मेरे स्वामी अंतरयामी तुम से आस लगायी है, अंतरघट उजियारा कर दो, मिलन की ज्योत जगायी है।

 सर्वे भवंतु सुखिनः 


महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं


जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।


इस लेख का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है, 

अपितू सत्कर्म की राह पर चलते हुए बंधन से मुक्ति पाने के लिये प्रेरणा जगाना है।


अधिकतर धर्मों में अंतर में ही उस अदृश्‍य शक्ति की अनुभूति के

लिये उपदेश  दिया गया है, 

जैसे कि 

गीता में उस ज्योति का प्रकाश हजारों सुर्यों के बराबर कहा गया है,


गुरूनानकजी, 

कबीरजी, 

सूफी संत राबिया, 

ईसामसीह, 

व अन्य महापुरुषों ने

अलग-अलग तरह से समझाया है,


उन्होंने ईशारा किया है कि 


जब तक आप अपनी आंखों से अपने अंदर यानि के इस भौतिक संसार की तरफ से अपनी आंखें हटाकर 


स्वयं के अंदर उस ज्योति, 

उस आनन्द की अनुभूति नहीं करोंगे तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी।


जैसा कि सिख धर्म में 

प्रकाश पर्व मनाया जाता है,


इसाईयों में भी प्रकाश के द्वारा पर्व मनाया जाता है, 


ईसामसीह ने कहा कि द्वार खटखटाओ तुम्हारे लिये खोला जायेगा, 


यानि शुभ सत्कर्म करते हुए अपनी आंखों से अपने अंदर देखने का प्रयास करो। 


सुफी संत राबिया ने कहा कि हसन बाहर क्या देखता है अंदर देख। 


कबीर जी ने कहा है कि सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देखा माही।


राधास्वामी मत में कहा है कि अगर अपने अंतर मेें उसका साक्षात्कार नहीं किया तो नंगा आया और नंगा ही चला गया, 


यानि की कंगाल आया और 

कंगला ही चला गया 


यानि के उसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।


किसी सौभाग्यशाली को छोड़कर प्रारम्भ में अधिकतर सभी को अपने अंदर अंधेरा ही दिखता है, 


कुछ कृत्रिम लाईट के द्वारा और 


कुछ उस अदृश्‍य शक्ति की कृपा से उस दरवाजे के निकट पहुंचते हैं 


यानि के उन्हें प्रकाश दिखने लगता है तो वह उस द्वार पर ही अटक जाते हैं, और आगे नहीं बढ़ पाते हैं।


जो आगे बढ़ता है 

उसे ही उस दिव्य ज्योति के माध्यम से दिव्य सुख/परमानन्द की अनुभूति होने लगती है। 


इसीलिये इस भजन की शुरूआत में ही कहा है कि 


अंतर घट उजियारा कर दो।


शिव का अर्थ होता है कल्याण कारी


अर्थात् कल्याण करने वाला।


वह अदृश्य शक्ति कितनी महान है,


जिसके ध्यान में स्वयं शिवजी बैठे हुए

हैं। 


इस संसार में कोई भी उसके समान शक्ति शाली नहीं, वह सबसे शक्तिशाली है। 


संसार में ऐसा कोई नहीं 

जो सूर्य, चन्‍द्र, तारे, पृथ्वी  आदि सभी ग्रहों उपग्रहों को हवा में रोक सके।


सब कुछ उसी अदृश्य  शक्ति पर आधारित है, 

इसलिये उसे सर्वाधार कहा गया है।


वह सबके प्राणों का पति है 

तभी तो एक समय में पता नहीं कितनों को प्राण-श्‍वास प्रदान करता है और

पता नहीं कितनों की श्वासों को रोक देता है। 


वेद और गीता में इसीलिये उसे सर्वव्यापक कहा गया है और यानि इतने बडे ब्रहमाण्ड  में व्याप्त  उस अनन्त को कोई आकार, आकृति, रुप, शक्ल  देना सम्भव नही। 


