काम क्रोध मद लोभ अहम
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-1
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
यह वेद का संदेश है
यह गीता का संदेश है
यह दर्शन, उपनिषदों का संदेश है
यह बाैद्ध दर्शन का संदेश है
यह जैन दर्शन का संदेश है
अधिकतर बहुत से ग्रंथों का संदेश है कि
विकारों से आसक्ति ही बंधन है
विकारों से अनासक्ति ही मुक्ति है
इसीलिये आरती में
विकारों से मुक्त होना ही
प्रभु दर्शन/साक्षात्कार की
कुंजी/चाबी बतायी गयी है
इसीलिये आरती में
प्रथम तो प्रश्न किया है कि
है जगत के ईश आप अगोचर हैं,
यानि कि आप दिखाई नहीं देते हैं
तो किस विधी से आप से मिलें
जिसका उत्तर भी
आरती में ही दिया है कि
विषय विकार मिटाओ
पाप हरो देवा
वेद,
गीता,
दर्शन,
भगवान बुद्ध,
महावीर स्वामी आदि
सभी का कहना है कि
जो इन्द्रियों पर विजय पाता है,
वही इन्द्रजीत है
वहीं जितेन्द्रिय है,
वही वीर है,
वही मनजीत है,
वही महापुरूष है
वही सत्पुरूष है
और
ऐसी महान आत्मा ही
गुरू पद पर पदासीन होने
योग्य है और
ऐसी महान विभूति ही
उस दिव्य सुख/परमानन्द की
अनुभूति कर सकते हैं
जिसके समक्ष
सांसारिक सुखों को
धूल के समान बताया गया है,
यह दिव्य सुख/परमानन्द ही
किनारा है,
तट है
इसकी अनुभूति के साथ ही
जीवन मुक्त अवस्था हो जाती है।
लगातार -------2------
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-2
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
मुक्ति लोक/स्वर्ग
(जहां पर केवल सुख/आनन्द है)
तक पहुंचने का अंतिम पडाव है।
जिसे दिव्य सुख/परमानन्द की
अनुभूति हो जाती है
वास्तव में वही
मोह/माया के जाल से
मुक्त हो पाता है,
अन्य बंधन में ही रहते हैं ।
एक प्रश्न उठता है कि
भगवान बुद्ध,
महावीर स्वामी और
दयानन्दजी एवं कुछ
अन्य महापुरूष
अकूत धन दौलत के स्वामी
होते हुए भी
एश्वर्यपूर्ण जीवन जीने के
समस्त साधन से संयुक्त
होने के बावजूद भी,
राज्य पद पर आसीन
होने के बावजूद भी
उन्होंने उस अपार धन-सम्पत्ति,
वैभव, एश्वर्य, राज्य पद को
क्यों ठुकरा दिया।
तो उसका एक ही उत्तर है कि
जिसे संसार का सबसे बड़ा
परम सुख रूपी
परमानन्द रूपी
खजाना प्राप्त हो गया हो,
वह छोटे-मोट क्षणिक सुखों में
नहीं फंसता है
जिनके कारण
क्षणिक सुख तो प्राप्त होता है,
लेकिन उस क्षणिक सुख के बाद
दुख भी उसका पीछा नहीं छोडते है।
जैसे कि कब्ज का शिकार होना,
मानसिक तनाव होना,
बाहरी और आंतरिक शारीरिक
पीड़ा होना, आदि।
यह समस्त दुख
असंयमित रूप से
इन्द्रियों के भोगाें को
भोगने के कारण ही होते हैं
और
इन भोगों को असंयमित रूप से
बिना हित अहित का विचार किये
भोगने के कारण ही
विकारमय संस्कार/वृत्तियां
बलवती होती जाती है।
लगातार -----3------
सर्वें भवंतु सुखिन:
भाग-3
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
कुछ बगुला भगत भी
इस संसार में विद्यमान है,
जिन्हें बगुला भगत की
प्रवृत्ति के कारण
दिव्य सुख/परमानन्द की
अनुभूति नहीं हो पाती है
इस संसार में कुछ तो
राक्षस/शैतान की जैसी
