अदृश्य शक्ति के दर्शन की अभिलाषा - मां की आरती केसी यह देर लगाई है का भावार्थ

 सर्वे भवंतु सुखिन: 

मां पर विशेेष

हम उस अदृश्‍य शक्ति को चाहे किसी भी रूप में मानते हों, वह अदृश्‍य ही है और उसकी अनुभूति होती है अपने अंतर में

 

उसका स्‍वरूप एक ही है,

 

जिस तरह रक्‍त केवल लाल रंग का ही होता है,

यानि कि उसका रंग एक ही होता है,

 

इसी तरह उस अदृश्‍य शक्ति का रूप भी

जो अंतर में दिखाई देता है वह एक ही है -

यानि कि ज्‍योति/प्रकाश

 

इसी तरह उस अदृश्‍य शक्ति का जो

नाम/धुन/शब्‍द अंतर में सुनाई देता है,

वह भी एक ही है।

 

इसी तरह जो परमानन्‍द की अनुभूति होती है,

वह भी केवल उस एक की ही

अनुभूति करने से होती है

 

हम किसी को भी मानते हों,

किसी भी मत के हों,

किसी भी धर्म के हों,

ज्‍योति/धुन/शब्‍द/परमानन्‍द

यह सभी मनुष्‍यों में विद्यमान है।

 

हम चाहे बाहर से अनेक दिखते हों,

लेकिन हमारे अंतर में कोई विभेद नहीं ।

 

आप आस्तिक हो या नास्तिक,

आपको जो भी सत्‍य लगे ग्रहण करें।

 

संसार में सभी की मान्यतायें

अलग-अलग हैं,

आस्तिक (आत्मा/परमात्मा को मानने वाले),

 

अदृष्य निराकार को मानने वाले, मूर्तिपूजक,

 

नास्तिक (आत्मा को मानने वाले) और

 

आत्मा/परमात्मा की चर्चा नहीं करने वाले

 

लेकिन इन सभी में

एक समान सिद्धांत विद्यमान है,

वह है निष्काम सात्विकता 

और यही वह सीढ़ी है, जो मनुष्य को

प्रेम, करूणा, दया भाव से

भर देती है,

विकार (काम/क्रोध/लोभ/मद/मोह/मत्सर) से दूर कर देती है और

उस अदृश्‍य शक्ति की अनुभूति करवाती है।

 

श्री रामकृष्ण परमहंस,

जो कि  मां के सर्वश्रेष्ठ भक्त थे। 

 

निष्काम सात्विकता की

शक्ति केे बल पर उन्होंने

ना केवल मां की अनुभूति की

अपितु निराकार ब्रह्म की भी

अनुभूति की।

 

उन्होंने मंदिर/मस्जिद/चर्च आदि तथा

विभिन्न मतों/सम्प्रदायों में

6-6 महिने साधना करके

भक्ति, ज्ञान और कर्म

तीनों ही योग के द्वारा

मुख्य धर्मो /मतों में  उस अदृश्‍य शक्ति की अनुभूति की ।

 

इसलिये हम किसी को भी मानते हों,

लेकिन यदि हम

सात्विक

बनने का प्रयास नहीं करेंगे तो उस

अदृश्‍य शक्ति का साक्षात्कार

असम्भव है। क्योंकि

कर्म/ज्ञान/भक्ति तीनों में ही

मन को संसार में विद्यमान

पदार्थों से अनासक्त करने का

अभ्यास करना पड़ता है। 

 

निष्काम सात्विकता का सफर

पूर्ण करना पड़ता है।

 

जैसा कि कहा है कि

प्रेम गली अति सांकरी

जामे दो ना समाये।

 

यानि एक तरफ सारा संसार और

दूसरी और वह अदृश्‍य शक्ति,

 

मन को दोनों में से किसी

एक का चुनाव करना पड़ेगा।

 

अदृश्‍य शक्ति का चुनाव

मुक्ति का कारण बनता है और

 

सांसारिक पदार्थों का चुनाव

बंधन का कारण बनता है, 

संसार में पुनः आने का अर्थात

जन्म-मरण के बंधन में बंधने का

कारण बनता है।

 

वही अदृश्‍य शक्ति माता भी है

पिता भी है, बंधु भी है सखा भी है,

 

इस कथन को कुछ अंशों तक

चरितार्थ किया श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने।

 

इस संसार में अधिकतर सभी

सुख चाहते हैं और चाहते हैं कि

दुख उनके कभी निकट नहीं आये।

लेकिन वृद्धावस्था का दुख तो

किसी से छिपा नहीं है,

मृत्यु रूपी दुख तो

किसी से छिपा नहीं है।

 

धर्म  दुख से छुटने का उपाय है।

अधर्म दुख बढ़ाने का कारण है ।सुप्रभात

 

 

  

सभी वस्‍तुयें गुरूत्‍वाकर्ष्‍ण के कारण आसानी से नीचे गिर जाती है और इसी गुरूत्‍वाकर्ष्‍ण के कारण

   

कोई भी वस्‍तु पावर/करंट/शक्ति के बिना उपर नहीं उठाई जा सकती है

     

उसी तरह जितनी भी मान्‍यतायें हैं उन्‍हें स्‍वीकार करना आसान है, लेकिन उन मान्‍यताओं के साथ जुडे़ सत्‍य को जीवन में उतारना अत्‍यंत कठिन है।

 

सत्‍य को जीवन में उतारना तलवार की धार पर चलने के समान हैा

    

 दुर्गा मां की इस आरती में भी तलवार की धार पर चलने का संदेश ही छुपा  हुआ है।

  

भक्‍त मूर्ति के दर्शन से संतुष्‍ट नहीं है, अत- भक्‍त अपनी वेदना प्रकट कर रहा है कि-

 है मां मैं जन्‍म-जन्‍मांतरों से आपका दीदार आपके दर्शन

नहीं होने के कारण बार-बार  शरीर धारण कर इस संसार मे अवतरित होता हूं और

नहीं चाहते हुए भी बार-बार इस शरीर को छोड्ना भी पड़ता है।   यदि इस जन्‍म में भी आपके दर्शन नहीं हुए तो मेरा यह जन्‍म भी व्‍यर्थ हो जायेगा।

 

मूर्ति का दर्शन आसान है, इसमें किसी तरह के संघर्ष की आवश्‍यकता नहीं पडती है, लेकिन साक्षात दर्शन के लिये आसुरी वृत्तियों से संघर्ष करना

पडता है, आसुरी वृत्तियों का संहार करना पड़ता है, और जो ध्‍यान के

माध्‍यम से अपने मन के अंदर विद्यमान आसुरी वृत्तियों का संहार कर देता है उसे उस अदुश्‍य शक्ति की अनुभूति/साक्षात्‍कार भी हो जाता है।

