माया
माया
इस संसार में सबसे तीव्र गति
यदि किसी की है तो वह
मन की है और
मन ही है
जो कि मनुष्य के जन्म से लेकर
उसकी मृत्यु तक
इस माया रूपी नष्वर संसार में
मनुष्य को उलझाये रखता है।
🌸
जब इस मन को
ध्यान के माध्यम से
उलझाया जाता है,
तब जाकर इसकी गति
कुछ धीमी होना प्रारम्भ होती है
🌺
जब इस मन का निरन्तर
ध्यान रखने का अभ्यास
किया जाता है,
तब यह स्थिर होने लग जाता है और
अंतत: पूर्णतः शांत होता जाता है और
🌺
जब मन पूर्णतः शांत होता है
तब मनुष्य को वास्तविक स्वरूप
चेतना यानि कि आत्मा/परमात्मा की अनुभूति होती है।
🌸
बहुत से लोग कहते हैं कि
यदि सभी धर्म से जुड़ गये
तो फिर यह संसार कैसे चलेगा।
🌸
ऐसे लोग संसार की चिंता का
बहाना करते हैं, जबकि
वास्तविकता तो यह है कि
हमारे मन की प्रवृत्ति
इंद्रियों मे रत रहने की है,
संसार की ओर गति करने की है,
🌸
जैसे कि बारिश का पानी अथवा
उपर से नीचे की ओर पानी
आसानी से नीचे की ओर
डाला जा सकता है, लेकिन
जब उसी पानी को
उपर पहुंचाने की बात आती है
तो वह पानी बिना ऊर्जा खर्च किये उपर नहीं पहुंचाया जा सकता है।
🌸
जैसे कि समुद्र का पानी
जब सूर्य की उर्जा से
भाप बनता है और
जितनी गति से पानी
नीचे आता है, उससे अपेक्षाकृत
कम गति से पानी भाप बनकर
उपर पहुंचता है,
🌸
यानि कि बिना अग्नि के संयोग के
पानी उपर नहीं जा सकता है।
🌸
इसी प्रकार मकान की छत पर
पानी की टंकी भरने के लिये
शारीरिक श्रम रूपी उर्जा अथवा
विद्युत उर्जा की आवश्यकता होती है।
🌺
यानि इंद्रियों में रत रहना और संसार मे रत रहना आसान है, लेकिन मन को इनसे अनासक्त कर उस अदृश्य शक्ति में लगाना अत्यंत कठिन कार्य है ।
क्योंकि मन का स्वभाव है कि
इसमे सांसारिक विचार ही चलते रहते हैं
चाहे ध्यान करें
चाहे सत्संग सुने अथवा
गुरुवाणी सुने
🌺
कोई विरला ही ध्यान करते समय अपने व्यर्थ विचारों से मन को हटाकर उस अदृश्य शक्ति में टिका पाता है।
🌺
कोई विरला ही ध्यान से गुरुवाणी को सुनकर अपने जीवन मे उतार पाता है।
🌺
यानी माया के प्रभाव के कारण मनुष्य का मन संसार में उलझा रहता है गुरुवाणी इस मायाजाल से मन को बचाने के लिए समझाती है ।
मन की गति इतनी तीव्र है कि वह संसारी का तो क्या बैरागी का भी मन डावाडोल कर देता है
एक छोटी सी कथा है
🌺
एक राजा सब कुछ छोड़कर सन्यासी बन गया
उसका मित्र जो कि राजा था, उसे देख कर उसके आगे नतमस्तक हुआ
संयोग से सन्यासी के गुरु से उसका मिलना हुआ
उसने अपने मित्र के बारे में चर्चा की तो उनके गुरु ने बताया कि मन के कारण ही कोई मुक्त हो सकता है अथवा बंधन में फंस सकता है
🌺
गुरु ने बताया कि जब तुम उससे मिले थे
उससे पूर्व उनके राज्य के वजीर ने तुम्हारे मित्र को बताया था कि उनके पुत्र का शासन नाम मात्र का है सेनानायक अपनी मनमर्जी कर रहे हैं यह सुनते ही तुम्हारे उस सन्यासी मित्र के मन ने तलवार खींच ली और मन ने कहा कि अभी मैं जीवित हूं सब को समाप्त कर दूंगा
🌺
कुछ समय पश्चात उसने अपना ताज देखा तो बाल ही नहीं थे
🌺
तब उसे ध्यान आया कि मैंने तो सब कुछ छोड़ दिया है
🌺
फिर वह अपनी बेवकूफी पर हंसा और अपने मन को पुनः साधना में रत किया
🌺
जिस समय मन ने तलवार खींची थी यदि उस समय उसकी मृत्यु होती तो वह नरक में जाता यानी बंधन में रहता और
🌺
जब उसे होश आया और साधना में रत था उस समय उसकी मृत्यु होती तो वह मुक्त हो जाता।
🌺
इस प्रसंग में एक दृष्टांत इस प्रकार हैं
🌺
एक राजा के दरबार में एक दार्शनिक तीन मूर्तियां लेकर गया
तीनों एक सी ही थी
राजा को कहा कि यदि आपके राज्य में से कोई भी इनमें अंतर बता दे तो मैं मान सकता हूं कि आपके राज्य में ज्ञानवान लोग भी हैं
🌺
बहुत से लोगों ने प्रयास किया लेकिन असफल रहे
🌺
अंततः एक ज्ञानी ने मूर्तियों का राज खोल दिया
उसने एक तार मंगाया
🌺
पहली मूर्ति के कान में डाला
तार दूसरे कान से बाहर आ गया
🌺
दूसरी मूर्ति में डाला तार मुंह से बाहर आ गया
🌺
तीसरी मूर्ति में डाला तार हृदय से बाहर हुआ
🌺
फिर इसका मतलब समझाया कि संसार में तीन तरह के शिष्य होते हैं
🌺
पहला जो इस कान से सुन के दूसरे कान से निकाल देते हैं या सुनते ही नहीं है, ऐसे शिष्य तामसिक श्रेणी में आते हैं
🌺
दूसरा जो सुनते हैं आचरण में नहीं लाते
मुंह से निकाल देते हैं
दूसरों को समझा देते हैं
लेकिन खुद नहीं समझते है।
ऐसे शिष्य राजसिक श्रेणी में आते हैं
🌺
तीसरे ऐसे होते हैं कि
गुरु की वाणी उनके हृदय को चीर देती है,
हृदय में समाहित हो जाती है
ऐसे ही लोगों का कल्याण होता है। ऐसे शिष्य सात्विक श्रेणी में आते हैं
🌺
यानी प्रथम दो तरह के शिष्य
माया से ग्रसित है तथा
तीसरी तरह के शिष्यों ने
माया को समझ लिया है
मन की गति को समझ लिया है और
उससे सावधान है
🌸
कहने का तात्पर्य यह है कि
यह हमारा मन अधोगति नीचे की ओर
संसार की ओर बहने वाला है,
संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों का
आकर्षण मनुष्य के मन को
संसार की ओर खींचे रखता है,
लेकिन संसार से मन को हटाकर
उस अदृश्य तत्व में लगाने में
अत्यधिक श्रम, अत्यधिक पुरूषार्थ की
आवश्यकता होती है।
🌸
तो यह कहना सत्य नहीं कि
सभी लोग इस संसार का त्याग कर
सकने की क्षमता रखते हैं।
🌸
सत्यता तो यह है कि
इस संसार को ना तो
योगी ही त्याग सकता है
ना भोगी ही त्याग सकता है।
🌸
इसे समझाने के लिये ही
कमल के फूल का उदाहरण
दिया जाता है, जिसमें
यह संसार कीचड़ रूपी है और
जड़ हमारा शरीर है और
कीचड़ से उपर उठा हुआ
हिस्सा आत्मा की तरह
उस कीचड़ से निर्लिप्त है।
जैसे कीचड़ के बिना
कमल का असतित्व नहीं
उसी तरह हमारा भी
इस संसार के बिना
अस्तित्व नहीं
यह संसार ही हम सबका आधार है।
🌸
यानि के हमारा यह तन
चाहे संसार रूपी कीचड़ से
जुड़ा रहे लेकिन
यह हमारा मन
इस संसार के समस्त पदार्थों की
कामना/वासना से
अनासक्त रहे,
निर्मोही रहे,
निर्लिप्त रहे
तो इसका अभ्यास करना ही
स्वयं को तपाना है,
स्वयं को उपर उठाना है और
इसीलिये गीता में लिखा है
कि कोई हजारों में से एक
धर्म का पथिक यानि जिसने
गुरू/ज्ञान धारण किया है और
ऐसे हजारों गुरूशिष्यों/ज्ञानवानों
में से कोई एक ही उपर की ओर उठता है।
🌸
यह कहना सर्वथा असत्य है कि
सभी संसार को त्याग सकते हैं।
🌸
हमारा यह मन अवश्य
संसार को त्याग सकने की
क्षमता रखता है,
लेकिन इसके लिये बुद्धि/
विवेक रूपी सारथी (उर्जा) की
आवश्यकता पड़ती है।
🌸
लेकिन हमारा यह मन
शकुनि की तरह है और
इसने इस संसार के
अधिकतर लोगों की बुद्धि को
दुर्योधन की तरह बना रखा है।
🌸
जैसे कि दुर्योधन सोचता था कि
शकुनि मेरा सच्चा हितैषी है,
लेकिन जो गलत राह पर
ले जाता है, उसका पतन तो
सुनिश्चित ही है।
🌸
दुर्योधन को लगता रहा कि
शकुनि सही सलाह दे रहा है,
लेकिन उसने शकुनि की वाणी को
धर्म की तुला पर नहीं तोला
यानि के जो उसने ज्ञान
हासिल किया था उसके अनुरूप
