ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

 सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-1

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

🌺

ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेग

मुट्ठी बांध कर आया, खाली हाथ जायेगा। 

तेरे ये महल चौबारे, यहीं रह जायेंगे सारे, 

तेरी माया के भंडार, ना जाये साथ में प्‍यारे, 

🌺

इस संसार में जो भी जन्‍मता है, 

🌺

जो कुछ भी उत्‍पन्‍न होता है 

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उसका केवन एक ही कारण है, 

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सकाम दुष्‍कर्म / कामना/वासना जनित कर्म । 

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जो भी इस संसार में पंचतत्‍व से निर्मित शरीर /आकृति के साथ उत्‍पन्‍न होता है 

🌺

वह पंचतत्‍व से निर्मित शरीर स्‍वयं के कर्मों का ही परिणाम होता है 

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स्‍त्री, पुरूष, नपुसंक 

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पशु पक्षी 

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पेड पौधे 

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रंग रूप 

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सबल निर्बल 

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धनी निर्धन 

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सम्‍पन्‍न विपन्‍न 

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आदि सब कुछ कमों का ही परिणाम होता है। 

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यानि कि इस संसार में अधूरी अतृप्‍त कामना/वासना के कारण ही जन्‍म होता है और 

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यदि किसी विरले   का मन ज्ञान के सम्‍पर्क में आने के बाद 

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अंतिम श्‍वांस तक कामना/वासना से रहित रहता  है 

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तो फिर उसे वापस इस संसार में उत्पन्न नहीं होना पडता है, 

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उसकी यह यात्रा अंतिम यात्रा होती है 

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इस संबंध में ग्रंथों में कुछ मतभेद हैं 

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किसी  ग्रंथ का संदेश है कि निष्‍काम् सत्‍कर्मी को पुन: इस संसार में नहीं आना पडता है 

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और किसी ग्रंथ का संदेश है कि अत्‍यंत दीर्घ अवधि के पश्‍चात पुन: संसार में उत्‍पन्‍न होना पडता है 

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तो यदि कोई मुक्‍तआत्‍मा इस संसार में पुन: अवतरित होती है

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अर्थात् जन्‍म लेती है तो उसकी स्‍मृति या तो पूरी तरह से लोप नहीं होती 

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अथवा यदि लुप्‍त भी होती है तो अतिशीघ्र पुन: लौट आती हे 

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जैसे कि शंकराचार्यजी ने अल्‍प आयु में ही संयास धारण किया था 

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तो वे पूर्व जन्‍म की पुन्‍यात्‍मा थीं  तथा 

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इसलिये शंकराचार्य जी इस संसार से अनासक्‍त थे, 

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लगातार -------2------


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-2

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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हमारे संस्‍कार हमें वही सब कुछ करने के लिये उकसाते हैं, 

जिसका अभ्‍यास हमने पूर्व जन्‍मों में किया था। 

🌺

इस संसार में जो भी उत्पन्न होता है 

स्‍वयं के कर्मों के अतिरिक्‍त इस संसार में कुछ नहीं लाता 

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जो कुछ भी जन्‍म के साथ प्राप्‍त होता है 

स्‍वयं के कर्मों के आधार पर ही प्राप्‍त होता है, 

🌺

जन्‍म के साथ जो कर्म का भंडार हम लाते हैं 

उसे प्रारब्‍ध के नाम से सम्‍बोधित किया गया है। 

🌺

यह प्रारब्‍ध सुख और दुख का पिटारा है, 

जिसके कारण 

कभी सुख तो कभी दुख की अनुभूति होती रहती है। 

🌺

इस प्रारब्‍ध रूपी पिटारे में ही

जन्‍म के साथ ही वर्तमान में किये जा रहे कर्म भी 

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सुख और दुख के रूप में जमा होते रहते हैं। 

🌺

यह सुख दुख का पिटारा ना जाने हम कितने जन्‍म जन्‍मांतरों से भरते आ रहे हैं और 

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यह सुख दुख का पिटारा मृत्‍यु होने के साथ ही संचित कर्माशय के रूप में 

अदृश्‍य आत्‍मा के साथ 

अदृश्‍य अंतकरण में 

अदृश्‍य रूप में संयुक्‍त रहता है। 

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मृत्‍यु के साथ ही इसका नाम भी परिवर्तित हो जाता है 

