सूनलो जरा जो गीता में कहा ना सोचो तुम बुरा करो तुम सबका भला। तू काहे करता यह हेरा फेरी, यह माया तेरी है ना मेरी। यह राहे तज दे तू टेढी-मेढी है मानव काया राख की ढेरी।
सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -1
सुन लो जरा जो गीता में कहा
कृपया जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
गीता का यह संदेश है कि
सत्कर्म सात्विकता ही आध्यात्मिक उन्नति की आधारशिला है।
यदि आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर पहुंचना है तो
मन में असुरत्व रूपी किसी भी तरह के
बूरे विचारों को प्रवेश करने से रोकना ही होगा
धनबल, भुजबल, ओहदे के मद में
मन, वाणी, काया से
कभी भी
किसी का भी
बुरा नही हो
इस बात का ध्यान रखना ही होगा
जहां तक सम्भव हो
या तो भला ही करना चाहिए
यानी सत्कर्म हीं करने चाहिए अथवा
यदि सम्भव नहीं हो तो तटस्थ रहना चाहिये
यानी यदि परहित के लिए सत्कर्म करने की क्षमता नहीं हो तो कम से कम दूसरों को क्षति पहुंचाने का दुष्कर्म तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए
यदि किसी के आंसू नहीं रोक सकते हैं तो कम से कम किसी की आंख में आंसू लाने का कारण तो कदापि नहीं बनना चाहिए
यदि किसी के सुख का कारण नहीं बन सकते हैँ
तो किसी के दुख का कारण तो कदापि नहीं बनना चाहिए
इसीलिए कहां है
कबीरा हाय गरीब की कबहू ना निष्फल जाए
मरे बेल की चाम सू लोहा भस्म हो जाए
पौधे पेड़ में लगे हुए पुष्पों के संपर्क में आने पर तन स्वस्थ और मन प्रसन्न हो जाता है
और कांटों से भरी झाड़ियों के संपर्क में आने पर तन जख्मी हो जाता है और दर्द की वेदना महसूस होती है
यदि पुष्प की भांति नहीं बन सकते है
तो कांटो की भांति तो कदापि नहीं बनना चाहिए ।
यदि सत्य मधुर वाणी नहीं बोल सके तो
असत्य कटु वचन तो कदापि नहीं बोलने चाहिए ।
असत्य कटु वचन बोलने से तो अच्छा है कि मौन ही रहे आवश्यकतानुसार ही सत्य मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, इसीलिए कहा है
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय
लगातार ,,, 2,,,,,
सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -2
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
सर्वे भंवतु सुखिन:
यह हमारी संस्कृति का मूल मंत्र है।
यह उपदेश केवल गीता में ही नहीं है
अपितु अधिकतर धर्मग्रंथों में यह संदेश विद्यमान है
इस संदेश को वही शिष्य गम्भीरता से लेते हैं,
जो गुरू उपदेश/ गुरू वाणी को सुनकर अपने मन में समाहित कर लेते हैं।
आज ऐसे शिष्यों की संख्या अधिकतम है,
जो ना जाने कितनी ही बार
गुरू उपदेश / गुरू वाणी की
अवज्ञा/अवहेलना करते ही रहते हैं।
यानि कि जैसे कोई स्नान करता है और
फिर मिटटी में लोट-पोट हो जाता है,
तो उसका स्नान व्यर्थ हो जाता है।
तो गुरू/ज्ञान हमें समझाता है कि
इस मन को सतकर्म रूपी स्वच्छ जल से स्वच्छ करें और
दुष्कर्म रूपी गंदे अपवित्र जल से बचा कर रखें ।
गीता सहित अधिकतर ग्रंथ यह संदेश देते हैं कि
किसी भी परिस्थिति में हमें किसी के भी साथ
धोखाधडी नहीं करनी चाहिये और
विशेषकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये तो
कदापि धोखाधड़ी नहीं करनी चाहिये।
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -3
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
अधिकतर धर्मों में कर्म पर ही जोर दिया जाता है
हां इतना अवश्य है कि
कुछ स्वार्थी तत्वों ने कर्मों को गौण कर दिया है और
मिथ्या बातों का ऐसा जाल बिछाया है कि
अज्ञानियों को तो छोडें
पढे-लिखे लोग भी मिथ्या कर्मकांडों में उलझ जाते हैं,
जैसे कि सबसे व्यर्थ का कर्म कांड है
मृत्यु भोज,
इसकी निरर्थकता और
इसके कारण कर्ज में दबने वाले परिवारों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए
राजस्थान सरकार ने इस पर
प्रतिबंध लगाकर पहल की है।
मृत्यु भोज के स्थान पर
अनाथालय/वृद्धाश्रम/लाचारों के लिये भोजन/वस्त्र/आवास आदि की व्यवस्था में सहयोग किया जा सकता है अथवा और भी अन्य कोई भी ऐसा कार्य जिससे किसी दुखी का दुख दूर हो सके किया जा सकता है,
मृत्यु भोज की तरह और भी कुरीतियां हैं।
स्वार्थी तत्वों ने ही इस संसार को पथ विहीन करके व्यर्थ के कर्मकांडों में भटका दिया है और
आज इन्हीं स्वार्थी तत्वों के मिथ्या ज्ञान/मिथ्या उपदेश के कारण इस संसार में अधिकतर लोग एक दूसरे के शत्रु बने हुए हैं।
अधिकतर धर्मों का कहना है कि
हम गलत राह को त्याग दें,
असत्य की राह को छोड़ दें
सत्य के पथ पर अग्रसर हो।
दुष्कर्म की राह छोड़ दें
सत्कर्म की राह को अपनाएं।
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -4
सुन लो जरा जो गीता में कहा
कृपया जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
हातिमताई की कहानी में एक प्रश्न आता है कि
वह कौन सी चीज है
जिसे एक बार देखा है,
दूसरी दफा देखने की आरजू है!
इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि
यदि श्रेय मार्ग पर अग्रसर होना है
आध्यात्मिक उन्नति के शिखर तक पहुंचना है
तो रूप के आकर्षण में बहकने से स्वयं को बचाना ही होग।
कम से कम संबंधों की पवित्रता तो रखनी ही होगी
यानि कि अपने जीवन साथी के अतिरिक्त
किसी भी पर स्त्री/पुरूष को अपने मन में स्थान नहीं देना।
यह अवस्था यानि कि अपने मन को केवल अपने जीवन साथी तक ही सीमित रखना
यह ब्रह्मचर्य की प्रथम सीढी है,
जो इस सीढी तक नहीं चढ पाता
वह आध्यात्त्मिक उन्नति के शिखर तक कभी नहीं पहुंच सकता ।
इसे अधिकतर सभी धर्मों ने स्वीकारा है,
लेकिन अफसोस तो यह है कि
इसका पालन करने वालों की संख्या अल्पतम है।
एक प्रसंग है, तर्क की कसौटी पर तो नहीं है, लेकिन इसका संदेश अत्यंत प्रेरणादायक है,
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -5
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
एक अत्यंत रूपवती स्त्री थी,
वह श्राप से ग्रसित थी कि
जब कोई उसके रूप के आकर्षण में नहीं फसेगा और
उसे ठुकरा देगा
तब वह श्राप से मुक्त हो पायेगी।
उसका रूप इतना आकर्षक था कि
कितने ही पुरूष उसके सम्पर्क में आये
लेकिन उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था
जो उसके आकर्षण में नहीं फंसा हो।
उस स्त्री के आकर्षण में जो भी फंसता था,
उसका सर धड से अलग होकर
पेड पर लटक जाता था,
लेकिन ऐसी स्थिति होने बावजूद भी
उन बिना धड के लटके हुए सिरों की जिव्हा से बार-बार एक यही वाक्य निकलता था कि
एक बार देखा है,
दूसरी दफा देखने की आरजू है।
हातिमताई एक सच्चा पवित्र नेक दिल इंसान था,
उसका भी उस स्त्री से सामना हुआ,
लेकिन वह उसके आकर्षण में नहीं फंसा और
उसने उसकी वासना को पहचानते हुए उसे परे धकेल दिया और
ऐसा करते ही वह स्त्री श्राप से मुक्त हो गई।
उस स्त्री को यह श्राप था कि
जब उसे कोई ठुकरायेगा
तब ही वह अपने वास्तविक स्वरूप में आ सकेगी
अन्यथा उसे श्राप से मुक्ति नहीं मिलेगी और
जो कोई उसके आकर्षण में फंसेगा
उसका सिर पेड पर लटक जायेगा।
यह कथा सत्य है अथवा असत्य,
लेकिन इसका संदेश प्रेरणादायक है,
क्योंकि ज्ञान/गुरू यही समझाते हैं कि
जब तक हम इन्द्रियों के जाल से मुक्त नहीं होते
तब तक हमारी मुक्ति भी सम्भव नहीं है।
इसलिये आरती में प्रार्थना की गई है कि
विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -6
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
इन्द्रियों के भोगों की तृष्णा के कारण
असंयम पूर्वक भोगों में लिप्त होने के कारण
इन्द्रियों के आकर्षण में फंसे आदतन शराब का सेवन करने वालों का लीवर खराब हो जाता है लेकिन तब भी शराब की लत के कारण लीवर खराब होने पर भी अंतिम श्वासं तक शराब का त्याग नहीं कर पाते हैं और वह शराब ही उनकी समय से पूर्व मृत्यु का कारण बन जाती है
गुटका/बीडी/तम्बाखू आदि के कारण असहनीय दर्द से गुजरने के बावजूद और
आपरेशन करवाने के बावजूद भी
इनके आकर्षण के कारण बहुत से
लोग अंतिम श्वांस तक इनका त्याग नहीं कर पाते हैं ।
आज इस संसार की भी स्थिति यही है,
इसमें केवल वही बचेगा
जिसका मन पवित्र होगा,
इन्द्रियों के जाल से रहित होगा,
हातिमताई की तरह रूप के दलदल में नहीं फंसेगा।
रूप के आकर्षण के कारण ही
अधिकतर लोगों का मन
संबंधों की पवित्रता को तोडता रहता है और
ऐसे अपवित्र मन वाले पुरूषों के मन में
समाहित सांसारिक पदार्थों शक्लों की कामना/वासना कभी खत्म नहीं हो पाती है
इस संसार में अधिकतर मनुष्यों में से
कोई केवल खाने के लिये तो
कोई केवल पीने के लिये ही जीता है
कोई देखने के लिये तो
कोई सुनने के लिये ही जीता है
कोई स्पर्श सुख के लिये ही जीता है।
कोई मन बहलाने में ही इस जीवन की सार्थकता समझता है।
और इस तरह खाने, पीने, सुनने, देखने, मनोरंजन व स्पर्श सुख की तृप्ति में ही अधिकतर लोग अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देते हैंा
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -7
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
जिस इन्द्रि की तृप्ति जिस किसी भी
पदार्थ/शक्ल से होती है,
वह पदार्थ/ शक्ल मन में इस तरह समाहित हो जाती हे कि उसके कारण चाहे रोगग्रस्त होना पडे,
लेकिन अज्ञानतावश इंद्रियों की तृप्ति की कामना
मन में बनी ही रहती है।
जैसे कि इतनी दुर्दशा होने के बावजूद भी
सर धड से जुदा होने के बावजूद भी
उन सिरों की जिव्हा से रूप के दर्शन की चाह की रटन समाप्त नहीं हुई।
तो यह कहानी यही शिक्षा देती है कि
हम अपना सुधार करें अन्यथा
हमारा पतन अवश्यमभावी है,
हमारे दुखों का बढना अवश्यमभावी है।
तो जिससे पहले कि पंचतत्व से निर्मित यह नश्वर काया राख के ढेर में परिवर्तित हो जाये,
उससे पूर्व ही हम सम्भल जायें।
उससे पूर्व ही हम अज्ञान रूपी निद्रा से जाग जायें,
उससे पूर्व ही अथाह नश्वर धन का लालच छोडकर सत्कर्म रूपी शाश्वत पूंजी को बढायें,
केवल सत्कर्त की ही पूंजी एक ऐसी पूंजी है,
जिसे ना कोई चोर चुरा सकता है,
ना कोई लुटेरा लूट सकता है,
ना कोई उसका गबन कर सकता है।
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -8
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
डंका बजना
यानी कि प्रसिद्ध होना
विख्यात होना
मशहूर होना
तो डंका तो
पूर्व में भी निष्कामी पवित्र आत्मओं का ही बजता था और
वर्तमान में भी ऐसी ही आत्माओं का डंका बज रहा है और भविष्य में भी ऐसी ही आत्माओं का डंका बजेगा।
निष्कामी पवित्र आत्मा यानि कि
जो इन्दियों के विषय- रूप, रस, गंथ, शब्द, स्पर्श से मुक्त थे
जो विकार
काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर व पाप से मुक्त थे,
जो सत्य पथ के पथिक थे।
जो अपने ज्ञानप्रदाता की राह पर चलते हुए
जन कल्याण में संलग्न थे अथवा
वर्तमान में भी निष्काम भाव से संलग्न हैं।
लेकिन यदि कोई सत्य के पथ पर चलते हुए डंका बजने के बाद असत्य की राह पकड लेता है तो उसको
फजीहत से दुर्गति होने से भी कोई भी नहीं बचा सकता है।
क्योंकि हमारे पाप/पुण्य कर्मों के अनुसार
हमें दुख और सुख की अनुभूति प्राप्त होती है।
चिंता करने से दुख कम नहीं होता है,
हां दुख में भी प्रसन्न रहने से दुख की अनुभूति में कुछ कमी अवश्य हो सकती है, लेकिन
दुख पुरी तरह से समाप्त नहीं हो पाता है।
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -9
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
सुख और दुख हमारे कर्मों का ही परिणाम होते हैं, इसलिये प्रयास यही करना चाहिये कि
जिस गलती के कारण दुख का सामना करना पडा है,
जिस गलती से बचने के लिये हमें गुरू/ज्ञान समझाते हैं, उस गलती की पुनरावृत्ति नहीं हो।
जैसे कि पानी की बूंद का अस्तित्व
कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है,
उसी तरह इस संसार में जो भी दृश्यमान है,
सब कुछ नश्वर है,
सब कुछ प्रतिपल प्रति क्षण परिवर्तित हो रहा है।
तो यह हमारा पंचतत्व से निर्मित शरीर भी
आज नहीं तो कल यानि के
कभी ना कभी पंचतत्व में विलीन होकर
इस संसार से अदृश्य हो जाता है।
यानि के तोड चलेगा जग से नाता
सदा-सदा सो जायेगा
एक दिन ऐसा आयेगा।
एक दिन ऐसा आयेगा।
हमें जो भी कुछ मिलता है,
इस संसार में ही मिलता है और
इस संसार में ही छोड कर
हमें इस संसार से विदा होना पडता है।
जब हमारा इस संसार में कुछ नहीं
तो फिर क्यों कुछ खोने का गम करें
अपितू यह सावधानी रखनी चाहिये कि
हमारी असली पूंजी जो कि हमारे कर्म हैं
वह सत्कर्म की पूंजी कभी समाप्त नहीं हो ।
इस संदर्भ में छोटा सा प्रसंग है कि
एक राजा था,
उनका एक गुरू था,
राजा राज्य के कारण चिंतित रहता था और
इसलिये उसने गुरू से कहा कि
मैं राज्य के भार से चिंतित हूं और
इसलिये राज्य त्यागना चाहता हूं।
गुरू ने कहा ठीक है
तो यह राज्य का भार तुम मुझ पर छोड दो और
सेवक की भांति कार्य करो ।
राजा राज्य गुरू को सौंप कर वन की ओर जाने लगा।
गुरू ने कहा कि मैंने कहा था कि
सेवक की भांति कार्य करना है।
तो आज से तुम स्वयं को सेवक समझ कर कार्य करो। आज से तुम्हें कार्य तो राजा का ही करना है,
लेकिन सेवक की तरह ।
राजा ने वैसा ही किया और
राजा की सारी चिंता दूर हो गई क्योंकि अब सब कुछ उसके पास होते हुए भी कुछ भी उसका नहीं था।
कार्य समान था,
बस मन परिवर्तित हो गया था।
तो मनुष्य को ऐसे ही जीना चाहिये कि
सब कुछ है, लेकिन कुछ भी अपना नहीं,
सब कुछ उस परम गुरू परमेश्वर का है,
हमारा इस संसार में हमारे कर्मों के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -10
सुन लो जरा जो गीता में कहा
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
आध्यात्मिक ज्ञान
मनुष्य के मन को परिवर्तित करने की क्षमता रखता है,
यदि उसे सच्चे मन से अंगीकार किया जाये।
जैसे कि
ओरंगजेब की पुत्री और दाराशिकोह की भतीजी थी मेहरूनिसा
दाराशिकोह भारतीय दर्शन के कायल थे और
उन्होंने उपनिषदों का अनुवाद भी
उनकी भाषा में करवाया।
मेहरूनिंसा पर अपने चाचा के
आध्यात्मिक ज्ञान का असर था।
चीन से एक बेशकीमती दर्पण ओरंगजेब को प्राप्त हुआ, जो कि उन्होंने अपनी पुत्री मेहरूनिसा को दे दिया।
एक दिन मेहरूनिसा ने वह दर्पण दासी से मंगवाया।
दासी उसमें अपनी शक्ल देख रही थी,
जिसके कारण उसका ध्यान भंग हुआ और
दर्पण गलती से गिर कर टूट गया।
दासी ने सोचा अब प्राण बचना मुश्किल है,
लेकिन मेहरूनिसा ने उसे क्षमा कर दिया और
उस शीशे के लिये कोई अफसोस नहीं किया और
ना ही दासी को कोई सजा ही दी
अपितु एक सत्कर्मी की तरह कहा कि
चलो अच्छा हुआ
एक और विलासिता का सामान कम हुआ।
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सर्वे भंवतु सुखिन:
भाग -11
सुन लो जरा जो गीता में कहा
कृपया जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
गीता और विषय विकार व पाप से मुक्त
सत्य पुरूषों का तो यही संदेश है कि
जैसे श्रीराम ने
अपने पिता की एक आज्ञा के कारण
सारे ऐश्वर्यों को
एक झटके में तिलांजली दे दी थी,
उसी तरह हमें भी कम से कम
आधी उम्र बीतने के बाद तो
समस्त इन्द्रियों के जाल से बाहर निकलने का
सच्चे मन से प्रयास करना ही चाहिये।
कोई सा भी धर्मग्रंथ हो
यदि उसमें कोई पे्ररणादायक प्रसंग है तो
उसे सत्य की तरह स्वीकार करना ही चाहिये,
इसी तरह से यदि किसी धर्मग्रंथ में
मानव के सुधार के स्थान पर, सत्कर्म के स्थान पर
दुष्कर्मों का उपदेश हो
तो उसे कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिये।
ऐसे अधर्ममय उपदेश को असत्य मानकर
उसे अस्वीकार कर देना चाहिये।
सद़ग्रंथों तथा सत्पुरूषों का संदेश यही है कि
आधी उम्र गुजरने के बाद तो इन्द्रियों के स्वामी बनकर
जीने का प्रयास करना ही चाहिये।
गुरू/ज्ञान के अनुसार इन्द्रियों को आदेश देना चाहिये कि
नहीं तुम्हें गुरू/ज्ञान के अनुसार इतने से ही संतोष करना होगा,
ज्ञान के अनुसार कुछ भी
केवल इसीलिये ग्रहण करना है कि
यह शरीर लक्ष्य प्राप्ति तक गतिमान रह सके,
अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति से बच सकें।
रोगों का सामना करने से बच सकें।
और स्वस्थ शरीर के माध्यम से
परम पुनीत मुक्ति/स्वर्ग/जन्नत/सतलोक/सचखंड/सच्चा दरबार/परमधाम/ब्रह्मलोक/अनागामी लोक में स्थान पाने का लक्ष्य प्राप्त हो सके।
सबका भला हो।
सूनलो जरा जो गीता में कहा
ना सोचो तुम बुरा
करो तुम सबका भला।
तू काहे करता यह हेरा फेरी,
यह माया तेरी है ना मेरी।
यह राहे तज दे तू टेढी-मेढी
है मानव काया राख की ढेरी।
बचपन गया तेरा खेल में,
बीती है सौते जवानी तेरी,
कमर तोड दी बुढापे ने जब तेरी
कहता फिरे सुन लो वाणी मेरी ।
सत्कर्मों की जोड लो माया
इसे कोई चोर चुरा ना पाया।
जगत में डंका उसी का बजता
माला जिसने राम की फेरी।
होना है जो वो होकर रहे,
फिर काहे तू पगले चिंता करे,
पाया है जो यहीं से मिला,
इसके खोने का तू गम क्यू करे
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