जब उसका साक्षात्‍कार होता है तो परमानन्‍द की अनुभूति होती हैं यानि इस साक्षात्‍कार के कारण ही सबसे बड़े आन्‍न्‍द की अनुभूति होती है, और जन्‍म-मरण का चक्रटूट जाता हैा  

 

यदि हम अन्‍य धर्म ग्रन्थो  का अध्‍ययन करें तो हमें अहसास होगा कि कि इस परमानन्‍द को अधिकतर सभी धर्मों ने स्‍वीकार किया है।

यानि हम चाहे किसी को भी मानते हों लेकिन उसका अंतिम परिणाम तो दिव्‍य सुख/परमानन्‍द ही है,

   

यानि के मां के वास्‍तविक स्‍व्‍रूप के दर्शन के लिये हमें

अर्जुन/एकलव्‍य/कर्ण आदि की तरह केवल अपने लक्ष्‍य पर ध्‍यान केंद्रित करना होगा।

     

अर्जुन ने देखा कि भीम अंधेरे में भी बड़ी आसानी से भोजन ग्रहण कर रहा था,

उसे प्रेरणा मिली और उसने अंधेरे में भी तीर चलाने का अभ्‍यास प्रारम्‍भ किया।

   

गुरू ने पेड़ पर एक कृत्रिम चिडि़या को रखवाकर उसकी आंख पर निशाना लगाने को कहा,

     

सबसे पूछा क्‍या दिखाई देता है, तो केवल अर्जुन ही था, जिसे   

  

 केवल चिडि़या की आंख दिखाई दी, उसके अतिरिक्‍त कुछ नहीं।

    

एकलव्‍य को गुरू ने ज्ञान देने से मना कर दिया,

एकलव्‍य ने केवल गुरू की प्रतिमा स्‍थापित करके इतना अभ्‍यास किया कि जितना अभ्‍यास   आज के शिष्‍य साक्षात जीवित गुरू का साथ पाने के बाद भी नहीं कर पाते हैं।

  

उसका अभ्‍यास ही वह शक्ति थी, जिसके कारण कुत्‍ते के भोंकने पर उसका मुंह तीरों से भर दिया, भौंकना बंद हो गया, और कुत्‍ते को कोई क्ष‍ति भी नहीं हुई ।

   

कर्ण ने भी अभ्‍यास के बल पर जितना अर्जुन ने हासिल किया था, उससे भी अधिक हासिल किया, 

यदि अर्जुन 19 था 

तो कर्ण 20 

इसीलिये तो उन्‍होंने अर्जुन को राजकुमारों की शिक्षा के प्रदर्शन के दौरान कड़ी टक्‍कर दी थी और उसकी प्रतिभा को देखकर ही दुर्योधन ने उसे अपना मित्र बनाया था और अंग देश का राज्‍य प्रदान किया था।

 

 दुर्योधन ने कर्ण के शौर्य के कारण ही स्वयम्वर के दौरान  भानुमति का उसकी इच्छा के विरुद्ध अपहरण किया था।

कर्ण ने सभी राजाओं को तीर की दीवार बनाकर रोक दिया था।

 

 कहने का तात्‍पर्य यह है कि उस अदृश्‍य शक्ति की अनुभूति साक्षात्‍कार का लक्ष्‍य अत्‍यंत कठिन लक्ष्‍य है, 

     

और सबसे बड़ा संग्राम है, जिसमें।आसुरी वृत्तियों को समाप्‍त करना ही पड़ता है।

     

जैसा कि दृश्‍य आता है कि एक असुर मरता है तो उसके रक्‍त से और असुर पैदा हो जाते हैं, तो मनुष्‍य की एक कामना/वासना समाप्‍त होती है

तो अनेकों नई कामना/वासना उत्‍पन्‍न हो जाती है।

   यदि हम उस दिव्‍य सुख/परमानन्‍द/मुक्ति को

प्राप्‍त करना चाहते हैं तो

हमें हमारे मन/इन्द्रियों को वश में करने का प्रयास करना ही होगा।

 विकारों पर विजय प्राप्‍त करने का प्रयास करना ही होगा।

दूसरे का नहीं स्‍वयं का निरीक्षण करना होगा।

 दूसरा अच्‍छा है या बुरा,

 उसे उसकी अच्‍छाई या बुराई के अनुसार ही परिणाम भी प्राप्‍त होगा।

  

केवल ईश्‍वर के संबंध में

केवल सिद्धांतों पर बहस करने से कुछ भी हासिल नहीं होता है

   

 अपितू लक्ष्‍य के अनुसार कर्म करने से ही लक्ष्‍य प्राप्‍त किया जा सकता है।

   

दिव्‍य सुख/परमानन्‍द को नहीं मानने वालों को ही नास्तिक की श्रेणी में रखा जा सकता है।

   

 मन/इन्द्रियों/बुराई पर विजय प्राप्‍त करने पर ही

 दिव्‍य सुख/परमानन्‍द प्राप्‍त होता है, और जिसे यह प्राप्‍त होता है वह जीते जी ही सभी बंधनों से मुक्‍त हो जाता है।

    

इस दिव्‍य सुख की अनुभूति इस पांच तत्‍व से निर्मित शरीर में किसी भी स्‍थान विशेष पर हो या फिर 

 

ज्‍योति/प्रकाश को देखकर हो या फिर 

 

शब्‍द/धुन सुनकर हो

 

अंतिम परिणाम तो दिव्‍य सुख/परमानन्‍द ही है।

    

इस सुख को प्राप्‍त करना

इतना आसान नहीं है, 

इस सुख की ओर जाने वाले पथ को तलवार की धार जैसा पैना बताया गया है। जिस पर चलने पर 

 

शुरू में मन दुख पाता है, और यह पथ कांटों भरा प्रतीत होता है,लेकिन इसका  परिणाम 

   अमृत तुल्‍य    होता है,

     

इस तथ्‍य को गीता में प्रमाणित किया गया है।

    

इसके विपरीत मन हमें जिस प्रेय मार्ग पर ले जाना चाहता है,

वह मार्ग अमृत की तरह प्रिय लगता है, लेकिन इसका परिणाम 

   विषतुल्‍य    होता है, क्‍योंकि जिस दौडृ  को जीतने के लिये मानव शरीर मिला है, वह दौड् जीते बिना ही

अग्नि में स्‍वाहा हो जाता है।

 

यानि अद़श्‍य शक्ति के वास्‍तविक स्‍व्‍रूप के दर्शन की प्‍यास के

साथ ही मनुष्य बिना दर्शन/अनुभूति के इस संसार से विदा हो जाता है।

यानि हमारे संस्‍कारों के कारण

हम इस पथ से बार बार भटक जाते हैं।

यह पथ बहुत विकट है।

 

हमारे महापुरूषों को भी

इस अंतिम परिणाम को

प्राप्‍त करने में वर्षों लगे थे,

     

यह केवल उनको ही प्राप्‍त होता है,

    

