भगवान बुद्ध बौद्ध दर्शन का संदेश शुद्ध ही बुद्ध है बुद्ध ही शुद्ध है

 सर्वे भवंतु सुखिन: 


भगवान बुद्ध पर विशेष 


जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।


वह भगवान बुद्ध जिनका इस धरा पर अतीत में पदार्पण हुआ था, 

वह भगवान बुद्ध जो अपने गुणों के आधार पर 

शीलवान,

प्रज्ञावान, 

करूणावान बनकर इस संसार में कमल की तरह रहते हुए 

अनागत हो गये और

अनागामी, ब्रहमलोक में विद्यमान है,


जिन्‍होंने इस संसार में विद्यमान सुख से बढकर 

उस परम सुख, परमानन्‍द, दिव्‍य सुख को प्राप्त ‍किया 

उन्‍हें  सहृदय से 

शत-शत नमन 

 

परिव्राजक सभिये ने भगवान बुद्ध से प्रश्‍न किया था कि - 

बुद्ध किसे कहते हैं?


भगवान ने उत्‍तर दिया - 

जिसने तृष्‍णा के सम्‍पूर्ण क्षेत्र का विश्‍लेषण करके 

संसार चक्र की उत्‍पत्ति और विनाश दोनों को जान लिया है।


जो चित्‍तमैल से विमुक्‍त हो गया,

जो विशुद्ध विमल है,

जिसने जन्‍म क्षय की अवस्‍था प्राप्‍त कर ली है,

उसे बुद्ध कहते हैं।

 

बुद्ध समस्‍त राग, द्वेष और मोह को भग्‍न करके मुक्ति के ऐश्‍वर्य  का जीवन जीते हैं, 

इस कारण  वे भगवान हैं।


बुद्ध अहंकार, ममंकार आदि  चित्‍तमैल रूपी दुश्‍मनों का हनन कर चुके हैं,

यानि उन्‍होंने अपने चित्‍त से जुड़े उपरोक्‍त अदृश्‍य शत्रुओं को हरा दिया है, 

परास्‍त कर दिया है, इस कारण वे अरहंत है।


स्‍वयं अपने प्रयत्‍नों द्वारा स्‍वयंभू बुद्ध है 

इस माने में वे सम्‍यक सम्‍बुद्ध हैं, 

यानि के उन्‍होंने जो भी प्राप्‍त किया 

अपने कर्मों के द्वारा प्राप्‍त किया।


केवल बुद्धि के स्‍तर पर ही नहीं

आचरण के स्‍तर पर भी ज्ञान सम्‍पन्‍न हैं

अत: वे विद्याचरण संपन्‍न हैं,


यानि के सत्‍य विद्या/ज्ञान के अनुसार 

आचरण करने वाले हैं।


उनकी कायिक,  वाचिक, मानसिक सभी गतियां 

शुद्ध हैं, कुशल हैं अत: सुगत हैं।


यानि उनकी वाणी सात्विकता से परिपूर्ण है, 

कल्‍याणकारी है, 


उनका मन सात्‍वकिता से भरपूर है, 

उनके शरीर द्वारा किये जाने वाला प्रत्‍येक कर्म 

सात्विकता से परिपूर्ण है।


उन्‍होंने अनुभूति के स्‍तर पर 

समस्‍त लोकों का रहस्‍य जाना है, 

अत: लोकविदु हैं। 


एक बार भगवान एक वन से गुजर रहे थे, 

उनके शिष्‍य ने उन से ज्ञान के संबंध में प्रश्‍न किया। 

उस जंगल में असंख्‍य पत्‍ते बिखरे हुए थे, 

उनमें से मुट्ठी भर पत्‍ते उन्‍होंने उठाये और कहा कि 

ज्ञान तो इन असंख्‍य पत्‍तों की तरह विस्‍तृत है,

 लेकिन मैंने इन मुट्ठी भर पत्‍तों जितना ही सबको बताया है, 

क्‍योंकि यही सार है, 

यही मानव कल्‍याण के लिये आवश्‍यक है।  


जैसे कि नींबू को छोड़कर केवल उसका रस ग्रहण किया जाता है, 

तो भगवान बुद्ध ने जिस ज्ञान का प्रसार किया है, 

वह सार है, ग्रहण करने योग्‍य है, 

मनुष्‍य के कर्मों से जुड़ा हुआ है। 


जैसे बिगड़ेल घोडों को सारथी सुधार लेता है,

ऐसे ही बिगडैल लोगों को सुधार लेने वाले अनुपम कुशल सारथी हैं।


 जैसे कि उन्‍होंने अंगुलिमाल का उद्धार किया था।


जिसके मन में भगवान बुद्ध की वाणी समाहित है, 

जिसके मन में उनका जीवन चरित्र समाहित है और

जिसकी बुद्धि उनकी वाणी को 

हर पल, हर समय याद रखते हुए

अपना हर कर्म करती है

चाहे वह कर्म 

मानसिक हो,

शारिरिक हो या

वाणी से किया गया हो,


जिसके शरीर का हर एक अंग-प्रत्‍यंग बुद्धि पूर्वक 

उनकी सत्‍य वाणी के अनुसार कार्य

करता है और ऐसा अभ्‍यास करते-करते 

जब वह अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए 

पूर्णत: शुद्ध बन जाता है।


तब ही वह शुद्ध प्रबुद्ध बनता है और 

शुद्ध प्रबुद्ध ही ध्‍यान के माध्‍यम से 

उस दिव्‍य सुख को प्राप्‍त कर पाता है


शुद्ध प्रबुद्ध उस योग्‍यता को हासिल कर पाता है 

जो कि भगवान बुद्ध ने हासिल की थी।


इस संसार में कोई भी स्‍वयं को मुर्ख नहीं समझता 

सब स्‍वयं को बुद्धिमान समझते हैं।


कोई कोई तो सोचता है कि उससे बढकर 

कोई बुद्धिमान नहीं, 

लेकिन असलियत तब सामने आती है, 

जब वह बुद्धिमान ध्‍यान करना शुरू करता है, 

और जेसे-जैसे उसका मन शांत होने लगता है, 

वैसे वैसे ही उसे अपने अतीत में किये गये कर्मों की मूर्खता का अहसास भी होने लगता है।


जैसे कि एक बच्‍चा 

बचपन में खिलौनों से खेलता है,

उसका खिलौना टूट जाता है,

उससे जुदा हो जाता है

तो वह रोता है 

चिल्‍लाता है,

लेकिन जब वह माता या पिता बनते हैं और 

जब उनके बच्‍चों के लिये खिलौने लेकर आते है 

तो उससे अपना मन नहीं बहलाते और 

ना ही उसके टूटने पर रोते और चिल्‍लाते है, 

हां उनका पुत्र अवश्‍य रोता है, चिल्‍लाता है।


जैसे एक पिता की नजर में बच्‍चा 

अपरिपक्‍व होता है

नादान होता है, 

उसी तरह इस प्रकृति की रचना भी कुछ ऐसी ही है, 

जिसमें हमारी इन्द्रियां खेलती है और

क्षणिक भोगों का रसावदान करती रहती है।


प्रक़ति में विद्यमान स्‍त्री/पुरूष, 

स्‍वादु पदार्थ, बहुमूल्‍य पदार्थ, धन सम्‍पत्ति, भडकाउ संगीत, कृत्रिम सुगंध, 

मनोहर दृश्‍य, सुंदर शक्‍लें/रूप आदि मन बहलाने (खिलोनों) का काम करती है,


हम इन्द्रियों की तृप्ति का खेल खेलते रहते हैं और

इसी तृप्ति के खेल के कारण ही 

अशुद्धता/अपवित्रता/नापाकता

यानि के विकारों – 

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, 

राग, द्वेष, ईर्ष्‍या आदि की ओर बढते रहते हैं,

स्‍वार्थ की ओर बढते रहते है। और

यही भोगों की तृप्ति हमें अनागत नहीं बनने देती और

सुख और दुख हमारा पीछा नहीं छोडते हैं।

अनागत – 

यानि जिसे अब इस संसार में शरीर धारण कर पुन: वापस नहीं लौटना है, 

जो मुक्‍त हो गया है।


अत्‍यंत परिश्रम के बल पर,

प्रतिपल सचेत रहने पर ही

जीते जी वह परम सुख प्राप्‍त हो सकता है और

वह सुख हमारे इस संसार के त्‍यागने तथा

अनागामी लोक में पहुंचने पर उसी तरह साथ रहता है

जैसे शरीर के साथ उसकी परछाई।


यानि शुद्ध बुद्ध बनने पर ही परिपक्‍वता आती है तथा

शुद्ध बुद्ध बनने पर ही अपनी नादानियों का अहसास होने लगता है।


भगवान बुद्ध का संदेश है कि

उस दिव्‍य सुख की तुलना में सांसारिक सुख धूल के समान हैं।


उन्‍होंने इशारा किया है कि 

आओ और उस दिव्‍य सुख को प्राप्‍त करो, 

जिससे बढकर इस प्रकृति में कुछ भी नहीं।


लेकिन जो वास्‍तव में बुद्धिमान है

वह इस बात को स्‍वीकार करेगा और 

इस प्रकृति के माया जाल में नहीं फंसेगा।


बुद्ध और शुद्ध

दो शब्‍द हैं


जब तक दोनों का मेल नहीं होगा

तब तक उस दिव्‍य सुख की प्राप्ति भी नहीं हो सकती।


यदि बुद्धि है 

तो शुद्धि भी हो सकती है,


बुद्धि को यदि शरीर का प्रतीक माना जाये तो 

शुद्धि इस शरीर के प्राण का प्रतीक है।


इस पथ में अंतकरण की शुद्धि के बिना 

यह बुद्धि भी मृत शरीर की तरह निष्‍प्राण हैं।


बुद्धिमान तो सभी धर्मों में मिलेंगे, लेकिन बुद्धिमता के साथ साथ 

शुद्धता/पवित्रता/पाकता रखने वालों की संख्‍या 

आज इस संसार में न्‍यूनतम है,


जैसा कि किसी ज्ञानी ने कहा है कि 

जो अज्ञानी है और अज्ञानतावश अज्ञानमय कर्म करता है वह तो अंधकार में है,


लेकिन जिसने गुरू से ज्ञान अर्जित किया है और

ज्ञानवान होने के बावजूद 

सबकुछ जानते हुए समझते हुए भी 

जो ज्ञान के विपरीत कर्म कर रहा है,

वह महाअंधकार में है।


जहां शुद्धता है

वहां पर प्रेम है,

करूणा है,

मैत्री है,

मुदिता है

वहां नफरत का 

स्‍वार्थ का 

अहंकार का

नामोनिशान नहीं है, वहां तो

क्षमा भाव है,

सत्‍यता का वास है,

अहिंसा का वास है,

संयम का वास है,

परमार्थ का वास है,

संतोष का वास है।

भगवान यानि के परम सौभाग्‍यशाली, 

परम ऐश्‍वर्यवान, और ऐसा भगवान बनने के लिये 

पहले अपने अंदर के शैतान/राक्षस/असुर को मारना होता है, 

भग्‍न करना होता है,


जब यह मन के अंदर विद्यमान 

शैतान/राक्षस/असुर मर जाता है,

तब कोई इंसान बनता है


फिर इंसान बनने के बाद ही

समस्त दुर्गुणों को भग्‍न करके/ त्‍याग करके

कोई शीलवान,

गुणवान,

प्रज्ञावान बनता है और

ऐसा गुणवान ही देव यानि के देने वाला बन पाता है,


वह अपना तन और मन लोकहित के लिये समर्पित कर देता है।


यह भगवान बुद्ध की वाणी का ही दान था, 

जिसने हिंसक अंगुलिमाल को अहिंसक बना दिया।


यह उनकी वाणी का ही दान था,

जिसने सम्राट अशोक को हिंसक से अहिंसक बना दिया।


यह उनके ज्ञान का ही दान था कि सम्राट अशोक ने सत्‍यमेव जयते को अत्‍यंत महत्‍व दिया और

आज वह सत्‍यमेव जयते विद्यमान तो है, 

लेकिन वह केवल निर्जीव वस्‍तुओं पर ही लिखा हुआ देखने को मिलता है,


आज सत्‍य के पथिकों की संख्‍या अल्‍प है।


बुद्ध संदेश 


चार आर्य सत्‍य


1. दुख -संसार में दुख है- 

पैदा होना, 

शोक करना, 

रोना-पीटना, 

परेशान होना,

इच्‍छा की पूर्ति ना होना

आदि दुख है।


2. दुख समुदाय- दुख के कारण है 

विषयों के प्रति तृष्‍णा - 

यानि के इन्द्रियों की तृप्ति की तृष्‍णा।

मनुष्‍य अपनी  इन्द्रियों

आंख, 

कान, 

जिह्रवा, 

नासिका

त्वचा आदि

तथा

काया व मन के द्वारा 

इन इन्द्रियों के विषयों के भोग के कारण 

जो क्षणिक आनन्‍द की अनुभूति होती है, 

उस क्षणिक आनन्‍द की अनुभूति के कारण 

तृष्‍णा  बलवती  होती जाती है। 

तृष्णा की पकड़ बढ़ती ही जाती है।


3. दुख निरोध – दुखों का निवारण है और 

वह केवल त़ृष्‍णा के नाश से ही सम्भव है।


जब तक 

इस संसार के प्रति आकर्षण  है,

इन्द्रियों के प्रति आकर्षण  है, 

विकारों में आसक्ति है 

तब तक 

इस तृष्‍णा का नाश नहीं हो सकता है, 

इनसे विमुक्त होने पर ही 

इस तृष्‍णा का नाश हो सकता है।


इस तृष्‍णा का नाश 

कैसे किया जाये? 

