दुख की अनुभूति होने पर सत चित आनंद परमात्मा से मन को जोड़ें

 सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-1

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 


कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 

तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे 

 (इस संसार के मनुष्‍य च तृष्‍णा/कामना/वासना )

तब तुम मेरे पास आना प्रिये

 (आध्‍यात्मिक दृष्टि से परमात्‍मा के पास)

मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा तुम्हारे लिये

(आध्‍यात्मिक दृष्टि से परमात्‍मा का द्वार)


अभी तुमको मेरी जरूरत नहीं

बहुत चाहने वाले मिल जायेंगे

अभी रूप का एक सागर हो तुम 

कंवल जितने चाहोगी खिल जायेंगे।

(यानि कि सुख में परमात्‍मा को भूलना)


दर्पण तुम्हें जब डराने लगे

जवानी भी दामन छुडाने लगे 

तब तुम मेरे पास आना प्रिय 

मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा

(यानि कि दुख का पहाड़ रूपी वृद्धावस्‍था आने पर )


कोई शर्त होती नहीं प्यार में

मगर प्यार शर्तों पर तुमने किया

(यानि कि सांसारिक पदार्थों की  चमक-दमक में यौवन के मद में  कामना/वासना की पूर्त‍ि  हेतु कर्म करना))

नजर में सितारे जो चमके जरा

बुझाने लगी आरती का दिया

(यानि कि सांसारिक पदार्थों की  चमक-दमक में यौवन के मद में आध्‍यात्‍म को तुच्‍छ समझना)  कामना/वासना की पूर्त‍ि  हेतु भक्ति करना अथवा )


जब अपनी नजर में ही गिरने लगो

अंधेरों में अपने ही घिरने लगो 

तब तुम मेरे पास आना प्रिय 

ये दीपक जला है, जला ही रहेगा तुम्हारे लिये

(जब अंगुलिमाल, वाल्मीकि, शूलपाणि कि तरह अपनी गलती का अपने अंधकारमय जीवन का अहसास हो् तब सात्विकता रूपी प्रकाश की ओर बढना) 


लगातार ----2----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-2

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 

प्रेम 

परमात्मा को कहते हैं कि वह प्रेम है, 

लेकिन इस प्रेम का भावार्थ

कोई विरला ही जान पाता है।


प्रेम दो तरह का होता है 

एक निस्वार्थ भाव से निष्‍काम भाव से विशुद्ध प्रेम, वास्‍तविक प्रेम

दूसरा स्वार्थ भाव से प्रेम


माता-पिता का पुत्र/पुत्री के प्रति जो प्रेम होता है

वह निस्वार्थ भाव से होता है, 

लेकिन साथ ही कुछ स्‍वार्थ भी जुडा होता है,

इसलिये अधिकतर लोग चाहते हैं कि

 पुृत्र ही हो पुत्री नहीं हो, 

जिससे बुढापे में वह उनका सहारा बन सके। 


लेकिन उस परमात्‍मा ने तो हमें जो भी दिया निष्‍काम भाव से दिया हैा 

हम सब परमात्मा की संतान हैं और 

उस परमात्मा का प्रेम  निस्वार्थ है, 

उसके प्रेम में कोई विभेद नहीं ।


जैसे कि एक मां और पिता के हृदय का

उनके मन का अपने आज्ञाकारी पुत्र से 

हृदय से निकटता होती है, सामीपय होता है। 

तो उसी तरह उस परमात्मा की भी 

अपने समर्पित पुत्र से निकटता होती है, सामीपय होता है।   

जैसे कि श्रवण कुमार से उनके माता-पिता का विशेष जुडाव था। 

तो सह सात्विक प्रेम की श्रेणी का प्रेम है।

ऐसे प्रेम में कोई शर्त नहीं होती । 

वह परमात्मा हमारी चाह, हमारी कामना के अनुरूप ही 

हमारे कर्मों के अनुसार लिंग, योनि अथवा मुक्ति प्रदान करता है। 

 