प्रवृत्ति होने के बावजूद भी
अपनी दुष्प्रवृत्ति को बदल कर
सदाचारी बन जाते हैं
साधू बन जाते हैं,
जैसे कि
बाल्मिकी,अंगुलिमाल, शूलपाणि आदि
तथा
कुछ सदाचारी होने के बावजूद
विकारों के आकर्षण में फंसकर
सदाचारी से दुराचारी बन जाते हैं
वापस विषय-विकार में फंस जाते हैं।
वर्तमान में कुछ ऐसे बहरूपिये
गुरू पद को बदनाम करने वाले
विकारी लोग
विकारजनित कर्मों के कारण
किये गये दुराचार का दंड
भोग रहे हैं।
जैसा कि
षडयंत्रकारियों ने षडयंत्र रचकर
भगवान बुद्ध को दुराचारी सिद्ध
करने का पूर्ण प्रयास किया
एक युवती को भगवान बुद्ध का
उपदेश सुनने हेतु भेजा और
उस युवती की हत्या कर
उसका शव भगवान बुद्ध के
विहार में ही गाढ दिया और
लाश दिखा कर बदनाम करने
का प्रयास किया,
लेकिन जो शुद्धात्मा होते हैं
उनकी प्रकृति भी मदद करती है
और इसीलिये उनका यह षडयंत्र
विफल हो गया,
उनके षडयंत्र का पर्दाफाश हो गया।
तो उनका जीवन तो
सादगी से परिपूर्ण था,
इसी तरह से महावीर स्वामी,
कबीर जी और रैदास जी का
जीवन भी सादगी पूर्ण था।
आज उनके जैसे
सादगी पूर्ण जीवन जीने वाली
महान आत्मायें अल्पतम ही हैं।
वरना आज तो इस संसार में
अधिकतर ज्ञानीजन ऐसे हैं कि
वे दान मांगते हैं और
उस दान के माध्यम से
अपना जीवन संवारने में लगे रहते हैं,
लगातार -----4-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-4
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
जेसा कि कबीर जी का दौहा है
एक कनक और कामिनी
जग में बडे फंदा
जो इनमें ना बंधा
वही दाता में बंधा
यानि कि
चाहे कामना कनक की हो
अथवा काम की
दोनों ही बंधन का कारण हैं
जैसा कि
इशोपनिशद का मंत्र है
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा
मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
इस संसार में जो कुछ भी
विद्यमान है, दृश्यमान है
सब कुछ उस परम चेतन्य के
कारण ही विद्यमान है,
सब कुछ उसी की देन है
हमारा अपना इस संसार में
हमारे कर्मों के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं, इसलिये
सब कुछ उसका मानते हुए
अनासक्त रहते हुए
बिना लोभ लालच के
संयम पूर्वक/ त्याग पूर्वक
भोग करना चाहिये।
इसी तरह कहा है: -
सांई इतना दीजिये
जामे कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूं
साधू ना भूखा जाये।
कोई संयास धारण करने के
बावजूद भी यानि
विकारों का त्याग करने के बाद भी
विषयों के आकर्षण के कारण
पुन: वहीं पहुंच जाता है
जहां से यात्रा प्रारम्भ करता है।
यानि कि विषयों का आकर्षण
इतना विकट है कि इससे
कोई विरला ही मुक्त हो पाता है।
इस संदर्भ में एक सत्य प्रसंग है -
एक तपस्वी
लगभग 15 वर्षों से
एक ही पैर पर खडा होकर
साधना कर रहा था,
एक युवती उसके लिये
प्रतिदिन खाना लेकर आती थी
और वह तपस्वी
उस युवती के आकर्षण से
आकर्षित होकर वह संयासी
तपस्या छोड कर
उस युवती के साथ
कहीं अन्यत्र चला गया।
लगातार -----5----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-5
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