 जो जितेन्द्रिय होते हैं, मनजीत होते हैं

     

विषय-विकार व पाप से दूर होते हैं

    

 जिस-जिसने इस अंतिम परिणाम को प्राप्‍त किया है,

वह वापस क्षणिक सुखों में नहीं फंसा।

    

 जो वर्तमान में क्षणिक सुखों में डूबा हुआ है,

 इनसे चुम्‍बक की तरह चिपका हुआ है,

उसे कभी भी यह अंतिम परिणाम प्राप्‍त नहीं होता है।

     

यह अंतिम परिणाम जीते जी ही हासिल किया जा सकता है।

इसे हासिल किये बिना कोई भी मुक्‍त नहीं हो सकता है

चाहे उसकी कोई सी भी मान्‍यता हो, आस्तिक हो, नास्तिक हो,

चाहे कोई भी हो।

 

केवल इतना ही निवेदन है कि आप किसी को भी माने

लेकिन जैसे कि हर शरीर के पीछे एक चेतन अदृश्‍य तत्‍व होता है,

यानि वह उर्जा, वह पावर, वह शक्ति

जिसके कारण हमारा शरीर चल रहा है,

और उसके शरीर से निकलते ही

शरीर निस्‍तेज हो जाता है।

 तो वही उर्जा इस प्रकृति में भी विद्यमान है,

 और वह उर्जा, वह पावर, वह शक्ति एक ही है।

यानि जिस चेतन तत्‍व के कारण यह शरीर संचालित हो रहा है,

उसे हम आत्‍मा कहें या अन्‍य कोई नाम दें

 तो उसी तरह से जिस चेतन तत्‍व के कारण

सारा ब्रहमांड, सूरज, चांद, तारे, प़थ्‍वी आदि गति कर रहे हैं,

उसे ही हम परमात्‍मा कहें या अन्‍य कोई नाम दें

वह अद़श्‍य तत्‍व एक ही है।

     

यदि हम उस अदृश्‍य शक्ति को मानते हैं

तो वह अनेक नहीं एक ही है,

जैसा कि यह परम सत्‍य है कि कोई भी बडा

अपने से बुद्धि/बल में छोटे की आराधना नहीं कर सकता है।

     

तो जैसा कि हम देखते हैं कि शिवजी ध्‍यान मगन हैं

वे अपने से अधिक शक्तिशाली व बुद्धिमान के ध्‍यान में मगन हैं

यदि उन्‍हें राम की संज्ञा भी दी जाये तो वह राम जो सब जगह रम रहा है,

यदि विष्‍णु की संज्ञा दी जाये

 तो वह विष्‍णु जो सब जगह व्‍याप्‍त है,

जिसके कारण यह सारा संसार संचालित हो रहा है।

     

इसी तरह से श्री राम यदि शिव की अराधना कर रहे हैं,

तो उस सबसे बड़े कल्‍याणकारी शिव की कर रह हैं,

 जिसके तुल्‍य इस जगत का कल्‍याण/भला करने वाला पालन करने वाला दूसरा कोई नहीं।

 

जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें 

     

इस सम्‍पूर्ण जगत की जननी होने के कारण वह अदृश्‍य शक्ति ही इस जगत के वासियों की मां है,

     

और प्रकृति के माध्‍यम से

हमारा पालन करने के कारण वही हमारा पिता भी है।

    

 इस भजन में उसी जगत की जननी के दर्शन की अभिलाषा व्‍य‍क्‍त की गई है।

    

 कैसी यह देर लगाई है दुर्गे, हे मात मेरी हे मात मेरी।

    

 है जगत की माता हम जन्‍म-जन्‍मांतरों से तेरे दर्शन की आस, तेरे दर्शन की प्‍यास,

तेरे दर्शन की अभिलाषा संजोय हुए तेरे वास्‍तविक स्‍वरूप के दर्शन की  प्रतीक्षा कर रहे हैं।

तेरे दर्शन से वंचित रहने के कारण ही अनगिनत योनियों से गुजरना पड़ा है।

कितनी ही बार जन्‍म की

गंदगी भरी पीड़ादायक कैद में गिरफतार होना पड़ा है ।

और कितनी ही बार मृत्‍यु रूपी दुख से दुखी होना पड़ा है ।

     

तेरी ज्‍योति ही तो वह ज्‍योति है जो सूर्य , चन्‍द्र तारों को प्रकाशित कर रही है। सूरज से निकलती हुई तेरी ज्‍वाला की लपटें सागर के पानी को भाप बनाकर वर्षा प्रदान करती है,

 तेरी ज्‍वाला की लपटों से ही हर पैड़, हर पौधा, हर अन्‍न उत्‍पन्‍न हो  रहा है। है जगतजननी, 

है ज्‍वालास्‍वरूप मां,

 तेरे उसी ज्‍योर्तिमय स्‍वरूप  को देखने के हम आकांक्षी है,  

 हम व्‍याकुल है।

     

तेरे शब्‍द से ही सब गुंजायमान हो रहे हैं, इसीलिये तेरे शब्‍दों के प्रतीक घंटी, ढोल, नगाढे, शंख,  आदि तेरी स्‍तुति के लिये बजाये जाते हैं,

     

तेरे उसी आलौकिक संगीतमय स्‍वरूप की अनुभूति  अपने अन्तर में  करने के लिये हमारे कान तरस रहे हैं।

     

हमारी आंखें और हमारे कान ध्‍यान के अंदर तेरी अनुभूति करने के लिये व्‍याकुल हो रहे हैं।

     

है मां हमें अपना दिव्‍य दर्शन दो,

     

जिसको पाकर हम सदा-सदा के लिये तेरे साथ जुड़ जाये और इस जन्‍म-मरण रूपी बंधन से मुक्‍त हो सकें ।

     

है मां लेकिन आप हमें कितना इंतजार करवा रही हैं,

ना जाने कितने जन्‍म हम तेरे दर्शन की आस लिये ही गंवा चुके हैं।

हर जन्‍म में केवल तेरी मूर्ति का ही दर्शन हो सका है,

तेरे वास्‍तविक स्वरूप के दर्शन से वंचित ही रहे हैं।

है मां, हमें तो तेरे वास्‍तविक स्‍चरूप के दर्शन की प्यास है।

 

इतना दीर्घ समय व्‍यतीत होने के बावजूद, असंख्‍य जन्‍म लेने के बावजूद भक्‍त को दर्शन क्‍यों नहीं हो सके,  

इसका रहस्य भी अगली पंक्तियों में दर्शाया गया है,

     

भव सागर में घिरे पड़े हैं,

   

काम आदि गृह में घिरे पड़े हैं।

     

मोह आदि जाल में जकड़े पड़े हैं।

 

