शुचिता / शौच / शुद्धि/पवित्रता Purity / defecation
सर्वे भवंतु सुखिनः
शुचिता / शौच / शुद्धि/पवित्रता Purity / defecation
शुचिता / शौच / शुद्धि
शुद्धि मुख्य रूप से दो तरह की होती है, आंतरिक और बाह्यः-
आंतरिक शुद्धिः-
इसके अन्तर्गत मन की शुद्धि आती है, मन को शुद्ध रखने के लिये मन, वचन व शरीर से समस्त सत्कर्म करने आवश्यक हैं
जिसके लिये धर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान का पालन करना आवश्यक है।
इनके पालन से ही मन शुद्ध/मल रहित/निर्मल होता है, जिसके पश्चात् ही शुद्ध मन में ज्ञान का प्रकाश होता है तथा मुक्ति का रास्ता प्रशस्त होता है।
मुक्ति/ज्ञान हेतु किसी डिग्री अथवा पद की आवश्यकता नहीं है, इसे तो केवल मन को शुद्ध करके ही पाया जा सकता है,
समस्त ज्ञान हमारे अंदर ही समाहित है जो कि मन के निर्मल होने पर अथवा गुरू के द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर मन को निर्मल करने पर प्राप्त होता है।
हमारे संत जैसे कबीरजी, नानकजी, रैदासजी आदि डिग्री धारी नहीं थे, उन्होंने अपने गुरू के आदेश से मन को शुद्ध किया और उस शुद्ध मन के द्वारा प्राप्त ज्ञान के प्रकाश को सारे जग में फैलाया।
भगवान बुद्ध ने तो केवल अपने मन को शुद्ध करके ही बिना गुरू के अपने अंदर विद्यमान ज्ञान की प्राप्ति की।
बाह्य शुद्धिः-
इसके अन्तर्गत शरीर की व अपने आस-पास के वातावरण घर आदि की सफाई आती है।
शारीरिक शुद्धि जो कि स्नान करके, स्वच्छ वस्त्रों को धोकर पहनने व प्रतिदिन नो द्वारों की सफाई रखने से होती है।
वैसे तो दोनो शुद्धि आवश्यक हैं, लेकिन आंतरिक शुद्धि अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
बाह्य शुद्धि आंतरिक शुद्धि का आधार का कार्य करती है,
अर्थात् व्यक्ति यदि प्रतिदिन अपने सभी अंगों की सफाई करेगा तथा सात्विक भोजन ही ग्रहण करेगा तो उसकी निरोगिता गंदे व्यक्ति की अपेक्षा अधिक रहेगी तथा उसमें निरोग रहने के कारण साधना करने की शक्ति भी बनी रहेगी।
अन्यथा कमजोर व्यक्ति का साधना करना बहुत मुश्किल है कोई अपवाद स्वरूप रोगी शरीर से साधना करे तो इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की संख्या नगण्य ही होगी।
मुक्ति पथ पर विजय प्राप्त करने के लिये यह उक्ति बड़ी पसिद्ध हैः-
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
यह बिलकुल सत्य है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, अर्थात् सभी कामनाओं/वासनाओं/इन्द्रियों के भोगों/पापों/विकारों का त्याग कर लिया है तथा अपने मन को परमार्थ में ही लगा रखा है
वही मनजीत है, वही जगजीत है, वही मुक्ति का अधिकारी है अन्य नहीं।
कबीरजी के कुछ दोहे हैं जो उनकी मन की शुद्धि के कुछ स्तरों को दर्शाते है,
प्रत्येक मनुष्य में कुछ ना कुछ बुराई या कमी अवश्य होती है-
बुरा जो देखन में चला बुरा ना मिलया काई,
जो तन खोजा आपणा मुझ से बुरा ना कोई।
कबीर जी क्या सभी में बुराई थी और तब तक रहेगी
जब तक मन को पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं कर ले।
इस प्रसंग मे एक गीत व एक कथा हैः-
गीत इस प्रकार हैः-
यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो,
जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो
कोई है चालाक आदमी, कोई सीधा साधा,
हममें से हर एक है पापी, थोड़ा कोई ज्यादा
हो कोई मान गया रे, कोई रूठ गया,
हो कोई पकड़ा गया, कोई छूट गया
इस पापन को आज सजा देंगे, मिलकर हम सारे.
लेकिन जो पापी न हो, वो पहला पत्थर मारे
हो पहले अपने मन साफ करो रे, फिर औरों का इंसाफ करो।
सभी में कुछ ना कुछ अवगुण हैं, जिनके समाप्त होने पर ही मन शुद्ध होता है,
इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं है कि जिसमें जन्म लेने के बाद किसी भी तरह का अवगुण (विषय-विकार व पाप) नहीं हो।
छोटा हो या बड़ा, चालक हो या सीधा,
कम अथवा अधिक बुराई सभी में होती है।
जो सात्विक होता है इस सत्य को स्वीकार कर लेता है,
जो तामसिक होता है वह इस सत्य को सुनकर रूष्ट हो जाता है।
जो दूसरे के गलत कार्य को देखकर उसको कोसता है, उसे डांटता है, उसे पहले अपने मन भी झांक कर देखना चाहिये कि कहीं उसने तो ऐसा घृणित कार्य नहीं किया,
जैसा घृणित कार्य देखकर उसे इतना दुख हो रहा है या उसे सुधारन के लिये क्रोध आ रहा है।
एक फिल्म में यद दृश्य चित्रित किया गया था कि
एक सौतेली मां अपनी सौतन के पुत्र से घर का खूब काम कराती थी,
जैसे बर्तन साफ करवाना, झाडू-पौंछा लगवाना आदि।
उसे मारती थी, डांटती थी, तथा कम मात्रा में तथा बचा-कुछा या बासी भोजन देती थी।
लेकिन वह स्वयं टी.वी. देख रही थी और उस पर सौतेली मां का सौतन के पुत्र पर
इसी तरह का अत्याचार दिखाया जा रहा था,
जिसे देखकर वह रो रही थी, आंखों में से आंसू आ रहे थे।
अर्थात् हमें जिस कर्म को देखकर दुख की अनुभूति होती है
तो कम से कम हम स्वयं तो ऐसा कर्म नहीं करें तथा
पहले हम स्वयं निर्दोष बनें उसके बाद किसी को उसके दोषों का ध्यान दिलाये।
हमें दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहिये
जो हमें अपने लिये पसन्द नहीं हो।
इस संबंध में कुछ कथायें इस प्रकार हैः-
चार चोर चोरी करते हुए पकड़े गए,
तीन को मृत्यु दंड दे दिया गया।
चौथे चोर को को सजा दी जा रही थी,
तब चोर ने कहा कि में सोना बनाने की विधी जानता हूं,
तो मरने से पहले में उसे बता कर मरना चाहता हूं।
राजा ने उसकी बात मान ली। चोर ने कहा मुझे कुछ समय चाहिये।
राजा ने उसे समय दे दिया। कुछ समय व्यतीत होने पर उसने कहा कि
सोना तैयार करने के लिये मेने सामग्री एकत्रित कर ली है,
लेकिन उससे वही व्यक्ति सोना बना सकता है,
जिसने कभी भी किसी भी तरह की चोरी या पाप नहीं किया हो।
राजा ने प्रजा की तरफ देखा।
प्रजा ने नजर झुका ली, राजा ने सभा सदों की ओर देखा।
सभी ने नजरें झुका ली क्योंकि सभी ने किसी ने किसी तरह का छोटी-मोटी चोरी या पाप कर्म किया था।
केवल राजा ही शेष था राजा आगे बढ़ा,
लेकिन तभी उसे याद आया कि उसने बचपन में मां के बनाये लड्डुओं में से लड्डू चुराया था।
राजा भी रूक गया।
तब चोर ने कहा महाराज यदि सभी चोर हैं तो मुझे सजा क्यों मुझे भी सुधरने का एक मौका दिया जाये।
राजा का गुस्सा भी शांत हो चुका था, राजा ने उसे क्षमा कर दिया।
बुराई में
विषय-विकार, राग-द्वेश, मोह-माया आदि सभी आ जाते हैं
इनके समाप्त होने पर दूसरे स्तर की प्राप्ति होती है,
मन शुद्ध होता जाता हैः-
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप
कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति ना होय,
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोई।
माया मरी ना मन मरा, मर-मर गया शरीर।
आशा तृष्णा ना मिटी कह गये दास कबीर।
अर्थात मोह-माया, मन, आशा, तृष्णा का जाल बहुत ताकतवर है,
कोई विरला ही इस पर विजय प्राप्त करता है।
जब में था तब हरि नहीं । अब हरि है में नाहीं,
सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देखा माही।
अर्थात् अहंकार का समूल नाश होना आवश्यक है।
दूसरे स्तर का पालन करने पर मन की शुद्धि का तीसरा स्तर आता है:-
कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर,
प्रभू पुकारता फिर रहा कहता कबीर कबीर।
अर्थात् मन पूर्णतः शुद्ध होने पर उस अदृश्य शक्ति की प्राप्ति होती है।
जो कि अथक साधना के बाद प्राप्त होती है,
जिससे साधक को तेज की प्राप्ति होती है,
उस तेज के बल पर संसार के बहुत से व्यक्ति उसकी बातों पर विश्वास करने लगते हैं,
तथा सच्चे साधक की रक्षा भी होती है।
जैसे कि बाबा रामदेव का नेपाल में शिविर चल रहा था,
शिविर खत्म होने के बाद वे बाहर निकले
कार चालू करने पर आगे नहीं बढ़ने से उन्होंने सोचा कि किसी ने मजाक में कार को पीछे से पकड़ तो नहीं रखा है,
उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो शिविर का भवन देखते ही देखते लड़खड़ा कर गिर गया।
अर्थात् उनके बाहर निकलने पर भूकम्प आया।
इसी तरह से दयानन्द जी ने ज्ञान अर्जित करने के बाद
कुम्भ के मेले में पाखंड खंडनी पताका लगायी,
वे पाखंड का खंडन कर रहे थे, लेकिन कोई उनके सत्योपदेश को सुनने के लिये तैयार नहीं था।
उन्होंने दुखी होकर अपना सभी कुछ बांट दिया तथा
विचार किया कि अभी साधना में कुछ कमी है,
उन्होंने पुनः कठोर साधना की और
पुनः धर्म का प्रचार करने इस संसार में आये,
तब साधना द्वारा प्राप्त तेज के कारण लोग उनके तर्क सुनकर उनके अनुयायी बनने लगे।
कहने का तात्पर्य यही है कि मोक्ष मार्ग अत्यंत कठिन है,
केवल मन को पवित्र आचरण द्वारा निर्मल करके ही इस लक्ष्य को पाया जा सकता है।
जिसका मन पवित्र/मल रहित हो गया है,
जिसे किसी भी कामना (प्रभू साक्षात्कार/मुक्ति) से उसने मन निर्मल किया है,
वह उसे जीते जी मिल जाती है।
वह जीवन-मुक्त योगी की तरह केवल दूसरों के परमार्थ के लिये ही इस दुनिया में जीवित रहता है।
यह बहुत छोटी सी बात है लेकिन वास्तव में यह अत्यंत कठिन मार्ग है,
उपनिषद में इसे श्रेय मार्ग कहा गया है,
इसका अंत सुखद होता है, व्यक्ति हंसते हुए मुस्कराते हुए मृत्यु का वरण करता है।
दूसरा प्रेय मार्ग है यह सभी को अच्छा लगता है,
लेकिन इसका अंत दुखद होता है। व्यक्ति मरना नहीं चाहता है,
जीने की चाह में तड़प कर मरता है।
गीता में भी इसका वर्णन किया गया है कि
प्रेय मार्ग का अंत दुखदायी विष तुल्य होता है और
श्रेय मार्ग का अंत सुखकारक अमृत तुल्य होता है।
अर्थात सबसे बड़ी चुनौती है कि इन सबको हमारे चित्त से हटाकर
हम हमारे मन को गंगा जल की तरह पवित्र करें,
जिसमें किसी भी तरह की गंदगी (विषय-विकार व पाप) शेष नहीं रहे,
इस तरह का स्वच्छ शुद्ध मन होने पर सब कुछ अपने आप मिल जाता है।
जैसे कि हलवाई को मिठाई बनाने के लिये शुद्ध चाश्नी की आवश्यकता होती है,
तो हलवाई शक्कर व पानी के मिश्रण को उबालता है और उसमें उफान आने पर दूघ डालता है,
दूध डालने के बाद उपर मैल जमा हो जाती है।
यह क्रिया वह बार-बार करता है और ऐसा करते-करते ऐसी स्थिति आ जाती है कि
मैल आना अपने आप बंद हो जाता है और तब जाकर शुद्ध चाश्नी तैयार होती है।
इसी तरह से हमें भी बार-बार हमारे लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए
तीव्र लगन से हमारे तामसिक संस्कारों को अभ्यास द्वारा परिवर्तित करके सात्विक बनाना होगा,
तभी मन शुद्ध हो सकता है।
जैसे कि किसी कवि ने भजन में लिखा है किः-
धो के मन की मैल सच्चे मन से मां के द्वार चल।
ना चले चालकियं और ना चले रे कपट छल,
साफ नीयत है तो मां भी साथ तेरे पल-पल।
पाया है मानुष का चोला काम कोई कर भला,
ये तेरा हीरा से जीवन धूल में यू मत मिला।
इसका भावार्थ कितना सत्य है कि
अपने मन में से सभी विषय-विकार व पाप को हटाकर
मोक्ष/प्रभू साक्षात्कार के लिये आगे बढ़ें,
तो वह अदृश्य शक्ति हमें बुद्धि, ज्ञान व आलौकिक शक्तियां प्रदान करेगी।
मुक्ति/अदृश्य शक्ति/परमानन्द को प्राप्त करने के लिये
चालाकी, छल या कपट काम नहीं आयेगा।
उदाहरण के लिये किसी ने जीवन भर मन लगाकर अध्ययन नहीं किया और टीप-टीप कर अच्छे नंबरों से पास हो गया तो उसे डिप्लोगा/डिग्री तो मिल गई लेकिन उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई,
ऐसा व्यक्ति बाद में दुख उठाता है, उसे भर्ती परीक्षा में असफलता का मुंह देखना पड़ता है, और यदि रिश्वत के बल पर नौकरी पा भी लेता है तो जहां कहीं भी वह कार्यरत है,
उसे कार्य की जानकारी नहीं होने के कारण कई मर्तबा अपमान सहन करना पड़ता है।
इसके विपरीत जो मेहनत करता है
वह एकलव्य, अर्जुन, कर्ण की तरह अपनी मेहनत का अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
उसे अपने कार्य की पूर्ण जानकारी होने के कारण सभी उसे इज्जत से देखतें हैं,
उसका सम्मान करते हैं।
व्यक्ति के दो लक्ष्य हैं,
पहला अभ्युदय (धर्मपूर्वक आर्थिक/सामाजिक उन्नति)
दूसरा निश्रेयस (प्रभू साक्षात्कार/मुक्ति) ।
निश्रेयस बिना ज्ञान व मन की शुद्धि के प्राप्त नहीं हो सकता है।
अभ्युदयरूपी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु हमें लक्ष्य पथ में आने वाली कमियों को मन रूपी दर्पण में देखकर समाप्त करना होगा तभी हमें लक्ष्य प्राप्त हो सकता है।
इसे कथाकार ने अपने स्वयं के जीवन में भी देखा है,
कथाकार का एक सहपाठी टीप कर कथाकार से अधिक नंबर लाता था,
उसके कारण कथाकार का कक्षा में दूसरा स्थान रह जाता था।
लेकिन आज कथाकार का वह सहपाठी मजदूर की तरह काम कर रहा है और
कथाकार ने आप्पो दीपो भव को अपने जीवन में एक परम सत्य के रूप में महसूस किया है।
इस संबंधं में दो घटनायें हैं दोनो ही सरकारी नौकरी पाने के संबंध में है।
पढने वालों से निवेदन है कि निम्न घटना का वर्णन कथाकार लोगों को प्रेरित करने हेतु दे रहा है, स्वयं का गुणगान करने के लिये नहीं।
असली उद्देश्य तो निश्रेयस की प्राप्ति है ।
जैसा कि भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी ने अभ्युदय को त्याग कर
निश्रेयस को ही अपने जीवन में स्थान दिया था।
निश्रेयस की तुलना में अभ्युदय तुच्छ है।
सांसारिक जीवन हेतु इन दोनों का समन्वय आवश्यक है।
यदि आप पढ़ना चाहेे तो पढें अन्यथा छोड़ कर लेख प़ढ लें।
आप्त काम पुरूषों के जीवन चरित्रों को देखते हुए
कथाकार का केवल यही मानना है कि यदि कोई निश्चय कर ले
तो वह अपनी कमियों को दूर करके अभ्यास के द्वारा अपनी कठिन मंजिल/लक्ष्य को भी हंसते हुए प्राप्त कर सकता है, चाहे वह अभ्युदय हो या निश्रेयस ।
हमें आप्पो दीपो भव बनना पडेगा।
गीता के छठे अध्याय के पांचवे मंत्र में भी यही लिखा है कि
मनुष्य अपना उद्धार और पतन स्वयं ही कर सकता है।
समर्पण वाले श्री शिवकृपानन्द जी ने भी अपने लेख में लिखा है कि
शिष्य का भी योगदान आवश्यक है
अर्थात सात्विक बनना या राजसिक/तामसिक बनना शिष्य के अपने हाथ में है।
कथाकार एक गरीब परिवार से था, घर वालों के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे उसे पड़ा सके अच्छी कोचिंग/ट्यूशन करवा सके।
कथाकार ने 10वीं. से एम.ए. तक का सफर स्वयंपाठी के रूप में ही किया।
मन में काफी उत्साह था लेकिन पैसों की कमी थी,
कथाकार यदि नियमित विद्यार्थी के रूप में स्कूल में पढता तो उसे प्राईवेट जाॅब छोड़ना पड़ता और यदि जाॅब छोड़ता तो फिर भोजन कहां से ग्रहण करते।
कथाकार जो भी कमाता था, सब अपनी मां को दे देता था,
अपने घर की स्थिति को देखते हुए फिजुल खर्ची नहीं करता था।
कथाकार ने निश्चय किया कि वह जाॅब करते हुए ही पड़ाई करेगा।
कथाकार ने सर्वप्रथम अपना निरीक्षण करके देखा कि
उसके अंदर क्या कमजोरी है, जिसके कारण वह परीक्षा में फेल हो जाता है।
तो कथाकार ने पाया कि उसकी गणित बहुत कमजोर थी।
उसने देखा कि यही उसके और सरकारी पद के बीच सबसे बड़ी बाधा है।
कथाकार का विवाह हो चुका था।
विवाह का भी कर्ज था, आधा वेतन ब्याज व किश्त में ही चला जाता था।
कथाकार ने निश्चय किया कि वह इस कमजोरी को दूर करेगा और
कथाकार ने दसवीं की अंकगणित व रेखागणित की सभी प्रश्नावलियों के प्रश्न तथा गाईड के गणित के सभी प्रश्न लगभग 3 महिने के अंदर बिना किसी अध्यापक की मदद के हल किये।
ऐसा कोई सूत्र नहीं था जो कथाकार ने पक्का याद नहीं किया हो और
कथाकार के इस अभ्यास का परिणाम यह निकला कि
कथाकार का राजस्थान लोक सेवा आयोग की परीक्षा में चयन हो गया।
इसी तरह कथाकार की इच्छा थी कि आशुलिपिक बने ।
कथाकार ने दो बार कर्मचारी चयन आयोग की लिखित परीक्षा पास की लेकिन मुख्य परीक्षा में रह गया।
कथाकार ने फिर अपना निरीक्षण किया और पाया कि
वह गति के साथ लिख तो लेता है, लेकिन उसे पूरी तरह से पड़ नहीं पाता है। अतः उसने इस कमजोरी को दूर करने के लिये अपने पिता की मदद ली।
राजस्थान लोक सेवा आयोग में चयन होने के बाद उसने प्रतिदिन लगभग 2-3 घंटे इसकी तैयारी के लिये निश्चित किये,
पिताजी अखबार में से बोलकर उसे लिखवाते थे और कथाकार लिखने के बाद उसे पढ़कर उन्हें सुनाता था। कथाकार का लिखने और पड़ने का बहुत ही अच्छा अभ्यास हो गया।
टाईप का भी बहुत अच्छा अभ्यास कर रखा था।
रेलव भर्ती बोर्ड में आवेदन किया और वह लिखित परीक्षा में पास हो गया।
उसके बाद आशुलिपिक की मुख्य परीक्षा के दिन उसके हाथ की तर्जनी अंगुली पर टाईप की मशीन गिरने से चोट लग गयी,
लेकिन टाईपिंग का अभ्यास और आशुलिपी का अभ्यास इतना अधिक था कि
चोट लगने के बावजूद इस तरह से परीक्षा दी की जैसे कोई दुर्घटना ही नहीं हुई हो तथा
इस तरह से परीक्षा दी कि जैसे कोई बालक खिलौने से खेल रहा हो।
समय से लगभग 10-15 मिनट पूर्व ही टाईप करके दे दिया और
घर पर सभी को बता दिया कि उसे इस परीक्षा में कोई नहीं रोक सकता है,
हां यदि रिश्वतखोरी के कारण उसे रोके तो रोक सकते हैं।
लेकिन यह सब अभ्यास का तथा आप्पो दीपो भव बनने का ही परिणाम था कि
कथाकार को आशुलिपिक के पद पर नियुक्ति मिल गई।
कथाकार ने राजपत्रित पद की विभागीय परीक्षा भी मेहनत के द्वारा उत्तीर्ण की। सीमित पद तथा पैनल में सबसे कनिष्ठ होने के कारण चयन नहीं हो सका
विभागीय परीक्षा के अतिरिक्त किसी भी तरह की परीक्षा देने से अपना मन हटा लिया और संतोष परम सुखम को अपने जीवन में स्थान दिया क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टि से यह सब महत्वहीन है
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हमें मुक्ति चाहिये तो हमारी सबसे बड़ी जो कमी है
विषय-विकार व पाप रूपी गंदगी,
इस गंदगी को साफ करके ही हम उस निश्रेयस रूपी आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
मनुष्य जन्म में ही हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं
यह जन्म अनमोल है, क्योंकि अन्य योनियों में दिमाग तो होता है
लेकिन तीव्र बुद्धि व विवके नहीं प्राप्त हो सकता है।
जैसे कि कोई जल चर, नभ-चर, थल-चर अपने ही दायरे में सीमित रहता है,
लेकिन मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण वैज्ञानिक उन्नति करके आज जल-थल-नभ सभी जगह जा सकता है।
मनुष्य ही मुक्ति का अधिकारी है।
जैसे कि सांप-सीडी का खेल होता है,
सांप के खाने में जाने पर वापस नीचे की ओर जाना पड़ता है।
अंतर केवल इतना है कि इस खेल में पासे पर उत्थान और पतन होता है,
लेकिन मनुष्य ऐसा प्राणी है कि वह सीड़ी पर चढ़ना तो चाहता है तथा चढ़ता भी है,
लेकिन मोह-माया के वश में होकर उसे यह पता होने के बावजूद भी कि अगर सांप के खाने में गया तो नीचे आना होगा स्वयं ही बार-बार सांप वाले खाने में जा बैठता है, और पतन को प्राप्त होता है।
सांप सीड़ी के खेल की तरह ही मृत्यु के बाद मनुष्य पुनः अपनी पूर्व जन्म की स्मृतियों को खोकर नया जन्म लेता है,
फिर वापस नये सिरे से मेहनत करनी पड़ती है।
हां इतना अवश्य है कि पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण उसका झुकाव अपने संस्कारों की तरफ तीव्र गति से बढ़ता है,
उसके उच्च सात्विक संस्कार सीड़ी का काम करते हैं और तामसिक संस्कार सांप का।
उच्च संस्कार के कारण ही वह मुक्त हो सकता है।
और उच्च संस्कार मिलते हैं मन को शुद्ध रखने से।
मन की शुद्धि आवश्यक है, जैसा कि भजन हैः-
तोरा मन दर्पण कहलाये,
भले-बूरे सारे कर्मों को देख और दिखाये
मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा ना कोई
मन उजियारा जब-जब फैले जग उजियारा होये
इस उजले दर्पण पर प्राणी धूल ना जमने पाये
सुख की कलियां, दुख के कांटे मन सब का आधार
मन से कोई बात छूपे ना मन के नैन हजार
जग से भाग ले कोई मन से भाग ना पाये।
तोरा मन दर्पण कहलाये,
भले-बूरे सारे कर्मों को देख और दिखाये
कितना सत्य भजन है,
वास्तव में मन ही वह दर्पण है, जिसका अवलोकन करके मनुष्य अपने कर्मों का मूल्यांकन करता है कि
उसने क्या अच्छा किया, क्या बुरा किया तथा
उसने जिस धर्मोपदेशक/धर्मगुरू को वह मानता है, उसकी बातों का कितना पालन किया,
कितना नहीं किया।
यह सब बातें ज्ञानी व्यक्ति स्वयं जानता है, तथा वहीं निरन्तर प्रयत्नशील रहकर, स्वयं का सुधार कर सकता है।
मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा ना कोई
देवता का अर्थ होता है देने वाला,
मन देवता इस तरह से है कि मन ही व्यक्ति को अच्छे और बूरे कर्म करने की प्रेरणा देने वाला होता है,
लेकिन जो ज्ञानी है, विवेकी है वह ही मन की सात्विक बातों को धर्म निर्देशों के अनुसार ग्रहण करता है तथा उसके विरूद्ध विचारों का त्याग करता है।
अतः मन से बड़ा देवता कोई भी नहीं है, जिसने विवेक के द्वारा मन को शुद्ध करके जीत लिया,
उसे ही आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त होता है, उसे ही वह आलौकिक शक्ति प्राप्त होती है।
जैसे कि अंगुलिमाल भगवान बुद्ध को मारने के लिये उनके पीछे भाग रहा था,
भगवान बुद्ध सामान्य गति से चल रहे थे, लेकिन अंगुलिमाल उन तक नहीं पहुंच सका।
इसी तरह से भगवान महावीर को यक्ष शूलपाणि मारना चाहता था,
लेकिन उन्हें छू भी नहीं सका। यही तो वह अदृश्य शक्ति है
जो ऐसे महापुरूषों को प्राप्त होती है,
जिनका मन विषय-विकार व पाप से दूर होता हैं,
परोपकार में ही लगा रहता है तथा जिसमें केलव मुक्ति की ही कामना रहती हैं।
मन उजियारा जब-जब फैले जग उजियारा होये,
इस उजले दर्पण पर प्राणी धूल ना जमने पाये
जब-जब भी किसी महपुरूष का मन उजियारा अर्थात् शुद्ध हुआ है।
तब-तब ऐसे महापुरूषों ने उस उजियारे/शुद्ध मन के कारण प्राप्त सद्ज्ञान को जगत में फैला कर ज्ञान रूपी गंगा से इस संसार को प्रकाशित किया था, करते हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे।
उन्होंने संदेश दिया कि सतत निष्काम सत्कर्म करने में लगे रहें तथा
दूषित कर्मों से इस मन को मलिन/गंदा नहीं होने दें।
सुख की कलियां, दुख के कांटे मन सब का आधार
सुख और दुख का आधार भी मन ही है,
क्योंकि जैसे किसी को ज्ञान है कि कोई भी कुकर्म नहीं करना चाहिये
सदैव सत्कर्म तथा अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करना चाहिये,
लेकिन अपने चित्त में संग्रहित संस्कारों के कारण
मन के वशीभूत होकर वह व्यक्ति ज्ञान होते हुए भी जो कर्म उसे नहीं करने चाहिये,
ऐसे कर्म करता है। तो मन के अनुसार किये गये अच्छे-बूरे कर्मों के आधार पर ही
व्यक्ति को सुख रूपी कलियां और दुख रूपी कांटे प्राप्त होते हैं।
जैसे किसी को शक्कर की बीमारी है, लेकिन उसका मन कहता है कि
थोड़ी सी मिठाई खा ले, थोड़ी सी मिठाई खाने से कुछ नहीं होगा।
यही थोड़ा करते-करते अधिक में बदल जाता है,
जैसी की कहावत है कि उंगली पकड़ते-पकड़ते पौंछा पकड़ना।
जिसका परिणाम यह होता है कि उसका शरीर कमजोर होता जाता है और
कमजोर शरीर के कारण चोट लगने पर उसके घाव जल्दी से नहीं भरते हैं।
कम उम्र में ही उसे दुनिया से विदा होना पड़ता है।
अर्थात् कर्मफल सिद्धांत को अधिकांश महापुरूषों ने स्वीकार किया है,
कर्मों के अनुसार ही सभी को परिणाम प्राप्त होता है।
मन से कोई बात छूपे ना मन के नैन हजार
कई व्यक्ति बाहर से तो अच्छा व्यवहार करते हैं,
लेकिन उनके अंदर सामने वाले के प्रति द्वैष भरा रहता है,
उसके सामने उसका सम्मान करते हैं और पीठ-पीछे उसकी बुराई करते हैं।
वह व्यक्ति तो उनके दिखावे के आधार पर उन्हें अच्छा समझता है,
लेकिन जो व्यक्ति ऐसा व्यवहार करता है,
उसे अपने मन का निरीक्षण करने पर महसूस होता है कि
वास्तव में वह किस तरह का व्यक्ति है।
अर्थात् मन व्यक्ति के कर्मों का बहीखाता है, और
व्यक्ति मन का निरीक्षण करके यह जान सकता है कि वह कितना धर्मी है,
कितना अधर्मी, कितना स्वार्थी है, कितना परमार्थी, मोक्ष मार्ग का पथिक है या नहीं आदि।
जग से भाग ले कोई
मन से भाग ना पाये।
चाहे व्यक्ति इस संसार को छोड़ कर चले जाये,
लेकिन यदि उसने इस संसार में रहते हुए अपने मन को वश में रखने का प्रयास नहीं किया तो वह कहीं भी चला जाये, उसे शांति नहीं मिलेगी,
चित्त के संस्कार/वासनायें उसे बार-बार परेशान करेंगे।
अतः पहले वह इस संसार में रहते हुए अभ्यास करके स्वयं को परिपक्व करे
अर्थात् विषय-विकार, मोह-माया व पाप आदि से दूर रहने के अभ्यास को बढ़ाता जाये।
इस तरह मन को अपने अनुकूल कर उस पर विजय पाने पर वह जग में रहे या जग से बाहर उसे सफलता अवश्य ही मिलेगी।
ऐसे महापुरूष अपवाद स्वरूप ही हैं, जिन्होंने अपने मन को शांत रखने के लिये सभी निरर्थक विचारों को त्यागने के कारण इस जग स पलायन किया और
अपना लक्ष्य पाने के पश्चात इस संसार का उद्धार करने के लिये वे वापस इस संसार में लौटे,
धन्य हैं वे महात्माजन वे अपनी जगह सही थे,
क्योंकि वह उनकी पूर्व जन्मों की साधना थी,
जिसके कारण ही वे इस मोह-माया का तीव्र संवेग के साथ त्याग कर सके अन्यथा
एक साधारण मनुष्य में मोह-माया का त्याग करने की हिम्मत कहां है,
उसे तो यह भौतिक संसार और उसके सुख ही अच्छे लगते हैं।
जैसा कि भगवान बुद्ध विवाह को मुक्ति मार्ग में बाधा मानते थे इसलिये विवाह नहीं करना चाहते थे,
लेकिन पिता की आज्ञा के कारण विवश होकर उन्हें विवाह करना पड़ा तथा
राहुल के जन्म का समाचार सुनकर उन्होंने कहा मेरे मार्ग में एक और बाधा ।
इसी तरह दयानन्द जी ने भी सच्चे षिव की खोज के लिये अल्प आयु में ही घर का त्याग कर दिया।
ऐसा भी बहुत से लोगों के साथ होता है कि
उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसके सात्विक कर्मों के आधार पर
उस अदृश्य शक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के लिये, उसकी सात्विकता के हिसाब से मदद प्राप्त होती है।
(टी.वी. चैनल पर प्रसारित हेमामालिनी द्वारा अभिनित आम्रपाली की गाथा के अनुसार)
आम्रपाली एक वैश्या थी, लेकिन वह वैश्या बनी केवल वैशाली गणतंत्र का अस्तित्व बरकरार रखने के लिये,
उसका कितना बड़ा त्याग था, उसने अपने जीवन की आहूति वैशाली गणतंत्र की अखंडता के लिये दे दी।
वह बहुत रूपवती थी वैशाली गणतंत्र में हर कोई उससे विवाह करना चाहता था,
यदि वह किसी एक से विवाह करती तो नरसंहार शुरू हो जाता
क्योंकि संघ कुछ छोटे-छोटे भागों से बना हुआ था।
नरसंहार के कारण वैशाली गणतंत्र छिन्न-भिन्न हो जाता।
अतः उसे नगरवधू बनने को मजबूर होना पड़ा।
लेकिन यह त्याग उसकी सात्विकता को व राष्ट्र के प्रति प्रेम को दर्शाता है।
उसके ऐसे कर्मों के कारण ही पहलेे उसकी भिक्षु आनन्द से भेंट हुई थी,
तब उन्होंने उसे संक्षिप्त उपदेश दिया था।
उसके कारण बिम्बिसार द्वारा किये गये नरसंहार की परिणित में लोगाें के शवों को देखकर उसे भिक्षु आनन्द के निम्न उपदेश का स्मरण हुआ और उसे संसार से विरक्ति हो गई।
बाद में उसने भगवान बुद्ध की शरण ली।
भगवान बुद्ध द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर भिक्षु आनंद का आम्रपाली को दिया गया उपदेश
पहला सत्य-
रूप का नाश होगा, वद्धावस्था आयेगी, रोग लगेगा तथा मृृत्यु होगी।
मानव का जीवन इन क़डवी सच्चाईयों से मुक्त नही हो सकता है।
मानव भौतिक प्रसन्नताओं का पीछा करता है और दुख बटोरता है।
अर्थात् सारे भोगों को भोग लेने के बाद तथा आधी उम्र निकलने अथवा
सेवानिवृत्ति के बाद भी व्यक्ति मुक्ति पथ के अभ्यास को छोड़कर
भौतिक संसार (मोह-माया, विषय-विकार व पाप) में डूबा रहता है।
दूसरा सत्य -
इन सारे दुखों का कारण, जब हमारे ध्यान में लालसा और केवल पाने की होड लगी रहती है
तभी सारे दुख हमारे पीछे पड़ जाते हैं।
अर्थात् जब तक हमारे मन में लालसा/कामनायें व कुछ ना कुछ पाने की चाह होगी
तब तक दुख हमारे साथ रहेंगे।
क्योंकि जो इच्छा की उसकी प्राप्ति नहीं होने पर न्यून या अधिक दुख की प्राप्ति होती ही है।
तीसरा सत्य -
इस पीड़ा का अंत और वह तब तक नहीं हो सकता जब तक इच्छाओं का अंत नहीं हो जाता।
अर्थात् जब तक व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ मद, मोह, विषय, विकार, राग द्वेश से ग्रसित रहेगा उसकी इच्छायें और कामनायें कदापि समाप्त नहीं हो सकती है
अपितू इनका विचार मन में आने से यह सभी दोष आग में घी की तरह काम करते हैं।
अर्थात् इनमें कमी की अपेक्षा और वृद्धि ही होती है।
यम-नियम से शौच का संबंधः-
अहिंसा और शौच -
जो हिंसक है, अपवाद को छोडकर उसका मन कभी शुद्ध नही हो सकता है।
इस संबंध में भगवान बुद्ध की एक कथा निम्नानुसार हैः-
बचपन में सिद्धार्थ छोटे थे
तब उनके भाई देवदत्त ने एक हंस को घायल कर दिया था,
भगवान बुद्ध ने उसकी सार सम्भाल की, और
हंस कुछ दिनों में सही हो गया।
देवदत्त ने हंस पर अपना अधिकार जताया।
विवाद होने पर राजा शु़द्धोधन ने भगवान बुद्ध के पक्ष में निर्णय दिया और
हंस भगवान बुद्ध को दे दिया।
अर्थात् उनमें बचपन से ही जीवों के प्रति दया भाव था, अहिंसा का भाव था।
एक बार गौतम बुद्ध घूमते हुए एक नदी के किनारे पहुंचे।
वहां उन्होंने देखा कि
एक मछुआरा जाल बिछाता और उसमें मछलियां फंसने पर उन्हें किनारे रख दोबारा जाल डाल देता।
मछलियां पानी के बिना तड़पती हुई मर जातीं।
बुद्ध यह देखकर द्रवित हो गए और मछुआरे के पास जाकर बोले,
भैया, तुम इन निर्दोष मछलियों को क्यों पकड़ रहे हो?
मछुआरा बुद्ध की ओर देखकर बोला, श्महाराज, मैं इन्हें पकड़कर बाजार में बेचूंगा और धन कमाऊंगा।
बुद्ध बोले, तुम मुझसे इनके दाम ले लो और इन मछलियों को छोड़ दो।
मछुआरा यह सुनकर खुश हो गया और उसने बुद्ध से उन मछलियों का मूल्य लेकर मछलियां बुद्ध को सौंप दीं। बुद्ध ने जल्दी से वे सभी तड़पती हुई मछलियां वापस नदी में डाल दीं।
यह देखकर मछुआरा दंग रह गया और बोला, महाराज, आपने तो मुझसे मछलियां खरीदी थीं।
फिर आपने इन्हें वापस पानी में क्यों डाल दिया?
यह सुनकर बुद्ध ने कहा, ये मैंने तुमसे इसलिए खरीदी हैं ताकि इनको दोबारा जीवन दे सकूं।
किसी की हत्या करना पाप है। यदि मैं तुम्हारा ही गला घोंटने लगूं तो तुम्हें कैसा लगेगा?
यह सुनकर मछुआरा हैरानी से बुद्ध की ओर देखने लगा।
बुद्ध बोले, जिस तरह मानव को हवा और पानी मिलना बंद हो जाए तो वह तड़प-तड़प कर मर जाएगा
उसी तरह मछलियां भी यदि पानी से बाहर आ जाएं तो तड़प-तड़प कर मर जाती हैं।
उनमें भी सांस है। उनको तड़पते देखकर तुम कठोर कैसे रह सकते हो?
बुद्ध की बातें सुनकर मछुआरा लज्जित हो गया और बोला,
महाराज, आज आपने मेरी आंखें खोल दीं। अभी तक मुझे यह काम उचित लगता था
पर अब लगता है कि इससे भी अच्छे काम करके मैं अपनी आजीविका चला सकता हूं।
मैं चित्र भी बनाता हूं। आज से मैं चित्रकला से ही अपनी आजीविका कमाऊंगा।
इसके बाद वह वहां से चला गया और कुछ ही समय में प्रसिद्ध चित्रकार बन गया।
सत्य और शौच -
एक असत्य वादी भी असत्य सुनना पसन्द नहीं करता,
सभी महापुरूषों ने इसे मन की शुद्धि के लिये सबसे प्रमुख शर्त माना है।
जो असत्य में जीता है, उसका मन कैसे शुद्ध हो सकता है।
क्योंकि सत्य को प्रकट करने के लिये किसी बहाने बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
असत्य वादी को बहाने बनाने पड़ते हैं और कभी ना कभी वह अपने बनाये हुए असत्य जाल में स्वयं फंस जाता है तथा
उसके द्वारा कभी सत्य वचन बोलने पर भी कोई भी उसकी बातों पर ज्ञानी तो क्या अज्ञानी मूर्ख भी विश्वास नहीं करता है।
एक गडरिया था, भेंडे चराता था।
उसने एक दिन परिहास में जोर-जोर से चिल्ला कर कहा कि
भेड़िया आ गया है, भेड़िया आ गया है। सभी लोग दौड़े-दौड़े आये, लेकिन वहां भेड़िया नहीं था,
गडरिया खूब हंसा। लोग उस पर नाराज होकर वापस अपने-अपने कार्यों पर चले गये।
कुछ दिनों बाद उसने पुनः ऐसा ही किया, लोगों ने सोचा हो सकता है इस बार वास्तव में भेड़िया आ गया हो। लेकिन वहां पहुंचने पर देखा कि गड़रिया उन सब को देख कर जोर-जोर से हंस रहा था।
कुछ दिनों बाद एक दिन सचमुच में भेड़िया आ गया। गड़रिया खूब जोर-जोर से चिल्ला कर लोगों को बुलाता रहा, लेकिन किसी ने भी उसका विश्वास नहीं किया और
कोई भी उसकी मदद के लिये वहां पर नहीं गया। इस तरह गड़रिये को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा।
अर्थात सत्य के बिना मन कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता है तथा
असत्य वादी का मन से कोई भी सम्मान नहीं करता है।
अस्तेय और शौच -
जो चोरी करता है, जिसका मन परायी वस्तुओं में ही लगा रहता है,
ऐसे व्यक्ति का मन कैसे शुद्ध हो सकता है। उसके मन में तो किस तरह से धन-दौलत में वृद्धि की जाये यही धुन चलती रहती है।
मन शुद्धि के लिये स्तेय का त्याग आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य और शौच -
जो ब्रह्म या मुक्ति को ध्यान में रखते हुए सत्कर्म करता है,
इन्द्रियों का निग्रह करता है, उसका ही मन शुद्ध हो सकता है,
ऐसे व्यक्तियों का नहीं जो कि भोग-विलास में ही डूबे रहते हैं,
ऐसे व्यक्तियों के मन में संसार के ऐष्वर्य व शारीरिक भोगों की तृप्ति कैसे हो,
यही धुन छायी रहती है। इस संबंध में एक सत्य कथा इस प्रकार हैः-
आनन्द भिक्षु कहीं से गुजर रहे थे,
एक प्रकृति नाम की स्त्री से उन्होंने पानी मांगा।
वह उन पर मोहित हो गई। और मां से कहा कि मुझे इसी से शादी करनी है,
नही ंतो मैं आत्म हत्या कर लूंगी।
मां ने और प्रकृति ने पूर्ण प्रयास कर लिये,
उसे और प्रकृति को एक कमरे में बंद कर दिया,
जादू-टोना भी कर लिया, उसे आग में धकलने की धमकी भी दी,
लेकिन आनन्द ने विवाह से इंकार कर दिया।
प्रकृति भगवान बुद्ध के पास गई और आंनन्द से शादी के लिये कहा।
भगवान बुद्ध ने कहा कि पहले तुम्हें सर मुंडवाना होगा।
उसकी मां ने मना किया, लेकिन उसने मां को मना लिया और सर मुंडवा लिया।
भगवान बुद्ध ने उससे पूछा कि तुम्हें भिक्षु आनन्द में ऐसा क्या अच्छा लगा
जो तुम उससे शादी करना चाहती हो।
उसने कहा कि मुझे इनकी आंख, नाक, कान, मुंह, चाल-ढाल आदि अच्छे लगे।
भगवान बुद्ध ने कहा कि आंखें आंसुओ का अड्डा है,
नाक में सीड़ भरी है, कान में मैल भरा है,
मुंह में थूक भरा है। इसके शरीर में गंदगी ही गंदगी तो भरी हुई है।
तब प्रकृति को अपनी गलती का अहसास हुआ ।
पुरानी गाथाओं में विरोधाभास भी देखने को मिलते हैं,
कहीं पर आम्रपाली को देवी तथा राष्ट्र भक्त बताया है,
तो कहीं उसे राष्ट्र घातक भी बताया है।
एक कथा तो बहुत ही आश्चर्यजनक है कि आम्रपाली
एक भिक्षु को पसन्द करने लगी उसने उसे चतुर्मास में अपने घर में रहने के लिये आमंत्रित किया।
सभी भिक्षुओं ने इसका विरोध किया, लेकिन महात्मा बुद्ध को उस भिक्षु पर विश्वास था,
इसलिये उन्होंने उसे अनुमति दे दी।
जिस आम्रपाली की एक झलक के लोग दीवाने थे,
उस आम्रपाली ने उस भिक्षु को पाने के लिये काफी प्रयास किया
लेकिन 4 महिनों में भी वह सफल नहीं हो पाई। और
अंत में भगवान बुद्ध के प्रभाव से वह भिक्षुणी बन गई।
दयानन्द जी का भी ब्रहम्चर्य खंडित करने के लिये
एक वैश्या को भेजा गया था। जब वैश्या उनके पास गई
तो उन्होंने उसे मां कह कर सम्बोधित किया।
वैश्या ने दयानन्द जी से क्षमा मांगी और
वापस चली गई तथा उसने इस पेशे का त्याग कर दिया।
यही शौच व ब्रहमचर्य का समन्वय है।
अपरिग्रह और शौच -
जो व्यर्थ विचारों का व धन-दौलत का संग्रह करने में ही लगा हुआ है,
उसका मन भी शुद्ध नहीं हो सकता है,
क्योंकि जिसे जिस किसी भी चीज की चाह है,
वही उसके मन में चलती रहती है।
मन शुद्धि के लिये अपरिग्रह आवश्यक है।
संतोष और शौच -
संतोष को परम सुख कहा गया है,
जैसा कि कबीर जी ने भी लिखा है कि
सांई इतना दीजिये जामे कुटम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधू ना भूखा जाये।
हां यदि असंतोष करना है तो मुक्ति पथ की साधना में करना है कि
कहीं आज मेरी साधना में कमी नहीं रह जाये अथवा
आज मुझ कल से भी अधिक साधना करनी है।
मन शुद्धि के लिये संतोष परम आवश्यक है।
तप और शौच -
तप ही तो वह साधन है, जिसके द्वारा मन को शुद्ध किया जा सकता है।
अर्थात् अपने तामसिक संस्कारों को सात्विक संस्कारों में परिवर्तित करने का नाम ही तप है तथा
सात्विक व्यक्ति ही अपने सभी कर्तव्यों को पूर्ण ईमानदारी के साथ पूर्ण करता है,
चाहे वह व्यापारी हो या कार्यालय में कार्य करने वाला व्यक्ति हो या मजदूर कोई भी हो।
स्वाध्याय और शौच -
महान आत्माओं का संग तथा सद्ग्रंथों के अध्ययन, साक्षी भाव से अपने प्रत्येक कर्मों का अध्ययन तथा ध्यान के दौरान निर्विचार की स्थिति लाने का प्रयास करना स्वाध्याय है।
इसके बिना मन कभी शुद्ध नहीं हो सकता।
अतः स्वाध्याय के बिना मन शुद्ध होना सम्भव नहीं है।
ईश्वर प्राणिधान और शौच -
समस्त निष्काम शुभ कर्म करना ही ईश्वर प्राणिधान है और
जहां ईश्वर प्राणिधान है वहां अशुद्धि का स्थान नहीं रहता है।
जो ईश्वर प्राणिधान अथवा मुक्ति को ध्यान में रखते हुए कर्म करता है,
वह व्यक्ति इस संसार, शरीर, सुख-दुख, मान-अपमान, भोग, विषयासक्ति, वासना, द्वन्द्व, राग, द्वेश आदि से विचलित नहीं होता हैं।
वह इन सभी के कारण ना तो अति हर्षित होता है, ना दुखी होता है।
इन सबसे दूर रहने के कारण उसके अंदर परम शांति विद्यमान रहती है।
वह समस्त विश्व को अपना मानता है और विश्व के ज्ञानी व सात्विक व्यक्ति भी उसे अपना मानते हैं।
वह जीते जी मुक्ति का जीवन जीता है और मृत्यु का सहर्ष स्वागत करता है।
जो भाई ईश्वर को मानते हैं, उन्हें ईश्वर की आज्ञा समझकर समस्त निष्काम कर्म करने चाहिये तथा
जो भाई ईश्वर को नहीं मानते हैं, उन्हें अपने धर्मोपदेशको को ही ईश्वर स्वरूप मानकर उनकी आज्ञा समझकर समस्त निष्काम कर्मों को करना चाहिये।
अंतर सिर्फ इतना है कि एक तरफ तो धर्म पालन के लिये ईश्वर की आज्ञा है,
दूसरी तरफ वही धर्म पालन की आज्ञा धर्मोपदेशकों द्वारा दी गई है।
महत्व आज्ञा पालन करने का है,
हमें ईश्वर अथवा धर्मोपदेशक का चापलूस बनने के स्थान पर उनकी आज्ञा को अपने जीवन में उतारना होगा, यही वास्विक ईश्वर प्राणिधान है।
सारांश
प्रभू साक्षात्कार/मुक्ति हेतु मन की शुद्धता और उस पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
और उसे प्राप्त करने के लिये, अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहृमचर्य, अपरिग्रह, संतोष, तप, स्वाध्याय रूपी साबुन से उस मन को धोकर शुद्ध करना होगा।
मन को गंदगी रूपी दाग, धब्बों, धूल-मिट्टी जैसे कि इन्द्रियों के भोग, काम, कोध, लोभ, मद, मोह, राग, द्वेश, मोह-माया आदि से बचा कर रखना होगा तभी उसकी धारणा, ध्यान, समाधि पूर्ण होगी तथा समाधि के पश्चात् अदृश्य शक्ति का सानिध्य व शांति/परमानन्द/मुक्ति का अनुभव होगा।
शांति/परमानन्द व अदृश्य शक्ति के सानिध्य को बरकरार रखने के लिये
केवल परमार्थ के लिये जीने से ही अंत समय में सहर्ष व शांति से देह का त्याग सम्भव हो सकेगा तथा
अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी। अन्यथा
मन अशुद्ध या मलिन
(विषय-विकार/कामना/वासना/आसक्ति रूपी मल के कारण)
होने पर उसे संसार में पुनः आना होगा।
सबका भला हो।
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