सत्यम शिवम सुंदरम भावार्थ 36 भागों में
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 1
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
यह प्रकृति
सत रज तम का मिश्रण है
मन जब त्रिगुणातीत होता है
यानि निष्काम सात्विकता में समाहित हो जाता है
तब स्थितप्रज्ञ की अवस्था आती है
तब उस अदृश्य शक्ति का साक्षात्कार होता है
हम चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारे
साधारण तौर पर अधिकतर लोग
सत्य का मतलब केवल
सत्य वाणी से लगाते हैं
लेकिन सत्य शब्द अत्यंत व्यापक हैं
इस एक सत्य में सब कुछ समाहित हैं
अध्यात्म की यात्रा तामसिकता से सात्विकता में समाहित होने की यात्रा है
तामसिकता ऐसा गड्ढा है
जिसमें एक क्षण में कूदा जा सकता है
लेकिन सात्विकता वह चढ़ाई है
जो समाप्त होती हैं सबसे ऊंची चोटी पर जाकर
यानी कि एवरेस्ट तक पहुंचना
यानी एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने में जितना परिश्रम लगता है वह सात्विकता में समाहित होने की तरह हैं
लेकिन एवरेस्ट की चोटी से भी कहीं अधिक परिश्रम मनुष्य को सात्विकता में समाहित होने के लिए करना पड़ता है
यही समझाने के लिए तीर्थ स्थलों को उचाई पर स्थापित किया गया है कि यह पथ
अत्यंत कठिन है
विकट है
इसमें श्रम की आवश्यकता है
आध्यात्मिक पथ को तलवार की धार पर चलने के बराबर कहां गया है
जैसे कि कोई संगमरमर की मूर्ति बनाता है तो पता नहीं कितनी ही चोट संगमरमर पर सावधानी पूर्वक करता है कि कहीं यह टूट ना जाए
तो सात्विकता में भी उससे भी अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है
अब यदि उस मूर्ति को कोई तोड़ना चाहे तो एक क्षण में तोड़ सकता है
एक चोट में तोड़ सकता है
यह तामसिकता का प्रतीक है
तामसिकता में समाहित होना आसान है लेकिन सात्विकता में समाहित होना अत्यंत कठिन है
एक भाई ने आध्यात्मिक ग्रुप पर सत्यम शिवम सुंदरम के संबंध में चर्चा की थी
उसी समय प्रभु की प्रेरणा से
इस पर लिखने का मन हुआ
इसमें जो भी आपको अच्छा लगे ग्रहण करें
आप जिसे भी मानते हो
उसी को ध्यान में रखते हुए
इस लेख को पढ़ें क्योंकि
किसी नाम से
कोई प्रसन्न हो जाता है
कोई रुष्ट हो जाता है
सत्यम शिवम सुन्दरम
ईश्वर सत्य है
सत्य ही शिव है
शिव ही सुन्दर है
जागो उठकर देखो
जीवन ज्योत उजागर है
सत्यम शिवम सुन्दरम
राम अवध में
काशी में है शिव
कान्हा वृन्दावन में
दया करो प्रभू
देखूं इनको हर घर के आंगन में
राधामोहन शरणं ।
एक सूर्य है
एक गगन है
एक ही धरती माता
दया करो प्रभू एक बने सब
सबका एक से नाता
राधामोहन शरणं
सत्य ना जाना
सुन्दर ना पहचाना
सत्य ना जाना
शिव को ना माना
सुन्दर ना पहचाना
दया करो प्रभू
सीखें हम सब
मन का दीप जलाना
सत्य बीज है
अंकुर है शिव
सुन्दर फूल हजारा
दया करो प्रभु
हो ना कलंकित
यह वरदान तुम्हारा
राधा मोहन शरणं
सत्य शिवम सुन्दरम
असत्य
इस संसार में अधिकतर लोग
असत्य
सुनना पसन्द नहीं करते
उन्हें जैसे ही यह पता चलता है कि
उनसे असत्य कहा गया है
उन्हें मूर्ख बनाया गया है
उन्हें गुमराह किया गया है,
तब उनका ज्ञान तुरन्त जाग्रत हो जाता है
और वह असत्य की निंदा करते हैं।
लेकिन जब उनका स्वयं का
स्वार्थ होता है अथवा
स्वयं की गलती छुपानी होती है
तो मनगंढत कहानी बनाकर
असत्य बोलते हैं
उस समय उनका यह ज्ञान
अदृश्य हो जाता है,
खो जाता है कि
असत्य बोलना तथा
किसी को मुर्ख बनाना
किसी को गुमराह करना
बहुत बुरी बात है।
असत्य उपदेश,
असत्य ज्ञान
मनुष्य का सर्वस्व हर लेते हैं
इसीलिये सत्य ज्ञान से ही
कल्याण होता है।
लगातार....2….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 2
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य
दो सत्य हैं
जो नित्य हैं
नष्ट नहीं होते हैं
अविनाशी हैं
आत्मा
परमात्मा
प्रकृति दृश्यमान है
सत्य प्रतीत होती हैं
नित्य प्रतीत होती हैं
लेकिन अंतर इतना है कि यह परिवर्तनशील है
शरीर की तरह ही बनती है और बिगड़ती है
यानी कि नश्वर है
यानी कि 5 तत्वों का मिश्रण है और 5 तत्वों में ही विलीन हो जाती है
लेकिन जैसे कि
जल जमकर बर्फ बन जाए अथवा
अग्नि के संयोग से भाप बन जाए लेकिन
जल का अस्तित्व
बर्फ में भी विद्यमान रहता है और
भाप में भी विद्यमान रहता है
इस तरह यह पंचतत्व कभी समाप्त नहीं होते
यह भी सत्य और अनित्य हैं लेकिन परिवर्तनशील है
आत्मा और परमात्मा में
कभी परिवर्तन नहीं होता।
शरीर मैं गति
आत्मा के कारण होती हैं और प्रकृति में गति परमात्मा के कारण होती है
परमात्मा के कारण ही
पांच तत्व दृश्य मान रहते हैं अथवा अदृश्य हो जाते हैं
इस संसार में जो दृश्यमान है
वह प्रकृति है और
जो अदृश्य है
वह चेतन तत्व है
सुपर पावर है
उससे बड़ी पावर/शक्ति
कोई भी नहीं
यह प्रकृति
जिसके कण-कण में
वह पावर/शक्ति समाहित है
जिसके कारण
वायु गतिमान है
अग्नि का अस्तित्व है।
पृथ्वी गतिमान है
ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चंद्रमा, तारे, नक्षत्र आदि गतिमान है।
जल विद्यमान है
हमें खुला आकाश मिला है
वह सुपर पावर
वह सुपर शक्ति एक ही है
चाहे कोई इस सत्य को
स्वीकार करें या नहीं करें
लेकिन इसी सुपर पावर की
श्री कृष्ण,
श्री राम ने
यज्ञ के माध्यम से
आहुति देकर आराधना की थी और
उसी सुपर पावर को शिव
यानि कि जगत का णकल्याणकर्ता
मानते हुए
श्री कृष्ण,
श्री राम ने
उस शिव की आराधना की थी।
इसी तरह शिवजी भी ध्यान करते थे,
उस कण कण में व्याप्त विष्णु का अथवा
सर्वत्र कण कण में रहे राम की।
श्री राम और
श्री कृष्ण
दोनों को ही विष्णु का रूप
माना जाता है।
विष्णु का अर्थ होता है
जो कि सर्वत्र व्याप्त है
हर एक अणु में
हर एक कण में।
व्यापक है
व्यापत है
समाहित है
इसीलिये इस भजन में भी
शिवजी,
श्री राम
श्री कृष्ण
तीनों को समाहित किया गया है।
लगातार....3….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 3
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
चाहे हम स्वीकार करें या
नहीं करें लेकिन
ओम के उच्चारण बिना
हवन पूरा नहीं होता और
ओम के उच्चारण बिना विवाह संपन्न नहीं होता
इसीलिए ओम को सभी मंत्रों से पहले लगाकर बोला जाता है
इसीलिए देवों के नाम से पूर्व भी
ॐ का उच्चारण किया जाता है
इसीलिये
ॐ नमः शिवाय
ॐ नम: भगवते श्री वासुदेवाय नमः कहा जाता है
ब्रह्मा जी के हाथ में जो वेद हैं
यानि कि ज्ञान है वह भी
ॐ से भरा हुआ है
यानि कि ॐ ही एक ऐसा है
जिसकी महिमा,
जिसका गुणगाण
हर एक देवी-देवता या
जिन्हें हम भगवान कहते हैं