इसीलिये कहा है कि अंत गति सो मति। 

यह एक पंक्ति भी बहुत गम्भीर है। 

अधिकतर मनुष्य इस छोटी सी लाईन को आसान समझते हैं,  

लेकिन यह एक लाईन वर्षों के अभ्यास से अंतर मन में समाहित होती है, 

यानि हमने जीवन भर जिस का भी चिंतन किया है,

जिसका भी  मनन किया है 

वही अंत समय में हमारे मन से बाहर निकलता है। 


यदि अंत समय में इस विद्यमान पदार्थ अथवा शक्ल का चिंतन/मनन चलता है 

तो संसार में आना होता है और

 यदि अंतिम क्षणों में केवल और केवल 

उस अगोचर अदृश्य चेतन तत्व का चिंतन/मनन चलता है 

तो जन्म मरण के चक्र से मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है। 

अधिकतर मनुष्य कहते हैं कि 

प्रभू सभी को मुक्त क्यों नही कर देते

 तो इसके पीछे भी एक कथा है 

तर्क की कसौटी पर तो नहीं

केवल समझाने के लिये है। 

लगातार---3---

सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-3

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


प्रभू सभी को मुक्त क्यों नही कर देते

एक कथा है तर्क की कसौटी पर तो नहीं केवल समझाने के लिये है। 

नारद जी ने प्रभू से पूछा कि

प्रभू आप सभी को मुक्त क्यों नहीं कर देते। 

प्रभू तो अंतरयामी है, उन्हें पता था कि 

किसी विरले को छोड़कर 

अधिकतर सभी को सांसारिक पदार्थ/शक्लों की चाह है, 

अधिकतर लोगों के मन मेें सांसारिक पदार्थ/शक्ल ही समाहित है। 


प्रभू ने कहा 

नारदजी आप किसी संसारी को ले आओ 

जो मुक्त होना चाहता हो, 

मैं उसे मुक्त कर दूंगा। 

नारदजी संसार भ्रमण को निकले 


देखा एक भक्त प्रभू की भक्ति कर रहा है, 

गये उसके पास पूछा कि आप मुक्त होना चाहते हैं,

भक्त एक क्षण के लिये प्रसन्न हो गया, 

लेकिन अगले ही क्षण गम्भीर हो गया और कहा कि

नारदजी मेरे पुत्र का विवाह हो जाये फिर चलेंगे।


पुत्र का विवाह हो गया, नारद जी आये, 

भक्त से कहा चलें। 

भक्त ने कहा कि 

नारद जी पौत्र का मुंह तो देख लूं फिर चलेंगे।


नारदजी कुछ समय बाद आये, भक्त से कहा अब चलें।

 भक्त ने कहा  

कुछ समय पौत्र के साथ बिता लूं फिर चलेंगे। 


कुछ समय बाद फिर नारद जी आये 

लेकिन भक्त तो कुत्ता बन चुका था और 

खुद के घर के बाहर ही रखवाली कर रहा था। 


नारदजी ने कहा भक्त जी अब तो दुर्गति हो गयी अब तो चलो।

भक्त ने कहा कि

पुत्र चैकीदार रख ले फिर चलेंगे।

अभी मैं रखवाली करता हूं, कुछ समय बाद आना।


 कुछ समय बाद भक्त घोड़ा बना हुआ था और

पुत्र के तांगे में जुता हुआ था। 

नारदजी ने देखा पुत्र आया तांगे पर बैठा और

 घोड़े को हंटर लगाया और घूमने निकल पड़ा।


नारद जी ने कहा भक्त जी 

पुत्र कें हंटर खाने से बड़ी दुर्गति तो कोई हो नहीं सकती अब चलें। 


भक्त ने कहा कि पुत्र कार खरीद लें फिर चलेंगे,

क्योंकि मैं अपने परिवारजनों को सम्हाल कर लेकर जाता हूं और

सम्हाल कर वापस लाता हूं। 


कुछ समय बाद नारदजी आये देखा बाहर कार खड़ी है, 

लेकिन भक्त गंदी नाली का कीड़ा बन कर 

आधा गंदगी में और आधा बाहर पड़ा हुआ है। 


नारदजी ने कहा भक्तजी यह तो सबसे बड़ी दुगर्ति है 

इससे बड़ी दुर्गति तो कोई हो ही नहीं सकती। 


भक्त ने कहा कि नारदजी 

मुझे  मुक्ति नहीं चाहिये

आप मेरे ही पीछे क्यों लगे हुए हैं 

यह संसार बहुत बडा है किसी ओर को ले जायें, 

मैं तो हर हाल में अपने परिवारजनों को देखकर प्रसन्न हूं। 

तो यदि मुक्ति चाहिये 

तो हमें किसी भी क्षण किसी भी पल 

बिना कोई विचार, बिना कोई संकोच के

प्रभू का चयन करना होगा अन्यथा 

विषय विकार व पाप, 

जिसमें इन्द्रियों के भोग,

 काम क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर तथा माया आदि सभी आ जाते हैं 