जन्‍म के बाद, ज्ञान अर्जित करने के बाद मनुष्‍य के सामने दो मार्ग होते हैं -

१- प्रेय मार्ग

२- श्रेय मार्ग

 प्रेय मार्ग –जो ज्ञान के अनुसार ध्यान नहीं करता है

तथा ज्ञान की पालना करने का ध्‍यान नहीं रखता है,

 वह इस रस्‍ते पर चलता है,

 और ध्‍यान नहीं करने के कारण

तथा ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करने के कारण

उस अद़श्‍य शक्ति की अनुभूति नहीं हो पाती है।

    

 प्रेय मार्ग मन को संसार से जोड देता है और मन सम्‍पूर्ण रूप से उस अद़श्‍य शक्ति से नहीं जुड़ पाता, जिसके कारण उस अद़श्‍य शक्ति का ध्‍यान न्‍यून/कम होता है और संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लों का ध्‍यान अधिक होता है।

और भक्‍त उस अदृश्‍य शक्ति की अनुभूति से वंचित रह जाता है।

 क्‍योंकि उस अद़श्‍य शक्ति की अनुभूति का माध्‍यम

तो केवल और केवल ध्‍यान ही है और कुछ नहीं,

     

इसीलिये तो शिवजी की ध्‍यानस्‍थ मूर्ति स्‍थापित की जाती है,

    

 भगवान बुद्ध महावीर स्‍वामी की ध्‍यानस्‍थ मूर्ति स्‍थापित की जाती है,

जो सभी को प्रेरित करती है कि ध्‍यान करो, अंदर स्थित आनन्‍द रस में डूब जाओ।

लेकिन यह आंतरिक आनन्‍द

इतनी आसानी से प्राप्‍त नहीं होता,

    

 अंतर में ज्‍योति इतनी आसानी से दिखायी नहीं देती,

     

अंतर में शब्‍द धुन इतनी आसानी से सुनायी नहीं देती।

महावीर स्‍वामी को लग्‍भग 12 वर्ष

और भगवान बुद्ध को लगभग 6 वर्ष आंतरिक अनुभूति में लगे थे।

     

यानि प्रेय मार्ग के कारण ही भवसागर में घिरे हुए है।

     

जैसे पतंगा अग्नि से आकषर्ण के कारण उसमें जलकर मर जाता है,

 तो उसी तरह प्रेय मार्ग के आकर्षण के कारण

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्‍सर रूपी विकारों

 के आकर्षण में फंसकर  मनुष्‍य उस अदृश्‍य शक्ति के

दर्शन से वंचित रह जाता है।

     

भव सागर में घिरे पड़े हैं।

यानि के संसार के आकर्षण में उसकी और मन खींचा जा रहा है, खींचा जा रहा है।

और यह मन आज से नहीं ना जाने कितने जन्‍मों से

 संसार के आकर्षण में खींचा जा रहा है।

     

काम आदि ग्रह में घिरे पड़े हैं।

यानि के जैसे कि हमारी पृथ्‍वी सहित

सोम, मंगल, बुध, ब्रहस्‍पति, शुक्र, शनि आदि गृह

सूरज के चारों और परिक्रमा करते रहते हैं।

     

तो उसी तरह हमारा मन भी तन/शरीर के माध्‍यम से

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्‍सर रूपी

ग्रहों से घिरा रहता है।

यह सभी ग्रह जैसे सूरज के चारों और घूमते रहते हैं

     

वैसे ही यह सभी विकार मनुष्‍य के मन को घेरे रहते हैं।

 जो ज्ञान व ध्‍यान के माध्‍यम से इन सभी विकारों के घेरे को लांघ जाता है,

वह दर्शन पा लेता है और जो नहीं लांघता

वह दर्शन नहीं पाता

और इनमें फंसा हुआ ही शरीर त्‍याग देता है।

इसीलिये कहा है कि काम आदि ग्रहों से घिरे हुए हैं, इनका घेरा हमें तेरे दर्शन से वंचित कर रहा है मां। 

श्रेय मार्ग् यानि के ज्ञान व ध्‍यान का मार्ग ही इस घेरे को तोड़ सकता है।

मोह आदि जाल में जकड़े पड़े हैं।

 

विषय-विकार रूपी अदृश्‍य धागों से बुना हुआ मोह-माया रूपी अदृश्‍य जाल बिछा हुआ है।

जैसे कि पक्षियों को शिकारी के द्वारा बिछाये गये

जाल का ज्ञान नहीं होता है

और वह शिकारी द्वारा बिछाये गये जाल पर

पड़े हुए दानों को पाने की लालसा में उस जाल में जकड़ जाता है।

तो पक्षी तो अज्ञान के कारण उस जाल में फंसता है।

   

आज इस संसार में ज्ञानी और अज्ञानी अधिकतर सभी लोग माया के जाल में फंसे हुए हैं

 

कोई विरला ही माया द्वारा बिछाये गये जाल से मुक्‍त हो पाता है।

 

जैसा कि गीता में लिखा है कि कोई हजारों में से एक यानि कि हजारों अज्ञानियों में से कोई एक जिज्ञासा वश ज्ञान ग्रहण करता है

और ऐसे हजार ज्ञानवानों में से

 कोई एक ज्ञानवान इस माया के जाल को तोड़ पाने में

सफल हो पाता है।

   

तो अज्ञानी की तो क्‍या कहें

 जिसे पता ही नहीं कि माया द्वारा जाल बिछाया गया है, वह तो जाल में  फंसा हुआ ही है। लेकिन घोर आश्चर्य तो यह है कि 

ज्ञानी भी माया द्वारा बिछाये गये जाल में जानबूझकर फंस जाता है।

  

 मनुष्‍य को मोह होता है 

लोकेषणा, 

वित्‍तेषणा,

 पुत्रेषणा से,

 यानि कि इस लोक में विद्यमान पदार्थों की कामना,

 सत्‍ता, शक्ति, सम्‍मपति, सम्‍मान की कामना रूपी जो जाल बिछा हुआ है उसमें फंस जाता है

 

 और यह ज्ञान होते हुए भी कि- 

हम में  से कोई भी  इस संसार से कोई भी द़श्‍यमान पदार्थ/शक्‍ल नहीं ले जा सकता हैं,

सब कुछ यही छोड़ कर जाना है।

ओर ज्ञानी भी इस ज्ञान को भूल जाते है कि -

सांई इतना दीजिये

जामे कुटुम्‍ब समाये

मैं भी भूखा ना रहूं

साधू ना भूखा जाये।

   

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह रूपी विकार के कारण ही

मन डांवडोल होता है और

मनुष्‍य को भी डांवाडोल कर देता है।

    

जब तक मन स्थिर नहीं होता, शांत नहीं होता, तब तक उसका दिव्य दर्शन भी नहीं होता ।

   

इस बंधन के कारण ही उसके वास्‍तविक स्‍वरूप के दर्शन नहीं हो पाते हैं।

   

काम/कामनायें ही तो हैं

जो ज्ञानी/अज्ञानी दोनों के मन

को दूषित कर देती है,

उनके मन में हलचल पैदा कर देती है,

   