उन्होंने भी
उस ॐ का उच्चारण
किसी न किसी रूप में किया है
बौद्ध धर्म की
महायान शाखा में भी
ॐ का उच्चारण
’’ओम मणि पद्मे हूम’’ मंत्र के
रूप में किया जाता है
श्री गुरुनानक जी ने भी
कहा है कि
एक ओंकार
जैन मंत्र में भी ॐ का
उच्चारण होता है
ॐ शब्द 3 अक्षरों से
मिलकर बना है
अ, उ और म यानि कि
अकार,
उकार,
मकार
जैसे कि 3 रंगों से ही
सारे रंग बन जाते हैं
उसी तरह इन 3 के बिना
शब्द नहीं बन सकता
हर शब्द, हर नाम में
यह तीनों ही समाहित है।
इसीलिए ॐ से ही
संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है।
ब्रह्माजी , विष्णुजी और शिवजी की एक कहानी प्रचलित है
कोई इसे सत्य मानता है
कोई असत्य
केवल समझाने के लिए है
ब्रह्मा , विष्णु और शिव अपनी - अपनी असाधारण शक्तियों के विषय में बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे ।
अचानक एक छोटा बालक वहाँ आया और ब्रह्माजी से कहने लगा ,
" आप क्या रचते हैं ?
ब्रह्मा ने उत्तर दिया - सब कुछ ,
उस बालक ने विष्णुजी से पूछा
उत्तर मिला - प्रत्येक वस्तु का पालन
शिवजी से भी पूछा ।
उत्तर मिला प्रत्येक वस्तु का नाश
वह छोटा बालक अपने हाथ में दाँत कुरेदनी के आकार का घास का एक छोटा तिनका पकड़े हुए था ।
ब्रह्मा के सामने उसे रखते हुए वह बोला '
क्या आप ऐसा ही एक तिनका बना सकते हैं ? "
अत्यधिक प्रयास के बाद ब्रह्मा
यह जान कर आश्चर्यचकित हुए कि वे नहीं बना सकते ।
तब बालक ने विष्णुजी को उस तिनके की रक्षा करने के लिए कहा ।
बालक ने तिनके पर दृष्टि जमाई और वह धीरे - धीरे लुप्त होने लगा ।
विष्णुजी तिनके की रक्षा करने में असफल रहे ।
बालक ने पुनः उस तिनके को प्रकट किया और शिवजी से उसे नष्ट करने को कहा ।
शिवजी ने उसका विनाश करने का प्रयास किया ,
परन्तु वह तिनका वैसे - का - वैसा ही रहा ।
बालक ने ब्रह्माजी से पूछा,
“ क्या आप ने मुझे बनाया ? "
ब्रह्माजी ने बार - बार विचार किया , परन्तु उन्हें कुछ याद नहीं आया कि कभी उस अद्भुत बालक को उन्होंने बनाया हो ।
अचानक वह बालक अदृश्य हो गया । तीनों देवता अपने भ्रम से जागे और उन्हें याद आया कि
उनकी शक्ति के पीछे एक और अधिक महान् शक्ति है
वह परम चैतन्य शक्ति
एक ही है चाहे कोई स्वीकार करें या नहीं करें
त्रिगुणानातीत अवस्था मैं
उसी एक परम चैतन्य तक की यात्रा पूर्ण होती है
अनेक से एक तक पहुंचने की यात्रा पूर्ण होती है
लगातार....4.....
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 4
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
हम आपस में नहीं झगड़े
इसीलिये शिवजी को
श्री कृष्ण,
श्री राम की
आराधना करते हुए दिखाते है
तो श्रीराम, श्रीकृष्ण को
शिवजी की आराधना करते हुए दिखाते हैं
लेकिन घोर आश्चर्य कि
शिवजी को मानने वाले कहते हैं
शिवजी सबसे बड़े हैं और
श्री कृष्ण अथवा
श्री राम को
मानने वाले कहते हैं कि
श्री राम,
श्री कृष्ण ही
सबसे बड़े हैं,
श्री कृष्ण को
मानने वाले कहते हैं कि
श्री कृष्ण ही
सबसे बड़े हैं,
श्री राम को
मानने वाले कहते हैं कि
श्री राम ही
सबसे बड़े हैं,
लेकिन
आश्चर्य तो इस बात का है कि
उनका उपदेश,
उनका संदेश
कोई सच्चे मन से,
गम्भीरता से
मानना ही नहीं चाहता है
हम किसी को भी मानते हों
चाहे निराकार को,
चाहे श्री राम को,
चाहे श्री कृष्ण को,
चाहे श्री शिव को,
चाहे मां पार्वती, दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, राधा, वैष्णो देवी आदि किसी को को भी मानते हों
हमें एक दूसरे से
झगड़ा नहीं करना चाहिए
वाक युद्ध,
अपशब्दों का प्रयोग
नहीं करना चाहिए
अपितु उनकी तरह
विनम्र होना चाहिये
सत्य साधना करनी चाहिए
शांति से रहना चाहिए ।
लगातार....5….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 5
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
जैसा कि
भजन में कहा है कि
ईश्वर सत्य है
यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है
एक ॐ से तीन रूप में
विभाजित हुई
सृष्टिकर्ता - ब्रह्मा - जन्म के प्रतीक
पालनकर्ता - विष्णु - जीवन के प्रतीक
प्रलयकर्ता - रूद्र - मृत्यु के प्रतीक
यह प्रकृति 1 से तीन हुई
3 से 9 हुई
9 से 81 हुई
इस तरह से इसका
विस्तार हुआ और
इसका विस्तारित रूप ही
संसार है
जैसे कि पेड़ होता है
उसका तना एक ही होता है
उसी एक से अनेक शाखायें
निकलती है,
उसी एक में
अनेकों पत्तियां लगती है।
तो जो अनेक से
एक की तरफ बढ़ने की
यात्रा करता है
यानि जिस किसी को भी
मानता है, उसकी ओर
बढ़ने का प्रयास करता है तो
अंततः अंतिम सुपर पावर तक
ही पहुंचता है क्योंकि
हमने जिस भी आराध्य का
चयन किया है
जिसकी भी आकृति को हमने
साधन बनाया है
उसके पीछे प्रकट होने वाले
प्रकाश/ज्योति में
कोई विभेद नहीं
जैसे हम सभी के
जीवन का आधार प्राणवायु है,
उसमें कोई विभेद नहीं
सभी का शरीर
उस प्राणवायु के
आवागमन के कारण
चलायमान है
तो उसी तरह जो नाद है
वह भी एक ही है,
जिसे ब्रह़म नाद कहते हैं,
ओंकार नाद कहते हैं
हम चाहे उस नाद को
कुछ भी नाम दें,
उस नाद का स्वर भी
एक ही है
उसमें कोई विभेद नहीं है।
वही एक ध्वनि हमारे अंतर में
गुंजायमान है,
जिसमें ॐ का
उच्चारण चल रहा है
चाहे उसे हम सोहं
कहें अथवा ॐ
अथवा ओंकार
तीनों में ही ॐ का स्वर
निहित है और इन दोनों यानि
शब्द धुन और
प्रकाश के साक्षात्कार से ही
परम आनंद की
अनुभूति होती है।
लगातार....6….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 6
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
यह परम आनन्द भी
एक ही तरह का होता है
चाहे कोई किसी को भी
मानता हो लेकिन
ज्योति/प्रकाश/शब्द धुन
सबके अंदर विद्यमान है और
उनमें विभेद भी नहीं है।
ज्योति/प्रकाश/शब्द धुन परमानंद
की अनुभूति
सत्य (सात्विकता) में समाहित होने पर
यानि कि मन का मैल
उतरने पर ही होती है।
मन का मेल उतरने पर ही
वह सत्य शब्द
जिसे नाद अथवा
अनहद नाद अथवा
ब्रह्मनाद कहते हैं
वहां तक की यात्रा पूर्ण होती है
और वहां तक पहुंचने पर ही
परमानंद की
दिव्य सुख की
ब्रह्मानंद की
अनुभूति होती है
तो जैसा भजन में कहा है
ईश्वर सत्य है
सत्य ही शिव है
शिव ही सुंदर है
इसे समझाने के लिए
एक कथा है
एक साधे सब सधे
सब साधे सब जाए
यह वाक्य संदेश देता है कि
जो अपने मन को
संसार में विद्यमान
अनेकों पदार्थ (सजीव/निर्जीव)
से हटाकर अनेक से उस
एक परम सत्य की तरफ
अग्रसर कर लेता है
तो जिस उद्देश्य के लिये
यह मनुष्य का शरीर मिला है
वह उद्देश्य पूर्ण हो जाता है।
लगातार....7...