क्‍या मार्ग है?


4. मार्ग – निवारण के लिये आष्टांगिक मार्ग है।


१. सम्‍यक दृष्टि – 

उपरोक्त चार आर्य सत्‍यों में विश्‍वास करना, 

यानि किसी भी क्षण

किसी भी पल 

यह नहीं भूलना कि 

इस संसार में दुख हैं और 

इसका निवारण एकमात्र 

निर्वाण ही है, 

और 

निर्वाण  केवल 

मल रहित 

अशुद्धता रहित 

होने पर ही 

पूर्णत: शुद्ध बुद्ध बनने पर ही

हासिल किया जा सकता है।


हिंसा

चोरी

व्‍याभिचार

लालच नहीं करना, 

असत्‍यवादी, 

चुगलखोर, 

अमृदुभाषी,

बकवादी नहीं होना।


२. सम्‍यक संकल्‍प - 

मानसिक और 

नैतिक विकास का 

प्रण लेना, 


जैसे कि अंगुलिमाल ने प्रण लिया था कि 

मैं अब हिंसा/दुराचार को छोड़कर सत्य की राह पर चलूंगा 

सदाचार का पालन करूंगा।


इसी तरह यह प्रण करना कि मैं प्रतिज्ञा करता हूं 

संक्‍लप लेता हूं कि 

मैं अपने आदर्श पुरुष की 

परम सत्‍य वाणी को ध्‍यान में रखते हुए 

दुर्गुणों से 

स्‍वार्थ से

दूर रहूंगा, 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 


हमारी आशाएं,

हमारी आकांक्षाएं,

हमारी महत्‍वाकांक्षायें 

उच्‍चतम स्‍तर की हो।


यानि दुखों से छूटने की हो 

निर्वाण पाने के लिये हो।

निर्वाण से बड़ा परम लक्ष्य संसार में 

कोई भी नहीं।

कोई भी नहीं।

कोई भी नहीं।


३. सम्‍यक  वाक – 

सत्‍यवादिता, 

असत्‍य निंदा से विरत रहना, विनम्रता,

हानिकारक बातें और 

झूठ न बोलना, 

जैसा कि लोकोक्ति है कि 


पहले तोलो और फिर बोलो।


यानि जब भी बोले 

सोच विचार के बोले 

स्वार्थरहित, 

धर्म संगत, 

सत्‍य,

मृदु ही बोलें।   


जैसे कि सम्‍यक संकल्‍प धारण किया है, 

तो उसी के अनुरूप् हम सत्‍यमेव जयते को सदैव याद रखें, 


उसके अनुसार आचरण करने के लिये प्रयासरत रहे, 

ऐसी किसी बात का प्रचार नहीं करें, 

जिससे किसी की हानि हो।


जैसा कि कहा है 

सत्‍य बराबर तप नहीं 

झूठ बराबर पाप। 


ऐसी वाणी बोलिये 

मन का आपा खोय 

ओरन को शीतल करें 

आपहू शीतल होय। 


यानी हमारी वाणी ऐसी हो

जो हमें भी शांत और प्रसन्न  रखें तथा 

और को भी शांति और प्रसन्नता प्रदान करें ।


हमारी वाणी किसी की

आह का 

किसी के दुख का 

कारण नहीं बने 

किसी के अहित का कारण नहीं बने क्योंकि

क्रोधी, असत्‍यवादी कभी उस मंजिल को नहीं पा सकता है।


४. सम्‍यक कर्म – 

हानिकारक कर्म ना करना, 


जैसा संकल्प लिया है,

प्रतिज्ञा की है, 

उसी के अनुरूप हम ऐसा कोई कर्म नहीं करें, जिससे

किसी की आह निकले। 


यदि हम किसी की आह का कारण बनते हैं 

तो वह आह हमारे  बंधन का कारण बनती है।


यदि कोई

चोरी

हिंसा

दुराचार करता है 

तो यह कर्म किसी ना किसी की आह का कारण तो बनेगा ही और 

यह परम सत्‍य है कि किसी की आह 

दुख का 

नरक का 

पतन का कारण बनती है और


जब हमारे कारण किसी का मन प्रसन्‍न होता है, 

मन से वाह निकलती है तो वह प्रसन्‍नता/वाह  

सुख का 

स्‍वर्ग का 

उन्‍नति का

कारण बनती है।


५. सम्‍यक जीविका – 

कोई भी स्‍प्‍ष्‍टत: या अस्‍पष्‍टत- हानिकारक व्‍यापार न करना, 


जैसे कि यदि हम व्‍यापारी है 

तो ऐसा व्‍यापार नहीं करना चाहिए  

जिससे किसी का अहित होता हो, 

जिससे किसी की आह निकलती हो, 


अपने सेवकों के साथ अन्‍याय नहीं करना चाहिए, 

उन्‍हें उनकी मजदूरी का पूरा भुगतान करना चाहिए ।


यदि सेवक है तो ऐसा प्रयत्‍न करें कि  

जिसके कारण हमारी आजिविका चल रही है,  

उसकी अव‍नति नहीं होने पाये, 

अपितू हम उसकी उन्‍नति का माध्‍यम बनें ।

क्योंकि उसकी उन्नति में ही हमारी उन्नति है।


जिसके मन में सबके भले का भाव होता है, 

उसके लिए मुक्तिपथ आसान हो जाता है।


६. सम्‍यक व्‍यायाम प्रयास – इन्द्रियों पर संयम रखना, 

बुरे विचार/बुरे भावों को रोकना।

अपने आप सुधरने की कोशिश करना, 


जैसा कि हमने ज्ञान ग्रहण करते समय निश्चय किया है, 

प्रण किया है कि 

हम दुख निवारण के लिये 

स्‍वयं अपने संस्‍कारों को सुधारने का प्रयास करेंगे।  


हम इन्द्रियों के जाल से 

विकारों के जाल से

निरन्‍तर बाहर आने का प्रयास करते ही रहेंगे , 

करते ही रहेंगे । 


क्‍योंकि यही जाल तो

हमारे बंधन का कारण है।


यह परम सत्‍य है कि 

आदर्श पुरुष द्वारा दिया गया ज्ञान ही  

वह ज्‍योति है जो हमारा मार्ग दर्शन करती है, 


अब उस ज्ञान पथ पर शिष्‍य को चलना होगा । 

संसार में ऐसा कोई आदर्श पुरुष नहीं 

जो किसी के चित्‍त को स्‍थाई रूप से परिवर्तित कर दे।


आदर्श पुरुष  के ज्ञान  में वह अग्नि छुपी हुई है 

जो कर्म और ज्ञान रूपी पत्‍थरों को 

आपसे में रगडने पर ही प्रकट होती है।


एक पत्‍थर सभी के पास है 

चाहे वह गुरू हो या शिष्‍य वह पत्‍थ्रर है कर्म का और 

दूसरा है ज्ञान का 

जो आदर्श पुरुष के माध्यम से प्राप्त होता है।


अपवाद छोड़ कर

शिष्य बनकर ही ज्ञान  प्राप्त किया जाता है । 


शिष्य नहीं तो गुरु भी नहीं,


क्योंकि एक शिष्य ही गुरु बनता है।


जब ज्ञान और कर्म दोनों आपसे में टकराते हैं 

तभी वह अग्नि उत्‍पन्‍न होती है।


ज्ञान रूपी पत्‍थ्‍र गुरू के पास है

 जो उसे जन्‍म से नहीं मिला था, 

यह ऐसा पत्‍थर है जो उसने 

वर्षों की शुद्धता के अभ्‍यास 

के द्वारा हासिल किया था। 


इतिहास साक्षी है कि 

हमारे महापुरूषों ने भी शुद्धता के अभ्‍यास के बल पर ही

इस अदृश्‍य ज्ञान को प्राप्‍त किया था।


इस ज्ञान को अंतिम श्‍वास तक अंतकरण में प्रगाढ करने पर ही 

कोई वास्‍तव में मुक्ति का अधिकारी बनता है 

चाहे वह गुरू हो या शिष्‍य।


जैसे कि कोई एम.ए./बी.ए. करने पर

 जिस भी विषय का अध्‍यापन कार्य करवाता है 

तो अन्‍य विषयों का अभ्‍यास नहीं होने के कारण 

वह अन्‍य विषयों को भूल जाता है और

जिस विषय का वह अध्‍यापन कार्य करवाता है,

 उस विषय का वह विशेषज्ञ बन जाता है।


तो इस पथ में सबसे महत्‍वपूर्ण है कि 

जो कर्म संबंधी ज्ञान है 

उसका हम सतत अभ्‍यास करें, 

चाहे हम अभ्युदय से जुड़े ज्ञान को भूल जाएं लेकिन 

निश्रेयस  से जुड़े ज्ञान  को 

किसी भी क्षण 

किसी भी पल, 

अंतिम श्‍वांस तक  

कभी भी नहीं भूले 

कभी भी नहीं भूले 

कभी भी नहीं भूले 


एक कथा है कि एक राजा था, 

उसके दो पुत्र थे, 

बडा वैरागी था,

पिता की मृत्‍यु के बाद उसका राज तिलक किया जाना था, 

लेकिन उसने छोटे भाई का राजतिलक करवा दिया और 

स्‍वयं राज्‍य का त्‍याग कर किसी व्‍यापारी के यहां नौकरी करने लगा। 


व्‍यापारी को ज्ञात हुआ तो उसने,

 उससे काम लेना बंद कर दिया। 

उसके माध्‍यम से उस व्‍यापारी ने अपना कर मुक्‍त करवा लिया, और

उसके कुछ अन्‍य व्‍यापारी दोस्‍तों ने भी 

अपना कर मुक्‍त करवा लिया। 


बडे भाई की सोई हुई तृष्‍णा जागने लगी। 

एक राजा ने उनके राज्‍य पर हमला कर दिया तो 

बडे भाई ने उस राजा को हराकर 

उसके राज्‍य पर कब्‍जा कर लिया और राजा बन गया। 


उसकी तृष्‍णा ऐसी भडकी कि उसे धन सम्‍पत्ति की भूख सी लग गई 

उसने धीरे धीरे सभी राज्‍यों पर कब्‍जा कर लिया। 

इससे भी तृष्‍णा शांत नहीं हुई तो 

छोटे भाई के राज्‍य पर भी आक्रमण कर दिया कि

या तो राज्‍य छोडो या युद्ध करो।


छोटे भाई ने राज्‍य बडे भाई को लौटा दिया। 


एक दिन एक राहगीर दरबार में आया 

उसने राजा को बताया कि एक ऐसा राज्‍य है जहां सोना,

चांदी, हीरे, जवाहरात का अकूत भंडार है 

और यह बताकर वह वहां से चला गया।


राजा धन/सम्‍पत्ति के प्रति इतना दिवाना था कि 

वह राज्‍य का पता पूछना भी भूल गया। 


राजा ने पता लगाने के लिये चारों दिशाओं में दूत दौडायें 

लेकिन उस राज्‍य का पता नहीं चल सका। 


राजा उसे अपनी हानि समझने लगा और बीमार हो गया, 

उसकी बीमारी बढती ही जा  रही थी। 


एक साधू  उसका उपचार करने महल पहूंचा। 

उसने जानकारी ली कि राजा कब से बीमार है और

बीमारी से पूर्व क्‍या घटना घटी थी। 


तब उस साधू ने राजा को समझाया कि 

आपके पास जो है वही बहुत है, 

अधिक भी हासिल कर लोगे तो वह भी आपके कोई काम नहीं आयेगा, 

पेट भरने के लिये अन्‍न की आवश्‍यकता है, 

धन से पेट नहीं भर सकता है, 


साधू ने राजा को  समझाने के लिए एक कथा सुनाई- 


एक बार अकाल पडने से कहीं पर भी 

अनाज नहीं मिल पा रहा था, 

राजा ने प्रजा के लिये चांदी का भंडार खोल दिया, 

अन्‍न नहीं मिला,  


मंत्रियों के लिये सोने का भंडार खोल दिया 

अन्‍न नहीं मिला,


परिवारजनों के लिये हीरे जवाहरात के भंडार खोल दिये

लेकिन अन्‍न नहीं मिला


राजा ने अपनी कब्र तैयार करवायी और

उसके पास तख्‍ती लगवाकर लिखवाया कि 

इस धन से मैं अन्‍न हासिल नहीं करवा सका। 

अन्‍न के अभाव में सभी धीरे धीरे करके मर गये और अब मैं भी मर रहा हूं। 

यह धन मेरे काम नहीं आया।


साधू ने कहा कि  है राजन सोने के लिये एक ही बिस्‍तर काफी

है और एक पर ही सोया जा सकता है चार पर नहीं । 


राजा के बात समझ में आ गई

और उसने राज्‍य वापस छोटे भाई को लौटा दिया और

स्‍वयं पुन: सच्‍चा वैरागी बन गया।.


