ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ 14 भागों में
सुप्रभात
भाग-1
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
आरती ॐ जय जगदीश हरे
मुक्ति/प्रभू साक्षात्कार का संदेश देती हैः-
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे,
ॐ जो कि इस सम्पूर्ण जगत के ईश हैं,
जैसे कि वनस्पित से चारों और हरियाली छा जाती है,
लेकिन वह एक दिन सुख जाती है,
लेकिन वह अदृश्य शक्ति कभी परिवर्तित नहीं होती,
सदैव एकरस रहती है,
सदैव एक रूप रहती है
सदैव एक रंग रहती है
इसीलिये हरे कहा गया है,
जो सदा हरा रहता है,
कभी नहीं मुर्झाता।
यानि वह अदृश्य शक्ति
ॐ पूर्व में भी इस सृष्टि में विद्यमान थी,
वर्तमान में भी विद्यमान हैं और
जब प्रलय होगी,
कयामत होगी उसके बाद भी
यानि कि भविष्य में भी
विद्यमान रहेगी।
वह अदृश्य शक्ति सबका स्वामी है
सबका नाथ है
सबका मालिक है।
उनकी जय।
भक्त़ जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे,
आरती के दौरान जो दीपक प्रज्जवलित किया जाता है,
और प्रकाश सहित आरती की जाती है
उसका भावार्थ यही है कि
हम भी अपने मन का दीपक जलाकर,
ज्ञान के प्रकाश में
सत्कर्म द्वारा उस अदृश्य शक्ति के
सत्य उपदेश का पालन कर
उसकी भक्ति करें।
और जो अपने सदाचरण से
उस अदृश्य शक्ति की भक्ति करते हैं
वे ही दास भाव से भक्ति करते हैं।
अन्यथा तो अधिकतर तो
इस संसार में मन के दास होते हैं,
अधिकतर लोगों की बुद्धि पर मन हावी रहता है
जिसका मन ज्ञान के सम्पर्क में
आने के बाद उस अदृश्य शक्ति के
सत्य उपदेश के आगे नतमस्तक हो जाता है और
जिसके आचरण में
उस परमात्मा के सदाचरण की
झलक देखने को मिलती है,
वही सच्चा भक्त होता है
यानि कि जिस भक्त का मन
उस अदृश्य शक्ति के पर्ति पूर्णतः
समर्पित हो जाता है
ऐसे भक्तों का
संकट/कष्ट/दुख
वह अदृश्य शक्ति
कम कर देती है,
हलका कर देती है।
हर लेती है।
लगातार ….2….
सुप्रभात
भाग-2
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
भक्त
यह शब्द आस्तिक के लिये उपयोग किया जाता है
यानि जिसकी भगवान में आस्था है
यानि जिसका मन भगवान में अनुरक्त है
भक्त भी दो तरह के होते हैं
एक सकाम भक्त (सांसारिक)
दूसरा निष्काम भक्त (आध्यात्मिक)
सकाम (सांसारिक) भक्त,
जिसका मन सांसारिक पदार्थों की कामना वासना में डूबा रहता है और
परमात्मा से भी अपनी कामना-वासना की पूर्ति की कामना/याचना करता रहता है।
ऐसे भक्त परमात्म साक्षात्कार से वंचित रह जाते हैं,
उनकी कुछ कामनायें पूर्ण हो सकती हैं
लेकिन कुछ कामनायें अपूर्ण ही रह जाती है।
निष्काम भक्त (आध्यात्मिक)
इस श्रेणी में वे सभी आप्त महापुरूष आते हैं
जो जीते हैं केवल जनकल्याण के लिये,
जीते हैं केवल प्रभू का प्रसाद ज्ञान को वितरित करने के लिये,
उस परमशक्ति से कुछ नहीं मांगते।
सबके भले के लिये कामना अवश्य करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी को गले का केंसर था,
उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा कि
आप मां से प्रार्थना क्यों नहीं करते कि
वह रोग समाप्त कर दे।
श्री रामकृष्ण परमहंस का जवाब था कि
क्या मां को पता नहीं है,
फिर मैं क्यों मां से विनती करूं और
यही कारण था कि केंसर जैसा रोग होने के बावजूद भी
वे स्वयं को दूखी महसूस नहीं करते थे।
उन्होंने स्वयं के लिये कभी मां से कुछ नहीं मांगा,
सदैव समर्पण निष्काम भाव से मां की आराधना की।
और जो अपने कष्ट को दूर करने के लिये भी प्रार्थना नहीं करता,
याचना नहीं करता उसका बड़ा दुख भी सूई की चूभन जैसा रह जाता है।
वह अदृश्य शक्ति इसी तरह अपने भक्तों के संकट दूर करती है।
सच्चे भक्तों का दुख भी क्षणिक दुख की तरह भक्त को परेशान नहीं करता और
सकाम भक्त सूई कांटे की जेसी साधारण चूभन से भी विचलित हो जाता है।
यानि जो सच्चा भक्त होता है,
उसके मन में परमात्मा के चिंतन के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है।
वह कार्य भी करता है तो उस स्थिति में भी
उसका मन परमात्मा से जुडा रहता है।
जो सकाम भक्त होता है,
उसका मन कभी प्रभू के द्वार पर स्थिर नहीं होता।
वह चाहे जाग्रत अवस्था में ध्यान करे अथवा
आंखें बंद करके ध्यान करे
उसका मन प्रभू के द्वार को छोड़कर
