मन में ही अमृत और विष दोनों भरे हैं मंथन
मारे मन में ही
अमृत और विष
दोनों भरा हुआ है
हमारी आत्मा परिशुद्ध है लेकिन तामसिकता रूपी बादलों ने उसे ढक रखा है
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अमृत मंथन कि जो कथा है
वह इसी ओर संकेत करती है कि एक तरफ
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
शोच संतोष तप स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान रूपी देवत्व खड़े हैं
दूसरी ओर
काम क्रोध लोभ मोह मत्सर खड़े हैं
कभी मन देवत्व/ सात्विक पक्ष की तरफ जाता है और
कभी यह मन असुरत्व /तामसिक पक्ष की तरफ जाता है
जब हम दृष्टा भाव रखते हुए मन में चल रहे विचारों का ध्यान रखते हैं
अपने हर एक कर्म का ध्यान रखते हैं
तब हमारे अंदर का वह हलाहल निकलना शुरू होता है और
मंथन करने के कारण ही
मन को मथने के कारण ही
यह पता चलता है कि
अब मन में से तामसिकता रूपी हलाहल बाहर निकल रहा है और
अमृत रूपी प्रकाश का धीरे-धीरे उदय हो रहा है
जैसे कि जब तक बादल हैं सूर्य छिपा रहेगा
उसी तरह जब विषय विकार व पाप रूपी बादलों का आवरण हट जाता है
तब वह अमृत प्रकट हो जाता है
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जैसे एक मूर्ति को बनाने में काफी समय लगता है
महीनों वर्षों लग जाते हैं
लेकिन उसे तोड़ना हो तो कुछ ही मिनटों में तोड़ सकते हैं
उसी तरह तामसिकता आसान है उसमें कुछ अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं तानसिकता एक गहरी खाई की तरह है और
इसके विपरीत सात्विकता
एवरेस्ट की चोटी की तरह है
जहां तक पहुंचने में काफी परिश्रम और समय लगता है वर्षों लग जाते हैं
जब तामसिकता मन से निर्वासित होती है
तब सात्विकता मन मे समाहित होती है
सात्विकता के पश्चात ही वह विशुद्ध प्रेम
कामना वासना रहित प्रेम उत्पन्न होता है
इसीलिए कहा है
प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय
जब तक मन में विषय विकार व पाप विद्यमान है
तब तक विशुद्ध प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता
इसीलिए तिर्गुणातीत निष्काम सात्विकता रूपी मन में ही वह विशुद्ध प्रेम समाहित होता है
यानी कि सात्विकता रूपी म्यान में ही वह (विशुद्ध प्रेम) परमात्मा समाहित होता है
जब मन परिशुद्ध हो जाता है
तब मन से आवाज आती हैं
कबीरा खड़ा बाजार में
मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती
ना काहू से बैर
स्थिति प्रज्ञता
तिर्गुणातीत अवस्था
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