जैसे कि 

एक हाथ से ताली नहीं बजती।

एक पहिए से गाड़ी नहीं चलती।


उसी तरह से कर्म और ज्ञान के समन्वय के बिना 

ना तो अभ्युदय का लक्ष्य ही प्राप्त किया जा सकता है और 

ना ही निश्रेयस का लक्ष्य ही प्राप्त किया जा सकता है ।


जब तक ज्ञान और कर्म के पत्‍थर नहीं टकरायेंगे 

तब तक मंजिल प्राप्‍त नहीं हो सकती है। 

और इनका समन्‍वय अंतिम श्‍वांस तक नहीं टूटेगा

तभी मुक्ति/निर्वाण सम्‍भव है अन्‍यथा नहीं। 


चाहे गुरु हो या शिष्य दोनों को ही ज्ञान और कर्म में समन्वय रखना ही  होगा 

अन्यथा पथभ्रष्ट होने पर चाहे गुरु हो या शिष्य/ मुक्ति /निर्माण असंभव है।


७. सम्‍यक स्‍म़ृति- 

स्‍पष्‍ट ज्ञान से स्वयं के कृत्य/कर्मों को देखने की 

मानसिक योग्‍यता पाने की कोशिश करना, 

ज्ञान के अनुसार यह ध्‍यान रखना कि क्‍या गलत है और क्‍या सही। 


अज्ञानतावश जो गलतियां पूर्व में की है, 

 वे गलतियां पुन: नहीं होने पाये और 

कोई भी गलत विचार मन में आने पहीं पाये 

इस बात का ध्‍यान रखना।


इस संसार में बहुत से लोग धर्म से जुडे हुए हैं 


सभी ने अलग अलग गुरू धारण 

कर रखे हैं, 

लेकिन अधिकतर शिष्य अपनी गलतियों का ध्‍यान हीं नहीं रखते हैं, 

जो भी करते हैं ज्ञान को भूलकर 

अहंकार के चश्‍मे के कारण  उस गलत कर्म को भी सही मानते हैं।

हम विश्‍लेषण करेंगे तो पायेंगे कि 

कुछ अपवादों को छोडकर अधिकतर इस संसार के लोग क्‍या करते हैं- 


जैसे कि एक संतान तब तक ही

मां पिता की रहती है 

जब तक उनका विवाह नहीं होता और 

विवाह होते ही उन्‍हें अपने जीवन साथी के अतिरिक्‍त 

किसी की परवाह नहीं होती 

ना मां की, 

ना पिता की,

ना भाई की 

ना बहिन की। 

उन्‍हें अपने जीवन साथी और अपनी संतान के अतिरिक्‍त 

किसी की परवाह नहीं होती और 

यदि कुछ थोडी बहुत परवाह करते भी हैं 

तो समाज के डर से लोगों के डर से कि

लोग/समाज क्‍या कहेगा?


उस समय वह संतान भूल जाती है कि

मैंने अपनी संतान से जो प्रेम किया है, 

क्‍या वैसा ही प्रेम मेरे माता-पिता ने मेरे साथ नहीं किया होगा?


एक पिता या माता के लिये अपनी संतान बहुमूल्‍य होती है, 

लेकिन एक संतान के लिये उसकी बहिन और भाई का उतना मूल्‍य नहीं होता,

 जितना मूल्‍य अपनी संतान के प्रति होता है।


इसीलिये एक भाई/बहिन का भाई/बहिन के प्रति प्रेम 

निम्‍न दर्जे का होता है। 

उदाहरण के लिये एक भाई जब अविवाहित था 

तो अपनी बहिनों को बहुत चाहता था,

 लेकिन जब उसकी शादी हो गयी तो उसकी पत्‍नी का सामान उपयोग करने पर

वह उसी बहिन से नाराज हो गया। 


एक कथा है -

एक मां-पिता ने अपनी संतान को बडे प्‍यार से पाला, 

उसे बडा बनाने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। 

लडके का विवाह हुआ,

पौता हुआ मां चल बसी। 

पिता को बीमारी ने घेर लिया, 

बहू ने कहा कि मेरे बेटे को ससुर से दूर रखो 

कहीं मेरा बेटा बीमार नहीं हो जाये।

लेकिन पोता अपने दादा का साथ छोडने को तैयार नहीं था। 


बहू ने कहा कि इसे कहीं ले जाकर जिंदा ही गाड दो। 


पौते ने यह सब सुन लिया। 

जब रात हुई तो पुत्र ने पिता को चारपाई सहित बैलगाडी में डाल दिया। 


पौते ने पूछा कहां जा रहे हैं

मैं भी साथ चलूंगा। 

पिता ने कहा उपचार के लिये, 

लेकिन तुम यहीं रहो 

तो पोता रोने लगा, पुत्र ने सोचा 

सब जाग गये तो मुसीबत हो जायेगी।


अत: अपने पुत्र को भी साथ ले

लिया और चला जंगल की ओर। 


काफी देर  कुछ विचार किया और

फिर पुत्र को समझाया कि पिताजी खांसी से परेशान है।

अत: उनको बीमारी से छुटकारा दिलाने के लिये यह कब्र खोद रहा हूं। 


पौते ने कुछ सोचा और वह भी 

पास में ही पिता के साथ गढ्ढा खोदने लगा। 

उसके पिता ने पूछा कि क्‍या कर रहे हो, 

पौते ने उत्‍तर दिया कि आप एक कब्र खोद रहे हैं, 

मुझे तो दो कब्रें खोदनी हैं।  

एक आपके लिये और एक मां के लिये।


जब आपकी हालत दादाजी जैसी हो जायेगी 

तब मैं आपका और मां का भी यही उपचार कर दूंगा। 


पुत्र होश में आ गया और पिता को वापस घर ले आया और

अपनी पत्‍नी को भी समझाया।


८. सम्‍यक समाधि – 

समाधि का अर्थ है चित्‍त की एकाग्रता । 

जबकि सम्‍यक समाधि का अर्थ है चित्‍त में स्‍थाई परिवर्तन। 


यानि के मन में  कुशल/शुभ/शुद्ध कर्मों का चिन्‍तन और 

अकुशल/अशुभ/अशुद्ध कर्मों के प्रति आकर्षण की समाप्ति के चिंतन का अभ्‍यास करना। 


जो मन इस संसार में विद्यमान पदार्थ और शक्‍लों पर अटका हुआ था 

वह मन अब निर्वाण के चिंतन में ही लगा रहता है, 

निर्वाण प्राप्ति के लिये ही कर्म करता रहता है।

पंचशील सदाचार-


हिंसा न करना,

चोरी न करना,

व्‍यभिचार न करना,

झूठ न बोलना, 

नशा न करना/

व्‍यसनों से दूर रहना।


भगवान  बुद्ध का वचन है –

है मानव, 

तुम शेर के सामने जाने से मत डरना, 


तलवार का सामना करने से

भयभीत नहीं होना, 


पर्वत शिखर से पाताल में कूदते हुए भी मत डरना, 


धधकती ज्‍वाला से भी मत डरना, 


लेकिन शराब व अन्‍य व्‍यसन से हमेशा भयभीत रहना,


क्‍योंकि यह बुराई गरीबी व दुराचारों की जननी है। 


सदाचार मुक्ति की राह प्रशस्त करता है तो दुराचार बंधन में डालता है।


त्रिरत्‍न


बुद्ध

धम्‍म

संघ


जब हम प्रात: उठते हैं तो वह समय

हमारे लिये सबसे कीमती होता है।

हम चाहे गृहस्‍थ हों या भिक्षु 

उस समय हमें शांत रहते हुए 

सभी चिन्‍ताओं, सभी कार्यों, सभी विचारों से दूर रहते हुए हमारे शरीर में चल रहे स्‍पंदन की

तरफ ध्‍यान केन्द्रित करना चाहिये ।

उस समय कोई विचार नहीं आने देना चाहिये। 

शांत चित्‍त होकर ध्‍यान करना चाहिये ।


उस समय इस प्रकृति में विद्यमान किसी भी पदार्थ/शक्‍ल के विचार को 

अपने अंदर आने से रोकना चाहिये। 


यही अभ्‍यास शाम को भी करना चाहिये। 


शेष समय तो यही ध्‍यान रखना चाहिये कि 

मैं जो भी कार्य कर रहा हूं, 

कर्म कर रहा हूं क्‍या ज्ञान के विपरीत तो नहीं कर रहा हूं।


जो भी कर्म करें उसे पूरी तन्‍मयता से करें ।


जैसे कि पूर्व में छपाई की मशीन के खुलते ही एक हाथ से कागज डाला जाता था और

दूसरे हाथ से कागज निकाला जाता था,

यदि जरा सी चूक हुइ्र तो हाथ गंवाना पडता था।


तो उसी तरह से हम जो भी कार्य करें

पूरे ध्‍यान पूर्वक, 

लगन से और 

पूरे मनोयोग से करें और 

अपना कार्य करते वक्‍त यह ध्‍यान रखें कि

हमारे द्वारा कारित किसी भी कर्म के कारण 

हमारा पतन नहीं होने पाये। 

हमें सतत प्रयास करना चाहिए कि 

हमारे समस्त कर्म ज्ञान के अनुरूप ही  हो।


हमारे कर्म ही हमें आध्‍यात्मिक रूप से

पंगु या शक्तिशाली बनाते हैं।  


तो हम ध्‍यानावस्‍था में इस प्रकृति के 

प्रत्‍येक पदार्थ/शक्‍ल से कट जायें अलग हो जायें और 


जाग्रत अवस्‍था में स्‍वयं ही

स्‍वयं का ध्‍यान रखें कि 

हम से कोई गलती नहीं होने पाये, 

यदि हो जाये तो उसका पछतावा करें और 

दृढ निश्‍चय करें कि अ

ब दोबारा यह गलती नहीं होगी।


क्‍योंकि इस धरा पर गुलामों की संख्‍या ज्‍यादा है 

और राज करने वालों की कम। 


अधिकतर व्‍यक्ति किसी ना किसी की गुलामी कर रहे हैं ।


अब जिसके अधीन कोई

काम कर रहा है 

तो वह भी बार-बार गलती करने वाले को क्षमा नहीं करता। 


तो हम स्‍वयं भी सावधान हो जायें और 

गलतियों की पुनरावृत्ति को रोकने का भरसक प्रयत्‍न करें। 


जब हम ऐसा करेंगे 

तो हमारा स्‍वार्थी स्‍वभाव परमार्थ में परिवर्तित होने लगेगा और 

एक दिन ऐसा अवश्‍य आयेगा 

जब स्वार्थ भाव पूर्णत: समाप्‍त हो जायेगा और 

जैसे ही स्‍वार्थ समाप्‍त होगा 

विकृतियां स्‍वत- ही समाप्‍त हो जायेगी, 


लेकिन इस स्‍वार्थ/विकृति को समाप्‍त करने का साधन 

केवल और केवल ध्‍यान और दृढनिश्‍चय ही है। 


जिस दिन यह ध्‍यान स्‍वपन में भी सार्थक हो जाता है 

यानि के स्‍वपन में भी पापमय कर्मों  से संघर्ष होने लगे 

और पुण्य कर्म दृढ होने लगें ।  


पाप से निश्‍पापता की ओर 

स्‍वार्थ से परमार्थ की ओर 

विक़ृति से शुद्धता की ओर

गमन करता है ,

तो चित्‍त की ऐसी अवस्‍था  परिशुद्धता की परमअवस्‍था होती है और 

ऐसी  चित्‍त दशा वाला मनुष्य 

शुद्ध-बुद्ध बन जाता है । 

यानि के आध्‍यात्मिक दृष्टि से 

दुर्गुण रहित सर्वगुण सम्‍पन्‍न बुद्धिमान शुद्ध-बुद्ध  बन पाते हैं ।


जैसा कि महाभारत में श्री कृष्‍ण भी शकुनि की बुद्धि के कायल थे और 

उन्‍होंने कहा था कि 

यदि शकुनि अपनी बुद्धि का प्रयोग 

तामसिकता के स्‍थान पर सात्‍विकता के लिये करता 

तो उसका कल्याण हो जाता।


बुद्धिमान तो रावण भी था, 

रावण के ज्ञान के श्री राम भी कायल थे और 

उन्‍होंने इसीलिये अपने अनुज लक्ष्‍मणजी को 

उनके पास ज्ञान ग्रहण करने के लिये भेजा था।


ज्ञान तो यही है कि हमें किसी के साथ ऐसा व्‍यवहार नहीं करना चाहिये 

जो हमें स्‍वयं के लिये पसंद नहीं हो, 


लेकिन जो शुद्ध बुद्ध हो जाता है 

वह इस ज्ञान से भी आगे बढकर 

अपने अपकार करने वाले को भी क्षमा कर देता है।

जीवन को परिवर्तित करके ही 

उस अनागामी लोक में पहुंचा जा सकता है, और 

उस लोक में पहुंचने के लिये 

धर्म के कानून का पालन अनिवार्य है।


घर्म का पालन यानि के 

सभी अधर्म मय कर्मों का त्‍याग।


तामसिकता से कामनामय/ तृष्‍णामय सात्विक बनना ही इंसान बनना है,

जिसे सोने की जंजीर कहा गया है और


निष्‍काम/

कामना रहित/

तृष्‍णा रहित 

सात्विक बनना ही भगवान 

(परम सौभाग्‍यशाली, परम एश्‍वर्यशाली) 