और हम अज्ञानी की भान्ति तेरे चिंतन के स्‍थान पर संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लों के चिंतन में लग जाते  है।

   

कामना ही तो वह कारण है

 जिसकी पूर्ति नहीं होने के कारण क्रोध व अन्य  विकार पैदा होते हैं ।

   

लोभ, मद, मोह ही तो वह विकार है जिसके कारण मन संसार के पदार्थ/शक्‍लों की चाह में उल्‍लझा रहता है।

जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें 

  

 मद /अहंकार  ही तो वह विकार है जिसके कारण यह मन मलिन हो जाता है और  इस संसार के आकर्षण में फंसने का सबसे बडा कारण बनता है।

   

मोह/ आसक्ति ही तो वह विकार है जिसने तेरे दर्शन से वंचित कर रखा है।

   

यह सभी विकार तुझ से दूर करते हैं मां।

है मां तू विकार रहित है,

 निर्विकार है,

 जब तक हम निर्विकारी नहीं बन जाते, तब तक तेरे वास्‍तविक स्‍वरूप का दर्शन भी नहीं पा सकते हैं।

  

 पूर्व जन्‍मों के संस्‍कार के कारण इस संसार रूपी भवसागर में पड़े हुए हैं।

   

पूर्व जन्‍मों के संस्‍कारों के कारण मोह-माया, राग-द्वेष रूपी जालों से जकडे हुए हैं

   

अर्थात् जितने भी समस्त विषय-विकार है, पापकर्म है इनके कारण ही संसार के बंधन में बंधे हुए हैं और इसी कारण

तेरा साक्षात्कार नहीं हो पा रहा है।

कहने का तात्पर्य है कि -

   

मनुष्य स्वयं ही इनमें जकड़ा हुआ है, और उसे स्वयं ही इन्हें छोड़ने का अभ्यास करना होगा।

    

 इन बंधनों से मुक्त होने पर ही उस सर्वव्यापक/आनन्दस्वरूपा/ज्योतिस्वरूपा

जगत की माता का साक्षात्कार हो सकता है।

   

है जगत की मां जिस-जिस ने भी ज्ञान का अर्जन किया है,

उनमें से कुछ लोग सच्‍चे मन से

तुम्हारे प्रति समर्पित होने का प्रयास कर रहे हैं,

कुछ का समर्पण केवल शारीरिक है,

और जहां केवल शारीरिक समर्पण है,

वहां केवल दिखावा है, वह भी अल्‍प समय का है,

कुछ का सर्मपण मानसिक है।

यदि मन झुक जाता है,

तो शरीर/तन भी स्‍वत: ही झुक जाता है।

 

ना मुझ में बल है, ना मुझ में विद्या,

 ना मुझ ने भक्ति] ना मुझ में शक्ति।

   

ना मुझ में बल है, - यानि के शारीरिक बल तो है,

 लेकिन मानसिक बल का अभाव है, और धर्म के युद्ध क्षेत्र में तो हमें चारों और से आसुरी वृत्तियों ने घेर रखा है,

और वे आसुरी वृत्तियां बार-बार देवत्‍व को

 ज्ञान/विद्या को परास्‍त करती रहती हैं।

यानि के विषय-विकार रूपी आसुरी वृत्तियों से

बार-बार परास्‍त होने के कारण ही कहा है कि

हम निर्बल है मां।

   

ना मुझ में विद्या, -

यानि के ज्ञान के विरूद्ध कर्म करना ही विद्याहीन होना है।

यानि के विषय-विकार रूपी आसुरी वृत्तियां जब हमारे मन पर हावी होती है

तो हम ज्ञान भी भूल जाते हैं,

और ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानियों वाले कर्म करते हैं।

अत: हमें ऐसा कर दो कि

 हम तुझे और तेरे ज्ञान को कभी नहीं भूलें मां।

हमें बल दो कि

हम इन विषय-विकार रूपी आसुरी वृत्तियों को

हमारे मन से सदा-सदा के लिये समाप्‍त कर सकें।

 ना मुझ ने भक्ति ना मुझ में शक्ति।

यानि के मन तेरी तरफ अल्‍प गति से दौड़ता है,

यानि के हमारी केवल तीन इन्दियां कान, आंखें और जिव्‍हा ही अल्‍प समय के लिये ही

तेरा दर्शन करती है,

तेरी वाणी/उपदेश पड़ती है, सुनती है, तेरा नाम जपती है,

 तेरी वाणी प्रसारित करती है,

लेकिन कुछ विरलों को छोड़कर

केवल अल्‍प समय के लिये ही तेरी भक्ति करती हैं।

 

इसके विपरीत हमारी पांचों इन्द्रियां संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लों को पाने की लालसा में इनके चिंतन में

इतनी खोयी रहती है कि

जैसे ही ध्‍यान करते हैं विषय-विकार, मोह-माया का आक्रमण शुरू हो जाता है,

और फिर  मन भूल जाता है कि

तेरी भक्ति कर रहा है या संसार की।

   

 इसीलिये कहा है कि मां हम भक्ति हीन हैं,

हमारे मन को तुम्‍हारी भक्ति से भर दो।

    

इसीलिये कहा है कि मां मन ने हमें शक्तिहीन कर रखा है,

    

हमारे मन का नम कर दो,

    

हमारे मन को ऐसा कर दो कि

    

हमारा मन संसार को छोड़कर तुझ में रम जायें।

जैसे कि एक कथा है-

 

एक बार अकबर नमाज पड़ रहे थे तभी एक स्त्री वहां से गुजरी

और जिस चादर पर बैठकर अकबर नमाज पड़ रहे थे,

वह उस स्त्री के पैरों से एक तरफ से उल्‍ट गई।

अकबर ने नमाज के बाद दरबारियों से उसे पकड़कर लाने को कहा और उससे पूछा कि

हम जिस चादर पर बैठकर नमाज पड़ रहे थे, उसे तुमने अपने पैरों से क्‍यों उलट दिया।

 

स्त्री ने जवाब दिया कि शहंशाह मैं तो अपने पति/स्‍वामी के विचारों में  इतनी मग्‍न थी कि मुझे ना आपकी चादर दिखी

और ना ही आप, लेकिन आप अपने खुदा/जगतपति/स्‍वामी से

दुआ/प्रार्थना में पूर्ण तल्‍लीन नहीं थे, इसलिये आपको चादर पलटने का ध्‍यान रहा।

 

अधिकतर लोग ऐसी ही भक्ति करते हैं,

मन अपने आराध्‍य में नहीं रहता,

 मन एकाग्र नहीं रहता, भटकता रहता है।

 