यानि के ऐसा कोई स्थान नहीं जहां उसकी शक्ति उपस्थित नहीं हो।


एक दीपक जलाने के लिये भी यानी कि  अग्नि प्रकट करने के लिए  दियासलाई  की अथवा अन्य किसी माध्यम की आवश्यकता पडती है।


एक छोटे से लट्टू को घुमाने के लिए भी  किसी माध्यम की आवश्यकता होती है 


यानी कि लट्टू स्वतः नहीं घूम सकता।


तो इतना विशाल सूर्य 

जिसके पास जाना भी असंभव है 


उसमें विशालकाय पिंड में अग्नि लगाने वाली कोई महान शक्ति महान पावर है 


सूर्य में विद्यमान अग्नि का कारण भी वह अदृश्य शक्ति ही है और 


इतने भारी भरकम ग्रह-उपग्रहों को गतिमान/चलायमान करने वाला भी वह अदृश्य शक्ति ही है। 


प्रकाश का स्रोत कोई है तो वह अदृश्यत शक्ति ही है, 


लेकिन वह निर्लेप अवस्था में है, 

जैसे सूर्य का प्रकाश सर्वत्र विद्यमान है, लेकिन सूर्य किसी से लिपटा हुआ नहीं है,

उसी तरह वह अदृश्य शक्ति सर्वत्र विद्यमान है। 


वह अदृश्य शक्ति प्रकट होती है 

शुद्ध/मल रहित मन स्थिति होने पर।


वह अदृश्य शक्ति अविनाशी है 

उसका तीनों  कालो में कभी विनाश नहीं होता।


इस संसार में विद्यमान सभी पंचतत्व से निर्मित शरीर/पदार्थ नश्‍वर हैं 


यानि कि एक ना एक दिन नष्ट होने वाले हैं। 


वेद/गीता में इसीलिये उस अदृश्य शक्ति को अजन्मा कहा गया है। 


वेद/गीता, गुरूनानक जी ने और अन्य कुछ धर्मों में उस अदृश्य शक्ति को जन्म‍-मृत्यु  से परे बताया है 

यानि कि अविनाशी बताया है, 


आज इस संसार में कोई भी ऐसा शरीरधारी विद्यमान नहीं,  जिसे हम अमर कह सके 

यानि कि जितने भी योगेश्वर, महायोगी, महापुरूष इस संसार में आये हैं और इस संसार से विदा हुए हैं उन्हें, अदृश्य् शक्ति नहीं माना जा सकता है, 

हां उन्हें उस अदृश्‍य  शक्ति का सर्वाधिक प्रिय / सर्वाधिक निकटस्‍थ अवश्‍य कहा जा सकता है।  


तो वह अदृश्य शक्ति


ज्योति/प्रकाश का स्रोत, 

शब्द का स्रोत, 

ज्ञान का स्रोत, 

शांति का स्रोत 

आनन्द का स्रोत और भी उसके गुण्‍ के अनुसार उसे पुकारा जा सकता है। 


तो मुख्य  परिणाम तो पही हैं 

जो किसी भी मनुष्य में साधना के बाद   दृष्टिगोचर होते हैं, 


शेष गुण तो इनके आने के साथ ही स्वतः ही आ जाते हैं।


कुछ लोग ईश्वर को मानते हैं, 

कुछ लोग ईश्नवर को नहीं मानते हैं, 


कुछ लोग 

श्रीराम, 

श्रीकृष्ण, 

शिवजी, 

विष्णुजी, 

ब्रहमाजी 

आदि को ही ईश्वर मानते हैं,


कुछ लोग गुरू को ही ईश्वर मानते हैं।


तो कोई किसी को भी मानता हो अथवा किसी को भी  नहीं मानता हो


लेकिन यदि उक्त चारों तरह के लोग सत्कर्म करते हुए 

साधना करेंगे, 

ध्यान करेंगे, 


तो किसी को चाहे ज्योति के दर्शन नहीं हो, लेकिन

शांति, 

ज्ञान, 

आनंद की 

अनुभूति तो अवश्य ही होगी। 


ज्योति की साधना 

अधिकतर ईश्वर में विश्वास रखने वाले करते हैं। 


जैसा कि गीता में लिखा हुआ है कि उस परम शक्ति का प्रकाश हजारों सूर्य के प्रकाश के बराबर है और 


