काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
सर्वे भवंतु सुखिन-
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भाग - 1
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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परम सत्यता तो यही है कि
सभी धर्मों में उपलब्ध
परम सत्य समान ज्ञान के अनुरूप
हम कर्म नहीं करेंगे तो
हमारे लिये ना केवल वह ज्ञान ही निरर्थक रह जायेगा
अपितू ज्ञान की अवहेलना करने के कारण
कुछ हासिल होने वाला भी नहीं है।
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काहे भरमाता है झूठे सपनों में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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यह मनुष्य का जन्म
बहुत पुण्य कर्मों के आधार पर मिलता है और
पवित्रता की राह पर चलते हुए ही
उस अंतिम मंजिल
उस अंतिम लक्ष्य
उस परम लक्ष्य
दिव्य सुख/परमानन्द का अनुभव किया जा सकता है,
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जैसा कि
भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, दयानन्दजी, विवेकानन्द जी,
योगेश्वरानन्दजी, कबीरजी, गुरूनानकजी, राबिया आदि ने किया था।
दिव्य सुख/परमानन्द की अनुभूति करने के लिये
आंतरिक अनुभूति के संदर्भ में ईसामसीह ने कहा है कि
द्वार खटखटाओ
तुम्हारे लिये खोला जायेगा।
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लेकिन दिव्य सुख/परमानन्द की यह अनुभूति तभी होगी
जब इस नश्वर संसार से अनासक्ति और
ईश्वर/ निष्काम शुभ कर्मों से आसक्ति होगी।
यह संसार सदा रहने वाला नहीं है, नश्वर है,
जबकि वह अदृश्य मुक्ति लोक/स्वर्ग/जन्नत ही वह स्थ्ल है
जहां केवल सुख ही सुख है।
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जैसे हम सपना देखते हैं और
कभी सपने में हमारी तन अथवा धन की क्षति हो जाती है।
लेकिन जैसे ही हमारी नींद खुलती है
हमें राहत की सास मिलती है या
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फिर हमें सपने में
कभी ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है
तो हम सपने में भी हर्षित होते हैं,
लेकिन स्वपन टूटने पर वह खुशी समाप्त हो जाती है।
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इसी तरह से इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों से हमारा रिश्ता
केवल इस जन्म तक ही सीमित है,
अगला जन्म होने पर अथवा मृत्यु होने पर
सभी रिश्ते बदल जाते हैं।
सारी धन-सम्पत्ति यहीं रह जाती है
केवल हमारे कर्म ही हमारे साथ जाते हैं
उनके अनुसार ही हमें
मुक्ति/बंधन/स्वर्ग/नरक प्राप्त होता है।
लगातार -----2----
सर्वे भवंतु सुखिन-
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भाग - 2
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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तन अगर है सुंदर तो
मन को भी सुंदर बना ले
धन लगा नेक रस्ते और
अपने प्रभू को रिझा ले
पग पग में ओ मितवा
खुद को फसाता है
झूठे सपनों में क्यूं ।
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यदि हमारा तन सुंदर है
तो वह सुंदर तन तो
एक ना एक दिन स्वाहा होना ही है,
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आवश्यकता है मन को सुंदर बनाने की।
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जिसका मन सुंदर होगा वह बुराई से दूर रहेगा तथा
अच्छाई की ओर अग्रसर रहेगा ।
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जिसने
नाम जप अथवा
मंत्र जप अथवा
प्राणायम अथवा
सांसों अथवा
स्पंदनों पर
ध्यान के द्वारा
मन को एकाग्र कर
इस मन पर विजय प्राप्त कर ली है
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तो वह अनन्त सुख का अधिकारी बन जाता है। ।
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जो अच्छाई/सच्चाई के रस्ते पर है
वही आज्ञाकारी शिष्य/साधक है
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चाहे उसे ईश्वर का आज्ञाकारी माने या
किसी आदर्शमहापुरूष का आज्ञाकारी मानें।
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इनके अतिरिक्त
जो ज्ञान के विपरीत आचरण करते हैं
वे स्वयं वही कार्य कर रहे हैं
जैसे कि कोई जिस डाल पर बैठा हो और
उसी को काट रहा हो।
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ऐसे अवज्ञाकारी शिष्य/साधक इस
संसार रूपी मायाजाल में फंसे हुए हैं,
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जो कि स्वपन को सत्य मानकर जी रहे हैं ।
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झूठे सपनों में खोये हुए हैं।
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लगातार ----3-----
सर्वे भवंतु सुखिनः
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भाग - 3