इसीलिये कहा कि हम तेरी माया

और हमारे मन के कारण भक्तिहीन हैं मां।

और मन से पराजित होने के कारण शक्ति हीन हैं मां।

जब तक भक्तिहीन, शक्तिहीन, ज्ञानहीन से सच्‍चे भक्‍त नहीं बनेंगे, मन को ज्ञान के अनुसार चलाने वाले बलवान नहीं बनेंगे,

 ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करेंगे, तब तक तुम्‍हारा साक्षात्‍कार/अनुभूति भी नहीं हो सकेगी।

ज्ञान कहता है कि किसे अपना कहे हम, 

यहां कौन हमारा अपना,

 माया कि नगरी है, 

जीवन है एक सपना।

     जैसे कि कमल की जड़ें कीचड़ में फैली हुई रहती हैं,

लेकिन फूल कीचड़ से सना हुआ नहीं रहता, फूल कीचड़ से दूर रहता है।

तो ज्ञान कहता है कि जैसे कीचड़/पानी आदि के बिना

फूल भी मूरझा जाता है।

तो ऐसा कोई नहीं

 जो इस संसार के आश्रय के बिना जीवित रह सके।

कमल का फूल हमें शिक्षा देता है कि गंदगी में तो रहो 

लेकिन उस गंदगी से उपर उठ कर रहो, इसीलिये पूर्व में कमल का फूल ही साधुओं को भेंट किया जाता था।

संसार व प्रकृति के सहयोग के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता।

 

इसीलिये आश्रम बनाये जाते हैं,

इसीलिये भिक्षु संघ बनाया जाता है,

 इसीलिये समाज बनाया गया है,

इसीलिये परिवार बनाया गया है।

यह सभी मुसीबत के समय हमारे काम में आते हैं।

इसीलिये कहा है कि संसार में विद्यमान प्राणीयों के साथ

करूणा, मैत्री, मुदिता, उपेक्षा का भाव रखना है।

यानि ज्ञान कहता है कि

इस संसार में किसी का भी,

किसी से भी स्‍थाई

रिश्‍ता नहीं है।

हर नये जन्‍म के साथ ही नये रिश्‍ते बन जाते हैं।

आज यानि वर्तमान में जो दादा, परदादा बनकर इस संसार से विदा हुआ है, वह भविष्‍य में किसी का पुत्र/पुत्री बन सकता है। 

 

जब तक पुत्र/पुत्री रिश्तेदारों की हम से स्वार्थ पूर्ति होती है 

तब तक ही वे हमें कुछ थोड़ा आदर-सम्मान देते है,

उसके बाद वे भी हमारे निर्धन होने या

हमारे वृद्ध होने या हमारा वर्चस्‍व घठने के बाद हमें हमारे हाल पर छोड़ देते हैं

या वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं ।

यदि कभी हमें भूले भटके पूंछते हैं,  तो भी केवल

स्वार्थपूर्ति के लिये ही पूंछते हैं।

यदि हमारे पुत्री है तो विवाह होने पर

 वह हमें छोड़कर अपने ससुराल चली जाती है।

यदि हमारे पुत्र है तो पुत्र का विवाह होने के बाद

उनकी पत्नियों का रूप व मोह हमें पुत्र से दूर कर देता है।

तथा पुत्र के लिये उसकी पत्नी

और उसके पुत्र-पुत्री ही सर्वस्व हो जाते हैं।

और कुछ अपवाद को छोड़कर

उनकी नजरों में हमारा मूल्य

एक निकम्मे व्यकित के जितना रह जाता है ।

 

अतः अधिकतर लोगों के साथ भविष्य में घटित होने वाली इस सच्‍चाई को समझ कर हम अभी से उस अदृश्‍य शक्ति  जगत की जननी मां की शरण धारण कर लें,

यानि के हमारा तन तो संसार से जुड़ा रहे, लेकिन हमारा मन संसार में विद्यमान शक्लों/पदार्थों से ध्‍यान हटाकर

हर पल उसी के लिये जिये,

हर पल उसी का ध्यान रखे,

हर पल उसके ज्ञान, 

उसकी वाणी को याद रखे,

चलते-फिरते, 

उठते-बैठते 

सोते जागते, 

खाते-पीते

केवल वही समा जाये

हमारे अंतर में 

हमारे मन में।

 

यदि आज हम देखते हैं तो यह सच्चाई वर्तमान में अधिकतर वृद्धों के साथ घटित हो रही है, उसका कारण यही है की उन वृद्धों ने युवावस्था में जवानी के नशे में अपने वृद्ध परिवारजनों के साथ कुछ ऐसा ही किया था अथवा दुर्व्यवहार किया था।

इसीलिए भविष्य में घटित होने वाली  इसी सच्चाई के कारण ही इस आरती में कहा है - 

ना अपना कोई कुटुंब साथी 

ना अपना यह शरीर साथी 

ना हम किसी के 

ना कोई हमारा

जैसा कि कहा है कि

धीरे-धीरे रे मना 

धीरे सब कुछ होय,

 माली सीचे सौ घड़ा, 

ऋतु आये फल होये।

यानि के हम उस अदृश्‍य शक्ति या जिसे भी हम मानते हैं,

उसकी शरण ले लें,

अभ्‍यास करते-करते 

इश्‍क मजाजी से 

इश्‍क हकीकी तक पहुंच जायें।

जब इश्‍क हकीकी पर पहुंच जायेंगे तो निर्विचार/निर्विकार होकर केवल सिर्फ तेरा ही ध्यान कर तेरा साक्षात्कार कर सकेंगे।

    समस्‍त निर्विषयी-निर्विकारी, निष्‍पाप गुरूओं को सादर नमन,

लेकिन  आज बहुत से बगुला भगत भी गुरू जैसे महान पद को धारण करके बैठे हुए हैं

तो उसी तरह जिस समय मजनू प्रसिद्ध हुआ था, उस समय बहुत से आलसी लोग नकली मजनू बन कर बिना कोई मेहनत के खा-पीकर मोटे ताजा हो रहे थे,

यह पता लगा पाना मुश्किल था कि कौन असली मजनू है और कौन नकली।

 एक व्‍यक्ति ने महात्‍मा से पूछा कि असली और नकली को कैसे जानें।

महात्‍मा ने कहा कि सभी से एक कटौरी खून मांगना, जो दे देगा वह असली और जो नहीं देगा वह नकली।

वह व्‍यक्ति सभी मजनूओं से मिला लेकिन कोई एक बूंद भी खून देने को तैयार नहीं हुआ,

आखिरकार वह असली मजनूं के पास पहुंचा और उससे कहा कि एक कटोरी खून चाहिये

लैला ने मंगवाया है। तो उस मजनू ने कहा कि

मेरे शरीर में हर एक रक्‍त के कतरे में वही बसी हुई है,

 उसके लिये एक कटोरी तो

क्‍या आप मेरे शरीर का सारा रक्‍त ले सकते हैं।

तो जैसा प्रेम मजनू का लैला के लिये था, जैसा समर्पण मजनू का लैला के लिये था, वैसा प्रेम जब उस अदृश्‍य शक्ति से होता है

