देह भान से देहातीत होने की यात्रा

 🙏

मनुष्य के मन का रिश्ता जुड़ा होता है 

लोकेषणा,  

पुत्रेषणा, 

वित्तेषणा से 

इसलिए उसका देह भान से नाता नहीं टूट पाता 

लोकेषणा,  

पुत्रेषणा, 

वित्तेषणा के कारण ही 

बार-बार मन को देहातीत बनाने की यात्रा अधूरी रह जाती हैं 

लोकेषणा,  

पुत्रेषणा, 

वित्तेषणा के कारण ही 

मनुष्य भूल जाता है कि 

वह यह शरीर नहीं आत्मा है।


ना जाने मनुष्य का मन कितनी बार ही आत्म भाव से भटक कर देहभान  में उलझा रहता है और 


उसकी यही भूल उसे परमात्मा से दूर करती हैं।


यदि मनुष्य कोई भी कर्म आत्म भाव में करेगा  तो 

विषय, विकार व पाप से दूर रहेगा और 

इस तरह आत्म भाव में  कर्म करने वाले का मन उसी तरह परमात्मा में समाहित हो जाता है 


जैसे कि पनिहारन सर पर घड़ा रख कर हाथ भी छोड़कर 


अपनी सखियों से बात भी करते हुए सफर तय करती हैं  


लेकिन उसका पूरा ध्यान घड़े पर केंद्रित रहता है ।


जब यह अभ्यास होता है तब 

देहभान से रिश्ता छूटता है और परमात्मा से रिश्ता जुड़ता है 


जब तक मनुष्य का मन AC  करंट की तरह रहेगा 

द्वंद्वात्मक रहेगा  

तब तक  देहभान भी  नहीं छूट सकता  और 

जो देहभान से नहीं छूटता  

वह परमानंद भी नहीं पा सकता 


लेकिन एक उसी से मन से रिश्ता जोड़ने में  वर्षों लग जाते हैं


बार-बार देहभान से रिश्ता जुड़ता रहता है 


जैसे ही आंखें देखती हैं 

देह भान से नाता जुड जाता है 


जैसे ही कान सुनते हैं 

देह भान से नाता जुड जाता है 


जैसे ही रसग्रहण करते हैं

देह भान से नाता जुड जाता है 


जैसे ही सुगंध अथवा गंध से नासिका का संपर्क होता है 

देह भान से नाता जुड जाता है 


और कामी स्त्री पुरुष 

आंख कान के कारण 

अंतर में समाहित वासना से ग्रसित

होने के कारण 

देहदान से रिश्ता प्रगाढ़ कर लेते है।


और बहुत से मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का दंभ भरते हैं 


वह भी  अपने चित्त में समाहित वासनामय संस्कारों के कारण 

🌹 स्वप्न में🌹 

इस देह के आकर्षण  में 

आत्म भाव को भूल जाते हैं 


जब स्वप्न में भी 

लोकेषणा,  

पुत्रेषणा, 

वित्तेषणा से

मन भ्रमित नहीं होता


जब स्वप्न में भी मन  

विषय विकार व पाप से भ्रमित नहीं होता


तब  सत्य रूप में आत्म भाव जागृत होता है 


देह भान समाप्त हो जाता है 


मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है

जागृत में दृष्टा भाव 

ध्यान में आराध्य को छोड़कर निर्विचार स्थिति 

यह दोनों ही तरह का ध्यान 

आत्म भाव में समाहित होने  की यात्रा पूर्ण करवाते हैं और 

परमानंद के हेतु  हैं।

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