बनना है।


हमारे भारत का संविधान लिखने वाले बाबा साहेब 

यदि संविधान लिखने से पहले बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेते तो

हमारे देश का संविधान आध्‍यात्किता से भरा होता

क्‍योंकि उनकी लिखित पुस्‍तक भगवान बुद्ध और उनका धर्म में 

उन्‍होंने जो सदधर्म का वर्णन किया है । 


वह सदधर्म मानव को महामानव बनाने में मददगार होता, 

उस संविधान से विश्‍व में तो नहीं लेकिन 

कम से कम भारत में तो शांति स्‍थापित हो जाती,

हिंसा का तांडव शांत हो जाता,

स्‍वार्थ का स्‍थान परमार्थ ले लेता। 

यदि यह सदधर्म विद्यालय का अंग बन जाता

तो संस्‍कारवान पीढी का पदार्पण होता।


व्‍यर्थ के कर्मकांडों से 

वह परमानंद/दिव्‍य सुख प्राप्‍त नहीं किया जा सकता।


आज विज्ञान के आधार पर 

बहुत से गुरू शिष्‍यों को चमत्‍मकार दिखा कर

भ्रमित कर रहे हैं। 


कुछ गुरू अपने चेलों के द्वारा 

असत्‍य के आधार पर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, 

स्‍वयंभू भगवान बने हुए है,

 जैसे कि तर्कहीन चमत्‍कार की 

कुत्‍ते की फूटी हुई आंख को सही कर देना बिना किसी आपरेशन के,

अब मजे की बात तो यह है कि गुरूजी स्‍वयं तो स्‍वयं का चश्‍मा नहीं उतार सके 

अपनी आंखों की रोशनी वापस नहीं ला सके 

और उन्‍होंने फूटी हुई आंख को सही कर दिया। 


चमत्‍कार तो नहीं लेकिन जो शुद्ध बुद्ध बन जाता है 

उसे वह तेज तो प्राप्‍त होता ही है 

जिसके आगे हिंसक प्राणी भी नतमस्‍तक हो जाते हैं । 


जैसे कि भगवान बुद्ध के तेज के समक्ष अंगुलिमाल और 

महावीर स्‍वामी के तेज के समक्ष शूलपाणि नतम्‍स्‍तक हुए थे।


किसी के काम जो आये उसे इंसान कहते हें,

पराया दर्द अपनाये उसे इंसान कहते है, 

जो गलती करके ना दोहराये उसे इंसान कहते हैं, 

यह बडा ही प्‍यारा और स्‍च्‍चा भजन है 

तो इस तरह से मानव सेवा करें।


अहंकार ही वह विकार जिसके कारण

यह संसार विनाश के कगार पर खडा हुआ है।

पता नहीं कब यह संसार अहंकार की आंधी में स्‍वाहा हो जाये 

क्‍योंकि इस संसार में अधिकतर सभी अपने मन के अनुसार चलते हैं, 

चाहे वे किसी भी धर्म को मानते हों, 

जबकि अधिकतर सभी धर्मों ने शांति का संदेश दिया है,


राबिया ने अपने अंदर उस आनन्‍द को महसूस किया क्‍यों?

क्‍योंकि उसके मन मैं इंसानियत, प्रेम, सद्भाव के अतिरिक्त कुछ नहीं था और 

इसीलिए उसने कुरान में लिखे उस वाक्‍य को काट दिया कि शैतान से नफरत करो। 


ईसा मसीह ने कहा अपनी आंखों के पीछे का द्वार खटखटाओं यानि के अपने अंदर

ध्‍यान करो आनंद का द्वार खुल जायेगा। 


भारतीय दर्शन में तो अंतिम परिणाम परमानंद को ही माना गया है और 

गीता में भी अंदर ध्‍यान करने का वर्णन दिया हुआ है, 


गीता का भी यही संदेश है कि 

हम सुधर जायें तो हमें सुखों की अधिकता प्राप्‍त होगी और 

यदि कामना रहित सुधार करेंगे

तो समस्‍त दुखों का अंत हो जायेगा।


कहने का तात्‍पर्य यही है कि 

सभी धर्म सुधारकों ने हमें सुधरने के लिये निर्देश दिये और 

ध्‍यान करने के निर्देश दिये।


बहुत से लोग व्‍यर्थ के विवादों में ही उलझे हुए हैं 

जैसे कि कोई कहता है कि 

मेरा धर्म  

मेरा आदर्श पुरुष ही सबसे महान है,  


लेकिन विचारणीय बात तो यह है कि 

क्‍या हम उस मार्गदर्शक की वाणी के अनुसार 

चलने का प्रयास करते हैं।


भगवान बुद्ध ने इन सभी झंझटों से दूर रहते हुए समझाया कि 

केवल किसी का गुणगाण करने से 

कुछ भी हासिल नहीं होगा।


तुम्‍हें स्‍वयं गुणवान बनना होगा

स्‍वयं की बुद्धि के प्रकाश से 

स्‍वयं को प्रकाशित करना होगा।


धन्‍य हैं व लोग जो अपने मार्ग दाता की बातों को गम्‍भीरता से लेते हैं और 

उनकी पालना करने के लिये सच्‍चे मन से प्रयास करते हैं ।


वास्‍तव में ऐसे लोग ही शुद्ध बुद्ध बनते हैं अन्‍यथा 

शुद्धता के अभाव में जन्‍म-मरण के चक्र (दुख/नरक) में उलझे रहते हैं।


भगवान बुद्ध ने आत्‍मा और परमात्‍मा को 

अव्‍यक्‍तम कह कर इस पर चर्चा करने के बजाय 

कर्म पर जोर दिया है। 


हम चाहे आत्‍मा को नहीं माने लेकिन इस दृश्‍यमान शरीर को चलायमान रखने के लिये जो तत्‍व है 

उसे तो मानना ही पडेगा और वही तत्‍व इस द़़ृश्‍यमान शरीर का त्‍याग करके उस अनागामी लोक

में पहुंचता है। 


हम चाहे अद़श्‍य तत्‍व को माने या नहीं माने लेकिन 

कुछ तो है जो निकल जाता है 

तो यह शरीर निष्‍प्राण हो जाता है,


कुछ तो है जिसके कारण 

एक बालक क्रोधी तो दूसरा शांत स्‍वभाव का होता है। 


कुछ तो है जिसके कारण 

दुष्‍ट के भी सदाचारी का जन्‍म होता है

या सदाचारी के दुष्‍ट का जन्‍म होता है। 


यानि इस शरीर का जो अदृश्‍य कारण है 

उसे हम  चाहे कोई भी संज्ञा दे। 

अदृश्य तत्व को तो मानना ही होगा।

इसी तरह इस दृश्‍यमान

प्रकृति में जो गति हो रही है 

उसके पीछे जो कारण है 

उसे ही अदृश्‍य शक्ति माना गया है, 

उस अद़श्‍य शक्ति को ही 

आनंद का स्रोत माना गया है।


लेकिन सबसे महत्‍वपूर्ण तो हमारे कर्म ही हैं 

जैसे हमारे कर्म होंगे 

उसी रूप में हमें परिणाम भी प्राप्‍त होगा। 

चाहे हम किसी भी धर्म को मानते हों। 


जैसा कि यह परम सत्‍य है कि 

जो परिश्रम करता है, उसे सफलता मिलती है। 

आलसी को नहीं। 


चाहे कोई अद़़श्‍य तत्‍व को माने या नहीं माने

लेकिन यदि कोई कर्म सिद्धांत को नहीं मानता 

तो उससे बडा नादान/बेचारा कोई नहीं 

क्‍योंकि इस लाईन को भी अधिकतर सभी धर्म स्‍वीकार करते हैं कि 


जो बोयेगा

वही पायेगा 

तेरा किया 

आगे आयेगा 

सुध दुख है क्‍या 

फल कर्मों का 

जैसी करनी

वैसी भरनी, 

जैसी करनी 

वैसी भरनी।


संयुक्‍त निकाय से कुछ पंक्तियां- 


जो स्‍वयं से प्‍यार करता है, 

वह दुष्‍टता से दूर रहता है,

जो बुरे कार्य करता है, 

उसे कभी आन्‍नद/दिव्य सुख की प्राप्ति नहीं होती।


यह विचारनीय है कि- 


इस मानव शरीर को त्‍यागते हुए 

जीवन के आखिरी क्षण में 

तुम  किसे अपना कहोगे? 


म़ृत्‍यु के बाद तुम्‍हारे साथ कया जायेगा?


शरीर तयागते हुए हमारे साथ कुछ नहीं जाएगा, 

पत्‍नी, पुत्री, पुत्र, सगे-संबंधी और मित्र, सोना अनाज और सभी प्रकार की सम्‍पत्ति महल आदि 

सभी पीछे छूट जायेंगे। 


किन्‍तु जब हम इस संसार में होते है,

तो अपने शरीर, 

अपनी वाणी व 

अपने मन मस्तिष्‍क से 

जो कुछ भी करते हैं ।  

यही वह कृत्य/कर्म है, 

जिसे हम अपना कह सकते है, 

यही  वह कृत्य/कर्म है 

जो  मृत्‍यु के पश्‍चात् हमारे साथ जाते हैं।


कर्म छाया के समान कभी पीछा नहीं छोड़ते, 


बुरे कर्म कभीी भी  छुपाये नहीं जा सकते, 

सत्‍कर्मों का कभी नाश नहीं होता, और 

वह हमेशा प्रकट होंगे।


अत: सभी अच्‍छे कर्म करें 

भावी समृद्धि का यह खजाना है, 

इस जीवन में अर्जित सद्गुण अच्‍छा फल देगा।


धम्‍म पद –

हम जो कुछ भी हैं 

वह सभी कुछ अपने विचारों के परिणाम हैं।


व्‍यक्ति स्‍वयं पाप कर्म करता है,

स्‍वयं फल भोगता है, 

स्‍वयं पाप कर्मों से दूर रहता है,

स्‍वयं पवित्र होता है। 


कोई भी मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को

पवित्र नहीं कर सकता। 


जिसके निर्णय ओर निश्‍चय सुदृढ हैं, 

जो आलसी नहीं पुरूषार्थी है

वही बोधि पथ पर अग्रसर हो सकता है।


महापरिनिर्वाण सूत्र –

भुगवान बुद्ध ने आनंद से कहा कि – 


आनंद, 

अपने दीपक अपने आप बनो। 

अपनी शरण स्‍वयं ग्रहण करो।

धर्म को ही अपना दीपक समझो। 

धर्म की ही शरण ग्रहण करो

अन्‍य किसी की शरण ग्रहण मत करना।


अभी या मेरे न रहने पर 

जो भी अपने दीपक स्‍वयं बनेंगे, 

अपनी शरण स्‍वयं ग्रहण करेंगे, 

वे ही बोधि-प्राप्ति का प्रयास करते-करते 

उंचाई के शिखर तक पहुंच सकेंगे।

इसका तात्पर्य यही है कि - 

ज्ञानपथ पर शिष्य को ही चलना होगा। 

ज्ञान पर आचरण शिष्य को ही करना होगा।


वज्रच्‍छेदिका में कहा है –

जो कोई मुझे किसी रूप या शब्‍द में देखने का प्रयास करता है 

वह आदमी भटक गया है और 

वह कभी भी तथागत तक नहीं पहुंच सकता।


जो धर्मानुसार आचरण नहीं करता और 

कहता है कि आप मुझे देखते हैं,


मैं उसे नहीं देखता, 


लेकिन जो मनुष्‍य हजारों मील की दूरी पर रहने पर भी 

धर्मानुसार आचरण करता है,

वह मेरी दृष्टि में रहता है।


सद्धर्म –


मन के मैल को दूर कर निर्मल बनाना, 

संसार को धर्म मय बनाना, 

प्रज्ञा व शील की वृद्धि करना,

सभी के लिये ज्ञान के द्वार खोलना,

केवल विद्वान होना काफी नहीं,  

करूणा, 

मैत्री, 

उंच-नीच के भाव का अभाव,

समानता का भाव,

मानव का आकलन जन्‍म से नहीं

कर्म के आधार पर करना।


अंत में उस श्रेष्‍ठ मार्गदाता को नमन करते हुए 

उनकी वाणी को अपने जीवन में स्‍थान देते हुए

 स्‍वयं का सुधार करते हुए 

उनके पदचिन्‍हों पर चलते हुए 

सभी उनकी जैसी सदगति/निर्वाण की अवस्था  को प्राप्‍त करें ।


सबका भला हो 

सर्वे भवंतु सुखिन: 


भगवान बुद्ध पर विशेष 


जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।


वह भगवान बुद्ध जिनका इस धरा पर अतीत में पदार्पण हुआ था, 

वह भगवान बुद्ध जो अपने गुणों के आधार पर 

शीलवान,

प्रज्ञावान, 

करूणावान बनकर इस संसार में कमल की तरह रहते हुए 

अनागत हो गये और

अनागामी, ब्रहमलोक में विद्यमान है,


जिन्‍होंने इस संसार में विद्यमान सुख से बढकर 

उस परम सुख, परमानन्‍द, दिव्‍य सुख को प्राप्त ‍किया 

उन्‍हें  सहृदय से 

शत-शत नमन 

 

परिव्राजक सभिये ने भगवान बुद्ध से प्रश्‍न किया था कि - 

बुद्ध किसे कहते हैं?