अधिकतर लोग
साधु/संतो/भिक्षुओं को देखकर
उन्हें मुर्ख समझते हैं, लेकिन
इन साधु संतों भिक्षुओं में भी
सभी तो नहीं लेकिन कुछ तो
भगवान बुद्ध,
महावीर स्वामी,
दयानन्दजी,
विवेकानन्द जी आदि की
तरह होते ही हैं और ऐसे
मन वालों को ही उस
प्रकाश
शब्द धुन
दिव्य सुख
परमानन्द
की अनुभूति होती है।
इसलिये इसमें कहा है कि
जो
काम
क्रोध
लोभ
मद
मोह को
वश में कर लेगा
उसका जीवन
आनंद रस से भर जायेगा।
काम को
कुटिल मृगतृष्णा के समान
बताया गया है ।
मृगतृष्णा
यानि कि रेगिस्तान में
भटके हुए मृग की अपनी प्यास
बुझाने के लिये पानी की तलाश
लेकिन सूर्य के प्रकाश के कारण
उत्पन्न हुए भ्रम के कारण
उसे दूर से रेत भी पानी जैसी
दिखाई देती है, लेकिन
वहां तक पहुंचने के बाद
उसे रेत के अतिरिक्त
कुछ नहीं मिलता और
वह प्यासा ही दम तोड देता है।
आध्यात्म के अनुसार
यह मनुष्य ही वह मृग है
जो इन्द्रियों के सुख को
प्राप्त करने के लिये
नश्वर पदार्थों को
प्राप्त करने के लिये
अंतिम सांस तक
इस संसार रूपी रेगिस्तान में
दोडता रहता है, लेकिन
इन्द्रियों के सुख की कामना
कभी पूरी नहीं होती और
यही अतृप्त कामना
बंधन का कारण बनती है,
जन्म मरण के चक्र में बंधने का
कारण बनती है।
अंतर इतना है कि
मृग को तो रेगिस्तान में
पानी नहीं नसीब होता है
लेकिन मनुष्य को तो
इस संसार में उसका मनचाहा
ना जाने कितनी ही बार प्राप्त
हो जाता है, लेकिन फिर भी
मनुष्य का मन कभी तृप्त नहीं होता
और इसीलिये अधिकतर मनुष्यों
के मन में एकत्र कामना/वासना की
तृष्ण रूपी प्यास कभी नहीं बुझती
और जो संतुष्ट हो जाता है
शांत हो जाता है
इन्द्रजाल
मायाजाल से मुक्त हो जाता है
उसकी प्यास बुझ जाती है।
और वह जीते जी ही
जीवन मुक्त बन जाता है।
लगातार -----6-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-6
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
कामनाओं की तृष्णा का संस्कार
इतनी अधिक गहरी जडों तक
जमा हुआ है कि संसार के
अधिकतर सभी जीव इसकी
तृप्ति में ही लगे हुए है।
जैसा कि दोहा है
कामी, क्रोधी, लालची
इनसे भक्ति ना होय,
भक्ति करे कोई सूरमा
जाति वर्ण कुल खोय।
क्रोध
जब किसी को भी क्रोध आता है,
तो उसके आवेग में
क्रोधी मनुष्य की वाणी
विकृत हो जाती है, और
क्रोध की मात्रा अधिक हो तो
शरीर द्वारा भी अहितकारी कर्म
हो जाते हैं।
क्रोध
दूसरे को तो दुखी करता ही है
साथ ही स्वयं के भी
शारीरिक
मानसिक
पतन का कारण बनता है।
क्रोध
हमारे रक्त संचार को
अत्यंत तीव्र कर देता है।
जिसके कारण
यदि रक्त नलिकायें अवरूद्ध हो
तो हृदय तक रक्त नहीं पहुंचने के
कारण हृदय विफल हो सकता है,
ऐसा एक हृदय विशेषज्ञ का कथन है।
क्रोध
के कारण सत्य/ असत्य
न्याय/अन्याय
सत्कर्म/दुष्कर्म
अच्छा/बुरा
आदि का विवेक समाप्त हो जाता है।
और अविवेक ही बंधन का कारण बन जाता है।
लगातार -----7-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-7
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
अहंकार
अहंकार मन की व्याकुलता को
दिन-प्रतिदिन बढ़ाता रहता है।