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काहे भरमाता है झूठे सपने में
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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एक ही के पुजारी
एक है ये दुनिया और
हैं सारे आपसे में भाई
मंजिल भी एक है रे,
भूला क्यों यह जाता है
झूठ सपनों में तू।
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हम सबकी एक ही मंजिल है
दुख से मुक्ति और
सुख की प्राप्ति
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वेद, गीता, उपनिषद
कुराण, बाईबल, गुरूग्रंथ्, साईबाबा व
कुछ अन्य महापुरूषों/मतों के अनुसार
ईश्वर एक है।
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लेकिन विडम्बना तो यह है कि
सब उसे अलग-अलग मानते हैं,
जब ईश्वर एक है
तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध, जैन सभी आपस में भाई-भाई हैं।
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जो एक ईश्वर को मानता है
उसका कोई शत्रु नहीं।
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बौद्ध और जैन धर्म
ईश्वर को नहीं मानते हैं,
लेकिन उन्होंने ने भी भाई चारे व
आपस में मिलजुल कर रहने का संदेश
इस संसार को दिया है।
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हम चाहे यह कहें कि
हम एक ईश्वर की संतान हैं
चाहे ईश्वर को नहीं मानने
के बावजूद यह कहें कि
हम सब भाई हैं
तो मतलब तो यही हुआ कि
सभी भाईचारे से रहे।
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अधिकतर सभी धर्म यही कहते हैं
चाहे वे ईश्वर को मानते हो या नहीं -
सर्वे भवंतु सुखिन:
सबका भला हो
भवतु सब्ब मंगलं
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और ईश्वर को मानने वाले
उसके सच्चे भक्त के दिल से
यही दुआ निकलती है कि
है प्रभू सभी का भला करना
और
ऐसे सच्चे भक्त सच्चे मन से सदैव
परोपकार के लिये प्रयासरत रहते हैं।
लगातार ----4----
सर्वे भवंतु सुखिनः
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भाग - 4
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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ज्ञान कहता है
सांई ईतना दीजिए,
जामे कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूं
साधू ना भूखा जाये।
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लेकिन मनुष्य आपस में लडते हैं,
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असंतोष की भावना के कारण
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मन की अशुद्ध अवस्था के कारण
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स्वार्थ की पूर्ति के लिये,
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इन्द्रियों की तृप्ति के लिये,
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लोभ वृत्ति के कारण
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धन सम्पदा, ऐश्वर्य के लिये
जर, जोरू, जमीन के लिये
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यानि कि जो स्वार्थी है
वह तो लडेगा ही
उसे केवल अपने धर्म की छाप से मतलब है
अन्य किसी से नहीं।
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जब मनुष्य के अंदर
विकार जाग्रत होता है,
तब उसका
स्वार्थ/अहंकार/लोभ चरम पर होता है और
इसी कारण वह ईश्वर/महापुरूषों के उपदेश को भूल जाता है और
अपनी मन-मानी करने लगते हैं।
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ऐसे साधक/शिष्य भूल जाते हैं कि
कौन सा कर्म उन्हें जन्नत/स्वर्ग/मोक्ष का अधिकारी बनायेगा और
कौनसे कर्म उनके बंधन/जहन्नुम/नरक के कारण बनेंगे।
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अधिकतर सभी धर्मो में
अंहिसा,
सत्य,
अस्तेय,
ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह,
शौच,
संतोष्,
तप
स्वाध्याय,
ईश्वर प्राणिधान
(निष्काम सत्कर्म) को मानने पर बल दिया है।
इनका पालन करना ही
ईश्वर की या किसी महापुरूष की
सच्ची पूजा है,
सच्ची सेवा है
सच्ची शरण है
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इनको पालन करने पर ही
पूजा/ध्यान सफल होती है।
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ध्यान अधिकतर सभी धर्मों में किया जाता है।
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ध्यान की सफलता पवित्र जीवन पर ही निर्भर है।
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पवित्रता/सात्वकिता आध्यात्मिक सफलता की
आधार शिला है
लगातार ---5----
सर्वे भवंतु सुखिनः
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भाग - 5
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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इस लेख का उद्देश्य किसी धर्म विशेष का प्रचार करना नहीं अपितु सत्कर्म हेतु प्रेरित करना है।