भगवान ने उत्‍तर दिया - 

जिसने तृष्‍णा के सम्‍पूर्ण क्षेत्र का विश्‍लेषण करके 

संसार चक्र की उत्‍पत्ति और विनाश दोनों को जान लिया है।


जो चित्‍तमैल से विमुक्‍त हो गया,

जो विशुद्ध विमल है,

जिसने जन्‍म क्षय की अवस्‍था प्राप्‍त कर ली है,

उसे बुद्ध कहते हैं।

 

बुद्ध समस्‍त राग, द्वेष और मोह को भग्‍न करके मुक्ति के ऐश्‍वर्य  का जीवन जीते हैं, 

इस कारण  वे भगवान हैं।


बुद्ध अहंकार, ममंकार आदि  चित्‍तमैल रूपी दुश्‍मनों का हनन कर चुके हैं,

यानि उन्‍होंने अपने चित्‍त से जुड़े उपरोक्‍त अदृश्‍य शत्रुओं को हरा दिया है, 

परास्‍त कर दिया है, इस कारण वे अरहंत है।


स्‍वयं अपने प्रयत्‍नों द्वारा स्‍वयंभू बुद्ध है 

इस माने में वे सम्‍यक सम्‍बुद्ध हैं, 

यानि के उन्‍होंने जो भी प्राप्‍त किया 

अपने कर्मों के द्वारा प्राप्‍त किया।


केवल बुद्धि के स्‍तर पर ही नहीं

आचरण के स्‍तर पर भी ज्ञान सम्‍पन्‍न हैं

अत: वे विद्याचरण संपन्‍न हैं,


यानि के सत्‍य विद्या/ज्ञान के अनुसार 

आचरण करने वाले हैं।


उनकी कायिक,  वाचिक, मानसिक सभी गतियां 

शुद्ध हैं, कुशल हैं अत: सुगत हैं।


यानि उनकी वाणी सात्विकता से परिपूर्ण है, 

कल्‍याणकारी है, 


उनका मन सात्‍वकिता से भरपूर है, 

उनके शरीर द्वारा किये जाने वाला प्रत्‍येक कर्म 

सात्विकता से परिपूर्ण है।


उन्‍होंने अनुभूति के स्‍तर पर 

समस्‍त लोकों का रहस्‍य जाना है, 

अत: लोकविदु हैं। 


एक बार भगवान एक वन से गुजर रहे थे, 

उनके शिष्‍य ने उन से ज्ञान के संबंध में प्रश्‍न किया। 

उस जंगल में असंख्‍य पत्‍ते बिखरे हुए थे, 

उनमें से मुट्ठी भर पत्‍ते उन्‍होंने उठाये और कहा कि 

ज्ञान तो इन असंख्‍य पत्‍तों की तरह विस्‍तृत है,

 लेकिन मैंने इन मुट्ठी भर पत्‍तों जितना ही सबको बताया है, 

क्‍योंकि यही सार है, 

यही मानव कल्‍याण के लिये आवश्‍यक है।  


जैसे कि नींबू को छोड़कर केवल उसका रस ग्रहण किया जाता है, 

तो भगवान बुद्ध ने जिस ज्ञान का प्रसार किया है, 

वह सार है, ग्रहण करने योग्‍य है, 

मनुष्‍य के कर्मों से जुड़ा हुआ है। 


जैसे बिगड़ेल घोडों को सारथी सुधार लेता है,

ऐसे ही बिगडैल लोगों को सुधार लेने वाले अनुपम कुशल सारथी हैं।


 जैसे कि उन्‍होंने अंगुलिमाल का उद्धार किया था।


जिसके मन में भगवान बुद्ध की वाणी समाहित है, 

जिसके मन में उनका जीवन चरित्र समाहित है और

जिसकी बुद्धि उनकी वाणी को 

हर पल, हर समय याद रखते हुए

अपना हर कर्म करती है

चाहे वह कर्म 

मानसिक हो,

शारिरिक हो या

वाणी से किया गया हो,


जिसके शरीर का हर एक अंग-प्रत्‍यंग बुद्धि पूर्वक 

उनकी सत्‍य वाणी के अनुसार कार्य

करता है और ऐसा अभ्‍यास करते-करते 

जब वह अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए 

पूर्णत: शुद्ध बन जाता है।


तब ही वह शुद्ध प्रबुद्ध बनता है और 

शुद्ध प्रबुद्ध ही ध्‍यान के माध्‍यम से 

उस दिव्‍य सुख को प्राप्‍त कर पाता है


शुद्ध प्रबुद्ध उस योग्‍यता को हासिल कर पाता है 

जो कि भगवान बुद्ध ने हासिल की थी।


इस संसार में कोई भी स्‍वयं को मुर्ख नहीं समझता 

सब स्‍वयं को बुद्धिमान समझते हैं।


कोई कोई तो सोचता है कि उससे बढकर 

कोई बुद्धिमान नहीं, 

लेकिन असलियत तब सामने आती है, 

जब वह बुद्धिमान ध्‍यान करना शुरू करता है, 

और जेसे-जैसे उसका मन शांत होने लगता है, 

वैसे वैसे ही उसे अपने अतीत में किये गये कर्मों की मूर्खता का अहसास भी होने लगता है।


जैसे कि एक बच्‍चा 

बचपन में खिलौनों से खेलता है,

उसका खिलौना टूट जाता है,

उससे जुदा हो जाता है

तो वह रोता है 

चिल्‍लाता है,

लेकिन जब वह माता या पिता बनते हैं और 

जब उनके बच्‍चों के लिये खिलौने लेकर आते है 

तो उससे अपना मन नहीं बहलाते और 

ना ही उसके टूटने पर रोते और चिल्‍लाते है, 

हां उनका पुत्र अवश्‍य रोता है, चिल्‍लाता है।


जैसे एक पिता की नजर में बच्‍चा 

अपरिपक्‍व होता है

नादान होता है, 

उसी तरह इस प्रकृति की रचना भी कुछ ऐसी ही है, 

जिसमें हमारी इन्द्रियां खेलती है और

क्षणिक भोगों का रसावदान करती रहती है।


प्रक़ति में विद्यमान स्‍त्री/पुरूष, 

स्‍वादु पदार्थ, बहुमूल्‍य पदार्थ, धन सम्‍पत्ति, भडकाउ संगीत, कृत्रिम सुगंध, 

मनोहर दृश्‍य, सुंदर शक्‍लें/रूप आदि मन बहलाने (खिलोनों) का काम करती है,


हम इन्द्रियों की तृप्ति का खेल खेलते रहते हैं और

इसी तृप्ति के खेल के कारण ही 

अशुद्धता/अपवित्रता/नापाकता

यानि के विकारों – 

काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, 

राग, द्वेष, ईर्ष्‍या आदि की ओर बढते रहते हैं,

स्‍वार्थ की ओर बढते रहते है। और

यही भोगों की तृप्ति हमें अनागत नहीं बनने देती और

सुख और दुख हमारा पीछा नहीं छोडते हैं।

अनागत – 

यानि जिसे अब इस संसार में शरीर धारण कर पुन: वापस नहीं लौटना है, 

जो मुक्‍त हो गया है।


अत्‍यंत परिश्रम के बल पर,

प्रतिपल सचेत रहने पर ही

जीते जी वह परम सुख प्राप्‍त हो सकता है और

वह सुख हमारे इस संसार के त्‍यागने तथा

अनागामी लोक में पहुंचने पर उसी तरह साथ रहता है

जैसे शरीर के साथ उसकी परछाई।


यानि शुद्ध बुद्ध बनने पर ही परिपक्‍वता आती है तथा

शुद्ध बुद्ध बनने पर ही अपनी नादानियों का अहसास होने लगता है।


भगवान बुद्ध का संदेश है कि

उस दिव्‍य सुख की तुलना में सांसारिक सुख धूल के समान हैं।


उन्‍होंने इशारा किया है कि 

आओ और उस दिव्‍य सुख को प्राप्‍त करो, 

जिससे बढकर इस प्रकृति में कुछ भी नहीं।


लेकिन जो वास्‍तव में बुद्धिमान है

वह इस बात को स्‍वीकार करेगा और 

इस प्रकृति के माया जाल में नहीं फंसेगा।


बुद्ध और शुद्ध

दो शब्‍द हैं


जब तक दोनों का मेल नहीं होगा

तब तक उस दिव्‍य सुख की प्राप्ति भी नहीं हो सकती।


यदि बुद्धि है 

तो शुद्धि भी हो सकती है,


बुद्धि को यदि शरीर का प्रतीक माना जाये तो 

शुद्धि इस शरीर के प्राण का प्रतीक है।


इस पथ में अंतकरण की शुद्धि के बिना 

यह बुद्धि भी मृत शरीर की तरह निष्‍प्राण हैं।


बुद्धिमान तो सभी धर्मों में मिलेंगे, लेकिन बुद्धिमता के साथ साथ 

शुद्धता/पवित्रता/पाकता रखने वालों की संख्‍या 

आज इस संसार में न्‍यूनतम है,


जैसा कि किसी ज्ञानी ने कहा है कि 

जो अज्ञानी है और अज्ञानतावश अज्ञानमय कर्म करता है वह तो अंधकार में है,


लेकिन जिसने गुरू से ज्ञान अर्जित किया है और

ज्ञानवान होने के बावजूद 

सबकुछ जानते हुए समझते हुए भी 

जो ज्ञान के विपरीत कर्म कर रहा है,

वह महाअंधकार में है।


जहां शुद्धता है

वहां पर प्रेम है,

करूणा है,

मैत्री है,

मुदिता है

वहां नफरत का 

स्‍वार्थ का 

अहंकार का

नामोनिशान नहीं है, वहां तो

क्षमा भाव है,

सत्‍यता का वास है,

अहिंसा का वास है,

संयम का वास है,

परमार्थ का वास है,

संतोष का वास है।

भगवान यानि के परम सौभाग्‍यशाली, 

परम ऐश्‍वर्यवान, और ऐसा भगवान बनने के लिये 

पहले अपने अंदर के शैतान/राक्षस/असुर को मारना होता है, 

भग्‍न करना होता है,


जब यह मन के अंदर विद्यमान 

शैतान/राक्षस/असुर मर जाता है,

तब कोई इंसान बनता है


फिर इंसान बनने के बाद ही

समस्त दुर्गुणों को भग्‍न करके/ त्‍याग करके

कोई शीलवान,

गुणवान,

प्रज्ञावान बनता है और

ऐसा गुणवान ही देव यानि के देने वाला बन पाता है,


वह अपना तन और मन लोकहित के लिये समर्पित कर देता है।


यह भगवान बुद्ध की वाणी का ही दान था, 

जिसने हिंसक अंगुलिमाल को अहिंसक बना दिया।


यह उनकी वाणी का ही दान था,

जिसने सम्राट अशोक को हिंसक से अहिंसक बना दिया।


यह उनके ज्ञान का ही दान था कि सम्राट अशोक ने सत्‍यमेव जयते को अत्‍यंत महत्‍व दिया और

आज वह सत्‍यमेव जयते विद्यमान तो है, 

लेकिन वह केवल निर्जीव वस्‍तुओं पर ही लिखा हुआ देखने को मिलता है,


आज सत्‍य के पथिकों की संख्‍या अल्‍प है।


बुद्ध संदेश 


चार आर्य सत्‍य


1. दुख -संसार में दुख है- 

पैदा होना, 

शोक करना, 

रोना-पीटना, 

परेशान होना,

इच्‍छा की पूर्ति ना होना

आदि दुख है।


2. दुख समुदाय- दुख के कारण है 

विषयों के प्रति तृष्‍णा - 

यानि के इन्द्रियों की तृप्ति की तृष्‍णा।

मनुष्‍य अपनी  इन्द्रियों

आंख, 

कान, 

जिह्रवा, 

नासिका

त्वचा आदि

तथा

काया व मन के द्वारा 

इन इन्द्रियों के विषयों के भोग के कारण 

जो क्षणिक आनन्‍द की अनुभूति होती है, 

उस क्षणिक आनन्‍द की अनुभूति के कारण 

तृष्‍णा  बलवती  होती जाती है। 

तृष्णा की पकड़ बढ़ती ही जाती है।


3. दुख निरोध – दुखों का निवारण है और 

वह केवल त़ृष्‍णा के नाश से ही सम्भव है।


जब तक 

इस संसार के प्रति आकर्षण  है,

इन्द्रियों के प्रति आकर्षण  है, 

विकारों में आसक्ति है 

तब तक 

इस तृष्‍णा का नाश नहीं हो सकता है, 

इनसे विमुक्त होने पर ही 

इस तृष्‍णा का नाश हो सकता है।


इस तृष्‍णा का नाश 

कैसे किया जाये? 

