जरा तो सोच रे बन्दे खुदा को मुंह दिखाना है, यह दौलत और यह ताकत नहीं कुछ काम आना है, जहां से जायेगा प्यारे बुलावा आयेगा प्यारे बहुत पछतायेगा प्यारे। हिसाब अपना चुकाना है। अकेला ही तू आया था, अकेला ही तू जायेगा। किया जो दान पुण्य तूने वो तेरे काम आयेगा, यहीं सब छोड जाना है। गगन छूने चला है तू तूझे धरती पर सोना है, तेरी औकात ही क्या है तू मिट्टी का खिलौना है यह सच तुझ को बताना है। जिन्हें समझे है तू अपना वो तोडेंगे तेरा सपना, वचन ये याद तू रखना, यह सपना टूट जाना है। जरा तो सोच रे बन्दे खुदा को मुंह दिखाना है, यह दौलत और यह ताकत नहीं कुछ काम आना है,
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-1
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
यह दौलत और यह ताकत
नहीं कुछ काम आना है,
जहां से जायेगा प्यारे
बुलावा आयेगा प्यारे
बहुत पछतायेगा प्यारे।
हिसाब अपना चुकाना है।
अकेला ही तू आया था,
अकेला ही तू जायेगा।
किया जो दान पुण्य तूने
वो तेरे काम आयेगा,
यहीं सब छोड जाना है।
गगन छूने चला है तू
तूझे धरती पर सोना है,
तेरी औकात ही क्या है
तू मिट्टी का खिलौना है
यह सच तुझ को बताना है।
जिन्हें समझे है तू अपना
वो तोडेंगे तेरा सपना,
वचन ये याद तू रखना,
यह सपना टूट जाना है।
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
यह दौलत और यह ताकत
नहीं कुछ काम आना है,
लगातार -----भाग---2
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-2
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
हमें अपने धन, बल, बुद्धि के अहंकार में ऐसा कोई कर्म / कोई कार्य नहीं करना चाहिये,
जिसे करने के लिये हमारे आदर्शपुरूष/गुरू/ज्ञान ने मना किया है।
आदर्शपुरूष क्षमावान/दयावान होते हैं
इसलिये वह हमारे कुकर्मों के लिये हमें माफ कर सकते है,
लेकिन वह अदृश्य शक्ति/कुदरत का कानून हमें कभी भी क्षमा नहीं करता है,
जैसे कि दयानन्द जी को जिस रसोईये ने जहर दिया था,
दयानन्द जी ने उस रसोईये को कुछ धन देते हुए कहा कि
तुम यहां से कहीं अन्यत्र चले जाओ, नहीं तो हो सकता है कि
मेरा कोई शिष्य तुम्हें क्षति पहुंचा दे।
रसोईया धन लेकर अन्यत्र चला तो गया,
लेकिन कुदरत के कानून की मार के कारण पागल होकर मर गया ।
तो उस अदृश्य शक्ति/कुदरत के कानून के सामने
ना तो धन ही काम आता है,
ना बल ही काम आता है
और ना ही बुद्धि ही काम आती है।
हमारे दुष्कर्मों के कारण ही दुख हमारा पीछा नहीं छोडते हैं,
इसलिये आदर्शपुरूष/गुरू समझाते हैं कि
है शिष्य मुझ से मिलने से पहले तुमने जो किया सो किया
अब अधर्ममय दुष्कर्मों का त्याग कर दो
तथा धर्ममय सत्कर्मों को निष्काम भाव से करना शुरू कर दो
भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल
महावीर स्वामी और शूलपाणि
नारद और बाल्मिकी
यह तीनों ही उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि
ज्ञान के सम्पर्क में आने से पूर्व
जो अंजाने में हुआ सो हुआ,
लेकिन इन तीनों का ही जीवन ज्ञान के सम्पर्क में आने पर बदल गया।
पाप इनके तन मन से निर्वासित हो गया और
सत्कर्म इनके तन-मन में समाहित हो गया।
लगातार----3----
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-3
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
यदि हमें सुख की आकांक्षा है
तो स्वयं का सुधार करना ही पडेगा और