यानि  कि मृत्‍यु के बाद 

इसे सम्‍बोधित करते हैं 

संचित कर्माशय के नाम से ।

🌺

जब कर्म निष्‍काम भाव से किये जाते हैं 

तो यह अदृश्‍य खाता भी लुप्‍त हो जाता है और 

फिर आत्‍मा के साथ संयुक्‍त नहीं रहता, 

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जैसे कि कोई किसी के यहां नौकरी करे और 

बदले में कुछ भी नहीं ले 

तो उसके  स्‍वामी द्वारा

ऐसे निष्‍कामी सेवक का खाता बंद कर दिया जाता है। 

🌺

यानि कि कर्म के बदले कुछ भी 

कामना/वासना नहीं रखना, 

कोई चाह नहीं रखना।  


लगातार ----3------



सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-3

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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हम जन्‍म के साथ ही क्रियमाण कर्म का दौर प्रारम्‍भ हो जाता हैं, 

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कोई क्रियमाण कर्म द्वारा 

अपना जीवन सुधार लेता है और 

कोई क्रियमाण कर्म द्वारा ही 

अपना जीवन बबार्द कर लेता है। 

🌺

क्रियमाण कर्म यानि कि 

वर्तमान जीवन में जो कर्म किये जा रहे हैं, 

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तो क्रियमाण कर्मों के माध्‍यम से ही 

कोई सांसारिक उत्‍थान प्रगति  यानि कि अभ्‍युदय रूपी मंजिल को हासिल करता है और 

अपने परिजनों से जुडे अपने कर्तव्‍यों को पूर्ण करता हैं। 

🌺

क्रियमाण कर्मों के द्वारा ही 

आध्‍यात्मिक उन्‍नति/प्रगति यानि की निश्रेयस रूपी मंजिल को हासिल किया जा सकता है । 

🌺

चाहे मंजिल 

अभ्‍युदय की हो अथवा 

निश्रेयेस की

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क्रियमाण कर्म के माध्‍यम से ही

यान‍ि कि ज्ञान के अनुसार कर्म करने के उपरांत ही यह दोनों लक्ष्‍य प्राप्‍त हो सकते  हैं। 

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दोनों ही लक्ष्‍यों का आधार पुरूषार्थ है

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लेकिन आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य के लिये पुरूषार्थ के साथ धर्म का संगम भी अनिवार्य है क्‍योंकि आध्‍यात्‍मिक गुरू के उपदेश में 

धर्म संगत कर्म का ही संदेश निहीत होता है। 

🌺

बिना धर्म यानि सदाचार युक्‍त कर्म और पुरूषार्थ के यह लक्ष्‍य प्राप्‍त नहीं हो सकता है । 

🌺

क्रियमाण कर्म द्वारा हम हमारा जीवन सुधारते अथवा बिगाडते हैं 

क्‍योंकि क्रियमाण कर्म का 

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पिछले जन्‍म से कोई संबंध नहीं होता, 

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प्रारब्‍ध से कोई संबंध नहीं होता है।

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हां हमारे संस्‍कारों का अवश्‍य प्रभाव पडता है और 

जब तक हम हमारे संस्‍कारों को परिवर्तित नहीं करते 

यानि कि जो संस्‍कार दृश्‍यमान की चाह के लिये आकर्षित रहते थे, 

उन संस्‍कारों को परिवर्तित करने का सतत अभ्‍यास करते हुए

अदृश्‍य अव्‍यक्‍त परमानन्‍द की और आकर्षित होना 

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लगातार -----4------


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-4

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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क्रियमाण कर्म में से कुछ का परिणाम 

हमें उसी समय प्राप्‍त हो जाता है और यदि कुछ शेष रह जाता है तो 

वह हमारे संचित कर्म के खाते में जुड जाता है। 

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कुछ कर्म शरीर द्वारा किये जाते हैं, 

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कुछ कर्म मन द्वारा किये जाते हैं

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कुछ कर्म वाणी द्वारा किये जाते हैं

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शरीर द्वारा किये गये सकाम कर्मों का परिणाम 

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सुख अथवा दुख के रूप में 

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कुछ इसी जन्‍म में मिल जाता है और शेष जुड जाता है संचित कर्म के रूप में।

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निष्‍काम भाव से किये गये कर्म संचित नहीं होते है और मुक्ति का आधार बन जाते हैं। 

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मन द्वारा किया गया चिंतन, मनन, विचार आदि 

मन में संस्‍कार के रूप में 

समाहित हो जाते हैं और 

यही मन से किये गये कर्म 

मुक्ति अथवा बंधन का आधार बनते हैं। 

🌺

वाणी द्वारा किये गये कर्म का परिणाम तत्‍क्षण शरीर को प्राप्‍त हो जाता है, 

🌺

वाणी से किये गये कर्म से मन और तन दोनों ही प्रभावित होते हैं। 

🌺

जैसे ही हम गुस्‍से में बाेलते हैं 

वैसे ही हमारे अंदर 

जहरीले तत्‍वों का निर्माण प्रारम्‍भ हो जाता है, 

हमारा रक्‍त संचार अतयंत तीव्र हो जाता हे, 

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इसीलिये एक प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ ने 

ह्दय रोगियों को सावधान किया है कि 

क्रोध नहीं करें 

क्‍योंकि हृदय की विफलता का एक कारण 

क्रोध भी है,

क्‍योंकि क्रोध के दौरान 

रक्‍त संचार तीव्र होता है और

उतनी तीव्र गति से रक्‍त संचार के दबाव के कारण हृदय कार्य करना बंद कर देता है। 

🌺

जब हम शांति से बोलते हैं 

तो हमारा मन भी शांत रहता है और 

जब मन शांत रहता है 

तो रक्‍त संचार भी सामान्‍य रहता है। 

🌺

इसीलिये कहा है कि


ऐसी वाणी बोलिये 

मन का आपा खोय 

ओरन को शीतल करें 

आपहू शीतल होय। 

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हमारी वाणी भी हमारे 

सुख और दुख का कारण बनती है। 

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मीठी मधुर वाणी 

सुख का कारण 

और

कटु वाणी 

दुख का कारण बनती है। 

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लगातार -----5------



सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-5

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

🌺

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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मनुष्‍य का जब जन्‍म होता है 

तो वह मुटठी बांध कर आता है, और उस मुटठी में कुछ भी नहीं होता है, 

मुटठी खाली होती है,

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जिसका तात्‍पर्य यही समझाना है कि

इस दृश्‍यमान संसार में हम हमारे कर्म के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं लाते हैं और 

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खाली हाथ जाने का तात्‍पर्य यही है कि 

हम साथ में कुछ भी नहीं ले जा सकते हैं, 

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जैसे कि एक व्‍यक्ति ने मरने से पूर्व 

सोने की मुद्रायें हलवे के साथ खा ली

लेकिन वह मुद्रायें उसी चिता में ही भस्‍मीभूत हो गई उसके साथ नही गई। 

🌺

तो मनुष्‍य अपने कर्म के भंडार (प्रारब्‍ध) के अतिरिक्‍त कुछ भी साथ नहीं लाता अेार

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कर्म के भंडार (संचित कर्म) के अतिरिक्‍त कुछ भी साथ लेकर नहीं जाता है।  

🌺

जो भी कुछ मनुष्‍य बनाता है 

निर्मित करता है 

सब कुछ इस संसार में विद्यमान पदार्थों से ही बनाता है अथवा निर्मित करता है 

🌺

जो कुछ भी मनुष्‍य एकत्रित करता है 

संसार में विद्यमान पदार्थों में से ही एकत्रित करता है। 

🌺

चाहे कितना भी बडा खजाना हो, 

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चाहे कितना भी भव्‍य भवन हो, महल हो, 

🌺

चाहे कितने भी बहुमूल्‍य रत्‍न जडि़त आभूषण हों,

🌺

चाहे  कितने भी कीमती वस्‍त्र हो 

🌺

सब कुछ इस दृश्‍यमान संसार में ही मिलता है और 

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सब कुछ इसी दृश्‍यमान संसार में छोडकर जाना पडता है। 

🌺

इसीलिये कहा है कि 


ना लाया साथ कुछ बंदे, 

ना तेरे साथ जायेग

मुट्ठी बांध कर आया, 

खाली हाथ जायेगा। 

🌺

तेरे ये महल चौबारे, 

यहीं रह जायेंगे सारे, 

🌺

तेरी माया के भंडार, 

ना जाये साथ में प्‍यारे, 

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लगातार ----6----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-6

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

🌺

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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मनुष्‍य के उत्‍पन्‍न होने पर उसके समक्ष दो लक्ष्‍य होते हैंं

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प्रथम - सांसारिक लक्ष्‍य यानि अभ्‍युदय - 

सामाजिक/राजनैतिक/आर्थकि उन्‍नति 

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द्वितीय - आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य यानि निश्रयेस - 

धार्मिक उन्‍नति 

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सांसारिक लक्ष्‍य हासिल करने में  

माता-पिता और सांसरिक गुरूजन आदि की शिक्षा की प्रमुख भूमिका होती है।  

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आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य हासिल करने में आध्‍यात्मिक गुरू की शिक्षा की प्रमुख भूमिका होती हैा

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चाहे  लक्ष्‍य सांसारिक उन्‍नति का हो अथवा 

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आध्‍यात्मिक उन्‍नति का 

🌺

सफलता उसी को मिलती है, 

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जो उस शिक्षा को अपने तन मन में समाहित करता है, 

उस शिक्षा का अनुपालन करता है,

जो शिक्षा के विपरीत आचरण करते हैं 

लक्ष्‍य प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं 

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सांसारिक लक्ष्‍य

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जैसे कि एक नादान बच्‍चा अनुभव की कमी के कारण केवल मनोरंजन को ही सबकुछ मानता है,

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जबकि मनोरंजन व अध्‍ययन दोनों कार्यों को करना चाहिय क्‍योंकि‍ 

बच्‍चो के लिये मनोरंजन खेल कूद आदि उसके सवास्‍थ्‍य  के आधार होते हैं और 

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विद्या अर्जित करने का कार्य 

जीवन को संवारने का आधार होता है। 

🌺

तो  इस संसार से प्राप्‍त अनुभवों के आधार पर

माता-पिता अपनी अनुभव हीन संतान को उन्‍नति  के पथ पर चलने के लिये समझाते हैं, 

लेकिन अनुभवहीन नादान संतानें  

उनके अनुभव को गलत मानते हुए जो कुछ भी करती हैं, 

उसे ही सही मानते हुए करती हैं और जो संतानें  उनके अनुभव के महत्‍व  को समझ कर

उस अनुभव को अपने जीवन में स्‍थान देती  हैं,

उनका कल्‍याण हो जाता है । 

उनका अहित नहीं होता, 

उन्‍हें ठोकर नहीं लगती और 

🌺

जो माता-पिता गुरूजन आदि की शिक्षाओं की अवहेलतना करता है, 

उसे अपनी नादानी का 

अपनी गलतियों का अहसास तब होता है 

जब युवा होने पर वह सांसारिक लक्ष्‍य पाने से वंचित रह जाता है। 

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चाहे र्काई माता-पिता 

शिक्ष‍ित हो अथवा अशिक्ष‍ित 

अधिकतर सभी का स्‍वपन होता है कि उनकी संतान  पढ लिखकर

ऐश्‍वर्यपूर्ण अथवा कम से कम 

कोई भी रोजगार हासिल कर

संतोषप्रद जीवन व्‍यतीत कर सके, 

🌺

उनके उपर आ‍श्रित नहीं रहे क्‍योंकि माता-पिता की मृत्‍यु के बाद तो संतान को स्‍वयं ही सब कुछ अर्जित करना होता है। 

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 जैसे कि बारिश आने से पूर्व ही हमें अपनी छत/छाते/बरसाती/रेन कोट आदि  को सही कर लेना चाहिये, 

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जिससे कि बरसात आने पर हमें परेशानी का सामना नहीं करना पडे।

🌺

इस प्रसंग में एक कथा है, हो सकता है आप ने सुनी हो, लेकिन यह कहानी यही शिक्षा देती है कि 


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लगातार ----7-----





सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-7

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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एक समझदार माता-पिता को संतान के हित के लिये 

बार-बार अपना लक्ष्‍य हासिल  करने के लिये तथा 

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भविष्‍य में हाने वाली परेशानियों का सामना करने के लिये 

आलस्‍य का त्‍याग कर पुरूषार्थ करने के लिये 

प्रेरित करते रहना चाहिये, 


चाहे संतान माने या नहीं माने। 

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इस संबंध में एक प्रेरणादायक प्रसंग है-

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एक धनी पिता का एक आलसी पुत्र था, 

वह कुछ भी नहीं करता था, 

अधिकतर समय सोता ही रहता था। 

पिता को पुत्र के भविष्‍य की चिंता हुई और 

पुत्र से कहा कि तुम्‍हें खाना तभी मिलेगा जब तुम खाने की कीमत मुझे दोगे। 

घर वालों को पुत्र को पैसे देने से मना कर दिया। 

🌺

लेकिन पुत्र परिवारजनों से  

कभी किसी से तो कभी किसी से 

पैसे लेकर पिताजी को देता और पिताजी कहते कि इसे कुंए में फेंक दो। 

काफी समय बीत गया, भाईयों का विवाह हो गया, 

अब वे उसे पैसे देने में कतराने लगे, 

🌺

एक दिन उसे किसी ने भी पैसे नहीं दिये। 

मजबूर होकर वह बाहर निकला 

बडी मु‍श्किल से गढढा खोदने का काम मिला, 

उसके हाथों में छाले पढ गये। 

🌺

उसे जो पैसे मिले वह खुशी-खुशी घर लाया और पिता के हाथ में दिये, 

🌺

पिता ने कहा कुंए में फेंक दो। 

🌺

तब पुत्र ने कहा नहीं मैं इन्‍हें कुंए में नहीं फेंक सकता यह मेरी मेहनत की खून पसीने की कमाई है। 

🌺

तब पिता ने उसे गले से लगा लिया और कहा कि मैं इसी दिन की प्रतीक्षा में था कि तुम्‍हें पैसे का मूल्‍य ज्ञात हो और आलस्‍य का परिणाम भी ज्ञात हो। 

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तो जब कोई अपनी आजीविका चलाने के लिये स्‍वयं धन अर्जित करने योग्‍य हो जाता है तो इसका तात्‍पर्य है कि उसने सांसारिक लक्ष्‍य प्राप्‍त कर लिया है 

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इसके साथ ही सांसारिक लक्ष्‍य पूर्ण हो जाता है और शेष रह जाता है 

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अंतिम और परम आध्‍यात्मिक  लक्ष्‍य निश्रेयस का 

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यह सांसारिक लक्ष्‍य संघर्ष के उपरांत ही प्राप्‍त हो पाता है और 

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जब तक आध्‍यात्‍मिक लक्ष्‍य प्राप्‍त नहीं होता 

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तब तक बार-बार इस संसार में जन्‍म लेना पडता है ओर

हर जन्‍म के साथ दोनों लक्ष्‍य जुड जाते हैं, 

जो अंतिम और परम लक्ष्‍य हासिल कर लेता है, 

उसका सारा संघर्ष समाप्‍त हो जाता है, 

सब कुछ शांत हो जाता है, 

सब कुछ थम जाता है,

सब कुछ स्थिर हो जाता है। 

जीवन मृत्‍यु का सफर समाप्‍त हो जाता है।

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आध्‍यात्मिक लक्ष्‍य

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इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने का सफर 

वैसे तो पूर्व में गुरूकुल में जाते ही प्रारम्‍भ हो जाता  था और


50 वर्ष बाद सारा संघर्ष इसी लक्ष्‍य पर केन्द्रित हो जाता था और 

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75 वर्ष बाद आध्‍यात्मिक गुरू का दर्जा  हासिल हो जाता था और 

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आध्‍यात्‍मिक दर्जा हासिल करना यानि कि जीवन मुक्‍त की अवस्‍था  । 

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यह अवस्‍था कोई अपवाद स्‍वरूप कम उम्र में भी हासिल कर सकता है और 

कोई अनन्‍त जन्‍मों में भी हासिल नहीं कर पाता है। 

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लगातार -------8-----

सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-8

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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मनुष्‍य की जन्‍म और मृत्‍यु के बीच तीन अवस्‍थायें होती हैं

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प्रथम - बचपन/किशोरावस्‍था - अध्‍यापन काल

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द्वितीय - युवावस्‍था/ गृहस्‍थ मेंं प्रवेश 

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तृतीय - व़द्धावस्‍था 

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लडकपन खेल में खोया 

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यानि कि बचपन तो खेलने कूदने अध्‍ययन  में व्‍यतीत हो जाता है,

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जवानी नींद भर सोया,

यानि कि जवानी का नशा ऐसा नशा होता है, 

जिसके नशे में मनुष्‍य सोता ही रहता है। 

यानि कि धर्म अधर्म का विचार किये बिना कर्म करना ही नींद में सोना है

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धर्म का बीज ना बोया 

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बुढ़ापा देखकर रोया

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जो बुढापा आने से पहले ही धर्म का बीज अपने जीवन में बो देता है 

यानि कि जो भी कर्म करता है 

धर्म अधर्म का विचार करके करता है,

निष्‍काम भाव से कर्म करता है 

तो बुढापा उसे इतना दुख नहीं देता, 

जितना दुख एक सकाम भाव से कर्म करने वाले को होता है। 

🌺

जैसा कि कहा है- 

जिस मरने से जग डरे,

मेरे मन में आनन्‍द 

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यानि कि जो युवावस्‍था में ही जाग जाता है 

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अपने मन में धर्म का बीज बो लेता है, 

वह हंसते हुए इस नश्‍वर शरीर का त्‍याग करता है और 

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जो निद्रा में ही जीवन व्‍यतीत करता है 

धर्म का बीज मन में नहीं बाेता 

वह रोता हुआ आंखों में अश्रु लिये, 

अतृप्‍त कामनाओं/वासनाओं के साथ 

इस नश्‍वर शरीर को छोडना नहीं चाहता है और 

अंतत- उस अदृश्‍य शक्ति द्वारा जबरन उसे शरीर से पृथक कर दिया जाता है। 

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तो जो आत्‍मायें जीवनमुक्‍त हैं

वे मरने से भयभीत नहीं होती और 

ऐसी महान आत्‍माओं के माध्‍यम से वह अदृश्‍य शक्ति 

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हमें पूर्व में भी प्रेरित कर रही थी, 

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वर्तमान में भी कर रही है और 

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भविष्‍य में भी करती रहेगी। 

🌺

सर्वप्रथम तो लक्ष्‍य यही होता है कि 

हम कुछ करें, 

कुछ बनें एवं 

घोर पुरूषार्थ के द्वारा इस लायक बनें कि 

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साई ईतना दीजिये 

जामे कुटुम्‍ब समाये 

मैं भी भूखा ना रहूं 

साधू ना भूखा जाये।

🌺

यानि के हम इतनी सामर्थ्‍य अर्जित कर सकें कि 

हम हमारे  परिवारजन का पालन पोषन करने का आधार बन सके और बेसहारा, अपाहिज और निर्विकार/निष्‍पाप/निष्‍कामी/सत्‍कर्मी साधू जनों की मदद कर सके।


लगातार ----9-----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-9

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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माता-पिता के पास तो 

केवल इस दृश्‍य लोक का ही अनुभव होत है, 

🌺

लेकिन जीवन मुक्‍तआत्‍माओं  को 

इस लोक व अन्‍य लोकों का भी रहस्‍य ज्ञात होता है और 

🌺

इसी कारण वे अपना कर्तव्‍य पूर्ण करते हुए

हमें सत्‍य  का मार्ग दिखाते है, 

🌺

चाहें कोई उस मार्ग पर चले या नहीं चले। 

🌺

इस पसंग में कथा इस प्रकार है-

🌺

एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती मेंमिगारमाता के पुष्वाराम मे विहार कर रहे थे, 

🌺

बुद्ध  को सुनने तथा ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये मौग्‍गालन वहां आता था 

🌺

एक दिन उसने भगवान बुद्ध को अकेले पाकर पूछा कि 

बहुत दूर से आने वाले कुछ लोग तो कम समय में ही परम ज्ञान को प्राप्‍त कर लेते हैं 

🌺

लेकिन बहुत से लोग लंबे समय से आपके निकट रहते हुए भी इस सुख की प्राप्ति से वंचित हैं  

🌺

आप जैसा अद्भुत पथप्रदर्शक होते हुये भी 

कुछ को निर्वाण सुख प्राप्त होता है और कुछ को नही?

तो आप अपनी करुणा से ही सबको निर्वाण सुख दे कर भवसागर से मुक्ति क्यों नही प्रदान कर देते?”

🌺

बुद्ध ने मोग्गालन से कहा, 

”मैं  तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर दूंगा, लेकिन पहले तुम मुझे यह बताओ कि 

क्या तुम राजगृह आने-जाने का मार्ग अच्छी तरह से जानते हो?

🌺

मोग्गालन ने कहा

हां  

मैं राजगृह आने-जाने का मार्ग भली-भांति जानता हूँ.

🌺

बुद्ध ने कहा - अब यह बताओ, यदि कोई व्‍यक्ति आता है और तुमसे राजगृह का मार्ग पूछता है और तुम उसे सही मार्ग बता देते हो, लेकिन अब यदि  वह व्‍यक्ति गलत दिशा में चलता है, दूसरा अलग मार्ग पकड लेता है, 

🌺

यानि कि तुम उसे पूर्व में जाने को कहते हो और वह पश्चिम में चल देता है। 

🌺

दूसरा व्‍यक्ति आता है तुम उसे भी उसी तरह से मार्ग बताते हो जेसे कि तुमने पहले व्‍यक्ति को बताया था

🌺

और दूसरा आदमी तुम्हारे बताये रास्ते पर चलकर सकुशल राजगृह पहुँच जाता है। 

🌹

जिस व्‍यक्ति ने तुम्‍हारे द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण नहीं किया तो दोष किसका है।

🌺

मोग्गालन ने उत्‍तर दिया कि  

यदि पहला व्यक्ति मेरी बात पर ध्यान नहीं देता है तो मैं क्या कर सकता हूँ? 

🌺

मेरा काम तो केवल मार्ग बताना है.”

🌺

भगवान बुद्ध बोले,

तो तथागत का काम भी केवल मार्ग बताना होता है। 

इस कहानी का संदेश / सार यही है कि जो गुरू उपदेश गुरू वाणी को गम्‍भीरता से लेते हुए उसके अनुसार आचरण करता है

उसका कल्‍याण हो जाता है और जो उल्‍लंघन/अवहेलना करता है वह भटकता ही रहता है। 


लगातार ----10


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-10

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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यह परम सत्‍य है कि आज सभी धर्मों में लोग भटके हुए है, 

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आज चीन में लगभग 90 प्रतिशत से अधिक भगवान बुद्ध के अनुयायी हैं, 

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लेकिन वे असत्‍य के साथ हैं 

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अधर्ममय पथ पर अग्रसर हैं 

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आज कोरोना रूपी महामारी के लिये 

सम्‍पूर्ण विश्‍व चीन को ही दोषी मान रहा है। 

पूर्व में भी चीन ने भारत के साथ विश्‍वासघात किया था, 

भारत और चीन में युद्ध हुआ था, 


जबकि भगवान बद्ध के सिद्धांतों पर चलने वाला 

कभी भी गलत कार्य नहीं कर सकता है। 

ज्ञान के विपरीत कर्म करने वालों की बहुलता लगभग सभी र्ध्‍मों में मिलेगी। 

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इसमें धर्म संस्‍थापक का दोष नहीं 

अपितु उनके अनुयायियों का दोष है।

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उन जीवनमुक्‍त महान आत्‍माओं ने हमें बार बार समझाया कि 

हम इस संसार से अपने कर्मों के अतिरिक्‍त कुछ भी साथ नहीं ले जा सकते है, 

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हम खाली हाथ ही इस संसार में आते हैं और 

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खाली हाथ ही इस संसार से विदा होते हैं 

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हमारे सभी संगी साथी रिश्‍ते नाते, धन सम्‍पत्ति आदि सभी  यहीं रह जाते हैं । 

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रिश्‍ते-नातों की परिवर्तनशीलता समझाने के लिये ही 

पुत्र द्वारा अपने माता-पिता की चिता को आग लगाने की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है। 

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जीवनमुक्‍त महान आत्‍मायें हमें समझाती हैं कि 

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हम इस अनमोल जीवन को अधर्म मय कर्मों द्वारा बर्बाद नहीं करें 

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बचपन और युवावसथा का सदुपयोग करें 

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इस अवस्‍था में पूरी तन्‍मयता से विद्या का अर्जन करें 

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तत्‍पश्‍चात उस आध्‍यात्मिक ज्ञान का अर्जन करें 

जो हमारे जीवन को संतोषप्रद तरीके से व्‍यतीत करने में मददगार बन सके 

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बचपन को केवल खेल में नहीं बितायें, 

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जवानी को केवल निद्रा, आमोद प्रमोद आलस्‍य में नहीं बिताये। 

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ये दोनों अनमोल अवस्‍था ही  मनुष्‍य का भविष्‍य सुखमय बनाती है।

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जो इस अवस्‍था का सदुपयोग करता है, 

उसे वृद्धावस्‍था आने पर

रोना नहीं पडता है 

पछताना नहीं पडता है। 

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जो अपना जीवन

निद्रा और आलस्‍य में बर्बाद करता है 

तो उसे तो उसका परिणाम भोगना ही पडता है,

चाहे उसे धन मिल जाये,

लेकिन आलस्‍य के कारण उसका तन एक ना एक दिन रोगग्रसत हो जाता है।

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लगातार ----11---


सर्वे भवंतु सुखिन: 

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भाग-11

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ना लाया साथ कुछ बंदे, ना तेरे साथ जायेगा 

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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें

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महान आत्‍माओं ने बार-बार समझाया कि 

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हम जैसे कर्म करेंगे 

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वैसा ही हमें परिणाम भी प्राप्‍त होगा। 

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यदि कांटे बोये हैं तो कांटे और 

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फूल बोये हैं तो फूल प्राप्‍त होंगे।

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यानि कि सत्‍कर्म करने से सुख की प्राप्ति होती है और 

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दुष्‍कर्म/दुराचार करने से दुख की प्राप्ति होती है

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इस संसार के आकषर्ण के कारण 

हम सत्‍य पथ पर चलने का वादा भी भूल जाते हैं 

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जो हम हमारे आदर्शपुरूष/गुरू से दीक्षा लेते समय करते हैं, और 

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उनके ज्ञान के विपरीत कर्म करते रहते हैं।

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हम हमारे आरध्‍य/आदर्शपुयष की वाणी/उपदेश/ग्रंथ को याद नहीं रखने के कारण 

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गलत पथ का अनुसरण करते रहते हैं, और

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गलत पथ पर चलने का सबसे बडा कारण तो

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इस दृश्‍यमान जगत के परम सत्‍य मृत्‍यु को याद नहीं रखना ही है कि 

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ना जाने  

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कब

कहां 

किस घडी 

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बुलावा आ जाये, 

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मन की इच्‍छा 

मन ही मन में रह जाये। 

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और अंतत: अंत में जब मृत्‍यु आती है 

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तब छटपटाहट का सामना करना पडता है, 

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जैसे कि विडियो वायरल होते हैं, 

उनमें दिखाया जाता है कि 

सर धड से अलग होने पर भी 

धड में कुछ समय तक छटपटाहट शेष रहती है, 

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तो उसी तरह की बैचेनी का अनुभव मृत्‍यु के दोरान होता है, 

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जो धर्मपथ के पथिक हैं 

वे तो मृत्‍यु की परवाह ही नहीं करते हैं और 

शांति पूर्वक हंसते मुस्‍कराते हुए अपनी नश्‍वर देह का त्‍याग करते हैं। 

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हमारे कर्मों के अनुरूप ही 

हमें सवर्ग/नरक/मुक्ति की प्राप्ति होती है।

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हमें मुक्ति चाहिये अथवा नहीं 

हमें मुक्ति मिलेगी या नहीं 

इस उलझन में नहीं रहते हुए 

हमें अनवरत बिना रूके हुए 

सही दिशा में निष्‍काम भाव से 

सत्‍कर्म करते रहता चाहिये।

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यदि हममें कुछ न्‍यूनता रही 

तो भी सत्‍कर्मों की अधिकता होने पर 

अगला जन्‍म एश्‍वर्य पूर्ण होना सुनिश्‍चित है।

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भाग्‍य और कुछ नहीं 

हमारे पूर्व जन्‍मों में किये गये कर्मों का ही प्रतिफल है।

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जैसा कि कहते हैं कि हम हमारे भाग्‍य विधाता स्‍वयं है 

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यानि के एक भाग्‍य तो वह है 

जो हमारे पूर्व जन्‍मों का परिणाम है, 

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दूसरा भाग्‍य जो हम स्‍वयं निर्मित करते हैं 

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उसका आधार और कुछ नहीं केवल और केवल हमारे कर्म होते हैं, 

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हमारे पुरूषार्थ मय कर्म ही हमारे इस जन्‍म के भाग्‍य का निर्माण करते हैं। 

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यदि हमें मुक्ति नहीं चाहिये तो 

हमें तटस्‍थ तो रहना ही चाहिये 

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सत्‍कर्म नहीं कर सकते हैं 

तो दुष्‍कर्म से तो दूर रहना ही चाहिये 

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क्‍योंकि दुष्‍कर्म से दूर रहना भी 

कुछ अंशों में सत्‍कर्म ही होता है। 

तो हमें इतना तो करना ही चाहिये कि 

यदि किसी का भला नहीं कर सकें 

तो किसी का बूरा तो बिल्‍कुल भी नहीं करना चाहिये

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फुल की तरह किसी को सुगंध प्रदान नहीं कर सकते हैं 

तो कांटे  बनकर किसी को दुख तो बिन्‍कुल भी नहीं पहुंचाना चाहिये। 

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जीवन मुक्‍त आत्‍माओं की तरह नहीं बन सके 

तो कम से कम इंसानियत को धारण कर 

इंसान तो बने, 

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पशुवत व्‍यवहार नहीं करें 

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शैतान/हैवान तो नहीं बनें 

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इतना भी यदि कोई करेगा तो 


उसके जीवन में सुख की अधिकता होगी और 


दुख की न्‍यूनता  रहेगी।

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सबका भला हो।




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