क्‍या मार्ग है?


4. मार्ग – निवारण के लिये आष्टांगिक मार्ग है।


१. सम्‍यक दृष्टि – 

उपरोक्त चार आर्य सत्‍यों में विश्‍वास करना, 

यानि किसी भी क्षण

किसी भी पल 

यह नहीं भूलना कि 

इस संसार में दुख हैं और 

इसका निवारण एकमात्र 

निर्वाण ही है, 

और 

निर्वाण  केवल 

मल रहित 

अशुद्धता रहित 

होने पर ही 

पूर्णत: शुद्ध बुद्ध बनने पर ही

हासिल किया जा सकता है।


हिंसा

चोरी

व्‍याभिचार

लालच नहीं करना, 

असत्‍यवादी, 

चुगलखोर, 

अमृदुभाषी,

बकवादी नहीं होना।


२. सम्‍यक संकल्‍प - 

मानसिक और 

नैतिक विकास का 

प्रण लेना, 


जैसे कि अंगुलिमाल ने प्रण लिया था कि 

मैं अब हिंसा/दुराचार को छोड़कर सत्य की राह पर चलूंगा 

सदाचार का पालन करूंगा।


इसी तरह यह प्रण करना कि मैं प्रतिज्ञा करता हूं 

संक्‍लप लेता हूं कि 

मैं अपने आदर्श पुरुष की 

परम सत्‍य वाणी को ध्‍यान में रखते हुए 

दुर्गुणों से 

स्‍वार्थ से

दूर रहूंगा, 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 

शुभ सत्‍कर्म ही करूंगा। 


हमारी आशाएं,

हमारी आकांक्षाएं,

हमारी महत्‍वाकांक्षायें 

उच्‍चतम स्‍तर की हो।


यानि दुखों से छूटने की हो 

निर्वाण पाने के लिये हो।

निर्वाण से बड़ा परम लक्ष्य संसार में 

कोई भी नहीं।

कोई भी नहीं।

कोई भी नहीं।


३. सम्‍यक  वाक – 

सत्‍यवादिता, 

असत्‍य निंदा से विरत रहना, विनम्रता,

हानिकारक बातें और 

झूठ न बोलना, 

जैसा कि लोकोक्ति है कि 


पहले तोलो और फिर बोलो।


यानि जब भी बोले 

सोच विचार के बोले 

स्वार्थरहित, 

धर्म संगत, 

सत्‍य,

मृदु ही बोलें।   


जैसे कि सम्‍यक संकल्‍प धारण किया है, 

तो उसी के अनुरूप् हम सत्‍यमेव जयते को सदैव याद रखें, 


उसके अनुसार आचरण करने के लिये प्रयासरत रहे, 

ऐसी किसी बात का प्रचार नहीं करें, 

जिससे किसी की हानि हो।


जैसा कि कहा है 

सत्‍य बराबर तप नहीं 

झूठ बराबर पाप। 


ऐसी वाणी बोलिये 

मन का आपा खोय 

ओरन को शीतल करें 

आपहू शीतल होय। 


यानी हमारी वाणी ऐसी हो

जो हमें भी शांत और प्रसन्न  रखें तथा 

और को भी शांति और प्रसन्नता प्रदान करें ।


हमारी वाणी किसी की

आह का 

किसी के दुख का 

कारण नहीं बने 

किसी के अहित का कारण नहीं बने क्योंकि

क्रोधी, असत्‍यवादी कभी उस मंजिल को नहीं पा सकता है।


४. सम्‍यक कर्म – 

हानिकारक कर्म ना करना, 


जैसा संकल्प लिया है,

प्रतिज्ञा की है, 

उसी के अनुरूप हम ऐसा कोई कर्म नहीं करें, जिससे

किसी की आह निकले। 


यदि हम किसी की आह का कारण बनते हैं 

तो वह आह हमारे  बंधन का कारण बनती है।


यदि कोई

चोरी

हिंसा

दुराचार करता है 

तो यह कर्म किसी ना किसी की आह का कारण तो बनेगा ही और 

यह परम सत्‍य है कि किसी की आह 

दुख का 

नरक का 

पतन का कारण बनती है और


जब हमारे कारण किसी का मन प्रसन्‍न होता है, 

मन से वाह निकलती है तो वह प्रसन्‍नता/वाह  

सुख का 

स्‍वर्ग का 

उन्‍नति का

कारण बनती है।


५. सम्‍यक जीविका – 

कोई भी स्‍प्‍ष्‍टत: या अस्‍पष्‍टत- हानिकारक व्‍यापार न करना, 


जैसे कि यदि हम व्‍यापारी है 

तो ऐसा व्‍यापार नहीं करना चाहिए  

जिससे किसी का अहित होता हो, 

जिससे किसी की आह निकलती हो, 


अपने सेवकों के साथ अन्‍याय नहीं करना चाहिए, 

उन्‍हें उनकी मजदूरी का पूरा भुगतान करना चाहिए ।


यदि सेवक है तो ऐसा प्रयत्‍न करें कि  

जिसके कारण हमारी आजिविका चल रही है,  

उसकी अव‍नति नहीं होने पाये, 

अपितू हम उसकी उन्‍नति का माध्‍यम बनें ।

क्योंकि उसकी उन्नति में ही हमारी उन्नति है।


जिसके मन में सबके भले का भाव होता है, 

उसके लिए मुक्तिपथ आसान हो जाता है।


६. सम्‍यक व्‍यायाम प्रयास – इन्द्रियों पर संयम रखना, 

बुरे विचार/बुरे भावों को रोकना।

अपने आप सुधरने की कोशिश करना, 


जैसा कि हमने ज्ञान ग्रहण करते समय निश्चय किया है, 

प्रण किया है कि 

हम दुख निवारण के लिये 

स्‍वयं अपने संस्‍कारों को सुधारने का प्रयास करेंगे।  


हम इन्द्रियों के जाल से 

विकारों के जाल से

निरन्‍तर बाहर आने का प्रयास करते ही रहेंगे , 

करते ही रहेंगे । 


क्‍योंकि यही जाल तो

हमारे बंधन का कारण है।


यह परम सत्‍य है कि 

आदर्श पुरुष द्वारा दिया गया ज्ञान ही  

वह ज्‍योति है जो हमारा मार्ग दर्शन करती है, 


अब उस ज्ञान पथ पर शिष्‍य को चलना होगा । 

संसार में ऐसा कोई आदर्श पुरुष नहीं 

जो किसी के चित्‍त को स्‍थाई रूप से परिवर्तित कर दे।


आदर्श पुरुष  के ज्ञान  में वह अग्नि छुपी हुई है 

जो कर्म और ज्ञान रूपी पत्‍थरों को 

आपसे में रगडने पर ही प्रकट होती है।


एक पत्‍थर सभी के पास है 

चाहे वह गुरू हो या शिष्‍य वह पत्‍थ्रर है कर्म का और 

दूसरा है ज्ञान का 

जो आदर्श पुरुष के माध्यम से प्राप्त होता है।


अपवाद छोड़ कर

शिष्य बनकर ही ज्ञान  प्राप्त किया जाता है । 


शिष्य नहीं तो गुरु भी नहीं,


क्योंकि एक शिष्य ही गुरु बनता है।


जब ज्ञान और कर्म दोनों आपसे में टकराते हैं 

तभी वह अग्नि उत्‍पन्‍न होती है।


ज्ञान रूपी पत्‍थ्‍र गुरू के पास है

 जो उसे जन्‍म से नहीं मिला था, 

यह ऐसा पत्‍थर है जो उसने 

वर्षों की शुद्धता के अभ्‍यास 

के द्वारा हासिल किया था। 


इतिहास साक्षी है कि 

हमारे महापुरूषों ने भी शुद्धता के अभ्‍यास के बल पर ही

इस अदृश्‍य ज्ञान को प्राप्‍त किया था।


इस ज्ञान को अंतिम श्‍वास तक अंतकरण में प्रगाढ करने पर ही 

कोई वास्‍तव में मुक्ति का अधिकारी बनता है 

चाहे वह गुरू हो या शिष्‍य।


जैसे कि कोई एम.ए./बी.ए. करने पर

 जिस भी विषय का अध्‍यापन कार्य करवाता है 

तो अन्‍य विषयों का अभ्‍यास नहीं होने के कारण 

वह अन्‍य विषयों को भूल जाता है और

जिस विषय का वह अध्‍यापन कार्य करवाता है,

 उस विषय का वह विशेषज्ञ बन जाता है।


तो इस पथ में सबसे महत्‍वपूर्ण है कि 

जो कर्म संबंधी ज्ञान है 

उसका हम सतत अभ्‍यास करें, 

चाहे हम अभ्युदय से जुड़े ज्ञान को भूल जाएं लेकिन 

निश्रेयस  से जुड़े ज्ञान  को 

किसी भी क्षण 

किसी भी पल, 

अंतिम श्‍वांस तक  

कभी भी नहीं भूले 

कभी भी नहीं भूले 

कभी भी नहीं भूले 


एक कथा है कि एक राजा था, 

उसके दो पुत्र थे, 

बडा वैरागी था,

पिता की मृत्‍यु के बाद उसका राज तिलक किया जाना था, 

लेकिन उसने छोटे भाई का राजतिलक करवा दिया और 

स्‍वयं राज्‍य का त्‍याग कर किसी व्‍यापारी के यहां नौकरी करने लगा। 


व्‍यापारी को ज्ञात हुआ तो उसने,

 उससे काम लेना बंद कर दिया। 

उसके माध्‍यम से उस व्‍यापारी ने अपना कर मुक्‍त करवा लिया, और

उसके कुछ अन्‍य व्‍यापारी दोस्‍तों ने भी 

अपना कर मुक्‍त करवा लिया। 


बडे भाई की सोई हुई तृष्‍णा जागने लगी। 

एक राजा ने उनके राज्‍य पर हमला कर दिया तो 

बडे भाई ने उस राजा को हराकर 

उसके राज्‍य पर कब्‍जा कर लिया और राजा बन गया। 


उसकी तृष्‍णा ऐसी भडकी कि उसे धन सम्‍पत्ति की भूख सी लग गई 

उसने धीरे धीरे सभी राज्‍यों पर कब्‍जा कर लिया। 

इससे भी तृष्‍णा शांत नहीं हुई तो 

छोटे भाई के राज्‍य पर भी आक्रमण कर दिया कि

या तो राज्‍य छोडो या युद्ध करो।


छोटे भाई ने राज्‍य बडे भाई को लौटा दिया। 


एक दिन एक राहगीर दरबार में आया 

उसने राजा को बताया कि एक ऐसा राज्‍य है जहां सोना,

चांदी, हीरे, जवाहरात का अकूत भंडार है 

और यह बताकर वह वहां से चला गया।


राजा धन/सम्‍पत्ति के प्रति इतना दिवाना था कि 

वह राज्‍य का पता पूछना भी भूल गया। 


राजा ने पता लगाने के लिये चारों दिशाओं में दूत दौडायें 

लेकिन उस राज्‍य का पता नहीं चल सका। 


राजा उसे अपनी हानि समझने लगा और बीमार हो गया, 

उसकी बीमारी बढती ही जा  रही थी। 


एक साधू  उसका उपचार करने महल पहूंचा। 

उसने जानकारी ली कि राजा कब से बीमार है और

बीमारी से पूर्व क्‍या घटना घटी थी। 


तब उस साधू ने राजा को समझाया कि 

आपके पास जो है वही बहुत है, 

अधिक भी हासिल कर लोगे तो वह भी आपके कोई काम नहीं आयेगा, 

पेट भरने के लिये अन्‍न की आवश्‍यकता है, 

धन से पेट नहीं भर सकता है, 


साधू ने राजा को  समझाने के लिए एक कथा सुनाई- 


एक बार अकाल पडने से कहीं पर भी 

अनाज नहीं मिल पा रहा था, 

राजा ने प्रजा के लिये चांदी का भंडार खोल दिया, 

अन्‍न नहीं मिला,  


मंत्रियों के लिये सोने का भंडार खोल दिया 

अन्‍न नहीं मिला,


परिवारजनों के लिये हीरे जवाहरात के भंडार खोल दिये

लेकिन अन्‍न नहीं मिला


राजा ने अपनी कब्र तैयार करवायी और

उसके पास तख्‍ती लगवाकर लिखवाया कि 

इस धन से मैं अन्‍न हासिल नहीं करवा सका। 

अन्‍न के अभाव में सभी धीरे धीरे करके मर गये और अब मैं भी मर रहा हूं। 

यह धन मेरे काम नहीं आया।


साधू ने कहा कि  है राजन सोने के लिये एक ही बिस्‍तर काफी

है और एक पर ही सोया जा सकता है चार पर नहीं । 


राजा के बात समझ में आ गई

और उसने राज्‍य वापस छोटे भाई को लौटा दिया और

स्‍वयं पुन: सच्‍चा वैरागी बन गया।.