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जैसे कि बहुत से मतों के लोग धर्म उपदेशक का मंतव्य नहीं समझने के कारण उनके उपदेश के विपरीत कर्म करते रहते हैं
उनकी श्रद्धा उनका विश्वास केवल दिखावा मात्र होता है।
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यदि सभी धर्मों में विद्यमान सत्कर्मों को किया जाए तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाए चारों और शांति का वातावरण स्थापित हो जाए
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जैसे कि वेद में विद्यमान बहुत से कर्म संबंधित निर्देश विभिन्न धर्मों में विद्यमान है लेकिन दुख तो इस बात का है सत्कर्मों का उल्लंघन अधिकतर सभी धर्मों के लोग करते ही रहते हैं और व्यर्थ की बातों को धर्म समझ लेते हैं जैसे कि अन्य धर्मों में विद्यमान कथन इस्लाम मैं भी विद्यमान है जैसे कि
1. ईश्वर के संबंध में
हम सबका मालिक एक हैं।
उसे किसी ने नहीं बनाया
उसने ही सब कुछ बनाया है
वेद में पहले से ही विद्यमान है
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2. दान/अपरिग्रह के संबंध में
मेहनत की कमाई से
2.5% धन से गरीबों की दान द्वारा मदद करनी चाहिये
ब्याज पर उधार पैसा नहीं देना चाहिये
जरूरतमंदों की मदद करना वेद में पहले से ही विद्यमान है
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3. सत्कर्म के संबंध में
अच्छा व्यवहार करना चाहिये
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नैतिकता और
सत्य के पथ पर चलना चाहिये
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जो कुछ भी हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं वैसा ही व्यवहार हमें सबके साथ करना चाहिये।
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यह वेद का सार है
योग दर्शन का सार है
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आस-पास रहने वालों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
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सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा इससे भी आगे की बात करते है
वसुधैव कुटुम्बकम्
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4. स्त्रियों के संबंध में
पर स्त्री पर दृष्टि जाये तो नजर झुका लेनी चाहिये
पर स्त्री पर कुदृष्टि डालना पाप है।
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स्त्रीयों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
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हिंदू धर्म में इसे इस तरह कहा है
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यत्र पूज्यते नारी
रमंते तत्र देवता
5. बुराइयों से दूर रहने के संबंध में
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शराब और जुआ बुराइयों की जड़ है।
इनसे दूर रहना चाहिये
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बुराइयों से दूर रहना वेद का सार व भगवान बुद्ध द्वारा बताए गए शील में से एक
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मजदूर की मजदूरी समय से दे देनी चाहिये
उसकी मजदूरी को रोकना नहीं चाहिये।
किसी गरीब/अनाथ की बददुआ नहीं लेनी चाहिये
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किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिये।
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यह कथन अहिंसा से संबंधित है क्योंकि मन वाणी व शरीर द्वारा किए गए जिस कर्म के कारण किसी का दिल दुखे वह हिंसा है
इसीलिए कहा है
कबीरा हाय गरीब की कबहू ना निष्फल जाए
मरे बेल की चाम सू लोहा भस्म हो जाए
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जलन (ईर्ष्या) भाव नहीं रखना चाहिये
वैदिक दर्शन सनातन धर्म के अनुसार द्वेष भाव का अभाव जो कि शांति प्रदान करने वाला है
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6. इच्छाओं कामनाओं के संबंध में
सबसे बड़ी जंग है
अपनी इच्छाओं को समाप्त करने के लिये अपने आप से जंग करना ।
अधिकतर सभी धर्मों का सार मन को कामनाओं से मुक्त करना
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7. संतोष के संबंध में अपने से अधिक धनवान/सम्पन्न/सामर्थ्यवान को नहीं
अपितु अपने से गरीब को देखकर संतोष का भाव रखते हुए प्रसन्न रहना चाहिये
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8. सत्य के संदर्भ में
सत्य बोलना चाहिये
इसीलिए कहा है
सत्यमेव जयते
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सांच बराबर
तप नहीं
झूठ बराबर पाप जाके हिरदे सांच है ताके हिरदे आप
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9.