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 7
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
यह कथा है
एक साधे सब सधे
तर्क की कसौटी पर तो नहीं है
लेकिन केवल समझाने के लिए है
एक राजा था ।
वह बड़ा धर्मात्मा था ।
प्रजा का पालन
संतान की भांति करता था ।
प्रजा सुखी थी ।
राजा ने अपनी राजधानी में
एक बड़ा तालाब खुदवाया ।
तथा जगह-जगह
उद्यान बनवायें।
सड़कें बनवायीं,
कुए खुदवाये।
सडकों के किनारे पेड लगवाये,
ताकि मुसाफिरों को,
प्रजाजनों को विश्राम के लिये
छाया मिल सके,
पीने के लिये
जल मिल सके,
शुद्ध वातावरण मिल सके।
प्रजाजनों के हित के लिये
राजा ने एक महीने के लिए
मेला लगवाया
साथ ही यह घोषणा भी
करवा दी कि दिन में जो माल
शाम तक नहीं बिकेगा,
उसे उचित कीमत में
राजा खरीद लिया करेगा ।
इस बात को सुनकर
दूर-दूर के दुकानदार आये ।
मेला खूब भरा ।
जो चीज शाम तक न बिकती,
उसे राजा खरीद लेता था ।
इसी नगर में
एक गरीब परिवार भी था ।
उस गरीब की पत्नी ने कहा कि
कुम्हार से मिट्टी की शनीचर की
मूत्ति बनवाकर ले आओ ।
मैं उसे सिंदूर से सजा दूंगी ।
तुम उसे बेचने ले जाना ।
कीमत पांच सौ बताना ।
उसे कोई मुफ्त में भी नहीं लेगा।
शाम होने पर राजा को बेचना।
वह गरीब मेले में पहुंचा ।
लोग खरीदने आते,
पर शनीचर का नाम सुनते ही
तुरंत लौट जाते थे ।
मूर्ति नहीं बिकी ।
संध्या हो गई ।
उस गरीब ने राजा से
उसे खरीदने के लिये कहा।
मंत्री, सभासद
सभी विरोध करने लगे ।
बोले, राजमहल में
शनीचर का वास ?
यह नहीं हो सकता ।
शनीचर के आते ही
राज्य की सुख - शांति
सब नष्ट हो जायगी ।
महाराज, उसे आप भूलकर भी
नहीं खरीदना ।
राजा बोला जो होना होगा
सो होगा।
जो भी विपत्ति भोगनी पड़े,
वह मैं भोगने को तैयार हूं ।
लेकिन मैं धर्म-भ्रष्ट कैसे होऊ?
अपने वचन की रक्षा के लिए
उस मूर्ति को खरीद ली ।
मूत्ति खरीदकर राजमहल में
एक आले मैं रख दी गई ।
उस दिन से राजा
द्वार पर पलक डालकर
सोने लगा।
शमादान और दीपकों को
जलाकर खूब प्रकाश रखा गया।
एक दिन रात के समय
राजा पलंग पर
आंखें खोले पड़ा था ।
आधी रात के समय
उसने देखा कि
एक देवी हाथ में
कमल का फूल लिये हुए
अपने दिव्य प्रकाश को
फैलाती हुई महल से
बाहर की ओर जा रही है ।
राजा उन्हें आता देखकर
तुरंत पलंग से उठकर
खड़ा हो गया और सिर झुकाकर
हाथ जोड़कर पूछा ,
“देवी, आप कौन हैं और
आधी रात के समय
कहां जा रही हैं ?
देवी बोली, “मैं लक्ष्मी हूं ।
राजा, तेरे घर में
अब शनीचर का वास है ।
अब मैं यहां नहीं रह सकती ।
मैं जा रही हूं ।
राजा बोला,
“अच्छी बात है ,
माता, जाओ ।
मेरा क्या बस है ?
लक्ष्मी चली गई ।
फिर राजा ने देखा कि
एक देव महल से बाहर
की तरफ जा रहे है ।
तब राजा ने पूछा ,
“देव, आप कौन हैं और
कहां जा रहे हैं ।
देव बोला, “राजन्,
मैं कुशल-क्षेम हूं ।
जहां शनीचर का वास है
वहां मैं नहीं रह सकता ।
लक्ष्मी गई, मैं भी जाता हूं ।
राजा ने कहा जाइये ।
मेरा क्या बस है ?
देव चले गये ।
फिर दो देवियां सिर पर
सोने के मुकुट पहने
महल से बाहर की तरफ
जाती हुई दिखाई दी ।
राजा ने उनसे भी पूछा,
देवियो, आप कौन हैं और
कहां जा रही हैं ?
देवी बोली, हम दोनो
ऋद्धि - सिद्धि हैं ।
शनीचर के रहते
हमारी यहां गुजर कहां ?
जहां लक्ष्मी गई,
वहीं हम भी जा रही हैं ।
राजा बोला,
मरजी आपकी !
दोनों चली गई ।
इस प्रकार लक्ष्मी,
कुशल-क्षेम,
ऋद्धि सिद्धि -
सभी चले गए ।
राजा के मन में
दृढ़ता आ गई ।
वह सोचने लगा
मैं राजा हरिषचंद्र की तरह
अपनी बड़ी से-बड़ी चीज को
त्यागने को तैयार हूं ,
बड़े-से-बड़े कष्ट को
सहने को तैयार हूं, पर
मैं अपनी बात से मुँह
मोड़ने को तैयार नहीं
ऐसा सोच ही रहा था
कि इतने में महल के
भीतर से एक तेजस्वी देव
आते हुए दिखाई दिये ।
राजा दरवाजे पर हाथ
जोड़कर खड़ा हो गया ।
जब वह देव बाहर जाने लगे
तो राजा ने पूछा
देव, आप कौन हैं और
कहां जा रहे हैं?
