मन MAN
मन पर विशेष
🌺प्राणी अपने प्रभु से पूछे 🌺
🌺किस विधि पाऊं तोए🌺,
🌺प्रभु कहे तू मन को पा ले🌺
🌺पा जाएगा मोय।🌺y
वह अदृश्यन शक्ति दिखायी नहीं देती है, इसलिये उसे अगोचर कहा है। इस भजन में प्रश्न किया है कि है ?
🙏प्रभू कौनसी विधी है? जिससे मैं आपको पा सकता हूं?
यानि
आपका साक्षात्कार कर सकता हूं,
आपकी अनुभूति कर सकता हूं।
तो प्रभू अंतर प्रेरणा से
अथवा
गुरू के माध्यम से उत्तर देते हैं कि -
मन को पाले तो मुझे पा जायेगा।
🌺यानि के जिसके मन में
अहिंसा ( मैत्री. करूणा, मुदिता, उपेक्षा) सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के भाव हैं, वे मेरे निकट हैं,
🌺 जिनके मन में इन्द्रियों के भोग बसे हुए हैं, विकार बसे हुए हैं, वे मुझ से दूर हैं।
🌺मैत्री -प्रसन्न लोगों से मैत्री का भाव रखना व ईष्र्यालू लोगों से से तटस्थ रहना।
🌺करुणा -दुखी लोगों प्रति करुणा का भाव रखना।
🌺मुदिता-अच्छे, सदाचारी, गुणवान, पुण्यवान लोगों को देखकर हर्षित होना।
🌺उपेक्षा-यदि कोई दुराचारी, दुर्जन, पापी है तो ऐसे लोगों से तटस्थ रहें यानि ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। ऐसे लोगों को चाहें तो समझा सकते हैं, लेकिन उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिये।
उपरोक्त चारों गुण मन को अहिंसक बना देतें हैं और जिसके मन में करूणा, मैत्री, मुदिता, उपेक्षा है, मैं उनके निकटतम हूं और
जिसके मन में पाप/दुराचार/दुष्टता का भाव है उनसे दूर हूं।
इसीलिये कहा है
🌺अहिंसा परमोधर्मो 🌺 और इसी कारण श्रीराम ने अश्वमेघ यज्ञ में अश्व की बलि की प्रथा को परिवर्तित किया। अश्व के स्थान पर सोने के अश्व की बलि दी गई और वह स्वर्ण समस्त प्रजा की भलाई के लिये अर्पित कर दिया गया। इसीलिये समझाया है कि माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रोंदे मोय एक दिन ऐसा आयेगा मैं रोदूंगी तोय। यह केवल समझाने के लिये है इसमें यही भावना छिपी है कि यदि आप किसी को दुख पहुंचायेंगे तो दुख मिलेगा, इसलिये किसी को भी दुख नहीं पहुंचाना चाहिये।
🌺🌺🌺🌺🌺
प्रभू कहता है कि
सत्य -
जिसका मन सत्य रूपी सुगंध से सुभाषित है, उस मन वाले प्राणी के मैं निकटतम हूं।
जिसका मन असत्य रूपी दुर्गन्ध से भरा है, ऐसे प्राणी से में दूर हूं।
इसीलिये कहा है-
सत्यमेव जयते
इसीलिये शव यात्रा के दौरान भटके हुए लोगों को शव यात्रा में शामिल लोगों द्वारा एक स्वर में पुकार कर समझाया जाता है, कि मैं अदृष्य होते हुए भी सत्य हूं, और इसीलिये
सत्य से ही गत है,
सत्य से ही मुक्त है। इसीलिये कहा है
सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप, जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप।
प्रभू कहता है कि -
जिसके मन में
परोपकार की भावना है,
लोगों का भला करने की भावना है, ऐसे मन वाले के मैं निकटतम हूं और
