आध्यात्मिक होली आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं

 


सर्वे भवंतु सुखिन:


रंगों के त्‍यौहार पर विशेष 

आ जाओ प्रभु, हम तुमको रंग लगाएं 

होली का त्यौहार मनाए 

तेरे चरणों में झुक जाए 

तेरी जय जयकार बुलाएं

आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं


तन मन रंग दो रंग लगाकर 

राग द्वेष ना बाहर झाके।

सूरत रंग दो,  रंग दो सांसे 

राज करो मेरे मन पर आकर 

आ जाओ प्रभु हम दर्शन तेरा पाए 


सारे पाप मेरे धुल जाएं

मेरा मन निर्मल हो जाए

बस  दिल इतना ही चाहे

आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं


चरणों में अपने मुझको जगह दो।

 जनम जनम के फेर मिटा दो

आ जाओ प्रभु हम तेरी कृपा चाहे 


तेरा कोई नहीं है सानी 

तुझसा कोई नहीं है ज्ञानी

 तूने लाखों भाग्य बनाएं


आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं 

होली का त्योहार मनाए

तेरे चरणों में झुक जाए 

तेरी जय जयकार बुलाए 

आ जाओ प्रभु हम तेरी महिमा गाए


आ जाओ प्रभु हम दर्शन तेरा पाएं  

आ जाओ प्रभु हम रंग में तेरे रंग जाए

आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं







आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं

होली का त्यौहार मनाए

तेरे चरणों में झुक जाए

तेरी जय जयकार बुलाएं  


इस संसार में जो कुछ है 

सब उस अदृश्‍य शक्ति के कारण से है। 


हर फूलों में रंग उसी ने भरा है,


हर पेड-पैाधों में उसी ने रंग भरे हैं ,


सूरज-चांद, तारे आदि‍ सभी उसकी अद्भुत , अनुपम कृति है।


इन्‍द्र धनुष्ष के सात रंग भी उसकी अद्भूत रचना का ही एक भाग है। 


यह सात रंग हमारे अंदर भी विद्यमान है, 


हमारे शरीर के मुख्‍य सात चक्रों में सात रंग विद्यमान हैं, 


मूलाधार- लाल,

स्‍वाधिष्‍ठान - नारंगी, 

मणिपूरक - पीला, 

हृदय - हरा, 

विशुद्ध/कंठ - हल्‍का नीला, 

आज्ञा चक्र - गहरा नीला,

सह्रस्रार - बैंगनी/सफेद रंग स्थित है। 


रेकी में इनके  द्वारा ही साधना की जाती है ।


इस भजन में कहा है कि -

है प्रभू जैसे हर शुभ कार्य करने से पहले 

तुझे याद किया जाता है, 


भोजन ग्रहण करने से पहले भी 

प्रभू को याद किया जाता है।


दुकान/घरआदि का शुभारम्‍भ करने से पूर्व भी

प्रभू को याद किया जाता है।


विवाह के दौरान भी प्रभू को याद किया जाता है। 


ऐसा कोई शुभ कार्य नहीं, 

जिसमें प्रभू को याद नहीं किया जाता हो।



तो चाहे होली हो 

दीपावली हो 

प्रभू को या‍द किया जाता है। 


होली भी रंग के रूप में 

हमारे अंदर विद्यमान है


दीपावली की जगमग भी

हमारे अंदर ज्‍योति/प्रकाश के रूप में विद्यमान है।


 