देव बोले, मैं सत्य-धर्म हूं ।
राजा, तेरे महल में
शनीचर का वास है।
इसलिये जहां लक्ष्मी गई है,
वहीं मैं भी जा रहा हूं ।
इतना सुनते ही झट
राजा ने सत्य-धर्म का
हाथ पकड़ लिया ।
कहने लगा, प्रभो,
आप कहां जाते हैं ?
इस दास ने तो
आपके कारण ही
सबको त्यागा है ।
इतने पर भी आप
जाना चाहें तो जाइये ।
द्वार खुला है ।
राजा की बात सुनकर
सत्य धर्म झिझक गये ।
मन में सोचने लगे कि
राजा ठीक तो कहता है ।
मेरी रक्षा के कारण ही तो
यह सब विपत्ति उस पर आई है ।
सबको छोड़कर उसने
मुझे ही तो पकड़ा है ।
ऐसी दशा में
मैं अपने भक्त को छोड़कर
कैसे जा सकता हूं ?
सत्य धर्म कहने लगे,
राजन्, तुम ठीक कहते हो ।
तुमने सबको त्यागकर
मुझे पकड़ा है ।
मैं भी तुम्हें छोड़कर
नहीं जा सकता
इतना कहकर सत्य धर्म
महल में लौट गये ।
सत्य-धर्म के वापस आते ही
वे सब देव, जो राजा को
त्यागकर चले गए थे,
एक-एक करके वापस
आने लगे।
राजा ने उनसे पूछा ,
देव, आप वापस कैसे आ गए?
देवताओं ने उत्तर दिया ,
“राजन्, जिस स्थान में
सत्य-धर्म रहता है,
उस स्थान को हम लोग
कदापि नहीं छोड़ सकते हैं ।
सत्यधर्म के पीछे-पीछे
लक्ष्मी, कुशल-क्षेम,
ऋद्धि-सिद्धि
सभी चलते हैं ।
सत्य-धर्म ने जाना तय
किया था ।
वह नहीं गये तो
हम कैसे जा सकते थे ?
ऐसा कहकर सभी पुनः
महल में वापस आ गए ।
राजा मंद-मंद मुसकाता हुआ
चुपचाप खड़ा रहा ।
लगातार....8….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 8
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य है
एक साधे सब सधै ,
सब साघे सब जाय ।
सत् मत छोड़े सूरमा ,
सत् छोड़े पत जाय ।
सत् के बांधे है सभी ,
फेर मिलेंगे आय ।
यानि कि सत्य (सात्विकता)
से ही आध्यात्मिक लक्ष्य
प्राप्त होता है
सत्य (सात्विकता) में निष्काम भाव से समाहित होने पर ही
उस परम सत्य की
अनुभूति होती है।
यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है
सत,
रज,
तम का
मिश्रण है
वह अदृश्य शक्ति
परमार्थी है
निर्विषयी है,
निर्विकारी है,
निष्पाप है
वही सबसे बड़ा दानी है
वही सबसे बडा दाता है
शेष सभी याचक हैं
इस संसार में ऐसा कोई नहीं
जिसने कभी भी किसी से
कुछ भी नहीं मांगा हो
जिस ने मांगा वह याचक है
भिक्षुक है
केवल वह अदृश्य शक्ति है
जो किसी से कुछ नहीं मांगती और
न्यायकारी होने के कारण
कर्मों के अनुसार
सुख और दुख
स्वर्ग और नरक
मुक्ति और बंधन
प्रदान करती हैं
कर्मों के आधार पर ही
बंधन में रखती हैं अथवा
बंधन मुक्त करती है
इसीलिए कहा है कि
दाता एक राम
भिखारी सारी दुनिया
श्री राम ने भी हनुमान व सुग्रीव
आदि से सहायता मांगी थी
गुरू वशिष्ठ उनके लिये
ज्ञान दाता थे।
इसलिए वह राम जो
इस संसार के कण-कण में
रमे हुए हैं, समाये हुए हैं
वही एक दाता है
शेष सभी याचक हैं
याचना करने वाले हैं
इसलिए वह अदृश्य शक्ति
परम सत्य है,
उसके जैसा निष्काम सतोगुण प्रधान कोई नहीं,
जिसे किसी से कोई चाह नहीं
उसी तरह जिसके मन में
उसके अतिरिक्त
कोई चाह
कोई कामना/
कोई वासना नहीं
वह उस परम सत्य (सात्विकता) में
समाहित हो जाता है
इसलिए कहा है कि
ईश्वर सत्य है यानी कि निष्काम
सत्य (सात्विकता) में ही
ईश्वर है,
शिव है
शाश्वत सुन्दरता है
तीनों ही समाहित है ।
लगातार....9….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 9
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
शिव यानि कि
कल्याण करने वाले
यदि हमारे जीवन में
सत्व गुण नही तो हम कभी आसक्ति रहित भी नहीं हो सकते
सात्विकता वह ऊंचाई है
जहां तक पहुंचने पर ही
मन निष्काम हो सकता है
मन आसक्ति रहित हो सकता है
जब तक मन निष्काम भाव से सात्विक नहीं बनता तब तक
उस संपूर्ण जगत का कल्याण
करने वाले शिव तक नहीं पहुंच सकते हैं।
इसीलिए निष्काम शुद्ध सत्व गुण ही
शिवमय है
कल्याणकारी है,
मुक्तिदायी है
शिव ही सुंदर है
यानि कि जिसका मन निष्काम भाव से
सत्य (सात्विकता) में
समाहित हो जाता है
वह मन सुंदरतम हो जाता है
शिवमय/कल्याणकारी हो जाता है
यानि कि मन जब
विकार रहित
विषय रहित
निष्पाप बन जाता है
तब उस परम सत्य तक
पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होता है
जैसा कि आरती में
प्रश्न किया है कि
आप अगोचर हैं यानि कि
दिखाई नहीं देते हैं तो
आप से कैसे मिलें
जिसका उत्तर आरती में ही
दिया है
विषय, विकार मिटाओ
पाप हरो देवा
यानी कि विषय रहित
विकार रहित
पाप रहित होने पर ही
उस अदृश्य शक्ति से
मिलन हो पाता है
यानि कि सत्य ही ईश्वर है
यानि जिसके मन में
जिसके हृदय में निष्काम सात्विकता है उसी के मन में
उसी के हृदय में ईश्वर है
इसीलिए कहा है -
सांच (सात्विकता) बराबर तप नहीं
झूठ (तामसिकता) बराबर पाप
जाके हिरदे सांच (सात्विकता) है
ताके हृदय आप (परम सत्य)
यानि कि सत्य जो कि
सात्विकता का प्रतीक है,
उससे बढ़कर कोई तपस्या नहीं और
झूठ जो कि
तामसिकता का प्रतीक है,
उससे बढ़कर कोई पाप नहीं।
तामसिकता ही माया का स्त्रोत है इसीलिए तामसिकता रूपी माया कामना वासना का जाल बिछाकर बंधन प्रगाढ कर देती है
निष्काम सात्विकता
परमात्मा की ओर ले जाती हैं
माया के बंधन छुड़ा देती है
लगातार....10….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 10
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
जिसके मन में निष्काम सात्विकता
समाहित हो जाती है
उसके अंतर में ही
वह अदृश्य शक्ति
प्रकाशित होती है
यानी कि निष्काम सात्विकता ही
सबसे बड़ा तप है
इसीलिए सत्य ही ईश्वर है
वह एक ऐसा सत्य है जिसका
कभी विनाश नहीं होता
जो अविनाशी है
कभी अंत नहीं होता
वह सुपर पावर
भूतकाल में भी विद्यमान थी
वर्तमान काल में भी विद्यमान है
भविष्य में भी विद्यमान रहेगी।
वह सुपर पावर ही
एकमात्र सत्य है
इसलिए शंकराचार्य जी ने कहा है
उसे कुछ लोग मानते हैं
कुछ नहीं मानते लेकिन
उन्होंने जो कहा कि
ब्रह्म सत्य,
जगत मिथ्या
उसकी पुष्टि की है
कबीर जी ने
जो कुछ देख रहा है बंदे
सब धोखा सब फानी है
यानी कि हमारी आंखें
जो भी देख रही है
सभी का प्रतिपल
प्रति क्षण धीरे-धीरे
ह्रास हो रहा है
इसे भगवान बुद्ध ने
पानी के बुलबुले की तरह
कहा है जैसे
पानी का बुलबुला
एक क्षण में उत्पन्न होता है
और दूसरे ही क्षण फूट कर
अदृश्य हो जाता है।
इसी कारण संसार में विद्यमान
सभी पदार्थ एक ना एक दिन
नष्ट हो जाते हैं
शरीर और अन्य पदार्थ
पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं
लेकिन वह सुपर पावर
कभी विनीष्ठ नहीं होती,
अविनाशी है
इसलिए उसे सत्य/नित्य कहा है
और परिवर्तनशीलता के
कारण ही जगत को
असत्य/अनित्य कहा गया है।
शिव ही सुन्दर है
यानी कि सत्य (सात्विकता) पूर्ण
मन ही सुंदरतम है और
सुंदरतम मन ही
स्वार्थ,
विषय,
विकार,
पाप
तामसिकता से
दूर हट कर
उस परम सत्ता में रत रहता है।
सत्य (सात्विकता) ही मन को
निर्मल,
निर्विकार,
निष्पाप
बनाकर शिवमय/कल्याणकारी बना देती है
इसलिए
सत्य (सात्विकता) से ही मन शिवमय बनता है
मन के शिवमय बनने पर ही
अंतर में सब कुछ सुंदरतम हो जाता है।
लगातार....11….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 11
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
चेहरे की सुंदरता के साथ
यदि सत्य (सात्विकता) हो
तो सोने पर सुहागा
की तरह हो जाती है
लेकिन यदि उस सुदरता के साथ
दुर्गुण,
तामसिकता जुडी हो तो
वह सुंदरता भी
निरर्थक हो जाती है
यदि कुरूपता हो और
मन सुंदरतम हो तो
कुरूपता भी सुंदरतम हो जाती है
क्योंकि विवाह के दौरान भी
जो समझदार होते हैं
लडके/लडकी के
गुणों को भी देखते हैं इसीलिये
ऐसे बहुत से उदाहरण
देखने को मिलते हैं कि
एक जीवन साथी सुंदर है
तो दूसरा कम सुदर है,
एक काला है तो
दूसरा गोरा है।
जैसे कि अष्टावक्र कुरूप थे
लेकिन उनके अंदर
सत्य (सात्विकता) थी और
सत्य ज्ञान रूपी सुंदरता के
कारण ही राजा जनक ने
उनका सम्मान किया था
उनका आदर किया था।
इसीलिए सत्य पथ ही
परम सत्य तक पहुंचाता है।
सत्य पथ से ही
मन शिवमय होता है
सत्य शिवमय अंतकरण चतुष्टय सुंदरतम बन जाता है।
विकार रूपी जहर बाहर हो जाता है
माया का पर्दा उतर जाता है
सत्य रूपी अमृत
अंदर भर जाता है।
सत्य व उज्जवल पक्ष है
सत्य वह प्रकाश है
जिसके प्रकाशित होने पर
तम रूपी अंधकार अदृश्य हो जाता है
लगातार.....12...
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 12
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
जागो उठकर देखो
जीवन जोत उजागर है
इसका आध्यात्मिक भावार्थ है कि
हम अज्ञान रूपी निद्रा से जग जायें और
जीवन में जलने वाली
उस परम ज्योति का
साक्षात्कार करें
जिस जोत
आत्मा और परमात्मा के
कारण यह शरीर चलायमान है
जिस जोत के शरीर में रहने तक ही
शरीर हिलता-डुलता है
गति करता है और
उस जीवन की ज्योत के
बाहर निकलते ही
शरीर ठंडा पड़ जाता है
शांत हो जाता है
अकड़ जाता है
तो हम अज्ञान रूपी निद्रा से
जाग जाएं और
हमें अज्ञान रूपी निद्रा से जगाते हैं
गुरु/ज्ञान
यह बात अलग है कि
कोई विरला ही
अज्ञान रूपी निद्रा से
जग पाता है और उस
जीवन की जोत का
उस परम ज्योति का
साक्षात्कार कर पाता है
जो शरीर में प्राणों का
संचालन करती है और
प्राणों (सांसों) की गति को
रोक देती है
इसीलिए उस परम सत्य को
सबका प्राण पति भी कहा है।
लगातार......13.....