बार-बार सांसारिक पदार्थों/शक्लों के चिंतन में लग जाता है और
यह चिंतन बार-बार भक्त को प्रभू के द्वार से दूर करता ही रहता है।
सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की यात्रा पूर्ण होने पर ही
प्रभू के द्वार में प्रवेश होता है और
फिर मन के लिये सांसारिक पदार्थ गौण हो जाते हैं और
केवल परमात्मा ही शेष रह जाता है और
इस तरह एक भक्त प्रभू के द्वार पर होता है।
यानि मन की सकाम यानि तामसिक अवस्था से
निष्काम विषुद्ध सात्विक अवस्था ही इस लाईन को सार्थक करती है कि
’’द्वार पड़ा तेरे’’
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सुप्रभात
भाग-3
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
भक्त
उस अदृश्य शक्ति के भक्तों की
तीन अवस्थायें होती है
प्रथम प्रहलाद, धु्रव की तरह
बचपन से सदचाचित्रता यानि सात्विकता -
यह प्रथम दर्जें की सात्विकता होती है।
ऐसे लोगों की संख्या अल्पतम होती है और
ऐसे लोगों की भक्ति सबसे शीघ्र सफल होती है।
यदि सांप सीढी का उदाहरण लें तो
ऐसे लोग उंचाई पर चढते ही रहते हैं,
इन्हें सांप नहीं काटता और
अंततः परमात्मा तक पहुंचने का सफर पूर्ण कर पाते हैं।
द्वितीय इसमें संसार के सब जिज्ञासु शामिल हैं,
जिन्होंने किसी ना किसी माध्यम से ज्ञान ग्रहण किया है।
अतिधकतर जिज्ञासु भक्त राजसिक प्रवृत्ति के होते हैं
जो कभी ज्ञान के अनुरूप सात्विक कर्म करते हैं
तो कभी ज्ञान के विपरीत तामसिक कर्म करते हैं।
यह दूसरे दर्जें की अवस्था होती है,
जिसमें तामसिकता और सात्विकता का मिश्रण होता है।
ऐसे लोगों की संख्या अधिकतम होती हे,
लेकिन भक्ति सफल होने में अधिक समय लगता है,
सांप सीढ़ी के खेल का उदाहरण लें तो
ज्ञान के अनुरूप कर्म कर उपर चढते हैं और
ज्ञान के विपरीत करते ही इन्हें सांप काट लेता है और
यह पुनः नींचे आ जाते हैं,
जब तक मन वाणी शरीर के द्वारा ज्ञान के विरूद्ध आचरण समाप्त नहीं होता
तब तक सांप का काटना भी बंद नहीं होता
बार-बार नीचे गिरना ही पड़ता है और
जब साक्षी भाव से ज्ञान का ध्यान रखा जाता है
तब धीरे धीरे प्रगति शुरू होती है।
ऐसे लोगों के लिये ही कहा है कि
धीरे धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घडा
ऋतु आये फल होय।
तृतीय
इसमें वाल्मिकी, अंगुलिमाल, शूलपाणि आदि की तरह
दूराचारी से सदाचारी यानि तामसिकता से सात्विकता में समाहित होने वाले ।
ऐसे लोगों की संख्या अल्पतम होती है,
जो दूराचार का सदा-सदा के लिये त्याग कर
सदाचार को अपने जीवन में अपना लेते हैं।
ऐसे लोग सच्चे मन से दूराचार को त्याग देते हैं और
फिर सत्य पर पर चलते चलते
अंतत उस परमपिता परमात्मा तक पहुंच जाते हैं।
मरा-मरा से राम-राम तक की यात्रा पूर्ण होती है,
तामसिकता से निष्काम सात्विकता की यात्रा पूर्ण होती है।
यानि कि उस अदृश्य शक्ति का सच्चा भक्त तो वही है,
जिसके मन में उस एक के अतिरिक्त
कोई कामना/वासना नहीं हो और
जो अपनी तामसिकता रूपी बुराईयों को त्याग कर
सात्विकता में समाहित हो गया हो।
ऐसे सात्विकता में समाहित हुई महान आत्माओं का
बडा दुख भी उन्हें इतना दुख नहीं दे पाता,
यानि कि साक्षी भाव के कारण उनके तीनों तरह के दुख
उनके मन की शांति को भंग नहीं करते।
रोग भी उन्हें दुखित नहीं कर पाते।
श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने गले के केंसर को
ईश्वर का प्रसाद समझकर सहर्ष स्वीकार किया और
इसीलिये वे रोग होते हुए भी आनन्दित अधिक रहते हैं।
इसी तरह योगानन्दजी थे,
उनके पैर में चोट लग गई थी, वे चल भी नहीं सकते थे।
उन्होंने संकल्प लिया कि मैं इस पैर का उपचार नहीं करवाउंगा,
वह परमात्मा ही इसका उपचार करेंगे और
उनके उपदेश देने का दिन आ गया,
मन डगमगा रहा था, लेकिन संकल्प पर अटल रहे,
चले लडखडाये और उस लडखडाहट के बाद
उनका दर्द समाप्त हो गया, और
वे ऐसे चले जैसे कि चोट लगी ही नहीं हो।
एक महर्षि दयानन्द सरस्वती अपनी वन यात्रा के दौरान
कांटों से भरे तथा पथरीले पथ से गुजर रहे थे।
पथरीले/कंटीले पथ तथा भूख की वजह से वे भूमि पर गिर गये।
तभी उस परमात्मा की अनुकम्पा से एक भालू ने उनकी मदद की।
भालू उनके लिये शहद लाया और उनके पास रखकर चला गया,
जिसे ग्रहण करने से उन में पुनः शक्ति का संचार हुआ।