हर त्‍यौहार प्रभू की महिमा का ही बखान करता है। 

जैसे कि होली के पीछे मान्‍यता है कि -

होलिका को वरदान था कि 

उसे अग्नि जला नहीं सकती थी 

अत- हिरण्‍याकश्‍यप ने 

प्रभू भक्‍त प्रहलाद को मारने के लिये 

होलिका जो उसकी बहन थी और 

प्रहलाद की बुआ थी। 


चिता सजा कर होलिका की गोद में 

प्रहलाद को बैठा दिया और 

चिता को आग लगा दी गई।


लेकिन प्रभू कृपा से वरदान उल्‍टा हो गया 


होलिका जल गई, 


प्रहलाद बच गया। 


इस खुशी में ही सब एक दूसरे को रंग लगाकर  

होली का त्‍यौहार मनाते हैं। इसलिये 

उस अदृश्‍य तत्‍व की महिमा के कारण 

इस भजन में प्रार्थना की है कि -


है महान अदृश्‍य शक्ति, 

हम आपका आहवान करते हैं, 

आप अपना दिव्‍य दर्शन हमें दें, 

अपने रंग में हमें  रंग लें। 


जैसे अग्नि में पड़ा हुआ लोहा 

अग्नि की तरह लाल हो जाता है, 


उसी तरह हम भी तेरे रंग में रंग जायें।


है सर्वशक्तिमान 

आपने विशालकाय पृथ्‍वी, सूर्य,चन्‍द्र, नक्षत्र व

अन्‍य ग्रहों/उपग्रहों आदि को हवा में अधर लटका रखा है, 


बिना किसी करंट के लट्टू की तरह घुमा रखा है। 


इस संसार में 

आपकी जैसी पावर,

आपके जैसा करंट, 

आपके जैसी उर्जा 

किसी के पास भी नहीं।


मनुष्‍य के द्वारा तैयार की गई बिजली,

मनुष्‍य के द्वारा किये गये अविष्‍कार 

वाहन, टी;वी;, मोबाईल आदि सभी 

मनुष्‍य द्वारा निर्मित उर्जा/करंट आदि से चलते हैं


लेकिन प्रभू आप तो उर्जा के ऐसे पुंज है, 

जिसकी उर्जा  इस पूरे ब्रहमांड में बह रही है। 


मनुष्‍य द्वारा निर्मित उर्जा उत्‍पन्‍न होती है और 

समाप्‍त हो जाती हैा

 

लेकिन आपकी उर्जा, 

आपकी पावर, 

आपकी करंट 

युगों युगों से चली आ रही है,

आपकी उर्जा 

अनन्‍त है,

असीम है,

कभी समप्‍त नहीं होने वाली है। 


है प्रभू सभी आपकी उर्जा से चल रहे हैं, 

यह शरीर भी आपकी  उर्जा के कारण चलायमान है, 

नहीं तो 


पृथ्‍वी नहीं तो जीवन कहां, 

सूर्य/अग्नि नहीं तो जीवन कहां, 

जल नहीं तो जीवन कहां, 

वायु नहीं तो जीवन कहां, 

खुला आकाश नहीं तो जीवन कहां।


 

आपकी महानता के आगे 

हम आपके समक्ष नतमस्‍तक हैं 


और इसीलिये धरती, अम्‍बर, वायु, अग्नि, जल आदि सभी 

आपकी जय जयकार कर रहे हैं।  




तनमन रंग दो रंग लगाकर,

राग द्वेष ना बाहर झाके।

सूरत रंग दो,  रंग दो सांसे 

राज करो मेरे मन पर आकर

आ जाओ प्रभु हम दर्शन तेरा पाए 

सारे पाप मेरे धुल जाएं, 

 मेरा मन निर्मल हो जाए, 

बस  दिल इतना ही चाहे


एक वैज्ञानिक ने प्रयोग किया था कि 

जब सात रंग मिलते हैं

तो सफेद रंग बन जाता है।

उसने एक चक्र पर सात रंग भरे और 

उस चक्र को तेजी से घुमाया 

गति तेज होने पर केवल सफेद रंग नजर आ रहा था। 


आज तो विज्ञान इतना विकसित हो गया है कि 

तीन रंग लाल/मेगेन्‍टा, पीला,  नीला से ही 

सारे रंग बन जाते हैं। 



सफेद रंग पर ही 

किसी भी रंग का वास्‍तविक रंग चढ सकता है। 

यदि सफेद रंग नहीं तो दूसरे रंग भी नहीं पहचाने जा सकते हैं। 

सबसे महत्‍वपूर्ण सफेद रंग है। 

सफेद रंग सात्‍वकिता का प्रतीक है


सफेद रंग का उपयोग 

अधिकतर धर्मों में किया जाता है। 

सफेद रंग पवित्रता का प्रतीक है,


इसमें सारे ही रंग समाहित है। 




राग द्वेष ना बाहर झाके।


कबीरा खड़ा बाजार में 

मांगे सब की खैर 

ना काहू से दोस्‍ती (राग)  

ना काहू से बैर (द्वैष)


सबका भला 

लेकिन मन केवल एक से बंधा हुआ है,

केवल एक से ही प्रीति है, 

शेष से तटस्‍थता है।

यही राग और द्वेष से मुक्‍त होना है। 


यही सबसे कठिन काम है,

मन यही होने से रोकता है।

यह हो जाये तो 

मन भी वश में हो जाता है। 


मन रागरहित यानि वैरागी हो जाता है। 

यदि जीवन में राग नहीं 

तो जीवन में उस अदृश्‍य तत्‍व के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं। 


यानि के जब राग और द्वैष समाप्‍त होंगे 

तब हमारा मन पवित्र होगा, 

हमारा मन शुद्ध होगा, 

तो प्रभू से प्रार्थना की है कि 

राग-द्वैष रूपी गंदगी 

हमारे मन से निर्वासित हो जाये। 


यानि जहां भी गंदगी है व

हां सफेद रंग मटमैला ही नजर आयेगा 


और प्रभू तो पवित्र हैं, 

जब तक राग-द्वैष समाप्‍त नहीं होंगे, 

हमारा मन उज्‍जवल नहीं होगा, 

तो हमारी सूरत भी प्रभू के रंग में नहीं रंग पायेगी।

प्रभू आप हमारी सूरत को अपने पवित्र रंग में रंग दो, 

प्रभू आप हमारी सांसों को आपके पवित्र नाम के रंग में रंग दो। 

प्रभू आप हमारे मन के स्‍वामी बन जाओ,


जैसे नौकर मालिक कीआज्ञा के अनुसार कार्य करता है

वैसे ही हम भी आपकी आज्ञा के अनुसार कार्य करें और 

कोई भूल नहीं करें। 

क्‍योंकि भूल ही तो है

जो अमरता को छीनकर मृत्‍यु की ओर ले जाती है। 

यानि मोक्ष/निर्वाण/मुक्ति/कैवल्‍य से मृत्‍यु

यानि जन्‍ममरण के चक्र में फंसा देती है।

 


एक मूर्तिकार था, 

ऐसी मूर्ति बनाता था कि

जीवित मनुष्‍य और मूर्ति में 

कोई अंतर नहीं बता सकता था।

उसे ज्ञात हुआ कि उसकी मृत्‍यु आने वाली है, 

उसने स्‍वयं की दस मूर्ति बना ली। 

मृत्‍यु के आते ही सांस रोककर 

उन मूर्तियों के बीच खड़ा हो गया। 


मृत्‍यु पहचान नहीं पायी। 

मृत्‍यु ने प्रभू से पूछा कि कैसे पहचानू। 

प्रभू ने उसे ज्ञान दिया। 

मृत्‍यु वापस गई और मृत्यु ने वहां जाकर कहा कि 

मूर्तियां बहुत अच्‍छी बनायी हैं, 

लेकिन बनाने वाले से एक भूल हो गई है। 


तभी एक मूर्ति से आवाज आई कि 

कौन सी भूल।


मृत्‍यु ने कहा यही भूल कि

तुम बोले-  कौन सी भूल 

क्‍योंकि तुम्‍हेंअपने पर विश्‍वास नहीं था कि 

तुम मूर्ति बनाते वक्‍त कोई भूल कर सकते हो। 


यह कहानी शिक्षा देती है कि 

यदि मृत्‍यु से बचना है 

तो एक भी भूल/गलती नहीं करनी है, 


यदि भूल/गलती की यानि प्रभू आज्ञा के विपरीत कर्म किये तो 

हमें मृत्‍यु (जन्म मरण के चक्र)  से कोई नहीं बचा सकता।  

यानि जो भी करें प्रभू को याद रखते हुए केवल शुभ कर्म ही करें।

हमारा मन आपकी प्रेरणा के अनुसार ही केवल शुभ् कर्म करें। 


सूरत– 


अलग-2 धर्मों में इसकाअलग-अलग अर्थ लगाया जाता है


1-    अद़श्‍य आत्‍मा

2-    अंतर में शब्‍द/धुन को सुनना

3-    ध्‍यान/परमात्‍मा को याद करना। 

4-     स्‍मृति 



चाहेअलग-अलग मत वाले 

अलग-अलग अर्थ लगाते हैं, 

लेकिन यह चारों  ही एक दूसरे से जुड़े हैं।


यानि जब हम श्‍वासों के माध्‍यम से

ध्‍यान के माध्‍यम से 

उस परमात्‍मा को याद करते हैं, 

तब ही एक दिन ऐसी स्थिति आती है कि 

अंतर में अदृश्‍य शब्द/धुन सुनाई देने लगते हैं, 

ज्‍योति/प्रकाश भी दिखाई देने लगता है।

प्रभू का साक्षात्‍कार तभी सम्‍भव है, 

जब मन शुद्ध हो। 

सूरत तब  प्रभू रंग में रंगती है, 

जब मन संसार से कट कर प्रभू से जुड़ता है । 

प्रभू को ही अपना सच्चा साथी, सच्चा परिवार स्वीकार करता है ।


जैसे कोई कहीं नौकरी करता है 

तो वह जहां नौकरी करता है 

वहां भी एक परिवार बनता है, 


लेकिन उस परिवार से इतनी प्रीति 

इतना प्‍यार नहीं रहता, 

जितना अपने परिवार के साथ 

अपने रिश्‍तेदारों के साथ रहता है। 


तो आध्‍यात्‍मकि दृष्‍ट‍ि से 

हमारा सच्‍चा रिश्‍ता उ

स अदृश्‍य शक्ति के साथ है, 

वही हमारा सच्‍चा परिवार है 

वह अदृश्‍य तत्‍व ही हमारा सब कुछ है, 



इसीलिये कहा है 

त्‍वमेव माता, च् पिता त्‍वमेव 

त्‍वमेव बंधु च् सखा त्‍वमेव, 

त्वमेव विद्या, द्रविणं त्वमेव 

त्वमेव सर्वं मम देव देव



हमारा जो परिवार है 

वह नौकरी वाले परिवार की तरह है, 

जिनसे हमारा रिश्‍ता-नाता बदलता रहता है।

कभी हम किसी के पुत्र /पुत्री बनते हैं 

तो अगले जन्‍म में वही हमारे माता-पिता, दादा-दादी आदि बन जाते हैं।


इसीलिये आरती में भी कहा है 

मात-पिता तुम मेरे, 

तुम बिन कोई ना दूजा।


इसीलिये इस भजन में कहा है कि - 

तन मन रंग दो रंग लगाकर, 

राग द्वेष ना बाहर झाके।

सूरत रंग दो, 

रंग दो सांसे राज करो मेरे मन पर आकर,

 

आ जाओ प्रभु हम तुमको रंग लगाएं 

 आ जाओ प्रभु हम दर्शन तेरा पाए 


प्रभू से प्रार्थना कि है कि हम आपका दर्शन पायें प्रभू

 है प्रभू आपको याद रखते हुए कर्म करने का अभ्‍यास करते-2

 निष्‍पाप बन जाये, 

ज्ञान की गंगा में नहाते-नहाते हमारे सारे पाप धूल जायें।  


जैसा कि 4 पुरूषार्थ हैं-

काम, 

अर्थ, 

धर्म, 

मोक्ष

गुरू वाणी/उपदेश के अनुसार 

धर्म एक ऐसा अंग है, 

जिसका पालन 

जन्‍म से लेकर मरण तक करना ही होता है।

विवाह होने से पूर्व तक का समय 

विद्या अध्‍ययन कर आ‍जिविका हासिल करने के लिये निर्धारित किया है, और 

विद्या अध्‍ययन के दौरान काम से विरत रहना अनिवार्य है,

विवाह के पश्‍चात् से सेवा निवृत्ति तक अथवा 50 वर्ष की आयु तक 

अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री,भाई-बहिन आदि के प्रति कर्तव्‍य का निवर्हन। 

इसमें भोग की छूट है,लेकिन धर्मपूर्वक 

गुरू वाणी/उपदेशको ध्‍यान में रखते हुए भोग करने की अनुमति है, 


इस अवस्‍था में काम के द्वारा सृष्टि का संचालन,

अर्थ /धन उपार्जन द्वारा अपने से बड़े व छोटों की पालना व 

सामर्थ्‍य अनुसार जरूरतमंदों की मदद  करना।  

सेवा निवृत्ति

यानि के संसार की सेवा से मुक्‍त होना, 

यानि के मन की संसार से निवृत्ति और 

मोक्ष की और प्रवृत्ति का अभ्‍यास करना।  


यह वह समय होता है जब बीमारी का कारण और कुछ नहीं 

केवल और केवल इन्द्रियों के भोग होते हैं,

क्‍योंकि इतनी दीर्घ अवधि तक भोग करने के कारण 

शरीर इस स्थिति में नहीं रहता कि 

भोगों के अत्‍याचार को सहन कर सके। और

भोगों के शरीर पर अत्‍याचार के कारण ही 

चिकित्‍सालय की शरण लेनी ही पडती है, 

अत्‍यधिक भोगी को ऑपरेशन भी करवाना पडता है। 

संसार केअधिकतर लोगों को इसी अवस्‍था में अहसास होता है कि

जिस पुत्र/पुत्री  का सबसेअधिक ध्‍यान रखा,

सबसे अधिक चाहा उसका मन अब उनसे हटकर 

अपनी पत्‍नी/पति तथा अपने पुत्र/पुत्री पर लग गया है। 


सेवानिवृत्ति का अर्थ ही यह है कि 

अब भोगों पर विराम और 

धर्म मय जीवनका शुभारम्‍भ।


जैसे सर्दी, गर्मी, वर्षाआदि के मध्‍य कुछ समय ऐसा होता है,

जब ना सर्दी सताती है, ना गर्मी और ना वर्षा । 

तो उसी तरह सेवानिवृत्ति के पश्‍चात का समय भी 

उस अदृश्‍य तत्‍व की अनुभूति करने के लिये होता है। 

इसीलिये तो कहा है कि 

जिसने उस अदृश्‍य तत्‍व की अनुभूति कर ली 

वह सम्राट और जिसने नहीं की वह कंगाल। 


उस अदृश्‍य शक्ति से प्रार्थना है कि 

सभी दीर्घायु हों, 

लेकिन ऐसा कोई नहीं जो उत्‍पन्‍न हुआ हो और 

फिर नष्‍ट नहीं हुआ हो।


एक कहानी में इस प्रकार बताया है कि

एक टोकरे में मुर्गे भरे हुए थे, 

दाना भी भरा हुआ था, 

नीचे वाला घुटन होने के कारण 

उपर आने के लिये प्रयास कर रहा था।

कुछ परेशान थे,

 कुछ दुखी और कुछ सुखी ।

कसाईआया मुर्गे निकाल कर उनका सर काट-काट कर फेंकने लगा। 

टोकरे में स्‍थान बढने लगा। 

कुछ मुर्गों ने खुशी के मारे बांग भी निकाली।

लेकिन कुछ ही समय में सन्‍नाटा छा गया

 टोकरे में मुरगों के कटे हुए लोथड़ों के अलावा कुछ नहीं बचा। 


तो यह परम सत्‍य है कि एक दिन इस संसार से जाना है,

सिकंदर महान की तरह सारा साम्राज्‍य,

धन,वैभव, एैश्‍वर्य सब कुछ यहीं छोड.कर खाली हाथ जाना है। 

तो हमारा जीवन भी ऐसा ही संघर्षमय है। 

कुछ लोग दबे हुए है, 

कुछ उपर उठने का प्रयास कर रहे हैं। 

कुछ सुखी है, कुछ दुखी हैंl  

प्रतिपल प्रतिक्षण म़त्‍यु होती है।  

अपने निकटस्‍थ लोगों के

 संसार से विदा होने का द़श्‍य बार-बार देखकर भी 

मौत से अंजान रहतेे हैं,


मनुष्‍य ने मौत से बचने के बहुत प्रयास किये,

अमर होने के लिये प्रयास किये 

लेकिन कोई नहीं बच सका। 

जो बालि,रावण आदि की तरह विकारी था,

यानि राक्षस प्रवृत्ति के थे, 

समय से पूर्व ही इस संसार से  

तीर के दर्द से तड़पते हुए विदा हुए।  


जो समझदार थे, उन्‍होंने म़त्‍यु के स्‍वागत की तैयारी की, 

जेसा कि श्रीराम और उनके तीनों भाईयों ने उचित समय आते ही

यानि यह अहसास होते ही कि हमारी संतानें सभी का ध्‍यान रखने, 

सभी को सम्‍भालने में सक्षम है, 

हर तरह से परिपक्‍व है 

इस को ध्‍यान में रखते  जीते जी ही जल समाधि ली थी।


दुष्‍ट प्रवृत्ति के कारण 

कौरव दर्द सहते हुए मरे और 

पांडवों ने अपना शरीर स्‍वचेछा से त्‍यागा। 

ऐसे और भी उदाहरण मिल सकते हैं। 


जो जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक नहीं सम्‍भलता या 

वाल्मिकी जी, अंगुलिमालकी तरह नहीं सम्‍भलता 

तो उसकी वृ्द्धावस्‍था बड़ी दुखदायी गुजरती है,


भोग, भोगना चाहता है,

लेकिन भोग नहीं सकता, 

कमर झुकने लगती है, 

दांत टूटने लगते हैं, 

श्रवण शक्ति पर असर होने लगता हैै ,

आंखें जवाब देने लगती है, 


मोतियांबिंद,पथरी, दिल,अपेंडिक्‍स, हार्निया  आदि का आपरेशन हो जाता है। 


तामासिक पदार्थों का सेवन करता है, 

स्‍वादु पदार्थों के कारण पेट दर्द, 

मदिरा सेवन करने से लीवर खराब, 

काम वासना से क्षय रोग/खांसी दमा, 

यानि के  सेवानिवृत्ति  से पहले नहीं 

तो उसके बाद तो 

निर्विकार, निर्विषयी,निष्‍पापी बनना ही होगा।


वाल्मीकि जी का नाम 'रत्नाकर' था, 

डाकू थे,  परिवार के पालन हेतु 

लोगों को लूटा करते थे। 

एक बार नारद मुनि मिले, 

तो उन्हें लूटने का प्रयास किया।

नारद जी ने पूछा कि- 

"तुम यह निम्न कार्य किसलिए करते हो?"

जवाब मिला - "अपने परिवार को पालने के लिए"। 


नारद ने प्रश्न किया कि- 

"तुम जिनके लिये अपराध करते हो 

क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे?" 


इसका उत्तर जानने के लिए 

रत्नाकर, नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर गए।

तब सत्य से परिचय हुआ। 

उन्होंने घर वालों से पूछा कि- 

"मैंं राहगीरों  को  लूटकर तुम्‍हारा पालन-पोषण करता  हूंं ,

इस पाप कर्म के लिए जब मुझे दण्ड मिलेगा तो

क्या  तुम  मेरे पाप कर्म में भागीदार बनोगे ?" 

लेकिन परिवार का कोई भी व्यक्ति 

उनके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं था। 

नारद जी ने समझाया , 

यदि तुम्हारे पाप कर्म में परिवार वाले 

भागीदार नहीं बनना चाहते तो पाप कर्म क्‍यों करते हो।

ज्ञान पाकर रत्नाकर नाम जप करने लगे 

लंकिन राम  की जगह 'मरा-मरा' निकलने लगा 

लेकिन रटते-रटते मरा-मरा ही 'राम' हो गया और 

निरंतर जप करते-करते हुए वह रत्‍नाकर से ऋषि वाल्मीकि बन गए। 


 

इसी तरह

अंगुलीमाल डाकू था। 

भगवान बुद्ध के सम्‍पर्क में आया और 

उनकी वाणी, उनके तेज से प्रभावित होकर

हिंसक से अहिंसक बन गया। 

अंगुलिमाल लोगों को लूटता था, मार देता था और

उनकी  ऊँगली काट कर 

उसकी माला बनाकर पहनता था।  

जहां अंगुलिमाल रहता था, 

वहां से एक दिन भगवान बुद्ध गुजरे। 

अंगुलिमाल तलवार लेकर उनके पीछे दौड़ा, 

पर उनकी दिव्यता के कारण 

उन्‍हें पकड़ नहीं सका।  

थक कर उसने कहा- “रुको” बुद्ध रुक गए और बोले- 

मैं तो कब का रुक गया पर तुम कब ये हिंसा रोकोगे। 

अंगुलिमाल ने कहा 

मैं सबसे शक्तिशाली हूं, 

जो कुछ है मेरे हवाले कर दो।


बुद्ध ने कहा  सिद्ध करो कि तुम सबसे शक्तिशाली हो ।


“तुम पेड़ से दस पत्तियां तोड़ कर लाओ”, 

फिर कहा अब इन पत्तियों को वापस पेड़ पर लगा दो।

अंगुलिमाल ने हैरान होकर कहा- 

टूटे हुए पत्ते कहीं वापस लगते हैं क्या ? 

तो बुद्ध ने कहा  जब तुम इतनी छोटी सी चीज़ को वापस नहीं जोड़ सकते

तो तुम सबसे शक्तिशाली कैसे हुए ? 


यदि तुम किसी चीज़ को जोड़ नहीं सकते 

तो कम से कम उसे तोड़ो मत, 

यदि किसी को जीवन नहीं दे सकते

तो उसे मृत्यु देने का भी तुम्हे कोई अधिकार नहीं है।


अंगुलीमाल को अपनी गलती का एहसास हो गया।

और वह बुद्ध का शिष्य बन गया।

बहुत बड़ा सन्यासी बना। 

अंगुलिमान सुधरा तो ऐसा सुधरा कि 

लोगों ने उसे इतना मारा कि 

उसके मुंह से खुन निकल आया। 

लेकिन उसने शक्तिशाली होते हुए भी

किसी को नहीं मारा। 

और उसके सुधरने का 

सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि - 


उसने एक बार देखा कि 

एक महिला प्रसव पीड़ा से कराह रही थी,

चिल्‍ला रही थी,

द़श्‍य देखकर अहिंसक बने अुगुलिमाल का हृदय द्रवित हो गया। 


वह भगवान बुद्ध के पास पहुंचा और उस महिला की व्‍यथा सुनाई। 

भगवान बुद्ध ने कहा कि तुम वहां पर जाओ और कहो कि मैंने यदि पुण्‍य कर्म ही किये हैं तो इस महिला का प्रसव शांति से हो जाये।

अंगुलिमाल ने कहा कि

भगवन मैने तो बहुत सारे पाप भी किये हैं। 

तब भगवान बुद्ध ने कहा कि तुम कहना कि – 


यदि मैंने अंगुलिमाल से अहिंसक बनने के बाद 


केवल पुण्‍य कर्म ही किये हो 


तो इस महिला का प्रसव शांति से हो जाये। 


और अंगुलिमाल का पुण्‍य कर्म काम आया, 


वह महिला जो चिल्‍ला रही थी,

 कराह रही थी, शांति के साथ 

उसका प्रसव सम्‍पन्‍न हुआ।


हम जो करते हैं, वही हमारे पास वापस लौटता है,

अच्‍छा तो अच्‍छा और बुरा तो बुरा। 

यानि किसी की आह का कारण बने 

तो हमारी आह निकलना सुनिश्चित है, 


और किसी की वाह/प्रसन्‍नता के कारण बने हैं, 

तो हमें भी आंतरिक प्रसन्‍नता मिलना सुनिश्चित है। 


चाहे देर हो सकती है, लेकिन न्‍याय तो होकर ही रहता है।

पाप का जो मूल कारण है 

विषय (रूप, रस, गंध, शब्‍ध, स्‍पर्शआदिइन्दियों के भोग) –

विकार (काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,मत्‍सर में लिप्‍पता) आदि 

यानि विषय-विकार पाप रूपी मल, तेरे ज्ञान रूपी साबुन 

(अहिंसा,सत्‍य,अस्‍तेय,ब्रहमचर्य,अपरिग्रह, शौच,संतोष ,तप,

स्‍वाघ्‍याय,ईश्‍वरप्राणिधान, ध्‍यान आदि) के द्वारा धूल जायें। 


जब गंदा रंग मन से उतरेगा तभी  

प्रभू  आपका पवित्र रंग चढ़ेगा 

तेरे ज्ञान रूपी साबुन से 

हम शुद्ध/पवित्र/पाक बनकर निष्‍पाप हो जायें

निर्विकारी हो जायें 

तेरे दर्शन की शर्त विषय-विकार व पाप को ध्‍यान के माध्‍यम से  पूरा कर तेरा दर्शन कर सकें। 


जैसे कि किसी भी नौकरी को हासिल करने की 

एक योग्‍यता निर्धारित की जाती है। 

वर्तमान में न्‍यूनतम योग्‍यता आठवीं/दसवीं आदि निर्धारित है 

तो जैसे अनपढ या कम पढ़े लिखे को 

नौकरी नहीं मिल सकती।


उसी तरह ध्‍यान के माध्‍यम से 

निर्विषयी, निर्विकारी, निष्‍पाप बनने के बाद ही  

उस अद़श्‍य शक्ति की अनुभूति की जा सकती है,

जिसका परिणाम  परमान्‍नद/दिव्‍य  सुख है। 

और यदि परमान्‍नद/दिव्‍य  सुख की अनुभूति नहीं तो 

मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/कैवल्‍य आदि की प्राप्ति भी नहीं की जा सकती है। 


माइकल जैक्सन डेढ़ सौ साल जीना चाहता था 

12 डॉक्टर रोज उसकी जांच करते थे । 

खाना लेबोरेटरी में चैक होता था। 

15 लोग व्यायाम कराते थे।  

लेकिन 51 साल ही जीवित रहा।


यानी 50 साल के बाद का जीवन  

उस अदृश्य शक्ति द्वारा भिक्षा/ उपहार/बख्शीश की जिंदगी होती है ।

यानी 50-60 साल की उम्र के बाद 

तो धर्म मय जीवन जीना ही चाहिए। 

मन का मैल खत्म करना ही चाहिए 


उसके रंग में रंगने का प्रयास करना ही चाहिए


उस अदृश्य का दर्शन करने का प्रयास करना ही चाहिए ।


50 वर्ष की उम्र के बाद अथवा 

सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन

भिक्षा/ उपहार/बख्शीशके जीवन की तरह है, 

जो पता नहीं कब समाप्त हो जाए । 


इस मन को  विषय-विकार ने मैला कर रखा है। और 

विषय विकार के कारण ही 

मनुष्‍य पाप कर्म करता है।


चाहे कोई  रैदास कबीर की तरह गृहस्थ हो अथवा

कोई गृहस्थ छोड़कर वन, जंगल, या अन्यत्र रहे।

सफल वही होता है 

जिसका मन संसार से अलग होता है ।


क्योंकि  तन संसार से अलग हो ही नहीं सकता  

जब तक जीवन है 

तब तक संसार का संबंध तन से जुड़ा हुआ रहता ही है।  


अतः  जब यह मन संसार से हटकर 

प्रभू/गुरू की वाणी के अनुसार चलना प्रारम्‍भ करता है,

तब मन का यह मैल उतरने लगता है, 

तब  विषयों इन्दियों के भोगों की चाह नहीं  रहती है 

और 

जब इन्द्रियों के भोगों की चाह नहीं रहती  

तो विकार भी स्‍वत: ही नष्‍ट हो जाते हैं और 


जब विकार नष्‍ट होते हैं

तो पाप भी स्‍वत: ही नष्‍ट हो जाता है। और। 


मन उज्‍जवल हो जाता है 

ओर जब मन उज्‍जवल होता है,


तो जैसा कि गीता में लिखा है कि 


शीतलता प्रदान करने वाला 

हजारों सूर्य के बराबर का प्रकाश 

अंतर में प्रकाशित होता है।


कुछ गुरूओं ने इस प्रकाश की 

अलग-अलग विवेचना की है।


उस प्रभू का ही ज्ञान 

आज हर गुरू शिष्‍यों को प्रदान करते हैं, 

अत: वह  प्रभू गुरूओं का भी गुरू है।


उस परम गुरू परमात्‍मा के समान कोई नहीं, 

उसके जैसा ज्ञानी कोई नहीं, 

उसके जैसा दानी कोई नही। 

उसी ने लाखों आत्‍माओं को अपने स्‍वरूप को दिखाकर 

जन्‍म -मरण के चक्र से मुक्‍त किया है। 

यह सब कुछ तभी सम्‍भव होता है जब 

उसके अतिरिक्‍त 

कोई चाह नहीं रहती।

कोई कामना नहीं रहती       

कोई वासना नहीं रहती।


परमानन्‍द/दिव्‍य सुख/प्रभू दर्शन/आत्‍म दर्शन आदि 

मनुष्‍य के मन के संस्‍कारों पर आधारित है, 

जैसे कोई जन्‍म से निर्धन हो 

लेकिन अपने कर्मेां के कारण

निर्धन से धनवान बन जाता है।


कोई जन्‍म से धनवान हो 

लेकिन अपने कर्मो से निर्धन बन जाता है। 


उसी तरह परमानन्‍द/दिव्‍य सुख/प्रभू दर्शन/आत्‍म दर्शन की प्राप्ति के लिये

निकृष्‍ठ से उत्‍त्‍म, 

उत्‍तम से अति उत्‍तम और

अति उत्‍तम से सर्वोत्‍तम

 बनना अनिवार्य शर्त है।


अश्‍व की नस्‍ल पर एक उपदेश है, कि  

4 तरह के अश्‍व होते हैं। 


सर्वोत्‍तम अश्‍व  –

जो कोड़े की छाया देखकर ही चल पड़े।


अति उत्‍तम अश्‍व -  

जो कोड़े की फटकार सुनकर  चल पड़े।


उत्‍तम अश्‍व -     

जो कोड़े की चोट खाकर चल पड़े।


निकृष्‍ठ अश्‍व ‘- 

जो खुब कोड़े खाये फिर चले और फिर रूक जाये फिर कोड़े खाये फिर चले।


ऐसे ही मनुष्‍य भी 4 तरह के होते हैं, 


सर्वोत्‍तम मनुष्‍य - 

तो वह है जो गुरू का उपदेश कानों में पड़ते ही 

उसकी पालना प्रारम्‍भ कर दे।

 यानि 


गुरू की सत्‍य वाणी रूपी ज्ञान


चाहे ज्ञान मनुष्‍य को किसी के भी द्वारा

किसी भी माध्‍यम के द्वारा प्राप्‍त हो अथवा 

मनुष्‍य की इन्द्री के सम्‍पर्क के द्वारा ज्ञान  प्राप्‍त हो , 

यानि चाहे कानों के द्वारा ज्ञान प्राप्‍त हो अथवा 

आंखों के द्वारा  पढकर अथवा सुनकर ज्ञान प्राप्‍त हो

वह ज्ञान जिस मनुष्‍य के हृदय को चीर कर 

उसके अंतर में समाहित हो जाता है 

तो एंसे लोगों का कल्‍याण सुनिश्चित है।


अति उत्‍तम – 

कोई भी गुरू उपदेश करे, 

लेकिन उसका उपदेश सुनकर 

जिसे अपने गुरू की वाणी की याद आ जाये और

शुभ कर्मों की ओर बढे। 

यानि केवल उपदेश कानों में पड़ने पर ही सुधरना और

उपदेश भूलते ही फिर ठहर जाना, 

और फिर कोड़े रूपी वाणी कानों में पड़ते ही फिर सुधरना। 

ऐसे लोगों का कल्‍याण हो भी सकता है और नहीं भी। 

यदि उनके मन में अति उत्‍तम से सर्वोत्‍तम बनने की ललक है 

तो फिर मंजिल सुनिश्चित है अन्‍यथा नहीं।


उत्‍तम - 

जो केवल अपने गुरू की वाणी 

गुरू का सानिध्‍य पाकर ही उसकी पालना करे। 

ऐसा मनुष्‍य केवल और केवल अपने गुरू की वाणी सुनकर ही 

अपना सुधार करने के लिये कुछ श्रम करता है,

 अन्‍य गुरू चाहे कुछ भी कहे 

चाहे उसके स्‍वयं के गुरू की वाणी के अनुसार ही कहे, 

लेकिन वह उसे गलत ही मानता हैा 

क्‍योंकि केवल अपने मालिक द्वारा कोड़ा खाने की जो आदत हो जाती है। 

ऐसा व्‍यक्ति जब तक अति उत्‍तम और फिर सर्वोत्‍तम नहीं बनता तब तक मंजिल सुनिश्चित नहीं।


निकृष्‍ठ - 

जो सुधरना ही नहीं चाहता, 

जो ना सत्‍य ही पसन्‍द करता है ना असत्‍य ही, 

केवल और केवल अपनी मनमानी करता है ओर 

स्‍वयं को बुद्धि‍मान तथा 

अन्‍यों को मुर्ख समझाता है।


 ऐसा व्‍यक्ति धर्म की दौड़ से बाहर रहता है, 

और जहां धर्म नहीं 

वहां मुक्ति भी नही, 

ऐसे व्‍यक्ति 

ना आत्‍म दर्शन पाते हैं, 

ना प्रभू दर्शन पाते हैं और जन्‍म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं।


 

सार


सर्वोत्‍तम - बनाती है 


गुरू वाणी  ज्ञान 


यानी गुरु वाणी रूपी 


पारस मणि की पालना से ही 

मनुष्य ध्यान के माध्यम से

विषय-विकार, 

पाप  सेे रहित होता है 

यानी तामसिक से सात्विक /सर्वोत्तम बन जाता है


जो सत्य वाणी सभी धर्म गुरुओं की वाणी से निकली है 

कम से कम उस सत्य वाणी की पालना करने पर ही 

सर्वोत्तम बना जा सकता है 

कोई सर्वोत्तम उत्पन्न नहीं होता।


सर्वोत्तम बनना पड़ता है 

सर्वोत्तम बनाती है गुरु वाणी    

सर्वोत्तम बनाता है गुरु वाणी के अनुरूप आचरण 

और 

फिर वह अदृश्य खजाना मिल ही जाता है 

जो सारे खजानों  से बढ़कर हैं।


जिस खजाने तक पहुंचने और 

उसे प्राप्त करने के कारण ही 

भगवान बुद्ध 

महावीर स्वामी 

दयानंद जी आदि ने  

सर्वस्व  त्याग दिया और 

कबीर रैदास जी जैसे संत 

मोह माया से दूर ही रहे।


सर्वोत्‍तम ही अदृश्य शक्ति के रंग में रंग पाता है।


सबका भला हो।

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