जैसे कि 

एक हाथ से ताली नहीं बजती।

एक पहिए से गाड़ी नहीं चलती।


उसी तरह से कर्म और ज्ञान के समन्वय के बिना 

ना तो अभ्युदय का लक्ष्य ही प्राप्त किया जा सकता है और 

ना ही निश्रेयस का लक्ष्य ही प्राप्त किया जा सकता है ।


जब तक ज्ञान और कर्म के पत्‍थर नहीं टकरायेंगे 

तब तक मंजिल प्राप्‍त नहीं हो सकती है। 

और इनका समन्‍वय अंतिम श्‍वांस तक नहीं टूटेगा

तभी मुक्ति/निर्वाण सम्‍भव है अन्‍यथा नहीं। 


चाहे गुरु हो या शिष्य दोनों को ही ज्ञान और कर्म में समन्वय रखना ही  होगा 

अन्यथा पथभ्रष्ट होने पर चाहे गुरु हो या शिष्य/ मुक्ति /निर्माण असंभव है।


७. सम्‍यक स्‍म़ृति- 

स्‍पष्‍ट ज्ञान से स्वयं के कृत्य/कर्मों को देखने की 

मानसिक योग्‍यता पाने की कोशिश करना, 

ज्ञान के अनुसार यह ध्‍यान रखना कि क्‍या गलत है और क्‍या सही। 


अज्ञानतावश जो गलतियां पूर्व में की है, 

 वे गलतियां पुन: नहीं होने पाये और 

कोई भी गलत विचार मन में आने पहीं पाये 

इस बात का ध्‍यान रखना।


इस संसार में बहुत से लोग धर्म से जुडे हुए हैं 


सभी ने अलग अलग गुरू धारण 

कर रखे हैं, 

लेकिन अधिकतर शिष्य अपनी गलतियों का ध्‍यान हीं नहीं रखते हैं, 

जो भी करते हैं ज्ञान को भूलकर 

अहंकार के चश्‍मे के कारण  उस गलत कर्म को भी सही मानते हैं।

हम विश्‍लेषण करेंगे तो पायेंगे कि 

कुछ अपवादों को छोडकर अधिकतर इस संसार के लोग क्‍या करते हैं- 


जैसे कि एक संतान तब तक ही

मां पिता की रहती है 

जब तक उनका विवाह नहीं होता और 

विवाह होते ही उन्‍हें अपने जीवन साथी के अतिरिक्‍त 

किसी की परवाह नहीं होती 

ना मां की, 

ना पिता की,

ना भाई की 

ना बहिन की। 

उन्‍हें अपने जीवन साथी और अपनी संतान के अतिरिक्‍त 

किसी की परवाह नहीं होती और 

यदि कुछ थोडी बहुत परवाह करते भी हैं 

तो समाज के डर से लोगों के डर से कि

लोग/समाज क्‍या कहेगा?


उस समय वह संतान भूल जाती है कि

मैंने अपनी संतान से जो प्रेम किया है, 

क्‍या वैसा ही प्रेम मेरे माता-पिता ने मेरे साथ नहीं किया होगा?


एक पिता या माता के लिये अपनी संतान बहुमूल्‍य होती है, 

लेकिन एक संतान के लिये उसकी बहिन और भाई का उतना मूल्‍य नहीं होता,

 जितना मूल्‍य अपनी संतान के प्रति होता है।


इसीलिये एक भाई/बहिन का भाई/बहिन के प्रति प्रेम 

निम्‍न दर्जे का होता है। 

उदाहरण के लिये एक भाई जब अविवाहित था 

तो अपनी बहिनों को बहुत चाहता था,

 लेकिन जब उसकी शादी हो गयी तो उसकी पत्‍नी का सामान उपयोग करने पर

वह उसी बहिन से नाराज हो गया। 


एक कथा है -

एक मां-पिता ने अपनी संतान को बडे प्‍यार से पाला, 

उसे बडा बनाने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। 

लडके का विवाह हुआ,

पौता हुआ मां चल बसी। 

पिता को बीमारी ने घेर लिया, 

बहू ने कहा कि मेरे बेटे को ससुर से दूर रखो 

कहीं मेरा बेटा बीमार नहीं हो जाये।

लेकिन पोता अपने दादा का साथ छोडने को तैयार नहीं था। 


बहू ने कहा कि इसे कहीं ले जाकर जिंदा ही गाड दो। 


पौते ने यह सब सुन लिया। 

जब रात हुई तो पुत्र ने पिता को चारपाई सहित बैलगाडी में डाल दिया। 


पौते ने पूछा कहां जा रहे हैं

मैं भी साथ चलूंगा। 

पिता ने कहा उपचार के लिये, 

लेकिन तुम यहीं रहो 

तो पोता रोने लगा, पुत्र ने सोचा 

सब जाग गये तो मुसीबत हो जायेगी।


अत: अपने पुत्र को भी साथ ले

लिया और चला जंगल की ओर। 


काफी देर  कुछ विचार किया और

फिर पुत्र को समझाया कि पिताजी खांसी से परेशान है।

अत: उनको बीमारी से छुटकारा दिलाने के लिये यह कब्र खोद रहा हूं। 


पौते ने कुछ सोचा और वह भी 

पास में ही पिता के साथ गढ्ढा खोदने लगा। 

उसके पिता ने पूछा कि क्‍या कर रहे हो, 

पौते ने उत्‍तर दिया कि आप एक कब्र खोद रहे हैं, 

मुझे तो दो कब्रें खोदनी हैं।  

एक आपके लिये और एक मां के लिये।


जब आपकी हालत दादाजी जैसी हो जायेगी 

तब मैं आपका और मां का भी यही उपचार कर दूंगा। 


पुत्र होश में आ गया और पिता को वापस घर ले आया और

अपनी पत्‍नी को भी समझाया।


८. सम्‍यक समाधि – 

समाधि का अर्थ है चित्‍त की एकाग्रता । 

जबकि सम्‍यक समाधि का अर्थ है चित्‍त में स्‍थाई परिवर्तन। 


यानि के मन में  कुशल/शुभ/शुद्ध कर्मों का चिन्‍तन और 

अकुशल/अशुभ/अशुद्ध कर्मों के प्रति आकर्षण की समाप्ति के चिंतन का अभ्‍यास करना। 


जो मन इस संसार में विद्यमान पदार्थ और शक्‍लों पर अटका हुआ था 

वह मन अब निर्वाण के चिंतन में ही लगा रहता है, 

निर्वाण प्राप्ति के लिये ही कर्म करता रहता है।

पंचशील सदाचार-


हिंसा न करना,

चोरी न करना,

व्‍यभिचार न करना,

झूठ न बोलना, 

नशा न करना/

व्‍यसनों से दूर रहना।


भगवान  बुद्ध का वचन है –

है मानव, 

तुम शेर के सामने जाने से मत डरना, 


तलवार का सामना करने से

भयभीत नहीं होना, 


पर्वत शिखर से पाताल में कूदते हुए भी मत डरना, 


धधकती ज्‍वाला से भी मत डरना, 


लेकिन शराब व अन्‍य व्‍यसन से हमेशा भयभीत रहना,


क्‍योंकि यह बुराई गरीबी व दुराचारों की जननी है। 


सदाचार मुक्ति की राह प्रशस्त करता है तो दुराचार बंधन में डालता है।


त्रिरत्‍न


बुद्ध

धम्‍म

संघ


जब हम प्रात: उठते हैं तो वह समय

हमारे लिये सबसे कीमती होता है।

हम चाहे गृहस्‍थ हों या भिक्षु 

उस समय हमें शांत रहते हुए 

सभी चिन्‍ताओं, सभी कार्यों, सभी विचारों से दूर रहते हुए हमारे शरीर में चल रहे स्‍पंदन की

तरफ ध्‍यान केन्द्रित करना चाहिये ।

उस समय कोई विचार नहीं आने देना चाहिये। 

शांत चित्‍त होकर ध्‍यान करना चाहिये ।


उस समय इस प्रकृति में विद्यमान किसी भी पदार्थ/शक्‍ल के विचार को 

अपने अंदर आने से रोकना चाहिये। 


यही अभ्‍यास शाम को भी करना चाहिये। 


शेष समय तो यही ध्‍यान रखना चाहिये कि 

मैं जो भी कार्य कर रहा हूं, 

कर्म कर रहा हूं क्‍या ज्ञान के विपरीत तो नहीं कर रहा हूं।


जो भी कर्म करें उसे पूरी तन्‍मयता से करें ।


जैसे कि पूर्व में छपाई की मशीन के खुलते ही एक हाथ से कागज डाला जाता था और

दूसरे हाथ से कागज निकाला जाता था,

यदि जरा सी चूक हुइ्र तो हाथ गंवाना पडता था।


तो उसी तरह से हम जो भी कार्य करें

पूरे ध्‍यान पूर्वक, 

लगन से और 

पूरे मनोयोग से करें और 

अपना कार्य करते वक्‍त यह ध्‍यान रखें कि

हमारे द्वारा कारित किसी भी कर्म के कारण 

हमारा पतन नहीं होने पाये। 

हमें सतत प्रयास करना चाहिए कि 

हमारे समस्त कर्म ज्ञान के अनुरूप ही  हो।


हमारे कर्म ही हमें आध्‍यात्मिक रूप से

पंगु या शक्तिशाली बनाते हैं।  


तो हम ध्‍यानावस्‍था में इस प्रकृति के 

प्रत्‍येक पदार्थ/शक्‍ल से कट जायें अलग हो जायें और 


जाग्रत अवस्‍था में स्‍वयं ही

स्‍वयं का ध्‍यान रखें कि 

हम से कोई गलती नहीं होने पाये, 

यदि हो जाये तो उसका पछतावा करें और 

दृढ निश्‍चय करें कि अ

ब दोबारा यह गलती नहीं होगी।


क्‍योंकि इस धरा पर गुलामों की संख्‍या ज्‍यादा है 

और राज करने वालों की कम। 


अधिकतर व्‍यक्ति किसी ना किसी की गुलामी कर रहे हैं ।


अब जिसके अधीन कोई

काम कर रहा है 

तो वह भी बार-बार गलती करने वाले को क्षमा नहीं करता। 


तो हम स्‍वयं भी सावधान हो जायें और 

गलतियों की पुनरावृत्ति को रोकने का भरसक प्रयत्‍न करें। 


जब हम ऐसा करेंगे 

तो हमारा स्‍वार्थी स्‍वभाव परमार्थ में परिवर्तित होने लगेगा और 

एक दिन ऐसा अवश्‍य आयेगा 

जब स्वार्थ भाव पूर्णत: समाप्‍त हो जायेगा और 

जैसे ही स्‍वार्थ समाप्‍त होगा 

विकृतियां स्‍वत- ही समाप्‍त हो जायेगी, 


लेकिन इस स्‍वार्थ/विकृति को समाप्‍त करने का साधन 

केवल और केवल ध्‍यान और दृढनिश्‍चय ही है। 


जिस दिन यह ध्‍यान स्‍वपन में भी सार्थक हो जाता है 

यानि के स्‍वपन में भी पापमय कर्मों  से संघर्ष होने लगे 

और पुण्य कर्म दृढ होने लगें ।  


पाप से निश्‍पापता की ओर 

स्‍वार्थ से परमार्थ की ओर 

विक़ृति से शुद्धता की ओर

गमन करता है ,

तो चित्‍त की ऐसी अवस्‍था  परिशुद्धता की परमअवस्‍था होती है और 

ऐसी  चित्‍त दशा वाला मनुष्य 

शुद्ध-बुद्ध बन जाता है । 

यानि के आध्‍यात्मिक दृष्टि से 

दुर्गुण रहित सर्वगुण सम्‍पन्‍न बुद्धिमान शुद्ध-बुद्ध  बन पाते हैं ।


जैसा कि महाभारत में श्री कृष्‍ण भी शकुनि की बुद्धि के कायल थे और 

उन्‍होंने कहा था कि 

यदि शकुनि अपनी बुद्धि का प्रयोग 

तामसिकता के स्‍थान पर सात्‍विकता के लिये करता 

तो उसका कल्याण हो जाता।


बुद्धिमान तो रावण भी था, 

रावण के ज्ञान के श्री राम भी कायल थे और 

उन्‍होंने इसीलिये अपने अनुज लक्ष्‍मणजी को 

उनके पास ज्ञान ग्रहण करने के लिये भेजा था।


ज्ञान तो यही है कि हमें किसी के साथ ऐसा व्‍यवहार नहीं करना चाहिये 

जो हमें स्‍वयं के लिये पसंद नहीं हो, 


लेकिन जो शुद्ध बुद्ध हो जाता है 

वह इस ज्ञान से भी आगे बढकर 

अपने अपकार करने वाले को भी क्षमा कर देता है।

जीवन को परिवर्तित करके ही 

उस अनागामी लोक में पहुंचा जा सकता है, और 

उस लोक में पहुंचने के लिये 

धर्म के कानून का पालन अनिवार्य है।


घर्म का पालन यानि के 

सभी अधर्म मय कर्मों का त्‍याग।


तामसिकता से कामनामय/ तृष्‍णामय सात्विक बनना ही इंसान बनना है,

जिसे सोने की जंजीर कहा गया है और


निष्‍काम/

कामना रहित/

तृष्‍णा रहित 

सात्विक बनना ही भगवान 

(परम सौभाग्‍यशाली, परम एश्‍वर्यशाली) 

बनना है।


हमारे भारत का संविधान लिखने वाले बाबा साहेब 

यदि संविधान लिखने से पहले बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेते तो

हमारे देश का संविधान आध्‍यात्किता से भरा होता

क्‍योंकि उनकी लिखित पुस्‍तक भगवान बुद्ध और उनका धर्म में 

उन्‍होंने जो सदधर्म का वर्णन किया है । 


वह सदधर्म मानव को महामानव बनाने में मददगार होता, 

उस संविधान से विश्‍व में तो नहीं लेकिन 

कम से कम भारत में तो शांति स्‍थापित हो जाती,

हिंसा का तांडव शांत हो जाता,

स्‍वार्थ का स्‍थान परमार्थ ले लेता। 

यदि यह सदधर्म विद्यालय का अंग बन जाता

तो संस्‍कारवान पीढी का पदार्पण होता।


व्‍यर्थ के कर्मकांडों से 

वह परमानंद/दिव्‍य सुख प्राप्‍त नहीं किया जा सकता।


आज विज्ञान के आधार पर 

बहुत से गुरू शिष्‍यों को चमत्‍मकार दिखा कर

भ्रमित कर रहे हैं। 


कुछ गुरू अपने चेलों के द्वारा 

असत्‍य के आधार पर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, 

स्‍वयंभू भगवान बने हुए है,

 जैसे कि तर्कहीन चमत्‍कार की 

कुत्‍ते की फूटी हुई आंख को सही कर देना बिना किसी आपरेशन के,

अब मजे की बात तो यह है कि गुरूजी स्‍वयं तो स्‍वयं का चश्‍मा नहीं उतार सके 

अपनी आंखों की रोशनी वापस नहीं ला सके 

और उन्‍होंने फूटी हुई आंख को सही कर दिया। 


चमत्‍कार तो नहीं लेकिन जो शुद्ध बुद्ध बन जाता है 

उसे वह तेज तो प्राप्‍त होता ही है 

जिसके आगे हिंसक प्राणी भी नतमस्‍तक हो जाते हैं । 


जैसे कि भगवान बुद्ध के तेज के समक्ष अंगुलिमाल और 

महावीर स्‍वामी के तेज के समक्ष शूलपाणि नतम्‍स्‍तक हुए थे।


किसी के काम जो आये उसे इंसान कहते हें,

पराया दर्द अपनाये उसे इंसान कहते है, 

जो गलती करके ना दोहराये उसे इंसान कहते हैं, 

यह बडा ही प्‍यारा और स्‍च्‍चा भजन है 

तो इस तरह से मानव सेवा करें।


अहंकार ही वह विकार जिसके कारण

यह संसार विनाश के कगार पर खडा हुआ है।

पता नहीं कब यह संसार अहंकार की आंधी में स्‍वाहा हो जाये 

क्‍योंकि इस संसार में अधिकतर सभी अपने मन के अनुसार चलते हैं, 

चाहे वे किसी भी धर्म को मानते हों, 

जबकि अधिकतर सभी धर्मों ने शांति का संदेश दिया है,


राबिया ने अपने अंदर उस आनन्‍द को महसूस किया क्‍यों?

क्‍योंकि उसके मन मैं इंसानियत, प्रेम, सद्भाव के अतिरिक्त कुछ नहीं था और 

इसीलिए उसने कुरान में लिखे उस वाक्‍य को काट दिया कि शैतान से नफरत करो। 


ईसा मसीह ने कहा अपनी आंखों के पीछे का द्वार खटखटाओं यानि के अपने अंदर

ध्‍यान करो आनंद का द्वार खुल जायेगा। 


भारतीय दर्शन में तो अंतिम परिणाम परमानंद को ही माना गया है और 

गीता में भी अंदर ध्‍यान करने का वर्णन दिया हुआ है, 


गीता का भी यही संदेश है कि 

हम सुधर जायें तो हमें सुखों की अधिकता प्राप्‍त होगी और 

यदि कामना रहित सुधार करेंगे

तो समस्‍त दुखों का अंत हो जायेगा।


कहने का तात्‍पर्य यही है कि 

सभी धर्म सुधारकों ने हमें सुधरने के लिये निर्देश दिये और 

ध्‍यान करने के निर्देश दिये।


बहुत से लोग व्‍यर्थ के विवादों में ही उलझे हुए हैं 

जैसे कि कोई कहता है कि 

मेरा धर्म  

मेरा आदर्श पुरुष ही सबसे महान है,  


लेकिन विचारणीय बात तो यह है कि 

क्‍या हम उस मार्गदर्शक की वाणी के अनुसार 

चलने का प्रयास करते हैं।


भगवान बुद्ध ने इन सभी झंझटों से दूर रहते हुए समझाया कि 

केवल किसी का गुणगाण करने से 

कुछ भी हासिल नहीं होगा।


तुम्‍हें स्‍वयं गुणवान बनना होगा

स्‍वयं की बुद्धि के प्रकाश से 

स्‍वयं को प्रकाशित करना होगा।


धन्‍य हैं व लोग जो अपने मार्ग दाता की बातों को गम्‍भीरता से लेते हैं और 

उनकी पालना करने के लिये सच्‍चे मन से प्रयास करते हैं ।


वास्‍तव में ऐसे लोग ही शुद्ध बुद्ध बनते हैं अन्‍यथा 

शुद्धता के अभाव में जन्‍म-मरण के चक्र (दुख/नरक) में उलझे रहते हैं।


भगवान बुद्ध ने आत्‍मा और परमात्‍मा को 

अव्‍यक्‍तम कह कर इस पर चर्चा करने के बजाय 

कर्म पर जोर दिया है। 


हम चाहे आत्‍मा को नहीं माने लेकिन इस दृश्‍यमान शरीर को चलायमान रखने के लिये जो तत्‍व है 

उसे तो मानना ही पडेगा और वही तत्‍व इस द़़ृश्‍यमान शरीर का त्‍याग करके उस अनागामी लोक

में पहुंचता है। 


हम चाहे अद़श्‍य तत्‍व को माने या नहीं माने लेकिन 

कुछ तो है जो निकल जाता है 

तो यह शरीर निष्‍प्राण हो जाता है,


कुछ तो है जिसके कारण 

एक बालक क्रोधी तो दूसरा शांत स्‍वभाव का होता है। 


कुछ तो है जिसके कारण 

दुष्‍ट के भी सदाचारी का जन्‍म होता है

या सदाचारी के दुष्‍ट का जन्‍म होता है। 


यानि इस शरीर का जो अदृश्‍य कारण है 

उसे हम  चाहे कोई भी संज्ञा दे। 

अदृश्य तत्व को तो मानना ही होगा।

इसी तरह इस दृश्‍यमान

प्रकृति में जो गति हो रही है 

उसके पीछे जो कारण है 

उसे ही अदृश्‍य शक्ति माना गया है, 

उस अद़श्‍य शक्ति को ही 

आनंद का स्रोत माना गया है।


लेकिन सबसे महत्‍वपूर्ण तो हमारे कर्म ही हैं 

जैसे हमारे कर्म होंगे 

उसी रूप में हमें परिणाम भी प्राप्‍त होगा। 

चाहे हम किसी भी धर्म को मानते हों। 


जैसा कि यह परम सत्‍य है कि 

जो परिश्रम करता है, उसे सफलता मिलती है। 

आलसी को नहीं। 


चाहे कोई अद़़श्‍य तत्‍व को माने या नहीं माने

लेकिन यदि कोई कर्म सिद्धांत को नहीं मानता 

तो उससे बडा नादान/बेचारा कोई नहीं 

क्‍योंकि इस लाईन को भी अधिकतर सभी धर्म स्‍वीकार करते हैं कि 


जो बोयेगा

वही पायेगा 

तेरा किया 

आगे आयेगा 

सुध दुख है क्‍या 

फल कर्मों का 

जैसी करनी

वैसी भरनी, 

जैसी करनी 

वैसी भरनी।


संयुक्‍त निकाय से कुछ पंक्तियां- 


जो स्‍वयं से प्‍यार करता है, 

वह दुष्‍टता से दूर रहता है,

जो बुरे कार्य करता है, 

उसे कभी आन्‍नद/दिव्य सुख की प्राप्ति नहीं होती।


यह विचारनीय है कि- 


इस मानव शरीर को त्‍यागते हुए 

जीवन के आखिरी क्षण में 

तुम  किसे अपना कहोगे? 


म़ृत्‍यु के बाद तुम्‍हारे साथ कया जायेगा?


शरीर तयागते हुए हमारे साथ कुछ नहीं जाएगा, 

पत्‍नी, पुत्री, पुत्र, सगे-संबंधी और मित्र, सोना अनाज और सभी प्रकार की सम्‍पत्ति महल आदि 

सभी पीछे छूट जायेंगे। 


किन्‍तु जब हम इस संसार में होते है,

तो अपने शरीर, 

अपनी वाणी व 

अपने मन मस्तिष्‍क से 

जो कुछ भी करते हैं ।  

यही वह कृत्य/कर्म है, 

जिसे हम अपना कह सकते है, 

यही  वह कृत्य/कर्म है 

जो  मृत्‍यु के पश्‍चात् हमारे साथ जाते हैं।


कर्म छाया के समान कभी पीछा नहीं छोड़ते, 


बुरे कर्म कभीी भी  छुपाये नहीं जा सकते, 

सत्‍कर्मों का कभी नाश नहीं होता, और 

वह हमेशा प्रकट होंगे।


अत: सभी अच्‍छे कर्म करें 

भावी समृद्धि का यह खजाना है, 

इस जीवन में अर्जित सद्गुण अच्‍छा फल देगा।


धम्‍म पद –

हम जो कुछ भी हैं 

वह सभी कुछ अपने विचारों के परिणाम हैं।


व्‍यक्ति स्‍वयं पाप कर्म करता है,

स्‍वयं फल भोगता है, 

स्‍वयं पाप कर्मों से दूर रहता है,

स्‍वयं पवित्र होता है। 


कोई भी मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को

पवित्र नहीं कर सकता। 


जिसके निर्णय ओर निश्‍चय सुदृढ हैं, 

जो आलसी नहीं पुरूषार्थी है

वही बोधि पथ पर अग्रसर हो सकता है।


महापरिनिर्वाण सूत्र –

भुगवान बुद्ध ने आनंद से कहा कि – 


आनंद, 

अपने दीपक अपने आप बनो। 

अपनी शरण स्‍वयं ग्रहण करो।

धर्म को ही अपना दीपक समझो। 

धर्म की ही शरण ग्रहण करो

अन्‍य किसी की शरण ग्रहण मत करना।


अभी या मेरे न रहने पर 

जो भी अपने दीपक स्‍वयं बनेंगे, 

अपनी शरण स्‍वयं ग्रहण करेंगे, 

वे ही बोधि-प्राप्ति का प्रयास करते-करते 

उंचाई के शिखर तक पहुंच सकेंगे।

इसका तात्पर्य यही है कि - 

ज्ञानपथ पर शिष्य को ही चलना होगा। 

ज्ञान पर आचरण शिष्य को ही करना होगा।


वज्रच्‍छेदिका में कहा है –

जो कोई मुझे किसी रूप या शब्‍द में देखने का प्रयास करता है 

वह आदमी भटक गया है और 

वह कभी भी तथागत तक नहीं पहुंच सकता।


जो धर्मानुसार आचरण नहीं करता और 

कहता है कि आप मुझे देखते हैं,


मैं उसे नहीं देखता, 


लेकिन जो मनुष्‍य हजारों मील की दूरी पर रहने पर भी 

धर्मानुसार आचरण करता है,

वह मेरी दृष्टि में रहता है।


सद्धर्म –


मन के मैल को दूर कर निर्मल बनाना, 

संसार को धर्म मय बनाना, 

प्रज्ञा व शील की वृद्धि करना,

सभी के लिये ज्ञान के द्वार खोलना,

केवल विद्वान होना काफी नहीं,  

करूणा, 

मैत्री, 

उंच-नीच के भाव का अभाव,

समानता का भाव,

मानव का आकलन जन्‍म से नहीं

कर्म के आधार पर करना।


अंत में उस श्रेष्‍ठ मार्गदाता को नमन करते हुए 

उनकी वाणी को अपने जीवन में स्‍थान देते हुए

 स्‍वयं का सुधार करते हुए 

उनके पदचिन्‍हों पर चलते हुए 

सभी उनकी जैसी सदगति/निर्वाण की अवस्था  को प्राप्‍त करें ।


सबका भला हो 

Comments

Popular posts from this blog

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥'

ब्रह्मचर्य Celibacy Brahmacharya

भावार्थ - या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥'