अपरिग्रह sacrifice, donation

अपरिग्रह
3म्‌ ईशावास्यमिदं सर्वं.यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम्‌।।
            उपनिषद का यह मंत्र भी यही संदेश देता है कि हम लालच नहीं करें तथा त्याग पूर्वक धर्मपूर्वक भोग करें। सब कुछ परमात्मा का है, हमारा इस संसार में कुछ नहीं है, जिसने यह सोच कर त्याग किया उसने ही पाया है।
अपरिग्रह का अर्थ है कि किसी भी तरह की मन, वचन और कर्म से अनावश्यक संचय नहीं करना।
जैन धर्म में सांसारिक धन संचय को लालच, ईष्र्या, स्वार्थ और बढ़ती वासना के एक संभावित स्रोत के रूप में माना जाता है। जीवित रहने के लिये पर्याप्त भोजन करना, दिखावे या अहंकार के लिये खाने से ज्यादा महान माना जाता है।
अपरिग्रह और महावीर स्वामी - महावीर स्वामी ने अपना सब कुछ त्याग दिया, अपने आभूषण भी मांगने वालों को दे दिये। केवल उनके पास एक ही वस्त्र बचा था, उन्होंने देखा कि किसी को उनके उस वस्त्र की भी लालसा थी। उन्होंने उसकी मंशा को जान लिया और वह बचा हुआ वस्त्र भी उस व्यक्ति को दे दिया। यह अपरिग्रह की पराकाष्ठा है कि एक राजा ने अपना स्र्वस्व दूसरों को दान कर दिया।
अपरिग्रह और भगवान बुद्ध - भगवान बुद्ध ने भी अपना राज-पाठ, धन दौलत सब कुछ त्याग दिया और अपरिग्रह को अपने जीवन में स्थान दिया। यशोधरा ने जब भगवान बुद्ध से पूछा कि पुत्र राहुल को क्या दोगे तो उन्होंने कहा कि यह भिक्षा-पात्र दूंगा। अर्थात् जिसने मोक्ष लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली हो उस योगी/भिक्षु को किसी भी वस्तु के परिग्रह की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है।
अपरिग्रह और स्वामी दयानन्द - स्वामी दयानन्द जी ने सच्चे शिव की खोज के लिये युवावस्था में ही गृह त्याग कर दिया था, उनके माता-पिता भी अकूत धन सम्पत्ति के स्वामी थे। उन्होंने दयानन्द जी के वजन के बराबर स्वर्ण व रजत का दान किया था। लेकिन स्वामी दयानन्द जी को भगवान बुद्ध व महावीर स्वामी की तरह धन-दौलत से किसी भी तरह का मोह नहीं था। उनसे भी लोगों ने कहा कि उस परम शक्ति से मिलने के लिये धन-दौलत का त्याग आवश्यक है और कुछ बगुला भगत जैसे लोागों ने उनके सभी आभूषण ले लिये।
स्वामी दयानन्द जी योग की प्रथम यात्रा के दौरान माउण्ट आबू में साधना कर रहे थे, उन्होंने बहुत ही असाधारण अपरिग्रह का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्हें कुछ लोग भोजन आदि देते रहते थे। दयानन्दजी जितना एक दिन के लिये पर्याप्त होता था उतना रखकर शेष अन्य याचकों को दे देते थे। भोजन का दूसरे दिन के लिये संग्रह नहीं करते थे। यदि किसी दिन भोजन नहीं मिलता था तो पानी में नमक घोलकर उसे ही भोजन के रूप में ग्रहण करते थे।
अपरिग्रह और प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी
            परम आदरणीय शास्त्री जी इस कलियुग में अपरिग्रह की पराकाष्ठा के महान उदाहरण थे। वे उतना ही वेतन लेते थे, जितना कि घर खर्च के लिये आवश्यक होता था। एक बार उनकी पत्नी ने उन्हें बताया कि उसने जो वेतन मिलता था, उसमंे बहुत किफायत से घर का खर्च चलाकर कुछ पैसे बचाये हैं, तो शास्त्रीजी ने कहा कि इसका मतलब मुझे वेतन अधिक मिल रहा है, उन्होंने वह बचत की राशि भी अपने वेतन में से कम करवा दी।