अहंकारी का तो यही स्वपन होता है कि
कोई मुझ से आगे नहीं निकल जाये,
और इसी उधेड़ बुन में
व्याकुलता उसे घेरे रहती है।
अहंकार
उस रस्सी की तरह है,
जो जलकर राख भी हो जाए तो
भी उसका बल नहीं निकलता है।
अहंकार
ऐसा बंधन कारक संस्कार है
जिसके कारण मुक्ति असम्भव है।
इसीलिये कहा है
जब मैं (अहंकार) था,
तब हरि नहीं
अब हरि है मैं नाहि
सब अंधियारा मिट गया
जब दीपक देखा माही
यानि कि जब तक
अहंकार रूपी विकार का
त्याग नहीं करते तब तक उस
परम सुख/दिव्य सुख/परमानन्द की
अनुभूति भी नहीं की जा सकती है।
लोभ
लोभी मनुष्य को कोई भी
सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है,
क्योंकि एक स्वार्थी व्यक्ति ही
अपने स्वार्थ के लिये
येन-केन प्रकारेण
धन कमाने में लगा रहता है,
दूसरों को मुर्ख बनाने में
लगा रहता है, और
वह ऐसा इसलिये करता है कि
अज्ञानवश वह जीते जी
यही सोचता रहता है कि
यह सब धन सम्पत्ति उसकी है और
वह उसे साथ लेकर जायेगा।
इसी लोभ के कारण ही
लोभी मनुष्य मजूदरों को
उनकी पूरी मजदूरी नहीं देते हैं
उनका आर्थिक शोषण करते हैं
उनके हक का पैसा
लोभी व्यक्ति
अपने कब्जे में कर लेते है।
कई तो मूल से अधिक ब्याज
प्राप्त करने के बाद भी
शोषण जारी रखते हैं।
ऐसे लोभियों के लिये ही
लिखा है कि
कबीरा हाय गरीब की
कबहू ना निष्फल जाये,
मरे बैल की चाम सूं
लौहा भस्म हो जाये।
तो ऐसे लोभियों को तो
दुख रूपी नर्क का सामना
करना ही पड़ेगा।
लगातार ----8----
भाग-8
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
विषय-विकार व पाप से संबंधित
यह बातें निराधार नहीं है।
पुराण के संदर्भ में
ज्ञानीजनों में मतभेद है
कोई इन्हें सत्य मानता है
कोई इन्हें असत्य मानता है और
कोई असत्य व सत्य का मिश्रण
मानता है,
तो इनमें भी कुछ प्रसंग ऐसे हैं
जो विकारों के त्याग की
पुष्टि करते हैं,
हम चाहे इन्हें
सत्य माने अथवा असत्य लेकिन
विकारों का त्याग ही
अधिकतर समस्त धर्मों का सार है।
जैसे कि रावण के
जो दस सिर बताये गये हैं
वे विकारों के ही प्रतीक हैं,
और जैसा कि आरती में कहा है
इन विकारों से मुक्त होने पर ही
उस परम तत्व की अनुभूति
सम्भव हो पाती है
तो रावण ने भी
ज्ञान अर्जित करने के बाद
उसके विपरीत आचरण करके
अपने अंदर विकार रूपी
अवगुणों की भरमार कर ली थी
और इसीलिये
अपने अंतर में समाहित 9 अवगुणों
क्रोध
अहंकार
लोभ
कामनायें/ आकांक्षाएं
स्वार्थ भाव
सुख दुख से राग द्वेष का त्याग
भय
मोह
माया से मन को निर्वासित करना
यानि कि समस्त अवगुणों को
तपस्या, साधना, चिंतन, मनन
के द्वारा भस्म करके
अपने आराध्य का
साक्षात्कार किया था।
लेकिन
रावण ने जिन अवगुणों को
तपस्या के द्वारा भस्मीभूत किया था,
उन्हीं अवगुणों को
पुन: धारण कर लिया था।
तो जो भी तामसिकता से
सात्विकता में समाहित
होने के बाद पुन: तामसिकता में
समाहित हो जाता है, उसे
पतन से
दुगर्ति से
बंधन से
कोई नहीं बचा सकता है।
लगातार ----9-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-9
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