यदि हम समय रहते
अपना सुधार नहीं करते हैं,
तो अंतिम समय में हमारे पास पश्चाताप करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचेगा ।
ज्ञान एक पारसमणि की तरह है, जिसका उपयोग कोई पुरूषार्थ के साथ करता है
तो उसके वारे न्यारे हो जाते हैं और
यदि आलस्य के कारण ज्ञान रूपी पारसमणि का उपयोग नहीं करता तो
जिस बंधन को खोलने के लिये ज्ञान रूपी पारसमणि प्राप्त हुई थी
उसके होने नहीं होने का कोई मतलब नहीं रहता।
जैसे कि किसी आलसी को
किसी साधू ने पारसमणि दी, सात दिन का समय दिया
जितना सोना बनाने चाहे बना लेना,
लेकिन उस आलसी ने सोचा कि
आज करे सो काल कर,
काल करे सौ परसो
इतनी जल्दी क्या है प्यारे
अभी तो पडे हैं बरसों।
और वह आलसी आलस्य की निद्रा में सोया ही रहा,
7 दिन पूरे हुए पारसमणि वापस चले गई और
आलसी के पास पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा।
तो ज्ञान पारसमणि की तरह है,
जिसका सदुपयोग
कल नहीं आज ही करना है,
आज नहीं अभी करना है
यानि काल करे सो आज कर,
आज करे सो अब,
पल में प्रलय होयेगी,
बहुरि करेगा कब।
यानि कि पता नहीं
किस समय इस जीवन का अंंत हो जाये,
तो अंत होने से पहले
हम सत्कर्म के लिये कल की प्रतीक्षा नहीं करनी है,
आज के दिन की भी प्रतीक्षा नहीं करनी है,
बल्कि हर पल हर क्षण का उपयोग
हमें ज्ञान के अनुसार करना चाहिये।
बहुरि यानि कि सफाई/शुद्धि -
हम हमारे अंतर मन को ज्ञान पथ पर चलते हुए शुद्ध बना लें
तो अंतिम समय में हमें पछताना नहीं पडेगा।
लगातार-----4----
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-4
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
हमारी नादानी/अहंकार के कारण किये गये कुकर्म/दुष्कर्म
हमें दुखों के दलदल में डाल देते हैं।
हमारे कर्मों के अनुसार ही
हमें परिणाम भी प्राप्त होता है
निष्काम कर्म -
हमें मुक्ति का अधिकारी बनाते हैं
सकाम कर्म -
हमारे बंधन का कारण बनते हैं, यानि कि जन्म मरण का चक्र नहीं टूटता
सकाम सात्विक कर्म -
हमें सोने की जंजीर प्रदान करते हैं,
यानि जीवन में सुखों की अधिकता रहती है।
सकाम राजसिक कर्म '
हमें चांदी की जंजीर प्रदान करते हैं,
यानि जीवन में सुख और दुख दोनों का सामजस्य बना रहता है।
सकाम तामसिक कर्म -
हमें लोहे की जंजीर प्रदान करते हैं,
यानि कि भोग योनि प्राप्त होती है और दुखों की अधिकता रहती है।
हमारे कर्म का हिसाब-किताब लेकर ही हम संसार में आते हैं और
निष्काम कर्म करने पर मुक्त हो जाते हैं
अन्यथा सकाम कर्म करने पर हिसाब-किताब
यानि की प्रारब्ध के साथ हमारा नया जन्म होता है।
चाहे गुरू हो या शिष्य
इस दुनिया में सभी अकेले ही आते हैं और
इस दुनिया से विदा भी अकेल ही होते हैं।
सभी अपने-अपने कर्मों के परिणाम से बंधे होने के कारण
इस दुनिया में प्रारब्ध (सुख और दुख) के साथ आते हैं और
कर्मों से बंधे हुए ही संचित कर्माशय (सुख और दुख) के साथ इस संसार से चले जाते हें,
केवल निष्काम सत्कर्मी ही इस कर्म के बंधन से मुक्त होते हैं।
लगातार----5----
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-5
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
दान पुण्य में भी दो भाव निहीत रहते हैं
एक सकाम भाव
दूसरा निष्काम भाव
दान-पुण्य भी यदि सकाम भाव से किया जाता है तो
वह बंधन का कारण बन जाता है
यानि कि सुख का आधार और
यदि निष्काम भाव से किया जाता है तो
परमानन्द का आधार
यानि की मुक्ति का आधार।
चाहे गुरू हो या शिष्य
जो अपनी अंतिम श्वांस तक निष्कामी रहता है
केवल वही बंधन मुक्त होता है,
अन्य जन्म मरण रूपी चक्र के बंधन में ही रहते हैं।
इसलिये सद्ज्ञान समझाता है कि विकारों का त्याग कर दें
मैं, मेरा छोड दे
यानि के अहंकार को त्याग दे,
स्वार्थ को त्याग दें
परहित के लिये कर्म करें
क्योंकि परहित के लिये किया गया कर्म ही सबसे पुण्य कर्म है,
सबसे बडा दान रूपी कर्म है।
संसार में विद्यमान समस्त पदार्थों/शक्लों से
जन्म के साथ संयोग होता है,
सम्पर्क होता है और
मृत्यु के साथ ही
समस्त पदार्थों /शक्लों से
वियोग हो जाता है,
सम्पर्क विच्छेद हो जाता है।
इसलिये ज्ञान समझाता है कि
इस संसार में जो कुछ भी है स्वपन वत है,
जैसे कि स्वपन में मृत्यु हो जाती है
लेकिन नींद खुलने पर पता चलता है कि हम जीवित हैं।
तो यह स्वपन प्रारम्भ होता है
जन्म के साथ और समाप्त होता है मृत्यु के साथ।
कुछ विरलों का यह स्वपन जीते जी टूट पाता है और
जिनका यह स्वपन जीते जी टूट जाता है,
उनकी संसार में विद्यमान सकल पदार्थों /शक्लों से आसक्ति समाप्त हो जाती है।
क्योंकि हमें सब कुछ यही छोड कर जाना है,
इसलिये गुरू/ज्ञान समझाते हैं कि सबके लिये आसक्ति रहित विशुद्ध प्रेम रखते हुए इस संसार के किसी भी पदार्थ/शक्ल से आसक्ति नहीं रखना।
लगातार-------6----
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-6
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
गुरू/ज्ञान समझाते हैं आदर्शपुरूष समझाते हैं कि
चाहे कोई कितना भी उंचा पद, रूतबा, मुकाम हासिल कर ले,
लेकिन उसे दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता है,
चाहे कोई आकाश की उंचाईयों को छू ले,
चाहे संसार का सबसे बडा पद प्राप्त कर ले,
लेकिन संसार के परम सत्य मृत्यु से कोई भी नहीं बच सकता है।
और एक दिन दूसरों की तरह
चाहे उच्च पदधारी हो,
अति बलवान हो,
अति बुद्धिमान हो,
अति धनवान हो
चाहे कोई ही हो
सभी को इस धरा पर एक दिन
चिरनिद्रा में सोना ही होगा।
जो भी इस संसार में उत्पन्न हुआ है
उसे पंच तत्व में विलीन होना ही होगा
समस्त दुखों से छूटकारे का
केवल एक ही मार्ग है
वह है निष्काम सत्कर्म ।
यदि अपवाद को छोड दें तो,
अधिकतर मनुष्य जिन्हें अपना समझते हैं,
एक दिन ऐसा आता है कि वे अपने
उसका स्वपन तोड देते हैं,
भ्रम तोडे देंते हैं
जिस पुत्र पर एक माता-पिता गर्व करके अपना समझता है,
वही पुत्र एक दिन बडा होने पर
उन अपने पालनकर्ता माता-पिता को
निरर्थक समझने लग जाता है,
यहां तक कि कुछ लोग तो
उनकी मृत्यु की कामना तक करने लग जाते हें,
ऐसे लोग इस बात से अंजान होते हैं कि
उनकी संतान यदि उनके मरने की कामना करे
तो उन्हें कैसी अनुभूति होगी।
लगातार----7----
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-7
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
अज्ञानी को तो पता नहीं कि वह क्या कर रहा है
लेकिन जिसने गुरू/ज्ञान धारण किया है और
ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी की तरह कर्म करता है
तो यह अपने पैरों पर कुल्डाडी मारने जैसा ही होता है।
अपवाद को छोड दें तो
अधिकतर ज्ञानियों की दृष्टि में
केवल अपनी पत्नी पुत्र/पुत्री ही
अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं
और माता-पिता महत्वहीन होते हैं
वे ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी ही होते हैं।
पथ भ्रष्ट होते हैं ।
और ऐसे पथभ्रष्ट अज्ञानी लोग बार-बार ऐसी बातें करते हैं
जो उनके माता-पिता के लिये
अपमानजनक होती है,
असहनीय होती है,
लेकिन वे विवश होते हैं और सहन करते हैं,
जिसका कारण यह हे कि जवानी में उन्होंने भी संभवत: ऐसा ही कृत्य
अपने माता-पिता के साथ किया हो
और ऐसा ही व्यवहार अपने बुर्जर्गो के साथ किया हो।
हां अपवाद स्वरूप कुछ श्रवण कुमार जैसे पुत्र भी होते हैं,
कुछ अपवादों को छोडकर अधिकतर ऐसे श्रवण कुमारों को
अपनी संतान भी श्रवण कुमार जैसी ही प्राप्त होती है।
अपवाद स्वरूप अच्छे के घर में बुरे का जन्म भी हो जाता है और
बुरे के घर में अच्छे का जन्म भी हो जाता है,
तो सब कुछ पूर्व कर्मों से जुडा हुआ है तथा
वर्तमान कर्मों से भी जुडने वाला है।
सब कुछ कर्मों का ही परिणाम होता है।
यानि के जो हम जो बोते हैं जैसा कर्म करते हैं
वैसा ही परिणाम हमें प्राप्त होता है,
यानि हमारे द्वारा किये गये कर्म ही
सुख और दुख के रूप में
हमारे समक्ष प्रकट होते हैं।
हम किसी कि प्रसन्नता के कारण बनते हैं
तो उसके बदले
हमें सुख मिलता है
प्रसन्नता मिलती है
और यदि हम किसी के दुख का कारण बनते हैं
तो उसके बदले में हमें दुख प्राप्त होता है।
यानि के जैसी करनी वैसी भरनी।
इस प्रसंग में एक कथा है-
लगातार----8---
सर्वे भवंतु सुखिन:
जरा तो सोच रे बन्दे
खुदा को मुंह दिखाना है,
भाग-8
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
एक गाँव में एक परिवार था,
पति- पत्नि खुदगर्ज किस्म के थे
बजुर्ग मां अक्सर बीमार रहती थी।
बेटे- बहू को उसकी देखभाल व इलाज
में समय व पैसा खर्च करने में बहुत दुख होता था।
उनके दस साल के बेटे का दादी से विशेष प्रेम था।
एक दिन रात को बेटा-बहू योजना बना रहे थे कि
यह बुढ्ढी तो किसी काम की नहीं,
खर्चा अलग से होता है।
सलिये धीमा जहर लाकर रोज खाने में खिलायेंगे तो
किसी को शक भी नहीं होगा और
बूढ्ढी से छुटकारा मिल जायेगा।
पोते ने अपना गुल्लक तोडा और
पैसे साथ में रख लिये और जिद करके
माता-पिता के साथ बाजार गया।
उन्होंने धीमा जहर खरीदा,
उनके पुत्र ने भी कहा मुझे भी दो पुडिया चाहिये।
माता-पिता अपने पुत्र को अकेले में ले गये और पूछा कि
तुम क्या करोगे इस पुडिया का।
पौते ने कहा कि माताजी और पिताजी
मैं तो आपका ही अनुकरण कर रहा हूं
जब आप दोनों की हालत भी दादी जैसी हो जायेगी
तब एक पुडिया पिताजी के लिये और
एक आपके लिये काम में आ जायेगी।
माता-पिता की आंखें खुल गयी और
अपनी बूढी मां का पूर्ण मनोयाेग से
ध्यान रखते हुए उपचार करवाया।
सबका भला हो
जरा तो सोच रे बन्दे खुदा को मंुह दिखाना है, यह दौलत और यह ताकत नहीं
कुछ काम आना है, जहां से जायेगा प्यारे बुलावा आयेगा प्यारे बहुत
पछतायेगा प्यारे। हिसाब अपना चुकाना है। अकेला ही तू आया था, अकेला ही तू
जायेगा। किया जो दान पुण्य तूने वो तेरे काम आयेगा, यहीं सब छोड जाना है।
गगन छूने चला है तू तूझे धरती पर सोना है, तेरी औकात ही क्या तू मिट्टी
का खिलौना है यह सच तुझ को बताना है। जिन्हें समझे है तू अपना वो तोडेंगे
तेरा सपना, वचन ये याद तू रखना, यह सपना टूट जाना है।
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