स्वीकार करने के लिये नतमस्तक हो गया।
महावीर स्वामी ने भी शूल पाणि यक्ष जो कि एक हिंसक राक्षस था उसे अपने तेज के बल पर हिंसक से अहिंसक बनाया था। एक दिन महावीर स्वामी उसके क्षेत्र से से गुजर रहे थे, लोगों ने उन्हें शूल पाणि के बारे में बताया और उस ओर जाने से मना किया, लेकिन महावीर स्वामी निर्भय होकर उसी दिशा की और बढ़े। शूलपाणि यक्ष जो कि एक राक्षस था, बहुत सी हत्यायें कर चुका था और जब उसने महावीर स्वामी को देखा तो उन्हें भी मारना चाहा, लेकिन उनकी आलौकिक शक्तियों के कारण वह उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका और उनके तेज से प्रभावित होकर उसने कुमार्ग को त्याग कर सन्मार्ग को धारण किया और वचन दिया कि अब वह कोई भी कुकर्म नहीं करेगा सुकर्म ही करेगा।
दयानन्द जी ने भी अमीचंद जो कि एक बहुत अच्छा गायक था, लेकिन शराबी था, पतित था को सन्मार्मी बना दिया। एक दिन अमीचंद ने भजन गाया दयानन्द जी ने कहा कि तुम हीरा हो लेकिन गंदगी में पड़े हो। अमीचंद गाते तो बहुत अच्छा हो लेकिन यदि तुम तुम्हारे जीवन की बुराई को दूर कर दो तो तुम्हारा जीवन सफल हो सकता है। अमीचंद पर उनके इन शब्दों का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने संकल्प लिया कि वह शराब नहीं पियेगा, पतित से पवित्र बनेगा तथा सदाचारी जीवन व्यतीत करेगा और उसने अपना संकल्प पूर्ण किया।
क्रोध एवं घमंड के भाव ही अंहिसा के सबसे बड़े शत्रु है। क्रोध एवं अहंकार के कारण ही अंहिसा बलवती होेती है।
अंहिसा एक वस्त्र नहीं जिसे जब चाहा धारण कर लिया, यह एक भाव है जो मनुष्य के हृृदय में बसता है।
अहिंसा एक ऐसा घात है, जो बिना रक्त बहाये गहरी चोट देता है। अर्थात किसी को वाचिक हिंसा से प्रताड़ित करना भी हिंसा है, कहावत है कि चोट का घाव भर जाता है, लेकिन कटु वचन का घाव नहीं भरता है अर्थात्् यदि रस्सी टूट जाती है तो जब उसे जोड़ते हैं तो उसमें गांठ पड़ जाती है।
युद्ध की तरफ जाना किसी समस्या का हल नहीं, शांति के मार्ग पर ही समस्या का समाधान मिलता है, जैसा कि भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को समझाया था तथा जैसा कि महाभारत में श्री कृृष्ण ने युद्ध को टालने हेतु पूर्ण प्रयास किया था, उन्होंने पांडवों के लिये राज्य के स्थान पर केवल 5 गाँव की ही मांग की थी। अर्थात्् शांति हेतु प्रयास करने चाहिये युद्ध/संघर्ष अंतिम विकल्प होना चाहिये। इस प्रसंग में एक कथा इस प्रकार है कि एक नदी के किनारे एक संयासी एक बिच्छू को बार-बार किनारे पर ला रहा था और बिच्छू बार-बार डंक मार कर पानी की ओर जा रहा था, उनके शिष्य ने कहा स्वामी जी आप इसे अपने हाल पर क्यों नहीं छोड़ देते, तब स्वामी जी ने कहा इसकी प्रवृृत्ति डंक मारने की है और मेरी दया की जब यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा है तो मैं क्यों अपना स्वभाव छोड़ूं। अर्थात्् अधर्मी को सुधारने का प्रयास करना चाहिये, पता नहीं कब वह वाल्मिकी, अंगुलिमाल, शूलपाणि, अमीचंद की तरह अपना हृृदय परिवर्तन कर ले। कुछ प्रतिशत तो इसमें सफलता मिल ही सकती है। जैसे कि नारद जी के ज्ञान वचनों से वाल्मिकी जी का जीवल सफल हुआ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि बनने से पूर्व वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे तथा परिवार के पालन हेतु लोगों को लूटा करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिलेए तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया। तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि. तुम यह निम्न कार्य किसलिए करते होए इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया कि अपने परिवार को पालने के लिए।