वह जलाने वाला नहीं अपितू शीतलता प्रदान करने वाला है। 


जो इस प्रकाश को देख लेता है 

तो ऐसा कुछ नहीं जो उसे प्राप्त नहीं होता,  उसे 

ज्ञान, 

शांति, 

आनंद 

सब कुछ प्राप्त  हो जाता है।


लेख बडा नहीं हो 

इसलिये इसके विस्तार में नहीं जाते हुए अब पुन: इस भजन

पर लौट आते हैं।


इस भजन में शिव भक्तिनी को उस प्रकश का ही इंतजार है, 

भक्तिनी प्रार्थना कर रही है कि है 

मेरे स्वामी, 

मेरे मालिक, 

मेरे दाता, 

मेरे प्रभू, 

मेरे परमेश्वर 


इस भक्तिनी को इस संसार व 

इसमें विद्यमान पदार्थों की 

कोई कामना नहीं 

कोई चाहना नहीं 

कोई वासना नही 

किसी भी तरह की आशा नहीं,


केवल एक ही आशा है, 

एक ही कामना है, 

एक ही चाहना है कि 


अपनी दिव्‍य ज्‍योति के द्वारा 

भक्तिनी के अंदर जो अंधियारा है, 

उसे मिटा दो हे अंतरयामी 

उसे हटा दो हे मेरे स्वामी 


कामना - 


अधिकतर सभी धर्म 

कामनाओं 

वासनाओं 

के बंधन से मुक्त होने का उपदेश देते है

लेकिन इस संसार के 99.99 प्रतिशत मनुष्य बचपन से लेकर युवा होने तक और फिर अंतिम श्वास तक कामनाओं वासनाओ के बंधन में बंधे रहते हैं।


यही कामनायें 

उन्‍हें ना तो अंदर प्रवेश करने देती है और ना ही मुक्ति का अधिकारी बनने देती है।


अतः कबीर जी की तरह 

सांई इतना दीजिये 

जामे कुटुम्ब समाये 

मैं भी भूख ना रहूं 

साधू ना भूखा जाये


ऐसा अभ्यास करते हुए इस तरह की भक्ति में मन को लगाना चाहिये कि -


भक्त/भक्तनी को 

उस परम  ज्योति की ही आकांक्षा है, 

उस परम ज्योति के दर्शन की ही लगन है

उसके दर्शन की ही उसकी अनूभूति की आकांक्षा में ही 

भक्त/भक्तनी शुभ निष्काम कर रहा/रही है। 

भक्त/भक्तनी सत्कर्म कर रहा/रही है।


क्योंकि जो सत्कार्मी है, 

जिसके मन में 

दया, 

धर्म, 

सत्य, 

अंहिसा, 

अस्तेय, 

ब्रहमचर्य, 

अपरिग्रह, 

शौच, 

संतोष, 

तप, 

स्वायध्याय, 

ईश्व‍र प्राणिधान समाहित है 


ऐसे मन वाले भक्त/भक्तनी को ही  वह अदृश्य शक्ति दर्शन देती है और 

इसीलिये भक्त/भक्तनी 

ऐसे शुद्ध वाला या 

शुद्ध मन वाली 

बनने के लिये प्रयासरत है।


आकांक्षा - 

कामना का ही पर्यायवाची है, अधिकतर लोगों का मन भक्त/भक्तनी के मन मे गुरू के उपदेश को संभावित नहीं होने देता 

अधिकतर भक्त/भक्तनी गुरू उपदेश  को ताक पर रखकर इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों की आकांक्षा में ही उलझे रहते हैं। 


अधिकतर भक्त/भक्तनी तो वृद्ध होने पर भी इन आकांक्षाओं की लालसा में अंतिम स्वांस तक लगे रहते हैं। 


जो कबीरजी व अन्य महापुरूषों की तरह आकांक्षाओं को ताक पर रखकर उस अदृश्‍य शक्ति की प्यास से व्याकुल होते हैं, 

उनके हर एक अंग प्रत्यंग से यही शब्द निकलते हैं कि -


यह भक्त/भक्तनी तुझ से मिलने के लिये व्याकुल है, 

इस भक्त/भक्तनी की आँखे उसके  दर्शन के लिये ही तरस रही है, 

व्याकुल हो रही है, 

केवल एक बार आप अपनी ज्योति का दर्शन भक्त/भक्तनी को दे दो 

और भक्त/भक्तनी के  अंदर का सारा  अंधकार समाप्त  कर दो

भक्त/भक्तनी के अंदर का सारा अज्ञान समाप्त कर दो 

भक्त/भक्तनी की आंतरिक अशांति समाप्‍त कर दो 

भक्त/भक्तनी की व्याकुलता समाप्त  कर दो। 


जैसे कि कोई तीन चार दिन से भूखा हो तो उसकी व्याकुलता भोजन के लिये बढ जाती है और 

यदि उसे खाने के लिये सूखी रोटी भी दी जाये 

तो वह उसे भी बिना कोई ना नुकर किये शांति के साथ ग्रहण कर अपनी शुधा शांत कर लेता है। 


तो भक्त/भक्तनी को भी आपकी केवल एक झलक की प्रतीक्षा है,


आपकी एक झलक ही भक्त/भक्तनी की  जन्म.जन्मांतरों की प्यास बुझा देगी है। 

है परमेश्व।र इस संसार में 

एक आप ही तो सबसे बडे दाता हैं 

जो सबको केवल देने का ही काम करते हैं,

बदले में कुछ मांगते नहीं, और आपको मांगने की आवश्यकता भी क्यों  होगी, 

क्योंकि जो भक्त/भक्तनी आपका दर्शन कर लेता/कर लेती है, 

आपके आनन्द के सागर की एक बूंद भी पा जाता/पी जाती है, 

तो उसे  इस पांच तत्व से निर्मित शरीर से मुक्ति मिल जाती है

 

उस आत्म तत्व् को 

ना कुछ खाने की आवश्यकता है,

 ना पीने की। 


तो इसी तरह आपको ना कुछ खाने के लिये चाहिये, 

ना कुछ पीने के लिये चाहिये 


आप ही तो सबको खिला रहे हैं, 


आप ही तो सबको पिला रहे हैं।


है अनुपम दाता भक्त/भक्तनी की  आपके दर्शन की कामना पूरी कर दो,


आप अंतरयामी है 

तो आपको तो पता ही है कि आपके सच्चे भक्त/भक्तनी को आपके दर्शन के अतिरिक्तै और कुछ भी नहीं चाहिये।


है मेरे प्रभू भक्त/भक्तनी के तो  केवल आप ही सर्वस्व है

क्योंकि आप के अतिरिक्तत कोई ऐसा नहीं जो भक्त/भक्तनी से संबंध तोड कर जुदा हो जायेगा, या फिर 


भक्त/भक्तनी जिस समय इस संसार से विदा होयेगा/होयेगी तो जिन से रिश्ता है वह रिश्ता नाता समाप्त हो जायेगा, 

धन.

दौलत, 

जागीर, 

पति/पत्‍नी, 

पुत्र/पुत्री, 

पौत्र/पौत्री, 

मां.पिता, 

भाई.बहिन, 

मित्र.शत्रु, 

महल, चौबारे 

सब छूट जायेंगे। 

तेरा साथ ही केवल सच्चा  साथ है, और जो तेरा दर्शन कर लेता है वह तेरा साथ सदा.सदा के लिये प्राप्त कर लेता है। 

है  स्वामी, है अंतरयामी 

भक्त/भक्तनी के तो सर्वस्‍व केवल और केवल आप ही हैं, 

आपके अतिरिक्त कोई नहीं, 


यानि के तुम बिन और ना दूजा आस करूं में जिसकी। 


केवल आप ही हैं 

जो आशा के योग्य हैं, 

आप ही हैं जिनसे मिलने पर सब कुछ मिल जाता है, 


यानि के आपका दर्शन 

आपकी अनुभूति जो पा लेता है

तो फिर उस भक्त/भक्तनी के लिये  कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है।


है भक्त/भक्तनी के स्वामी 

आपका भक्त/भक्तनी सच्चे मन से आपको पुकार रहा/रही है। 


जब तक तुम दर्शन नहीं दोगे 

भक्त/भक्तनी के मन का अंधकार दूर नहीं होगा और 

यह वियोग रूपी अंधकार बना रहेगा। आपके भक्त/भक्तनी के लिए यह अंधकार असहनीय है स्वामी। 


आपसे 

प्रार्थना है, 

निवेदन है, 

विनय है, 

अनुनय है कि 

भक्त/भक्तनी का धैर्य नहीं टूटने देना स्वांमी 

भक्त/भक्तनी अंतिम श्वास तक आपके दर्शन के लिये प्रतीक्षारत रहेगा/रहेगी और 

आपके भक्त/भक्तनी की तो एक ही कामना है 

तेरे दर्शन की और 

ध्यान के दौरान 

तेरे दर्शन के लिये 

केवल और केवल तेरी ही पुकार है, 


 भक्त/भक्तनी की 

हर धडकन, 

हर नस, 

हर नाडी, 

हर एक श्वास 

हर एक अंग 

केवल और केवल तेरी ही पुकार करता है, 

केवल तेरा ही नाम स्मरण करता है।


जैसे कि रामतीर्थ जी से यदि कोई पूछता कि क्या बज रहा है, 

तो वह कहते थे कि एक। 


किसी ने उनसे पूछा कि आपने ऐसी कौनसी घडी पहन रखी है, 

जिसमें हर समय एक ही बजता रहता है। 


उन्होंने उत्तर दिया कि एक इस पूरी दुनिया में तो मूझे लगता है कि भगवान ही एक बज रहा है, 


बाकी तो कोई बज ही नहीं रहा 

बाकी तो कुछ बज ही नहीं रहा है, उसका संगीत बज रहा है, 

उसका ही नाम बज रहा है, और 

कुछ सुनाई नहीं दे रहा है, 

क्योंकि तुम बजने की बात पूछते हो, तो बजने में तो भगवान का नाम ही बज रहा है।


अंत में यही प्रार्थना है स्वामी, 

है अंतरयामी 

बस अब अपने भक्त/भक्तनी को और प्रतीक्षा नहीं करवान अपना दर्शन भक्त/भक्तनी को दे देना।


तेरे दर्शन की जो शर्त है यानि के विषय.विकार व पाप से रहित होना 


तो भक्त/भक्तनी ने अपने अंतर मन से विषय.विकार व पाप रूपी गंदगी को निर्वासित कर दिया है, और 

आपके स्वागत के लिये निष्काम सत्कर्मों की कालीन बिछा दी है। 

आपके भक्त/भक्तनी को  

केवल और केवल आपके दीदार की कामना है, 

आपके सच्चे भक्त/भक्तनी की यह कामना पूरी करना भगवन, पूरी करना।

सबका भला हो


भजन के बोल इस प्रकार है-

मेरे स्वामी अंतरयामी 

तुम से आस लगायी है, 

अंतरघट उजियारा कर दो, 

मिलन की ज्योत जगायी है। 

तुमरे दर्श को नैना तरसे 

व्याकुल है मन मेरा 

एक छवि दिखला दो तुम तो 

दूर हो घोर अंधेरा, 

सत्यम शिवम सुन्दरम तुम हो,

 विनती करूं मैं तुम से स्वामी 

तुम से सब कुछ मांगू 

तुम हो दाता तुम ही विधाता 

दे दो जो मैं चाहूं 

तुम शिव हो मैं शिवा तुम्हारी 

अब क्यों देर लगायी है। 

इस वियोग के अंधियारे से 

मुझको आन बचाओ। 

टूट ना जाये धीरज मन का 

दर्शन देने आओ, 

आज चरण रज दे दो मुझको  

काहे देर लगायी है।

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