हे प्रभु मुझे तुम असत्य से सत्य में ले जाओ असतो मा सद्गमय
SPIRITUAL GOAL आध्यात्मिक लक्ष्य
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग 1
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
इस संसार में सभी की अलग-अलग मान्यताएं हैं ।
कोई किसी नाम को सुनकर प्रसन्न हो जाता है
कोई किसी नाम को सुनकर क्रुद्ध हो जाता है
आप आस्तिक हों या नास्तिक जिस को भी मानते हैं,
उसी को ध्यान में रखते हुए इसे पढ़ने की कृपा करें।
*क्या है ईश्वर* -गुरू वशिष्ठ से पूछा था श्री राम ने ?
उत्तर मिला - *बस मन का साक्षी*
याद रखना है मुझे
यही सोते जागते
कैसे कर सकता है
कोई चोर चोरी
मन कोई कुविचार,
कपट या अहंकार
जब पता हो उसे
देख रहा है सिपाही *ईश्वर* स्वयं
है प्रभू मुझे तुम
असत्य से सत्य में ले जाओ,
अंधेरे से उजाले में ले जा,
अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जा
मृत्यु से अमरता में ले जा।
मेरे हृदय में आकर तुम
सोये हुये मेरे मन को जगा जा,
इन्द्रियों पर काबू रख पाउं
ऐसा कोई मुझे मंत्र दे जा।
नाम रूप छोडकर
जैसे लहरें सागर में समाती
वैसे बादलों से गिरकर बूंदे सृष्टि को जीवन देती सदा।
मैं भरोसे तेरे प्रभू
सारथी होकर राह दिखा जा,
सुख दुख सब एक समझूं
ऐसे मन में भाव जगा जा।
श्रीराम ने ईश्वर के संबंध में गुरू वशिष्ठ से प्रश्न किया ।
गुरू वशिष्ठ ने उत्तर दिया कि *ईश्वर मन का साक्षी है,*
यानी कि
ईश्वर मनुष्य के प्रत्येक कर्म का साक्षी है,
चाहे वह कर्म
मन से किया हो
वाणी से किया हो अथवा
शरीर से किया हो।
जैसे कि कहीं कैमरा लगा हो तो उसमें
मन के विचार रिकॉर्ड नहीं हो सकते
मन में जो अच्छा और बुरा सोच रहा हैं वह उसमें रिकॉर्ड नहीं हो सकता
लेकिन वह अदृश्य शक्ति तो मनसा, वाचा, काया
(तन, मन, वाणी)
तीनों का ही साक्षी है और उसकी रचना ऐसी है कि
मन वाणी काया द्वारा किए गए तीनों ही प्रकार के कर्म क्रियमाण कर्म के रूप में चित्त में (रिकॉर्ड) संग्रहित होते रहते है।
यदि कार्यस्थल पर कैमरा लगा हुआ हो और कार्यालय का प्रधान देख रहा हो तो सभी कर्मचारियों को पूर्णतया लगन से काम करना ही पड़ता है।
लेकिन वह परम सत्य तो मन का साक्षी है
हम कहीं भी रहे वह हमारी हरएक हरकत का साक्षी है और
हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें स्वयं के कर्मों का परिणाम भोगना पड़ता है ।
यदि किसी को पता हो कि
कोई कुकर्म/दुष्कर्म के लिए दंड अथवा सजा देने वाला अधिकारी अथवा पुलिसवाला उसे देख रहा है तो किसी अविवेकी अथवा सरपरस्त को छोड़कर कोई कुकर्म/दुष्कर्म करने की हिम्मत ही नही कर सकता है ।
संसार के अधिकतर गुरु भी यही समझाते हैं कि -
कर्मों का परिणाम तो भोगना ही पड़ेगा ।
देवी /देवता /अवतार भी कर्मों का परिणाम भोगने से नहीं बच सके तो फिर साधारण इंसान की तो बात ही क्या है।
उस अदृश्य शक्ति की दृष्टि हमारे प्रत्येक कर्म पर है, इसलिए भूल कर भी
दुष्कर्म नहीं करें
सदैव सत्कर्म ही करें
इसी तरह जो अज्ञानी है
जो किसी भी माध्यम से गुरु/ज्ञान के संपर्क में नहीं आये है।
वह तो वाल्मीकि व अंगुलिमाल की तरह अज्ञान की अवस्था में अपराध कर सकते है
लेकिन गुरु/ज्ञान के संपर्क में आने पर
वाल्मीकि व अंगुलिमाल जैसे अपराधी भी हिंसक से अहिंसक बन जाते हैं
इस परिवर्तन का कारण
केवल गुरु/ज्ञान है
तो जो किसी भी माध्यम से गुरु/ज्ञान के संपर्क में आये है और जिन्हें यह ज्ञान है कि काया, वाचा व मन से किए गए प्रत्येक कर्म तथा, मन, मन में चल रहे विचारों की निगरानी के लिए कोई प्रत्येक हलचल को देख रहा है
उसके प्रत्येक कृत्य की रिकॉर्डिंग हो रही है
तो वह मन में कैसे किसी
बुरे विचार,
अंहकार,
कपट या
अन्य किसी दूषित विचार को मन में आने दे सकता है।
ऐसे बुरे दूषित विचार,
दूषित कर्म/ दुष्कर्म के कारण ही उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति करने से वंचित रहना पड़ता है,
मुक्ति से वंचित रहना पड़ता है।
जैसे कि सिक्के के दो पहले होते हैं उसी तरह
इस ब्रहमांड के भी दो पहलू है
एक तरह ईश्वर है
दूसरी तरह संसार है,
ईश्वर की अनुभूति के प्रमुख तीन माध्यम है
ज्योति - सूर्य कोटी समप्रभ
यानी कोटी सूर्य का प्रकाश
जो कि शीतलता प्रदान करने वाला है
शब्द/धुन - यानी कि अनहद नाद - अंतर में गुंजायमान ओंकार की ध्वनि ।
परमानंद - इसकी अनुभूति ज्योति दिखाई अथवा
धुन के सुनाई देने पर होती है अथवा शरीर में चल रहे स्पंदन के कारण होती हैं।
यह तीनों लक्षण मन शुद्ध होने पर ही प्रकट होते हैं
जिसके मन में
सात्विकता होती है
सत्यता होती हैं
पवित्रता होती हैं
नेकी होती हैं
परहित होता है
निर्विकारीता होती हैं
करुणा होती हैं
दया होती हैं
निष्काम विशुद्ध प्रेम होता है
दूसरी तरफ यह प्रकृति/संसार है जो कि
सत, रज, तम का मिश्रण है।
जो अपने मन को केवल एक अदृश्य शक्ति (चाहे हम उसे कुछ भी नाम दें) की कामना रखते हुए मन से
रज और तम का त्याग करके
निष्काम भाव से मन को सात्विक बना लेते है, ऐसे शुद्ध सात्विक मन वाले ही उस
परम सत्य
परमात्मा
अदृश्य शक्ति की अनुभूति कर पाते है और
दिव्य सुख/परमान्न्द की प्राप्ति कर अंतत मुक्ति लोक में प्रवेश पाते है।
जिनके मन की प्रवृत्ति राजसिक और तामसिक है
जिनके मन में सांसारिक पदार्थों (सजीव/ निर्जीव) की कामना समाहित है
ऐसे मन वालों को पुन- इस संसार में आना पडता है।
जिसका मन राजसिक/तामसिक से परिवर्तित होकर वाल्मीकि/ अंगुलिमाल की तरह निष्काम सात्विक प्रवृत्ति का बन जाता है, ऐसे मन वाले ही उस दिव्य सुख/परमाननद की अनुभूति कर उस मुक्ति स्थल पर पहुंचने के अधिकारी बनते हैं।
है प्रभू मुझे तुम
असत्य से सत्य में ले जाओ,
सत्य
एक ऐसा शब्द है
जिसमें पूरा धर्म समाहित हैं
हम जो भी कर्म करते हैं
या तो
सतोगुण प्रधान अथवा
रजोगुण प्रधान अथवा
तमोगुण प्रधान होता है
प्रत्येक कर्म जब सत्व प्रधान हो जाता है
तब सत्य (सात्विकता) में प्रवेश होता है ।
सत्य की महिमा के कारण ही
अधिकतर सभी धर्मों पे
सत्य को प्रधानता दी है।
हम सदैव सत्य को याद रखें
इसीलिए भारत सरकार ने
सत्यमेव जयते को मुद्रा
में स्थान दिया है और
इसीलिये आज भारत में
ऐसा कोई घर नहीं जहां
सत्यमेव जयते मुद्रित
सिक्के अथवा रुपए
विद्यमान नहीं हो।
सत्यमेव जयते
सत्य की जीत होती है
इसलिए शव यात्रा में भी
समझाया जाता है
सत्य से मुक्त है।
सत्य से गत है।
ईश्वर सत्य स्वरूप है,
इसलिये उसकी अनुभूति सात्विकता/सत्य युक्त
मनुष्य को ही होती है।
तामसिकता /असत्य से युक्त
मनुष्य उसकी अनुभूति से वंचित रह जाता है और इसीलिए उसे पुन: इस संसार में आना पडता है।
इसलिये प्रार्थना की है कि प्रभू मुझे
असत्य (तामसिकता) से
सत्य (सात्विकता) में ले जाओ।
अंधेरे से उजाले में ले जाओ,
अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाओ
मृत्यु से अमरता में ले जाओ।
प्रार्थना की है कि
अंधेरे से उजाले में ले जाओ।
अंधेरा तम बुराई का प्रतीक है और
उजाला/ज्योति/प्रकाश
सात्विकता का प्रतीक है।
जैसे कि बिजली जाने पर
मन बैचेन हो जाता हैं और
जैसी ही बिजली आती है
मन प्रसन्न हो जाता है
प्रार्थना की है कि हम बुराई/ तामसिकता से सात्विकता/अच्छाई की ओर गमन करें ताकि मन शाश्वत आनन्द से परिपूर्ण हो जाये।
प्रार्थना की है कि
प्रभू हम आपको प्रतिक्षण
साक्षी मानते हुए कोई भी
अशुभ कर्म नहीं करे,
कयोंकि शुभता की ओर बढ़ने पर ही परिशुद्ध मन की अवस्था तक पहुंचने पर ही
आपके दिव्य सुख/परमानन्द की अनुभूति होती है और
जैसा कि उपनिष्षदों में
नेति-नेति कहा गया है कि
उसके स्वरूप को पूरी तरह
कोई नहीं जान पाया है,
जैसे कि अंधों के यहां
हाथी वाला आया तो
किसी ने उसकी पूंछ पकडी
किसी ने सूंड
किसी ने पांव
किसी ने कान
जिसने पूंछ पकडी उसने
हाथी का स्वरुप सांप का जैसा बताया,
जिसने सूंड पकडी उसने
हाथी का स्वरुप अजगर का जैसा बताया ,
जिसने पांव पकड़ा उसने हाथी का स्वरुप खंभे जैसी बताया।
जिसने कान पकड़ा उसने हाथी का स्वरुप पंखे जैसा बताया।
इसी तरह उसकी अनुभूति भी
लोगों ने अलग-अलग तरह से की है। उसके स्वरुप की अलग-अलग तरह से व्याख्या की है।
किसी ने प्रकाश के रूप में,
किसी ने धुन/शब्द के रूप में,
किसी ने सुगंंध के रूप में,
किसी ने नस-नाडी/ धडकन के स्पंदन में,
किसी ने रस के रूप में की है।
अत: उसकी अनुभूति हेतु
प्रकाश
(अच्छाई/पवित्रता/सात्विकता)
में मिष्काम भाव से
जीना परम आवश्यक है।
मृत्यु से अमरता में ले जा।
प्रार्थना कि है कि
मृत्यु से अमरता में ले जा,
जो मृत्यु से पूर्व जीवित अवस्था में
समस्त बुराइयों/तामसिकता को
मन से निर्वासित कर मन को
सात्विकता से परिपूर्ण कर लेता है
वहीं मृत्यु पर विजय प्राप्त कर
अमरता हासिल करता है।
मेरे हृदय में आकर तुम
सोये हुये मेरे मन को जगा जाओ,
इन्द्रियों पर काबू रख पाउं
ऐसा कोइ मुझे मंत्र दे जाओ।
मन को जगाने का
इंद्रियों पर काबू पाने का
केवल एक ही उपाय है और
वह है --स्वाध्याय --
यानी कि बाहरमुखता और
अंतरमुख्ता दोनों अवस्था मेें
ज्ञान का ध्यान रखना
स्वाध्याय -
स्वयं का निरीक्षण यानी कि
दृष्टा भाव
साक्षी भाव
कि हम हमारे
प्रत्येक कर्म पर नजर रखें कि
हम क्या कर रहे हैं और
जो हम कर रहे हैं
क्या वह ज्ञान के अनुरूप है
अथवा नहीं और इसका
क्या परिणाम हमें भोगना होगा ।
है प्रभू
हम हर क्षण आपको याद रखें कि
आप हमारे मन के साक्षी है
ऐसी हम सब पर कृपा करना,
ताकि यह हमारा जन्म-जन्मांतरों से
सोया हुआ मन जाग्रत हो सके,
है प्रभू ऐसी कृपा करना कि
हम अमरलोक को
हमारा लक्ष्य मानते हुए
हमारी इन्द्रियों पर काबू रख कर
इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों
की कामनाओं/वासनाओं का त्याग कर
केवल और केवल अमर लोक/
ब्रहमलोक को ही याद रखते
हुए अपना प्रत्येक कर्म करें।
जैसे कि नदियों के सागर में
समाहित होने पर
उनका नाम लुप्त हो जाता है
वैसे ही हम भी अपना अहं
त्याग कर
आपके उस अमर लोक
ब्रह्मलोक में समाहित हो सकें।
है प्रभू आप हमारी बुद्धि को
जाग्रत कर दो
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