            एक बार वो साड़ी खरीदने एक दुकानदार के पास गया, दुकानदार ने महंगी साड़ियां दिखाई। शास्त्रीजी ने कहा कि मुझे सस्ती साडी चाहिये। दुकानदार ने कहा कि यह हमारा सौभाग्य है कि आप हमारी दुकान पर आये हैं, हम आपसे पैसे नहीं लेेंगे। शास्त्री जी ने कहा कि मैं बिना पैसे के साड़ी नहीं लूंगा। अतः सबसे सस्ती साड़ी मुझे दिखायें। दुकान वाले ने संकोच करते हुए सस्ती साड़ी दिखाई। उन्होंने उनमें से ही कुछ साडियां खरीदी। वह विरक्त योगी नहीं होते हुए भी उनके बराबर एक सच्ची महान आत्मा थे। उनके जैसे उच्च संस्कारवान लोग विरले ही इस संसार में देखने को मिलेंगे।
अपरिग्रह और राष्ट्रपिता गांधीजी
            गांधी जी के पास अंतिम दिनों में कुल 10-12 जैसे कि चश्मा, घड़ी, चप्पलें, लाठी और खाने के बर्तन आदि वस्तुयें ही थी। घर और फार्म व राष्ट्र को समर्पित कर चुके थे।
            गांधी जी का संदेश है कि कम संचित करें, सादा भोजन करें, सादे वस्त्र पहनें, तनावमुक्त जीवन जियें, अपने जीवन को अपना सन्देश बनायें। उन्होंने इन सभी बातों को अपने जीवन में अपनाया। उनका अनमोल वचन है कि श्धन.दौलत की बहुतायत हो तो इसका परित्याग करके परिजनों को बेघर कर देने का कोई औचित्य नहीं हैण् महत्वपूर्ण केवल यह है कि इन सांसारिक विषयों से आसक्ति न होश्
महाराज जैमलसिंह जी ब्रह्मचारी थे। वे अपना पूरा वेतन अपने गुरू को समर्पित कर देते थे। उनके गुरू महराज शिवदयाल सिंह जी भी उसमें से आवश्यकतानुसार धन लेकर शेष उन्हें वापस लौटा देते थे। उनका जैसा निर्लोभी शिष्य आज मुश्किल से ही मिल सकता है। वे एक आदर्श शिष्य और आदर्श गुरू थे। उनके समय में व्यास में आबादी कम थी और भोजनालय भी दूर थे। अतः वे सूखी रोटी पेड़ पर बांध देते थे और उसी को खाकर अपनी साधना में तत्परता से लगे रहते थे। वे भी काम, क्रोध लोभ, मद, मोह, राग-द्वेष से मुक्त थे। ऐसी महान विभूतियां ही अपरिग्रह से विरत रहती हैं।
अपरिग्रह से संबंधित सत्य गाथायें/वचन:-
विश्व विजेता सिकन्दर ने भी कहा था कि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे दोनो हाथ अरथी के बाहर रखना जिससे लोगों को पता लगे के इतनी धन-सम्पदा अर्जित करने वाला सिकन्दर भी खाली हाथ ही इस दुनिया से विदा हो रहा है।
गुरूनानक जी ने अपने लखपति चैले केा समझाया था कि यह छोटी सी संुई मुझे अगले जन्म में दे देना। तब उन्हें समझ में आया कि इस संसार से हम एक सुंई तक नहीं ले जा सकते हैं तथा हमें आवश्यकतानुसार ही परिग्रह करना चाहिये और जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिये।
गोपाल कृष्ण गोखले से बचपन में अध्यापक ने पूछा कि यदि तुम्हें एक कीमती हीरा मिल जाता है तो तुम क्या करोगे। उसने कहा कि मैं इसके असली मालिक का पता करूंगा और उसे लौटा दूंगा। अध्यापक ने कहा कि यदि असली मालिक नहीं मिला तो क्या करोगे। उसने कहा कि इसे बेचकर देश सेवा में लगाउंगा।
चाणक्य जी का कहना है कि तालाब के जल को स्वच्छ रखने के लिये उसका बहते रहना आवश्यक है। इसी प्रकार अर्जित धन का त्याग करते रहना ही उसकी रक्षा है। चाणक्य का जीवन पूर्णतः साधुओं की तरह ही था। वे जब सरकारी कार्य करते थे तब सरकारी दीपक जलाते थे और जब अपना स्वयं का कार्य करते थे तो स्वयं का दीपक जलाते थे।
महाराज जगतसिंह जी ने अपने अंतिम समय में सभी को कहा कि यदि कोई मुझ से मांगता है तो ले जाये और यदि मैं किसी से मांगता हूं तो उसे छोड़ता हूूं। अर्थात् यदि आपका अंत समय में किसी भी वस्तु से मोह है तो मुक्ति असम्भव है।
             एक व्यक्ति था उसके पास सोने की लगभग 6-7 स्वर्ण मुद्रायें थीं, उसका कोई संगी साथी भी नहीं था। अकेला ही रहता था। वह मरणासन्न स्थिति में था। उसने अपने पड़ौसी से कहा कि मुझे हलवा खाने की इच्छा हो रही है। पड़ौसी ने उसे हलवा बनाकर भिजवा दिया। सुबह वह व्यक्ति मरा हुआ पाया गया। सभी मौहल्ले वालों ने कहा कि  अवश्य ही इसने उस व्यक्ति को हलवे में जहर खिलाकर मार दिया और उसकी स्वर्ण मुद्रायें ले लीं है। उस व्यक्ति ने रोते हुए शपथपूर्वक कहा कि नहीं मैंने मुद्रायें नहीं ली हैं, लेकिन किसी ने विश्वास ही नहीं किया। जब लाश जल गई तब उसके पेट के स्थान में वह गोल-गोल मुद्रायें लाल रंग में दिखाई दीं तब सबने विश्वास किया कि हां यह सत्य कह रहा है। अब यदि वह व्यक्ति उन मुद्राओं को जरूरतमंदों को दे देता तो उनके काम में तो वह धन आता। वह धन किसी के काम का नहीं रहा जलकर स्वाहा हो गया।
अपरिग्रह पर लघु कथायेंः-
            एक नगर में एक सेठ रहता था, उसके सामने एक गरीब का झौंपड़ा था। वह गरीब दिन भर खूब मेहनत करता था तथा रात को 1 रूपया कमा कर लाता था, जिससे उनके घर में रोज नित नये पकवान बनते रहते थे, उसके पास कुछ थोड़ा बहुत पैसा ही शेष बचता था। सेठानी ने उन्हें देखकर सेठजी से कहा कि देखो इनका जीवन कितना अच्छा है और हम इतने धनवान होते हुए भी साधारण भोजन खाते हैं। सेठजी ने कहा कि यह निन्यानवें के फेर में नहीं पड़ा है इसलिये मौज में जी रहा है। सेठ ने 99 रू. एक पोटली में बांध कर उसके घर में फेंक दिये । उस गरीब और उसकी पत्नी को जब वे रूपये मिले तो उन्होंने विचार किया कि इसमें यदि 1 रू. मिला दिया जाये तो 100 रू. जमा हा जायेंगे। और उन्होंने अगले दिन से साधारण भोजन बनाना शुरू कर दिया, और इस तरह रू. जोडने में लग गये। सेठजी ने सेठानी से कहा कि देखो आ गया ने यह भी निन्यानवें के फेर में। भावार्थ है कि हमें संयंमित जीवन बिताना चाहिये, जैसा कि भगवान बुद्ध ने कहा है कि वीणा के तार को इतना भी नहीं कसो कि वह टूट जाये तथा इतना ढीला भी नहीं रखो कि वीणा बजे ही नहीं। अर्थात् हमें बुद्धि पूर्वक विचार करते हुए संयमित जीवन जीना चाहिये।
            एक कंजूस सेठ ने काफी रूपये जोड़ कर जमीन में गाढ दिये। वह रोज उन्हें देखता था कि कहीं कोई ले तो नहीं गया। एक दिन उसके नौकर ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया। नौकर ने उसके वहां पर जाने के बाद वह रूपये वहां से निकाल लिये और वहां से कही अन्यत्र चला गया। अगले दिन कंजूस सेठ ने देखा कि रूपये गायब है और नौकर भी गायब है। तब उसने इसकी शिकायत दरबार में की। राजा ने कहा कि भाई तुम वैसे भी रूपयों को देखते ही तो थे, काम में तो लेते नहीं थे, अतः वह धन वहां होने या नहीं होने का कोई महत्व ही नहीं है। अर्थात्  हमें धन पर कुंडली मार कर नहीं बैठना चाहिये।
            एक सेठ के घर के पास एक मौची रहता था, वह प्रतिदिन प्रभू भजन गाता था मस्त रहता था। सेठ ने कभी उसके भजनों पर ध्यान नहीं दिया। एक बार सेठ बहुत बीमार हो गया । सभी वैद्य उसका इलाज करने में विफल हो गये । एक दिन सेठ का ध्यान उस मौची द्वारा गाये जा रहे प्रभू भजनों पर पड़ा, उसे अंदर से बहुत खुशी और शांति प्राप्त हुई। धीरे-धीरे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसने उस मौची को बुलवाया और उसे बहुत सा धन भेंट स्वरूप दिया। उस धन के कारण वह मौची आलसी हो गया। उसने काम करना छोड़ दिया, प्रभू भजन भी छोड़ दिया। उसकी दुकान चैपट होने लग गई। उसे जो प्रभू भजन में आनन्द आता था वह भी समाप्त हो गया वह भी बीमार जैसा होने लगा। सेठ भी वापस बीमार होने लगा। उसने निश्चय किया कि यह अपार धन ही शांति/आनन्द में बाधक है। अतः उसने सेठ को धन वापस लौटा दिया और फिर से अपना वहीं पुराना आनन्दमय जीवन शुरू कर दिया। अर्थात् अपार धन सम्पदा एक योगी/तपस्वी की शांति में बाधा का काम करती है।
            एक भिखारी भीख मांग कर अपना गुजारा करता था। एक दिन उसे पता लगा कि एक राजा वहां से गुजरने वाला है, उसने सोचा कि आज तो अच्छी भीख मिलेगी। राजा वहां से गुजरा उसने राजा के आगे भीख के लिये हाथ फैलाये राजा ने उसके आगे अपने हाथ फैला दिये। भिखारी के पास देने को कुछ भी नहीं था। उसके पास कुछ जौ के दाने थे, उसने दो दाने राजा की झोली में डाल दिये क्योंकि जिसने जीवन भर मांगा ही था वह अधिक कैसे दे सकता था। उसे उस दिन अच्छी भीख मिली। वह घर आया उसने अपने जौ बरतन में खाली करे तो देखा कि गेहूं के दो दाने सोने के हो गये थे। वह बहुत पछताया । अर्थात् हमें त्याग पूर्वक धन का उपभोग करना चाहिये।
            एक बहुत धनी युवक एक धर्म गुरू के पास गया और पूछा कि उसे अपने जीवन में क्या करना चाहिये? धर्मगुरू उसे खिड़़की के पास ले गया और कहा कि इस खिड़की के पार क्या दिखाई दे रहा है। उसने कहा कि कुछ लोग आ जा रहे हैं और एक बेचारा अंधा भीख मांग रहा है। फिर धर्म गुरू ने उसे एक बड़ा दर्पण दिखाया और पूछा कि इसमें देखकर बताओं क्या दिख रहा हैयुवक ने कहा कि मैं ही दिखाई दे रहा हूं। धर्मगुरू ने समझाया कि कांच दोनों समान पदार्थ के बने हुए हंै, लेकिन जिस कांच पर चांदी की परत चढ़ी हुई है, उसमें केवल हम स्वयं को ही देख पाते हैं अर्थात् स्वार्थी बने रहते हैं, लेकिन यदि हम वह स्वार्थ रूपी चांदी की परत को उतार दे ंतो हम अन्य लोगों के दुख-दर्द को भी देख पायेंगे, और अपरिग्रह अपना कर उनकी मदद कर सकेंगे।
यम-नियमों से अपरिग्रह का समन्वयः-
अहिंसा और अपरिग्रहः- यह सत्य प्रसंग भारत पाकिस्तान के विभाजन के दौरान का है। विभाजन के दौरान यह तय किया गया था कि सभी मुसलमानों को भारत में स्थित मकान तथा हिन्दुओं को पाकिस्ताान में स्थित मकानों को छोड़कर अपने देश में जाना होगा तथा जो मुसलमान स्वेच्छा से भारत में रहना चाहें वे भारत में रह सकते हैं, लेकिन अपना मकान छोड़ कर सरकार द्वारा दिया गया मकान लेना होगा। महात्मा आनन्द स्वामी जी का लाहौर में बहुत अच्छा मकान था, अतः बदले में उन्हें भारत में अच्छा मकान दिया गया, जो कि एक मुसलमान का था। वह मुसलमान उनके पास गया और उनसे निवेदन किया कि मेरी मां का मन इस मकान में अटका हुआ है और वह इस मकान को छोड़ने से बहुत दुखी है, इस मकान पर आपका अधिकार है, लेकिन यदि आप यह हमें वापस दिलवा दे ंतो आपकी बहुत मेहरबानी होगी। स्वामी जी ने सरकार से निवेदन किया कि यह मकान उसी मुसलमान को वापस दे दिया जाये तथा उन्हें कोई दूसरा मकान दे दिया जाये। सरकार ने उन्हें अवगत कराया कि अब केवल दो कमरे के मकान ही शेष हैं यदि आप लेना चाहें तो ले सकते हैं। आनन्द स्वामी जी ने वह दो कमरे का मकान ले लिया, जबकि उनका परिवार बड़ा था, उस हिसाब से वह मकान छोटा था। उन्होंने कहा कि जिस मकान के कारण एक मां का दिल दुखे उसमें मैं नहीं रह सकता। यह अहिंसा द्वारा अपरिग्रह का ही उदाहरण है। अतः हमें भी प्रयास करना चाहिये कि हमारे लालच के कारण किसी का दिल नहीं दुखे, तभी हम मोक्ष/प्रभू साक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि कबीरा हाय गरीब की कबहु ना निष्फल जाये, मरे बैल की चाम से लौहा भस्म हो जाये। जैसा कि कहा गया है नेकी कर दरिया में डाल।
सत्य और अपरिग्रह - स्वामी दयानन्द जी ने कहा है कि सत्य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने के लिये तत्पर रहना चाहिये। आध्यात्मिक सत्य तो सनातन है कभी बदलने वाला नहीं है। हां भौतिक परिर्वतन अवश्य नया सत्य हमारे सामन लाता रहता है। जैसे कि पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी कि एक छोटा से मोबाईल में इतनी सारी सुविधायें मिल सकती हैं, लेकिन आज यह सामने है और हमें इस सत्यता को भी स्वीकार करना चाहिये। हमें सत्य/सतोगुण का परिग्रह करना चाहिये और असत्य/तमोगुण का अपरिग्रह करना चाहिये। तभी हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं।
सत्य का परिग्रह के संबंध में एक सत्य प्रसंग है कि आनन्द स्वामी जी अंग्रेजों के समय अखबार चलाते थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि 4000 रू. की कीमत की कोई कार खरीद लाये। पुत्र 2000 की कार खरीद लाया और पिताजी से कहा कि पिताजी मैंने 2000 रू. बचा लिये हैं और 2000 रू. की कार खरीद लाया हूं। स्वामी जी ने कहा कि मैंने तुम से कहा था कि 4000 रू. की कार खरीद कर लाना, तुम ने ऐसा क्यों किया, चलो ठीक है जो हुआ सो हुआ। पुत्र ने कहा कि पिताजी बैठकर तो देखों कार कैसी है? स्वामी जी ने कहा कि नहीं मैंने इसे अपने लिये नहीं मंगाई है, इसे गैराज मंे ले जाकर रख दो।
दरअसल उन्होंने यह कार सत्य की कीमत चुकाने के लिये खरीदी थी। अंग्रेजों ने उनके शासन के विरूद्ध समाचारों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा रखा था, जिनके छापने पर अखबार की जमानत जब्त कर ली जाती थी और पुनः अखबार चालू करने के लिये दंड स्वरूप 4000 रू. उन्हें अंग्रेज सरकार को जमा करवाने पडे़। उस समय 4000 रू. की कीमत लाखों में थी। 2000 रू. उन्होंने उस पुरानी कार को बेचकर तथा शेष 2000 रू. इधर-उधर से कर के जमा करवायें, पुत्र को भी तभी पता चला कि पिताजी ने कार सत्य की कीमत चुकाने के लिये खरीदी थी। ऐसा होता है सत्य के लिये धन का अपरिग्रह।
अस्तेय और अपरिग्रहः- जो लालची है, वही परिग्रह में लगा रहता है। वही यह सोचता रहता है कि मुझे यहां से वहां से कहीं से भी धन-दौलत मिल जाये तथा व्यर्थ (विषय-विकार संबंधी विचार) व दूसरों के विचारों में खोया रहता है। मोह रूपी जड़ की उपज है लोभ और यह एक बहुत बड़ा विकार है, जो इस संसार से बंधन का एक मुख्य कारण है। आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति हेतु इसका त्याग आवश्यक है। महात्मा ईसा मसीह ने भी कहा है कि यदि कोई कहे कि सुंई के नाके से ऊंट का निकलना सम्भव है तो यह मान सकता हूूं लेकिन यदि कोई कहे कि एक धनिक का स्वर्ग में प्रवेश सम्भव है, तो मैं यह मानने के लिये तैयार नहीं हूं।  अतः हम कम से कम पराये धन व काले धन से दूर रहें तथा यदि सक्षम हो तो यदि किसी के मदद कर सकते हैं तो करें।
शौच और अपरिग्रहः- जैसा कि कहा गया है मन चंगा तो कठौती में गंगा । मन के हारे हार है मन के जीते जीत। अर्थात जो तन-मन-धन से परिग्रह में लगा हुआ है, उसका अंतकरण पूर्णतः शुद्ध हो ही नहीं सकता है। इस सबंधं में एक सत्य कथा है, एक सज्जन सन्यांस के लिये काफी समय से गुरू से दीक्षा देने की याचना कर रहे थे, लेकिन गुरू उन्हें बार-बार यही कहते कि अभी समय नहीं आया है, अभी और तपस्वी बनना है। उस सज्जन का मन ध्यान करते-करते इतना निर्मल हो गया कि वह भिक्षा पात्र लेकर अपने शत्रु के घर भिक्षा मांगने गया, वह व्यक्ति पूर्व में उसका मित्र था। उसने मित्र को आवाज लगायी तथा मित्र से क्षमा मांगी। मित्र ने उसे गले से लगा लिया। जब वह सज्जन अपने मित्र से क्षमा मांगने के पश्चात गुरू के पास पहुंचे, तब गुरू ने कहा कि आज तुम संयास दीक्षा के लिये तप चुके हो आज तुम्हें संयास की दीक्षा दी जायेगी।
अतः मन में किसी भी तरह के बुरे विचारों का परिग्रह नहीं करने का अभ्यास ही हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है।
संतोष और अपरिग्रहः- संतोष और अपरिग्रह का चैली दामन का साथ है, जो वास्तव में पूर्ण संतोषी होगा वही असली अपरिग्रह कर सकता है। जैसे कि इस मिथ्या संसार से जुड़े रहते हुए भी लाल बहादूर शास्त्री जी और गांधीजी ने संतोष पूर्वक अपरिग्रह का पालन किया। लालबहादूर शास्त्रीजी कही ट्रेन से जा रहे थे, उस समय ए.सी. कोच नहीं होते थे, अतः उनसे बिना पूछे उनके लिये कूलर लगा दिया। जब शास्त्री जी ट्रैन में चढ़े तो कूलर देखकर नाराज हुए और कहा कि जब अन्य यात्री बिना कूलर के सफर कर रहे हैं तो हमारे लिये यह कूलर मुझसे बिना पूछे क्यों लगवाया और उन्होंने कहा कि इसे अगले स्टेशन पर उतरवा देना। वे एक परम संतोषी महामानव थे, उन्होंने प्रधानमंत्री होते हुए भी साधारण जीवन व्यतीत किया। उनका और गांधीजी का जीवन इस कीचड़ रूपी संसार में रहते हुए संतोष और अपरिग्रह के समन्वय का दृृढता से  पालन करने का उदाहरण है।
तप और अपरिग्रहः- जैसे कि भरतजी ने रामचन्द्र जी के वनवास पर जाने पर पहले तो उनसे विनती की कि आप ही राज सम्भाले क्योंकि ईश्वर ने आप ही को इस के लिये चुना है, इसीलिये उन्होंने आपको बड़ा भ्राता बनाया है तथा राज्य सिंहासन पर बड़े भ्राता का ही अधिकार होता है। रामचन्द्र जी ने पिता की आज्ञा के पालन के लिये भरतजी की इस बात को स्वीकार नहीं किया। तब भरत ने उनकी चरण पादुका राज्य सिंहासन हेतु मांगी और उन्हें अपने सर पर रखकर अयोध्या लौटे उन्होंने उनकी चरण पादुका को सिंहासन पर विराजमान करके तथा महल मेें ही वनवासी की तरह साधारण जीवन व्यतीत करते हुए प्रतिदिन उनकी चरण पादुका की पूजा करते हुए राज्य का कार्य किया। यही वास्तविक रूप से तप और अपरिग्रह का उदाहरण है। लक्ष्मण जी का भी अपने बड़े भ्राता के लिये सब कुछ त्याग कर वन का चयन किया यह भी अपरिग्रह और तप के समन्वय का उदाहरण है। आज के युग में तो सम्पत्ति के लिये भाई ही भाई का दुश्मन हो जाता है, जैसे कि आप कोर्ट में आपको परिवारजनों के आपसी विवाद के कई प्रकरण मिल जायेंगे।
एक विषय-विकार से मुक्त निष्पाप तपस्वी ही पूर्णतः अपरिग्रह का पालन कर सकता हैजैसे कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, शंकाराचार्यजी, दयानन्दजी आदि। सुख-सुविधायें होने के बावजूद यदि कोई उनको त्याग कर जीवन बिताता है तो यह सबसे बड़ा अपरिग्रह रूपी तप है।
स्वाध्याय और अपरिग्रहः- स्वाध्यायी व्यक्ति ही अपरिग्रह की ओर अग्रसर हो सकता है। स्वाध्यायी अर्थात् प्रभू का ध्यान लगाने वाला, अथवा अपने शरीर के किसी चक्र पर ध्यान लगाने वाला अथवा श्वास-प्रश्वास या धड़कन पर ध्यान लगाने वाला तथा जो अपने आदर्श महापुरूष के ग्रंथों का अध्ययन करने वाला है, तथा उनके वचनों को सज्जनों के समूह में या किसी भी माध्यम यथा-टी.वी., डी.वी.डी., मोबाईल आदि से सुनने वाला है तथा जो अपना जो भी कार्य हो उसे पूर्ण लगन से करता है तथा परोपकारी है, सेवा भावी है ऐसा व्यक्ति ही तो त्याग कर सकता है, ऐसा व्यक्ति ही अपरिग्रह का पालन करने की और बढ़ सकता है।
ईश्वर प्राणिधान और अपरिग्रह - जो मुक्ति को ध्यान में रखते हुए कर्म करता है अथवा जो आत्मा/परमात्मा साक्षात्कार के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कर्म करता है वह समस्त शुभ कर्मों को ही करता है कोई भी अशुभ कर्म नहीं करता है, क्योंकि अशुभ कर्म ईश्वर को अथवा मुक्ति को ध्यान में रखते हुए नहीं किये जा सकते हैं। जो महान आत्मा निष्काम शुभ कर्म करती हैं, वे परिग्रह नहीं करती हैं, जैसा कि महापुरूषों के जीवन-दर्शन से विदित हो जाता है। जो निष्काम सत्कर्म करता है उसकी मदद प्रभू/प्रकृृति भी करती है, जैसा कि निम्न सत्य कथाओं द्वारा विदित होता हैः-
महात्मा आनन्द स्वामी पूर्णतः एक सच्चे सन्यासी थे, उन्होंने सदैव शुभकर्म ही किये थे। मानसरोवर की यात्रा के दौरान उनके एक पैर में चोट लग गई। उनके साथी उन्हें एकेला छोड़कर चले गये। उन्होंने कुछ कुलियों की मदद से वापसी यात्रा प्रारम्भ की रात्रि होने पर उन लोगो ने उनके पास लकड़ियां रख दी और वे सुबह आने के लिये कहकर चले गये। वे वापस नहीं आये स्वामी जी को तीन दिन हो गये, खाने का सामान भी समाप्त हो गया, उन्होंने सोचा कि अब बचना मुश्किल है, लेकिन तभी वहां से कुछ लोग गुजरे वह आम रास्ता नहीं था, लेकिन दुर्घटना के कारण आम रास्ता बंद हो गया था इस कारण व इस रास्ते से जा रहे थे। उन्होंने स्वामी जी के खाने-पीने का प्रबन्ध किया और कहा कि तीन दिन बाद वापस आयेंगे तब यहां से ले जायेंगे। तीन दिन बाद वे उन्हें लेकर गये। तब एक आधा फुट चैड़ा तंग रास्ता आया, जिसके दोनों तरफ खाई थी जो कि लगभग दो फर्लांग का था, वहां एक आदमी के पांव रखने की भी जगह नहीं थी। आनन्द स्वामी जी से चला भी नहीं जा रहा था, दो लोग दोनों ओर से पकड़ कर उन्हें ले जा रहे थे। स्वामीजी ने अपने घर वालों के नाम पत्र लिख दिया कि मेरा बचना अब मुश्किल है। वे प्रार्थना करने के लिये बैठे और अकेले चल पड़े, बिना किसी सहारे के और रास्ता पार कर लिया। देखने वाले चकित हुए, वे स्वयं भी चकित हुए। उन्होंने इसे प्रभू का ही बहुत बड़ा चमत्कार माना, उनका जीवन दान माना।
योगी श्री राम   ने अपनी पुस्तक में अपने जीवन से जुडी हुई एक सत्य घटना का वर्णन किया है। एक बहुत विद्वान तर्कशास्त्री था, वह तर्कों के आधार पर यह नहीं मानता था कि किसी अदृृश्य शक्ति का अस्तित्व इस ब्रह््मांड मेें है। उनकी भेंटयोगी श्री राम से हुई, उन्होंने उससे तर्क नहीं किया केवल इतना कहा कि हम कहीं बर्फीले स्थान पर घूम कर आयें। वे दोनों यात्रा पर निकल पडे़। घाटी पर ऊपर पहंुचने पर बर्फ बारी शुरू हो गई। वहीं पर तम्बू डाला गया। बर्फबारी के कारण आधा तम्बू ढक गया। तर्कशास्त्री बहुत घबराया और उसने कहा कि अब मृृत्यु निश्चित है श्री राम योगी मुस्कारये और बोले कि अभी भी यदि हम उस अदृृश्य शक्ति से प्रार्थना करें तो वह हमें इस संकट से बचा सकती है। तर्कशास्त्री बहुत क्रोधित हुआ, उसने कहा मरना तो है ही लेकिन यदि तुम्हारी यह बात गलत सिद्ध हुई तो मैं पहले तुम्हें मारूंगा। श्रीराम ने स्वीकार कर लिया और प्रार्थना करने बैठ गये। बर्फबारी से तम्बू का द्वार ढकता जा रहा था। तम्बू का कुछ हिस्सा ही ढकना बाकी था कि बर्फबारी रूक गई। तर्कशास्त्री ने भी इस चमत्कार को देख कर उस अदृृश्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार किया, और वह उसका जीवन उसी दिन से परिवर्तित हो गया।
रामकृृष्ण परमहंस जी ने इसे बहुत सुन्दर ढंग से संक्षेप में समझाया है उन्होंने दो पत्थर लिये एक उस अदृृश्य शक्ति (ब्रह्म) का दूसरा प्रकृृति/माया का मानते हुए माया रूपी पत्थर को ऊपर रखकर समझाया कि हमें इसी माया रूपी पत्थर के कारण उस अदृृश्य शक्ति (ब्रह्म) का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। उसे देखने के लिये प्रकृृति (मोह-माया रूपी पत्थर) को उठाकर नीचे रखकर उसके उपर उस पत्थर (अदृश्य शक्ति/ब्रह्म रूपी पत्थर) को ऊपर रखने पर ही उस अदृृश्य शक्ति का साक्षात्कार किया जा सकता है। जैसा कि सभी मानते हैं कि यह संसार नश्वर है। इससे मोह-माया को तोड़ कर, निष्पाप होकर तथा विषय-विकार से मुक्त होकर ही उसका साक्षात्कार कर सकते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो निष्काम शुभ कर्म करता है, उसकी वह अदृृश्य शक्ति मदद करती है। जैसे कि भगवान बुद्ध की अंगुलिमाल से, महावीर स्वामी की शूलपाणि से । जो अपरिग्रह का पूर्णतया पालन करता है, उसे इस संसार में उस अदृृश्य शक्ति का सानिध्य मिलता है तथा परमानन्द की प्राप्ति होकर मुक्ति का रास्ता प्रशस्त होता है। मुक्ति के लिये निष्काम शुभ कर्म करते हुए अपरिग्रह का पालन करना परमावश्यक है। निष्काम कर्म ही प्रभू स्वीकार करता है।
सारांश
            आज इस कलियुग में महान विभूतियों की तरह सब कुछ त्यागना साधारण मनुष्य के लिये बहुत कठिन कार्य है। यदि हमें मुक्ति चाहिये अथवा परमानन्द की प्राप्ति करनी है तो हमें केवल धन-सम्पदा का ही नहीं अपितु व्यर्थ विचारों का भी अपरिग्रह करना होगा। अतः हम यही अभ्यास करें कि हमें यथा सम्भव प्रयास करना चाहिये कि जो भी कुछ त्याग कर सकें, करें। यदि पूर्ण नही ंतो कुछ प्रतिशत/अंशों में ही उन महान विभूतियों की तरह बनने का प्रयास करें तथा हमारे कर्तव्य पूर्ण होने पर तो कम से कम अपना सबकुछ अपने परिवार के सुपुर्द कर इस परिग्रह रूपी माया से अलग हो जायें। यदि हमारे में इस परिग्रह रूपी माया को छोड़ने का साहस नहीं है तो हमें पुनः इस संसार में आना पड़ेगा तथा हम भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, दयानन्दजी, योगेश्वरानन्द जी, आनन्द स्वामी जी, रामकृष्ण परमहंस जी, विवेकानन्द जी, जैमलसिंह जी आदि की तरह धर्म की राह पर चलते हुए जन्म-मरण रूपी बंधन के चक्र से नहीं छूट सकते हैं।
            यदि हमेें यह संसार ही प्रिय है तो कम से कम हम दान नहीं कर सकें तो किसी का धन/सम्पदा हड़पने का प्रयास तो नहीं करें, जैसा कि सत्य लोकोक्ति है तथा इनका उपदेश महापुरूषों ने भी दिया हैः- जो बोयेगा वही पायेगा, तेरा किया आगे आयेगा, सुख-दुख है क्या फल कर्मों का, जैसी करनी वैसी, भरनी तथा भला किसी का कर ना सको तो बुरा किसी का मत करना, पुष्प नहीं बन सकते हो तो कांटे बनकर मत रहना। हम कम से कम अशुभ कर्मों का तो अपरिग्रह करें जिससे हमारा अगला जन्म शुभ हो।

Comments

Popular posts from this blog

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥'

ब्रह्मचर्य Celibacy Brahmacharya

भावार्थ - या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥'