न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति | 🌺 हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||


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जैसे कि रेत का बना हुआ घर स्‍थाई नहीं होता है और 

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हम भी इस संसार में बार-बार रेत के घर बनाने में ही लगे रहते हैं, 

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घर बिखर जाता है, फिर बनाते हैं 

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यही क्रम चलता रहता है, 

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लेकिन वह घर बार-बार ढह जाता है और 

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यह परम सत्‍य है कि रेत का घर कभी स्थिर नहीं रह सकता, 

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उसे तो गिरना ही है। 

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यानि के जो हमारी इन्द्रियां हैं 

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अधिकतर लोग इनकी तृप्ति में ही लगे रहते हैं, 

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इसके अतिरिक्‍त उन्‍हें कुछ सूझता ही नहीं है,

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कई तो ध्‍यान लगाते समय भी इन्‍हीं के चिंतन में लगे रहते हैं और 

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कुछ ध्‍यान से बाहर आते ही इनके चिंतन में लग जाते हैं और 

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इन्द्रियों की कभी तृप्ति नहीं होती, 

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यही तो बार-बार रेत का घर बनाना है। 🌺

एक प्रसंग है, तर्क की कसौटी पर तो नहीं है, लेकिन है प्रेरणादायक।

शुक्राचार्य के श्राप से राजा ययाति युवावस्था में ही वृद्ध हो गये थे ।

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परन्तु बाद में ययाति के प्रार्थना करने पर शुक्राचार्य ने दयावश उनको यह शक्ति दे दी कि

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 वे चाहें तो अपने पुत्रों से युवावस्था लेकर अपना वार्धक्य वृद्धावस्‍था उन्हें दे सकते हैं ।

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तब ययाति ने अपने पुत्र यदु, तर्वसु, द्रुह्यु और अनु से उनकी जवानी माँगी, मगर वे राजी न हुए ।

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अंत में छोटे पुत्र पुरु ने अपने पिता को अपना यौवन देकर उनका बुढ़ापा ले लिया ।

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पुनः युवा होकर ययाति ने फिर से भोग भोगना शुरु किया ।

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वे नन्दनवन में विश्वाची नामक अप्सरा के साथ भोग करने लगे।

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इस प्रकार एक हजार वर्ष तक  भोग भोगने के बाद भी भोगों से जब वे संतुष्ट नहीं हुए

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तो उन्होंने अपना बचा हुआ यौवन अपने पुत्र पुरु को लौटाते हुए कहा :

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न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति | 

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हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||

 

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“पुत्र ! मैंने तुम्हारी जवानी लेकर अपनी रुचि,  उत्साह और समय के अनुसार विषयों का सेवन किया 

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लेकिन विषयों की कामना उनके उपभोग से कभी शांत नहीं होती, 

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अपितु घी की आहुति पड़ने पर अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती  ही  जाती है ।

 

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रत्नों से जड़ी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, पशु और सुन्दर स्त्रियाँ, 

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वे सब एक पुरुष को मिल जायें तो भी वे सबके सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे ।

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अतः तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए ।

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छोटी बुद्धिवाले लोगों के लिए जिसका त्याग करना अत्यंत कठिन है, 

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जो मनुष्य के बूढ़े होने पर भी स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा 

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जो एक प्राणान्तक रोग है

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 उस तृष्णा को त्याग देनेवाले पुरुष को ही सुख मिलता है ।” 

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 (महाभारत : आदिपर्वाणि संभवपर्व : 12)

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ययाति आगे कहते हैं : -

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 “पुत्र ! देखो, मेरे एक हजार वर्ष विषयों को भोगने में बीत गये 

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तो भी तृष्णा शांत नहीं होती और 

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आज भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्णा पैदा होती है ।

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पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः ।  


तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वभिजायते ।।

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इसलिए पुत्र ! अब मैं विषयों को छोड़कर ब्रह्माभ्यास में मन लगाऊँगा ।

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निर्द्वन्द्व तथा ममतारहित होकर वन में मृगों के साथ विचरूँगा ।

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हे पुत्र ! तुम्हारा भला हो । तुम पर मैं प्रसन्न हूँ ।

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अब तुम अपनी जवानी पुनः प्राप्त करो और 

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मैं यह राज्य भी तुम्हें ही  अर्पण करता हूँ ।

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इस प्रकार अपने पुत्र पुरु को राज्य देकर 

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ययाति ने तपस्या हेतु वनगमन किया ।

यह कहानी यही दर्शाती है कि

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 इस तृष्‍णा/कामना/वासना रूपी कर्म से निर्मित घर उसी रेत की तरह है, 

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जो बार-बार जन्‍म-मरण के चक्र में लाने का सबसे बडा कारण है।

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Comments

  1. Wah !!

    Super writing ...

    Nothing can satisfy a man except tyaag aur prem !!

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