इन सभी से ग्रसित रहने पर मुक्ति असम्भव है।

लगातार----4-----

सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-4

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


प्रेम गली अति सांकरी 

तामे दो ना समाये


यानि यदि प्रभू और संसार दोनों का चिंतन/मनन चलता है

तो भी हमें पुनः संसार में आना ही पड़ेगा। 

यानि एक तरफ यह संसार है और 

एक तरफ परमात्मा 

दोनों में से एक परमात्मा का चयन करने पर ही मुक्ति होती है अन्यथा

पुनः संसार में जन्म मरण के चक्र में बंधना ही पड़ता है। 


आरती ओम जय जगदीश के अनुसार 

विषय विकार व पाप ही बंधन का कारण है और 

इनसे मुक्त होना ही मुक्ति का कारण है। 


जहां विषय विकार व पाप का संयोग होता है,

वहां पर वह परम सत्य प्रकट नहीं होता। 

सत्य एक विराट शब्द है। 

जो कुछ भी शुभ है 

सत्य में समाहित है, 

सात्विकता में समाहित है।

जो कुछ भी अशुभ है

तामसिकता में समाहित है।

आध्यात्म की यात्रा है तामसिकता से सात्विकता में समाहित होने की 

इसीलिये तो कहा है कि 

बुरा जो देखने में चला 

बुरा ना मिलया कोय 

जो तन खोजा आपना

मुझ से बुरा ना कोईं। 

यानि कि इस संसार में आने के बाद 

समाज के साथ संयोग होने के कारण 

समाज व आस-पडौसे के वातावरण से ही

सबमें अच्‍छाई और बुराई दोनों का समावेश हो जाता है। 

तो हम साक्षी भाव से दृष्टा भाव से 

अपने कर्मों का निरीक्षण करें और 

अपनी कमियों को अपनी अशुभता को 

अपनी तामसिकता को अभ्यास के द्वारा 

दूर कर शुभता में,

 सत्य (सात्विकता) में समाहित होयें।

सात्विकता में समाहित होये बिना प्रभू का सानिघ्य नहीं मिलता


इसीलिये कहा है 

सांच (सात्विकता) बराबर तप नहीं

झूंठ (तामसिकता) बराबर पाप 

जाके हिरदे सांच (सात्‍विकता) है 

ताके हिरदे प्रभू आप।

लगातार----5----

सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-5

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


जब सात्विकता में समाहित होने का अभ्यास किया जाता है 

तो एक दिन ऐसा आता है कि विकार समाप्त हो जाते हैं 

और अंतर की ज्योति प्रकाशित हो जाती है

इसीलिये कहा है 

जब मैं (अंहकार) था तब हरि नहीं 

अब हरि है, मैं (अहंकार) नाही 

सब अंधियारा मिट गया 

जब दीपक देखा माही।

यानि कि विकार समाप्त होने पर अंतर प्रकाशित होता है। 


और अंतर में प्रकाश होने पर वह यात्रा पूर्ण हो जाती है, 


इसीलिये कहा है 

फकीरा फकीरी दूर है, 

जैसे पेड़ खजूर 

चढे तो चाखे प्रेम रस 

नहीं तो चकनाचूर


यानि कि जैसे कि खजूर के पेड की उंचाई असाधारण होती है, 

कोई बार-बार विफल होने के बाद ही निरंतर अभ्‍यास के द्वारा ही 

सावधानीपूर्वक उस पर चढ सकता है और 

जो चढ पाता है वही खजूर के मीठे फल को पा सकता हैा 

जैसा कि कहा है सावधानी हटी और दुर्घटना घटी, 

तो जो खजूर के पेड पर चडते समय लापरवाही करता है, 

वह गिर कर चकनाचूर हो जाता है, 

यानि कि उसकी हड्डी पसली टूट जाती है और

मृत्‍यु भी हो सकती है। 


तो आध्‍यात्मिकता की यात्रा में  

सात्‍विकता खजूर के पेड़ से भी अत्‍यंत उच्‍च शिखर है, 

यानि कि तामसिकता से निष्काम भाव से सात्विकता में समाहित होने पर ही 

अंतर में प्रेम रस यानि कि  परमानन्द की अनुभूति हो पाती है।  

अन्यथा जो तामसिकता/राजसिकता से उपर नहीं उठता 

यानि कि विषय-विकार व पाप में लिप्‍त रहता है

 तो वह गिरकर चकनाचूर हो जाता है, 

यानि कि जन्म मरण के चक्र के बंधन में फंसा रहता है।

परमानंद तक केवल शुद्ध मन वाले ही पहुंच पाते हैं।

परमानंद तक पहुंचना ही वास्तविक सत्संग है।

 इसीलिये कहा है 


कबीरा मन निर्मल भया 

जैसे गंगा नीर 

प्रभु पुकारता फिर रहा 

कहता कबीर-कबीर। 


यानि मन से तामसिकता रूपी मैल उतरने पर ही 

उस सत्य का संग प्राप्त होता है और 

जीवनमुक्त अवस्था आ पाती है। 

और सर्वे भवंतु सुखिनः मंत्र सार्थक हो जाता है।

स्थित प्रज्ञता की स्थिति आ जाती है।

तटस्था की स्थिति आ जाती है। 

करूणा, मैत्री, मुदिता का भाव जाग्रत हो जाता है

कोई शत्रु नहीं रहता, दुष्‍टजनों के लिये भी उनके भले की कामना शेष रह जाती है। 


यानि कि कबीरा खडा बाजार में 

मांगे सबकी खैर 

ना काहूं से दोस्ती 

ना काहू से बैर। 


मंगे सबकी खैर का तात्पर्य यही है कि 

यानि कि दुश्मन से भी बैर भाव समाप्त हो जाता है, 

उसे सद्बुद्धि प्राप्त हो यही भावना रहती है। 

सर्वे भवंतु सुखिन:

सर्वे संतु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्‍यंतु 

मा कश्चित दुख भाग भवेत

 वसुधैव कुटुम्‍बकम 

का भाव जाग्रत हो जाता है।

बैर भाव समाप्‍त हो जाता है। 

लगातार----6----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-6

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


यानि कि एक तरफ सत्य है और 

एक तरफ विषय विकार व पाप। 


मन यदि सत्य (सात्विकता) का चयन करता है 

तो मुक्त हो जाता है और 

असत्य (तामसिकता) यानि विषय विकार व पाप का चयन करता है 

तो जन्म-मरण के चक्र के बंधन में ही रहता है।


जब वाणी में सत्यता होती है

जब मन में अहिंसा होती है

जब मन में परमार्थ का भाव होता है।

जब मन अपने जीवन साथी के अतिरिक्त अन्य पर स्त्री/पुरूष के चिंतन से विरत होता है।

जब मन में दया, दान/त्याग का भाव होता है।

जब दृष्टा/साक्षी भाव के अभ्यास से मन में केवल शुद्ध विचारों का ही चिंतन चलता है।

जब मन में संतोष का भाव होता है।

जब मन में निस्वार्थ भाव से अपने परिवारजनों सहित सबके भले की भावना होती है। 

जब ऐसी भावना उत्पन्न होती है तो ऐसी भावना को ही सात्विक कहते हैं।

 इस संसार में अपवाद को छोडकर

किसी विरले को छोडकर 

अधिकतर सभी मिश्रित कर्म करते हैं 

यानि कि कभी शुभ तो कभी अशुभ कर्म करते हैं। 

जो केवल एक उसकी ही कामना के साथ

निष्काम भाव से सत्कर्म करता है, 

वह मुक्त हो जाता है।


यदि कोई असत्य बोलता है, तामसिकता में जीता है 

तो उस प्रभू ने हमें स्वतंत्र रखा हैं कि 

हम चाहें तो अपने बंधन खोलें अथवा

 हम चाहें तो अपने बंधन को और प्रगाढ करें। 

हमारा मन उसका चिंतन करें अथवा 

सांसारिक पदार्थों का चिंतन करें 

यह हमारे स्वयं के उपर निर्भर है। 

उसका द्वार तो सभी के लिये खुला था,

 खुला है और 

खुला ही रहेगा। 


उसकी ज्योति का प्रकाश तो 

पहले भी विद्यमान था, 

वर्तमान में भी विद्यमान है तथा 

भविष्य में भी रहेगा। 

उसका ज्ञान तो पहले भी विद्यमान था,

 वर्तमान में भी विद्यमान है और

भविष्य में भी विद्यमान रहेगा। 


मोह-ममता के कारण 

विषय विकार के कारण 

इस संसार में वापस आना ही पडेगां

यानि कि जब मन में 

प्रभू के अतिरिक्‍त कोई चाह नहीं होती, 

कोई कामना नहीं होती है। कोई शर्त नहीं होती, तब वह प्रेम विशुद्ध प्रेम होता है।

लगातार----7----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-7

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


जब मन में प्रभू के अतिरिक्‍त कोई चाह/कामना नहीं होती, कोई शर्त नहीं 

तब वह विशुद्ध प्रेम अंतर में प्रकट होता है।

यानि कि निष्‍काम विशुद्ध प्रेम बेशर्त होता है। 

जैसा कि उपगुप्‍त का सारे संसार के प्राणियों का था। वासवदत्‍ता का प्रेम इश्‍क मजाजी था और उपगुप्‍त का इश्‍क हकीकी। उपगुप्‍त ने वासवदत्‍ता की सेवा की उस समय, जिस समय सबने उसे बसंत रोग के कारण अकेला मरने के लिये छोड दिया था। 


