स्वाध्याय Self-study, self-education, सत्संग
वेद का
अर्थ होता है ज्ञान।
वेद ही
ज्ञान का सागर हैं, पहले भी विदेशियों ने इस पर शौध किये हैं और आज भी कर रहे हैं। जो
मुक्ति हेतु कर्म से संबंधित सत्य ज्ञान है उसी का उपदेश अधिकांशतः सभी महापुरूषों
ने किया है।
चाहे
भगवान बुद्ध हो, चाहे महावीर स्वामी हो, चाहे
ईसामसीह हो, चाहे हजरत मौहम्मद साहब हो, गुरूनानक
जी हों, कबीरजी हों या अन्य कोई भी महापुरूश हो सभी ने मुक्ति के लिये कर्म
के संबंध में जो उपदेश दिये है, वे सभी वेद में पहले से ही
विद्यमान है।
किसी भी
पावन अंतकरण वाले विरक्त शुद्धात्मा स्वरूप महापुरूश के मुख से मानव व इस जगत के कल्याण
के लिये जो भी समान वाणी निकली है, उस वाणी
का पालन तो सभी के लिये अनिवार्य है, और उस
समान वाणी का पालन करके ही कोई वास्तविक रूप से स्वाध्यायी बन सकता है।
स्वाध्याय
का अर्थ है मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार के लिये ध्यान करना, अपने कर्मों का चिंतन-मनन करना, सद्ग्रंथों
का अध्ययन करना, सत्संग सुनना व आचरण में लाने का अभ्यास/प्रयास करना तथा परहित के
लिये सेवा कार्य में लगे रहने का अभ्यास/प्रयास करते रहना ही स्वाध्याय है।
स्वाध्याय के आधार पर अपना सुधार किये बिना कोई भी मुक्ति की प्राप्ति या प्रभू
साक्षात्कार नहीं कर सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता
में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
स्वाध्यायाभ्यसन
चैव वाड.मयं तप उच्यते ।। -- (१७/१५) अर्थात- स्वाध्याय करना ही प्राणी का तप है
छन्दोग्य
उपनिशद् में लिखा है-
आचार्य
कुलाद्वेद मघीत्य यथा विधान गुरो कर्माति, शेषणाभि
सहावृत्य कुटुम्बे शुचै देशे स्वाध्याय
मधीयानों
धार्मिकान विदधात्मनि सर्वेन्द्रियाणि, सम्प्रतिष्ठाप्याहिंसन
सर्वेभूतानी अन्यत्रा तीर्थेभ्यः स
खल्वेश
वर्तयन यवादायुषं ब्रह्म लोकमभिः सम्पद्यते -(८/१५/१)
अर्थात-
ब्रह्मचारी आचार्य कुल से आर्ष- ग्रंथों को पढ़कर यथा- विधि सेवा- सुश्रूवा आदि
करता हुआ समावर्तन संस्कारयुक्त परिवार में रहकर पवित्र स्थान में स्वाध्याय
द्वारा स्वयं अपने को, संतानों को एवं अन्य जनों को धार्मिक बनाता हुआ समस्त इंद्रियों को, आत्मा के अधीन करता हुआ, तीर्थ-
स्थानों के अन्यत्र भी प्राणियों की हिंसा न करता हुआ, समस्त आयु इस प्रकार वर्त्ता हुआ मोक्ष- पद का अधिकारी बन जाता है
तथा जन्म- मरण के चक्र से छुट जाता है ।
शतपथ
ब्राहम््ण में स्वाध्याय के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन अच्छे
ग्रंथों का पाठ करता है, उसे उतना ही पुण्य मिलता है, जितना
कोई व्यक्ति धन, अन्न हीरे, सोने, मोती और पषुओं से भरी हुई सारी पृथ्वी को दान करके प्राप्त करता
है।
स्वाध्याय
का हमारे जीवन में बहुत प्रभाव पड़ता है, इस संबंध
में एक कथा हैः-
एक ही
तोते से उत्पन्न उनके दो तोते शिषुवस्था में ही तूफान के कारण बिछड़ जाते हैं, एक डाकूओं के क्षेत्र में पहुंच जाता है तो दूसरा साधू के आश्रम के
निकट पहुंच जाता है। एक दिन एक राजा शिकार के लिये निकलता है, तो विश्राम करने के लिये एक पेड़ के निकट रूकता है, घोड़े को पेड़ से बांध देता है, जेैसे ही
विश्राम के लिये पेड़ के नीचे सोने लगता है, उस पेड़ पर
बैठा हुआ तोता जो कि डाकुओं के क्षेत्र में रहता था, जोर-जोर
से तेज आवाज में चिल्लाता है, पकड़ो, लूटो, मारो, जाने ना पाये। राजा एकदम घबरा जाता है, और तुरंत घोड़े पर बैठकर वहां से कहीं दूर निकल जाता है। काफी दूर
पहंचने पर एक साधू की कुटिया आती है, वहां पर
उस तोते का भाई रहता था। उसने राजा को देखते ही बहुत ही मधुर वाणी में कहा आओ राजन, बैठो, विश्राम करो, शीतल जल पिओ। महात्मा जी
अभी भोजन के लिये गये हुए हैं, कुछ देर में वापस आ
जायेंगे।
कहने का
तात्पर्य है, एक ही पिता की संतान एक ही गुणसूत्र होने पर भी संगति के कारण जीवन
परिवर्तित हो जाता है।
तो हम
यदि अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करेंगे, सज्जन
लोगों के साथ रहेंगे तो सज्जन बनेंगे, सेवा
भावी बनेंगे और इसके विपरीत यदि हम तामसिक ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो वैसे ही
बनेंगे तथा किसी भी तरह का दुष्कर्म करने में हिचकिचायेंगे नहीं।
अर्थात्
स्वाध्याय ही वह गुण है जो हमें पुरूष से महापुरूष बनने की प्रेरणा देता है और सतत
अभ्यास करने से मुक्ति पथ का अधिकारी बना देता है।
प्रथम तो
जो व्यक्ति स्वाध्यायी है, वह अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता है, अपने
प्रत्येक क्षण का उपयोग वह अपने संस्कारों को सुधारने में लगाता है, इस तरह वह समस्त बुरे कर्मों से बचता रहता है, क्योंकि उसे ऐसा महसूस होता है कि उसे अपना निश्रेयस रूपी उत्थान
करने के लिये बहुत कम समय मिलता है, इसलिये
वह अपने जीवन के हर क्षण हर पल को ध्यान लगाने में, सद्ग्रंथों
का अध्ययन करने में अथवा सेवा कार्य में लगाता है, ऐसे
व्यक्तियों में सात्विकता की प्रबलता होती है। सात्विक व्यक्ति सदैव यही प्रार्थना
करता है कि है ईष्वर सभी का भला हो। जैसे कि आनन्द स्वामी जी का उपनिषदों के संदेश
पर व्याख्यान चल रहा था सातवंा और अंतिम दिन था, उन्होंने
सभी सुनने वालों से कहा कि आज मैं इस सत्संग की समाप्ति पर तुम से इस सत्संग के
बदले में दक्षिणा मांगता हूं, फिर कहा कि आप सोच रहे
होंगे कि अगर कल कहते तो हम रूपये-पैसे लेकर आते। उन्होंने कहा कि मुझे
रूपये-पैसों की आवष्यकता नहीं है, बहुत रूपये देखें हैं, कार, तांगे सब देखा है, इन सबको छोड़कर ही तो
सन्यासी बना हूं। मैं मेरी झोली फैलाता हूं आते जाओ और अपने दुख-दर्द, तकलीफ, चिन्ता-फिक्र सब इस फकीर की झोली में डालते जाओ। ऐसी होती है
सात्विकता।
जिन
व्यक्तियों में राजसिक तत्व की प्रबलता होती है, उन्हें
धर्म अच्छा तो लगता है, वे गुरू भी बना लेते हैं, सत्संग
में भी जाते हैं, लेकिन उसके लिये वे मेहनत नहीं करना चाहते, अर्थात् उपदेश के आधार पर अपना सुधार करने का प्रयास नहीं करते हैं, उनका मन मनोरंजन करने में, गप्पें
लड़ाने में ही लगा रहता है। ऐसा करने से वे किसी का बुरा तो नहीं करते, लेकिन वे अपना समय भी अवष्य ही व्यर्थ गंवाते हैं।
जिन
व्यक्तियों की प्रवृत्ति तामसिक होती है, उन्हें
धर्म अच्छा लगता ही नहीं है हां यदि उसमें थोड़ी सी भी सात्विकता है तो वह अपने को
बहुत बड़ा धार्मिक मानता है, लेकिन कभी भी ना तो सत्संग सुनना पसंद करता है, ना धार्मिक पुस्तकें ही पड़ना पसन्द करता है। सभी व्यर्थ व तामसिक कार्यों में लगा रहता है। वह
अपने दुख से कम दुखी होता है दूसरों के सुख को देखकर अधिक दुखी होता है, वह यही सोचकर ईष्र्या करता ही कि किसी को भी अगर थोड़ा सा सुख मिला
तो क्यूं, अंदर ही अंदर वह कुड़ता रहता है।
स्वाध्याय
और यम-नियम का आपस में समन्वय
स्वाध्याय
और अहिंसा - अहिंसा के बिना स्वाध्याय अधूरा है। जिसके मन में हिंसा का वास है, उसे सत्य साधना करने के कारण सिद्धि तो मिल सकती है, लेकिन आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं मिल सकता है। प्रभू उसके समक्ष ही
अपना स्वरूप प्रकट करता है जो अहिंसक है। अहिंसा के बिना स्वाध्याय अपूर्ण है।
जैसे कि किसी भी वस्तु को तैयार करने के लिये बहुत सी अलग-अलग सामग्री की आवष्यकता
होती है। अर्थात् किसी को रोटी चाहिये तो कम से कम आटा, पानी, अग्नि तथा चूल्हा होना अनिवार्य है। इसी तरह अहिंसा के बिना
स्वाध्याय उस परम लक्ष्य को पाने की दृष्टि से अपूर्ण ही है।
स्वाध्याय, अर्थात् धार्मिक सद्ग्रंथों का अध्ययन, साधुजनों की संगति, ईष्वर का
ध्यान अथवा व्यर्थ संकल्प/विकल्पों को छोड़कर किसी भी एक स्थान पर मन को एकाग्र
करने के कारण पुरूष से महापुरूष बने साधुजनों की वाणी में इतना बल होता है कि
व्यक्ति तामसिकता को छोड़ देता है, जैसे किः-
योग्ेष्वरानन्दजी
ने अजीजा, चोर व लालसिंह डाकू को समझाया और उन्होंने उस पेश को छोड़ दिया।
पं.
लेखराम जी का उपदेश सुनने डाकू मंगला पहंुंचा, उसे
देखकर सभी व्यक्ति वहां से चले गये केवल वह और उसके साथी ही उपदेश सुनते रहे।
लेखराम जी समझा रहे थे कि हम जो भी कर्म करते हैं उसका फल हमें भोगना ही होगा।
डाकू मंगला उनसे मिलने उनके निवास स्थान गया और उनके उपदेश के कारण उसने व उसके
साथियों ने डाकू के पेषे का त्याग कर दिया और साधु बन गये।
प्रसिद्ध
वैज्ञानिक गैलीलियो के एक पडौसी का
व्यवहार आस-पास के किसी भी व्यक्ति से सही नहींे था। गैलीनियो की प्रसिद्धि से तो
उसे अत्यधिक जलन थी। बिना बात उनसे उलझता रहता था, उनकी
बुराई करता रहता था, लेकिन गैलीलियो उसे कुछ नहीं कहते थे, मौन रहते थे। एक बार उस व्यक्ति की पत्नी बहुत बीमार हो गई और उसकी
स्थिति ऐसी थी कि उसे अकेले छोड़कर वह डाॅक्टर को बुलाने भी नहीं जा सकता था तथा
सभी पड़ौसी उससे नाराज थे, इसलिये कोई भी उसकी मदद नहीं करना चाहता था। लेकिन गैलीलियो को जब
यह पता चला तो वह डाॅक्टर को साथ लेकर गये और
उसके दरवाजे पर दस्तक दी, उस समय वह व्यक्ति चिंता
में डूबा हुआ था, जैसे ही उसने दरवाजा खोला वह आष्चर्यचकित रह गया। गैलीलियो ने उससे
अंदर आने की अनुमति मांगी। जब डाक्टर और गैलीलियो वापस जाने लगे तो वह व्यक्ति
उनके चरणोें में गिर गया और उनसे पूछा कि मैंने तो आपके साथ सदा बुरा व्यवहार किया, फिर आपने मुसीबत के समय मेरी मदद क्यों की? गैलीलियो ने उत्तर दिया कि आपका जो कर्तव्य बनता था, आपने किया। और मेरा जो बनता था वह मैंने किया, आखिर मुझे तो पड़़ौसी का फर्ज निभाना ही था। अर्थात् - गैलीलियो
सात्विक प्रवृत्ति के थे, यह ईष्वर की प्रेरणा से महापुरूषों द्वारा किया गया उपदेश ही तो है
कि जो हमारा अहित चाहे उसका भी हम यदि सम्भव हो तो हित ही करें, अहित कदापि ना करें। सत्य धर्म पथ पर चलने वाले के लिये ऐसा
व्यवहार करने पर ही वह वास्तव में स्वाध्यायी मानने योग्य है अन्यथा नहीं ।
स्वाध्याय
और सत्य - वास्तव में केवल सात्विक व राजसिक प्रवृत्ति के लोग ही स्वाध्याय कर
सकते हैं, तामसिक प्रवृत्ति का व्यक्ति स्वाध्याय नहीं कर सकता है, जब तक उस पर किसी महापुरूष की कृपा नहीं होती। जैसे कि वाल्मिकी जी
ने तामसिक प्रवृत्ति का त्याग किया और साधना शुुरू की तो उनके मंुह से मरा, मरा ही निकलता था, बहुत समय व्यतीत होने के
बाद राम का उच्चारण शुरू हुआ। इसी तरह यदि कोई राजसिक प्रवृत्ति का असत्यवादी
व्यक्ति असत्य को अपने जीवन का अंग बना ले तो
उसे आत्मा/परमात्मका का साक्षात्कार नहीं हो सकता है तथा मुक्ति भी नहीं
मिल सकती है। सत्य वचन, सत्य आचरण, सत्य श्रवण, सत्य दर्षन के बिना कोई भी आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर
सकता है।
जिन्होंने
अपने धर्मउपदेषक के ज्ञान के आधार पर सत्यव्रत का संकल्प ले रखा है, वास्तव में ऐसे व्यक्ति ही सत्य स्वाध्यायी हैं। जो अपनी आत्मा का
अथवा प्रतिदिन प्रतिक्षण अपने किये गये कर्मों का आकलन करता है ऐसा व्यक्ति ही
स्वाध्यायी है। ऐसे व्यक्ति सत्यपथ से विचलित नहीं होते हैं, चाहे इसके लिये उन्हें नुकसान ही क्यों नही उठाना पड़े। इस सबंध में
श्री रामषास्त्री जी का एक दृष्टांत उल्लेखनीय हैः-
श्री
रामषास़्त्री जी पेशवाओं के न्यायधीश थे। वे न्याय प्रिय, निर्भय, कर्तव्यनिष्ठ व साहसी थे तथा अपने सत्य सिद्धांतों पर सदा अटल रहते
थे। पेष्वा राघोबा ने अपने भतीजे की हत्या कर दी, लेकिन
इसका परिणाम सोच कर ही वे मन ही मन अत्यंत भयभीत थे, उन्हें
मालूम था कि रामषास्त्री हत्या का दण्ड केवल मृत्युदंड ही देते है। उनकी रानी ने
अपने पति की चिंता को महसूस किया तथा रामषास्त्री जी को महल में बुलवाया। उन्होंने
उनके पति द्वारा की गई हत्या के दंड के संबंध मे ंउनकी राय जाननी चाही। उन्होंने
स्पष्ट कह दिया कि अपराधी को दंड मिलना ही चाहिये, चाहे वह
कोई भी हो। रानी ने क्रोध में कहा कि जानते हो किस से बात कर रहे हो? उन्होंने जवाब दिया कि मैं आपके या पेशवा के डर से अथवा प्राणों के
मोह के कारण ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो न्याय क विरूद्ध हो। पेशवा को हत्या के अपराध
में आजीवन प्रायष्चित करना ही पडे़गा। उन्होंने गलत निर्णय देने से इंकार कर दिया
और अपने पद से त्याग पत्र दे दिया।
स्वाध्याय
और अस्तेय - जो अस्तेय का पालन नहीं करता है, उसका मन
कभी भी स्वाध्याय में नहीं लग सकता है, क्यांेकि
जो लोभी है, वही स्तेय के विचारों में डूबा रहता है कि किस तरह से जर, जोरू, जमीन आदि हासिल की जाये। ऐसे अधिकांश व्यक्ति स्वाध्याय भी करते
हैं तो बदले में धन, दौलत, मान, एैष्वर्य पाने के लिये। स्वाध्याय का फल तभी मिल सकता है, जब हम कामना रहित होकर अस्तेय का पूर्णतः पालन करंे।
जिसके मन
में स्तेय का भाव है, वह सच्चा स्वाध्यायी कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि सच्चा स्वाध्यायी देवता स्वरूप बनता जाता है, वह यदि सम्भव हो तो परहित में भी लगा रहता है। अतः ईष्वर की प्रेरणा
से हमारे महापुरूषों ने यही उपदेश दिया है कि अपनी मेहनत की तथा अपने हिस्से की
कमाई से जीवन यापन करना चाहिये। यदि कमाई हराम की होगी तो उसका खामियाजा भी एक
स्वाध्यायी को भोगना पड़ता है। इस संबंध में एक कथा इस प्रकार हैः-
एक साधु
किसी वन में वृक्ष के नीचे कुटिया बनाकर रहते थे, उनकी
कीर्ति के कारण राजा ने उसे अपना गुरू बना लिया और जिद करके उन्हें महल में रहने
के लिये ले आये। उन्हें वहां पर रहते हुए लगभग तीन महिने हो गये। एक दिन रानी
स्नान करने के पष्चात् अपना हार वहीं भूल गई। कुछ देर बाद साधु जी वहां स्नान करने
आये तो उन्होंने हार को देखा और उनका मन डांवाडोल हो गया और उन्होंने हार उठाया और
विषाल वन की ओर चले गये। रानी को हार की याद आई तो स्नानागार में दिखवाया नहीं
मिला, फिर पता किया कि उनके बाद कौन गया था, पता चला साधु जी, साधु जी को ढूंढा गया, वे महल से गायब थे। राजा ने साधु महाराज को ढूंढने के लिये सैनिक
भेज दिये। उधर साधु महाराज ऐसे रस्ते से गये थे, जहां से
बहुत कम लोग आते जाते थे। वे थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गये। भूख लगने पर कुछ कंदमूल
तोड़कर खाये। कंदमूल दस्तावर थे, इनके खाने से उसे दस्त हो
गये। रात-भर उसका पेट साफ होता रहा। सुबह होते-होते साधु के मन में यह विचार आया
कि तूने ऐसा क्यों किया? उसे अपने आपको धिक्कारा, और महल
की तरफ चल दिया। रास्ते में सिपाही मिले उसे पकड़ने के लिये आगे बढ़े उसने कहा कि
मैं स्वयं ही हार लौटाने राजा के पास जा रहा हूं, मुझे
पकड़ने की आवष्यकता नहीं है, यह हार मेरे किसी काम का नहीं है। उसने राजा को हार लौटाया, तो राजा ने कहा कि आप इसे लौटा ही रहे हो तो आपने इसे क्यों चुराया
था? साधू ने उत्तर दिया महाराज तीन महिने तक आपका अन्न खाने से मेरा मन
मैला हो गया, लेकिन दस्त लगने से वह सब निकल गया, तब मुझे
मेरी गलती का अहसास हुआ।
इसी तरह
महाभारत में भी जब भीष्म पितामाह उपदेश दे रहे थे, तब
द्रोपदी ने उनसे प्रष्न किया था कि पितामाह जब मेरे चरित्र का हनन करने का प्रयास
किया जा रहा था, उस समय आप मौन क्यों थे। तब पितामाह ने उत्तर दिया कि पुत्री पाप
का अन्न खाने के कारण मेरी बुद्धि मलिन हो गई थी, अतः मैं
मौन रहा, लेकिन अब वह अन्न लहू के रूप में मरे शरीर से निकल गया है, इसलिये अब मैं सत्य उपदेश दे रहा हूं।
महात्मा
आनन्द स्वामी जी ने एक सत्य प्रसंग का वर्णन किया है कि एक साधु नित्य प्रति ध्यान
लगाते थे, और ध्यान मंे प्रभू की ज्योति में मग्न हो जाते थे। एक दिन उन्हें
उस ज्योति में एक लड़की दिखाई दी, उन्होंने तुरंत आंखे खोल
ली। उन्होंने फिर ध्यान लगाने का प्रयास किया, फिर वही
लड़की दिखाई दी। वे दूसरे दिन आनन्द स्वामी जी के पास पहंुंचे और कहा कि मेरी तो
सारी साधना व्यर्थ हो गई बार-बार मुझे ध्यान के दौरान एक लड़की दिखाई दे रही है। तब
आनन्द स्वामी जी ने कहा कि यह पता करना पड़ेगा कि आपने जो कल भोजन किया था, वह किसने करवाया था और किस कारण से करवाया था। इस संबंध में पता
करने पर ज्ञात हुआ कि एक सेठ ने अपनी लड़की को बेच दिया था, और उसी पैसे में से भोजन करवाया था। यह वही सेठ की लड़की थी जो उन
साधु जी को बार-बार ध्यान में दिखाई दे रही थी।
कहने का
तात्पर्य यह है कि ईमानदारी पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये, तभी स्वाध्याय रूपी तप सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं।
स्वाध्याय
और ब्रह्मचर्य - स्वाध्याय के लिये ब्रह्मचर्य भी एक अनिवार्य शर्त है, यदि हम इतिहास पर नजर डालेंगे तो पायेंगे, जितने भी महापुरूष हुए हैं, उन्होंने
स्वाध्याय की सफलता के लिये ब्रह्मचर्य को स्थान दिया है। गृहस्थ में व्यक्ति का
मन आधे से अधिक तो अपने रिष्ते-नातों में उलझा रहता है, शेष कुछ समय उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधना हेतु मिलता हैै।
कम से कम सेवानिवृत्ति के बाद तो व्यक्ति पूर्ण तन्मयता में उस अंतिम लक्ष्य की
प्राप्ति हेतु ब्रहृमचर्य धारण करते हुए स्वाध्याय करे, तभी प्रभू दर्षन अथवा मुक्ति पाने का अधिकारी बन सकता है, अन्यथा नहीं ।
जो
स्वाध्यायी है मुक्ति पथ का पथिक है, वह कभी
भी ब्रह्मचर्य का खंडन नहीं कर सकता है। भगवान बुद्ध पर निर्मित फिल्म में यह
प्रकरण नहीं फिल्माया गया था, अतः इंटरनेट पर अपलोड की
हुई है, यह कथा सत्य है या असत्य यह पता नहीं, लेकिन है प्रेरणादायक। आम्रपाली को अपने रूप पर बड़ा अभिमान था।
उसने सोचा कि भगवान बुद्ध का मन भी उनके रूप को देखकर चलायमान हो सकता है। अतः
आम्रपाली ने भगवान बुद्ध को अपने घर आने का निमंत्रण दिया था, लेकिन भगवान बुद्ध ने कहा कि देवी अभी समय नहीं आया है, समय आने पर हम अवष्य तुम्हारे यहां पधारेंगे। आम्रपाली इंतजार करती
रही लेकिन भगवान बुद्ध उसके यहां नहीं आये। काफी समय बाद जब वह बीमार हो गई, उसका यौवन ढल गया, उसके घर में उसकी बीमारी
के कारण दुर्गन्ध फैली हुई थी। ऐसे समय में भगवान बुद्ध उसके यहां गये। आम्रपाली
ने कहा भगवान अब आप क्यों आये हैं, अब मुझ
में कुछ भी नहीं बचा है, मेरा घर भी अपवित्र हो रहा है, आप यहां
से चले जायें। भगवान बुद्ध ने कहा देवी मैंने तुम से सही समय पर तुम्हारे घन आने
का वचन दिया था, आज वह सही समय आ गया है।, भगवान
बुद्ध ने वहां पर सफाई की आम्रपाली की सार-सम्भाल की। आम्रपाली को अपनी गलती का
अहसास हुआ, और भगवान बुद्ध के उपदेश की सत्यता का भी अहसास हुआ कि रूप का नाश
होगा, वृद्धावस्था आयेगी, रोग
लगेगा तथा मृत्यु होगी और परिणामस्वरूप वह भिक्षुणी बनकर उनके संघ में शामिल हुई।
स्वाध्याय
और अपरिग्रह - यदि व्यक्ति का मन सांसारिक धन-सम्पदा के परिग्रह मंे अथवा व्यर्थ
विचारों के परिग्रह में ही लगा रहता है, तो वह
स्वाध्याय कर ही नहीं सकता है। उसका मन तो इस संसार में ही अटका रहेगा, क्योंकि हमें उस परम लक्ष्य को पाने के लिये हमारे महापुरूषों की
तरह अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सभी व्यर्थ नाशवान, तथा निरर्थक विचारों का अपरिग्रह करना पडेगा तथा मुक्ति लक्ष्य की
प्राप्ति से जुडे अधिकाधिक निष्काम कमों का परिग्रह करना होगा अन्यथा स्वाध्याय
अपूर्ण है, अधूरा है, तथा जन्म-मरण रूपी बंधन का कारण है।
लेखक जान
मूरे दो मोमबत्तियों की रोशनी मंे लेखन कार्य में व्यस्त थे, तभी जनकल्याण से जुड़ी दो महिलायें संस्था के लिये चंदा मांगने उनके
पास पहंुची। उम महिलाओं के पास जाने से पहले जान मूरे ने एक मोमबत्ती बुझा दी। यह
देखकर एक महिला बुदबुदाई कि यहां से कुछ मिलने वाला नहीं है। जान मूरे ने उनके
उद्देष्य के बारे में जानने के बाद उन्हें 100 डालर दे
दिये। महिलायें आष्चर्यचकित हो गई । जो महिला बुदबुदा रही थी कि कुछ नहीं मिलेगा, उसने जान मूरे से कहा हमें तो आपसे एक सेंट भी पाने की उम्मीद नहीं
थी। जान मूरे ने जवाब दिया कि मुझे आपसे बात करने के लिये दो मोमबत्तियों की
आवष्यकता नहीं थी, इसलिये मैंने एक मोमबत्ती बुझा दी थी, और मेरी इसी बचत की आदत के कारण मैं तुम्हें यह 100 डालर दे पाने में समर्थ हुआ हूं। अर्थात् यदि हम बचत करते हैं तो
यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन हमें उस बचत पर सांप की तरह कुंडली मार कर नहीं बैठना चाहिये, उसमें यथा शक्ति दान अवष्य करना चाहिये।
स्वाध्याय
और शौच - शुद्धि के बिना स्वाध्याय भी अधूरा है। स्वाध्याय की सफलता के लिये यह
सबसे बड़ा साधन है। यह सत्य है कि एक दिन में किसी का मन पूर्ण शुद्ध नहीं हो सकता
है, उसे अभ्यास और वैराग्य द्वारा ही शुद्ध किया जा सकता है, जैसा कि कबीर जी ने कहा है, धीरे-धीरे
रे मना धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होये। अर्थात् हमें हर बुरे कर्म से
बचने का अभ्यास करना होगा, हर बुरे विचार से बचने का अभ्यास करना होगा, तथा सद्व्यवहार, सदविचारों से अपने मन को
शुद्ध करना होगा, तभी स्वाध्याय का पूर्ण फल मिल सकेगा तथा प्रभू
साक्षात्मकार/मुक्ति का अंतिम लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा।
स्वाध्याय
रूपी साबुन से जिसका मन शुद्ध हो जाता है, उसे किसी
भी मान-सम्मान अथवा अन्य किसी भी तरह की वस्तु की कामना नहीं रहती है। वह नींव के
पत्थर की तरह गुमनाम रहते हुए सबका सहारा बनना चाहता है।
हमारे
प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्री जी भी ऐसी ही महान विभूति थे। उन्हें लोकसेवक
मंडल का अध्यक्ष बनाया गया, तब वे बहुत संकोची हो गये थे। वे नहीं चाहते थे कि पत्र-पत्रिकाओं
में उनका नाम छपे ओर लोग उनका स्वागत व प्रषंसा करें। उनके मित्रों ने इस संबंध
में पूछा कि आप प्रचार से इनता परहेज क्यों करते हैं। तब उन्होंने बताया कि
अध्यक्ष बनते समय लाजपत राय ने दीक्षा देते समय कहा था कि लालबहादुर, ताजमहल मंे दो तरह के पत्थर लगे हैं। एक बढ़िया संगमरमर के पत्थर है, जिनकी चमक सारी दुनिया देखती है। दूसरे वे हैं जो ताजमहल की नींव
में है और जिनके जीवन में सिर्फ अंधेरा है, किन्तु
ताज तो उन्हीं के सहारे खड़ा है। इसलिये मैं नींव का पत्थर ही बना रहना चाहता हूूं।
ऐसा शुद्ध मन वाला व्यक्ति ही वास्तव में विशुद्ध स्वाध्यायी हो सकता है।
स्वाध्याय
और संतोष - जो व्यक्ति संतोषी है, वास्तव में वही मुक्ति
अथवा प्रभू साक्षात्कार का अधिकारी है, क्योंकि
यह प्रष्न उठता है कि हम स्वाध्याय क्यों कर रहे हैं? तो जैसा कि हमारे महापुरूषों ने बताया है कि कोई भी व्यक्ति परम
संतोषी बनकर स्वाध्याय अर्थात् सदग्रंथों का अध्ययन, श्वास-प्रष्वास
या, किसी भी चक्र में या कहीं पर हो रहे स्पंदन पर ध्यान लगाकर उस
अदृष्य शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है।
असंतोषी व्यक्ति को भी सिद्धी मिल सकती है, लेकिन
प्रभू साक्षात्मकार/मुक्ति नहीं मिल सकती है।
जो
पूर्णतः सच्चा स्वाध्यायी है, जिसका मन शांत हो गया है, शुद्ध हो गया है, ऐसे महापुरूष कभी भी
असंतोषी नहीं हो सकते हैं। महात्मा सुकरात की पत्नी क्रोधी स्वभाव की थी, हमेषा उन पर चिल्लाती रहती थी, लेकिन
महात्मा सुकरात कभी भी विचलित नहीं होते हैं। एक दिन वे घर पर आये उन्होंने एक
किताब पड़ने के लिये उठाई। पत्नी बहुत क्रोधित हुई और कहा कि तुम्हें पत्नी की कोई
फिक्र नहीं है, पुस्तकों में ही लगे रहते हो और पुस्तक छीन कर फेंक दी। महात्मा
सुकरात ने दूसरी पुस्तक उठा ली, उसने दूसरी पुस्तक भी छीन
कर फेंक दी। सुकरात ने तीसरी पुस्तक उठा ली, तब उनकी
पत्नी का पारा आसमान पर पहुंच गया और वे बाहर गई एक बर्तन में कीचड़ भरा उसमें पानी
मिलाया और उस बर्तन को महात्मा सुकरात के सर पर उंडेल दिया। महात्मा सुकरात विचलित
नहीं हुए और उन्होंने मुस्कारते हुए कहा सुना था कि जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं। लेकिन देवी आज तो यह कहावत भी उल्टी हो गई। आज देखा
कि जो गरजते हैं, वो बरसते भी हैं। उनके शिष्य को यह देखकर अच्छा नहीं लगा, उसने सुकरात से कहा कि यह स्त्री तो चुडैल है, आपके योग्य नहीं। सुकरात ने कहा कि यह बार-बार मुझे ठोकर लगाकर देखती
है कि सुकरात कच्चा है या पक्का? इसके बार-बार ठोकर लगाने
से मुझे भी पता लगता है कि मेरे अन्दर सहन शक्ति है या नहीं। याद रखो, यह मेरी पत्नी ही नहीं, मेरे
बच्चों की मां भी है।
कहने का
तात्पर्य है कि एक सत्य स्वाध्यायी वही व्यक्ति हो सकता है, जिसे किसी भी तरह की सम्पत्ति, सत्ता, सम्मान की चाह नहीं हो।
स्वाध्याय
और तप - सेवा और सत्संग ये दोनों ही सबसे बड़े तप हैं। वैसे तो सेवा शब्द काफी
व्यापक है, लेकिन संकुचित दायरे के व्यक्ति इसका संकुचित अर्थ लगाते हैं। सेवा
में सम्पूर्ण जगत के जलचर, नभचर, थलचर आदि की सेवा आती है, उसमें भी
फिर माता-पिता, गुरू, उपदेशक आदि की सेवा महत्वपूर्ण है। उपदेशक से प्राप्त ज्ञान को जग
में फैलाने का कार्य करना भी बड़ा तप है। अर्थात् यदि हम सक्षम हों तो असहाय, निर्धनों की दान अथवा किसी भी अन्य तरह से सेवा करें तप तो यही है कि पूर्ण तन्मयता से साधना करते
हुए हम सत्य धर्म के प्रचार में लगे रहें, तथा
लोगों केा सत्य की ओर मुड़ने के लिये आकर्षित करते रहें। सच्चे मन से स्वाध्याय
करने पर ही मन शुद्ध होने पर तप की शक्ति प्राप्त होती है, तथा उस तप रूपी शक्ति को परहित के लिये उपयोग करने पर ही स्वाध्याय
का लाभ मिलता हैै तथा व्यक्ति को अपना लक्ष्य आसानी से प्राप्त हो जाता है।
अपने
कर्तव्यों को पूरा करने के साथ प्रभू भक्ति व निष्काम कर्म में जुटे रहने से
सिद्धियों की प्राप्ति होने लग जाती है, यद्यपि
इनका उपयोग केवल परहित के लिये तथा अति-आवष्यकता होने पर ही किया जाना चाहिये।
महावीर
स्वामी ने इसे तेजो देषा शक्ति से सम्बोधित किया है, और अपने शिष्य
गौषालक से इसे प्राप्त करने के संबंध में पूछने पर उन्होंने भी विषय-विकार व पाप
से दूर रहने तथा सात्विक कर्म करने के द्वारा इसे प्राप्त करने का रहस्य उद्घाटित
किया था । गौषालक ने भी इस शक्ति को प्राप्त किया था, लेकिन बाद में उसने इसका दुरूपयोग किया, जो कि गलत था। स्वाध्याय रूपी तप को करने के कारण यह शक्ति अधिकतर
सभी महापुरूषों को प्राप्त हुई है, होती है
तथा भविष्य में भी प्राप्त होती रहेगी।
श्रवण के
माता-पिता अंधे थे। वह बचपन से ही माता-पिता की सेवा करता था। उनका कहना मानता था, उन्हें नहलाने के बाद ही नहाता था। उन्हें खिलाने के बाद ही खाता
था। उनके सो जाने पर ही सोता था। उसके माता-पिता ने तीर्थ-यात्रा की इच्छा जाहिर
की। उस समय यातायात के साधन आज जितने उन्नत नहीं थे, अतः उसने बहंगी बनाकर, उसमें अपने माता-पिता को बैठाकर अपने कंधे पर बंहंगी को ढोकर
उन्हें तीर्थ यात्रा करवायी। माता-पिता के लिये पानी-भरने के दौरान महाराज दशरथ
द्वारा जानवर के पानी-पीने की आवाज के आधार पर चलाये गये शब्द भेदी बाण के कारण
श्रवण की मृत्यु हुई। उसके माता-पिता के श्राप के कारण ही दशरथ को भी पुत्र वियोग
के कारण मरना पड़ा। कहने का तात्पर्य यह है कि जो अपना कर्तव्य पूर्ण तन्मयता से
करेगा या तो वह मुक्त हो जायेगा अन्यथा मोह-माया में आसक्त रहने के कारण उसका अगला
जन्म तो शुभ ही होगा। तथा हम जैसा करेंगे वैसा हमें भोगना पडेगा। दशरथ ने अंजाने
में श्रवण की हत्या की लेकिन उसे एक मां-बाप से पुत्र का हनन करने के कारण इस कर्म
का फल भी भोगना पड़ा। कर्मफल सिद्धांत से कोई नहीं बच सकता है।
अर्थात
स्वाध्याय शत-प्रतिशत तब ही सफल होगा जब तप रूपी पुरूषार्थ का पूर्णरूपेण पालन
किया जाये।
स्वाध्याय
और ईष्वरप्राणिधान - स्वाध्याय और ईष्वरपाणिधान दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण है, जैसे कि हमने सत्संग सुना अथवा किसी ग्रंथ का अध्ययन किया तो ईष्वर
को साक्षी मानते हुए उन उपदेषों के आधार पर चलें तो ही हम उस अंतिम लक्ष्य को पा
सकते हैं, अन्यथा नहीं ।
जो मन, वचन, शरीर से ईष्वर प्राणिधान का पालन करता है, वह इस संसार में असाधारण बन जाता है, इस संबंध
में एक कथा हैः-
शहंषाह
अकबर के राजदरबार में तानसेन जी सबसे बड़े गायक थे। उनके गुरू उनसे भी बड़े गायक थे
तथा ईष्वर के सच्चे भक्त थे। अकबर उनका गायन सुनना चाहता था। अतः वे तानसेन को
लेकर उनके पास गये। स्वामी हरिदास जी वृन्दावन मंे अपनी कुटिया के बाहर ध्यान मेें
मग्न बैठे थे। बादषाह ने तानसेन से कहा कि क्या हम प्यासे ही जायेंगे? तानसेन ने कुछ सोचा और फिर गाना शुरू किया पहले सही गाया फिर गलत
सुर लगाने लगे। स्वामी हरिदास नाराज हो गये और कहा गलत गा रहे हो तानसेन और व अपने
दुतारे के साथ गाने लगे। सारा जंगल झूम उठा हिरण उनकी आवाज सुनकर उनके पास आ गये।
पक्षी शांत हो गये, ऐसा लग रहा था हवा भी ठहर गई हो, बादषाह
मस्त हो गये। उनके गायन मंे समय का भी भान नहीं रहा। अकबर महल पहुंचने तक उनके
संगीत की मधुर ध्वनि में खोये रहे। जब रात्रि को संगीत का नषा उतरा तब तानसेन से
पूछा कि तुम सबसे बड़े गायक हो लेकिन तुम्हारे गायन में हरिदास जी जैसा रस/मस्ती
क्यों नहीं है? तानसेन ने कहा कि मैं दिल्ली पति के लिये गाता हूं और वे जगतपति के
लिये गाते हैं। अकबर ने सुना सोचा, समझा और
धीरे से कहा जो भगवान के गुण गाता है, उसकी
वाणी में रस होगा ही।
जो भी
विषय-विकार व पाप रहित होकर निष्काम सत्कर्म करता है, वह चाहे ईष्वर को माने या नहीं माने ईष्वर उसे अपना लेते हैं तथा
उसे शक्ति प्रदान कर साधारण पुरूष से असाधारण महापुरूष बना देते हैं।
सारांश
निश्रेयस
की दृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ हैं विषय-विकार व पाप आदि कर्मों से विरत रहना।
ऐसा बनने के लिये स्वाध्याय अत्यंत आवष्यक है। अर्थात् प्रतिदिन ध्यान लगाने से, प्रति दिन किये गये शुभ/अथवा अषुभ कर्मों का चिंतन करने से, अषुभ कर्मों को त्याग कर अथवा कम करते हुए शुभकर्मों को बढाने का
अभ्यास/प्रयास करने से, मानव से महामानव बनने की दिषा में प्रेरित करने वाले सद्ग्रंथों का
अध्ययन करने से अथवा किसी भी माध्यम से प्राप्त सत्य ज्ञान को आचरण में लेने से ही
व्यक्ति सच्चा स्वाध्यायी बन सकता है अन्यथा केवल शुभकर्म करने से उसे अभ्युदय
रूपी सुख की ही प्राप्ति होगी तथा उसका अगला जन्म शुभ होगा तथा मुक्ति /प्रभू
साक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
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