कर्म नहीं किये और
अधर्म के रस्ते पर चलते हुए
असमय मृत्यु को प्राप्त हुआ।
🌸
लेकिन धर्म/गुरू के ज्ञान का
कुछ थोड़ा बहुत असर तो
दुर्योधन पर भी पड़ा ही था,
इसीलिये उसने यह स्वीकार
किया था कि
🌸
मुझे पता है कि मैं जो कर रहा हूं
वह गलत है, लेकिन क्या करूं
मेरे संस्कार मुझे
सत्कर्म करने से रोक देते हैं।
संस्कार तो बनते ही इन्द्रियों में
लिप्त होने के कारण हैं और
इन्हें लिप्त करता है
हमारा यह मन।
🌸
विषय-विकार व पाप से ग्रसित
होने के कारण ही मनुष्य
जन्म जन्मांतरों से भटक रहा है,
और जब तक यह भाव मन से
निर्वासित नहीं होते
मुक्ति भी असम्भव है।
🌸
इस मन से बने संस्कारों के
कारण ही इन्द्रियों के
वषीभूत होकर विषयों
रूप,
रस,
गंध,
शब्द,
स्पर्श
में फंसकर जीव असमय ही
अपनी जान गंवा देते हैं -
🌸
रूप –
आंखें रूप का दर्शन करती है,
पतंगा-अग्नि रूपी प्रकाश/रूप
के आकर्षण में इतना अधिक
मदहोश हो जाता है कि
दीपक की लौ के आस-पास
मंडराते हुए अंतत: उसी में
पतंगा जलकर भस्म हो जाता है।
🌸
रस –
जिव्हा रस का रसपान करती है
मछली-जिव्हा/रसना के कारण
स्वादवश गिल खाने के
लालच में कांटे में फंस जाती है
और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा में
मछली मृत्यु को प्राप्त होती है।
🌸
गंध –
नासिका गंध ग्रहण करती है।
भंवरा- सुगन्ध/गंध के कारण
फूल का रस पान करने में
इतना मदहोश हो जाता है कि
कब सांझ हुई और
कब फूल बंद हुआ और
कब वह उसमें कैद हुआ
उसे होश ही नहीं रहता और
इन्द्रिय तृप्ति की लालसा में
भंवरा मृत्यु को प्राप्त होता है।
🌸
शब्द –
कान शब्द का श्रवण करते हैं
हिरण–श्रवण इन्द्री/कान के कारण
संगीतमय धुन सुनता है और
उस धुन में इतना खो जाता है कि
शिकारी उसे आसानी से
पकड़ लेता है और
इन्द्रिय तृप्ति की लालसा में
हिरण मृत्यु को प्राप्त होता है।
🌸
स्पर्श –
त्वचा स्पर्श की अनुभूति कराती है।
हथिनी को देखकर
हाथी कामवासना/स्पर्श के लिये
इतना मदहोश हो जाता है कि
उसे ध्यान नही नहीं रहता कि
यह महावत या
हाथी पकड़ने वाले के द्वारा
बिछाया हुआ जाल है और
हाथी उस हथिनी की ओर
मदहोश होकर बढ़ता है और
घास फूस से ढके हुए गढ़ढे में
गिरकर पकड़ा जाता है।
🌸
इन्द्रिय तृप्ति की लालसा में
वह कैद हो जाता है और
जब तक मृत्यु नहीं होती
बंधन में रहते हुए जीवन जीता है
और बंधन में रहते हुए ही
हाथी मृत्यु को प्राप्त होता है।
🌸
जो भ्रम में डालता है,
उसे ही माया कहते हैं।
🌸
इस संसार में सभी
अदृश्य की अराधना करते हैं।
जिस चेतन तत्व के कारण
यह शरीर चलायमान है,
वह अदृश्य है और जिस
अदृश्य चेतन तत्व के कारण
यह ब्रह्माण्ड संचालित है,
वह भी अदृश्य है।
🌸
कई लोग माया का केवल
एक ही अर्थ निकालते हैं कि
धन को माया कहते हैं,
जबकि माया में धन सहित
वे सभी पदार्थ आते हैं
जो दृष्यमान हैं और नश्वर हैं।
🌸
जैसे कि श्रीकृष्ण ने कहा था कि
अर्जुन मेरी माया बड़ी विकट है,
जैसे कि किसी की मृत्यु
हो जाती है तो उसके घर वाले
खूब शौक मनाते हैं, लेकिन
कुछ समय व्यतीत होते ही
वे फिर से मौज-मस्ती में
लग जाते हैं।
नाचने-गाने लग जाते हैं।
🌸
उन्हें यह याद नहीं रहता कि
हमने किसी को खोया है।
🌸
इस संसार में
किसी वैरागी को छोडकर
ऐसा कोई नहीं जो अपने प्रियजन/
स्वजन की मृत्यु के बाद
अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में
लिप्त नहीं रहता हो।
यही माया का सबसे बड़ा
उदाहरण है।
गुरू वाणी अर्थात्
गुरू का उपदेश कहता है कि
उस अदृष्य शक्ति को याद
रखते हुए और उसके न्याय
जैसी करनी, वैसी भरनी
को याद रखते हुए
🌸
सत्य बोलो,
🌸
हिंसा नहीं करो,
🌸
पराये धन/पदार्थ को
छल/बल या धोखे से
हड़पने की कामना मत रखो,
🌸
पर स्त्री/पर पुरूष का विचार भी
अपने मन में मत आने दो।
🌸
दान करो यानि के
जरूरतमंदों की मदद करो।
🌸
मन में कुछ भी बुरा प्रवेश
नहीं करने दो,
🌸
जो है उसी में संतोष रखो,
🌸
अपने से बड़ों और छोटों की
यथा योग्य पालना करो।
🌸
गुरू वाणी यानि गुरू का
उपदेश सुनो चाहे उसका
माध्यम सत्संग हो या सद्ग्रंथ।
🌸
प्रतिदिन ध्यान करके
उस तत्व को जानो
जिसके कारण यह शरीर
चलायमान है तथा
उस अदृश्य शक्ति की
पावन ज्योति का साक्षात्कार करो
उसके नाद का श्रवण करो
तथा परमानन्द/दिव्य सुख की
अनुभूति करो)।
🌸
गुरू वाणी/उपदेश ऐसा
इसलिये कहते हैं क्योंकि
यही सब कुछ है जो कि
मनुष्य को जन्म/मरण के
बंधन से मुक्ति दिला सकता है,
नश्वर सुखों की अपेक्षा
कभी खत्म नहीं होने वाला
चिर स्थाई सुख प्रदान
कर सकता है
🌸
वैसे तो आध्यात्म यात्रा में
पूर्ण प्रयास करना चाहिये कि
जीते जी ही आत्मा/परमात्मा का
साक्षात्कार कर लिया जाये
🌸
लेकिन यदि फिर भी कोई
अपनी कामनाओं/वासनाओं का
चक्र तोड़ने में असफल रहने के
कारण उस दिव्य सुख/परमानन्द
की अनुभूति से वंचित रह जाता है,
तो सच्चे मन से प्रयास करने
वालों का कम से कम
अगला जन्म तो सुधरता ही है।
🌸
अगला जन्म तो सुखमय
होता ही है और अगले जन्म में
अपने शुभ संस्कारों के कारण
उस दिव्य सुख/परमानन्द की
अनुभूति में सहायता भी मिलती है।
🌸
माया इतनी प्रबल है कि
अधिकतर शिष्यों के अंतरमन/
चित्त में गुरू की वाणी,
गुरू का उपदेश स्थान ही नहीं
बना पाता है।
🌸
माया इतनी प्रबल है कि
उसके कारण ही विषय
रूप,
रस
गंध
शब्द
स्पर्श
इन पांचों के संयोग के कारण
कामनायें,
वासनायें
उत्पन्न होती है।
और इसी माया के कारण
मनुष्य का मन विकार यानि कि
काम
क्रोध,
लोभ,
मद,
मोह,
राग-द्वेष
से ग्रसित हो जाता है
🌸
आंखें - रूप की माया के
कारण ही हमारी आंखें (रूप)
इस दुनिया में विद्यमान
पदार्थ/शक्लों को ही देखती
रहती हैं,
चाहे उसका माध्यम
टी.वी. हो,
सिनेमा हो या
फिर हमारे सम्पर्क में
आने वाले स्त्री/पुरूष
चाहे वह कार्यस्थल में मिले अथवा
किसी समारोह में अथवा
कहीं राह में मिले और
जब यह आंखें किसी को भी
देखती है तो
उस दृश्य चाहे
वह पदार्थ हो या शक्ल
उसके कारण मन में
विचार की तंरेगें उठती है
और एक वासना/कामना की
परत मन/चित्त पर अंकित
कर देती है।
🌸
वैसे तो बहुत से उदाहरण है,
जैसे कि हातिमताई के किस्से
में एक प्रश्न आता है कि
एक बार देखा है,
बार-बार देखने की तमन्ना है,
🌺
इस किस्से में एक युवती थी
जिसके सम्पर्क में
जो भी आता था,
उसके रूप के आकर्षण में
उसे पाने की चाह में
उसे स्पर्श करता था,
तो उसका सिर धड से
अलग होकर एक पेड़ पर
टंग जाता था,
🌸
उस पेड़ पर बहुत से
लोगों के सिर टंगे थे और
सभी कटे हुए सिरों से यही
आवाज आ रही थी कि
एक बार देखा है
बार-बार देखने की तमन्ना है।
🌺
हातिमताई जो कि
एक सच्चा इंसान था,
उसने परायी स्त्री को
स्पर्श तक नहीं किया,
उसने उस युवती को
ठुकरा दिया और
उसके ठुकराने के कारण ही
वह स्त्री श्राप से मुक्त हुई और
सभी वापस जिंदा हो गये।
लेकिन जो पुन: जिंदा हुए थे
उनके अंदर कामना/वासना
इतनी अत्यधिक प्रबल थी कि
वे धड़ से जुड़ते ही उस स्त्री
को पाने की लालसा में उसकी
ओर भागे।
🌸
रूप के आकर्षण की इस माया
के कारण ही मनुष्य भी
यही सब कुछ करता है
🌸
अपने मन में कामनाओं/वासनाओं
का अथाह भंडार लेकर शरीर
को त्यागता है, और इन्हीं
कामनाओं/वासनाओं के कारण
उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है
और हर जन्म में वह पुन:
कामनाओं/वासनाओं की तृप्ति में
लग जाता है।
🌸
यानि कि उस कथा के अनुसार
इस संसार में कोई भी अच्छा/सच्चा इंसान नहीं होता तो
ना तो वह स्त्री श्राप से मुक्त होती
और ना ही
इतने सारे लोगों को
जीवन दान मिलता।
🌸
रूप के आकर्षण से परे होने
के कारण ही
एक मनुषय की पवित्रता के कारण अनेको लोगों का उद्धार हुआ।
🌸
रूप के आकर्षण के कारण ही
महारानी पदमावती का रूप
देखकर अलाउद्दीन खिलजी के
मन ने उन्हें पाने के सपने
संजोने शुरू कर दिये थे और
इस कामना/वासना को पूर्ण
करने के लिये हजारों लोगों के
रक्त से भूमि को लाल
कर दिया था।
यह काम/कामना का ही
तो परिणाम है।
🌸
इसी आंख के कारण सूरदासजी
कहीं से गुजर रहे थे, एक युवती से
पीने के लिये पानी मांगा,
पानी पिया और उसी के पीछे-पीछे
उसके घर तक पहुंच गये, और
जब उस युवती ने पूछा कि
आपको क्या चाहिये तब
सूरदासजी का मन खिन्न हुआ
🌸
उन्होंने कहा एक गर्म श्लाका
लाकर दे दो। और फिर
उस श्लाका से अपनी दोनों आंखों
को नष्ट कर दिया।
🌸
हमारी आंखें अनमोल है, हमें
आंखें नष्ट नहीं करनी है,
बस गुरू वाणी को याद रखते हुए
हर एक दृश्य को नश्वर मानकर,
गुरूवाणी के अनुसार भ्रमजाल/
मायाजाल में फंसाने वाला मानकर,
उस पर मन को एकाग्र
नहीं करते हुए जिसका भी
हम ध्यान करते हैं,
उसी के ध्यान में मन को
एकाग्र कर देना चाहिये।
🌸
इसी तरह अन्य लोगों के
एश्वर्य को आंखों से देखकर
भी लोगों का मन
वैसा ही एश्वर्य पाने के लिये
सपने संजोने लगता है।
🌸
गुरू वाणी कहती है कि
हमारी आंखें चाहे खुली रहे
अथवा बंद किन्तु हमारा मन
सदैव अंतरमुर्खी रहे,
गुरू वाणी से जुड़ा रहे।
🌸
दृश्यमान पदार्थ/शक्ल की
वासना/कामना के जाल में
नहीं फसे, क्योंकि
रूप के आकर्षण में
भूतकाल में भी पतंगा
आग में जलकर अपने प्राण
गंवाता था,
वर्तमान में भी गंवा रहा है
और भविष्य में भी गंवाता
ही रहेगा।
🌸
गुरू वाणी कहती है कि
इंद्रियों को मर्यादा में रखो,
संयम पूर्वक जीवन जियो।
यह जो हमें आंखें मिली है,
उसका सदुपयोग सदग्रंथो का
अध्ययन करने में करो,
अपने अंदर विद्यमान उस चेतन
तत्व को जानने के लिये करो,
जिसके कारण यह शरीर
चलता फिरता नजर आता है
और बाहर निकलने पर
अकड़ जाता है,
ठंडा हो जाता है और
फिर सड़ने लगता है।
🌺
उस अदृश्य शक्ति को जानने
के लिये करो जिसके कारण
इस संसार में सब कुछ
(सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, गृह,
उपगृह आदि) चलायमान है।
🌸
जिह्वा - रस –
रसना/जिव्हा के
कारण ही हमारी जिह्वा (रस)
हमारे अंदर
कामनायें/
वासनायें
पैदा करती है।
🌸
इस संसार के लोग भी
इन्द्रियों के रस में डूबे हुए हैं,
🌺
जीने के लिये नहीं खाते हैं
अपितु खाने के लिये जीते हैं,
🌸
शरीर को
किस पदार्थ की आवश्यकता है
और किसकी नहीं,
🌸
शरीर के लिये
क्या अमृत है और
क्या जहर है।
🌸
इस संसार के अधिकतर मनुष्य
इसका विचार नहीं करते
बस जो भी खाते हैं
यदि वह स्वादिष्ट लगता है
तो उसे बार-बार खाना चाहते हैं,
चाहे वह लाभकारी हो या नहीं
और यदि मुफ्त का हो
तो कुछ ज्यादा ही खा लेते हैं,
🌸
जैसे कि
एक पंडित जी ने
अपने यजमान के यहां
इतना खाया कि
उन्हें खाट पर लिटा कर
घर वापस लाना पड़ा,
चलना तो दूर
उनसे हिला डुला भी
नहीं जा रहा था।
🌺
वैद्य को बुलाया गया,
वैद्य ने दवा दे दी और कहा
यह दवा ले लो ।
🌺
तब पंडित जी ने कहा कि मेरे पेट मे बिल्कुल भी जगह नही है,
🌺
वैद्यजी यदि पेट में कुछ भी
खाने की जगह होती तो
एक-दो पेड़े और नहीं खा लेता।
🌸
जहां मीठे पदार्थ व पकवान
हमें बीमार बनाते हैं,
🌸
वहीं पर कड़वे पदार्थ एवं
सात्विक भोजन
हमें स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
🌸
जहां ठंडा पानी हमें नुकसान
पहुंचाता है उतना ही
गर्म पानी लाभ पहुंचाता है।
🌸
लेकिन रसना को अच्छा
लगता है
मीठा और ठंडा पानी,
चाट-पकौड़े,
पकवान, नशीले पदार्थ आदि
क्योंकि उनकी कामना/वासना
मन पर अंकित हो चुकी है।
🌸
इस जिह्वा के कारण ही
मछली अपने अंदर बनी हुई
गिल के स्वाद की वासना के
कारण मछुवारे के कांटे में
फंस जाती है, और
अपने प्राण गंवाती है।
🌸
गुरू वाणी कहती है कि
सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करें,
लेकिन यह जिह्वा बचपन से ही
मनुष्य के अंदर अहितकर
खाद्य पदार्थों को पाने की
कामना/वासना का
ताना-बाना बुन देती है,
🌸
खाद्य पदार्थों को देखते ही मन
बिना विचार किये
इन्हें खाने को लालायित हो
जाता है और अधिकतर मनुष्य
अंतिम सांस तक स्वाद की
कामना/वासना में लिप्त
रहते हैं और
अंत मति सो गति के कारण
उसे इस रस की तृष्णा के
कारण पुनः बंधन में
आना पड़ता है।
🌸
गुरू वाणी कहती है कि
चलते-फिरते,
सोते-जागते,
उठते-बैठते,
खाते-पीते
हर वक्त सतर्क रहते हुए
माया के जाल में फंसने से
बचना चाहिये।
🌸
इसीलिये कहा है कि
काल उसका क्या कर सकता है
जो आठों प्रहर गुरू वाणी की
पालना के लिये सतर्क रहता है।
यानि जाग्रत तो क्या
स्वपन में भी गुरू वाणी का
उल्लंघन नहीं होने देता है।
🌸
शब्द - (कान) –
यह सबसे महत्वपूर्ण इन्द्री है।
जैसे कि स्वाति नक्षत्र की बूंद
🌸
जब केले में पड़ती है तो
कपूर बनती है,
🌸
सर्प के मुख में पड़ती है तो
विष बनती है।
🌸
वही बूंद जब सीप में पड़ती है
तो मोती बनती है।
🌸
यह तीनों उदाहरण
सत,
रज और
तम के हैं
🌺
सीप का मोती में परिवर्तन
सत में समाहित होने का प्रतीक है।
🌺
केले का कपूर में परिर्वतन
रज में समाहित होने का प्रतीक है
🌺
सर्प के मुख में विष में परिवर्तन
तम में समाहित होने का प्रतीक है।
🌸
जब गुरू की वाणी कानों में
पड़ती है,
तब तम से रज में परिवर्तन होता है
🌸
जब गुरू की वाणी
शिष्य के आचरण में
नजर आने लगती है,
तब रज से सत में परिर्वतन होता है
🌸
जो रज से उपर नहीं उठता
सत में समाहित नहीं होता
उसका भटकना भी नहीं थमता
🌸
सत में समाहित होने पर ही
संसार की सबसे बड़ी
दौलत, ऐश्वर्य यानि कि
परमानन्द/दिव्य सुख
प्राप्त होता है
🌸
तामसिक प्रवृत्ति के मनुष्यों
के लिये
ना ही कुछ अच्छा होता है,
ना ही कुछ बुरा
केवल अपना स्वार्थ ही
सर्वोपरि होता है
🌸
राजसिक प्रवृत्ति के मनुष्यों को
यह ज्ञात होता है कि
क्या अच्छा है और
क्या बुरा,
कभी परमार्थ
सर्वोपरि होता है,
तो कभी स्वार्थ ही
सर्वोपरि होता है
🌸
यानि की जब
श्रवण इन्द्री, कान का संयोग
गुरू वाणी से होता है,
तो गुरू वाणी श्रवण इन्द्री को सावधान करती है
संसार रूपी अग्नि की लपटों से
बचने के लिये
🌸
गुरू वाणी श्रवण इन्द्री को
बताती है कि
कैसे इन लपटों से झुलसने से
बचा जा सकता है?
🌸
जिसकी श्रवण इन्द्री
गुरू वाणी को गम्भीरता से
लेती है,
उनके निर्देशानुसार
राह तय करती है,
ऐसे मनुष्य बच जाते हैं,
मुक्त हो जाते हैं और
जो माया के प्रभाव से ग्रसित होकर गुरू वाणी की उपेक्षा करते हैं
तथा गुरू की वाणी के स्थान पर संसार की वाणी में
रत हो जाते हैं,
वे हिरण की तरह
इन्द्रियों के आकषर्ण में फंसकर
बंधन में फंस जाते है।
🌸
श्रवण इन्द्री
हमारे मन में वासना/कामना पैदा करती है,
इसके कारण कोई
स्त्री की आवाज पर तो
कोई पुरूष की आवाज पर
मुगध हो जाते है।
🌸
क्षणभंगुर प्रेम में
खो जाते है,
यहां तक की
चेतावनी भजन चलता है,
लेकिन लोग उस चेतावनी भजन के भावार्थ की गंभीरता को नहीं समझने के कारण,
जागने की अपेक्षा मदहोश होकर उस चेतावनी भजन पर नाचते हैं।
🌸
कान हमें इसलिये मिले हैं कि
हम शांत स्वरूप होकर
सारे विचारों को हटाकर
सूक्ष्म आवाजों को सुन कर
उस परमानन्द की
अनुभूति कर सकें।
संसार का आकर्षण इतना अधिक
है कि अधिकतर लोग भजन भी
सुनते हैं, तो उस भजन में छिपे हुए
उपदेश को समझते ही नहीं हैं
अपितु उसे भी मौज-मस्ती
का साधन मान लेते हैं।
🌸
इसीलिये कहा है कि
बुरा नहीं सुने,
बुरा नहीं कहें
और बुरा नहीं देखें।
🌸
सुनना है तो
गुरू वाणी सुनें,
प्रेरणादायक भजन सुनें।
🌸
क्योंकि इस संसार से जुड़े हुए
प्रेम भरे गीत बंधन का ही
कारण है, मुक्ति का नहीं।
🌸
और यदि प्रेम भरा गीत कानों
में सुनाई भी पड़े तो इससे
उस अदृश्य शक्ति को जोड लें
🌸
इस कान/श्रवेण्द्रिय के कारण ही
मृग जब बधिक द्वारा
संगीत की तान सुनता है तो
उससे मंत्रमुग्ध हो जाता है
और अपने प्राण गंवाता है,
🌸
ध्वनि के माध्यम से बधिक उसे
अपने जाल में फंसा लेता है।
🌸
एक रेकी गुरू ने शिष्य से
कहा कि 5 मिनट के लिये
ध्यान एकाग्र करना है,
🌸
एक शिष्य ने कहा कि
नहीं कर सकता,
मन तो एक मिनट भी नहीं टिकता।
🌸
रेकी गुरू ने कहा
सभी कोशिश करें,
उन्होंने टी.वी., रेडियो चला दिया,
खिड़कियां खोल दीं और
सभी से कहा कि आंखें बंद करके
अपने कान को केवल ध्वनियों पर
एकाग्र करें और बतायें कि किसने
कितने तरह की ध्वनियां सुनी।
🌸
जिस शिष्य ने कहा था कि
नहीं होगा, उसी ने 5 मिनट में
सबसे अधिक 84 ध्वनियां सुनी और
उस शिष्य को आश्चर्य हुआ कि
उसने मन को इतना एकाग्र
कैसे कर लिया कि उसका ध्यान
ध्वनियों के अतिरिक्त कहीं और
गया ही नहीं।
🌸
तो इन्द्रियां हमारी स्वयं की हैं और
इनका सुदपयोग और दुरूपयोग
भी हमारे ही हाथ में है।
हमारी इन्द्रियां चाहे
आंख हो,
नाक हो,
कान हो,
जिह्वा हो,
त्वचा हो
उनका सदुपयोग केवल
गुरू वाणी के अनुसार ही
करना चाहिये।
🌸
गंध - नासिका –
आज स्त्री और पुरूष
युवक-युवतियां अन्यों को
आकर्षित करने के लिये
कृत्रिम गंध का अत्यधिक
उपयोग करते हैं। जो कि स्वास्थ्यप्रद नहीं होती है।
🌸
जबकि प्राकृतिक फूलों की महक
तो स्वास्थ्य प्रद होती है,
इसलिये फूलों के हार से
स्वागत किया जाता है।
🌸
गंध से भंवरा सर्वाधिक आकर्षित होता है ।
इसलिये भंवरा कमल के फूल की
गंध के आकर्षण में
इतना खो जाता है कि
सूर्यास्त उपरांत भी
भंवरा फूल की गंध के
आकर्षण के कारण
उससे बाहर नहीं निकलता
और उसी फूल में वह
कैद हो जाता है और
अपने प्राण गंवाता है।
🌸
स्पर्श - त्वचा (जनेन्द्री) –
इसका आकर्षण
सबसे बड़ा आकर्षण है।
इस इन्द्री को आकर्षित
करने में आंखों की,
कानों की
नासिका की
तीनों की भूमिका रहती है।
रूप, गंध और शब्द तीनों ही
आग में घी डालने का काम
करते हैं,
यानि इस इन्द्री की
तृप्ति के लिये मन में
कामनाओं और वासनाओं का
अथाह भंडार संचित हो जाता है।
🌺
कोई विरला ही
इस इंद्री से संबंधित
कामनाओं और वासनाओं से
मुक्त हो पाता है,
यहां तक कि वृद्धावस्था जाती है
शरीर जर्जर हो जाता है
लेकिन मन इस इन्द्री की कामनाओं/वासनाओं से मुक्त नहीं हो पाता है
और यही इन्द्री संसार के अधिकतर मनुष्य के बंधन का कारण बनती है।
यही हमारे असंख्य
जन्म-जन्मांतरणों का एक सबसे बड़ा
कारण बनती है।
🌸
इसीलिए हाथी की कामुकता के कारण ही हाथी को पकडने वाला
गढ्डा खोदकर उस पर
घास फूस बिछा देता है और
दूसरी और हथिनी को
खड़ा कर देता है,
हाथी काम वासना में
अंधा होकर तेजी से
उसकी और बढ़ता है
और गढडे में गिर जाता है
और पकड़ा जाता है।
🌸
इसीलिए कहा है
कामी क्रोधी लालची
इनसे भक्ति न होय
भक्ति करे कोई सूरमा
जाति वरन कुल खोय
🌺
अतः आवश्यकता है कि
इन इन्द्रियों का उपयोग
करने से पहले
गुरु वाणी का स्मरण करें तथा
धीरे धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा
ऋतु आए फल होय
को ध्यान में रखते हुए
धीरे-धीरे ही इन इंद्रियों का उपयोग कम करते हुए समाप्त करने का प्रयास करें
ताकि उस परम उद्देश्य
परमानन्द को प्राप्त कर
जन्म मरण के बंधन से
मुक्त हो सकें।
🌸
हमने किसी को भी
माध्यम बनाया हो
चाहे वह ज्योति हो या
धार्मिक चिन्ह/मन्त्र हो अथवा
कोई आकृति अथवा
आदर्श पुरुष की छवि
🌺
इन सभी के पीछे
एक ही परम सत्य छिपा है,
वह है दिव्य प्रकाश
जिसके प्रकट होने पर ही
कल्याण होता है।
🌸
तो हम अभ्यास करें कि
हमारी आंखें उसे ही
निहारती रहें
चाहे हमारी आंखें बंद हों
या खुली हो।
🌸
उसे निहारते रहेंगे तो
हमें यह भी याद रहेगा कि
हम इस पवित्र माध्यम के
द्वारा ध्यानस्थ हैं,
🌸
तो हम कुछ भी करें
उस पवित्र माध्यम को
ध्यान में रखते हुए ही करें
उस माध्यम को ध्यान में
रखते हुए हमें कुछ भी गलत नहीं
करना चाहिये, तथा
हमारी इन्द्रियों व मन को
पवित्र रखना चाहिये ।
🌸
इसीलिये कहा है कि
प्रार्थना है कि
मेरा मन मस्तिष्क पवित्र हो,
मेरे नेत्र पवित्र हो,
केवल भद्र ही देखें,
🌸
मेरा कंठ यानि कि
मेरी वाणी पवित्र हो,
मधुर व प्रिय हो,
🌸
जैसे कि कहा है कि
पहले तोलो फिर बोलो,
🌸
यानि के बोलने से पहले
विचार करें कि
जैसा हम सामने वाले को
बोलने जा रहे हैं,
वैसा ही यदि वह हमें बोले
तो हमें कैसे लगेगा,
🌸
मेरे श्रोत्र भद्र ही सुने।
🌸
इसलिये गुरू समझाते हैं कि
जहां निन्दा हो वहां नहीं
ठहरना चाहिये,
लेकिन यह भी सत्य है कि सत्य निंदा कल्याणकारी होती है।
🌸
जहां निन्दा हो वहां नहीं
ठहरना चाहिये का तात्पर्य है कि
हम किसी व्यक्ति/समाज को
किसी शकुनि जैसे
कुटिल व्यक्ति से अथवा
बगुला भगत जैसे स्वार्थी व्यक्तियों के चुंगल में फंसने से बचाने के लिये सावधान कर सकते हैं।
🌸
लेकिन इसके अतिरिक्त हमें
स्वयं के स्वार्थ से वशीभूत
होकर किसी की भी असत्य
निन्दा नहीं करनी चाहिये,
🌸
क्योंकि जब हम किसी की
असत्य निन्दा करेंगे तो
हमारा मन तो मलिन होगा ही।
🌸
इसी तरह जब हम निन्दा सुनेंगे
चाहे वह हमारी हो या
हमारे किसी प्रियजन की
🌸
तो जो ध्यान नहीं करता है
तो ध्यान के अभ्यास के अभाव में
उसके मन में क्रोध उपजेगा ही,
जो कि एक विकार है और
शांति में बाधक है।
🌸
हां यदि कोई हमारी
सत्य निन्दा कर रहा है तो
उस सत्य निन्दा से
हमें स्वयं को अवश्य ही
फायदा मिल सकता है,
🌸
सत्य निन्दा से हम अपनी कमी को
सुधार सकते हैं
🌸
सत्य निन्दा से
हम अपने मन की
मलिनता को धोने का प्रयास
कर सकते हैं।
🌸
और हमारे इस सुधार,
हमारे इस प्रयास से
माया की पकड़ से छूटने में
सहायता मिलती ही है।
🌸
इसीलिये तो कहा है कि
निंदक नियरे राखिए,
ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना,
निर्मल करे सुभाय।
🌺
हमें सभी धर्मों में सदाचारी और दुराचारी दोनों तरह के शिष्य मिलेंगे लेकिन सदाचारियों की इस संसार में कमी है ।
🌺
समस्त धर्मों मैं विद्यमान अधिकतर शिष्यों का माया से ग्रसित होकर
गुरु वाणी /गुरु उपदेश के विपरित
किया गया आचरण ही
उनके गुरु की कीर्ती/महिमा को कलंकित करने का काम करता है ।
🌺
लेकिन जैसा कि कहते हैं कि कुछ सदाचारिर्यों के कारण ही
यह सृष्टि विनीष्ठ होने से बची हुई है
🌺
तो उसी तरह कुछ आज्ञाकारी सदाचारी शिष्यों के कारण ही गुरुओं के प्रति कुछ श्रद्धा शेष बची हुई है।
🌺
शिष्य द्वारा किए गए माया (विषय-विकार पाप ) से ग्रसित कर्म से बचने के लिए ही गुरु उपदेश देते हैं।
🌺
लेकिन साक्षी भाव/ दृष्टा भाव के अभाव में शिष्य गुरु वाणी का उल्लंघन करते ही रहते हैं ,
करते ही रहते हैं
जिसका प्रभाव गुरु की कीर्ति पर पड़ता है ।
मनुष्य बचपन से लेकर
युवावस्था तक इन्द्रियों के
क्षणिक आनन्द में डूबा रहता है,
🌸
युवावस्था समाप्त होने के बाद व वृद्धावस्था की शुरुआत के बाद भी मनुष्य क्षणिक सुखों को नहीं छोड़ना चाहता है।
🌺
जन्म जन्मांतर से इंद्रियों में लिप्त रहने के कारण वृद्धावस्था आने पर भी वह मनुष्य अपना सुधार नहीं करना चाहता और इसीलिए इन्द्रियों के क्षणिक आनन्द का इतना
अधिक आदी हो जाता है कि
वह भोग तो करना चाहता है,
लेकिन उसका शरीर भोग करने
लायक ही नहीं रहता।
🌸
वृ़द्धावस्था में
पाचन शक्ति खराब हो जाती है,
🌸
वृद्धावस्था में
दांत टूट जाते हैं,
दिल की बीमारी हो जाती है,
शुगर की बीमारी हो जाती है,
वात रोग हो जाता है,
रक्त की अशुतद्धता का
रोग हो जाता है।
🌸
जिसके कारण हाथ-पैर
दर्द करने लग जाते हैं।
🌸
यानि के ऐसी स्थिति होती है
कि वह चाहे तो भी इन्द्रियों का
रस ग्रहण नहीं कर सकता है और
इसी कारण वह तड़पता रहता है।
🌸
उसकी इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है,
उसकी ऐसी दुर्दशा हो जाती है कि
वह माया (विषय-विकार) से ग्रसित होने के कारण इन्द्रियों का क्षणिक भोग भोगना तो चाहता है, लेकिन
भोगने के लिये असहाय
हो जाता है और वह अंतिम
समय तक तड़पता रहता है और
इन क्षणिक सुखों की कामना में तड़पते हुए अपना शरीर त्याग देता है।ऐसे मनुष्य जन्म मरण के चक्र में बंधे रहते है।
🌺
जो माया के प्रलोभनों,
माया के बंधनों से
मुक्त हो जाता है तथा
एकमात्र उस अदृश्य शक्ति की कामना के साथ, केवल और केवल उसे ही याद करते हुए शरीर त्यागता है,
वह मुक्त हो जाता है ।
🌸
इसीलिये तो कहा है कि
माया बहुत प्रबल है,
उसके प्रभाव से निर्मित
तृष्णा/कामना/वासना के कारण
प्राणी गुरू धारण करने के
बावजूद भी
ना तो स्वयं के अंदर स्थित
चेतन तत्व आत्मा को
जाना पाता है,
🌺
यानि उसका साक्षात्कार/
अनुभूति नहीं कर पाता है
और ना ही इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान
उस अदृश्य शक्ति (परमात्मा) को
ही जान पाता है,
यानि के उसका साक्षात्कार/
अनुभूति नहीं कर पाता है।
🌸
जब तक इस संसार में
माया रूपी
समस्त दृश्यमान
नश्वर पदार्थों की
कामना/वासना
समाप्त नहीं होगी
तब तक उस अदृश्य
आत्मा और परमात्मा
को जाना नहीं जा सकता,
उनका साक्षात्कार/अनुभूति
नहीं की जा सकती है।
🌺
मनुष्य अपनी समस्त इंद्रियों का उपयोग संयम पूर्वक करते हुए
मन को इस संसार में विद्यमान पदार्थों से अलग कर सके
इसीलिए एक गुरु अपने शिष्यों को 3 महीने तक श्मशान में साधना करने के लिए कहते थे
ताकि शिष्य श्मशान घाट में प्रतिदिन आने वाले शवों को जलते हुए ,
राख होते हुए देख सके।
शिष्य देखते कि
कभी किसी बच्चे के शव को
कभी किसी युवा/युवती के शव को
कभी किसी बूढ़े/बूढी के शव को
कभी किसी पहलवान के शव को
कभी किसी दुर्बल के शव को
कभी किसी धनवान के शव को
कभी किसी निर्धन के शव को
अग्नि को समर्पित किया जाता है और उन सब के कपाल को लकड़ी के बांस से फोड़ा जा रहा है ।
🌺
यह 3 महीने तक मृत्यु रूपी सत्य के साक्षात्कार की सतत साधना उनकी जन्म जन्मांतर से बनी हुई संसार के पदार्थों के पीछे भागने की कामना वासनाओं को काफी हद तक शांत कर देती थी ।
उन्हें ऐसे बना देती थी कि जैसे कि किसी पर बंदूक तान सखी हो तो उसके सामने कोई सा भी दृश्य हो उसे केवल बंदूक का ही ख्याल रहता है। चाहे धन आए
चाहे सुन्दर स्त्री-पुरुष आए
चाहे कोई भी आए
केवल उसे बंदूक का ही ध्यान रहता है।
उसी तरह उनके शिष्य भी अपने पूरे समय का सदुपयोग अपना लक्ष्य को पाने के लिए करते थे,
इसलिए उनके शिष्यों का मन संसार से सरलता से विरक्त हो जाता था।
🌺
इसीलिए कहा है
ना जाने
कब
कहां
किस घड़ी
प्रभु का बुलावा आ जाये
मेरे मन की इच्छा
मेरे मन ही मन में रह जाए
मेरी इच्छा पूरी करना
है मेरे कृपा निधान
🌺
करता रहूं गुणगान
मुझे दो ऐसा वरदान
तेरा नाम भी जपते जपते
इस तन से जाए प्राण।
🌸
आज इस संसार में
अधिकतर लोगों की स्थिति
दुर्योधन जैसी ही है,
🌸
लेकिन दुर्योधन ने
यह स्वीकार किया था कि
मुझे पता है कि मैं
यह जो कुछ भी कर रहा हूं
वह कृत्य गलत है, लेकिन
क्या करूं मेरे संस्कार ही
ऐसे हैं कि मैं नहीं चाहते हुए भी
गलत कृत्य कर देता हूं।
🌸
इसलिये कहा है कि सत्संग
यानि के सत्य का संग करें।
🌸
सत्संग का भी प्रायः
अधिकतर लोग एक ही अर्थ
निकालते हैं कि जहां पर
बहुत से लोग एकत्रित होकर
गुरू की वाणी सुनते हैं
वही सत्संग है।
🌸
जबकि सत्संग का अर्थ
इतना संकीर्ण नहीं व्यापक है,
🌸
सत्संग का अर्थ है
सत्य का संग,
गुरू की वाणी कहती है कि
एक सच्चे शिष्य को
हर क्षण/हर पल
सत्य के संग रहना चाहिये।
🌸
यानि कि शिष्य का मन
इस माया रूपी संसार में
विद्यमान नश्वर पदार्थ/शक्ल
से विरत रहते हुए
उस अविनाशी/सत्य तत्व में
रत रहना चाहिये।
🌸
उस अविनाशी तत्व का संग
कभी नहीं छोडना चाहिये,
🌸
उसे याद रखते हुए ही
सभी कर्म करने चाहिये।
🌸
विषय-विकार से ग्रसित होकर
किये गये कर्म तथा पाप कर्म
उस सत्य अदृश्य तत्व को
भूला देते हैं।
🌸
आध्यात्मिक दृष्टि से
उसे हर क्षण/हर पल
याद रखते हुए निष्काम
शुभ सात्विक सत्कर्म करना
ही उस परम सत्य का
वास्तविक संग है।
🌺
जिसका मन उस परम शक्ति के संग हो जाता है और अंतिम सांस तक उस परम शक्ति के संग रहता है,
ऐसे मनुष्य परम सत्य के संग के कारण मुक्त हो जाते हैं और
🌺
जिनका मन अंतिम सांस तक क्षणभंगुर सांसारिक पदार्थों की कामना/वासना/चिन्तन में
लिप्त रहता है
🌺
ऐसे मनुष्य माया की संगत में होते हैं
माया की जकड़ में होते हैं
माया की पकड़ में होते हैं
और अंतिम सांस तक माया के जाल में रहने के कारण बंधन में ही रहते हैं ।
🌸
यानि के जो निष्काम
शुभ सात्विक सत्कर्मों के
अभ्यास में लगा हुआ है
वही वास्तव में हर पल/
हर क्षण सच्चा सत्संग
कर रहा है।
और जो व्यक्ति
ऐसे सत्य के संग करने वाले
मनुष्य के निकट रहता है
उसका मन भी वैसा ही
होने लगता है।
🌸
जैसे कि पांडवों को
श्रीकृष्ण का संग मिला और
वे 5 गांव मांगने के लिये भी
सहमत हो गये और
दुर्योधन को शकुनि का संग मिला और उसने 5 गांव तो क्या
सुंई की नोक बराबर जमीन
देने से भी इंकार कर दिया।
🌸
दुर्योधन माया से प्रभावित था और अर्जुन श्री कृष्ण से प्रभावित थे
🌺
इसीलिए जब श्री कृष्ण ने कहा कि एक तरफ मेरी सारी सेना है और
एक तरफ श्री कृष्ण वह भी निशस्त्र ।
🌺
दुर्योधन का चुनाव था सेना और अर्जुन का श्री कृष्ण
🌺
दुर्योधन इतनी विशाल सेना का साथ पाकर भी पराजित हो गया और अर्जुन ने केवल श्रीकृष्ण का साथ पाकर ही युद्ध में विजय हासिल की।
🌺
उसी तरह एक तरफ
वह अदृश्य शक्ति है
एक तरफ यह सारा संसार
🌺
जिसका मन सब कुछ त्याग कर केवल उस एक अदृश्य शक्ति का चयन कर लेता है
वह माया के बंधन से
मुक्त हो जाता है और
जो माया के बंधन से मुक्त हो जाता है,
वह जन्म मरण के चक्र से भी मुक्त हो जाता है ।
🌺
जिसका मन सांसारिक पदार्थों का चयन करता है
वह दुर्योधन की तरह पराजित हो जाता है।
🌺
माया से प्रभावित होकर ही
मनुष्य नीचे गिरता है और
स्वयं का स्वार्थ सिद्ध
करने के लिये ही
वह निकृष्ठ कृत्य करता है।
🌸
माया से प्रभावित होकर ही मनुष्य स्वयं के स्वार्थ की सिद्धी के लिये,
अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये निकृष्ठ कृत्य करता है।
🌸
अधिकतर लोग विचार ही नहीं
करते कि हम इस संसार से
अपने कर्मों (पुण्य या पाप)
के अतिरिक्त इस संसार से
एक सुंई तक साथ नहीं ले
जा सकते हैं,
🌸
फिर भी माया रूपी
ठगनी के प्रभाव से
विषय-विकारों में लिप्त रहते हुए
ही जीवन बिता देते हैं।
🌺
माया से ग्रसित होकर मनुष्य
सत्य को छोडकर
असत्य में रत रहता है।
🌸
असत्य -
सत्य के लिए कुछ विचार नहीं करना पड़ता
लेकिन असत्य के लिए विचार करना पड़ता है अर्थात्
सत्य को असत्य बनाने के लिए मनुष्य मन में कहानी गढ़ता है और
स्वयं के स्वार्थ के लिये
अथवा
फिर खुद को बचाने के लिये
असत्य बोलता है,
अथवा
आर्थिक/सामाजिक/राजनैतिक या
अहंकार की तृप्ति के लिये असत्य बोलता है।
🌸
इसीलिये कहा है कि
सांच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप,
जाके हिरदे सांच है
ताके हिरदे आप।
🌸
यानी कि सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं ।
सत्य परम सत्य की ओर ले जाता है
🌺
असत्य
अपनी गलती को छुपाने के लिए बोला जाता है ।
अथवा
अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए बोला जाता है ।
अथवा
आमोद प्रमोद के लिए बोला जाता है।
अथवा
किसी को मूर्ख बनाने के लिए बोला जाता है
यह सभी तरह के असत्य तामसिक श्रेणी में आते हैं और
मनुष्य को असुरत्व की ओर ले जाते हैं,
अध्यात्म से दूर ले जाते हैं।
परमात्मा परमसत्य से दूर ले जाते हैं।
इसलिए इन्हें पाप तुल्य कहा है।
🌺
इसीलिए कहा है कि
जिसके हृदय में सत्य हैं
जिसके मन में सत्य है
उसी के संग वह परम सत्य है
🌺
लेकिन माया मनुष्यों को
विकारी बना देती है और
इसीलिए मनुष्य स्वयं को
दूसरों की नजर में
उंचा उठाने के लिये
झूठ बोलने के लिए तत्पर
हो जाते हैं।
🌺
लेकिन जो
इस माया को जान लेता है,
वह असत्य को त्यागने में और
सत्य को ग्रहण करने में
तत्पर रहता है।
🌸
यदि जीवन में सत्य नहीं
तो मुक्ति भी नहीं ।
🌸
समाज के लोग शव यात्रा के दौरान दुनिया के लोगों को
सुनाते हुए, समझाते हुए
एक स्वर में, उच्च स्तर में बार-बार श्मशान घाट पहुंचने तक दोहराते हैं कि
🌺
सत्य से मुक्त है, सत्य बोलो गत है।
🌺
लेकिन आश्चर्य है कि यह सत्य किसी के हृदय में नहीं उतरता ।
🌺
हमारे राष्ट्र का आदर्श वाक्य
🌺सत्यमेव जयते🌺
लेकिन आज ऐसा हो गया है कि
दिया तले अंधेरा।
🌺
सत्यमेव जयते लिखा है,
लेकिन वहां पर भी
अधिकतर लोग असत्य का
सहारा लेकर अपना स्वार्थ
पूरा करते रहते हैं।
🌺
ऐसे ही लोग माया के
जाल में बुरी तरह
जकड़े हुए हैं।
🌸
हिंसा
🌸
कोई अपनी इन्द्रियों की
तृप्ति के लिये हिंसा करता है,
🌸
कोई किसी को गिराकर
प्रतियोगिता जीत कर
हिंसा करता है,
🌸
कोई किसी का आर्थिक
शोषण करके हिंसा करता है,
🌸
जैसे कि मजदूरी कम देता है
या नहीं के बराबर देता है या
मुफ्त में ही काम करा लेता है।
🌸
कोई ताकतवर है तो
ताकत के बल पर
निर्बल का उपहास करता है
या निर्बल को पीट देता है।
🌸
इसीलिये कहा है कि
कबीरा हाय गरीब की
कबहु ना निष्फल जाये,
मरे बैल की चाम सू
लोहा भस्म हो जाये।
🌸
जैसे कि मरे हुए बैल की
चमड़ी से लोहा भस्म हो जाता है,
उसी तरह से यदि किसी को
मानसिक रूप से भी आहत
किया जाये तो
उसकी बद्दुआ,
उसकी आह के कारण
हमें दुख का सामना तो
करना ही होगा।
🌸
यदि जीवन हिंसामय है तो
मुक्ति भी नहीं,
इसीलिये तो कहा है कि
देख बंदे
तेरी है यही बंदगी
तू किसी भी जीव को
सताया ना कर।
🌺
भला किसी का कर ना सको तो
बुरा किसी का मत करना
पुष्प नहीं बन सकते हो तो
कांटे बनकर मत रहना
🌺
अहिंसा परमोधर्मः ।
🌺
लेकिन माया से ग्रसित होने के कारण मनुष्य
अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए
अपनी कामना/वासना की पूर्ति के लिए अहिंसा का उल्लंघन करते हैं
जो कि आध्यात्मिक प्रगति में
बाधक तो है ही तथा
बंधन का कारण भी है।
🌸
अस्तेय / चोरी -
🌸
अपनी आर्थिक उन्नति के
लिये अथवा
अपने मन में संजोये हुए
सपनों की पूर्ति के लिये
किसी अन्य की वस्तु को
चुराने/हड़पने का विचार भी
मन में नहीं आने देना चाहिये।
🌸
इसके लिये कहा है कि
यदि किसी के खेत से
गेहूं का एक दाना भी
आपके खेत में गिर गया
तो उसका कर्जा भी
आपको चुकाना होगा ।
🌸
तो यह तो अंजाने में हुए
कृत्य का परिणाम है,
यदि जान बूझकर किया
तो क्या होगा?
🌸
अधिकतर सभी धर्मों में
ऐसा करने से मना
किया है और
गीता,
योग दर्शन,
जैन दर्शन
में इसके लिये अस्तेय शब्द का
उपयोग किया गया है।
और इसे अधिकतर सभी धर्मों ने
स्वीकार किया है कि चोरी से
विरत रहना चाहिये।
🌸
यदि मन में लोभ/लालच/चोरी
समाहित है तो फिर
मुक्ति भी नहीं।
क्योंकि चोरी का कर्म
हमारे ऊपर कर्मों का भार
चढा देता है, और फिर
उस भार को उतारने के लिए
हमें पुन: जन्म मरण के चक्र में
बंधना ही पड़ता है।
🌺
मोक्ष अथवा प्रभू साक्षात्कार/परमानन्द के लिये अस्तेय का मन, वचन व कर्म से पालन अनिवार्य है।
🌺
इसके अभाव में मनुष्य तमो प्रधान या रजो प्रधान रहता है।
सत्व में समाहित होने के लिये
अस्तेय परम आवश्यक है।
इसके अभाव में
ना धारणा निश्चित होगी,
ना पूर्णतः ध्यान ही लगेगा तथा
ना ही समाधी लग सकती है।
ना ही शान्ति की प्राप्ति होगी।
ना ही परमानंद की प्राप्ति होगी।
🌸
दुराचार/व्याभिचार/अब्रह्मचर्य
🌸
यदि कोई अपनी इन्द्रियों की
तृप्ति के लिये दुराचार/
व्याभिचार करता है और
उसे लेश मात्र भी अपने
दुराचार/व्याभिचार के लिये
दुख नहीं होता तो
ऐसे लोगों के बंधन और
प्रगाढ़ हो जाते हैं।
🌸
इस संसार में ऐसे लोगों
का प्रतिशत बहुत कम है
जो दुराचारी से सदाचारी
याने के अच्छे/भद्र
आचरण/व्यवहार
करने वाले होते हैं।
🌸
जो सदाचारी बन चुका है
वही ब्रह्मचर्य का पालन कर
सकता है, क्योंकि
दूराचारी को तो पहले
सदाचारी बनना होगा,
🌸
ब्रह्चर्य के लिये सदाचरण
अनिवार्य शर्त है।
🌸
कम से कम इतना तो
सदाचारी होना ही चाहिये कि
अपनी पत्नी अथवा पति
के अतिरिक्त किसी और को
अपने मन में स्थान नहीं दें।
वासना से ग्रसित होकर
देखना तो दूर,
उसका विचार भी मन में
नहीं आने देना चाहिये और
🌸
जो पर स्त्री/पुरूष के चिंतन में
लगे रहते हैं वे दुराचारी की
श्रेणी में ही रखें जा सकते हैं।
🌸
जो सदाचारी है
वही ब्रह्मचारी बन सकता है,
उस अदृश्य शक्ति (ब्रह्म) की
अनुभूति करने के लिये
ब्रह्मचर्य आवश्यक है।
🌺
जैसे कि मंत्र में संदेश है, प्रार्थना है
🌺
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्
🌺
जिस प्रकार खरबूजा
जब रसमय हो जाता है,
परिपक्व हो जाता है
तब उसकी सुगन्ध चारों ओर फैलने लगती है और
खरबूजा सुगंध फैलाता हुआ
बेल रुपी बन्धन से
स्वत: ही अलग हो जाता है
🌺
तो उसी तरह जन्म से लेकर मृत्यु तक यह यात्रा चलती है
🌺
विद्या अध्ययन के साथ ही उस ब्रह्म से मन जुड़ जाता है, लेकिन मन परिवारजनों तथा सांसारिक पदार्थों में के साथ भी जुड़ा रहता है ।
🌺
यानी कि बेल में खरबूजे का अस्तित्व प्रकट होना
🌺🌺🌺🌺🌺
गृहस्थ आश्रम में भी ब्रह्म से मन जुड़ा रहता है
लेकिन साथ ही अपने जीवन साथी तथा परिवारजनों के साथ तथा सांसारिक पदार्थों के साथ भी मन जुड़ा रहता है ।
🌺
यानी कि खरबूजे की अर्ध विकसित अवस्था
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वानप्रस्थ अर्थात सेवानिवृत्ति के पश्चात मन केवल और केवल उसी के साथ जुड़ जाता है ।
कमल की तरह
परिवार / समाज से
तन जुड़ा रहता है लेकिन
उसका मन परिवार/समाज
तथा सांसारिक पदार्थों से हटकर केवल उस एक ब्रह्म से जुड़ जाता है
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खरबूजे की परिपक्व अवस्था की यात्रा की शुरुआत
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संयास आश्रम यानी कि वृद्धावस्था इस अवस्था में तन और मन दोनों ही ब्रह्म से जुड़ जाते हैं
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यानि की सुगंध फैलाने वाली oअवस्था
यानि कि अंधकार से प्रकाश में आने की अवस्था
इस अवस्था में जो उस परम सत्य से जुड़ जाता है
वह उस परम सत्य के ज्ञान की सुगंध चारों ओर बिखेरना प्रारंभ कर देता है और गुरु तुल्य हो जाता है
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और अंततः परमानंद की अनुभूति के साथ हंसते हुए इस संसार से विदा होता है।
🌺
जो इस तरह मन को ब्रह्म से जोड़ता है
वह मुक्त हो जाता है
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और जिसका मन माया से ग्रसित होकर अंतिम सांस तक संसार के पदार्थों (सजीव व निर्जीव) की तृष्णा में ही डूबा रहता है
वह डूब जाता है
बंधन में ही रहता है
मुक्त नहीं होता।
🌸
ब्रह्मचर्य
🌸
यानि कि उस ब्रह्म/
अदृश्य शक्ति की चर्या में,
यानि के उस चश्मदीद गवाह/
साक्षी को उपस्थित मानते हुए
सभी दूराचरणों से दूर रहना
(इन्द्रियों की आसक्ति
से दूर रहना) और निष्काम
शुभाचरण करना ही
सही मायने में ब्रह्मचर्य है।
🌸
इसीलिये कहा है कि –
कामी, क्रोधी, लालची
इनसे भक्ति ना होय
भक्ति करे कोई सूरमा
जाति वर्ण कुल खोई।
🌸
एक कनक और कामिनी
जग में बड़े फंदा
जो इनमें ना बंधा
वही दाता में बंधा
यानि चाहे मनुष्य का तन
किसी के भी निकट रहे
लेकिन मन सदैव उस अदृश्य
शक्ति में रत रहे।
🌸
यानि के जो विकारी है,
जिसे किसी भी तरह के
अहंकार या भोग की
कामना है, लालच है तो
वह भक्ति नहीं कर सकता है।
सच्चे भक्त के लिये सभी समान होते हैं और उसके मन में
ना किसी से दोस्ती (राग) होती है
ना किसी से बैर (द्वैष) ही होता है,
सबके लिए मन में कामना/वासना रहित प्रेम होता है
🌸
उसके मन में केवल उस
ब्रह्म/अदृश्य शक्ति को
पाने की ही लालसा/कामना होती है
और सबके लिये भी यही
शुभकामनायें होती हैं कि वे भी
गुरू की वाणी के अनुरूप
आचरण कर सदाचारी बने
और फिर अभ्यास करते-2
अंतत: पूर्णतः ब्रह्मचारी बन
उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति कर माया के बंधन से मुक्त हो सके।
जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो सके।
🌸
अपकार
🌸
माया से वशीभूत होकर ही
मनुष्य अपकार करता है
यानि के दूसरे का
बुरा करता है और
ब्रह्म अथवा गुरू वाणी
के साये में जीने वाला
गुरू वाणी में रत रहने के
कारण यथा सम्भव
परोपकार के लिये
तत्पर रहता है।
🌸
यानि कि संभव हो तो परोपकार करना चाहिए
यदि संभव नहीं हो तो कम से कम अपकार तो किसी का भी नहीं करना चाहिए ।
🌸
कृतघ्न नहीं बनना चाहिए
क्योंकि कृतघ्नता/ एहसान फरामोशी एक विकार है
जो आध्यात्मिक पथ में बाधक है
🌺
कृतज्ञ बनना चाहिये।
क्योंकि कृतज्ञता करने से
एहसान मानने से
शुक्रिया अदा करने से
विनम्रता आती है
अहंकार समाप्त होता है
मन शुद्ध होता है
🌸
जैसा कि कहा है कि
किसी के काम जो आये
उसे इंसान कहते हैं,
पराया दर्द अपनायें
उसे भगवान कहते हैं।
🌸
जो पराये दर्द को अपनाता है
वही फरिश्ता है,
देवता है।
🌸
जैसे कि श्री गुरू गोविन्द सिंह जी
ने अपने चारों पुत्रों को देश/धर्म की
खातिर बलिदान कर दिया।
🌺
उनके पिताश्री तेगबहादुरजी ने
ओरंगजेब के सब जुल्म सहे
यहां तक की अपना शीष तक
कटवा दिया,
लेकिन सभी
भारतवासियों को मुस्लिम धर्म
स्वीकार करने की बाध्यता से
बचा लिया।
🌸
तो हमें
तन से,
मन से
धन से
यदि हम सक्षम हो
अत्यंत दयनीय स्थिति में
जीवन बिताने वालों की
मदद करने के लिए
तैयार रहना चाहिये।
🌸
वैसे तो परोपकार के
बहुत से उदाहरण है,
लेकिन एक प्रसंग इस प्रकार है-
एक राजा ने पडौसी राजा पर
आक्रमण कर दिया।
🌸
वहां एक पहुंचा हुआ संत
रहता था।
लोगों ने उससे कहा कि
आप राजा को समझायें और
यु़द्ध को बंद करवा दें।
🌸
संत ने राजा को समझाया,
लेकिन राजा नहीं समझा और
संत का उपहास करते हुए
कहा कि
आप समुद्र में डूबकी मार कर
वापस उपर आओगे
तब तक के लिये
युद्ध रोक सकता हूं।
🌸
संत ने स्वीकार कर लिया और
वह पानी में डूबे तो
बाहर ही नहीं आये।
🌸
तब राजा ने
गोता खोरों से खोज करवायी
तब पता चला कि
संत ने स्वयं को भारी
जंजीर से एक बडे पत्थर के साथ
बांध लिया था
और शरीर को
त्याग दिया था।
🌸
जंजीरों से इसलिये बांधा था
ताकि शव पानी के कारण
फूलने पर उनके मरने के बाद
उपर नहीं आ सके और
युद्ध समाप्त हो जाये।
🌸
इसीलिये कहा है कि
जीना उसका जीना है,
जो औरों को जीवन देता है,
🌸
जियो और जीने दो।
🌸
कम से कम इतना तो
सदाचारी बनें कि
परोपकार नहीं कर सकें
तो अपकारी तो नहीं बनें
🌸
यानि के किसी का भला
कर सकने की क्षमता
नहीं हो तो कम से कम
किसी का बुरा तो नहीं करें,
🌸
किसी के प्रति मन में
बुरे विचार तो नहीं आने दें।
फरिश्ता/देवता नहीं बन सकें
तो हैवान/शैतान तो नहीं बनें।
🌸
दान नहीं कर सकें
तो किसी के पदार्थ को
चुराने/हड़पने जैसा काम
तो नहीं करें।
🌸
सूरज की तरह महान
नहीं बन पायें तो
दीपक बनकर लोगों को
अच्छा बनने के लिये
तो प्रेरित करने का
प्रयास करते रहें।
🌸
अशुद्धता
🌸
मन की अशुद्धता के कारण ही
मनुष्य बंधन में रहता है
🌸
जब मनुष्य समस्त
दुष्कर्मों को त्यागकर,
इन्दियों के भोगों को
संयमपूर्वक भोगते हुए
शुभकर्मों की और प्रवृत्त होंते है
तभी यह मलिन मन
स्वच्छ हो पाता है और जब
यह मन निष्काम शुभकर्म रूपी
गंगा से स्वच्छ होता है तो
सभी विषय-विकार व पाप भी
दग्ध/समाप्त हो जाते हैं और
तभी वास्तविक ध्यान भी
लगने लगता है, क्योंकि
विषय-विकार व पाप रूपी
दलदल में फंसा हुए
व्यक्ति का मन
ना ही कभी शांत ही हो पाता है और
ना ही उस परमानन्द की अनुभूति ही प्राप्त कर पाता है,
जिसको पाने के बाद
वैसा ही अहसास होता है,
जैसा कि
एक गुड्डे-गुड्डी से खेलने वाले
बच्चे को
किशोर/व्यसक होने पर होता है कि
कितना नादान था,
जो इन खिलौने के लिये
रोता-झगड़ता था।
तब यही अहसास होगा कि
कितना नादान/नासमझ था
जो जन्म-जन्मांतरों से
माया द्वारा रचित
बड़े-बड़े खिलौना से मन
बहलाता रहता था।
🌸
असंतोष
🌸
संतोष को परम सुख कहा है,
जैसे तीन लकीरें हैं।
एक बड़ी,
एक मध्यम
एक छोटी।
जैसा कि
भगवान बुद्ध ने कहा है
कि मध्यम मार्ग
अपनाना चाहिये।
वीणा की तार को इतना भी
नहीं कसना चाहिये कि
तार ही टूट जाये और
इतना ढीला भी
नहीं छोड़ना चाहिये कि
वीणा ही नहीं बजे।
🌸
तो हमें सदैव अपने से
छोटों/दयनीय स्थिति वालों को
देखकर संतोष रखना चाहिये
और अपने से उच्च स्थिति
वालों को देखकर ईर्ष्या
नहीं करनी चाहिये
अपितु यह सोचकर संतोष
करना चाहिये कि
कोई नृप हमें का हानि।
🌸
यानि कोई एश्वर्यशाली है तो
उसके एश्वर्य से किसी का
कोई नुकसान नहीं होता है,
यही सोच कर
संतोष करना चाहिये।
🌸
यदि कोई गरीब है
तो भिखारी को देखकर
संतोष करना चाहिये।
🌸
यदि भिखारी है तो
अंधे, लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे
आदि को देखकर संतोष
करना चाहिये
🌸
जिसके सभी अंग कार्यरत है,
उसे अपाहिज/अपंग लोगों को
देखकर संतोष करना चाहिये कि
भले ही हमारे पास
धन-सम्पत्ति नहीं पर हमारे
सभी अंग तो सही सलामत है।
🌸
असंतोष करना है तो
यही सोचकर करना है कि
मेरे द्वारा किये गये शुभकर्म
किसी से कम नहीं रह जाये।
🌸
मेरी भक्ति,
मेरा ध्यान,
मेरे द्वारा गुरू वाणी/उपदेश की
पालना में कोई कमी
नहीं रह जाये।
🌸
कर्तव्य पलायन –
🌸
कर्तव्य पालन बड़ा तप
कहा गया है।
🌸
बच्चे के विद्यालय जाने से
मृत्यु होने तक उसके साथ
कर्तव्य कर्म जुड़ जाते हैं।
🌸
इस संसार में अधिकतर सभी
विद्यालयों में विद्याध्ययन
प्रारम्भ करने से पूर्व
अदृश्य शक्ति की अराधना/
प्रार्थना की जाती है।
🌸
उसका तात्पर्य यही है कि
होश सम्भालने से लेकर
मृत्यु पर्यन्त
उस अदृश्य शक्ति
को नहीं भूले।
🌸
जन्म से लेकर मृत्यु तक अदृश्य शक्ति को याद रखते हुए सभी का यह कर्तव्य होता है कि
वह माता-पिता और गुरू के
आदेश का पालन करते हुए
स्वयं को इस लायक बनाने का
प्रयास करे कि
वह वृद्धावस्था में उनकी
पालना/देखभाल कर सकें
और अपनी संतान को भी
इस लायक बना सके कि
वह भी वृ़द्धावस्था में
उनकी सार सम्हाल कर सके।
🌺
लेकिन माया से ग्रसित होने के कारण मनुष्य के मन में उस अदृश्य शक्ति का स्थान गौण होता है और सांसारिक पदार्थों (सजीव/निर्जीव) के चिंतन से मन भरा होता है ।
🌺
सेवानिवृत्ति से पूर्व तक मनुष्य के समक्ष दो रास्ते होते हैं
कभी उसका मन
संसार की तरफ जाता है
कभी अदृश्य शक्ति की तरफ
🌺
लेकिन आध्यात्मिक पथ में
यदि उन्नति चाहिए
लक्ष्य प्राप्त करना है तो
यदि सेवानिवृत्ति से पहले ही संभल जाए तो ठीक है अन्यथा
सेवानिवृत्ति के पश्चात तो
आध्यात्मिक पथ के पथिक के मन को एक ही रास्ते का चयन करना होगा
🌺
यदि मन प्रेय मार्ग
(संसार मैं विद्यमान नश्वर पदार्थों (सजीव/निर्जीव) से प्रेम का चयन करता है तो माया के बंधन में रहेगा और
यदि श्रेय मार्ग -यानि निष्काम भाव से उस अदृश्य शक्ति का चयन करते है और अंतिम सांस तक इस चयन का त्याग नहीं करते तो माया के बंधन से मुक्ति मिल जाती है तथा जन्म मरण के चक्र से भी मुक्ति मिल जाती है।
🌸
संगति-
🌸
इस संसार में अधिकतर सभी बहिर्मुखी होते हैं
गुरु ज्ञान के संपर्क में आने पर गुरु ज्ञान हमें हमारे मन को अंतर में एकाग्र करने के लिए अंतर्मुखी होने के लिए प्रेरित करते है
🌸
अंतर्मुखी संगति में मन
शरीर के किसी भी
हिस्से पर यानि के
नस,
नाड़ी,
श्वास
चक्रों आदि
किसी भी एक स्थान पर
ध्यानस्थ/एकाग्र
किया जाता है।
🌸
कोई ईश्वर का नाम लेकर
ध्यान करता है,
कोई बिना नाम के करता है।
🌺
कोई निराकार का ध्यान करता है
🌺
कोई ज्योति का ध्यान करता है
🌺
कोई किसी मंत्र का ध्यान करता है
🌺
कोई किसी प्रतिक चिन्ह का ध्यान करता है
🌺
कोई गुरु के चित्र का ध्यान करता है
🌺
कोई अपने आराध्य के चित्र का
अथवा
अपने आराध्य की मूर्त का ध्यान करता है
🌸
तो गुरु ज्ञान
गुरु की वाणी की संगति के अनुसार आचरण करने पर
ध्यान करने पर
माया का परदा उतरना शुरू होता है
🌸
दूसरी बर्हिमुखता
गुरु ज्ञान की अवहेलना
गुरु की वाणी अवहेलना
हमारे मन को संसार से जोड़ देती हैं
🌺
और हमारा मन
इन्द्रियों के साथ तथा
अपने आस-पास के मनुष्यों के
साथ जुड़ जाता है और
इन्द्रियों के कारण माया से
प्रभावित होकर नये-2 संस्कार
बनाता रहता है।
और इंद्रियों के कारण बने यह प्रत्येक नए संस्कार बंधन और प्रगाढ़ कर देते हैं।
🌺
ज्ञान की संगति
ज्ञान का चिंतन
हमें परम शक्ति के निकट ले जाता है
🌺
अज्ञान की संगति
अज्ञान का चिंतन
सांसारिक पदार्थों का चिंतन
हमें परम शक्ति से दूर ले जाता है
🌸
संस्कार –
🌸
जैसे एक वाहन चालक में
बाहर की सारी गतिविधी
समाहित हो जाती है और
वह बिना अधिक विचार किये
ब्रेक, एक्सीलेटर, क्लच का
प्रयोग करता है।
🌸
तो इन्द्रियों के कारण और
अन्य मनुष्यों के व्यवहार
उनकी वाणी के अनुसार
मनुष्य के संस्कार बन जाते हैं
और इसीलिये वह भी वाहन
चालक की तरह इन्द्रियों से
व्यवहार करता है
बिना सोच-विचार के
गलत और सही
सभी तरह के कर्म
करता रहता है।
🌸
जैसे पांच तत्वों
अग्नि,
जल,
पृथ्वी,
वायु,
आकाश
के बिना कोई भी जीव/प्राणी
जीवित नहीं रह सकता है।
🌸
उसी तरह अंतकरण की
निर्मलता/शुद्धता के बिना
ना तो उस अदृश्य तत्व की
अनुभूति ही हो सकती है और
ना ही मुक्ति/मोक्ष/
निर्वाण/परमानन्द/
दिव्य सुख की प्राप्ति ही हो सकती है।
🌸
जैसे 5 तत्व है तो
जीवन है
तो वैसे ही
अंतकरण की निर्मलता/
शुद्धता है तो
आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है।
🌺
सांसारिक पदार्थों (सजीव निर्जीव) का चिंतन उनका विचार और उनके कारण बने संस्कार माया के बंधन को प्रगाढ करते हैं।
🌺
जैसे कि कोई
अश्लील दृश्य देखता है
अश्लील वार्तालाप सुनता है तो विचार अलग होते है
🌺
और यदि कोई
सत्य ज्ञान को सुनता है अथवा
ज्ञान के अनुसार परम सत्य की ओर ले जाने वाले दृश्य को देखता है
तो विचार अलग होंगे
🌺
इंद्रियों के कारण विचार उत्पन्न होते हैं और
विचारों से संस्कार बनते हैं
🌺
संस्कार ही माया का बंधन खोलते हैं यदि वे ज्ञान के अनुसार बने हो और
🌺
संस्कार ही माया के बंधन प्रगाढ करते हैं यदि वे संस्कार विषय विकार के कारण बने हो
🌸
इन्द्रियों द्वारा मनुष्य को
क्षणिक सुख की
प्राप्ति होती है,
🌸
लेकिन यह क्षणिक सुख
इतने लुभावने,
इतने मनमोहक
होते हैं, जिसके कारण
प्राणी को बार-बार
इन्द्रियों के भोगों की
तृष्णा/प्यास सताती है
और इन्द्रियों का सुख
ऐसा है कि जहां
यह क्षणिक सुख देता है
तो उसके साथ ही अदृश्य
रूप से दुख भी देता है।
🌸
जैसे मृग/हिरण
रेगिस्तान में चमकती
धूप को पानी समझ कर
इधर से उधर भागता है,
लेकिन उसे
पानी नहीं मिलता
केवल रेत ही मिलती है।
🌸
इसी तरह संसार को
मृग तृष्णा रूपी
जल/पानी की
तरह भ्रम बताया है।
🌸
जैसे हिरण कस्तुरी को
ढूंढता फिरता है,
जबकि वह उसके ही
गले में होती है
और वह मर जाता है, लेकिन
उसे कस्तुरी नहीं मिलती।
🌸
उसी तरह से वह अदृष्य
चेतन तत्व जिसे आत्मा/
परमात्मा कहते हैं
🌸
उनकी अनुभूति भी इसी
मनुष्य के शरीर में होती है,
लेकिन मनुष्य
चेतन तत्व को इधर-उधर
खोजता रहता है तथा
बाहरमुखता के कारण
विकारों से ग्रसित होकर
विषयों की तृप्ति हेतु अपना
अंतकरण मैला कर लेता है
🌸
और जैसे मकड़ी ताना-बाना
बुनकर मकड़जाल बनाकर
उसमें ही कैद हो जाती है,
🌸
उसी तरह मनुष्य
मनुष्य माया से ग्रसित होकर गुरु के उपदेश अथवा ज्ञान की अवहेलना कर
कामना/वासनाओं का
ताना-बाना बुनकर
उसमें ही कैद होकर
शरीर त्याग देता है।
🌸
गुरु दो शब्दों से मिलकर बना है
गु और रू
गु अक्षर अंधकार का प्रतीक है और रू अक्षर रूप/ प्रकाश का प्रतीक है।
🌺
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतम् गमय।
🌺
यह मंत्र गागर में सागर है
🌺
समस्त सत्संग की वाणी इसी मंत्र को सार्थक करने के लिए गुरु के कंठ से निकलती है
🌺
इसी मंत्र में गुरु की परिभाषा निहित है
🌺
इसी मंत्र में परमात्मा तक पहुंचने की राह है है
🌺🌺🌺🌺🌺🌺
धर्म की समस्त यात्रा
🌺
असत्य से शुरू होकर सत्य पर समाप्त होती है
🌺
तामसिकता से शुरू होकर निष्काम सात्विकता पर समाप्त होती है
🌺
अंधकार से शुरू होकर प्रकाश तक पहुंचने पर समाप्त होती है
🌺
मृत्यु से अमृत /मोक्ष पर समाप्त होती है
यानी जन्म मरण के चक्र के बंधन से छुटकारा
🌺
इसीलिए इस संसार के अधिकतर सभी गुरु
अंधकार से बाहर निकल कर प्रकाश में समाहित होने का उपदेश देते हैं ।
🌺
अंधकार के अंतर्गत आते हैं
अज्ञान
अविद्या
अस्मिता (मैं / मेरा पन)
अभिनिवेश (मृत्यु भय )
राग (कामना/वासना/आसक्ती जनित प्रेम)
द्वेष (कामना/वासना/आसक्ती/ स्वार्थ जनित नफरत)
विषय (रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श - इंद्रियों के विषय)
विकार - (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर)
पाप
🌺
प्रकाश के अंतर्गत आते हैं
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)
नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर परिधान)
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
🌺
यानी कि 2 तरह से समझाते हैं
1. अंधकार ( असत्य /तामसिकता/अज्ञान/ अविद्या) को मन से विसर्जित कर दो
2. प्रकाश /ज्योति ( सत्य/ सात्विकता/ज्ञान/विद्या) को मन में समाहित कर लो।
🌺
विषय
विकार
पाप
से रहित होने पर ही
अंतकरण शु़द्ध होता है।
🌸
इसीलिये तो प्रार्थना की है –
विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा।
🌸
जिसके मन से विषयों की
वासनायें/कामनायें
समाप्त हो जाती है
🌸
जिसके मन के विकार
दग्ध यानि स्वाहा हो जाते हैं
🌸
जो निष्पाप हो जाता है,
🌸
ऐसे निर्विकारी,
निर्विषयी,
निष्पाप
मनुष्य ही आत्मा/परमात्मा का
साक्षात्कार करते हैं और
परमानन्द के अधिकारी होते हैं
और ऐसे मनुष्य ही
जीते जी ही मुक्त हो जाते हैं
यानि कि
जीवनमुक्त हो जाते हैं।
🌸
और विषय-विकार व
पाप से रहित होकर
माया पर विजय
हासिल कर लेते हैं
🌸
और जो माया पर विजय
हासिल कर लेते हैं
उनके समस्त बंधन
टूट जाते हैं और
सभी बंधनों से मुक्त होकर
सद्गति के भागी होते हैं।
🌸
अंत में
प्रश्न-किस विधि मिलूं दयामय?
उत्तर- विषय विकार मिटाओ
पाप हरो देवा
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
ध्यान
(यानि जाग्रत अवस्था में
ध्यान/दृष्टा भाव /साक्षी भाव
तथा अंतर में ध्यान के बिना
और
विषय विकार पाप से मुक्त हुए बिना कुछ नहीं मिलता।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
सबका भला हो।
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