प्रेम में जब शर्त होती है, 

कामना होती है, वासना होती है, 

तब वह विशुद्ध प्रेम नहीं होता, 

अपितु कामना, वासना जनित अशुद्ध प्रेम होता है। 


संसार के लोग अपना असली चेहरा छिपा सकते हैं, 

लेकिन उस अंतरयामी अदृश्य शक्ति से 

कोई भी अपना असली स्वरूप नहीं छिपा सकता है।


वह अदृश्य शक्ति उसी का हाथ थामती है, 

जो उसे बेशर्त प्रेम करता है, 

जिसके प्रेम में ना ही कामना होती है, 

ना ही वासना। 

कामना यदि होती भी है 

तो केवल उस परमात्मा रूपी विशुद्ध प्रेम की 

जिसकी प्राप्ति पर 

अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय 

परमानन्द की अनुभूति होती है। 

जिसके प्रेम में कामना वासना स्वार्थ होता है, 

उसका प्रेम किसी अन्य से नहीं अपिुत 

अहंकार से ग्रसित होने के कारण 

स्वयं के शरीर से होता है अथवा

जिसके शरीर से भोग का संबंध होता है, 

उससे होता है। 

वह स्वयं का शरीर सजाता भी है तो

अपने जीवन साथी के लिये नहीं अपितु 

अन्यों को आकर्षित करने के लिये 

स्वयं को सुसज्जित करता है। 


संयासी जो भगवा वस्त्र धारण करता है 

उसका भावार्थ ही यही है कि 

अब वह किसी को आकर्षित नहीं करना चाहता, 

उसका आकर्षण केवल भगवान से है, 

सका तन मन भगवत रूपी प्रेम से ओत प्रोत है,

भगवान के अतिरिक्त उसके मन में कुछ नहीं रहता, 

ऐसा संयासी ही सच्चा संयासी होता है, 

यानि जिसका मन भी भगवान से रंगा हो, 

लेकिन जिसका मन सांसारिक पदार्थों की चाह से रंगा है, 

वह चाहे कोई सा भी वस्त्र पहन ले 

वह  चाहे सिर मुंडवा ले, 

चाहे दाड़ी बढ़ा ले, 

वह सांसारिक ही रहेगा।  

लगातार----8----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-8

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


नजर में सितारे जो चमके जरा

यानि जवानी के जोश में 

मनुष्य धर्म को एक परिहास समझ लेता है, 

उसे गम्भीरता से नहीं लेता है,

 उस परमात्मा की जयोति का महत्व नहीं समझता, 

उसकी नजर में आरती के दीपक की रोशनी का कोई महत्व नहीं होता।

 धर्म का कोई महत्‍व नहीं होता।

आरती का दीपक संदेश देता है कि

 जैसे  यह आरती का दीपक प्रज्जवलित है,

उसी तरह हम अपने मन का दीपक जला कर 

अपने अंतर को प्रकाशित करें। 


जवानी के मद में अधिकतर युवाओं की दृष्टि में 

आरती यानि आरधना/उपासना आदि का 

कोई महत्व नहीं होता। 


जवानी के मद में वह  भूल जाता है कि

 जिस कारण से दीप प्रज्जवलित हुआ है,

 जिस कारण से आंखों में ज्योति विद्यमान है,

उसके प्रति कृतज्ञता का भाव होना चाहिये

 ना कि परिहास का। 


तो वह परमात्मा कहता है कि

 यदि आप सांसारिक जीवन बिता रहे हैं 

तो अपने जीवन साथी को कभी धोखा नहीं देना। 

अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी को भी

अपने मन में स्थान नहीं देना। 


किसी का भी दिल नहीं दुखाना,

जैसा कि कहा है - 

कबीरा हाय गरीब की 

कबहु ना निष्फल जाये, 

मरे बैल की चाम सूं 

लोहा भस्म हो जाये। 

लगातार----9----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-9

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


जब अपनी नजर में ही गिरने लगो