इस तरह के कई उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिल सकते हैं।
ऐसे भक्तों का संकट वह अदृश्य शक्ति
कम कर देती है,
हलका कर देती है।
हर लेती है।
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सुप्रभात
भाग-4
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का,
सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का
ध्यान
यह भी दो तरह का होता है
और दो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये किया जाता है
प्रथम सांसारिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये,
जिसे अभ्युदय कहते हैं,
यानि ऐसी स्थिति कि
साई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय,
मैं भी भूखा ना रहूं, साधू ना भूखा जाये।
सांसारिक लक्ष्य के कारण
भौतिक सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
यानि जीवन यापन हेतु आजिविका चलाने के लिये धन अर्जित करना।
द्वितीय आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये,
इसके कारण कभी समाप्त नहीं होने वाली सम्पत्ति प्राप्त होती है।
उस परमानन्द की प्राप्ति होती है,
उस दिव्य सुख की प्राप्ति होती है,
जिसकी तुलता में सांसारिक सुखों को धुल के समान कहा गया है।
इसे निश्रेयेस कहा गया है।
आसान और प्राणायम में वह शक्ति है, जिसके कारण शरीर का कष्ट मिट जाता है।
इसीलिये चिकित्सक भी व्यायाम की सलाह देते हैं,
यानि कि प्रतिदिन हमें उस परम शक्ति का स्मरण करते हुए
हमारे अस्थि जोडों को मोडना व पुनः सीधा करना चाहिये ।
आसन के कारण ही नाभि सदैव स्थिर रहती है,
कभी विचलित नहीं होती,
रीढ की हड्डी भी सही रहती है।
जोड़ों का दर्द भी नहीं सताता है।
अब यह आसान/व्यायाम करते समय भी
उस अदृश्य शक्ति को याद करते रहने से
व्यर्थ के विचारों से तो बचते ही हैं
साथ ही मन भी शुद्ध रहता है।
व्यायाम के ही बल पर
एक युवा जो कि रीढ़ की हड्डी की समस्या से ग्रसित था,
उसने अपनी रीढ़ की हड्डी को इतना लचीला बना लिया कि
दंडासन में गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवाया।
प्राणायम से प्रथम तो शरीर की नसों के ब्लाकेज नहीं बनते और
यदि बनते हैं तो संयमित आहार के साथ प्राणायाम करने से
नस के ब्लाकेज खुलने लगते हैं
दूसरा प्राणायाम, प्राण साधना ध्यान में भी लाभप्रद है।
श्री राममूर्ति जिनके फेफडे अस्थमा/टी.बी. के कारण खराब हो गये थे,
प्राणायाम के बल पर फेफड़े इतने मजबूत कर लिये कि
सीने में प्राणवायु को भरकर,
सीने पर लकडी का तख्त रखकर उस पर से हाथी गुजरने पर भी
उनके फेफडों पर कोई असर नहीं पड़ा।
जैसा कि कहा है प्रथम सुख निरोगी काया
तो निरोगी व्यक्ति ध्यान साधना बिना किसी परेशानी के प्रसन्नता पूर्वक कर सकता है।
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सुप्रभात
भाग-5
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का,
सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का
ध्यान
द्वितीय आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जो ध्यान किया जाता है
वह भी दो तरह से किया जाता है -
जाग्रत अवस्था में ध्यान
ध्यानस्थ अवस्था में ध्यान
प्रथम जाग्रत अवस्था में इस बात का ध्यान रखना कि
हमारी श्रवण इन्द्री जो गुरू का उपदेश सुन रही है,
उसको ग्रहण करे।
पूरा ध्यान गुरू की वाणी पर रहना चाहिये,
यदि मन चंचल है तो आंखें बंद कर लें।
क्योंकि गुरू की वाणी/उपदेश ही
उस परमात्मा का सबसे बड़ा प्रसाद है,
शिष्य के लिये सबसे बड़ा उपहार है,
वह वाणी कानों से होती हुई अंतर में समाहित होनी आवश्यक है।
यानि जाग्रत में यह ध्यान रखना है कि
कहीं आंखें तो उनके उपदेश की अवहेलना नहीं कर रही।
कहीं वाणी तो उनके उपदेश की अवहेलना नहीं कर रही।
शरीर का कोई भी अंग
उनके उपदेश की अवहेलना तो नहीं कर रहा।
खाली मन शैतान का घर कहा गया है,
तो जब मन खाली हो तो उसमें परमात्मा के सिवाय व्यर्थ का विचार नहीं आने पाये
इसका ध्यान रखना।
शरीर का कोई भी अंग हरकत करे
तो गुरू/ज्ञान के अनुसार करे,
मन में कोई चिंतन चले
तो गुरू/ज्ञान के अनुकूल हो प्रतिकूल नहीं
इन सब बातों का ध्यान रखना ही
जाग्रत अवस्था का ध्यान होता है।
लगातार----6----
सुप्रभात
भाग-6
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का,
सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का
ध्यानस्थ अवस्था -
यह वह अवस्था होती है, वह समय होता है,
जब उस अदृश्य शक्ति के अतिरिक्त कोई चिंतन नहीं, कोई मनन नहीं,
केवल एकाग्रता से ध्यान करना,
चाहे वह श्वासों के द्वारा करें अथवा
चक्र पर करें अथवा
शरीर में हो रहे स्पंदन पर करें।
एक समय में एक ही स्थान पर
एक ही जगह ध्यान एकाग्र करें।
लेकिन इस संसार के अधिकतर लोग
ध्यान करने बैठते हैं
तब भी उनका मन बार-बार
उस अदृश्य शक्ति को भूलकर
संसार के चिंतन में खोता रहता है।
ध्यान की यह यात्रा है,
अनेक से एक की ओर,
विविधता से एकाग्रता की ओर।
इसीलिये गीता में जो उल्टे पेड़ का उदाहरण है
वह यही है कि पेड़ का उपरी हिस्सा संसार है और
उसका नीचे का हिस्सा जो एक दिखाई देता है,
वह परमात्मा का प्रतीक है।
जो इस तरह ध्यान करते हैं,
उन्हें इसका परिणाम भी प्राप्त होता है।
जैसे कि पूर्व में ध्यान की यात्रा
विद्या अध्ययन से प्रारम्भ होती थी
और अंतिम श्वांस तक चलती थी
पूर्व में आश्रम व्यवस्था थी
छात्र गुरूकुल में पढ़ते थे और
बाल्यावस्था से ही धर्म के ज्ञान व
प्रभू के ध्यान के साथ
शिक्षा अर्जित करते थे,
तो इस तरह से जो
बाल्यावस्था से ही
उस ब्रह्म का ध्यान करते हुए
अपने अध्ययन काल को
पूर्ण पुरूषार्थ से पूरा करते थे,
और अपने माता-पिता के प्रति
अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिये
आजीविका अर्जित करने के बाद
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे।
गृहस्थ में रहते हुए भी
प्रतिदिन पुरूषार्थ करते हुए
प्रभू का ध्यान करते थे,
माता-पिता, भाई-बहिन, आदि के प्रति
अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते थे,
लेकिन उस अदृश्य शक्ति से
सदैव जुड़े रहते थे।
फिर जब संतान युवा हो जाती थी,
तब वानप्रस्थ आश्रम में
सभी भोगों का त्याग करते हुए
केवल एक ब्रह्म का ही स्मरण करते थे,
ऐसे व्यक्तियों के मन का दुख न्यून हो जाता है और
प्रथम तो भौतिक सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है
आंतरिक शांति रूपी सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है
इसके पश्चात् उस दिव्य सुख की प्राप्ति होती है,
जिसके तुल्य दूसरा कोई सुख नहीं यानि की परमानन्द, ब्रह्मानन्द।
और मन शांत हो जाता है
और इस तरह मन का दुख समाप्त हो जाता है।
यानि कि जो मन संसार में भागता था
वह अब परमात्मा में भागने लगता है।
जिसका मन परमात्मा में भागने लगता है,
वह अंतत जीवनमुक्त हो जाता है।
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सुप्रभात
भाग-7
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
मात पिता तुम मेरे,
शरण गहूं किसकी,
तुम बिन और न दूजा,
आस करूं मैं जिसकी
हमारे लिये माता-पिता इस जन्म के लिये देव-स्वरूप हैं
उनका रिश्ता केवल इसी जन्म तक के लिये सीमित है,
लेकिन वह परम-शक्ति
हम सभी की माता भी है और पिता भी है और
हर जन्म में वही हमारा सच्चा साथी रहेगा,
इसलिये उस सच्चे साथी का आश्रय ही सर्वोत्तम है,
उसके आश्रय से ही हम उसका साक्षात्कार कर
अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
उसके अतिरिक्त हमारा
दूसरा कोई सच्चा साथी नहीं है,
हमें सभी धोखा दे सकते हैं,
लेकिन वह हमें कभी धोखा नहीं देता है,
उसकी अपेक्षा करना ही सर्वोत्तम है।
हमारे साथ चाहे कोई छल कपट करे
लेकिन वह कभी किसी से छल कपट नहीं करता
वह निर्विकारी है, निर्विषयी है, निष्पाप है और
इसीलिये जो भक्त सत्य पथ पर चलते हुए
निर्विकारी, निर्विषयी, निष्पाप बन जाता है
वह उस परम शक्ति का सच्चे अर्थों में सच्चा भक्त, सच्चा पुत्र बन कर
परमात्मा से मिलने का अधिकारी बन पाता है।
विषय-विकार व पाप हमें संसार से जोड़ कर रखते हैं और इनसे विमुक्त होने पर हमारे मन का संबंध इस संसार से विच्छेदित हो जाता है, टूट जाता है और मन परमात्मा से जुड जाता है।
अर्जुन के मोह को तोड़ने के लिये ही श्रीकृष्ण ने
गीता का ज्ञान दिया गया था।
जिसे सुनने के बाद भी धृतराष्ट्र की मन की आंखे नहीं खुल सकी और
पुत्र मोह के कारण तामसिक निर्णय लेने के कारण उसे अपने सभी पुत्रों को खोना पडा ।
अर्जुन ने धनुष बाण उठाया था, उसका उद्देश्य केवल एक ही था कि तामसिकता रूपी बुराई को खत्म करना।