जो वादा करें
उसे पूर्ण करना चाहिये
इसीलिए कहा है प्राण जाए
पर वचन ना जाए
यानी जो भी कहना सोच समझ कर करें इसीलिए कहा है पहले तोले
फिर बोले
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वचन देने से पहले विचार करें कि
जो वचन दे रहे हैं क्या वह धर्म संगत है और पूरा करने की क्षमता हो तभी वचन देना चाहिए अन्यथा नहीं
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सर्वे भवंतु सुखिन
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भाग - 6
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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वैदिक दर्शन
मेें विद्यमान कुछ समान संदेश ईसाई मत में भी विद्यमान है जैसे है
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ईश्वर एक है,
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पवित्रता/ सत्य की राह पर चलें,
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सत्य बोलें,
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सदैव धर्म करें,
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अधर्म कभी नहीं करें।
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हिंसा नहीं करें,
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परिग्रह नहीं करें,
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असत्य निन्दा नहीं करें,
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किसी से नफरत/घृणा नहीं करें,
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सज्जनों/सदाचारियों की संगति करें,
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दूर्जनों दुराचारियों से बिना ईर्ष्या/द्वेष के दूरी बनायें रखें।
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जो भी संकल्प करे, उसे पूरा करें
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चाहे उसके लिये हानि ही क्यूं नहीं उठानी पढे।
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ब्याज पर रकम उधार नहीं दें,
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रिश्वत नहीं लें,
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दुश्मन से भी प्रेम का भाव रखें,
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जरूरतमंदों की मदद करें,
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धन का लालच नहीं रखें।
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जो भी कर्म करें धर्मपूर्वक करें,
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अधर्मपूर्वक कुछ नहीं करें ।
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वैसे तो सभी धर्म
सभी गुरू
पूर्व में भी कर्म की महिमा गाते रहे हैं
वर्तमान में भी गा रहे हैं और
भविष्य में भी गाते रहेंगे।
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यह बात अलग है कि
संत्संग में दिये जाने वाले सत्कर्म के उपदेश की गहराई में बहुत कम लोग ही जा पाते हैं।
वेद,
गीता,
बौद्ध धर्म,
जैन धर्म ने
निष्काम
सत्कर्म को ही महत्वपूर्ण माना है।
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जैसे कि हम इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है,
उसे प्रकृति प्रदत्त मानें या
ईश्वर प्रदत्त माने
यह महत्वपूर्ण नहीं है
क्योंकि इस प्रकृति का संचालन करने वाला परम तत्व
परम शक्ति भी अदृश्य है और
इस पंचतत्व से निर्मित शरीर का संचालन करने वाला तत्व भी अदृश्य है
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तो इस दृश्यमान संसार में
सबसे महत्वपूर्ण यदि कुछ है
तो वह है हमारे कर्म और
जो ईश्वर/आदर्श महापुरूष की वाणी के अनुसार