अंधेरे में अपनी ही घिरने लगो

तब तुम मेरे पास आना प्रिय 

यह दीपक जला है, जला ही रहेगा तुम्हारे लिये


यानि जिस दिन तुम्हारी श्रवण इन्‍द्री यानि 

तुम्‍हारे  कान सत्य ज्ञान को सुने,

सत्य वाणी को सुने, 


जिस दिन तुम्हारे नेत्र ग्रंथ में लिखित 

सत्य वाणी का दर्शन करें,

जिस दिन तुम्हारी वाणी 

सत्य चलचित्र का दर्शन करे। 


जिस दिन तुम्हें अपने गलत/अशुभ

तामसिकता युक्त कर्मों का अहसास हो 

उस दिन तुम मेरे पास आना। 

यानि कि परमात्‍मा की उपासना करना, 

अदृश्‍य  परमात्‍मा के पास आसान लगाना। 

सात्विकता रूपी सत्य ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश में जीवन व्यतीत करना। 

यह सात्विकता रूपी सत्य ज्ञान रूपी दीपक तो 

पूर्व में भी प्रज्जवलित था, 

वर्तमान में भी  प्रज्जवलित है और

भविष्य में भी प्रज्जवलित रहेगा। 


ज्ञान ही वह सात्विक प्रकाश है 

जो अज्ञान/अविद्या रूपी तामसिक, अंधकारमय कर्मों 

यानि कि विषय विकार व पाप से दूर होकर

सात्विकता यानि 

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहम्चर्य अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान

यानि सत्य सात्विकता रूपी प्रकाश के सानिध्य में रहने को प्रेरित करता है,

जो सात्विकता में समाहित हो जाता है, 

वह अंततः साक्षी भाव, दृष्टा भाव से आध्यात्मिक सफर पूर्ण  कर

अंततः इश्‍क मजाजी यानि कि नश्‍वतर भौतिक पदार्थों व शक्‍लों के प्रेम से विरत होकर यानि कि प्रेय मार्ग से विरत होकर 

 इश्‍क हकीकी यानि कि श्रेय मार्ग यानि कि विशुद्ध प्रेम यानि कि उस परम सत्‍य से निष्‍काम भाव से प्रेम और जब ऐसा प्रेम मन में प्रकट होता है तब ही उस परमानंद की प्राप्ति सम्‍भव हो पाती है। 

लगातार----10----


सर्वे भवंतु सुखिन: 

भाग-10

जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें। 

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे 


लेकिन यह विशुद्ध प्रेम की यात्रा, श्रेय मार्ग की याृत्रा इतनी आसान नही यह याृत्रा प्रारम्‍भ होती है सत्‍कर्म से और समाप्‍त होती है निष्‍काम सत्‍कर्म पर। इस यात्रा के मील के पत्‍थ्‍र हैं 

अहिंसा

सत्‍य 

अस्‍तेय

ब्रह़मचर्य

अपरिग्रह

शौच 

संतोष 

तप

स्‍वाध्‍याय 

ईश्‍वर प्राणिधान


आसन - ध्‍यान हेतु परम आवश्‍यक


प्राणायाम - श्‍वांसों, अथवा चक्रों पर ध्‍यान 


धारणा - एक समय में जिस भी स्‍थान विशेष पर ध्‍यान एकाग्र करना हो, जिसको भी माध्‍यम बनाया हो

कोई बिन्‍दू, ज्‍योति, चित्र, मंत्र आदि अथवा स्‍पंदन ।


ध्‍यान - जाग्रत में यह ध्‍यान रखना कि तामसिक कर्म से दूर रहना और सत्‍य कर्म में रत रहना। 

स्‍वपन में भी तामसिक कर्मों से दूर रहना। 

ध्‍यानस्‍थ अवस्‍था - यानि निर्विचार स्‍थ‍िति - यानि कि मन को सभी विचारों से हटाकर एक ही स्‍थान पर एकाग्र करना।

समाधि - इसके बाद ही समाधि में परमात्‍मा की अनुभूति सम्‍भव हो पाती हैा

जैसे लोहा के गोला अग्नि में निरन्‍तर पड़ा रहे तो अग्नि सदृश हो जाता है। तो उसी तरह समाधि में उस अंतिम लक्ष्‍य की प्राप्ति सम्‍भव हो पाती है। 

सबका भला होा 

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