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Showing posts from July, 2016

स्वाध्याय Self-study, self-education, सत्‍संग

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स्वाध्याय   वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद ही ज्ञान का सागर हैं , पहले भी विदेशियों ने इस पर शौध किये हैं और आज भी कर रहे हैं। जो मुक्ति हेतु कर्म से संबंधित सत्य ज्ञान है उसी का उपदेश अधिकांशतः सभी महापुरूषों ने किया है। चाहे भगवान बुद्ध हो , चाहे महावीर स्वामी हो , चाहे ईसामसीह हो , चाहे हजरत मौहम्मद साहब हो , गुरूनानक जी हों , कबीरजी हों या अन्य कोई भी महापुरूश हो सभी ने मुक्ति के लिये कर्म के संबंध में जो उपदेश दिये है , वे सभी वेद में पहले से ही विद्यमान है। किसी भी पावन अंतकरण वाले विरक्त शुद्धात्मा स्वरूप महापुरूश के मुख से मानव व इस जगत के कल्याण के लिये जो भी समान वाणी निकली है , उस वाणी का पालन तो सभी के लिये अनिवार्य है , और उस समान वाणी का पालन करके ही कोई वास्तविक रूप से स्वाध्यायी बन सकता है। स्वाध्याय का अर्थ है मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार के लिये ध्यान करना , अपने कर्मों का चिंतन-मनन करना , सद्ग्रंथों का अध्ययन करना , सत्संग सुनना व आचरण में लाने का अभ्यास/प्रयास करना तथा परहित के लिये सेवा कार्य में लगे रहने का अभ्यास/प्रयास करते रहना ही स्वाध...

शुचिता / शौच / शुद्धि/पवित्रता Purity / defecation

सर्वे भवंतु सुखिनः शुचिता / शौच / शुद्धि/पवित्रता Purity / defecation शुचिता / शौच / शुद्धि शुद्धि मुख्य रूप से दो तरह की होती है, आंतरिक और बाह्यः- आंतरिक शुद्धिः- इसके अन्तर्गत मन की शुद्धि आती है, मन को शुद्ध रखने के लिये मन, वचन व शरीर से समस्त सत्कर्म करने आवश्यक हैं जिसके लिये धर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान का पालन करना आवश्यक है। इनके पालन से ही मन शुद्ध/मल रहित/निर्मल होता है, जिसके पश्चात् ही शुद्ध मन में ज्ञान का प्रकाश होता है तथा मुक्ति का रास्ता प्रशस्त होता है। मुक्ति/ज्ञान हेतु किसी डिग्री अथवा पद की आवश्यकता नहीं है, इसे तो केवल मन को शुद्ध करके ही पाया जा सकता है, समस्त ज्ञान हमारे अंदर ही समाहित है जो कि मन के निर्मल होने पर अथवा गुरू के द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर मन को निर्मल करने पर प्राप्त होता है।  हमारे संत जैसे कबीरजी, नानकजी, रैदासजी आदि डिग्री धारी नहीं थे, उन्होंने अपने गुरू के आदेश से मन को शुद्ध किया और उस श...