तो उस प्रेम को ही इश्‍क हकीकी

यानि जो हकीकत है, सत्‍य है उसके साथ इश्‍क कहते हैं।

और जब ऐसा प्रेम संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लों से किया जाता है तो उसे इश्‍क मजाजी कहते हैं। यानि के प्रेय मार्ग/ इश्‍क मजाजी से इश्‍क हकीकी/श्रेय मार्ग की सीमा पर पहुंचने पर ही उस अदृश्‍य शक्ति/आराध्‍य देव का साक्षात्‍कार/अनुभूति की जा सकती है।

प्रेय मार्ग – यह सांसारिक पदाथों/शक्‍लों से

प्रेम का मार्ग है और इस प्रेम के साथ स्‍वार्थ जुड़ा होता है।

    श्रेय मार्ग – यह अदृश्‍य शक्ति से प्रेम का मार्ग है,

 लेकिन साथ ही संसार के पदार्थ/शक्‍लों के प्रति जो प्रेम होता है

 उसमें करूणा होती है, उसमें दया होती है,

परहित होता है, स्‍वार्थ नहीं होता। वासना नहीं होती।

इस प्रेम को सत्‍य सिद्ध करने वाली एक सत्‍य कथा इस प्रकार है -

वासवदत्‍ता एक नगर वधू थी।

वासव दत्ता रथ पर भ्रमण को निकली। सभी की आंखें उसके रूप यौवन पर टिकी

हुई थी। उसकी एक झलक पाने के लिये लोग आतुर थे और जिस को संग-साथ मिल जाये तो वो तो दुनियां में अपने आप को भाग्‍य शाली समझता था।

वासवदत्‍ता रथ पर सवार होकर, फूलों से सजी भ्रमण कर रही थी कि अपने पास से गुजरते बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देख कर ठिठक गई,

 उसकी आँखों को विश्वास नहीं आया कि क्‍या ऐसा सौंदर्य भी हो सकता है। उसके द्वार पर सम्राट, राजा, राजपुत्रों, नवयुवक, धनपतियों की

भीड लगी रहती थी, सभी को उसका मिलना हो भी नहीं पाता था। बड़ी महंगी थी वासवदत्‍ता।

लेकिन उपगुप्त जैसा सुंदर व्‍यक्ति उसने कभी नहीं देखा था।

वासवदत्‍ता ने रथ रोक कर उसे आवाज़ दी। अब तक लोग उसके प्रेम में पड़े थे, पहली बार वासवदत्‍ता किसी के प्रेम में पड़ी। उसने उपगुप्‍त को अपने घर आमंत्रित किया।

वासवदत्‍ता ने कहा कि भिक्षु मेरे घर आओ, बैठो रथ में, मैं तुम्‍हें अपने घर ले चलुगी,

वहां तुम्‍हारी सेवा करूगी,

सब मेरे दास बनने को आतुर रहते है, मेरा मन तुम पर आ गया है। मैं खुद तुम्‍हारी दासी बनने को तैयार हूं।’

उपगुप्‍त ने उससे कहा  कि-  ‘जिस दिन समय आएगा,

 उस दिन मैं स्‍वयं ही तुम्‍हारे कुंज में उपस्थित हो जाऊँगा।

‘आऊँगा, अवश्‍य आऊँगा।

अभी तुम्‍हें मेरी नहीं वासना की जरूरत है।

 जब तुम्‍हें मेरी जरूरत होगी तो जरूर आऊँगा

ये मेरा वादा रहा। उस समय कि प्रतीक्षा करना।’

बहुत दिन गुजर गये, वासवदत्‍ता प्रतीक्षा करती रही।

उसका मन अब और किसी में नहीं रमता था।

वह अपूर्व रूप आंखों के सामने गुजरता रहता।

इस संसार में अब राग-रंग उसे कुछ भी नहीं भाते थे।

उपगुप्‍त की वो शांत आंखें उसका पीछा करती रहती थी।

 उसकी वह आभा, वो निर्मलता, वो चाह कर भी नहीं भूल पा रही थी। रात को सपने में भी अचानक चौक पड़ती थी

दासी को आवाज देती, पसीने से सराबोर दासी उसे पानी देती।

फिर पुरी रात उसे नींद  नहीं आती। अब मदिरा ने भी अपना काम बंद कर दिया था।

वो होश को खोने की बजाय और बढा देती थी..।

लेकिन उसे विश्‍वास था कि जो उपगुप्‍त ने कहा है,

वैसा ही होगा, समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

उसका सारा जीवन बीत गया।

जाने अनजाने एक आशा कि किरण प्रकाश पुंज की तरह उसके अंदर चमकती रही ।

फिर एक रात्रि - पूनम कि रात्रि उपगुप्‍त मार्ग से जा रहे थे।

 उन्‍होंने देखा कि कोई मार्ग पर  रूग्‍ण पडा कराह रहा है।

गांव के बाहर एक निर्जन स्‍थान पर शहर कि भीड़-भाड़, चमक दमक से दुर।

उसने आवाज दी कोन है। वहां।

वासवदत्‍ता केवल कराहती रही,

उसका पुरा शरीर जर्जर, वसंत के दानों से गल सड़ गया था।

वह सुंदर काया, सुगंधित इत्रों से जो महँकती थी

वह आज गल गईं थी।

उपगुप्‍त ने प्रकाश में देखा:

‘वासवदत्ता, अरे, पहचान मुझे मैं हूँ  तुम्हारा उपगुप्‍त।

वासवदत्ता ने आंखें खोली शायद अंतिम घड़ी पास थी।

 साँसे भी मंद होती जा रही थी।

उसने उसकी छुअन को पहचान लिया, उसके जलते ज़ख़्मों में एक शांति लता उतरती चली गर्इ। आंखें में जल धार बह निकली।

उपगुप्‍त ने वासवदत्‍ता का सर उठा कर अपनी गोद में रख लिया।

और वसंत रोग से उसके चेहरे पर फफोले पर स्नेह पूर्व हाथ फेरने लगा।

वसंत का रोग जो अब तक अनुपम सुंदरी थी वही अब कुरूप बन गई। ।

जो अब तक चमड़ी पर आभा मालूम होती थी,

वह घाव बन गयी।

 सारा शरीर घावों से भरा था,  सड़ रहा था।

वासवदत्‍ता ने कहा मुझे मत छुओ,

मुझे वसंत रोग हो गया है।

 कोई मुझे छूना नहीं चाहता।

कोई प्रेमी नहीं बचा,

सब नाक मुहँ पर कपड़ा रख कर मेरे पास से गुजर जाते है।

 आज यौवन बीत गया ऐसे क्षण में कोई प्रेमी न बचा,

कोर्इ नगर में रखने को भी तैयार नहीं है।

मेरी घातक बीमारी तुम्‍हें भी लग जाएगी

उपगुप्‍त मुझे एक घूँट पानी पीला दो, दो दिन से एक बूंद पानी गले में नहीं गया। तीन दिन से मृत्‍यु का इंतजार कर रही हुं।

