शिव उपदेश - क्या संसार में केवल सुख का होना संभव नहीं है
सर्वे भवंतु सुखिन:
शिव उपदेश
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करे।
प्रभु क्या संसार में केवल सुख का होना संभव नहीं है
प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य
केवल सुख की प्राप्ति ही तो है,
परमानंद की प्राप्ति,
किंतु सुख नहीं ।
मनुष्य सुख को प्रदान करने वाली वस्तुओं को एकत्रित करना ही
जीवन का उद्देश्य मान लेते हैं ।
यह समस्त संसार माया है
सब कुछ नश्वर है
जिन वस्तुओं को हम
सुख का स्त्रोत समझकर
एकत्रित कर रहे हैं
वह सदैव नहीं रहेंगी ।
जो व्यक्ति सत्य को जानते हुए भी
लोभ का परित्याग नहीं करते।
वे सदैव इन्हें खोने के भय में जीते हैं और
जो व्यक्ति सत्य को जानते ही नहीं
वह अहंकार में जीते हैं और
जहां अहंकार और भय उपस्थित हो
वहां सुख कैसे रह सकता है।
किसी को यह दुख है कि
उसके पास कुछ भी नहीं और
जिसके पास सब कुछ है
उसे यह दुख है कि पाने को कुछ शेष नहीं
सुख को हम स्वयं अपने दृष्टिकोण से परिभाषित कर देते हैं
जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है
आवश्यकता है
अनासक्त रहने की ।
किंतु प्रभु क्या आसक्ति स्वभाविक नहीं है
दुख का मूल कारण भी तो यही है ऋषि
आसक्ति हमारे मन की शांति को छीन लेती है,
उसे बंद कर देती है
हमारी बुद्धि को स्थिर नहीं रहने देती ,
उसे चंचल बना देती है ।
आसक्ति से प्रमाद की उत्पत्ति होती है
प्रमाद मद होता है और
मद अहंकार का स्त्रोत है और
अहंकार पूरी तरह अशुभता में परिवर्तित हो जाता है
अर्थात आसक्ति अशुभता की जननी है
इसलिए अनावश्यक हैं।
प्रभु अनासक्ति को अनासक्ति में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है और
हम आसक्ति से कैसे ऊपर सकते हैं
आसक्ति से मुक्त होना ही अनासक्ति हैं ।
आसक्तिहीन होने के लिए
अपने और पराए का भेद मिटाना अनिवार्य है और
यह तभी संभव होगा
जब हम सुख की खोज बाहर नहीं अपने भीतर करें
जब हम यथार्थ को पहचाने
उसे स्वीकार करें
हम अपने सुख और सांसारिक तत्वों से परिभाषित नहीं करें
जब तक हम ऐसा करते रहेंगे हम बंधते जाएंगे।
जब हम स्वयं अपने भीतर झांकना प्रारंभ करेंगे
हमारी मुक्ति का मार्ग स्वतः प्रशस्त होता जाएगा
महादेव आपने हमें दुख का कारण तो बता दिया
किंतु हम भय के बारे में भी जानना चाहते।
भय का स्रोत है इच्छा
पाने की इच्छा होगी तो
उसे खोने का भय भी होगा।
यदि जीवित रहने की इच्छा है
तो मृत्यु का भय भी अवश्य होगा
किंतु केवल मनुष्य ही नहीं
देवता गंधर्व सभी इस भय से ग्रसित है
क्योंकि इच्छाओं से मुक्त कोई भी नहीं ।
तृषा, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा और षड्यंत्र जैसे पाप
भय से ही उत्पन्न होते हैं और
प्रत्येक पाप का प्रायश्चित
केवल दुख और कष्ट उठाने से ही सम्भव होता है।
इसलिये भय भी अंत में
दुख का कारण बन जाता है।
भावार्थ
प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य केवल और केवल
सुख की प्राप्ति ही होता है,
परमानंद की प्राप्ति होता है।
लेकिन प्राणी सुख को प्रदान करने वाली
वस्तुओं को एकत्रित करना ही
जीवन का उद्देश्य मान लेते हैं।
क्योंकि प्राणी यह नहीं समझते कि
यह समस्त संसार माया है,
इस संसार में जो कुछ भी है
सब कुछ प्रतिपल/प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है,
प्रतिपल/प्रतिक्षण सृजन हो रहा है और
विनाश भी हो रहा है,
यानि यहां पर जो भी
नजर आ रहा है,
दिख रहा है,
सब कुछ नश्वर है,
जिन वस्तुओं को प्राणी
सुख का स्त्रोत समझकरएकत्रित करते हैं,
वह सदैव नहीं रहती।
यानि कि मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य परमानंन्द की प्राप्ति ही है,
जब मन पर लगे हुए कामना/वासना के बंधन टूटते हैं,
तब मन के शांत होने पर ही परमानन्द की प्राप्ति होती है, और
इसकी प्राप्ति के साथ ही मुक्ति की राह प्रशस्त हो जाती है।
परमानन्द आंतरिक सुख है, आंतरिक अनुभूति है और
जब अंतर मुख होते हैं,
तभी इस सुख की अनुभूति महसूस हो सकती है, अन्यथा नहीं ।
यानि कि जब हमारा मन
संसार में विद्यमान दृष्यमान पदार्थ/शक्लों के चिंतन को छोड़कर
आत्म चिंतन/परमात्म चिंतन में लगता है
तभी परमानन्द की अनुभूति किया जाना सम्भव हो सकता है।
यानि के परमानन्द वह सुख है
जो कि अदृष्य के चिंतन/मनन/ध्यान से प्राप्त होता है,
अदृष्य से जुड़ने पर प्राप्त होता है।
लेकिन इस संसार के लोग
बाहरी दृश्यमान पदार्थों के कारण जो सुख प्राप्त होता है,
उसे ही सुख मान लेते हैं,
लेकिन बाहरी दृश्यमान पदार्थों के कारण
जो सुख प्राप्त होता है, वह क्षणिक होता है,
यानि के कुछ समय के लिये ही होता है
और ऐसे अधिकतर सुखों के पीछे दुख भी छुपा होता है।
जैसे कि सात्विक आहार में स्वास्थ्य छिपा होता है और
तामसिक-राजसिक आहार में
रोग, दुख, पीड़ा आदि छिपे हुए होते हैं।
तामसिक आहार स्वादिष्ट तो होता है,
लेकिन इसी आहार के कारण शरीर में ब्लाकेज बनते हैं और
इसी कारण सिरदर्द, साईटिका, लकवा, दिल का दौरा आदि रोग शरीर में घर बना लेते हैं,
इनके कारण ही रक्त में अम्ल शामिल हो जाता है।
सात्विक आहार में स्वास्थ्य छिपा होता है,
जैसे लोकी, एलोवेरा, आंवला हरी पत्तेदार सब्जियां आदि
शरीर को नवजीवन पद्रान करते हैं।
अब इसमें यही समझाने का प्रयास किया गया है कि
बाहरमुखता में जो सुख है,
यानि के संसार में विद्यमान समस्त दृश्यमान पदार्थ/शक्ल आदि के कारण जो सुख प्राप्त होता है,
वह क्षणिक है,
यानि कुछ क्षण के लिये है,
स्थाई नहीं है और अंतिम परम लक्ष्य नहीं है।
यानि कि दृश्यमान पदार्थ/शक्लों के कारण
जो सुख प्राप्त होता है,
उस सुख के बाद दुख आना भी सुनिश्चित है।
जैसे कि कूलर की हवा और वातानुकूलित हवा के कारण
ठंडी हवा के संयोग के कारण सुख तो मिलता है,
लेकिन वह ठंडी हवा कफ जमाने का काम करती है और
जब कफ संग्रहित होने वाला स्थान पूर्ण रूप से भर जाता है,
तब उसके बाद खांसी, जुकाम आदि रोग घेर लेते हैं।
ठंडी हवा के कारण ही साइटिका वाले का तो दर्द और भी बढ़ जाता है।
यानि के यदि दुखों से छुटकारा चाहिये तो
उस अंतिम और परम लक्ष्य को प्राप्त करना ही होगा।
अन्यथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति असम्भव है और
यदि जन्म होता है तो फिर नये जन्म के साथ ही
नये सिरे से अभ्युदय और निश्रेयस रूपी लक्ष्य की प्राप्ति की यात्रा शुरू हो जाती है।
इस यात्रा में बचपन से ही काफी दुखों का सामना करना पड़ता है।
जैसे कि बच्चों को सर्दी हो या गर्मी सुबह जल्दी उठाकर स्कूल भेजा जाता है,
अब बच्चे की मजबूरी है कि
उसे स्कूल जाना ही पड़ता है, चाहे सर्दी हो, गर्मी हो अथवा बरसात हो।
युवावस्था आते ही आजीविका अर्जित करने की दौड़ प्रारम्भ हो जाती है।
फिर घर-परिवार के कार्य और बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी भी आ जाती है।
यानि के मनुष्य जन्म लेने के बाद सुख तो पाता है,
लेकिन दुख भी उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं।
इसीलिये किसी ने कहा है कि इस संसार में
खुशियां हैं कम,
बेशुमार हैं गम।
कृत्रिम सुख की प्राप्ति कैसे दुख का कारण बनती है,
इस संबंध में कुछ सत्य प्रसंग है।
प्रथम उदाहरण
एक शीत प्रदेश में मच्छरों की दवा छिड़क कर
सभी मच्छरों को मार दिया गया,
तो कुछ समय पश्चात् उस शीत प्रदेश में
बिल्लियां मरने लग गयी और
चूहों की संख्या बढ़ने लग गई
और फिर वहां पर प्लेग फैल गया।
वहां फिर दूसरे स्थानों से बिल्लियां लायी गयी और
फिर चूहों पर पुनः नियंत्रण बढ़ गया और
मच्छर वापस उत्पन्न हो गये।
तो वहां के विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि
प्रकृति के विरूद्ध कार्य करने के कारण
ऐसा हुआ है, और फिर भविष्य में वहां यह निश्चित हो गया कि
प्रकृति की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये।
यानि के कुछ सुख मिला कि
मच्छरों से मुक्ति मिल गई,
लेकिन साथ ही दुख भी आन पड़ा,
यानि के प्लेग के प्रकोप का सामना करना पड़ा।
दूसरा उदाहरण -
एक यात्री के पैर में दर्द था,
उसने ए.सी. कोच में लम्बी यात्रा की और
यात्रा समाप्त होने पर उस यात्री के पैर दर्द की पीड़ा बढ़ गई और
उसे लंगड़ाते हुए भ्रमण करना पड़ा।
यानि के शीतल हवा का सुख तो मिला,
लेकिन पैर दर्द की पीढ़ा भी भोगनी पड़ी।
तीसरा उदाहरण-
पूर्व में महिला, पुरूष व बच्चे आदि सभी का स्वतः ही व्यायाम हो जाता था।
आज बच्चे मोबाईल चलाने, विडियो गेम खेलने, मूवी,
धारावाहिक देखने में ही मगन रहते हैं और
बाहर खेले जाने वाले खेलों से वंचित हैं और
इसीलिये बच्चों की भी तबियत सही नहीं रहती।
पूर्व में महिलायें सिलवट्टे पर मसाला, चटनी आदि पीसती थी,
दूर से पानी भरकर लाती थी,
आटे के लिये चक्की का भी उपयोग घर पर ही किया जाता था।
पुरूष भी मोटर साईकिल की जगह साईकिल का उपयोग करते थे,
जिसके कारण स्वास्थ्य सही रहता था और
अब सुविधाओं के कारण व्यायाम बंद हो गया है,
जिसके कारण बीमारों की संख्या भी बढ़ गई है।
कहने का तात्पर्य है कि जिसे हम सुख समझते हैं,
उस सुख के साथ दुख भी छिपा रहता है और
जिसे हम दुख समझते हैं,
उसके पीछे सुख छिपा रहता है।
इसीलिये गीता में लिखा हुआ है कि
भोग का मार्ग यानि के प्रेय मार्ग
प्रारम्भ में सुखमय नजर आता है,
लेकिन उसका परिणाम दुखमय होता है,
जहर की तरह होता है
तथा
योग/ज्ञान का मार्ग प्रारम्भ में नीरस,
दुखमय प्रतीत होता है,
लेकिन उसका परिणाम अमृत तुल्य होता है।
दुख की ही प्रेरणा थी,
जिसने सिद्धार्थ को महामानव गौतम बुद्ध बना दिया।
इसीलिये इसमें कहा गया है कि
प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य केवल सुख की प्राप्ति ही तो है,
परमानंद की प्राप्ति ही तो है।
सुख को प्रदान करने वाली वस्तुओं को एकत्रित करना
जीवन का उद्देश्य नहीं है।
इसीलिये कहा है कि
यह समस्त संसार माया है,
इस संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है,
सब कुछ नश्वर है, सदा रहने वाला नहीं है।
जिन वस्तुओं को हम सुख का स्त्रोत समझकर एकत्रित करते हैं,
वह सदैव नहीं रहेंगी ।
यानि उन सभी पदार्थों/शक्लों से एक ना एक दिन हमारा रिश्ता टूटेगा ही,
एक ना एक दिन या तो यह नश्वर पदार्थ/शक्लें आदि
हम से अलग हो जायेंगे अथवा
हम ही इन से अलग हो जायेंगे
इसीलिये किसी ने सत्य कहा है, कि
तोड़ चलेगा जग से नाता
सदा सदा सो जायेगा
धन दौलत और रिश्ते नाते
सब पल में छुट जायेगा
एक दिन ऐसा आएगा
जिनको तू अपना कहता है
ये न तेरे अपने है
तू राही है जीवन पथ का
ये सब सारे सपने है
टूटेगा जब सपना तेरा
सब अपना खो जायेगा
जबसे जग को अपना समझा
जबसे रब को भूल गया
जन्मों से तू आता रहा
हर बार गर्भ में झूल गया
अब भी वक्त है सुन ले बन्दे
बाद में तू पछतायेगा
बचपन तेरा बीत गया और
जाती तेरी जवानी है
ये जीवन तो कलकल बहता
एक नदिया का पानी है
हाथ गुरू/ज्ञान का थाम ले वरना
बीच भंवर डुब जायेगा
एक दिन ऐसा आएगा
एक दिन ऐसा आएगा।
यानि कि जो व्यक्ति इस सत्य को जानते हुए भी कि
हमने इस संसार में आने के बाद जो कुछ भी पाया है,
वह सब कुछ इस संसार में ही छोड़ कर
हमें इस संसार से विदा होना ही होगा,
लेकिन फिर भी इस संसार के प्राणी लोभ का परित्याग नहीं करते,
वे जन्म-मरण के चक्र के बंधन में फंसे रहते हैं।
इस संबंध में एक प्रसंग है,
लोभी और अज्ञानी मनुष्य किस हद तक जा सकता है।
एक बहुत बड़ा धनपति था, लेकिन था बड़ा कंजूस।
उसकी पत्नी बीमार हो गई,
लोगों ने उससे कहा कि इसका इलाज करवाओ,
लेकिन वह धन खर्च करने को तैयार ही नहीं था और
उसने अपनी पत्नी का इलाज नहीं करवाया और
अंततः बीमारी बढ़ते-बढ़ते उसकी पत्नी का देहान्त हो गया।
फिर एक बार वह स्वयं बीमार हो गया।
लेोगो नं समझाया कि स्वयं का तो इलाज करालो,
तुम यह धन-दौलत साथ थोड़ी ही ले जाओगे
लेकिन उस कंजूस धनपति ने उत्तर दिया कि
में अपने उपर भी कुछ भी खर्च नहीं करूंगा और
यह सारा धन मैं साथ लेकर ही जाउंगा।
एक दिन उसे लगा कि
उसके पास कुछ ही समय है।
उसने हीरे, जवाहारात, स्वर्ण आदि बहुमूल्य पदार्थ एक बोरे में भरे और
अपनी पीठ पर बांध लिये।
नदी के किनारे गया
सोचा यहां से डूबूंगा तो कोई भी यह धन सम्पत्ति ले जायेगा,
अतः बीचों.-बीच जाना होगा।
वह मल्लाहों के गांव गया और
जो सबसे कम पैसे में राजी हुआ,
उसके साथ बैठकर बीच मझधार पहुंच गया और
मल्लह से कहा कि देखो मैं अब मरने जा रहा हूँ,
क्या तुम मरने वाले की अंतिम इच्छा पूरी नहीं करोगे?
मल्लाह ने कहा, कहिये क्या इच्छा है आपकी।
उसने कहा कि मेरी अंतिम इच्छा है कि
मैं अब मरने जा रहा हूं,
तो क्या मरते हुए व्यक्ति से भी पैसे लोगे?
मैं चाहता हूं कि तुम पैसे छोड़ दो।
नाविक ने कहा ठीक है और
वह कंजूस धनपति उस बोरे को अपनी पीठ पर बांध कर
गहरे पानी में कूद गया।
इसी तरह से काशी में भी लोगों को मुर्ख बनाया जाता था कि
जो काशी में स्थान विशेष पर लगे हुए आरे से
अपने शरीर के दो टुकड़े करवा लेगा,
वह सीधा स्वर्ग जायेगा और
जो भी धन सम्पत्ति मरते समय उसके पास होगी,
वो उसके साथ वहां स्वर्ग में पहुंच जायेगी।
अज्ञानी लोग
लालची लोग
अपनी जेब में बहुमूल्य पदार्थ रख लेते थे और
अपने शरीर के आरे से दो टुकड़े करवा लेते थे।
शरीर कटते ही पानी में गिर जाता था और
गोताखोर पानी में डुकबी लगाकर जाते और
वह बहुमूल्य पदार्थ निकाल कर ले आते और
जो पैसा स्वर्ग में जाना था,
वह वहां नहीं जाकर उनकी जेबें भर देता था।
कहने का तात्पर्य यह है कि
हम इस संसार से कुछ भी नहीं ले जा सकते
सिवाय अपने कर्मों के।
कर्म ही हमारा साथी है,
कर्म ही हमारे साथ जाते है,
जैसा भी हम कर्म करते हैं,
उसी के अनुरूप हमें
स्वर्ग,
नरक
मुक्ति
प्राप्त होती है।
इस संसार के अधिकतम मनुष्य खोने के भय से जीते हैं,
यानि के धन-सम्पत्ति के खोने के भय से
अपने प्रियजन के खोने के भय से।
जहां अहंकार है कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं,
मुझ से बढ़कर कोई नही तो ऐसे व्यक्ति भयभीत रहते हैं कि
कहीं कोई मुझे पराजित नहीं कर दे।
कहीं कोई मुझ से आगे नहीं बढ़ जाये,
कहीं किसी कि उन्नति नहीं हो जायें
जैसे कि एक कहानी है -
एक सुन्दर स्त्री थी
उसके पास एक आईना था,
जिसमें संसार की सबसे सुन्दर स्त्री की
छवि दिखाई देती थी।
वह उस आईने से पूछती कि
सबसे सुन्दर कौन
तो आईना उसकी छवि दिखा देता था।
कुछ समय पश्चात आईने ने
एक लड़की की छवि दिखाई कि
यह सबसे सुन्दर है,
यह सुनते ही उस सुन्दर स्त्री को
क्रोध आ गया और उसने
उस लड़की का पता लगाकर
षडयंत्र रचकर उस लडकी को
एक बाक्स में बंद कर दिया,
जब तक वह लड़की उस बाक्स में बंद रही
आईना उस सुन्दर स्त्री को ही सुन्दर बताता रहा,
लेकिन एक दिन एक राजकुमार ने उ
से मुक्त कर दिया और
उस सुन्दर स्त्री को दंडित भी किया।
यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि
हम स्वयं को श्रेष्ठ तो समझें
लेकिन ऐसा अभिमान नहीं करें कि
हम से बढ़कर श्रेष्ठ कोई नहीं।
ऐसा अभिमान ही
अहंकार की श्रेणी में आता है।
यह कहानी हमें समझाती है कि
किसी को गिराने का प्रयास नहीं करें,
हम कभी किसी का बुरा नहीं करें
अन्यथा परिणाम बुरा ही होगा,
दुखमय ही होगा।
इस संसार के अधिकतर लोग
जो ज्ञान को आत्मसात नहीं करते
ऐसे लोग दूसरों के सुख,
दुसरों की उन्नति,
दूसरों की शक्ति,
दूसरों का सम्मान देखकर
ईर्ष्या करते हैं,
जलन की भावना रखते हैं।
तो सब कुछ होते हुए भी
जलन की भावना रखना
दुख का कारण बन जाती है
इसीलिये कहा है कि जहां अहंकार है,
वहां भय है और जहां भय है
वहां सुख भी नहीं।
जबकि वास्तविकता में तो
इन सभी विकारों से अनासक्त
रहने की आवश्यकता है।
दुख का मूल कारण तो आसक्ति ही है,
यानि के जिस भी पदार्थ/ शक्ल से हमारी
आसक्ति है,
लगाव है,
जुडाव है,
वह पदार्थ/शक्ल जब
हमसे जुदा होता है
तब आसक्ति के कारण ही
दुख की अनुभूति होती है।
जैसे कि एक सच्चे स्वामी जी थे,
अनासक्त थे, सदैव आनन्दित रहते थे,
मैं उनका नाम इसलिये नहीं लिख रहा
क्योंकि इस संसार में तो किसी नाम को सुनकर कोई प्रसन्न हो जाता है और
कोई उसी नाम को सुनकर क्रोध से भर उठता है।
उनके पुत्र को फांसी दी जानी थी।
उनका मित्र मिला और दुख प्रकट किया कि
कल आपके पुत्र को फांसी हो जायेगी।
लेकिन वह अनासक्त भाव से मुस्कारते रहे।
मित्र ने पूछा क्या आपको इस बात का दुख नहीं है?
स्वामी जी ने कहा कि
यदि मेरे पुत्र को जाना होगा
तो कोई नहीं बचा सकता और
यदि बचना होगा
तो कोई मार नहीं सकता।
यद्यपि बाद में उनके पुत्र की
सजा माफ हो गयी थी।
यह मोह पर विजय का एक सत्य और बड़ा उदाहरण है।
एक और प्रसंग उन्हीं स्वामी जी का ही है,
उन्होंने अपने पुत्र को कहा कि
4000 रू. तक की कीमत की
कार खरीद लाना।
पुत्र 2000 की कार ले आया।
पुत्र खुश था कि पिता खुश होंगे
उसने 2000 बचा लिये।
लेकिन स्वामीजी ने कहा कि
4000 तक की कीमत की
क्यों नहीं लाये?
चलो कोई बात नहीं
इसे गैराज में जाकर रख दो।
पुत्र ने कहा आप बैठेंगे नहीं।
स्वामी जी ने कहा
यह मैंने मेरे लिये नहीं खरीदी है।
यह आजादी से पूर्व की सत्य कहानी है,
उस समय के 4000 रू. आज के लाखों रूपयों के बराबर है।
स्वामी जी एक अखबार चलाते थे,
जिसमें उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ
एक ऐसा सत्य लेख छापना था,
जिसके कारण उनका अखबार
बंद होने वाला था और
अखबार को चालू रखने के लिये
जुर्माना भरना पड़ता था।
यह 4000 रू. उन्होंने केवल
उस एक सत्य के लिये ही जमा किये थे
और सत्य छपते ही
उन्हें अखबार को आगे चालू रखने के लिये 4000 रू. जुर्माना भरना पड़ा।
2000 रू. कार को बेच कर व
शेष राशि का इंतजाम कर
उन्होंने अखबार चालू रखा।
यह सत्य से आसक्ति और
धन से अनासक्ति का
एक सत्य और बड़ा उदाहरण है।
स्वामी जी का ही एक ओर प्रसंग है
जब भारत का विभाजन हुआ तो,
स्वामी जी को लाहौर से
भारत आना पड़ा।
उन्हें एक अच्छा भवन
भारत में दिया गया,
क्योंकि लाहौर में उन्होंने
एक अच्छे भवन को त्यागा था।
वह भवन एक मुस्लिम का था,
जिसे उसे खाली कर
दूसरे स्थान पर रहना था।
वह स्वामीजी के पास गया और
निवेदन किया कि इस भवन में
मेरी मां का मन अटका हुआ है,
अतः आप हमें यह मकान
रखने की सहमति दे दे।
स्वामी जी ने कहा कि
यदि तुम्हारी मां का मन
इस मकान में अटका हुआ है
तो वह तुम ले सकते हो और
उन्होंने सरकार को सहमति दे दी।
सरकार ने कहा कि अब केवल
हमारे पास दो कमरे वाले ही मकान है
तब स्वामीजी ने बडा परिवार होने के बावजूद
वह दो कमरे वाला मकान ही स्वीकार कर लिया।
यह सम्पत्ति से अनासक्ति का
एक बड़ा और सत्य उदाहरण है।
धर्म पथ का लक्ष्य
तभी हासिल किया जा सकता है,
जब मन इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्ल से विरत हो तथा
उस अदृश्य परम तत्व में रत हो।
इसीलिय इसमें कहा गया कि
यदि सुखी रहना है
निश्चिंत रहना है
यानि के चिंता रहित रहना है
तो मन को अनासक्त बनाना ही होगा।
क्योंकि यदि आसक्ति है
तो दुख भी रहेगा ही।
जैसे मनुष्य के साथ उसकी परछाई जुड़ी रहती है,
तो उसी तरह से आसक्ति के साथ दुख भी जुडा रहता है।
इसीलिये इसमें समझाया है कि
दुख का मूल कारण भी आसक्ति ही है
और आसक्ति हमारे मन की शांति को छीन लेती है,
हमाने मन को बंधन में बांध देती है,
हमारी बुद्धि को स्थिर नहीं रहने देती,
हमारी बुद्धि को चंचल बना देती है।
आसक्ति के कारण ही
प्रमाद की उत्पत्ति होती है और
प्रमाद एक तरह का नशा है,
जैसे किसी को खेलने का नशा है,
किसी को पहलवानी करने का नशा है,
किसी को धन एकत्रित करने का नशा है
किसी को सम्पत्ति एकत्रित करने का नशा है,
किसी को संगीत का नशा है,
किसी को स्वादु पदार्थों का नशा है,
किसी को नशीले पदार्थ को नशा है,
किसी को सुगंध का नशा है,
किसी को रूप का नशा है,
किसी को रंग का नशा है।
यानि कि इस संसार के
अधिकतर प्राणी किसी ना किसी
प्रमाद में उलझे हुए ही रहते हैं और
जो इन प्रमादों में उलझा रहता है,
उसका सबसे बड़ा कारण संस्कार और अहंकार ही है
जब तक अहंकार है
तब तक आसक्ति भी विद्यमान रहती है।
इसीलिये अनासक्ति को ही मोक्ष/मुक्ति की पगडंडी कहा गया है।
जहां मन आसक्त है वहां बंधन,
जहा मन अनासक्त है वहां मुक्ति है।
अहंकार और अनासक्ति का
36 का आंकड़ा है
यानि के दोनों एक दूसरे के विपरीत है,
जहां अनासक्ति है
वहां अहंकार नहीं रहता और
जहां अहंकार रहता है वहां पर
अनासक्ति भी नहीं रहती है।
अनासक्ति और अहंकार चुम्बक के दो धु्रवों की तरह है
जो आपस में कभी नहीं मिल सकते।
अनासक्ति हमें अदृश्य तत्व से जोड़ती है और
आसक्ति हमें इस संसार में
विद्यमान पदार्थ/शक्लों से जोड़ती है।
इसीलिये कहा है कि
जब मैं (अहंकार) था,
तब हरी नहीं
अब हरी है मैं (अहंकार) नाहिं,
सब अंधियारा मिट गया,
जब दीपक देखा माही।
यानि कि जब तक अहंकार है,
तब तक हरि यानि अदृष्य शक्ति की
अनुभूति भी नहीं हो सकती है।
जब अहंकार मिटता है,
तब उस अदृश्य तत्व की अनुभूति होती है।
यानि कि जब अहंकार मिटता है,
तो अंदर का अंधकार भी मिट जाता है,
अंतर में ऐसा दीपक जलता है
जो समस्त अंधेर को मिटा देता है,
प्रकाश से प्रकाशित कर देता है।
गीता में इसे हजारों सूर्य के प्रकाश के तुल्य बताया है,
जो कि शीतलता प्रदान करने वाला होता है,
आनन्द प्रदान करने वाला होता है।
प्रमाद, मद, अहंकार व
अन्य विकार
मनुष्य के मन को
अशुभ/अशुद्ध बना देते हैं।
यानि के यदि आसक्ति है तो
हमें पता भी नहीं चलता है और
मन अचानक ही
कुविचार से घिर जाता है,
जैसे कि एक उदाहरण है -
अपनी स्त्री/पुरूष के होते हुए भी
यदि कोई अन्य स्त्री/पुरूष के विचार में खो जाता है
तो जो कोई भी किसी अन्य स्त्री/पुरूष के विचारों में खो जाता है
तो उसे आसक्तिवान की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
आध्यात्म में सफलता का प्रथम स्तर तो यही है कि
अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी भी पर स्त्री/पुरूष का विचार मन में नहीं आने देना।
इसके पश्चात़ अंतिम स्तर आता है जब केवल एक परमात्मा ही मन में शेष रह जाता है।
इसीलिये इसमें कहा है कि आसक्ति ही
अशुभता/अशुद्धता की जननी है और
इसीलिये आसक्ति अनावश्यक हैं,
निरर्थक है।
जैसा कि प्रश्न किया गया है कि
अनासक्ति को अनासक्ति में
कैसे परिवर्तित किया जाये,
आसक्ति से कैसे ऊपर उठा जाये।
जिसका उत्तर दिया है कि
आसक्ति से मुक्त होना ही अनासक्ति हैं।
आसक्तिहीन होने के लिए
अपने और पराए का
भेद मिटाना अनिवार्य है
यानि कि सब में प्रभू का नूर समाया
कोई नहीं है जग में पराया,
यानि के वासना/कामना रहित आसक्ति।
आसक्ति किसी पदार्थ से भी हो सकती है और
किसी शक्ल से भी।
जब आसक्ति किसी पदार्थ से होती है,
तो यह तामसिक श्रेणी की होती है ।
जब आसक्ति किसी शक्ल से होती है,
तो यह राजसिक श्रेणी की होती है ।
जब आसक्ति केवल और केवल अदृश्य परम चेतन तत्व से होती है
तब ही इस संपूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान शक्ल और पदार्थ से अनासक्ति होती है और
ऐसी आसक्ति सात्विक श्रेणी की होती है ।
इस तरह से आसक्ति को अनासक्ति मे परिवर्तित किया जा सकता है।
अनासक्त बनने के लिये परम आवश्यक है
ध्यान
जब हम बाहरमुखता से हटकर
अंतरमुखी होंगे और
अंदर विद्यमान परम सुख को
अपने ही अंदर ध्यान के माध्यम से खोजेंगे
तब ही उस शाश्वत/सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है।
लेकिन इस सच्चे सुख/परमानन्द/
ब्रह्मानंद/दिव्य सुख की प्राप्ति तभी संभव हो सकती है,
जब हम निर्विषयी/निर्विकारी/निष्पाप होंगे और
कोई ऐसा तो तभी हो सकता है
जब वह अपने ज्ञान दाता के ज्ञान को याद रखे,
यह याद रखे कि
इन आंखों से जो भी कुछ दिखायी दे रहा है,
सब हर पल हर क्षण परिवर्तित हो रहा है और
एक ना एक दिन नष्ट हो जायेगा,
एक ना एक दिन पंचतत्व में विलीन हो जायेगा।
यानि के यह जो शरीर है
यह नश्वर है,
अधिकतर मनुष्य तन/शरीर/काया को अपना मानते हैं,
लेकिन वास्तव में वह तन/शरीर/काया तो एक साधन है,
मुक्ति प्राप्त करने का।
जैसे कि हमें मकान की छत पर जाना है
तो हम उपर चढ़ जाते हैं और
फिर सीढ़ी को भूल जाते हैं और तब तक भूले रहते हैं,
जब तक वापस नीचे जाने की
आवश्यकता महसूस नहीं रहती है।
तो आत्मा इस शरीर के
माध्यम से मुक्त हो जाती है, और
शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है,
इसीलिय जो भी नश्वर है,
नष्ट होने वाले हैं उनसे अनासक्ति आवश्यक है
चाहे वह हमारा शरीर हो
या अन्य किसी का शरीर हो।
चाहे वह कोई पदार्थ हो
हमारा हो या किसी अन्य का
उनसे अनासक्ति ही मोक्ष की पगडंडी है।
जो भी सुख हमें दूसरे से प्राप्त होता है
वह सच्चा सुख नहीं होता,
वह कुछ समय का ही सुख होता है और
चार दिन की चांदनी और वही अंधेरी रात की तरह समाप्त हो जाता है,
जैसे कि इस संसार के लोग समारोह मनाते हैं,
चाहे वह जन्म दिन हो, सगाई, विवाह, सालगिरह हो, सब सुख एक दिन अथवा एक सप्ताह में समाप्त हो जाता है।
जो नृत्य हो रहा था
वह नृत्य थम जाता है,
जो संगीत बज रहा था
वह भी थम जाता है,
जो तरह.तरह के पकवानों का स्वाद चखा था,
वह भी समाप्त हो जाता है।
यानि मनुष्य वापस अपनी सामान्य दिनचर्या पर लौट आता है।
इसीलिये इसमें कहा गया है कि
हम अपने सुख को
सांसारिक तत्वों से
परिभाषित नहीं करें
जब तक हम ऐसा करते रहेंगे हम बंधते जाएंगे। क्योंकि
बाहर का सुख
बंधन को प्रगाढ़ करता है और
आंतरिक सुख
बंधनों को काटता है ।
अर्थात्
सांसारिक तत्वों
यथा इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्ल
जैसे कि
धन,
सत्ता,
सप्मत्ति,
सम्मान,
शक्ति,
रूप (स्त्री/पुरूष), आदि के माध्यम से
किसी को सुख प्राप्त होता है और
उस सुख के नशे में
वह अन्य अभावग्रस्त लोगों का मजाक उड़ाता है अथवा
उनका अपमान करता है
तो यह अहंकार का प्रतीक है और
बंधन का कारण है, क्योंकि
सान्सारिक सुख के साथ दुख भी जुड़े रहते हैं।
चाहे राजा हो या रंक चाहे कोई भी हो
दुख किसी का पीछा नहीं छोड़ता
जैसे दिन के बाद रात
जीवन के बाद मृत्यु
उसी तरह से सुख के बाद दुख का आना भी निश्चित है,
चाहे वह किसी भी रुप में आए।
भय
जिसके मन में
कुछ पाने की चाह है,
कुछ पाने की कामना है,
तो जहां
चाह है,
कामना है
तो जैसे मनुष्य क साथ उसकी परछाई जुड़ी है,
तो उसी तरह चिंता और भय भी
चाह/कामना के साथ जुडे रहते हैं।
भय का स्रोत है -
इच्छा
पाने की इच्छा होगी तो
उसे खोने का भय भी होगा ।
यदि जीवित रहने की इच्छा है तो
मृत्यु का भय भी अवश्य होगा।
केवल मनुष्य ही नहीं देवता गंधर्व सभी इस भय से ग्रसित है
क्योंकि इच्छाओं से मुक्त कोई भी नहीं।
जैसा कि कहानियां बनायी गयी हैं
सत्य है अथवा असत्य इस विवाद को छोड़ते हुए
केवल समझाने के उद्देश्य से ही कुछ प्रसंग हैं,
जैसे कि इन्द्र भी अपनी सत्ता छिन जाने के भय से बार-बार भयभीत हो जाता था।
इसी तरह से रावण भी श्रीराम से भयभीत था,
इसीलिये उसने श्रीराम के सामने सीता का हरण करने की हिम्मत नहीं की और
षडयंत्र रचकर सीताजी का हरण किया।
इसी तरह शकुनि को भी ज्ञात था कि
पांडवों को परास्त करना आसान नहीं है,
वह पांडवों के पराक्रम से भयभीत था,
इसलिये उसने उन्हें लाक्षागृह में जलाकर मार डालने का षड्यंत्र रचा।
हिरण्याकश्यप ने अमर होने के लिये तपस्या की
क्योंकि हिरण्यकश्यप भी मृत्यु से भयभीत था।
वैसे तो मृत्यु से तो अधिकतर
सभी भयभीत होते हैं,
चाहे वह
मनुष्य हो अथवा
जलचर अथवा
नभचर अथवा
थलचर।
तृष्णा
यानि के प्यास।
किसी को धन की प्यास है,
किसी को शक्ति की,
किसी को सुन्दर बनने की,
किसी को सम्पत्ति की
किसी को सुख पाने की।
सत्ता,
सम्पत्ति,
सम्मान,
शक्ति,
रूप (स्त्री/पुरूष) को
पाने के लिये ही मनुष्य साम-दाम,
दंड, भेद,
छल-करंट आदि
सब का प्रयोग बिना पाप-पुण्य का विचार किये करता है।
जबकि धर्म तो कहता है कि
संतोष करें जैसे कि-
एक फकीर जुन्नेद राह में
पत्थर से ठोकर खाकर गिर गया, पैर लहू-लुहान हो गया,
उसने उस परम तत्व को
इस दुर्घटना के लिये धन्यवाद दिया।
मित्रों ने कहा -
क्या तुम ठीक हो ?
तुम पागल तो नहीं हो गये?
फकीर ने कहा-
इसलिये धन्यवाद दे रहा हूं कि
इस छोटी सी चोट के स्थान पर
फांसी भी लग सकती थी।
सुकरात से कोई मिलने आया,
सुकरात आगुन्तक से बात कर रहे थे कि उनकी पत्नी सुकरात के लिये चाय बनाकर लाई,
लेकिन सुकरात का ध्यान आगुन्तक की तरफ था और पत्नी की तरफ नहीं गया।
पत्नी को अत्यंत क्रोध आया और उसने वह गर्म चाय सुकरात के मुंह पर फेंक दी।
सुकरात का आधा मुंह जल गया।
सुकरात ने फिर भी धन्यवाद अदा किया कि
मेरा आधा चेहरा तो जलने से बच गया।
जिसका मन हर स्थिति में प्रसन्न रहता है,
यानि
जो सुख को भी अपने स्वयं के कर्मों का प्रसाद और
उस अदृश्य शक्ति की अनुकम्पा समझकर ग्रहण करता है और
दुख को भी अपने स्वयं के कर्मों का प्रसाद समझकर और
उस अदृश्य शक्ति का न्याय समझकर ग्रहण करता है।
किसी भी बात के लिये
कोई गिला,
कोई शिेकवा
नहीं करता
उसके दोष भी समाप्त हो जाते हैं,
उसके संस्कार भी परिवर्तित हो जाते हैं।
विषय-विकार व पाप से ग्रसित होने के कारण ही
तृष्णा बलवती होती है,
यानि के इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्ल आदि पाने की प्यास जाग्रत होती है, और
विषय-विकार व पाप से ग्रसित होने के कारण ही
ईर्ष्या,
द्वेष,
निंदा,
षड्यंत्र आदि
सभी पाप उत्पन्न होते हैं
आसक्ति का सबसे बड़ा कारण भी विषय-विकार ही होते हैं।
जिसका मन विरक्त होता है
तो ऐसा विरक्त मन ही
आसक्ति रहित होता है,
ऐसे विरक्त मन वालों का ही
उद्धार होता है,
ऐसे मन वालों के ही दुखों का अंत होता है,
ऐसे विरक्त मन वालों के ही
समस्त भव बंधन कट जाते हैं
ऐसे मन वाले ही
मुक्ति के अधिकारी होते हैं।
भय के कारण ही
तृष्णा, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, षड्यंत्र जैसे पाप उत्पन्न होते हैं
प्रत्येक पाप का प्रायश्चित
केवल दुख और कष्ट उठाने से ही सम्भव होता है।
इसलिये भय भी अंत मे दुख का कारण बन जाता है।
सार –
ज्ञान और कर्म के समन्वय के बिना बंधन नहीं टूटते।
संसार से आसक्ति बंधन का कारण है और
संसार से अनासक्ति ही
मुक्ति की पगडंडी है,
जो मुक्ति तक ले जाती है,
उस अदृश्य तत्व की ओर ले जाती है।
सबका भला हो
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