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 13
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
जैसा कि भजन में कहा है
दया करो प्रभु एक बने हम
सबका एक से नाता
वह परमपिता परमात्मा अदृश्य है इसीलिए उसे आरती में अगोचर कहा है
हम उसे किसी भी नाम से पुकारे अपनी मान्यता को दूसरे से मनवाने के विवाद से परे हटकर सत्कर्म के साथ
उस अगोचर की आराधना
किसी भी नाम से करें क्योंकि
प्रत्येक सत्कर्म में उसका वास होता है
प्रत्येक दुष्कर्म में शैतान का वास होता है
राम अवध में
काशी में है शिव
कान्हा वृंदावन में
अवध/अयोध्या भी दो है
प्रथम जिसमें श्री राम रहते थे
दूसरी अयोध्या हमारा शरीर है
जिसमें वह राम बसते हैं
जो पूरे ब्रह्मांड में रमे हुए हैं।
जिसका मन सात्विक बन जाता है
उसमें वह राम बसते हैं और
जिसका मन तामसिक रहता है
उसके अंदर रावण ही विद्यमान रहता है।
यानि कि जहां तामसिकता है
वहां पर रावण का वास है और
जहां सात्विकता है वहां पर
उस अदृश्य परम सत्य का
वास है
जिसे हम ओम, राम, शिव, कृष्ण अथवा कुछ भी नाम दें।
काशी
पवित्रता का प्रतीक है
इसीलिए देवों के देव महादेव
धारावाहिक के अनुसार
शिव जी ने कहा है कि
जिस मन में कल्याणकारी भाव है
जिस का मन पवित्र है
उस मन की पवित्रता में ही शिव का वास है
जहां मन की पवित्रता है
वही शिव की पवित्र काशी है
वही शिव की कैलाशपुरी है
वही शिव की उज्जैनी है
यानि जहां पवित्रता/सात्विकता है
वहीं पर उस परम सत्य का
वास होता है,
चाहे हम उसे ओम, शिव, कृष्ण, राम अथवा अन्य कुछ भी नाम दें।
कान्हा वृंदावन में
कान्हा - यानि कि जो
एक छोटे से कण में भी
समाहित है,
वृन्दावन
वृंदा जो की पवित्रता की
प्रतीक हैं
यानि कि जहां पवित्रता होती है
उसी पवित्र वन में
उस परम सत्य का वास होता है,
चाहे हम उसे ओम, कृष्ण, कान्हा, शिव, राम अथवा अन्य कुछ भी नाम दें।
इस संसार में कोई
निराकार ज्योति का
कोई शिव की आकृति का
कोई श्री राम का
कोई श्री कृष्ण का
कोई मां दुर्गा काली सरस्वती लक्ष्मी वैष्णो आदि की आकृति का ध्यान करता है
तो कोई गुरु की आकृति का
तो कोई मंत्र का
ध्यान करता है
यह सभी आकृति मंत्र
तभी प्रकाश से प्रकाशित होते हैं
जब मन निष्काम भाव से सत्य (सात्विकता) में समाहित हो जाता है
तभी वह सूर्य कोटि समप्रभ
यानी कोटि सूर्य का प्रकाश
दिखाई देता है ।
लगातार....14….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 14
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
यानी कि अंतर में
कोटि सूर्य जैसी
प्रभा, आभा, चमक का
दर्शन होता है
वह प्रकाश एक ही है
वह ज्योति एक ही है
चाहे किसी भी आकृति का
ध्यान करें
सात्विकता के बाद ही
वह एक ही रूप में
प्रकट होती है
जो गुरु वाणी के अनुसार
स्वयं के मन को
सात्विक बना लेता है
उसका मन सत्यम से
शिवम और फिर
शिवम के वास के कारण
सुंदरतम बन जाता है
यानि कि पारस के संपर्क में
आने पर लोहे से सोने में
परिवर्तित हो जाता है
यानि कि मन
तामसिकता से सात्विकता में
परिवर्तित हो जाता है
इसीलिए कहा है
दया करो प्रभु
देखूं इनको
हर घर के आंगन में
राधा मोहन शरणं
यानि कि है प्रभू
सर्वत्र आपकी सत्य (सात्विकता) ही दिखाई दे।
यह भजन ना
केवल शिवजी के लिए है
ना केवल श्री राम जी के लिए है
और ना ही केवल श्री कृष्ण जी
के लिए ही है
अपितु समस्त सात्विकता से
परिपूर्ण देवों
आप्त पुरूषों के लिये है
इसीलिये प्रार्थना कि है कि
है ईश्वर सभी का मन
सात्विकता से परिपूर्ण हो जाये
यानि कि इस संसार के
प्रत्येक मनुष्य का मन
पवित्र हो जाए,
सबके व्यवहार,
सबके आचरण में
सत्य (सात्विकता)
की झलक देखने को मिले ।
लगातार.....15.....
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 15
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
अंत में कहां है
राधा मोहन शरण
इसका अर्थ है भक्त
राधामोहन की शरण में है।
जैसे कि सैंध्व शब्द के
दो अर्थ होते हैं
एक घोड़ा और
दूसरा नमक
तो उसी तरह किसी ज्ञानीजन ने
राधाजी को आत्मा माना है
तो किसी ज्ञानीजन ने
राधा को प्रकृति यानि कि
यह दृश्य मान संसार माना है।
दोनों अर्थ में विभेद है
लेकिन दोनों में ही
एक समानता है
यदि हम राधा को आत्मा
की संज्ञा दें तो भी
और प्रकृति की संज्ञा दे तो भी
दोनों ही परम शक्ति से एकाकार होती है
शरीरधारी राधा बिना विकारों से मुक्त हुए परमात्मा के प्रेम की अधिकारी नहीं बन सकती थी
इसीलिए श्री कृष्ण ने राधा के मन में विद्यमान विकारों से राधा को मुक्त करने हेतु युक्ति का उपयोग किया था
और उनकी युक्ति के कारण ही श्रीराधा
काम
क्रोध
लोभ
मद (अहंकार) आदि
मोह
सभी विकारों से मुक्त होकर
अशुद्ध प्रेम से विशुद्ध प्रेम में
समाहित हुई थी।
यानी कि शरीर धारी को
यदि परमात्मा से एकाकार होना है चाहे हम उन्हें मोहन कहे या किसी और नाम से संबोधित करें
धारा से राधा बनना ही होगा
तब ही परमात्मा से मिलन होगा
जब धारा से राधा बनते है
तब ही परमात्मा की शरण में होते है
इसीलिए कहा है
विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा चाहे हम राधामोहन की शरण में कहे चाहे हम कहे कि राधा के मन को मोहने वाले मोहन की शरण में हैं
दोनों ही स्थिति में
धारा से राधा बने बिना
यानि तामसिकता से निष्काम सात्विकता में समाहित हुए बिना
राधामोहन की शरण असंभव है
क्योंकि जैसे कोई ध्यान करता है और उसका मन बार-बार संसार के चिंतन में जाता है
तो वह राधा मोहन अथवा परमात्मा की शरण में नहीं है
अपितु संसार की शरण में है
यह यात्रा पूर्ण होती है
तब जब ध्यान के वक्त उस परमात्मा के अतिरिक्त कोई चिंतन नहीं रहता।
तब धारा से राधा बनने की यात्रा पूरी होती है । तब प्रभु की शरण होती है।
जैसे कि श्री बाल्मीकि जी ने यात्रा प्रारंभ की थी मरा मरा से और वह यात्रा समाप्त हुई राम-राम पर ।
यानि कि यह सम्पूर्ण प्रकृति को हम राधा माने
तो वह परम सत्य इस
प्रकृति के कण-कण में
अदृश्य रूप से समाहित है और
इतने विशाल अन्तहीन ब्रह्मांड की
आत्मा होने के कारण ही
उसे परम आत्मा कहा है।
यानि कि अदृश्य परम सत्य/ परमात्मा का दृश्यमान प्रकृति के साथ संयोग, जिसके कारण इस प्रकृति में गति विद्यमान है।
और यदि राधा को आत्मा माने तो
जैसे प्रकृति में वह परमसत्य समाहित है
उसी तरह इस प्रकृतिजन्य शरीर में
विद्यमान आत्मा का परमसत्य से संयोग जो की धारा से राधा बनने पर ही संभव हो पाता है।
अंतर केवल इतना ही है कि
प्रकृति और
परमपुरूष,परमात्मा, परमसत्य का
संयोग अटूट है
और शरीर के अंदर विद्यमान
आत्मा और परमात्मा के मध्य
विकारों/कामना/वासना की
दीवार विद्यमान है,
जिसके गिरने पर ही
आत्मा और परमात्मा
संयुक्त होते हैं।
यही उस परमपिता परमात्मा की शरण है
चाहे हम उसे राधा मोहन कहें
अथवा अन्य किसी भी नाम से संबोधित करें ।
2 नाम से पुकारने का मतलब यही है की एक जड़ तत्व है और दूसरा चेतन।
जड़ हमें दिखाई देता है चेतन नहीं तो हम चेतन को कभी नहीं भूले यही दो नामों के पीछे छिपा रहस्य है
जब तक मन में यह संसार रहता है
तब तक संसार दिखता है और परमात्मा गौण होता है
जब मन में परमात्मा समाहित हो जाता है तब परमात्मा ही दिखता है प्रकृति गौण हो जाती है
सत्य शरण से ही दृश्य से अदृश्य तक पहुंचने की यात्रा पूर्ण होती है ।
लगातार....16….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 16
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
शरीर के अंदर विद्यमान
आत्मा और
परमात्मा के मध्य
विषयों (इंद्रियों के भोगों )
विकारों
(काम क्रोध लोभ मद मोह मत्सर )
कामना/वासना की
दीवार विद्यमान है,
जिसके गिरने पर ही
आत्मा और परमात्मा
संयुक्त होते हैं।
इसीलिये श्री कृष्ण ने
राधा के एक-एक विकार
काम,
क्रोध,
लोभ,
मद,
मोह,
ईश्र्या आदि से राधा को मुक्त करने के लिये काफी प्रयास किया।
राधा के अंतरमन से जब यह
विकारों/कामना/वासना की दीवार गिरी थी
तब ही उनका अंतर उस परम सत्य के परमांनन्द रूपी वासना रहित अमृतमय प्रेम से परिपूर्ण हुआ था।
यानि तभी उनका अंतरमन
ज्योर्तिमय हुआ था,
प्रकाशित हुआ था।
राधाकृष्ण में इसी सत्य को
उजागर किया गया है कि
जब तक हमारे अंदर विकार है,
तब तक वह परमसत्य
परमानन्द रूपी प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता और
जब वह वासनारहित प्रेम मन में उत्पन्न होता है,
तो मन जनकल्याण के लिये
समर्पित हो जाता है।
और इसी का परिणाम था कि
राधाजी ने साम जो कि उनके प्राणों का प्यासा था,
उस तामसिक साम के प्राणों की राधाजी ने एक बार नहीं दो बार प्राण रक्षा की।
यह उस परमानन्द रूपी
वासना रहित प्रेम का ही उदाहरण है।
तो जिस तरह से राधा की आत्मा
अपने विकारों को त्याग कर,
तामसिकता को त्याग कर
मोहन यानि उस जग में विद्यमान सभी के
मन को मोहित करने वाले
परम सत्य से एकाकर हुई थी।
उसी तरह सभी की आत्मा
उस परम आत्मा से एकाकार हो कर
परम सत्य के परमानंद रूपी कामना/वासना रहित प्रेम से सराबोर हो कर अंतत: सद्गति को प्राप्त हो ।
लगातार......17….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 17
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
एक शब्द है
राधास्वामी
स्वामी का अर्थ तो परमात्मा ही है लेकिन
राधा शब्द के दो अर्थ हैं
प्रथम
राधा (आत्मा)
दूसरा भावार्थ
राधा (धारा का राधा मेें परिवर्तन)
धारा से राधा बनने पर ही
राधा का अपने स्वामी (परमात्मा) से मिलन होता है
यानी जिसका मन धारा से राधा बन जाता है
उसका अपने स्वामी से
मिलन हो जाता है
जब तक यह मन
धारा से राधा नहीं बनता
तब तक उस जगत के स्वामी
परम सत्ता
उस अदृष्य शक्ति
उस सुपर पावर से भी नहीं
मिला जा सकता है
धारा
यानि कि पानी जब
ऊपर से नीचे गिरता है तो
इसे धारा कहते हैं
धारा में बल की,
उर्जा की, पुरूषार्थ की
आवश्यकता नहीं होती
लेकिन यदि उसी धारा को
ऊपर की ओर उठाना हो तो
बल की,
उर्जा की,
पुरूषार्थ की
आवश्यकता पड़ती है।
वर्षा का पानी
जब नीचे गिरता है
तो उसकी मात्रा
अत्यधिक होती है और
आसानी से वर्षा का पानी
नीचे गिर जाता है
लेकिन वही पानी जब सूर्य के ताप से
भाप में बदलकर
उपर उठता है
तो बहुत ही अल्प मात्रा में
धीरे-धीरे पानी भाप बनकर
ऊपर की ओर उठता है तो
इसलिये तामसिकता आसान है
लेकिन सात्विकता अत्यंत कठिन
धारा तामसिकता का प्रतीक है
और राधा सात्विकता का
धारा यानि तामसिकता हमें
उस परम शक्ति से मिलने से
वंचित कर देती है और
धारा से राधा में परिवर्तित होते ही उस परमात्मा से मिल जाती हैं और
इसलिए धारा और स्वामी
जो अलग थे राधा बनते ही
एक हो जाते हैं
यानि मन की निष्काम सात्विक अवस्था होने पर ही राधा का स्वामी से मिलन हो पाता है, यानी
जब आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है तब ही
राधास्वामी शब्द सार्थक हो पाता है
लगातार.....18….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 18
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
विरले ही अपने मन को
धारा से राधा बनाने की यात्रा
तय कर पाते हैं
राधा जी का नाम अवश्य ही
राधा रहा होगा
लेकिन कृष्ण से
मिलने से पूर्व वे धारा ही थीं
क्योंकि उन्हें वास्तविक राधा
बनाने के लिये श्री कृष्ण
ने राधा के मन के अंदर व्याप्त
विकार
काम
क्रोध
लोभ
मद
मोह
ईष्र्या द्वेष आदि को
समाप्त करने के लिये
बहुत प्रयत्न किया था और
अंततः यह सभी विकार दूर होने के कारण राधा जी वास्तव में धारा से राधा बन सकीं और परमार्थ में ही जीवन व्यतीत किया था।
राधा जी कृष्ण जी की कहानी
कोई सत्य मानता है
कोई असत्य
लेकिन यदि कोई सत्य मानता है तो यह भी सत्य है कि
राधा के अंदर से सभी विकार
काम
क्रोध
लोभ
मोह
राग
द्वेष दूर होने के बाद ही उनके अंदर वासना/कामना रहित प्रेम उत्पन्न हुआ था और
उनका यह प्रेम संसार के
समस्त प्राणियों के लिए था।
श्री कृष्ण के ज्ञान ने
उनके मन को मोह लिया था
इसलिए राधा श्री कृष्ण की
शरण में थीं, इसलिए
राधा ,
मोहन की शरण में थी
यानी कि
श्री कृष्ण राधा के गुरु की तरह थे
इसकोे इस तरह भी समझ सकते हैं कि-
लगातार.....19….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 19
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
इसकोे इस तरह भी समझ सकते हैं कि
राधा को मोहने वाले
मोहन की शरण
तो आज सभी अदृश्य हैं
राधा के मन को जिसने
धारा से राधा बनाया था
जिसके ज्ञान ने राधा जी के
मन को मोह लिया था
उनकी शरण
यानि कि सात्विकता ही
धारा से राधा बनाती है और
जिसका मन धारा से
राधा बन जाता है
वह उस समस्त संसार के
प्राणियों को मोहने वाले
मोहन से मिल जाता है और
इस तरह कोई राधा को
मोहन वाले मोहन की
शरण में जाता है
यानि कि जब मन धारा से
राधा बनता है तो
आत्मा से तामसिकता रूपी मैल हट जाता है और
आत्मा स्वतः ही
राधा बन जाती है,
ऊपर उठ जाती है
जगत के स्वामी से
मिल जाती है और
जिसका मन धारा बनकर