इसी तरह
श्री कृष्ण ने भी
राधाजी के अंदर विद्यमान
काम
क्रोध
लोभ
मद
मोह,
ईर्ष्या
आदि विकारों को
राधाजी के मन से
हटाने के लिये प्रयास किया था।
इस संसार में जो भी जन्म लेता है,
किसी विरले को छोडकर
सबका आकर्षण अथवा आसक्ति
इस संसार में विद्यमान
पदार्थ/शक्लों से रहता हैा
तो जिस तरह से
पानी की धारा का प्रवाह
नीचे की ओर होता है,
चाहे वह पानी झरने का हो
अथवा बारिश का अथवा
हिमालय से निकलने वाली
नदियों का सबका प्रवाह
उपर से नीचे की ओर होता है
तो इसी तरह से
इस संसार में सभी का आकर्षण
इन्द्रियों के विषय
(रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श)
एवं विकार
(काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर)
से होता है और
जिसके मन का प्रवाह
धारा से राधा यानि कि
धारा का विपरीत हो जाता है
यानि कि उर्घ्वगमन यानि कि
उपर की ओर गमन यानि कि
विषय विकार का विपरीत
यानि कि
अहिंसा
सत्य
अस्तेय
ब्रहृमचर्य
अपरिग्रह
शौच
संतोष
तप
स्वाध्याय
ईश्वर प्राणिधान/समर्पण/सत्कर्म
जब इन गुणों से
मनुष्य का मन
संयुक्त हो जाता है तो
मनुष्य का मन धारा से राधा में
परिवर्तित हो जाता है
और मन से क्रोध नफरत के भाव दूर हो जाते हैं
और करूणा, मैत्री, मुदिता के भाव अंतर में समाहित हो जाते है।
जैसा कि पुराण का ही एक प्रसंग है
केवल सदकर्म के लिये प्रेरित
करने के उद़देश्य से है
लगातार ----10-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग-10
काम क्रोध मद लोभ अहम
कर ले तू सब को वश में
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
जैसा कि पुराण का ही एक प्रसंग है
केवल सदकर्म के लिये प्रेरित
करने के उद़देश्य से है
पावर्ती जी की स्मृति लोप हो गई थी
तब अष्टांग योग की साधना के द्वारा
स्मृति पुन: लौटी थी
अष्टांग योग के अंग
यम-नियम,
आसन,
प्राणायम,
प्रत्याहार,
धारणा,
ध्यान,
समाधि
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहृमचर्य, अपरिग्रह)
नियम (शौच संतोष तप स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान)
आसन
आसन बिना साधना असम्भव है,
यानि कि साधना के लिये
किसी ना किसी आसन का
अवलम्बन तो लेना ही होगा
यदि बैठ कर करें तो
सिद्धासन, पदमासन अथवा
अन्य कोई भी सुविधाजनक
आसन में ही साधना की जाती है।
यदि कोई पीठ के बल लेटकर
भी साधना करना चाहे तो श्वासन
और यदि पेट के बल करना चाहे
तो मकरासन का अवलम्बन
लेना ही पडता है।
आसन में
व्यायाम और साधना की मुद्रा
दोनों ही आते हैं,
व्यायाम शरीर को स्वस्थ रखता है और
आसन साधना को पुष्ट करने में
मददगार होता है।
प्राणायाम
यानि कि श्वास-प्रश्वास की
क्रिया पर ध्यान एकाग्र करना,
अलग-अलग विधियों से किया जाता है
सभी प्राणयाम
ईश्वर की स्तुति,
नाम जप अथवा मंत्र जप के
द्वारा किया जाना लाभकारी होता है,
साधना को पुष्ट करने वाला होता है,
निरोगिता प्रदान करने वाला होता है,
तनाव को कम करने वाला होता है,
शांति प्रदान करने वाला होता है।
लगातार -----11-----
Comments
Post a Comment