इस पर नारद ने प्रश्न किया कि तुम जो भी अपराध करते हो और जिस परिवार के पालन के लिए तुम इतने अपराध करते होए क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए रत्नाकरए नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर गए। वहां जाकर वह यह जानकर स्तब्ध रह गए कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उसके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उन्होंने नारद के चरण पकड़ लिए।
तब नारद मुनि ने कहा कि. हे रत्नाकर यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिए यह पाप करते हो। इस तरह नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें राम.नाम के जप का उपदेश भी दिया था परंतु वह राम नाम का उच्चारण नहीं कर पाते थे। तब नारद जी ने विचार करके उनसे मरा.मरा जपने के लिए कहा और मरा रटते.रटते यही राम हो गया और निरंतर जप करते.रते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए।
लेकिन इतिहास साक्षी है कि इसका भी अपवाद दुर्योधन, मौहम्मद गौरी आदि तामसिक प्रवृ्त्ति के लोग इस संसार में हुए थे, ऐसे लोगों से उपेक्षा का भाव रखना ही उचित है, ना तो उनके प्रति राग रखें ना ही द्वैष हाँ उनकी उपेक्षा कर सकते हैं।
नीति वचन है क्षमा वीरस्य भूषणम्् यह वाक्य एक योगी पर तो पूर्णतः लागू होता है, क्योंकि लक्ष्य प्राप्त करने पर उसे इस पंच तत्व के शरीर से मोह नहीं रहता है। लेकिन एक राष्ट्र्/राज्य के अधिपति के लिये पूर्णतः लागू नहीं होता क्योंकि उसके साथ सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा का भार होता है। अतः राष्ट्राधिपति का यह कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजाजनों की रक्षा करें। अतः उसे बार-बार शत्रु को माफ नहीं करना चाहिये, जैसे कि पृृथ्वीराज चैहान ने कई बार मौहम्मद गौरी को पराजित करने के बाद भी बार-बार क्षमा कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसे अंत में पराजय का सामना करना पड़ा। कीट-पतंग, पशु योनि में विवके नहीं होता है, लेकिन मनुष्य में पूर्ण विवेक होता है अतः ऐसी स्थिति में पृ्थ्वीराज चैहान को मौहम्मद गौरी को बार-बार क्षमा करके आक्रमण का मौका नहीं देना चाहिये था, जैसे कि एक बिच्छु अपनी प्रवृृत्ति को नहीं बदल सकता है तो एक अति तामसिक प्रवृृत्ति के मनुष्य की प्रवृृत्ति बदलना एक क्षत्रिय के लिये बहुत कठिन कार्य है।
आज के वक्त में अहिंसा बस किताबी पन्नों में दफन हो गई, जब कि इसकी जरूरत आज ही सबसे ज्यादा है।
सत्य, अहिंसा का मार्ग जितना कठिन है, उसका अन्त उतना ही सुगम और आत्मा को शांति पहुंचाने वाला हे। अर्थात् हमें सदाचारी बनना चाहिये, दुराचारी को प्रभू/प्रकृृति के न्याय पर छोड़ देना चाहिये।
अपने स्वार्थ के लिये किसी की हानि नहीं करनी चाहिय। योग दर्शन में लिखा है कि दूसरे के साथ वह व्यवहार मत करा जो तुम्हें अपने लिये पसन्द नहीं हो। अर्थात हम चाहते है कि कोई भी हमारी क्षति नहीं करे, हमारे साथ हिंसात्मक व्यवहार नहीं करे तो हमें भी किसी को क्षति नहीं पहुंचानी चाहिये किसी के साथ हिंसात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिये। जब हमें हिंसापूर्ण व्यवहार करना ही नहीं है तो हमें ऐसा विचारों को मन में भी नहीं आने देना होगा तभी हमारी अंहिसा सफल होगी। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है जैसे एक गंेद जितने वेग से दीवार पर फेंकेगे उतने ही वेग से विपरीत दिशा में वापस जायेगी।
डाॅक्टर अस्पताल में बहुत से रोगियों की शल्य चिकित्सा करता है, सूंई चुभाता है, लेकिन उसका उद्देश्य उस रोगी का हित होता है। इसलिये यह हिंसा होते हुए भी हिंसा नहीं है।
न्यायाधीश का भी अपराधियों को समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये दण्ड देना हिंसा की श्रेणी में नहीं आता है।
आत्मरक्षा में हिंसा भी अपनाई जा सकती है, जैसे घर पर चोर या डाकू आक्रमण कर दे तो उनका सामना करना ही पड़ेगा उस दौरान किसी की मृृत्यु भी हो जाये तो भी वह हिंसा की श्रेणी में नहीं है।
किसान खेती करता है, तो उसमें बहुत से कृृमि मर जाते हैं, यह हिंसा तो है लेकिन इससे बहुत सारे लोगोें को जीवन मिलता है और यह उस हिंसा के दोष को कम करता है।
सारांश
अहिंसा वादी व्यक्ति में सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान आदि गुणों की प्रचुरता होती है। बिना मन, वचन व शरीर से अंहिसात्मक हुए बिना कोई भी उस परम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति/अथवा मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः यदि हमें परमलक्ष्य प्राप्त करना है तो मन, वचन व शरीर से अंहिसक बनना होगा अन्यथा जैसा कि कर्मफल सिद्धांत है कि या तो इसी जन्म में अथवा अगले जन्म में हमें हिंसा का फल हिंसा के रूप में ही प्राप्त होगा। अंहिसा के पालन से सुख रूपी स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
अधिकांश धर्म/मतों में अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है।
ष्सत्य की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाेता है तो सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है।
अहिंसा ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है।
अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहरू . व्यासभाष्यए योगसूत्र 2। 30द्ध।
अहिंसा का अर्थ है सर्वकाल में कर्म, वचन मन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करना
अहिंसा का सामान्य अर्थ है श्हिंसा न करना । इसका व्यापक अर्थ है . किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है
जैन दृष्टि से सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है, सत्प्रवृत्तिए स्वाध्यायए अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है। किसी भी जीवित प्राणी को किसी भी जंतु को किसी भी वस्तु को जिसमें आत्मा है न मारो न ;उससे अनुचित व्यवहार करो न अपमानित करो न कष्ट दो और न सताओ।
मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा भाव रखे।
सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है सुख अनुकूल है दुख प्रतिकूल है। व्यक्ति दूसरे प्राणियों का हनन करके अपनी आत्मा का ही हनन करता है।
असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़ने वाले हैं इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोजन वश करता है तो काई बिना प्रयोजन भी।
अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास।
इसी प्रकार बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी अहिंसा की बड़ी महिमा है।
कबीर जी ने भी अंहिसा पर बहुत से दोहे लिखे हैं, उनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैः-
जहाँ दया तहाँ धर्म हैए जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप हैए जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
जहां पर अहिंसा है वहां धर्म का वास है, अर्थात् कबीर जी के अनुसार भी यदि हमारे अंदर दया भाव विद्यमान है तो ही हम धर्म की राह पर हैं, हम धार्मिक हैं, अन्यथा नहीं। यदि हम लोभी हैं तो हम पाप (अधर्म) के कारण ही दूसरों का हक दूसरों का धन या वस्तु लेने का प्रयास करते हैं, जो कि पूर्णतः अधर्म है क्योंकि मनुष्य अपने कर्मों के अतिरिक्त इस संसार से कुछ नहीं ले जा सकता है। यदि हम क्रोधी हैं तो हम क्रोध में आकर अधर्म कर सकते हैं, अतः क्रोध भी त्याज्य है। जिसने अपना बुरे चाहने अथवा बुरा करने वाले को भी क्षमा कर दिया तो वह महान है, जैसे कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, महर्षि दयानन्द, ईसा मसीह आदि ऐसी विभूतियां हीं ईश्वर प्राप्ति/मुक्ति की अधिकारी हैं।
दाया भाव ह्र्दय नहीं ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे सुनि.सुनि साखी शब्द
हिंसा नरक का द्वार है, हिंसक मनुष्य चाहे कुछ भी कर ले, लेकिन हिंसा करने वाले को ईश्वर/परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता ना ही मुक्ति मिलती है। अर्थात् एक बार पाप/कुकर्मों का त्याग करने के बाद पुनः पाप/कुकर्म करने वाले को ईश्वर/परमानन्द प्राप्त नहीं हो सकता ना ही मुक्ति मिल सकती है।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
जो तुम्हारे अहित करना चाहे, उसका भी हित करना चाहिये क्योंकि एक फूल का पौधा उगाने पर बहुत से फूल प्राप्त होंगे तथा कांटे बोने वाले को कांटों का भंडार ही प्राप्त होगा। अर्थात् जैसा कर्म करेंगे वैसा ही परिणाम अथवा उससे अधिक परिणाम प्राप्त होगा। जो बुरा करने वाले का भी भला चाहता है ऐसे मनुष्य को सूली की सजा भी कांटों की चुभन सी प्रतीत होती है।
एक साधु दयानन्द जी को रोज गाली देता था, एक दिन दयानन्द जी को किसी ने फलों का टोकरा भेंट किया दयानन्द जी ने अपने शिष्यों से कहा कि जाकर उस साधु को दे आओ। शिष्य फलों का टोकरा देने साधू के पास गये तो साधु ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता यह फल उन्होंने किसी ओर के लिये भेजे होंगे और उसने उन्हें वापस लौटा दिया। दयानन्द जी पुनः शिष्यों को भेजा कि साधु से कहना कि यह फल उसी के लिये भिजवायें हैं। शिष्य पुनः साधु के पास पहुंचे और उससे कहा कि यह फल आपके लिये ही भिजवायें। साधु को बहुत पश्चाताप हुआ वह दयानन्द जी के पास पहुंचा और उनसे अपने व्यवहार के लिये क्षमा मांगी।
ईसा ने जो आत्मोत्सर्ग किया वह प्रेम और अहिंसा का ही उदाहरण था। उन्होंने अपने हत्यारों तक की सद्गति के लिए भगवान से प्रार्थना की और अपने अनुयायियों से स्पष्ट कहा है कि यदि कोई गाल पर प्रहार करे तो दूसरे को भी प्रहार स्वीकार करने के लिए आगे कर दो।
अपनो को तो इस दुनिया में सब प्यार करते हैं, दुश्मन को भी प्यार करना मसीहा सिखाते हैं
इक गाल पर जो मारे चाँटा दूजा गाल भी देना, ले जाये कोई इक मील जबरन दो मील तुम साथ जाना
