जैन दर्शन का संदेश चिट्ठी आई है प्रभु जी

 सुप्रभात


जैन दर्शन का संदेश

चिट्ठी आई है प्रभु की


 जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण  करें। 


शुद्धता ही वह हथियार है, 

जिसके द्वारा उस परम लक्ष्‍य परम आनन्‍द/दिव्य सुख  को 

प्राप्‍त किया जा सकता है।


शुद्ध/पवित्र/पाक 


यह शब्‍द ऐसा है 

जो अधिकतर सभी धर्मों में विद्यमान है।


जो पापी/असुर/राक्षस/शैतान अधर्मी/निर्दयी है 

वही अशुद्ध/अपवित्र/नापाक है


इसके विपरीत 

जो धर्मवान/सुर/देव/फरिश्‍ता/दयावान है 

वही शुद्ध/पवित्र/पाक है।  


अहिंसा (मानव हिंसा अधिकतर सभी धर्मों में वर्जित है, केवल परहित /स्‍वयं/राष्‍ट्र/धर्म की रक्षा के लिये ही धर्म का पालन करते हुए  की गई हिंसा ही मान्‍य है), 

सत्‍य, 

अस्‍तेय,

ब्रह्मचर्य, 

अपरिग्रह, 

शौच, 

संतोष, 

तप,

स्‍वाध्‍याय,

सत्‍कर्म ही 

अधिकतर सभी धर्मों का सार है


और यही वह साधन है 

जो अशुद्ध को शुद्ध बना देता है।

पतित को पावन बना देता है।

हिंसक को अहिंसक बना देता है, 

निर्दयी को दयालु बना देता है। 




चिट्ठी आई है 

प्रभू की चिट्ठी आई है, 

बहुत जन्‍म के बाद 

लेकर प्रभू की फरियाद 

मुक्ति की मिट्टी आई है। 


जन्‍म की प्रक्रिया प्रारम्‍भ होते ही

सुख और दुख 

दोनों ही मानव के साथ जुड जाते हैं और 

वह सुख और दुख भी 

हमारे कर्मों का ही परिणाम होता है। 


चाहे कोई इसे माने या नहीं माने

लेकिन यह परम सत्‍य है, 

कर्म ही वह कारण है 

जिसके कारण इस संसार में 

असमानता देखने को मिलती है।


पूर्व में किये गये कर्म ही 

योनि निर्धारित करते हैं 

उसी के अनुरूप 

पशु

पक्षी

मानव

यानि जल, थल, नभ मैं रहने वाले  

समस्त जीवो  की योनि प्राप्‍त होती है। 


पूर्व में किये गये कर्मों के अनुसार ही

भिखारी, 

गरीब, 

अमीर या 

राजा के घर में 

स्‍त्री, 

पुरूष, 

नपुसंक 

के रूप में जन्‍म मिलता है। 


कर्म ही वह कारण है, 

जिसके कारण कोई अपने 

पुरूषार्थ 

के बल पर 

रंक से राजा और 

आलस्‍य/प्रारब्‍ध के कारण 

राजा से रंक बन जाता है। 


यह सब ज्ञान हमें प्राप्‍त होता है 

उस प्रभू की चिट्ठी के द्वारा 

यानी के 

आदर्श पुरूष के माध्‍यम से 

हमें यह सब ज्ञान प्राप्‍त होता है।


जब तक हम उस ज्ञान से वाकिफ नहीं होते 

समझ लें कि तब तक हमें वह चिट्ठी प्राप्‍त नहीं हुई है।


प्रभू की चिट्ठी में मुक्ति की युक्ति  का संदेश है


धर्म ग्रंथ अथवा

आदर्श पुरूष (गुरू) की 

सत्‍य वाणी ही 

प्रभू की चिट्ठी है, 


इसीलिए तो आदर्शपुरूष हमें 

उनके अंतर  मन में समाहित  

वह ज्ञान रूपी प्रभू की चिट्ठी सत्संग के माध्यम से  सुनाते है ।


हमें बार-बार सचेत करते हैं कि-

हमें कैसे कर्म करने चाहिये और

कैसे कर्म नहीं करने चाहिये?


प्रभू की चिट्ठी में यही वर्णन होता है कि

हम कैसे दुखों से छुटकारा पा सकते हैं,

हम कैसे 

अनन्‍त सुख/

परमानन्‍द/

दिव्‍य  सुख 

को प्राप्‍त कर सकते हैं। 


प्रभू की चिट्ठी में ही यह वर्णन होता है कि - 

यदि हम गृहस्थ है 

तो पहले तो हम अपने कर्मों के द्वारा 

अभ्‍युदय रूपी लक्ष्‍य को प्राप्‍त करें, 


यानि के धर्म के पथ पर चलते हुए सामाजिक/

आर्थिक/राजनैतिक उन्‍नति को प्राप्‍त करें,

 जिससे कि हम अपना तथा औरों का जीवन भी संवार सकें।


इस लक्ष्य  को हासिल करने के बाद 

अंतिम परम लक्ष्य (निश्रेयस) 

मोक्ष/

मुक्ति/

निर्वाण/

कैवल्य 

की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करें । 

जिसका परिणाम है 

सभी दुखों का अंत/अनन्‍त सुख की प्राप्ति 


इस अंतिम लक्ष्‍य तक पहुंचने का पथ  अत्‍यंत कठिन  है,

फिसलन भरा पथ है,


इस पथ पर हमारे संस्‍कारों

हमारी प्रवृत्ति के कारण 

ना जाने हम कितनी बार 

गिरते हैं

उठते हैं, 

फिर गिरते हैं,

कोई विरला ही इस लक्ष्‍य को 

प्राप्‍त कर पाता है। 


जैसे कि एक छोटा बच्‍चा

बार बार गिरता है, 

फिर चलने लगता है और 

फिर ऐसी स्थिति आ जाती है कि दौडने लगता है। 


लेकिन अत्यन्त  विकट माया मय संसार होने के कारण 

इस निश्रेयस रुपी  लक्ष्‍य की प्राप्ति के लिये 

हमारे संस्‍कारों/प्रवृ‍त्ति के कारण 

यह जीवन भी कम पड जाता है।


जैसा कि कहा है 

मन मरा ना माया मरी 

मर-मर गये शरीर 

आशा तृष्‍णा ना मिटी 


यह संसार इन्द्रियों के भोगों का विकट जाल है, 


संसार के अंदर विद्यमान सभी जीव 

भोगों को भोगने में लगे हुए हैं,


इस संसार के प्राणियों का मन 

संसार में विद्यमान पदार्थ /शक्लों/चेहरों/रुप में  ही उलझा हुआ है, 


इस संसार के प्राणियों ने पता नहीं 

किस किस को अपने मन में बैठा रखा है। 


जैसा कि राजा भरतरि के जीवन की घटना है और 

इस घटना के आधार पर ही उन्‍होंने राज्‍य का त्‍याग कर 

वैराग्‍य धारण किया था। 


प्राचीन उज्जैन के बड़े प्रतापी राजा भर्तहरि 

अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित थे और 

वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे।


राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। 

उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। 

गोरखनाथ ने राजा को एक फल दिया और कहा कि 

यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, 

कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।


राजा ने फल लेकर सोचा कि 

उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। 

चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे,

अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो

वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। 

यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। 


रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं 

बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। 

यह बात राजा नहीं जानते थे। 


जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया 

तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा 

तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। 


रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। 


वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और

उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। 

ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।


वैश्या ने फल पाकर सोचा कि 

यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी 

तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। 

नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। 


इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है।

राजा हमेशा जवान रहेंगे तो 

लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देते रहेंगे । 


यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। 


राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। 

राजा ने वैश्‍या से पूछा कि यह तुम्‍हारे पास कहां से आया। 

उसने बता दिया कि कोतवाल से। 

कोतवाल से पूछा तो कोतवाल घबरा गया और 

काफी यातनायें सहने के बाद उसने बता दिया कि पिंगला रानी से। 


आज इस संसार में भी ज्ञान के अभाव में यही हो रहा है, 

अधिकतर लोगों ने अपने मन को गंदा कर रखा है, 


पता नहीं कितनों को इस मन में स्‍थान दे रखा है,

पता नहीं कौन किसे धोखा दे रहा है, 

तन से धोखा देने वाले तो छुपछुप कर धोखा देते हैं,


लेकिन मन से धोखा देने वाले तो

 छुपे रूस्‍तम की तरह काफी तादाद में हैं। 


उनका मन रानी पिंगला और कोतवाल की तरह 

पता नहीं कितना  पाप/अधर्म से भरा हुआ है। 


चाहे स्‍त्री हो या पुरूष

चाहे वह धुर्त हो या सीधा 

कोई नहीं चाहता‍ कि उसका जीवन साथी 

अपने मन में किसी पर स्त्री/पुरूष को स्‍थान दे, 


लेकिन स्‍वयं  जो चाहता है 

वही करता है  

चाहे वह गलत हो या सही। 


यानी कि स्वयं तो गलत करता है 

लेकिन अपने जीवनसाथी से अपेक्षा करता है कि 

वह गलत नहीं करें।


जैसा पिंगला ने  किया 

जैसा कोतवाल ने किया


ऐसा तो केवल एक इन्‍द्री के कारण होता है, 

जिसका नाम है रूप इन्‍द्री 

यानी के आंख, 

आंख ही वह इन्‍द्री है 

जिसके कारण स्‍पर्श रूपी इन्‍द्री  बलवती होती है। 


इसी आंख के कारण मन मलिन होने के कारण 

सूरदास ने अपनी आंखें स्‍वयं ही  फोड ली थी,


ज्ञान तो ऐसा करने को नहीं कहता 

अपितु अंदर स्थित तीसरी आंख को खोलने के लिये 

अपनी आंखों का उपयोग करने का निर्देश देता है,


अपनी आंखों द्वारा ग्रंथ के माध्‍यम से

 ज्ञान हासिल करने के लिये निर्देश देता है। 



धर्म कहता है कि हम हमारी इन्द्रियों का उपयोग 

जीवित रहने के लिये करें 

ना कि भोगों में डूबे रहने के लिये करें। 


हम खाने के लिये नहीं जियें 

अपितु जीवित रहने के लिये ही भोजन ग्रहण करें। 


रसना कहती है कि 

चाहे अहितकारी हो लेकिन मुझे स्‍वाद चाहिये, 

ज्ञान कहता है कि नहीं चाहे स्‍वाद नहीं मिले 

लेकिन जो हितकारी है वही ग्रहण करना चाहिये। 


श्रवण इन्‍द्री गप्‍प बातें 

हंसी मजाक की बातें 

किसी की बुराई की बातें

बहुत ही  रूचि से सुनती है, 


लेकिन ज्ञान की बात 

या तो बेमन से सुनती है और 

या फिर सुनकर उसे दूसरे कान से निकाल देती है। 


आज गंध भी प्राकृतिक और अप्राक़ृतिक उपलब्‍ध है।


प्राकृतिक हितकारी है और अप्राकृति अहितकारी 

लेकिन इन्‍द्री को तो केवल गंध से मतलब है। 

 

उपर मेरा नाम लिखा है

अन्‍दर यह पैगाम लिखा है

ओ संसार में रहने वाले

कर्म की मार को सहने वाले काल अनन्‍त से घूम रहा तू 

नश्‍वर सुख को चूम रहा तू 


उपर मेरा नाम लिखा है 

यानि के जब कोई ज्ञान/गुरू के सम्‍पर्क में आता है

उसके कान उसकी वाणी के सम्‍पर्क में आते हैं, 

या 

उसकी आंखें उसकी कलम का लिखा हुआ पडती है 

तो समझ लें कि प्रभू द्वारा लिखी गई चिटठी सुनने वाले 

पडने वाले को प्राप्‍त हो गई है और 

यह चिटठी इतनी लम्‍बी है कि

 एक बार में पूरी नहीं हो सकती, 

इस चिटठी को पढने के लिये काफी समय लगता है। 

इसीलिए बार-बार सत्संग किया जाता है 

इसीलिए समझाने के लिए ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं ।


अब यह चिटठी पढने के बाद 

कुछ शिष्‍य तो अर्जुन, कर्ण, एकलव्‍य की तरह सिद्ध हस्‍त हो जाते हैं और 

कुछ में कमी रह जाती है। 

कुछ ज्ञानी होने के बाद भी रावण की तरह 

अज्ञान मय कर्म करते हैं और 


कुछ दुर्योधन की तरह 

अपने संस्‍कार अपनी प्रवृत्तियों के कारण 

नहीं चाहते हुए भी 

ज्ञान के विपरीत कर्म करते ही रहते हैं और 

अपना जीवन जीते जी ही तबाह कर लेते हैं, 


जैसा कि दुर्योधन ने स्‍वीकार किया है कि 

मुझे पता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं गलत कर रहा हूं,

लेकिन मैं क्‍या करूं मेरे संस्‍कार मेरी प्रवृत्ति के कारण 

मैं नहीं चाहते हुए भी गलत करता रहता हूं।


इसी तरह धृतराष्‍ट्र ने कहा कि मुझे पता है कि 

क्‍या गलत है और क्‍या सही 

लेकिन जब दुर्योधन मेरे पास आता है तो 

मेरी बुद्धि को पता नहीं क्‍या हो जाता है कि 

पुत्र मोह वश मैं उसकी गलत बातों को भी मान लेता हूं।  


इस संसार में अधिकतर लोग 

लोकेष्‍णा, 

पुत्रेषणा

वित्‍तेष्‍णा 

में ही पूरा जीवन बिता देते हैं।


यानि के इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लों की तृष्‍णा/चाह में ही 

सारा जीवन बिता देते हैं और

इनकी तृष्‍णा/चाह/प्‍यास ही 

उसके बंधन को और प्रगाढ बना देती है।

 

तो चिटठी का लेखक तो मार्ग दाता ही है 

क्‍योंकि ज्ञान तो अदृश्‍य रूप से सभी के अंदर समाहित है और 

जो अपने अंदर के पाप से परे हो जाता है 

उसके अंदर वह ज्ञान उजागर होने लग जाता है और 

वह मार्ग दाता निस्‍वार्थ भाव से 

सबको वह ज्ञान प्रदान करने लगता है। 


किसी अपवाद को छोडकर 

इस संसार में जो भी आता है,

वह पहले घुटनों के बल चलता है, 

उसके बाद ही वह अपने पैरों पर खडा हो पाता है, 

कोई ऐसा नहीं जो पैदा होते ही चलने लग जाता हो। 


इसी तरह गुरू जन्‍म से पैदा नहीं होते, 


अपितु गुरू बनते हैं 

अपने ज्ञान के अनुरूप किये गये सत्‍कर्मों के कारण। 


एक सामान्‍य शिष्‍य और गुरू में केवल इतना ही अंतर है कि 

जो गुरू मार्ग दाता बना है 

उसने यह लक्ष्‍य जन्‍म से प्राप्‍त नहीं किया है 

अपितु अपने सत्‍कर्मों के आधार पर प्राप्‍त किया है।


शुरू में अधिकतर सभी अल्‍पज्ञ होते हैं, 

चाहे वह गुरू हो या शिष्‍य, 

लेकिन ज्ञान और निष्‍काम कर्म रूपी तपस्‍या के बल पर 

एक शिष्‍य गुरू  में परिवर्तित हो जाता है अथवा 

गुरू के समतुल्‍य हो जाता है। 


तो जो वर्षों ज्ञान रूपी अग्नि में 

कर्म रूपी तप से तपा 

वह कोयले (शिष्‍य) से हीरा (गुरू) बन गया। 

जैसे कि जब कोयला 

हजारों वर्ष तक दबा रहता है 

तभी हीरे में परिवर्तित होता है। 


तो उसी तरह अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में भी वर्षों लगते हैं ।


भगवान बुद्ध को 6 वर्ष और 

महावीर स्वामी को 12 वर्ष लगे थे


तो जो कोयले से हीरा बना उस गुरू ने चाहा कि 

सभी मेरी तरह कोयले से हीरा बन जायें।


तो गुरू चिटटी का लेखक है 

चिटटी देने वाला है और 

कोयला (शिष्‍य अथवा कोई भी संसारी व्‍यक्ति) 

चिटटी का प्राप्‍तकर्ता है। 


शाश्‍वत सुख है तेरे अंदर 

क्‍यों भटके तू वनदर वनदर


जैसा कि कहा गया है कि 

उस दिव्‍य सुख की तुलना में सांसारिक सुख धूल के समान हैं, 


तो जिसने भी विषय विकार व पाप से परे होकर 

उस अदृश्‍य दिव्‍य सुख/ परमानन्‍द की अनुभूति अपने अंदर कर ली है


दरअसल वही पूरी तरह से कोयले से हीरा बना है। 


और वही सच्‍चा गुरू कहलाने योग्‍य है। 


हमारे ग्रंथ कहते हैं कि 

उस दिव्‍य आनन्‍द/सुख की अनुभूति को अक्षरों में या शब्‍दों में व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता है 


उसे केवल अनुभव/महसूस किया जा सकता है, 


जैसे कि तिल में तेल है, 

लेकिन वह अदृश्‍य है, 

उसे घाणी के माध्‍यम से ही प्राप्‍त किया जा सकता है। 


उसी तरह सच्‍चा सुख हमारे अंदर है, 

कहीं बाहर नहीं 

वह अदृश्‍य है और 

वह केवल ज्ञान के अनुसार आचरण करने पर ही 

ध्‍यान के माध्‍यम से अनुभव किया जा सकता है। 


इसीलिए चिटटी में भी यही संदेश है कि 

सच्‍चा सुख अपने अंदर है और

उसे अपने अंदर ही अनुभव किया जा सकता है। 


अंत में तेरे साथ क्‍या आया,

मुझको छोडकर तूने क्‍या पाया।


हमारे  द्वारा संचित  किए गए कर्म अथवा

ज्ञान के अतिरिक्‍त ऐसा कुछ भी तो नहीं 

जो हम इस संसार से ले जा सकें, 


एक व्‍यक्ति ने कोशिश की 

वह मरने से पहले सोने की मुहर निगल गया, और

जब जलाया गया तो उसके जलने के दौरान 

वे मुहर उसके पेट में नजर आई। 


इसी तरह काशी करवट के नाम पर भी 

लोगों को मुर्ख बनाया गया कि 

आप रूपया पैसा रखकर 

अपने शरीर को आरे से कटवा लें और 

आपका शरीर आरे से कटने के बाद 

आपकी जेब में रखा हुआ पैसा आपके साथ चला जायेगा। 


लेकिन उस रूपये का फायदा 

उन लोगों ने उठाया 

जिन लोगों ने यह नाटक रचा था, 

तैराकों की मदद से वह रूपया निकलवा कर 

उन्‍होंने ऐशो-आराम का जीवन जीया।


इसी तरह सत्‍यार्थ प्रकाश में पोप जी का वर्णन आता है कि 

आप यहां हुण्‍डी लिखवा दें 

आपको मरने के बाद जब उपर पहुंचोगे तो 

सारा रूपया वापस मिल जायेगा। 

भोले भाले लोग ऐसे लोगों के बहकावे में आ जाते हैं।


गुरू नानक जी ने अपने धनवान शिष्‍य को एक सुंई दी और कहा कि 

अगले जन्‍म में वापस दे देना। 

धनिक ने  कहा कि मैं तो जल जाउंगा 

फिर यह सुंई तो यहीं रह जायेगी 

मैं आपको कैसे वापस दे सकूंगा। 


तब गुरू नानक ने समझाया कि 

जब कुछ नहीं ले जा सकते 

तो इस धन का सदुपयोग करो

जरूरतमंदों की मदद करो।


एक कंजूस व्‍यक्ति था, 

उसने बहुत सारा रूपया जोड रखा था और 

उसे भूमि में गाढ रखा था,

रोज देखने जाता था कि 

कहीं गायब तो नहीं हो गया। 

वह नौकर का भी शेाषण करता था, 

बहुत कम् पैसे देता था। 


एक दिन नोकर ने देख लिया और धन चुरा कर ले गया। 


कंजूस ने राजा से शिकायत की 

राजा ने कहा कि 

वैसे भी तुम उस धन का उपयोग तो करते नहीं थे 

तो अच्‍छा हुआ तुम्‍हारा रोज रोज देखने का झंझठ खत्‍म हुआ और

नौकर को भी तुम जैसे कंजूस से छूटकारा मिल गया। 


तो आज ऐसे धन को सूंघने वाले 

भी इस संसार में देखने को मिल जायेंगे 

जो जीवन भर पैसा जोडते हैं और 

मरने के बाद सब पीछे वालों के लिये छोड जाते हैं,

ना तो वे वह पैसा खुद पर ही खर्च करते हैं और 

ना ही किसी जरूरत मंद के ही उपर करते हैं। 


प्राचीन समय में एक व्‍यक्ति 

सोना, चांदी हीरे जवाहरात की वर्षा करवाने का मंत्र का ज्ञाता था, 

लेकिन वह इसका उपयोग खुद के लिये नहीं कर सकता था। 


वह गरीब था, 

उसने सोचा राजा को यह धन उपलब्‍ध करवा देता हूं।

राज्‍य भी खुशहाल होगा और 

मेरी गरीबी भी दूर हो जायेगी।


वह राज्‍य की ओर चला, 

रास्‍ते में जंगल था, 

जंगल में डाकूओं का गिरोह था।


शैतान सिंह नाम के डाकू ने उसे पकड लिया और

कहा कि इस जंगल में प्रवेश करने के लिये तुझे कर देना होगा। 


उसने कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है, मैं निर्धन हूं। 


लेकिन डाकू नहीं माना उसे बांध दिया मारने के लिये, 


उसने कहा राजा तक मेरा संदेश पहुंचा दो कि

मैं उनके हित के लिये उनसे मिलना चाहता हूं 

बदले में कुछ धन डाकुओं तक पहुंचा दें। 


लेकिन काफी प्रतीक्षा करने के बाद भी कोई नहीं आया। 


डाकू उन्‍हें मारना ही चाहता था कि 

व्‍यक्ति ने उसे सच्‍चाई बता दी और

विधि विधान से दीर्घ मंत्र जप के द्वारा 

सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात की वर्षा प्रारम्‍भ हो गयी।


तभी दूसरा डाकू मलखान सिंह भी वहां पहुंच गया। 

सभी आपस में लडने लगे 

दोनों डाकुओं को छोडकर शेष सभी खत्‍म हो गये। 

दोनों ने काफी देर तक लडाई की

थक कर फैसला किया कि आधा-आधा बांट लेते हैं। 


दोनों को थकने के कारण बहुत तेज भूख लग रही थी। 

शैतान सिंह ने कहा कि मलखान 

तुम इस खजाने की देखभाल करो में भोजन लेकर आता हूं।


रात्रि होते होते शैतान सिंह वापस आ गया, 

मलखान उसे धोखे से मारने के लिये छिप कर बैठा था, 

उसने मौका देखते ही पीछे से वार कर उसकी हत्‍या कर दी और

शैतानसिंह द्वारा लाया गया भोजन खा लिया।


शैतानसिंह ने भोजन में जहर मिला दिया था, 

ताकि मलखान भोजन के कारण आसानी से मर जाये। 


वहां केवल लाशों का ढेर व खजाना ही बचा रह गया।  


सब धन के लिए एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे।

सारा धन वही पड़ा रह गया और 

वे सभी  खाली हाथ ही संसार से विदा हो गए ।


धन के लिये तू कर्म को त्‍यागे

मुझ से भी भोग की भीख तू मांगे

योग दशा को तूने ना पायी 

भव की भ्रमणा व्‍यर्थ बढाई 


आज इस संसार में सब अपने आराध्य से यही मांगते हैं कि -

है आराध्य कृपा कर के 

ऐसा कर दो। 

वैसा कर दो ।

यह दे दो 

वह दे दो, 


लेकिन कर्म नहीं करना चाहते हैं,


 जबकि ज्ञान कहता है कि 

है मानव तू पुरूषार्थी बन कर 

कर्म  करेगा तो तुझे जो चाहिये 

वह मिल भी सकता है, 


अत: कर और पा। 

यही है  

असली कृपा


चिटठी का ज्ञान कहता है कि -


भोगों को त्‍याग दें। 

केवल जीने के लिये 

त्‍याग पूर्वक भोग करें,

लालच नहीं करें। 


यदि भोगों की चाह/तृष्‍णा रहेगी तो 

कभी भी दिव्‍य सुख की अनुभूति नहीं की जा सकती है।

कभी भी व्‍यर्थ के विचारों/संकल्‍पों से दूर नहीं हो सकते है,

कभी ध्‍यान नहीं कर सकते है,

एक तरफ संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍लें हैं 

जिनका चिंतन मनन इस संसार में

जन्‍म लेने और मरने के चक्र में बांधे रखता है,


दूसरी और दिव्‍य सुख/परमानन्‍त/अनन्‍त सुख है 

जो जन्‍म मरण के चक्र से दुखों से छुटकारा दिलाता है।


मेरी ही बात में करता दलीलें

नाम तू करने जहर भी पी ले 


आदर्श पुरुष कहते हैं कि

जो मैं उपदेश देता हूं या

जो मैं कहता हूं, 


है शिष्य तूम उसे गहराई से नहीं लेते हो , 


अपने मन का गुलाम होकर

अपना स्‍वार्थ सिद्ध करने के लिये 

तुम जहर भी पीने को तैयार हो जाते हो, 


यानि के तुम मेरे सत्‍कर्म के उपदेश के विरूद्ध 

दुष्‍कर्म करने से भी नहीं हिचकाते हो । 


तुम्हारा तन तो मेरे आगे झुका लेकिन 

अफसोस तुम्हारा मन मेरी वाणी से कोसो दूर है, 

गुरू/ज्ञान कहता है कि निन्‍दा नहीं करना, 

लेकिन अफसोस शिष्‍यों के मन में निन्‍दा ने ऐसा घर बना रखा है कि

उसमें दूसरों की निन्‍दा का चिंतन चलता ही रहता है।


मनुष्‍य स्‍वयं की तारीफ तो पसन्‍द करते हैं, लेकिन 

यदि कोई उसकी  निन्‍दा करे 

चाहे वह सत्‍य हो या असत्‍य उसे मनुष्‍य कतई पसन्‍द नहीं करता है। 


यदि असत्‍य निन्‍दा पसन्‍द नहीं आये तो भी क्रोध नहीं करना है, 

हां यदि सत्‍य निन्‍दा हो तो 

उस निन्‍दनीय व्‍यवहार को सुधारने का 

पूरा प्रयास करना चाहिये।  


यानी कि सभी विकारों से मुक्त होना चाहिए।


अपने मन में समाहित संस्‍कार/प्रवृत्तियों के कारण 

अधिकतर लोग अपने संस्‍कारों/प्रवृत्ति के अनुसार 

उपदेश का अर्थ निकालते हैं 

कुछ तो उपदेश को ही तोड मरोड कर 

अपने स्‍वार्थ की सिद्धी हेतु ही कर्म करते रहते हैं।


 उदाहरण के लिये एक कथा इस प्रकार है-


जिसकी जैसी भावना


एक बार बुद्ध कहीं प्रवचन दे रहे थे। 

अपना प्रवचन ख़त्म करते हुए उन्होंने आखिर में कहा, 

जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है। 

सभा विसर्जित होने के बाद 

उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा,

चलो थोड़ी दूर घूम कर आते हैं। 

आनंद बुद्ध के साथ चल दिए।

अभी वे विहार के मुख्य दरवाजे तक ही पहुंचे थे कि 

एक किनारे रुक कर खड़े हो गए।

प्रवचन सुनने आए लोग एक- एक कर बाहर निकल रहे थे। 

इसलिए भीड़ सी हो गई थी| 

अचानक उसमे से निकल कर 

एक स्त्री गौतम बुद्ध से मिलने आई।। 


उसने कहा तथागत मै नर्तकी हूं| 

आज नगर सेठ के घर मेरे नृत्य का कार्यक्रम पहले से तय था, 

लेकिन मै उसके बारे में भूल चुकी थी। 

आपने कहा, समय निकला जा रहा है 

तो मुझे तुरंत इस बात की याद आई। 


उसके बाद एक डकैत बुद्ध की ओर आया। 

उसने कहा, तथागत मै आपसे कोई बात छिपाऊंगा नहीं।

मै भूल गया था कि आज मुझे एक जगह डाका डालने जाना था

कि आज उपदेश सुनते ही मुझे अपनी योजना याद आ गई।

बहुत बहुत धन्यवाद!


उसके जाने के बाद धीरे धीरे चलता हुआ 

एक बूढ़ा व्यक्ति बुद्ध के पास आया।


वृद्ध ने कहा, जिन्दगी भर दुनियादारी की चीजों के पीछे भागता रहा। 

अब मौत का सामना करने का दिन नजदीक आता जा रहा है, 

तब मुझे लगता है कि सारी जिन्दगी यूं ही बेकार हो गई। 

आपकी बातों से आज मेरी आंखें खुल गईं। 

आज से मै अपने सारे दुनियादारी, मोह छोड़कर 

निर्वाण के लिए कोशिश करना चाहता हूं। 


जब सब लोग चले गए तो बुद्ध ने कहा, 

देखो आनंद! प्रवचन मैंने एक ही दिया, 

लेकिन उसका हर किसी ने अलग अलग मतलब निकाला। 


जिसकी जितनी झोली होती है, 

उतना ही दान वह समेट पाता है। 

निर्वाण प्राप्ति के लिए भी मन की झोली को उसके लायक होना होता है। 


इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है।


कल क्‍या होगा तू नहीं जाने 

फिर भी तू खुद को ईश्‍वर मानें 


संसार के अधिकतर मनुष्‍य  अहंकार में इतने डूबे हुए हो  कि 

उन्‍हें  मृत्‍यु भी याद नहीं रहती है, 


और इसी अंहकार में जैसे रावण ज्ञान को भूलकर  

स्वयं को ईश्वर मानता था, 

ईश्वर से बड़ा मानता था  और अंत तक  

इसी अभिमान में  ठहाके लगाता रहा। 


लेकिन  जब उसकी नाभि में तीर लगा और 

उसकी मृत्यु निकट आ गई  तब उसे होश आया  और

उसने स्वीकार किया  कि

उसका अहंकार 

उसके ज्ञान के विरुद्ध किए गए दुष्कर्म ही 

उसके पतन का कारण, 

उसकी मृत्यु का कारण  बने हैं।


तो इसी तरह अधिकतर लोग 

स्‍वयं को बहुत बडा समझते है,


लेकिन सत्यता तो  यह है कि 

चाहे कोई स्‍वयं को कितना भी बडा समझ ले,

लेकिन उन्हें पता नहीं कि 

कब उनके  सामने दुख प्रकट हो जाये, 


पता नहीं कब  

हाथ,

पैर या 

अन्‍य किसी अंग के कारण

दूसरों पर आश्रित हो जाये।


जिस नश्‍वर शरीर पर इतना अभिमान करते हैं  

वह पता नहीं कब राख के ढेर में बदल जाये।


जब मनुष्‍य को उसके समक्ष आने वाले दुखों का पूर्व आभास होने लगे 

तब समझना चाहिये कि अहंकार खत्‍म होने की ओर अग्रसर हो रहा है।


सुख से डरे तू दुख को वरे तू 

हंसते हुए जो सहन करे तू 

तो ही मुझ से होगी सगाई 

शुद्धि बिना सिद्धी नहीं भाई। 


आदर्श पुरुष कहते हैं कि 

जिस समय तुम सुखद अवस्‍था में हो 

उस अवस्‍था में दुख को भूल नहीं जाना, 


अपितू उस सुखमय अवस्‍था में भी 

जो तुम्हारी इन्द्रियों को अप्रिय लगता है, 

उन्‍हें स्वीकार करना ।


जैसे कि तुम्हारी रसना मीठा, तीखा स्‍वाद मांगे तो 

इसे कडवा/कसैला  (मेथी, करेला, नीम, गिलोय, आंवला आदि) स्‍वाद भी अवश्‍य ही चखाना

यह मीठा, तीखा तुम्हारे शरीर को रोगों का घर बना देगा। 


अधिक मोबाईल/टीवी/कम्‍प्‍यूटर का सम्‍पर्क तुम्हारी आंखों की रोशनी कम कर देगा, 


तेज ध्‍वनि मय संगीत 

तुम्हारी श्रवण शक्ति कमजोर कर देगा, 


मस्तिष्‍क में चलने वाले व्‍यर्थ विचार

तुम्हे तनावग्रस्‍त कर देगें।


तला-भुना तुम्हारी हृदय गति को 

तुम्हारे रक्‍त संचार को अनियंत्रित कर देंगे। 


मैदा, तेल और फ्रिज का ठंडा पानी तुम्हारे पेट का आकार बढा देगा, 

तुम्हारी आंतो में गंदगी जम जायेगी और

 तुम्हारी आंतें और अन्‍य अंदरूणी अंग वायरलों/जीवाणुओं का घर बन जायेंगे। 


आदर्श पुरुष कहते हैं कि उनके जीवन दर्शन से प्रेरणा लें और


उनके जीवन दर्शन का अनुसरण करें  और 

उनकी तरह ही अपना खान-पान बनायें , 

उनकी  ही तरह इन्द्रियों को वश में करें ,

उनकी  ही तरह अपने मन को वश में करने का प्रयास करें, 

उनकी  ही तरह मन मुखता को त्‍याग दें  

जो सुख स्‍वयं के ही दुख का कारण बने 

ऐसे सुखों से डरना चाहिये ओर 

ऐसे सुखों का त्‍याग करके 

ऐसे दुख जो स्‍वयं के सुख का कारण बने उनका वरण करना चाहिये।  


फिर निरोगिता प्राप्‍त होगी ओर 

इसी दुख के वरण के कारण 

 उस अदृश्‍य परम आन्‍नद की भी प्राप्ति होगी और 

वह परम आनन्‍द की प्राप्ति ही जीते जी मुक्ति है।


दुख देकर तू सुख क्‍यूं मांगे

सुख के मार्ग से दूर क्‍यों भागे

पाप में निश दिन तू जगता है

अपनी ही जात को क्‍यूं ठगता है।


आदर्श पुरुष कहते हैं कि यह अटल सत्‍य है कि 

यदि तुम किसी को दुख दोगे तो 

बदले में तुम्हे  दुख ही मिलेगा, 


जैसे कि मिर्ची के बीज से 

मिर्ची ही प्राप्‍त होती है, 


सुख का मार्ग तो यही है कि - 


तुम पापकर्मों से दूर हो जाओ।

निष्‍पाप हो जाओ, 

इन्द्रियों के भोगों से दूर हो जाओ।

स्वार्थ से दूर हो जाओ। 

निष्‍काम भाव से सत्‍कर्मी बन जाओ,

स्‍वार्थ भाव को छोडकर परमार्थी बन जाओ। 


दुलर्भ मानव जन्‍म तू पाया

अब तो सुधर जा मेरे भाया

अपने मन को अब तू मना ले

शुद्ध स्‍वरूप को लक्ष्‍य बना ले,

तेरा स्‍वरूप भी मेरे जैसा 

जो पाना हो तो छोड दे पैसा।


यह मानव जन्‍म शुभ संचित कर्मों का ही परिणाम है,


इस मानव जन्‍म को हमने 

अपने शुभकर्मों के आधार पर प्राप्‍त किया है, और 

इस मानव जीवन को सुधारने पर ही 

अंतिम और परम लक्ष्‍य प्राप्‍त किया जा सकता है।


इस परम लक्ष्‍य को पाने के लिये 

तुम्हें इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍ल का लालच छोडना ही होगा, 

जैसे कि भगवान बुद्ध, महावीर स्‍वामी, स्‍वामी दयानन्‍द जी आदि ने सर्वस्व त्याग कर छोड़ा था और 

रैदास, कबीर आदि ने गृहस्थ में रहते हुए भी 

तन- मन से छोड़ा था 

इसी का परिणाम था कि 

उन्‍होंने जीते जी उस दिव्‍य सुख/परम आनन्‍द का अनुभव किया धा।


जीवन जीने का ढंग इस दोहे में समझाया है - 


सांई इतना दीजिये 

जामे कुटुम्‍ब समाये 

मैं भी भूखा ना रहूं 

साधू ना भूखा जाये, 


प्रीत पराई छोडकर आ जा 

कर्म का पिंजरा तोडकर आजा 


इस परम लक्ष्‍य की प्राप्ति के लिये तुम्हे 

मोह-माया, 

लोभ, 

स्‍वार्थ, 

क्रोध, 

ईर्ष्‍या, 

राग-द्वेष 

आदि का त्‍याग करना ही होगा,


 इनसे प्रीति तोडनी ही होगी।


और जिस दिन इनसे प्रीति टूटेगी 

कर्म का पिंजरा स्‍वत: ही टूट जायेगा। 


क्‍योंकि विषय-विकार युक्‍त व पाप मय कर्म ही 

कर्म रूपी पिंजरे का निर्माण करते हैं और


निर्विषयी, 

निर्विकारी, 

पापरहित कर्म 

उस कर्म रूपी पिंजरे को तोड देते हैं। 


आजा जग तो दुख से भरा है 

मुक्ति नगर में सुख पूरा है। 


इस जग में ऐसा कोई नहीं 

जिसने कभी दुख का सामना नहीं किया हो, 


जिसके शरीर ने पीढा का अनुभव नहीं किया हो, 


चाहे उस पीढा का कारण शारीरिक हो 

आर्थिक हो, 

सामाजिक हो, या 

राजनैतिक हो। 


प्रथम पीडा तो जन्‍म के दौरान ही भुगतनी पडती है 

दूसरी पीढा वृद्धावस्‍था में और

तीसरी पीढा मृत्‍यु के अंतिम क्षणों में भुगतनी ही पडती है।


लेकिन मुक्ति नगर ऐसा नगर है, 

जहां पर सभी दुखों का अंत हो जाता है, 

जहां ना इस नश्‍वर तन की आवश्‍यकता है, 

ना धन की, 

ना भोजन की 

ना पानी की

ना ही रोगों का भय है 

ना ही किसी भी तरह की चिंता है। 

केवल आनंद ही आनंद है।


इस संसार में ऐसा कोई नहीं 

जो केवल और केवल सुख ही चाहता हो। 


माना कि इस संसार में पैसा ही ऐसा है 

जो इस नश्‍वर शरीर को अधिकाधिक सुख की अनुभूति करवाने में सक्षम है, 


लेकिन इसे हासिल करने के लिये 

अधिकतर लोगों को अथक मेहनत करनी पडती है। 


पैसा अधिकाधिक सुख तो प्रदान कर सकता है,

लेकिन दुखों से पीछा नहीं छुडवा सकता है, 


जैसे कि कोई अत्‍यंत धनवान है 

लेकिन दुर्घटना में किसी अंग के क्षतिग्रस्‍त होने पर

उत्‍पन्‍न होने वाले दुख को पैसा खत्‍म नहीं कर सकता है। 


दुर्घटना भी दो तरह की होती है 

एक दृश्‍यमान 

दूसरी अदृश्‍य।


दृश्‍यमान दुर्घटना का कारण हम स्‍वयं भी हो सकते हैं अथवा 

कोई अन्‍य भी हो सकता है,


 लेकिन अदृश्‍य दुर्घटना का कारण हम स्‍वयं होते हैं, 


उसके लिये हम किसी को दोष नहीं दे सकते 

क्‍योंकि अदृश्‍य दुर्घटना की नींव हमारे द्वारा 

जान बूझकर या अनजाने में रखी जाती है। 


जैसे किसी को पता नहीं कि उसे शक्‍कर की बीमारी है और 

फिर भी जांच होने से पहले तक 

वह शकक्‍र की बीमारी बढाने वाले पदार्थों का सेवन करता है 

तो यह दुर्घटना को परिपक्‍व करना ही है, 


दूसरी और ऐसा इन्द्रियों का गुलाम 

जिसे पता चल चुका है कि उसे शक्‍कर की बीमारी है, 

लेकिन फिर भी शक्‍कर का त्‍याग करने के लिये तैयार नहीं


 तो वह ऐसी स्थिति में आ जाता है कि 

पता नहीं कब इस दुर्घटना के कारण 

राख के ढेर में तबदील हो जाये। 


ऐसे ही दिल की बीमारी का कारण भी 

तेल, ठंडा पानी व मैदा आदि पदार्थ होते हैं, 

इन्‍हीं के कारण हृदय से जुडी रक्‍त नलिकायें अवरूद्ध हो जाती है, और

इस बात की जानकारी होने के बावजूद भी 

कई लोग इस होने वाली अदृश्‍य दुर्घटना की परवाह किये बिना

ऐसी ही हानिकारक खाद्य सामग्री का सेवन करते रहते है। 


हमारे मार्ग दाता हमें मुक्ति नगर आने के लिये प्रेरित करते हैं,

उपदेश देते हैं,

हमें समझाते हैं कि 

मुक्ति नगर में किसी भी तरह की 

दृश्‍यमान अथवा अदृश्‍यमान दुर्घटना होने की कोई सम्भावना ही नही है। 


मुक्ति नगर ही 

वास्‍तविक स्‍वर्ग है,

वास्‍तविक जन्‍नत है। 

यह वह स्थान है जहां पर 

सभी दुख समाप्त हो जाते हैं।


सबका भला हो।


भजन इस प्रकार है-


चिट्ठी आई है प्रभू की 

चिट्ठी आई है, 


बहुत जन्‍म के बाद 

लेकर प्रभू की फरियाद 

मुक्ति की मिट्टी आई है। 

   

उपर मेरा नाम लिखा है 

अन्‍दर यह पैगाम लिखा है 

ओ संसार में रहने वाले 

कर्म की मार को सहने वाले काल अनन्‍त से घूम रहा तू

नश्‍वर सुख को चूम रहा तू 

शाश्‍वत सुख है तेरे अंदर

 क्‍यों भटके तू वनदर वनदर

   

अंत में तेरे साथ क्‍या आया, मुझको छोडकर तूने क्‍या पाया।

   

धन के लिये तू कर्म को त्‍यागे मुझ से भी भोग की 

भीख तू  मांगे 

योग दशा को तूने ना पायी 

भव की भ्रमणा व्‍यर्थ बढाई 

   

मेरी ही बात में करता दलीलें

नाम तू करने जहर भी पी ले 

   

कल क्‍या होगा तू नहीं जाने

फिर भी तू खुद को ईश्‍वर मानें 

   

सुख से डरे तू, दुख को वरे तू

हंसते हुए जो सहन करे तू 

तो ही मुझ से होगी सगाई 

शुद्धि बिना सिद्धी नहीं भाई। 

   

दुख देकर तू सुख क्‍यूं मांगे 

सुख के मार्ग से दूर क्‍यों भागे

पाप में निश दिन तू जगता है

अपनी ही जात को 

क्‍यूं ठगता है।

   

दुलर्भ मानव जन्‍म तू पाया 

अब तो सुधर जा मेरे भाया

अपने मन को अब तू मना ले शुद्ध स्‍वरूप को लक्ष्‍य बना ले,

   

तेरा स्‍वरूप भी मेरे जैसा 

जो पाना हो तो छोड दे पैसा

   

प्रीत पराई छोडकर आ जा 

कर्म का पिंजरा 

तोड कर आजा 

आजा जग तो दुख से भरा है

मुक्ति नगर में सुख पूरा है। 

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