अस्तेय honesty

 अस्तेय
परायी वस्तु की ओर आकर्षित न होना, उसे ग्रहण न करना, उसकी अभिलाषा न रखना अस्तेय है। किसी वस्तु को बिना मूल्य चुकाए या परिश्रम किए बिना प्राप्त करना भी चोरी है। जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं, उसे पाने की इच्छा चोरी ही मानी जाएगी। उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन बिताया जा सकता है। मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया जा सकता है।
बाईबल व कुरान शरीफ में भी कहा Ûया है कि किसी दूसरे का धन धोखे से मत छीनो। ब्याज पर रकम उधार नहीं दो। सही तोलो। अर्थात् बेईमानी नहीं करो।
अस्तेय व्रत का दृढ़ता से पालन करने वाला मनुष्य सांसारिक सुखों को भोगता हुआ प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।
सान्दीपन गुरु के आश्रम में सुदामा ने भगवान श्रीकृष्ण के साथ चनों की चोरी का पाप किया, वह जीवन भर दरिद्रता से झूजता रहा।
आध्यात्म में अभ्युदय व निश्रेयस अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, अभ्युदय अर्थात् आर्थिक, सामाजिक, नैतिक उन्नति के लिए तथा निश्रेयस आत्मीक उन्नति के लिए, दोनों का समन्वय आवश्यक है, निश्रेयस यानि कि धर्म पूर्वक उन्नति करना.
अस्तेय का व्यापक अर्थ है मन, वचन, कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति (जर, जोरू, जमीन या अन्य कोई भी वस्तु) को चुराने/हड़पने की इच्छा नहीं करना।
मन से अस्तेय का पालन - जैसे किसी के पास अकूत सम्पत्ति है तो हम ऐसा विचार करें कि इसका पर्स गिर जाये या इसके कीमती आभूषण गिर जाये तो हम उससे कुछ समय सुख से बीता लेंगे तो यही मन द्वारा स्तेय है। कोई ईमानदार व्यापारी है, लेकिन अन्य बेईमानों द्वारा अधिक मूल्य में सामान बेचने के कारण उसके  मन में यह विचार आ जाये कि मैं भी इनके तरह आवश्यकता से अधिक कीमत में सामान बेचूं या कम तोलने की सोचे तो चाहे वह सामान ईमानदारी से बेचे लेकिन उसका मन तो ऐसा विचार करने से दूषित हो ही गया।
अर्थात्् हमारे मन में भी किसी भी तरह की वस्तु, सामग्री, धन, सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि को हड़पने का विचार नहीं आना चाहिये अगर मन में इस तरह के विचार आते हैं, तो हमारा मन कभी शुद्ध नहीं हो सकता है, जबकि मोक्ष/प्रभु साक्षात्कार हेतु मन शुद्ध होना परम आवश्यक है।
वाणी से अस्तेय का पालनः- वाणी से अस्तेय का पालन करना जैसे कि डाकू जैसी प्रवृृत्ति के लोग किसी का धन, सम्पत्ति अथवा वस्तु पर अधिकारी जमाने के लिये उसे डरा-धमका कर उसकी धन-सम्पत्ति को हड़पने का प्रयास करते हैं, तो इस तरह का स्तेय वाणी का स्तेय है। या कोई व्यापारी वस्तु की कीमत से भी अधिक दाम किसी वस्तु का बताता है तो यह भी वाणी द्वारा स्तेय है।
वाणी द्वारा स्तेय के संबंध में एक कथा हैः-
चार ठग रहते हैं, उन्हें एक व्यक्ति मिलता है जो गाय के साथ अपने घर जा रहा था। उन चारों ने उसे वाणी द्वारा ठग कर उसकी गाय हड़पने की योजना बनाई। चारों में से एक ठग उस व्यक्ति के पास गया और उससे कहा कि यह बकरी बेचोगे क्या? उस व्यक्ति ने कहा भाई यह बकरी नहीं गाय है और वह आगे चल दिया। कुछ देर बाद दूसरा ठग उस व्यक्ति के पास गया और वही प्रश्न किया? तो उस व्यक्ति को थोड़ी शंका हुई कि यह गाय है या बकरी लेकिन थोड़ी देर बार उस व्यक्ति ने ठग से कहा कि नहीं यह बकरी नहीं गाय है। इसी तरह तीसरे ठग ने भी कुछ देर बाद मिलकर उससे यही प्रश्न किया? वह व्यक्ति बहुत ही हैरत में पड़ गया कि कहीं यह गाय बकरी तो नहीं बन गयी या इसमें कोई प्रेतात्मा तो नहीं घुस गई, जिससे यह गाय मेरे अतिरिक्त अन्य लोगों को बकरी दिखाई दे रही है, लेकिन उसमें अभी भी थोड़ा आत्मविश्वास बाकी था, अतः उसने धीमे स्वर में कहा नहीं यह गाय ही है। कुछ समय बाद चैथे ठग ने भी उससे यही प्रश्न किया अब तो वह व्यक्ति बहुत भयभीत हो गया, उसके शरीर से पसीना बहने लगा और वह उस गाय को पे्रतात्मा के साये में समझकर उसे वहीं छोड़ कर भाग गया। चारों ठगों ने उस गाय को .बाजार में ले जाकर बेच दिया।
इसी तरह वाणी द्वारा कई उत्पादों के बढ़़ा-चढा कर भ्रामक विज्ञापन दिये जाते हंै, यह भी वाणी द्वारा स्तेय ही है तथा तामसिकता पूर्ण कार्य है। जैसे कि बिस्कुट का विज्ञापन आता है कि बिस्कुट खाने से चीते की सी ताकत आ जायेगी, या कोई दिमागी अथवा शारीरिक टाॅनिक का उपयोग करने से अद्भूत शक्ति मिल जायेगी या स्मरण शक्ति अत्यंत तीव्र हो जायेगी तो यह वाणी द्वारा अस्तेय का ही तो उदाहरण है।
शरीर से स्तेय:- यह अत्यधिक तामसिक श्रेणी का स्तेय है। एक योग/मुक्ति पथ के पथिक का इससे बचकर रहना अनिवार्य है।
इस संबंध में एक सत्य कथा हैः-
महात्मा आनन्द स्वामी जी एक जगह उपदेश देने गये वहां उन्होंने एक संन्यासी को रोते हुए देखा। उन्होंने उससे पूछा कि भाई क्यों रो रहे हो, यदि कोई परेशानी है तो मुझे बताओ मुझ से कुछ मदद हो सकेगी तो में करूंगा। तब उस सन्यासी ने अपनी सत्य कहानी स्वामी जी को सुनाई कि हम दो दोस्त थे व्यापार करने बम्बई गये। लाखों रूपये हम दोनों ने कमायें। मेरी नीयत इतना धन देखकर खराब हो गई और मैंने योजना बनाई कि इसे मारकर इसका धन भी मैं ही हड़प लेता हूं और मैंने ऐसा ही किया। मेरे लोभ के कारण उसकी हत्या हुई और मैंने डाक्टरों को पैसा देकर मेरे दोस्त की स्वभाविक मृृत्यु का सर्टिफिकेट बनवाकर उसके घर वालों को लगभग 35000 रू. दे दिये, उस समय इन 35000 की कीमत लाखों में थी, उसके घर वाले सन्तुष्ट हो गये। मेरा विवाह हुआ, मेरे एक लड़का हुआ मैंने अपार धन-सम्पदा एकत्रित कर ली। लेकिन बच्चा जब व्यसक हुआ तो बीमार रहने लगा और उसके ईलाज में मेरा सारा धन समाप्त हो गया। मकान भी बिक गया और मैं झौपड़ें में आ गया। मैंने सोचा कि पैसा तो मैं फिर कमा लूंगा लेकिन पुत्र वापस नहीं पा सकता हूं। पुत्र की स्थिति गम्भीर थी वह मुच्र्छित हो गया और चार दिन बाद उसने आंखें खोली मेरी ओर देखकर मुस्कारते हुए कहा मुझे पहचाना मैं तुम्हारा वहीं दोस्त हूं, जिसे तुम ने जहर देकर मारा था। मैंने अपने हिस्सा को तो ले ही लिया है और जैसे तुमने मेरा सब-कुछ ले लिया था वैसे ही तुम्हारा सब कुछ समाप्त करके अब मैं जा रहा हूं और उसने कुछ समय बाद दम तो़ड़ दिया। आनन्द स्वामीजी ने उसकी कहानी सुनकर कहा कि भाई तुम्हारा कर्म तो बहुत खराब है इसमें तो में भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।
शिक्षा- अपने हक हलाल की कमाई पर ही जीवन यापन करना चाहिये, किसी दूसरे की धन-सम्पत्ति हड़पने का विचार भी मन में नहीं आने देना चाहिये, क्योंकि आज नही ंतो कल बेईमानी द्वारा कमाया धन हमसे दूर होगा ही अथवा वह धन ऐसे ही पड़ा रह जायेगा वह हमारे काम नहीं आयेगा कोई दूसरा ही उसका उपभोग करेगा। जैसी करनी वैसी भरनी यह परम सत्य है।
हमें किसी का भी सामान उसके बिना पूछे नहीं लेना चाहिये तथा यदि मजबूरी में लिया जाये तो जिसका सामान है, उसे अवगत कराना चाहिये  तथा यदि क्षतिपूर्ति आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति भी करनी चाहिये । यदि अंजाने में हमारे पास किसी की कोई वस्तु आ गई है तथा हमें असली मालिक का पता हो तो उसे वापस लौटानी चाहिये । यदि मालिक का पता नहीं हो तो  कम से कम उस वस्तु की कीमत के बराबर दान करना चाहिये। अर्थात्् गलती से भी स्तेय के विचार आने पर या स्तेय करने पर प्रायश्चित अति-आवश्यक है।
फरीद जी ने सत्य ही कहा है कि ऐ मालिक मुझे अपनी इच्छा पूरी करने के लिये पराये दर पर नहीं जाना पड़े, इससे अच्छा तो होगा कि तू मूझे मौत दे दे। अर्थात् अपनी इमानदारी की कमाई से हीं संतुष्ट रहना चाहिये तथा इस तरह से रहना चाहिये कि प्रथम तो हम ऐसे रहें कि जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलायें अथवा विवशतावश यदि स्वयं के लिये कुछ मांगना भी हो तो प्रभू के अतिरिक्त किसी अन्य के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़े, वैसे तो प्रभू/मुक्ति हेतु सभी कामनाओं का त्याग आवश्यक है। इसके अपवाद में यदि कोई संत दान राशि को अपने ऐशो-आराम पर खर्च नहीं करता है, सात्विक व साधारण जीवन व्यतीत करता है तथा परहित के लिये स्वैच्छिक दान की अपेक्षा करता है तो वह मांगने की श्रेणी मंे नहीं आता है। इसके विपरीत दान प्राप्त करके उस पर सांप की तरह कुंडली मार कर बैठने वाला संत की आड़ मेें बगुला भगत है।

अस्तेय का पालन वहीं कर सकता है जो सात्विकता बढ़ाने के अभ्यास में लगा हुआ है अथवा अंतर मन में वैराग्य धारण करके कीचड़ में कमल की तरह रहते हुये यम-नियमों का पालन करने के अभ्यास में रत है।
यम-नियम आपसे मंे किसी ना किसी रूप में सात्विकता से जुडे हुए हैं, सभी सात्विक बनने का अभ्यास करने के महत्व को दर्शाते हैंः-
यम नियम और अस्तेय
अहिंसा और अस्तेय:- ंहिसावादी व्यक्ति में सत और तम दोनों का मिश्रण होता है, अतः जब तक वह हिंसा कर रहा है तब तक वह अस्तेय का विरोधी भी बना रहेगा, क्योंकि किसी की भी हिंसा या प्राणों का हनन करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। और हिंसा के द्वारा किसी का हनन करना भी स्तेय ही है।
सत्य और अस्तेयः- जो सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी, सत्य सिंधु, सत्य स्वरूप है वही पूर्णतः अस्तेय का पालन करने वाला माना जा सकता है, वही मोक्ष का/प्रभू साक्षात्मकार का अधिकारी है। अर्थात् जो असत्य बोलता है, असत्य को मानता है, असत्य ही करता है, असत्य में डूबा हुआ है वह कभी भी अस्तेय का पालन नहीं कर सकता क्योंकि विषय-विकारों व पाप में डूबा हुआ व्यक्ति तामसिक प्रवृत्ति का होता है। अर्थात् जो राजसिक है, वह सात्विक बन सकता है, लेकिन पूर्णतः तामसिक वृत्ति वाले का अस्तेय का पालन करना बहुत कठिन है। कुछ विरले ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने तामसिकता का त्याग कर सात्विकता को ग्रहण किया जैसे कि महर्षि बाल्मिकी, अंगुलिमाल आदि।
ब्रह्मचर्य और अस्तेयः - ब्रह्मर्च के मूलतः दो अर्थ हंै - 1 कामासक्ति का त्याग  2 मोक्ष अथवा ब्रह्म साक्षात्मकार हेतु ब्रह्म को अथवा मोक्ष के लक्ष्य को ध्यान में रखकर समस्त मानसिक, वाचिक, शारीरिक शुभ कर्मों को निष्काम भाव से करना। गीता में काम को ही पाप का मूल बताया गया है। जैसा कि समाचार पत्रों में समचार छपते रहते हैं कि कोई विवाहित किसी अन्य के साथ रहने के लिये अपने पति/पत्नी की हत्या करवा देते हैं। किसी दूसरी स़्त्री या पुरूष के बारे में मन में सोचना भी स्तेय है, जैसा कि कहा गया है कि दूसरी नार पर क्यंू रखता नजर तूने रावण का अंत भी देखा तो है। अतः जो ब्रह्मभाव में रहता है, वही मन, वचन, कर्म से अस्तेय का पालन कर सकता है।
अपरिग्रह और अस्तेयः- अपरिग्रह और अस्तेय का तो चैkली-दामन का साथ है, जो परिग्रह में लगा हुआ है वह लोभी होगा और जो लोभी है उसका स्तेय से अटूट संबंध बना रहता है, लोभ की डोर उसे अस्तेय का पालन नहीं करने देती है। लोभ के कारण वह धन-सम्पदा पर कुंडली मार कर बैठ जाता है, ना तो वह कर चुकाता है, ना अपने उपयोग में लेता है और ना ही किसी दूसरे को उसका उपभोग करने देता है। जो संतोषी है वहीं अस्तेय का पालन कर सकता है लोभी नहीं।
शौच और अस्तेय - जिसका मन शुद्ध है, जिसमें सात्विकता की भरमार है वह कभी भी स्तेय नहीं कर सकता है, वह सदैव अस्तेय का पालन करने के अभयास मंे लगा रहता है। वह यह ध्यान रखता है कि कहीं उसके मन में भी तो स्तेय का विचार नहीं आ रहा है।
संतोष और अस्तेय - जो संतोषी है, वही वास्तव में अस्तेय का पालन कर सकता है।  लोभी नहीं क्योंकि लोभी का उद्देश्य ही किसी भी तरह से छल, कपट, साम-दाम, दंड भेद से जर] जोरू व जमीन आदि को प्राप्त करना होता है।
तप और अस्तेयः- जो तपस्वी है, जिसमें सभी द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति होती है, वह विषय-विकारों व पाप से विरत रहता है, मान-अपमान में सम रहता है, राग-दैष से दूर रहता है। ऐसी महान विभूति कभी स्वपन में में भी स्तेय की कल्पना नहीं कर सकती है।
स्वाध्याय और अस्तेयः- जो ध्यान लगाता है अर्थात् सद्ग्रंथों का अध्ययन करता है, सत्संग सुनकर उसके पालन का अभ्यास करता है, वह कभी अस्तेय का  उल्लंघन नहीं कर सकता है।
ईश्वरप्राणिधान और अस्तेयः- जो सभी कर्म ईश्वर को अथवा मोक्ष लक्ष्य को ध्यान में रखकर निष्काम भाव से करता है, वह कभी भी अस्तेय का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
 यह कितना अच्छा भजन है इसमें यम-नियमों का समावेश हैः-
ए खुदावन्द बता] खुदावन्द बता तेरे खेमे में कौन रहेगा\ कौन रहेगा\
तेरे पवित्र पर्वत पर जाकर कौन बसेगा\ कौन बसेगा\
ए खुदावन्द बता] खुदावन्द बता।
वो जो सही रास्ते पर है चलता सदा धर्म करता और सच है कहता। (सत्य पथ] सत्य धर्म] सत्य वादी)
वो जो सही रास्ते पर है चलता सदा धर्म करता और सच है कहता।
जुबां से किसी की जो निन्दा ना करता] कभी दोस्त की जो बुराई ना करता। (राग द्वेष] मान-अपमान से रहित)
जुबां से किसी की जो निन्दा ना करता] कभी दोस्त की जो बुराई ना करता।
धन्य है वो] धन्य है वो] तेरे पवित्र पर्वत पर जाकर वो ही बसेगा।
ए खुदावन्द बता] खुदावन्द बता
दुर्जन से हरदम निगाहें फिराता] फख्त नेक बंदों की इज्जत वो करता । (करूणा] मैत्री] मुदिता] उपेक्षा)
जो दुर्जन से हरदम निगाहें फिराता] फख्त नेक बंदों की इज्जत वो करता।
वो जो कसम खाकर टलता नहीं है]
जो हानि सहे पर बदलता नहीं है। (हानि होने पर भी संकल्प पूर्ण करने वाला)
वो जो कसम खाकर टलता नहीं है] जो हानि सहे पर बदलता नहीं है।
धन्य है वो] धन्य है वो] तेरे पवित्र पर्वत पर जाकर वो ही बसेगा।
ए खुदावन्द बता खुदावन्द बता।
वो जो रकम सूद पर नहीं देता] झूठी गवाही की रिश्वत ना लेता]  ((अस्तेय व अपरिग्रह का पालनकर्ता)
वो जो रकम सूद पर नहीं देता] झूठी गवाही की रिश्वत ना लेता]
ऐसा काम वो जो भी है करता] सही रास्ते से कभी ना भटकता। (सत्व गुण की प्रधानता वाला)
ऐसा काम वो जो भी है करता] सही रास्ते से कभी ना भटकता।
धन्य है वो] धन्य है वो] तेरे पवित्र पर्वत पर जाकर वो ही बसेगा।
      यह भजन उसी का जीवन सार्थक मान रहा है, जो यम-नियमों का पालन करता है। निन्दा के विषय में तो सत्यता यही है कि असत्य और निरर्थक निन्दा किसी की भी नहीं करनी चाहिये, लेकिन यदि कोई किसी को बगुला भगत बनकर अपना उल्लू सीधा कर रहा हो तो उससे सावधान करना निन्दा की परिभाषा में नहीं आता है अपितू सतकर्म में आता है। जैसे कि आजकल इंटरनेट पर लोगों को गुमराह किया जाता है कि आपको करोड रूपये की राशि का पुरस्कार दिया जा रहा है, लेकिन आपको इसके लिये कुछ रूपये आपसे मिलने वाले व्यक्ति को देने होंगे या कुछ रूपये कम्पनी के खाते में जमा करवा दें। तो यह बगुला भगत वाली बात ही है] पता नहीं कितने हजारों को उसने यह मैल/मैसेज किया होगा, उनमें से कुछ भोले-भाले लोग तो उनके जाल में फंसकर रूपये दे भी देते है और बाद में पछताते हैं। अतः ऐसे लोगों की निन्दा कर किसी को सावधान करना सतकर्म ही है, क्योंकि आपने उसकी आर्थिक हानि से उसे बचाया है।
विभिन्न धर्मांे में सिद्धांतांे को लेकर मतभेद अवश्य है, जैसे कोई कर्म को मानता है ईश्वर को नहीं, तो कोई मुक्ति को मानता है, कोई नहीं। कोई आत्म साक्षात्कार को मानता है, कोई परमात्मा साक्षात्कार को मानता है। इसी तरह कोई परमानन्द को मानता है, कोई दिव्य ज्योति को मानता है, कोई दोनों को मानता है। लेकिन यदि हमें हमारे धर्मगुरू द्वारा जो भी लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हमेें निर्देश दिये जाते हैं] जैसे कि अंहिसा] सत्य] अस्तेय] ब्रह्मचर्य (मन से शुद्ध रहना व इन्द्रिय निग्रह)] अपरिग्रह] शौच] संतोष] तप] स्वाध्याय] ईश्वर प्राणिधान (समस्त शुभ व निष्काम कर्म करना) आदि का पालन करना परम आवश्यक है।
      उस परम शक्ति का निवास अथवा मोक्षस्थल का भी सभी ने अलग-अलग वर्णन किया है] लेकिन सत्यता तो यह है कि गुरू द्वारा बताये गये सभी निर्देशों की पालना करने से इस संसार तथा पंच तत्व के शरीर से मुक्ति पाकर उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं अथवा उस परम शक्ति के सानिध्य में रह सकते हैं। वह परम शक्ति सर्वत्र विद्यमान होने पर भी निर्लेप होने के कारण उसका सानिध्य/साक्षात्कार/अनुभव पूर्णतः यम-नियम पर चलने वाली कुछ महान आत्माओं को ही प्राप्त होता है।
सारांश
      मोक्ष अथवा प्रभू साक्षात्कार/परमानन्द के लिये अस्तेय का मन] वचन व कर्म से पालन अनिवार्य है। इसके अभाव में व्यक्ति तमो प्रधान या रजो प्रधान रहता है। सत्व में समाहित होने के लिये अस्तेय परम आवश्यक है। इसके अभाव में ना धारणा निश्चित होगी, ना पूर्णतः ध्यान ही लगेगा तथा ना ही समाधी लग सकती है।

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