अपनो को तो अपना सब कुछ सब लोग देते हैं, गैरों पर भी सब कुछ लुटाना मसीहा सिखाते हैं
अपनो को जैसे वैसे ही अपने पड़ोसी से प्यार करो तुम, यीशु मरा था तेरे पापों के खातिर यह विश्वास करो तुम
यह कितना सच्चा और अच्छा भजन है। इसमें भी यही उपदेश है कि हमें बुरा करने वाले का भी भला करना चाहिये क्योंकि बुरा करने वाले को बुरा परिणाम ही भोगना पड़ता है।
यदि कोई हमसे मदद मांगे तथा हम सक्षम हो तो दुगुने जोश के साथ उसकी मदद करें तथा यदि हमें लगे कि किसी को हमारी मदद की आवश्यकता है, लेकिन वह ग्लानि/शर्म के कारण हमसे मदद नहीं मांग रहा है तो यदि हम सक्षम हों तो उसके बिना मांगे ही उसकी मदद करनी चाहिये।
इस संबंध में दयानंद जी के जीवन का एक प्रसंग है, एक कौड़ी को बहुत से लोगों ने पत्थर से मार-मार कर अधमरा कर दिया, दयानन्द जी वहां से गुजर रहे थे, उन्होंने पूछा कि इसे क्यों मार रहे हो, उन्होंने कहा कि यह कौड़ी है इससे हमें भी कोड़ हो सकता है, और उसे अधमरी हालत में छोड़कर चले गये, तभी एक पुलिसवाला वहां से गुजरा उसने कहा कि इसे पास में एक चिकित्सा शिविर पर ले जाये तो इसके प्राण बच सकते हैं, लेकिन उस समय आवागमन के साधनों की अत्यंत कमी थी, अतः कौड़ी को ले जाने का कोई साधन नहीं था, कौड़ी के पूरे शरीर से पीब और रक्त बह रहा था, ऐसी स्थिति में यदि कोई उसके सम्पर्क में आता तो उसे भी कौड़ हो सकता था, लेकिन दयानन्द जी उस कौड़ी को अपनी पीठ पर लादकर कैम्प तक ले गये। दयानन्द जी उस समय केवल लंगोट ही पहनते थे, अतः उस कोड़ी का पीब व रक्त उनके शरीर पर लग गया था। उसको कैम्प में छोड़ने के पश्चात् उन्होंने स्नान किया। हम कुछ अंशों में तो ऐसी महान विभूतियांे जैसा बनने का अभ्यास करना चाहिये।
एक कहावत है अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे, अर्थात्् इस मोह-माया के वश में आकर हम भी ऐसे नहीं बन जायें कि अपनों का ही लाभ सोचें अन्यों का नहीं अर्थात् स्वार्थ में ही लगे रहें परमार्थ/परोपकार में नहीं। परोपकार ही असली सेवा है।
यदि हम सक्षम हों तो हमें अपनों के अतिरिक्त अन्य बेसहारा जरूरतमंदों की भी मदद करनी चाहिये। जैसे हम अपनों को प्यार करते हैं, वैसे ही हम राग-द्वैष से मुक्त होकर सभी के साथ अच्छा व्यवहार करें।
अंतिम कड़ी यीशू मरा तेरे पापों की खातिर का अर्थ है कि यीशू अथवा किसी भी गुरू की शरण में जाने के बाद हमने अब तक जितने भी पाप किये हैं उनसे तौबा कर लें तथा संकल्प लें कि अब कोई भी पापकर्म नहीं करेंगे। अब हमारे पापांे के कारण किसी को भी क्षति नहीं होनी चाहिये।
लेकिन केवल हम धर्म के अंहकार में अपने धर्म की महिमा ही मंडित करते रहें और हमारे धर्मोपदेशकों के सदुपदेशों के अनुसार व्यवहार नहीं करें तो सब व्यर्थ हो जाता है, हम केवल एक चापलूस ही बनकर रह जाते हैं और हम परमानन्द/ईश्वर/मुक्ति प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। अर्थात्् उपदेशों को जीवन में उतारने का अभ्यास करना परम आवश्यक है।
ईसा मसीह ने भी फांसी देने वालों को माफ कर दिया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने उस सेवक को जिसने उन्हें जहर दिया था, क्षमा कर दिया और उसे कुछ धन देकर कहा कि यहां से कहीं अन्यत्र चले जाओ अन्यथा मेरे शिष्य तुम्हें मार सकतेे है।
इसी तरह एक अन्य ने पान में जहर देकर उन्हें मारने के लिये खिला दिया, लेकिन वह पकड़ा गया तब दयानन्द जी ने कहा कि मेरा उद्देश्य दुनियों को बंधन से मुक्त कराना है, बंधन में डालना नहीं, इसे छोड दो।
यह हिंसा का प्रतिशोध की भावना नष्ट करने के लिए ही था।
अंहिसा व सदाचार का पालन करने वालेे को तेज की प्राप्ति होती है उस तेज के कारण अंहिसक मनुष्य भी हिंसा छोड़ कर साधु बन जाता है, जैस कि भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल जैसे डाकु को अहिंसक बनाया, अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा डाकू था वह लोगोें की हत्या करके उनकी उंगलियों को माला में पिरोकर पहनता था। एक दिन महात्मा बुद्ध वहां से गुजर रहे थे, लोगों ने उन्हें अंगुलीमाल के बारे में बताया और उस ओर जाने से मना किया, लेकिन भगवान बुद्ध निर्भीक उसी दिशा की और बढ़े। अंगुलिमाल ने उन्हें देखा और उन्हें मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा भगवान बुद्ध आराम से चलते रहे जबकि अंगुलिमाल तेजी से दौड़ते हुए भी उन्हें नहीं पकड़ सका। अंगुलिमाल ने उनकी शक्तियों को पहचान लिया और उनके चरणों में नत-मस्तक हो गया और भगवान बुद्ध का उपदेश सुनकर समझकर हमेशा के लिये हिंसा के त्याग का संकल्प लिया और भिक्षु बन गया, भगवान बुद्ध के तेज के कारण उसका इतना अत्यधिक हृृदय परिवर्ततन हुआ कि उस राज्य के राजा द्वारा भगवान बुद्ध से उसे सजा देने का आग्रह करने पर वह स्वयं सजा को स्वीकार करने के लिये नतमस्तक हो गया।
महावीर स्वामी ने भी शूल पाणि यक्ष जो कि एक हिंसक राक्षस था उसे अपने तेज के बल पर हिंसक से अहिंसक बनाया था। एक दिन महावीर स्वामी उसके क्षेत्र से से गुजर रहे थे, लोगों ने उन्हें शूल पाणि के बारे में बताया और उस ओर जाने से मना किया, लेकिन महावीर स्वामी निर्भय होकर उसी दिशा की और बढ़े। शूलपाणि यक्ष जो कि एक राक्षस था, बहुत सी हत्यायें कर चुका था और जब उसने महावीर स्वामी को देखा तो उन्हें भी मारना चाहा, लेकिन उनकी आलौकिक शक्तियों के कारण वह उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका और उनके तेज से प्रभावित होकर उसने कुमार्ग को त्याग कर सन्मार्ग को धारण किया और वचन दिया कि अब वह कोई भी कुकर्म नहीं करेगा सुकर्म ही करेगा।
दयानन्द जी ने भी अमीचंद जो कि एक बहुत अच्छा गायक था, लेकिन शराबी था, पतित था को सन्मार्मी बना दिया। एक दिन अमीचंद ने भजन गाया दयानन्द जी ने कहा कि तुम हीरा हो लेकिन गंदगी में पड़े हो। अमीचंद गाते तो बहुत अच्छा हो लेकिन यदि तुम तुम्हारे जीवन की बुराई को दूर कर दो तो तुम्हारा जीवन सफल हो सकता है। अमीचंद पर उनके इन शब्दों का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने संकल्प लिया कि वह शराब नहीं पियेगा, पतित से पवित्र बनेगा तथा सदाचारी जीवन व्यतीत करेगा और उसने अपना संकल्प पूर्ण किया।
क्रोध एवं घमंड के भाव ही अंहिसा के सबसे बड़े शत्रु है। क्रोध एवं अहंकार के कारण ही अंहिसा बलवती होेती है।
अंहिसा एक वस्त्र नहीं जिसे जब चाहा धारण कर लिया, यह एक भाव है जो मनुष्य के हृृदय में बसता है।
अहिंसा एक ऐसा घात है, जो बिना रक्त बहाये गहरी चोट देता है। अर्थात किसी को वाचिक हिंसा से प्रताड़ित करना भी हिंसा है, कहावत है कि चोट का घाव भर जाता है, लेकिन कटु वचन का घाव नहीं भरता है अर्थात्् यदि रस्सी टूट जाती है तो जब उसे जोड़ते हैं तो उसमें गांठ पड़ जाती है।
युद्ध की तरफ जाना किसी समस्या का हल नहीं, शांति के मार्ग पर ही समस्या का समाधान मिलता है, जैसा कि भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को समझाया था तथा जैसा कि महाभारत में श्री कृृष्ण ने युद्ध को टालने हेतु पूर्ण प्रयास किया था, उन्होंने पांडवों के लिये राज्य के स्थान पर केवल 5 गाँव की ही मांग की थी। अर्थात्् शांति हेतु प्रयास करने चाहिये युद्ध/संघर्ष अंतिम विकल्प होना चाहिये। इस प्रसंग में एक कथा इस प्रकार है कि एक नदी के किनारे एक संयासी एक बिच्छू को बार-बार किनारे पर ला रहा था और बिच्छू बार-बार डंक मार कर पानी की ओर जा रहा था, उनके शिष्य ने कहा स्वामी जी आप इसे अपने हाल पर क्यों नहीं छोड़ देते, तब स्वामी जी ने कहा इसकी प्रवृृत्ति डंक मारने की है और मेरी दया की जब यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा है तो मैं क्यों अपना स्वभाव छोड़ूं। अर्थात्् अधर्मी को सुधारने का प्रयास करना चाहिये, पता नहीं कब वह वाल्मिकी, अंगुलिमाल, शूलपाणि, अमीचंद की तरह अपना हृृदय परिवर्तन कर ले। कुछ प्रतिशत तो इसमें सफलता मिल ही सकती है। जैसे कि नारद जी के ज्ञान वचनों से वाल्मिकी जी का जीवल सफल हुआ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि बनने से पूर्व वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे तथा परिवार के पालन हेतु लोगों को लूटा करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिलेए तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया। तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि. तुम यह निम्न कार्य किसलिए करते होए इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया कि अपने परिवार को पालने के लिए।
इस पर नारद ने प्रश्न किया कि तुम जो भी अपराध करते हो और जिस परिवार के पालन के लिए तुम इतने अपराध करते होए क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए रत्नाकरए नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर गए। वहां जाकर वह यह जानकर स्तब्ध रह गए कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उसके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उन्होंने नारद के चरण पकड़ लिए।
तब नारद मुनि ने कहा कि. हे रत्नाकर यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिए यह पाप करते हो। इस तरह नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें राम.नाम के जप का उपदेश भी दिया था परंतु वह राम नाम का उच्चारण नहीं कर पाते थे। तब नारद जी ने विचार करके उनसे मरा.मरा जपने के लिए कहा और मरा रटते.रटते यही राम हो गया और निरंतर जप करते.रते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए।
लेकिन इतिहास साक्षी है कि इसका भी अपवाद दुर्योधन, मौहम्मद गौरी आदि तामसिक प्रवृ्त्ति के लोग इस संसार में हुए थे, ऐसे लोगों से उपेक्षा का भाव रखना ही उचित है, ना तो उनके प्रति राग रखें ना ही द्वैष हाँ उनकी उपेक्षा कर सकते हैं।
नीति वचन है क्षमा वीरस्य भूषणम्् यह वाक्य एक योगी पर तो पूर्णतः लागू होता है, क्योंकि लक्ष्य प्राप्त करने पर उसे इस पंच तत्व के शरीर से मोह नहीं रहता है। लेकिन एक राष्ट्र्/राज्य के अधिपति के लिये पूर्णतः लागू नहीं होता क्योंकि उसके साथ सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा का भार होता है। अतः राष्ट्राधिपति का यह कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजाजनों की रक्षा करें। अतः उसे बार-बार शत्रु को माफ नहीं करना चाहिये, जैसे कि पृृथ्वीराज चैहान ने कई बार मौहम्मद गौरी को पराजित करने के बाद भी बार-बार क्षमा कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसे अंत में पराजय का सामना करना पड़ा। कीट-पतंग, पशु योनि में विवके नहीं होता है, लेकिन मनुष्य में पूर्ण विवेक होता है अतः ऐसी स्थिति में पृ्थ्वीराज चैहान को मौहम्मद गौरी को बार-बार क्षमा करके आक्रमण का मौका नहीं देना चाहिये था, जैसे कि एक बिच्छु अपनी प्रवृृत्ति को नहीं बदल सकता है तो एक अति तामसिक प्रवृृत्ति के मनुष्य की प्रवृृत्ति बदलना एक क्षत्रिय के लिये बहुत कठिन कार्य है।
आज के वक्त में अहिंसा बस किताबी पन्नों में दफन हो गई, जब कि इसकी जरूरत आज ही सबसे ज्यादा है।
सत्य, अहिंसा का मार्ग जितना कठिन है, उसका अन्त उतना ही सुगम और आत्मा को शांति पहुंचाने वाला हे। अर्थात् हमें सदाचारी बनना चाहिये, दुराचारी को प्रभू/प्रकृृति के न्याय पर छोड़ देना चाहिये।
अपने स्वार्थ के लिये किसी की हानि नहीं करनी चाहिय। योग दर्शन में लिखा है कि दूसरे के साथ वह व्यवहार मत करा जो तुम्हें अपने लिये पसन्द नहीं हो। अर्थात हम चाहते है कि कोई भी हमारी क्षति नहीं करे, हमारे साथ हिंसात्मक व्यवहार नहीं करे तो हमें भी किसी को क्षति नहीं पहुंचानी चाहिये किसी के साथ हिंसात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिये। जब हमें हिंसापूर्ण व्यवहार करना ही नहीं है तो हमें ऐसा विचारों को मन में भी नहीं आने देना होगा तभी हमारी अंहिसा सफल होगी। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है जैसे एक गंेद जितने वेग से दीवार पर फेंकेगे उतने ही वेग से विपरीत दिशा में वापस जायेगी।
डाॅक्टर अस्पताल में बहुत से रोगियों की शल्य चिकित्सा करता है, सूंई चुभाता है, लेकिन उसका उद्देश्य उस रोगी का हित होता है। इसलिये यह हिंसा होते हुए भी हिंसा नहीं है।
न्यायाधीश का भी अपराधियों को समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये दण्ड देना हिंसा की श्रेणी में नहीं आता है।
आत्मरक्षा में हिंसा भी अपनाई जा सकती है, जैसे घर पर चोर या डाकू आक्रमण कर दे तो उनका सामना करना ही पड़ेगा उस दौरान किसी की मृृत्यु भी हो जाये तो भी वह हिंसा की श्रेणी में नहीं है।
किसान खेती करता है, तो उसमें बहुत से कृृमि मर जाते हैं, यह हिंसा तो है लेकिन इससे बहुत सारे लोगोें को जीवन मिलता है और यह उस हिंसा के दोष को कम करता है।
सारांश
अहिंसा वादी व्यक्ति में सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान आदि गुणों की प्रचुरता होती है। बिना मन, वचन व शरीर से अंहिसात्मक हुए बिना कोई भी उस परम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति/अथवा मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः यदि हमें परमलक्ष्य प्राप्त करना है तो मन, वचन व शरीर से अंहिसक बनना होगा अन्यथा जैसा कि कर्मफल सिद्धांत है कि या तो इसी जन्म में अथवा अगले जन्म में हमें हिंसा का फल हिंसा के रूप में ही प्राप्त होगा। अंहिसा के पालन से सुख रूपी स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
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