कर्म करता है
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तो यही उनके प्रति समर्पण का भाव है,
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ज्ञान के अनुसार आचरण करना ही
सच्ची श्रद्धा है
और ऐसे श्रद्धावान ही मंजिल तक पहुंच पाते हैं
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लेकिन यदि कोई कहे कि
वह ईश्वर/आदर्श महापुरूष के प्रति समर्पित है और
कर्म उनकी वाणी के विरूत्द्ध करता है
तो ऐसा अवज्ञाकारी साधक/साधिका/शिष्य/शिष्या
ना तो सच्चा हिन्दू है,
ना सच्चा मुसलमान,
ना सच्चा ईसाई,
ना सच्चा बौद्ध
ना सच्चा जैन,
ना सच्चा सिक्ख
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वह केवल महाशंख की तरह बडी-बडी बातें करने वाला है और
ऐसा व्यक्ति इसी श्रेणी में आता है कि वचन जाये पर प्राण ना जाये।
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सर्वे भवंतु सुखिन-
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भाग - 7
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काहे भरमाता है झूठे सपने में यूं
काहे मन लगाता है झूठे सपनों में यूं
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जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
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जैसे कि इस संसार में अधिकतर लोगों को
तामसिक/राजसिक भोजन ही
अधिक पसंद आता है
जो एक धीमे जहर की तरह
कार्य करता है और
हमारे हृदय से जुडी
रक्त नलिकाओं के पथ को
धीरे-धीरे बंद करने लगता है,
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जब 80 प्रतिशत से अधिक ब्लाकेज हो जाते हैं
तब पता चलता है कि
शरीर की रक्त नलिकायें अवरूद्ध हाे गई हैं
और कई लोग तो आपरेशन करवाने के बाद भी
ऐसे ही आहार को ग्रहण करते रहते हैं और
यही तामसिक/राजसिक आहार उनकी
असमय मृत्यु का कारण बन जाता है।
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इससे बचने का उपाय है
सात्विक आहार, गर्म, गुणगुना पानी व
आयुर्वेद के नियमों का पालन करना,
नियमित व्यायाम करना,
प्राणायाम करना
ध्यान के माध्यम से मन को शांत करना
यह उदाहरण केवल समझाने के लिये है
कि जिस तरह नियम विरूद्ध आहार
असमय मृत्यु का कारण बनता है तो
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उसी तरह ज्ञान के विपरीत आचरण भी
दुखों का, जन्म मरण के बंधन का कारण बनता है।
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इसी तरह मनुष्यों ने अज्ञानता के कारण अथवा
विषय विकार से ग्रसित होने के कारण
जन्म जन्मांतरों से राजसिक/तामसिक कर्मों को
अपना संस्कार बना रखा है,
और ऐसे संस्कार ही मृत्यु/नरक बंधन का कारण बनते हैं
केवल निष्काम सात्विकता ही
मुक्ति लोक/स्वर्ग/जन्न्त में जाने का अधिकारी बनाती है,
जो स्वयं को सात्विकता /पवित्रता में परिवर्तित कर लेता है
उसे अपनी मंजिल स्वत: ही मिल जाती है।
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जैसे कि बल्ब को विद्युत सप्लाई से जोडते ही
बल्ब जल उठता है,
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उसी तरह जो अपने मन/चित्त/आत्मा/रूह को
सात्विकता /पवित्रता रूपी विद्युत से जोडेगा,
वह उज्ज्वल हो जायेगा,
उसका मन शुद्ध हो जायेगा
उसका मन प्रकाशित हो जायेगा
आत्मा पर लगे विषय विकार रूपी आवरण हट जायेंगे और आत्मा परमात्मा के मध्य की दीवार हट जायेगी और जीवन मुक्त की अवस्था आ जायेगी तथा
शरीर का रोते हुए नहीं अपितु हंसते हुए त्याग करने की क्षमता उत्पन्न हो जायेगी।
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सबका भला हो।
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