जिसके मन में दूसरों की धन, सम्पत्ति, मान, मर्यादा को हडपने/लूटने की भावना है, ऐसे मन वालों से भी मैं दूर हूं।
🌺🌺🌺🌺🌺
प्भू कहता है कि -
जिसके मन में अपने स्त्री/पुरूष के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्त्री/पुरूष के प्रति वासना का भाव नहीं है, मैं ऐसे मन वालों के निकट हूं और इसके विपरीत मन वालों से दूर हूं।
प्रभू कहता है कि -
यह तो मेरी माया है, जिसके कारण (स्त्री-पुरुष,नर-मादा के कारण) यह सृष्टि चल रही है, लेकिन जो अदृश्य तत्व आत्मा है, उसका कोई लिंग नहीं, ना आत्मा स्त्री है, ना पुरूष ना नपुसंक, इसीलिये तो महाभारत में शिखंडी की कथा आती है कि शिखंडी पूर्व जन्म में महिला था, और भीष्म पितामाह से बदला लेने के लिये अगले जन्म में पुरूष बना था। कुछ पुर्नजन्म से जुडी सत्य कथायें भी इसकी पुष्टि करती हैं कि पुरूष का जन्म स्त्री का तथा स्त्री का जन्म पुरूष का हो चुका है
प्रभू कहता है कि -
जिसका मन शुद्ध है,
जिसमें मेरे अतिरिक्त कोई चाह नहीं,
कोई वासना नहीं, कोई कामना नहीं उस शुद्ध मन वाले के में निकट हूं और
जिसके मन में कामना/वासनाओं का अंबार है उससे में दूर हूं, क्योंकि आत्मा संयुक्त मन रूपी बर्तन कामना/वासना के पर्दों से ढका हूआ है।
जैसे-जैसे यह पर्दे उतरते जायेंगे में निकट आता जाउंगा और जैसे-जैसे
कामनाओं/ वासनाओ के नये परदे लगेंगे दूरी और बढ़ती जायेगी।
......🌺🌺🌺🌺🌺
जिसको यह अहसास है कि मेरे सुख और मेरे दुख मेरे ही कर्मों का परिणाम है चाहे वे कर्म पूर्वजन्म के हैं या वर्तमान जन्म के। ऐसी संतोष की भावना जिसके मन में है, यानि सुख-दुख के लिये मुझसे किसी भी तरह का गिला, शिकवा नहीं है, यानि के हर हाल में जिसका मन प्रसन्न है ऐसे मन वाले के निकट और हर बात में मुझे कोसने वाले से दूर।
प्रभू कहता है कि -
मैंने इस संसार की रचना इसीलिये कि है कि मेरी संतानें परम सुख को परमानन्द को प्राप्त करें,
सभी दुखों से छूट जायें,
जीते जी मेरी अनुभूति करें।
तो जिसके मन में मेरी अनुभूति की सच्ची कामना निहीत है, तो मैं उसके निकट हूं और उसी को अपना स्वरूप भी दिखाता हूं, यानि के जिसके मन में अपने से जुडे हुए सभी जीवों के कल्याण की भावना है,
जो मोमबत्ती की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके निकट में हूं।
हम सबको इस संसार से एक ना एक दिन जाना ही है।
तो हम मोमबत्ती की तरह भी बना सकते हैं और आईसक्रीम की तरह भी।
दोनों ही पिघलते हैं।
अंतर इतना है कि आईसक्रीम केवल एक शख्स की तृप्ति करती है और
जब तक मोमबत्ती विद्यमान रहती है एक को नहीं अनेकों को प्रकाश का सुख देती है।
तो जिसका मन सदाचारी है, और प्रभू को याद रखते हुए सभी का ध्यान
रखने की भावना से भरा हुआ है उसके मैं निकट हूं।
.🌺🌺🌺🌺🌺
प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊं तोए, प्रभु कहे तू मन को पा ले, पा जाएगा मोय।
प्रभू कहता है कि-
जिसका मन इन्द्रियों को गलत देखने से,
गलत सुनने से,
गलत बोलने से रोकता है और
शुभ देखने को प्रेरित करता है,
शुभ सुनने को प्रेरित करता,
शुभ बोलने को प्रेरित करता है, ऐसे मन वाले के मैं निकट हूं और
इसके विपरीत मन वाले से दूर।
सद्गंथों का अध्ययन,
सद्पुरूषों की संगति,
गुरू की वाणी की संगति में जिसका मन रमा है, उसके में निकट हूं।
जिसका मन प्रमाद से रहित है,
अप्रमाद में हे उसके निकट हूं,।
प्रभू कहता है कि -
जिसका मन मेरी माया को जानता है, और यह जानता है कि
तीन सत्य है आत्मा, परमात्मा और प्रकृति ।
दो अदृष्य है और प्रकृति दृष्यमान है।
तो जिसका मन मेरे इस खेल को जानता है कि स्त्री और पुरूष के शरीर दिख रहे हैं, वे मेरी माया से दिख रहे हैं।
सभी आत्मायें हैं
ना कोई स्त्री,
ना कोई, पुरूष और
ना कोई नपुसंक।
इसीलिये तो गीता में स्पष्ट कहा है कि जैसे मनुष्य एक वस्त्र उतारकतर नया वस्त्र पहनता है, उसी तरह से
आत्मा भी एक शरीर से दूसरा शरीर धारण करती है।
आत्मा ना बूढ़ी होती है,
ना मरती है,
ना ही उसे शस्त्र छेद सकते हैं और
ना ही अस्त्र उसे काट सकते हैं,
अग्नि शरीर को जला सकती है, आत्मा को नहीं।
पानी मृत शरीर को गला सकता है, आत्मा को नहीं,
वायु आत्मा को सुखा नहीं सकती।
यानि जिसका मन मुझे कभी भी नहीं भूलता तथा
केवल मेरी अनुभूति की कामना के साथ
प्रत्येक कर्म सात्विकता के साथ करता है।
तो ऐसे मन वाला मुझे पा लेता है
क्योंकि उसके मन में मेरी कामना के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं,
कुछ भी नहीं,
कुछ भी नहीं।
तो जिस मन में केवल और केवल मैं हूं ऐसे मन वाले ने मुझे पा लिया है ।
जैसा कि कहा है कि
एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती,
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो ना समायें।
तो जिसके मन में मेरे अतिरिक्त इस संसार में विद्यमान कोई भी पदार्थ/ शक्ल बसी हुई है
तो मैं उसमें कैसे समाहित हो सकता हूं?
जिस मन में वासना/कामना नहीं मैं वहां हूं और
जहां कामना/वासना है मैं वहां प्रकट नहीं हो सकता।
मन को ही चयन करना है मैं या संसार।
🌺🌺🌺🌺🌺
तन की दौलत,
धन की छाया,
मन का धन अनमोल
तन रूपी साधन उस परमात्मा को पाने का सबसे बड़ा साधन है,
यही वह दौलत है जिसे बेच कर यानि प्रभू को अर्पित कर
उस प्रभू की अनुभूति की जा सकती है।
धन वह साधन है, जिसके द्वारा
यह तन रूपी साधन चलायमान रहता है,
यदि धन की छाया नहींं तो यह शरीर भी उस प्रभू को पाने लायक नहीं रहता,
इसीलिये कहा है कि सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाये मैं भी भूखा ना रहूं साघू ना भूखा जाये।
तन के कारण
मन के धन को
मत माटी में रोल
यह तन नश्वर है,
एक ना एक दिन नष्ट होना ही है।
वह अदृष्य चेतन तत्व नित्य है सदा रहने वाला है।
उस अदृष्य चेतन तत्व की अनुभूति शुद्ध मन वाले को ही हो सकती है।
जैसे किसी को हरिद्वार जाना है तो, जिस वाहन के द्वारा वह हरिद्वार पहुंचता है उस वाहन में वह सवार होता है और हरिद्वार आने पर उस वाहन से उतर जाता है।
तो हमारे शरीर रूपी वाहन की आत्मा सवारी कर रही है, और
उस शरीर रूपी वाहन के सामने
दो रास्ते हैं,
पहला संसार से शुरू होता है और संसार पर ही खत्म होता है।
दूसरा संसार से शुरू होता है और निर्वाण/मुक्ति की ओर ले जाता है।
लेकिन जैसा कि कहा है कि
मिट्टी के मोल में क्यूं हीरे लूटा रहा है, क्यों आत्मा को बेचकर तन को सजा रहा है।
यानि के प्रभू कहता है कि तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् की
आसक्ति रहित होकर त्याग पूर्वक भोग करें,
लालच नहीं करें,
इस संसार में ऐसा कुछ नहीं जो सदा आपके साथ रहेगा,
पहले बचपन साथ छोड़ता है तो जवानी आ जाती है और
जवानी साथ छोड़ती है तो बुढ़ापा आ जाता है।
बुढ़ापा साथ छोड़ता है तो जिसे अंतिम श्वांस तक हम अपना समझते रहते हैं वह शरीर भी पंचतत्व में विलीन हो जाता है।
इसलिये इसमें संदेश छिपा है कि किसेे अपना कहता तू यहां कौन तेरा अप माया की नगरी है जीवन है एक सपना।
....🌺🌺🌺🌺🌺
प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊं तोए, प्रभु कहे तू मन को पा ले, पा जाएगा मोयl
जब हम संसार में विद्यमान पदार्थ/ शक्ल, देखते हैं
तो सोचते हैं कि यह मेरा है,
यह मुझे मिल जाये
वह मुझे मिल जाये,
लेकिन जब आध्यात्मिक गुरू द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है
तो वह वाणी बार-बार समझाती है कि
सम्भल जाओ तुम्हारा इस संसार मे कुछ नहीं
खाली हाथ आये थे,
खाली हाथ जाओगे।
इस तन रूपी साधन को संसार के पदार्थ/ शक्ल से हटाकर
उस अदृष्य तत्व की अनुभूति के लिये करो
क्योंकि उसकी अनुभूति ही तुम्हारे सभी दुखों का अंत कर देगी।
इसीलिये तो कहा है कि
उस दिव्य सुख की तुलना में सांसारिक सुख धुल के समान है।
कोई गुरू के ज्ञान से पूर्ण रूप से जाग जाता है,
कोई जागता है लेकिन माया की सुरीली लौरी में गुरू वाणी को भुलकर रस लेता हुआ सो जाता है,
और कोई जो अज्ञानी है
वह तो माया की सुरीली लौरी में इतना खोया रहता है कि
वह सोता ही रहता है, सोता ही रहता है।
पूर्ण जाग्रत अवस्था को इस तरह से कहा है कि
ताका काल क्या करे जो आठ पहर होशियार।
3 घंटों का एक पहर होता है
तो इस तरह से जो 24 घंटे गुरू वाणी के अनुसार आचरण करता है
उसका काल कुछ नहीं कर सकता।
जो माया में सोया है माया में खोया है,
वह जन्म-मरण के चक्र से नहीं छुटता।
उसे बार-बार जन्म लेने के कारण गर्भ की कैद भोगनी होती है
और बार-बार काल का ग्रास बनना पड़ता है
जन्म के दुख को एक पौराणिक कथा में इस तरह से वर्णित किया गया है-
शुकदेव जी ने कहा कि मैं अब पुनः जन्म नहीं लेना चाहता,
उनसे पूछा गया क्यो?
उन्होंने कहा कि एक नगर में दो सेठ रहते थे,
एक लखपति और दूसरा करोड़पति।
दोनों का एक दूसरे के घर आना जाना था।
करोडपति सेठ चरित्रहीन था और लखपति सेठ की स्त्री भी चरित्रहीन थी।
लखपति सेठ व्यापार के सिलसिले में बाहर जाता रहता था।
उसके जाते ही लखपति सेठ की पत्नी ने करोड़पति सेठ को बुला लिया।
लेकिन किसी कारण से लखपति सेठ को यात्रा अधूरी छोडकर बीच रास्ते से ही लौटना पडा।
दोनों ही चरित्रहीन उसके अचानक आगमन से घबरा गये।
करोडपति सेठ शौचालय के नीचे वाले हिस्से में छिप गया।
पहले के समय में शौचालय छत पर बनाया जाता था और
गंदगी उसके नीचे बने कक्ष में गिरती थी।
लखपति सेठ आते ही छत वाले शौचालय में घुस गया और
करोड़पति पर मल-मूत्र की बारिश होने लगी।
तो शुकदेव जी ने कहा कि गर्भस्थल भी ऐसा ही कैदखाना है
जो गंदगी से भरा हुआ है,
इसलिये कोई अज्ञानी ही होगा
जो नीच कर्म करे और गंदगी में कैद होने को विवश हो।
तो मन की शुद्धता ही सर्वोपरि है।
तन तो गंदगी से भरा हुआ था,
गंदगी से भरा हुआ है ओर जब तक भस्म नहीं होगा
तब तक गंदगी से भरा हुआ ही रहेगा।
🌺🌺🌺🌺🌺
जैसे कि इस
तन को चलायमान रखने के लिये
इसकी कद्र करना आवश्यक है,
उसी तरह इस
मन को भी नर्क से बचाकर स्वर्ग की और ले जाने के लिये मन की कद्र आवश्यक है।
जब मन गुरू वाणी के अनुसार चलता है तो
उसकी कद्र होती है,
उसकी सार सम्हाल होती है,
नहींं तो यह अनमोल मनुष्य जन्म उसी तरह नष्ट हो जाता है,
जैसे कि पारसमणी की कहानी है,
गुरू शिष्य को पारसमणी देते हैं और कहते हैं कि 7 दिन बाद वापस ले लूंगा,
जितना सोना बनाना चाहे बना लेना,
जितना धनवान बनना चाहे बन जाना।
लेकिन शिष्य था आलसी
सोचता रहा कि 7 दिन हैं
थोड़ा आराम कर लेता हूं,
बहुत समय है,
कभी भी बना लेंगे,
शिष्य सोता ही रहा
सात दिन पूरे हुए
गुरू आये और कहा
पारसमणी ले जाने का समय आ गया,
शिष्य ने कहा थोड़ा सा समय दे दो,
गुरू ने कहा नहीं
अब एक सैकण्ड भी नहीं ।
तो उस अदृष्य शक्ति ने हमें यह पारसमणी रूपी शरीर दिया, गुरू ने इससे सोना बनाने की विधि समझायी, और कहा
जितना सत्कर्म रूपी सोना बनाना हो बना लेना।
लेकिन
गुरू वाणी की अवज्ञा करके
मनुष्य का यह तन
माया की सुरीली तानों में खोया रहा,
सोया रहा
उसे अहसास ही नहीं रहा कि
कब इस शरीर से जुदा होने का समय आ गया।
अंतिम समय में कुछ वैराग्य जागा,
लेकिन माया इतनी प्रबल है कि फिर भी
माया की आगोश
मैं ओर मेरे
में ही दम तोड़ कर उस प्रभू की अनमोल धरोहर/उपहार का सदुपयोग नहीं किया।
तोरा मन दर्पण कहलाये भजन का सार
मन पर विजय पाये बिना
ना तो उस अदृष्य तत्व की अनुभूति ही की जा सकती है और
ना ही जन्म-मरण के चक्र से छूटा जा सकता है और
ना ही मुक्ति/निर्वाण/कैवल्य ही प्राप्त हो सकता है।
कामना सहित शुभकर्म
सोने का पिंजरा,
सोने की जंजीर
प्रदान करते हैं
और
दुष्कर्म शूल चुभने वाली वेदना के साथ लोहे की जंजीर प्रदान करते हैं।
निष्काम सात्विक शुभ कर्म मन को उज्ज्वल कर देते हैं ।
हर पिंजरे को तोड़ देते हैं,
हर जंजीर को तोड़ देते हैं।
परमानन्द/ दिव्य सुख/मुक्ति/निर्वाण/कैवल्य की प्राप्ति करवा सकते हैं ।🙏
मनुष्य के मन का रिश्ता जुड़ा होता है
लोकेषणा,
पुत्रेषणा,
वित्तेषणा से
इसलिए उसका देह भान से नाता नहीं टूट पाता
लोकेषणा,
पुत्रेषणा,
वित्तेषणा के कारण ही
बार-बार मन को देहातीत बनाने की यात्रा अधूरी रह जाती हैं
लोकेषणा,
पुत्रेषणा,
वित्तेषणा के कारण ही
मनुष्य भूल जाता है कि
वह यह शरीर नहीं आत्मा है।
ना जाने मनुष्य का मन कितनी बार ही आत्म भाव से भटक कर देहभान में उलझा रहता है और
उसकी यही भूल उसे परमात्मा से दूर करती हैं।
यदि मनुष्य कोई भी कर्म आत्म भाव में करेगा तो
विषय, विकार व पाप से दूर रहेगा और
इस तरह आत्म भाव में कर्म करने वाले का मन उसी तरह परमात्मा में समाहित हो जाता है
जैसे कि पनिहारन सर पर घड़ा रख कर हाथ भी छोड़कर
अपनी सखियों से बात भी करते हुए सफर तय करती हैं
लेकिन उसका पूरा ध्यान घड़े पर केंद्रित रहता है ।
जब यह अभ्यास होता है तब
देहभान से रिश्ता छूटता है और परमात्मा से रिश्ता जुड़ता है
जब तक मनुष्य का मन AC करंट की तरह रहेगा
द्वंद्वात्मक रहेगा
तब तक देहभान भी नहीं छूट सकता और
जो देहभान से नहीं छूटता
वह परमानंद भी नहीं पा सकता
लेकिन एक उसी से मन से रिश्ता जोड़ने में वर्षों लग जाते हैं
बार-बार देहभान से रिश्ता जुड़ता रहता है
जैसे ही आंखें देखती हैं
देह भान से नाता जुड जाता है
जैसे ही कान सुनते हैं
देह भान से नाता जुड जाता है
जैसे ही रसग्रहण करते हैं
देह भान से नाता जुड जाता है
जैसे ही सुगंध अथवा गंध से नासिका का संपर्क होता है
देह भान से नाता जुड जाता है
और कामी स्त्री पुरुष
आंख कान के कारण
अंतर में समाहित वासना से ग्रसित
होने के कारण
देहदान से रिश्ता प्रगाढ़ कर लेते है।
और बहुत से मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का दंभ भरते हैं
वह भी अपने चित्त में समाहित वासनामय संस्कारों के कारण
🌹 स्वप्न में🌹
इस देह के आकर्षण में
आत्म भाव को भूल जाते हैं
जब स्वप्न में भी
लोकेषणा,
पुत्रेषणा,
वित्तेषणा से
मन भ्रमित नहीं होता
जब स्वप्न में भी मन
विषय विकार व पाप से भ्रमित नहीं होता
तब सत्य रूप में आत्म भाव जागृत होता है
देह भान समाप्त हो जाता है
मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है
जागृत में दृष्टा भाव
ध्यान में आराध्य को छोड़कर निर्विचार स्थिति
यह दोनों ही तरह का ध्यान
आत्म भाव में समाहित होने की यात्रा पूर्ण करवाते हैं और
परमानंद के हेतु हैं।
🌺🌺🌺🌺🌺
🙏सारे कार्यों का प्रारम्भ मन से होता है । मन श्रेष्ठ है । सारे कार्य मनोमय हैं । मनुष्य यदि दुष्ट मन से बोलता या कार्य करता हैए तो दुःख उसका पीछा करता है, जिस प्रकार पहिया बैल के पैर का पीछा करता है ।1।
🙏सारे कार्यों का प्रारम्भ मन से होता है । मन श्रेष्ठ है । सारे कार्य मनोमय हैं । मनुष्य यदि प्रसन्न मन से बोलता अथवा कार्य करता हैए तो सुख उसका पीछा करता हैए जिस प्रकार छाया मनुष्य का पीछा करती हैए उसे छोड़ती नही ।2।
तात्पर्य -
मन - जैसे इस शरीर को देखने के लिये दर्पण की आवश्यकता होती है, तो उसी तरह मनुष्य के द्वारा मन, वाणी, काया से किये गये समस्त कर्म/व्यवहार का दर्पण उसका मन ही होता है। जो गुरू से ज्ञान लेता है उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने समस्त कार्य गुरू वाणी के अनुसार करें।
🌺ऐसा कोई कार्य नहीं जिसका मन से संबंध नहीं होता हो। सभी कर्म मन से जुड़े हैं ।
🌺अज्ञानी मन के अनुसार ही समस्त कर्म करते हैं और इसलिये अज्ञानियों के मन रूपी दर्पण पर धूल लगी रहती है। और इसलिये उसका मन अश्रेष्ठ ही रहता है।
🌺ज्ञानी जब गुरू वाणी के अनुरूप कर्म/व्यवहार करके अपने मन को शुद्ध कर लेते हैं, तब उसका मन श्रेष्ठ होता है।
🌺जीवन पथ के दो रास्ते हैं
🌺एक अश्रेष्ठ मन वालों के लिये और
🌺दूसरा श्रेष्ठ मन वालों के लिये।
🌺ज्ञानी जन आध्यात्मिक पथ पर गमन करते हैं और ज्ञान से मन को साध कर, श्रेष्ठ बनाकर पहले सुख, उसके बाद दिव्य सुख की ओर अग्रसर होते हैं, और फिर मुक्ति की ओर अग्रसर होते हैं।
🌺अज्ञानी जन सांसारिक पथ पर गमन करते हैं और अज्ञान के कारण मन को श्रेष्ठ नहीं बना पाने के कारण बंधन को प्रगाढ़ करते रहते है।
🌺हमारे प्रत्येक कर्म मन के द्वारा ही होते हैं, इसीलिये मन, वाणी, काया से किया गया प्रत्येक गलत कर्म ही
🌺दुष्ट मन से किया गया कर्म कहलाता है
🌺जो बंधन में तो बांधता ही है साथ ही दुख का कारण भी बनता है। यानि
🌺जैसी करनी वैसी भरनी
🌺 जैसे गाड़ी में जुते हुए बैल के साथ पहिये साथ-साथ चलते हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा किये गये कर्म भी उसके साथ जुड़ जाते हैं, अच्छे के लिये सुख और बुरे के लिये दुख और यह प्रकृति का अटल नियम है, इसे कोई नहीं काट सकता।
🌺 अधिकतर सभी गुरू यह चाहते हैं कि 🌺सबका भला हो और अपने शिष्य का तो विषेष रूप से भला चाहते हैं, इसलिये उसे सत्संग के माध्यम से, पुस्तकों में माध्यम से। विडियो, ओडियो, दूरदर्शन के माध्यय से समझाते ही रहते हैं कि भला किसी का कर ना सको तो बुरा किसी का मत करना। पुष्प नहीं बन सकते हो तो कांटे बनकर मत चुभना।
कर्मों का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि एक गुरूजी की फोटो अखबार में छपी थी, जेल में बंद थे और उनके हाथ में किताब थी
🌺अपना किया भोगेगा रे🌺
जो बोएगा वही पाएगा
तेरा किया आगे आएगा
सुख दुख है क्या
फल कर्मो का
जैसी करनी वैसी भरनी
सबका भला हो
Comments
Post a Comment