उपगुप्‍त ने अपने भिक्षा पात्र उसके कंठ से लगा दिया

एक जल कि बूंद कंठ को ही नहीं अंदर की आत्मा को तृप्‍त कर गई।

आंखे खुली की खुली रह गई

मानों उपगुप्‍त को निहार रही हो।

दम तोड़ दिया वासवदत्‍ता ने उपगुप्‍त की बाँहों में।

शहर से बहार फिकवा दिया था,

कही ये रोग किसी दूसरे को न लग जाए।

वही स्‍त्री जिसे लोग सर आंखें पर लिए फिरते थे,

अंतिम समय वो सर, एक भिक्षु की गोद में जिसे भी वो भोगना चाहती थी।

एक दयामय मूर्ति उपगुप्‍त ने,

 आने का, सेवा को जो वादा किया था वो पूरा किया।🙏

तो जहां वासना/कामना है और स्‍वार्थ से जुडाव है तो वह प्रेय मार्ग है,

और जहां प्रेम तो है लेकिन वासना/कामना का अभाव है और दया भाव, करूणा

भाव, सेवा भाव है वही श्रेय मार्ग है। और यही मार्ग उस अदृश्‍य शक्ति का

साक्षात्‍कार/अनुभूति करवाता है।

 

चरण-कमल की नौका

 

जैसे नाव में बैठने वाले को पानी नहीं छूता,

उसी प्रकार उस अदृश्‍य शक्ति के प्रति पूरी तरह समर्पित होने वाले को मोह-माया रूपी जल नहीं छू पाता।

 

अर्थात् तन-मन-धन से समर्पित होने पर ही वह मां हमारा हाथ थामेगी और

हमें हंसते हुए इस नश्‍वर संसार से

अर्थात् जन्म-मरण से मुक्ति मिल सकेगी।

 

जिसके साथ वह अदृश्‍य शक्ति होती है, उससे यम के दूत अर्थात् मृत्यु भी दूर भाग जाती है

अर्थात् इस संसार का सब कुछ मन से त्याग कर जो उसका  हो जाता है,

वह अपने निर्धारित मृत्यु समय पर

स्वयं हंसते हुए प्राणों का त्याग कर पाता है।

 

सदा ही तेरे गुणों को गाऊं, 

सदा ही तेरे स्वरूप को ध्याऊं।

नित प्रति तेरे गुणों को गाऊं,

 ना हम किसी के ना कोई हमारा,

 छाया है चारो तरफ अँधियारा।

पकड़ के ज्योति दिखा दो रस्ता,

शरण पड़े हैं हम तुम्हारी,

कर दो नैया पार हमारी।

 

है मां लेकिन हम तभी इस कठिन परीक्षा में

उत्तीर्ण हो सकेंगे जब तेरे गुणों का गाण करेंगे

अर्थात् जैसी तू है वैसे ही हम भी बन जायेंगे।

जैसे तूझे असुर हरणी कहते हैं

तो उसी तरह जब हमारी आसुरी वृत्तियां नष्‍ट हो जायेगी

और हम तेरे जैसे ही 

परोपकारी/

सेवाधारी/

कल्याणकारी /

न्यायकारी बनकर तुझे 

हर पल 

हर क्षण 

याद रखते हुए नित्य तेरे स्वरूप का अंतर में ध्यान करते रहें,

 

तुम्‍हारा सच्चा ध्यान तो

तभी सम्भव है मां कि जब हम

किसी भी क्षण, किसी भी पल 

बुरा कर्म नहीं करें

तथा बुरे विचारों को अपने मन में स्थान नहीं दें।

 

हम सदा यह याद रखें कि हमारा इस संसार में तुम्‍हारे सिवाय 

तुम्‍हारे अतिरिक्त और कोई नहीं।

 

तेरे अतिरिक्‍त सारे रिश्‍ते-नाते

घनघोर अंधेरे के समान है,

जिनमें जकड़े रहने के कारण

ही तेरा दर्शन नहीं हो पाता है।

तुझ में आसि‍क्त और समस्त सांसारिक शक्लों/पदार्थों से अनासि‍क्त का सतत अभ्यास करने पर ही

हमारी कामनायें/वासनायें कम होते होते न्यून हो सकेंगी

तथा हमारी आत्मा पर

जो बूरे विचारों/संस्कारों/कर्मों की कालिख लगी हुई है

वह भी कम होते-होते जब स्वाहा हो जायेगी और जैसे-जैसे हम शुद्ध होगे

 वैसे-वैस ही हमारे अंतर में विद्यमान तेरी ज्योति भी तीव्र होती जायेगी।

तेरी ज्योति के माध्यम से

तेरा साक्षात्कार करने के पश्‍चात ही हमारी नैया पार हो सकती है,

अर्थात हम जन्म-मरण रूपी इस पंच तत्व के शरीर से मुक्त हो सकते हैं।

 

है मां तुझ से प्रार्थना है कि

हमें इतनी शक्ति दे कि

हम तेरी छत्र-छाया में रहते हुए

विषय-विकार व पाप से दूर रहते हुए निष्काम कर्म करते हुए तेरा साक्षात्कार कर

जीते जी मुक्त होकर और अंत में हंसते हुए प्राणों को त्याग कर

जन्म-मरण रूपी बंधन से छूट सकें।

 सार 

चाहे हम किसी को भी मानते हों

लेकिन यदि हमने शुभ कर्म नहीं किये तो हमें दुख भोगना ही पडेगा

 

यदि हमने अपनी आसुरी वृत्तियों को समाप्‍त नहीं किया

तो हम मुक्‍त भी नहीं हो सकते।

 

 सत्‍य आचरण यानि सदाचारी ही मुक्‍त हो सकता है,

 दुराचारी नहीं।

 

दुराचारी भी यदि अंगुलिमाल, शूलपाणि, वाल्मिकी  आदि

की तरह सुधर जाये तो उसका भी कल्‍याण हो सकता है,

 

 लेकिन ऐसे दुराचारी का नहीं जो सुधरना ही नहीं चाहता हो।

 

इसमें समझाया है कि

हम अपने रिश्‍तेदारों/नातेदारों की तो क्‍या बात करें

हमारा अपना शरीर ही हमारा साथी नहीं है,

वह भी एक दिन हमारा साथ छोड देता है।

अत: सच्‍चे साथी से जुड़ें,

 उसकी अनुभूति करें

 और अपने असली घर जिसे 

सच्‍चा दरबार, 

सच्‍चखंड, 

सतलोक,

परमधाम, 

सिद्धशिला, 

पवित्र पर्वत आदि

नाम से संबोधित किया है,

 वहां पहुंच जाये।

 

सबका भला हो।

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