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सुप्रभात
भाग-8
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
तुम पूरण परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी,
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सब के स्वामी
है प्रभू आप ही समस्त जगत में एकमात्र पूर्ण हैं,
आपके अतिरिक्त इस संसार में
कोई भी ऐसा नहीं जो कि पूर्ण हो,
सभी में किसी ना किसी तरह की कमी है,
अतः आप ही इस संसार के
समस्त जीवों के स्वामी हो,
तीनों लोको में आपसे बड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं है।
आप सर्वत्र विद्यमान हैं
क्योंकि आप अन्तरयामी हैं
और कोई भी कितना ही चमत्कारी/सिद्ध पुरूष क्यों ना हो
वह समस्त संसार के जीवों के
अंतरमन/चित्त में संग्रहित बातों को
नहीं जान सकता है।
हां इतना अवश्य है कि
वह एक समय में अपनी सिद्धी के आधार पर
एक व्यक्ति के अंतरमन/चित्त की बातों को बता सकता है।
लेकिन वह परमात्मा तो इतना महान है कि
एक ही समय में सभी प्राणियों के मन की बात से वाकिफ होता है।
यानि कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो सभी भाषाओं का ज्ञाता हो, आप तो सभी भाषा-भाषयिों की भाषा समझने वाले हैं
तो आप से महान कोई नहीं प्रभू, जिसमें सभी भाषाओं को समझने की सामर्थ्य हो वही पूर्ण परमात्मा कहलाने योग्य हो सकता है प्रभू। और जो सभी भाषाओं का ज्ञाता हो यानि कि मनुष्य तो क्या नभचर, जलचर, थलचर आदि सभी की भाषा समझता हो वही अंतरयामी याने अंतर मन की बात समझने वाला हो सकता है। इसलिये है परमात्मा आप ही पूर्ण हैं, आप ही अंतरयामी हैं।
है प्रभू मनुष्य सीमा में बंधा हुआ है, एक बार में वह एक ही स्थान पर जा सकता है या रह सकता है, लेकिन आप तो अनन्त हैं, असीम है, आपकी कोई सीमा नहीं, आपकी अनन्तता आपकी विराटता इतनी अनन्त है कि वैज्ञानिक भी उसकी थाह, उसका छोर पता करने में विफल हो गया है। है प्रभू आप से विराट इस संसार में कोई नहीं इसीलिये एकमात्र आप ही सबके स्वामी हैं।
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सुप्रभात
भाग-9
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता,
है प्रभू तुम जैसा करूणा वान भी कोई नहीं है,
तुम्हारी करूणा तुम्हारे भक्तों के लिये तो रहती ही है,
लेकिन पापियों के प्रति भी तुम्हारी करूणा सदैव बनी रहती है,
तुम पापियों को भी सदचरित्र महापुरूषों के माध्यम से सुधरने का अवसर देते हो।
आप ही समस्त जगत के पालनकर्ता हैं
आपने ही सबके लिये दाना-पानी की व्यवस्था कर रखी है,
आपकी रचना के कारण ही भूमि से हमें अन्न, फल-फूल आदि प्राप्त होते हैं।
इसलिये आप पालनकर्ता हैं, सबका पालन करने वाले हैं।
मैं मूरख फलकामी
इसका भावार्थ है कि फल की कामना करने वाला मूरख है, यानि कि जो सकाम है,
अपने प्रत्येक कर्म के बदले कामना रखता है,
यहां तक की प्रभू भक्ति के एवज में भी
सांसारिक पदार्थों की कामना वासना रखता है।
जबकि उस परम शक्ति का कर्मफल सिद्धांत अटल है,
इसीलिये कहा है -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करहि सो तस फल चाखा
कर्मण्येवाध्किारस्ते फा फलेषु कदाचना
यानि कि कर्म का परिणाम तो अवश्यमभावी है,
लेकिन उसके परिणाम की आकांक्षा के बिना
सतत कर्म करते रहना चाहिये।
यानि कि सांसारिक दृष्टि से सतत कर्म करें,
उसके परिणाम, उसके अंजाम की
परवाह किये बिना कर्म करना।
संसारिक दृष्टि से अभ्युदय
यानि कि सांमाजिक, राजनैतिक, आर्थिक उन्नति के लिये कर्म करना।
जैसे कि आज सरकारी नौकरी पाना
एक अत्यंत कठिन कार्य है,
कुछ विरले लोगों को ही मिल पाती है,
तो इस सोच को हटाते हुए कि हम उत्तीर्ण होंगे अथवा नहीं
प्रयास करना ही चाहिये जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाये।
इसी तरह राजनीति में भी चुनाव में एक क्षेत्र से बहुत से लोग खडे होते हैं,
सभी जीत नहीं सकते
जीत एक क्षेत्र से एक की ही होती है,
तो अंजाम से भयभीत होकर यदि कोई प्रयास ही नहीं करेगा
तो वह कभी भी विजयी नहीं हो सकता है।
इसी तरह खेल में भी
एक पक्ष की हार होती है दूसरे की जीत।
विल्मा के पैर तिरछ थे,
वह तेज नहीं दौड सकती थी,
लेकिन परिणाम/अंजाम की परवाह किये बिना
उसने समर्पित भाव से कर्म किया, मेहनत की और
सीधे पैर वालों को हराते हुए
दौड प्रतियोगिता में उसने 100, 200 और 400 मीटर के तीन स्वर्ण पदक जीते।
आध्यात्मिक दृष्टि से निष्काम भाव से
प्रत्येक कर्म उस अदृश्य को समर्पित करते हुए कर्म करना।
यह भी लोगों को अत्यंत कठिन प्रतीत होता है,
लेकिन यदि हम देखें की
बाल्मिकी जी जो एक डाकू थे और साधू बन गये और
अंगुलिमाल जो कि हिंसक था अहिंसक बन गया।
तो जब तामसिक प्रवृत्ति की अधिकता वाले मनुष्य सात्विक प्रवृत्ति में
अपने मन को परिवर्तित कर सकते हैं
तो जिनमें सात्विकता की अधिकता हैं
वे तो तामसिकता का पूर्णतः त्याग कर सकते हैं
यदि वे बिना अंजाम की परवाह किये पुरूषार्थ करें, प्रयास करें, ।
इसीलिय जो केवल सांसारिक पदार्थों की कामना ही करता रहता है
पुरूषार्थ नहीं करना चाहता उसकी भक्ति अधूरी रह जाती है।
जबकि उस अदृश्य शक्ति का सच्चा सेवक बनने के लिये
केवल एक उसी की कामना भक्त को करनी चाहिये।
इसलिये भक्त को प्रार्थना करनी हो तो यही करनी चाहिये कि
है भक्त/दास के स्वामी,
इस भक्त/दास पर पर कृपा करो कि
यह भक्त दृष्टा भाव/साक्षी भाव रखते हुए
इस नश्वर संसार में विद्यमान नश्वर पदार्थाें की कामनाओं को न्यून करने का अभ्यास करते-करते,
निष्काम होकर यह तेरा यह भक्त/दास सच्चे अर्थों में इस संसार के स्थान पर तेरा सच्चा भक्त/दास/सेवक बन सके।
लगातार----10----
सुप्रभात
भाग-10
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
किस विधि मिलूं दयामय
तुमको मैं कुमति
है प्रभू आप अगोचर है अर्थात् दिखाई नहीं देते हैं।
सबके प्राणपति,
यानि कि सभी जीवों के अंदर प्राणों का संचार करने वाले हैं
तथा प्राणों को निकालने वाले हैं,
अतः आप सभी के प्राणों के स्वामी हैं।
है दयामय महान प्रभू
आप दिखाई नहीं देते हैं तो आप ही भक्त को बताईये कि
कुमति भक्त यानि कि किस तरह से आप का साक्षात्कार करें।
दीन.बन्धु दुःख.हर्ता,
ठाकुर तुम मेरे,
स्वामी रक्षक तुम मेरे,
अपने हाथ उठाओ,
अपने शरण लगाओ,
द्वार पड़ा तेरे
है प्रभू आप ही तो हैं जो ऐसे दीनों के भी बन्धू हैं,
जिनका कोई बन्धू नहीं है, आप सबके बन्धू हैं।
आपके सच्चे भक्त के समक्ष
यदि दुख भी आता है तो आप उस दुख को हल्का कर देते हैं,
उसे दुख सहने की शक्ति देते हैं,
इस तरह आप दुखहर्ता हैं।
है प्रभू आप ही भक्त केे लिये सबसे बड़े महाराजधिराज हैं आप ही भक्त केे रक्षक है।
है प्रभू जैसा कि यह परम सत्य है आपके अतिरिक्त भक्तों का कोई दूसरा सच्चा साथी नहीं है,
आपने मनुष्य को शरीर प्रदान करके माया रूपी जाल बिछाया है
तथा एक बड़े माया जाल के रूप में इस संसार की रचना की है,
इस संसार में विद्यमान सभी पदार्थ नश्वर है,
लेकिन यह ऐसा जाल है,
जो आपकी माया के कारण सभी को अति-प्रिय लग रहा है,
लेकिन सत्यता तो यही है कि आपका सानिध्य ही
तीनों लोकों में सबसे बड़ा है।
अतः भक्त आपके द्वार पर खड़ा हुआ है,
आपका सानिध्य पाने के लिये
आपकी तरफ यह भक्त अपना हाथ बढ़ा रहा है।
है प्रभू इस भक्त को अपनी अपनी शरण में ले लो।
जैसा कि कहा है अपने हाथ उठाओे।
अपने शरण लगाओ। द्वार पडा तेरे
तो उस परम शक्ति ने चारों ओर से अपने हाथ फैला रखें हैं,
लेकिन कोई विरला ही अपना मन रूपी हाथ उसकी तरफ बढ़ा पाता है,
अन्यथा तो इस संसार के अधिकतर लोग
अपने मन रूपी हाथ संसार की तरफ ही बढाते रहते हैं।
जिसका मन रूपी हाथ संसार से हटकर उस परमात्मा की तरफ बढता है
तो वह परमात्मा उसका हाथ थाम लेता है।
उसे अपनी शरण में ले लेता है।
यानि जब तक भक्त/भक्तिनी का मन सांसारिक पदार्थों की
कामना/वासना में उलझा हुआ है
तब तक तो चाहे कोई लाख कहे कि वह प्रभू की शरण में है
वह दृष्यमान संसार की शरण में ही है,
माया की शरण में ही है।
जिसका मन संसार के चिंतन में नहीं भटकता
वही सच्चे अर्थों में उस परमात्मा के द्वार पर पड़ा हुआ है,
शेष सभी उस द्वार से दूर हैं।
लगातार----11----
सुप्रभात
भाग-11
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
विषय.विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
सन्तन की सेवा
एक भक्त/भक्तिनी के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य
अपने कर्तव्य कर्मों को निष्काम कर्मों द्वारा पूरा करना है तथा
अपने अंतरमन से नश्वर पदर्थों/शक्लों से नाता तोड़कर
परमात्मा से नाता जोड़कर उसका साक्षात्कार/अनुभूति कर
जन्म-मरण के चक्र से छूटना है।
अतः इस आरती को गाने वाले भक्त/भक्तनी
परमात्मा के साक्षात्कार के अभिलाषी हैं अथवा
परमात्मा का सानिध्य पाना चाहते हैं।
लेकिन यह तो तभी सम्भव हो सकता है
जब भक्त/भक्तनी ऐसे महान संतो के पास जायें
जिनके मन से सं यानि संसार का अंत हो गया है और
जिनके मन में केवल परमात्मा ही शेष रह गया है।
यानि ऐसे महान संत जो विषय (इन्द्रियों के भोग - रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श)-
विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर आदि) से मुक्त हैं
निष्पाप हैं
यानि ऐसे संत जिनके मन से इन्द्रियों के विषयों के भोग की कामना निर्वासित हो गई है,
यानि जो निर्विषयी हो गये हैं,
केवल जीवित रहें इसलिये भोजन ग्रहण करतें हैं,
जैसा भी मिलता है, प्रभू का प्रसाद समझ कर ग्रहण करते हैं,
चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित हो।
जिनकी समस्त इंद्रियां कामना रहित हो गई हैं,
जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है और
इन्द्रजीत बन चुके हैं
जितेन्द्रिय बन चुके हैं
वे ही सच्चे संत हैं।
जिनका मन विकार रहित हो चुका है,
यानि कि जो निर्विकारी हैं,
यानि कि क्रोध का स्थान शांति ने ले लिया है।
काम का स्थान निष्कामता ने ले लिया है,
ब्रह्मचर्य ने ले लिया है।
लोभ का स्थान संतोष ने ले लिया है,
अहंकार का स्थान नम्रता ने ले लिया है।
मोह, मत्सर का स्थान
करूणा, मैत्री, मुदिता, उपेक्षा ने ले लिया है,
स्थितप्रज्ञता ने ले लिया है।
यानि ऐसे संत
जिन्होंने संसार के माया जाल को तोड़कर
निरन्तर सत्य पथ पर चलने के कारण
परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है और
जीते जी ही आपके द्वार पर हैं,
आपकी शरण में हैं,
आपके सानिध्य में रहते हैं और
आपके सानिध्य में रहने के कारण ही
आपकी वाणी का उपदेश सब को कर रहे हैं।
ऐसे महापुरूषों के सत्य उपदेश का पालन करना ही
सच्चे अर्थों में श्रद्धा भक्ति है।
लगातार----12---
सुप्रभात
भाग-12
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
विषय.विकार मिटाओ,
महापुरूषों की भक्ति भी तीन तरह के त्याग/दान से होती है।
प्रथम उनके खाने-पीने रहने के लिये व्यवस्था करने के लिये तथा
अन्य जरूरत मंदों के लिये धन का दान/त्याग
दूसरा तन द्वारा त्याग,
यानि कि बिना किसी कामना, लोभ, लालच के शरीर द्वारा श्रमदान
शरीर द्वारा महापुरूष के धर्म कार्य में सहयोग करना अथवा
अन्य जरूरतमंदों की सेवा करना।
तीसरा मन द्वारा
यही अंतिम और परम दान/त्याग/सेवा है।
यानि कि महापुरूष के ज्ञान से जुडने से पहले
जो मन दृष्यमान संसार से जुडा हुआ था
वह मन अब अदृश्य परम शक्ति से जुडने का अभ्यास करे।
जो मन ज्ञान ग्रहण करने से पूर्व
अज्ञानमय कर्म कर रहा था,
वह मन अब ज्ञान के अनुरूप ही कर्म करने का प्रयास करे।
यही तन, मन, धन का सच्चा समर्पण है।
यही महापुरूषों की सच्ची सेवा है।
जो भक्त ऐसी सच्ची सेवा करते हैं,
अंतत ऐस भक्त
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।
की तरह यानि कि
ज्ञान के अनुसार साक्षी भाव/दृष्टा भाव से
कर्म करते हुए
अंततः निर्विकारी, निर्विषयी, निष्पाप बन जाते हैं।
यानि कि महापुरूषों के ज्ञान के सानिध्य में रहते हुए तथा
उनके सत्य उपदेश का पालन करते हुए तथा
वैराग्य का अभ्यास करते हुए
सत्य पथ पर चलते हुए
विषय (इन्द्रियों के भोग)
विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि) व
पाप से मुक्त होकर उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकने योग्य बन पाते हैं।
लगातार----13---
सुप्रभात
भाग-13
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
विषय.विकार मिटाओ,
सार
इस संसार के अधिकतर लोग ज्ञान ग्रहण करते हैं,
लेकिन इस माया की नगरी के कारण,
इस मायाजाल के कारण
वह ज्ञान जो कि पारसमणि की तरह है,
उसका सदुपयोग कोई विरला ही कर पाता है।
अन्यथा तो इस संसार में
अधिकतर लोग बहाने बनाने में ही लगे रहते हैं।
आज इस संसार में विद्यमान किसी भी प्राणी ने
देवासुर संग्राम नहीं देखा है,
लेकिन जो साक्षी भाव रखता है,
दृष्टा भाव रखता है,
उसे यह देवासुर संग्राम स्पष्ट दिखाई देता है।
यह देवासुर संग्राम हम सभी मनुष्यों के मन के अंदर चलता रहता है
जब असुरत्व विजयी होता है
तो तामसिकता बढ़ जाती है और
जब देवत्व विजयी होता है तो सात्विकता बढ़ जाती है।
जैसे कि काम वासना को प्रथम स्थान पर रखा गया है,
जो कामवासना को जीत लेता है,
वह सूर्य के सदृश बन जाता है,
आज वास्तव में सत्यगुरू कहलाने का अधिकारी भी वही गुरू है,
जिसने काम वासना को जीत लिया हो।
यह सर्वोत्तम विशुद्ध सात्विकता है।
जो कामवासना को नहीं जीत पाता है और
जिसने ज्ञान धारण किया है,
उसके लिये मध्यम स्तर की सात्विकता तो यही है कि
उसके मन में अपने जीवन साथी के अतिरिक्त
किसी का भी चिंतन नहीं चले,
यह दीपक के सदृश मध्यम सात्विकता है।
जो कामवासना को नहीं जीत पाता है और
जिसने ज्ञान धारण किया है, और
उसका अपने जीवनसाथी के अतिरिक्त किसी के साथ अवैध संबंध नहीं है
लेकिन मन में स्त्री/पुरूष को देखकर
उनके प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है अथवा बूरा विचार आता है
यह निम्न स्तरीय सात्विकता है।
यानि की दीपक की लौ हवा के झौंकों से बार बार डगमगा रही है, स्थिर नहीं है।
जो स्त्री/पुरूष स्वयं की स्त्री/पुरूष होते हुए भी
पर स्त्री/पुरूष के साथ अवैध संबंध रखते हैं,
यह तामसिकता है। यानि की बुझा हुआ दीपक।
क्रोध आना भी तामसिकता को प्रतीक है।
क्रोध यानि कि असुरत्व तामसिकता का हावी होना।
शांत रहना सात्विकता का प्रतीक है,
यानि कि देवत्व सात्विकता का हावी होना
तो पहले तो जिसने ज्ञान धारण किया है
पर स्त्री/पुरूष का चिंतन भी मन में नहीं आने दें,
जिस दिन किसी भक्त/भक्तनी का मन इस तरह शुद्ध हो जाता है,
तो उसे इस जन्म में नहीं
तो अगले जन्म में इस स्तर तक पहुंचने का लाभ अवश्य ही मिलता है।
यह केवल एक उदाहरण है,
इसी तरह अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
लेकिन इस आरती का मुख्य सार तो यही है कि
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सुप्रभात
भाग-14
ॐ जय जगदीश हरे - आरती भावार्थ
जो गुरू उपदेश कु अनुरूप हो ग्रहण करें
इस आरती का मुख्य सार तो यही है कि
हम दुनिया के चिंतन के स्थान पर प्रभू का चिंतन/मनन करें
उसे अंतरयामी मानते हुए कोई दुष्कर्म नहीं करें।
एक दिन इस तन से जुदा होना ही होगा,
अतः इस सत्यता को याद रखते हुए
मोह रहित होकर निष्काम भाव से सत्कर्म करें।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान रूपी साबुन से मन कै मैल, मन की तामसिकता को धोकर सात्विकता/ देवत्व की ओर मन को अग्रसर करें
तामसिकता रूपी मैल यानि कि विषय, विकार व पाप रूपी असुरत्व से ध्यान के माध्यम से मुक्त होकर उस परमात्मा का साक्षात्कार करें।
ईश्वर सर्वव्यापक है,
अतः जो सर्वव्यपाक है वह एक ही हो सकता है,
अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव में होने से वह सबसे सूक्ष्म है
तथा पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होने से
उससे बड़ा कोई नहीं हो सकता है।
सर्वत्र विद्यमान होने के कारण उसे अन्तयार्मी कहा गया है।
पंच तत्व से निर्मित शरीर में प्राणां को डालने वाला निकालने वाला भी वही है
अर्थात् जो सर्वत्र विद्यमान होगा वही तो एक समय में
असंख्य शरीरों में प्राण डाल सकेगा और
असंख्य शरीरों से प्राण निकाल सकेगा,
इसलिये उसे प्राण-पति कहा गया है।
अतः जो सर्वत्र विद्यमान है,
सभी के प्राणों का स्वामी है तथा अगोचर है
उसकी वास्तविक मूर्ति तो कभी भी नहीं बनायी जा सकती है।
जो मूर्ति बनायी जाती है वह केवल उस अदृश्य शक्ति की याद दिलाने के लिये है,
लेकिन आश्चर्य कि उस मूर्ति की आराधना करने वालों का मन भी उस मूर्ति के सामने होते हुए भी संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों की कामना/वासना में ही विचरण करता रहता है।
वह शक्ति एक ही है चाहे उसे माता-पिता, बन्धू-सखा अथवा किसी भी नाम से पुकारा जाये।
वेद में, गीता में तथा उपनिषदों में ओम् नाम ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है और इसीलिये आरती का प्रारम्भ भी ओम से ही किया गया है।
सबका भला हो।
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