संसार की तरफ भागता रहता है
उसका मन
कभी राधा नहीं बनता और
वह स्वामी से दूर ही रहती है
हम सब एक हो जाएं
वह अदृश्य शक्ति भी यही चाहती है
लेकिन हम लड़ते हैं
हमारे विचारों के कारण
हम लड़ते हैं
विकारों के कारण
हम लड़ते हैं
हमारी इंद्रियों के विषयों की
तृप्ति के कारण
लगातार.....20….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 20
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
उस अदृश्य शकित का ज्ञान
कहता है कि
सत्य,
अहिंसा,
अस्तेय (चोरी नहीं करना),
ब्रह्मचर्य
अपरिग्रह
(निर्विचार स्थिति, दान, त्याग)
शौच (तन और मन की शुद्धि),
संतोष
(पुरूषार्थ तो करना पर
सदैव अपने से निम्न स्थिति
वालों को देखकर संतोष करना),
तप
(समस्त परिवारजनों का
पालन पोषण उनके व्यस्क
होने तक करना तथा साथ ही
उस अदृश्य शक्ति के
साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ करना)
स्वाध्याय
(स्वयं का अध्ययन
यानि कि दृष्टा भाव,
साक्षी भाव से स्वयं के
प्रत्येक कर्म को देखना कि
यह ज्ञान के अनुसार है या
ज्ञान के विपरीत)
ईश्वर प्राणिधान - समर्पण भाव
मेरा मुझमें कुछ नहीं
जो कुछ है सो तो तेरा
(यानि अब जो कुछ भी है
वह सब कुछ अदृश्य शक्ति का है
यानि कि यह शरीर भी
उसी की देन है,
किराए के घर की तरह है
जो कि उसने हमें निशुल्क
प्रदान किया है।
हम कभी भी अपने कर्मों के
अतिरिक्त अपने साथ
ना ही कुछ लेकर जाते हैं और
ना ही अपने कर्मों के अतिरिक्त
कुछ लेकर ही
इस संसार में आते हैं।
जो कुछ भी पाया
यही संसार में पाया
उसकी कृपा से कर्मों के
आधार पर ही पाया है
इसलिए सब कुछ
उसका मानते हुए
यदि कोई प्रत्येक कर्म
उसको समर्पित करेगा तो
क्या कोई तामसिक कर्म
कर सकता है, कदापि नहीं
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान
हमारे मन पर लगे हुए विषय विकार व पाप रूपी मैल को धोने का काम करते हैं
यही 10 बातें
शिव पुराण,
भागवत में,
अन्य धर्म इस्लाम,
ईसाई, सिख,
बौद्ध जैन आदि सभी धर्मों में
भी मिल जाएगी
हां इतना अवश्य है कि
जैन बौद्ध में ईश्वर को
नहीं मानते लेकिन
सात्विकता को मानते हैं,
अहिंसा को सभी धर्म मानते हैं
लेकिन ईसाई और इस्लाम में
पशुओं की हिंसा को
हिंसा नहीं मानते लेकिन
मनुष्य की हिंसा को
हिंसा मानते हैं,
पाप तुल्य मानते हैं
तो जैसा कि कहा है कि -
लगातार.....21….
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 21
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
जैसा कि कहा है कि
एक सूर्य है
एक गगन है
एक ही धरती माता
दया करो प्रभु
एक बने हम
सबका एक से नाता
यानि कि एक सूर्य है,
लेकिन बिना भेदभाव के
सबके हित के लिए गतिमान है,
प्रकाशमान है
एक गगन है
यानि कि उस अदृश्य शक्ति की
महानता के कारण ही
आज हर प्राणी को
खुला आकाश नसीब है
क्योंकि यह हमारी पृथ्वी
हवा में बिना किसी आधार के
घूम रही है,
हवा में होने के कारण
पृथ्वी के उपर भी खुला आकाश है और
पृथ्वी के नीचे भी खुला आकाश है।
सभी दिशाओं में खुला आकाश है
समुद्र का पानी भी ऊपर की और
नीचे की ओर दोनों दिशाओं में है
लेकिन गुरुत्वाकर्षण के कारण
गिरता नहीं है
आज हम बिना किसी तरकीब
बिना किसी पावर के
एक ऑलपीन भी हवा में
निराधार नहीं लटका सकते।
तो यह उसकी महानता है कि
हमें इतनी विशाल धरा
उपलब्ध कराई
खुला आकाश उपलब्ध कराया
सूर्य सबके लिए हैं निशुल्क है
आकाश सबके लिए हैं निशुल्क है
धरा सबके लिए है,
उसने तो निशुल्क ही
सबको प्रदान की है।
जल सबके लिए है निशुल्क है
यह पांचों ही निष्काम भाव से
केवल देते ही देते हैं,
बदले में कुछ भी नहीं लेते।
इन पांचों के कारण ही
यह संसार अस्तित्व में है
यदि हम भी इनकी तरह
स्वार्थ से परे हो जाएं
उनकी तरह परमार्थी हो जाएं तो
सारे झगड़े समाप्त हो जाएं ।
हम सब यदि गुरु वाणी की
पालना करें
गुरु के उपदेश की पालना करें
तो
हम सब एक बन सकते हैं
हम सब नेक बन सकते हैं
हम सब सात्विक बन सकते हैं
धारा से राधा बनने की
यात्रा पूर्ण कर
मन को तामसिकता से सात्विकता में परिवर्तित कर सकते हैं और
इश्क मजाजी से
इश्क हकीकी तक की
यात्रा पूरी कर सकते हैं।
और उस परम हकीकत
परम सत्य से मिल सकते हैं
लगातार __22_
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 22
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य बीज है
अंकुर है शिव
सुंदर फूल हजारा
दया करो प्रभु
हो ना कलंकित
यह वरदान तुम्हारा
सत्य क्या है
शिव क्या है
सुंदर क्या है
जिसने सुबह का सूरज देखा है
उसके लिए सूरज का उगना ही सच है और
जिसने सांझ देखी है
उसका सत्य सूरज का डूबना है
यह दृश्यमान लोक का सत्य है
अदृश्य तत्व का सत्य इस सत्य से भिन्न है।
यदि हम किसी मंत्र को
लिखते हैं अथवा
किसी धार्मिक मान्यता के
चिन्ह को बनाते हैं
चाहे वह
ॐ卐☪☮️✝️☪️ हो
या किसी महापुरुष का चित्र
या हमारे आराध्य का चित्र
मन सद्भावना से भर जाता है
मन को शांति का अनुभव होता है
और यदि हम किसी
अश्लील चित्र को देखते हैं
अश्लील पिक्चर को देखते हैं
तो हमारे अंदर की शांति
समाप्त हो जाती है,
मन में उत्तेजना पैदा हो जाती है
हम जिसे भी मानते हैं
वह हमारे लिए महत्वपूर्ण होता है
तथा दूसरे के लिए गौण होता है
यानि महत्वहीन होता है
यदि हमारे आराध्य का चित्र/प्रतीक राह में पडा हो तो हम या तो उसे वहां से हटा देते हैं अथवा सावधानी से गुजर जाते हैं कि कहीं उस पर हमारा पैर नहीं पड जाये।
लेकिन अन्य जो कोई उसे अपना आराध्य नहीं मानता वह उस पर पैर रख कर आगे गुजर जाता है।
लेकिन जो सब में
अपने आराध्य,
अपने देव को
देखते हैं
वह फिर किसी का भी
निरादर नहीं करते
जो किसी का निरादर करता है
उसका मन विकारी है
विकार से ग्रसित है
हम किसी का भी
निरादर नहीं करें इसीलिए
उस शक्ति को कण कण में
व्याप्त माना गया है
यानि कि हमें
एक छोटी सी चींटी का भी
ध्यान रखना चाहिये कि
कहीं वह हमारे पैरों तले
दब कर कुचल नहीं जाये।
इसीलिए कहा है
सब में प्रभु का नूर समाया
कोई नहीं है जग में पराया
सभी में प्रभु का वास है
तो फिर जब प्रभु अपना है
तो सभी अपने हैं
फिर किसका निरादर
फिर किसका अपमान
लगातार _...23_.
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 23
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य बीज है
यानि की बीज नही तो
फिर अंकुर भी नहीं और
अंकुर नही तो सुदर फूल भी नहीं।
यानि कि एक तो दृश्यमान बीज है
दूसरा अदृश्य बीज है
अदृश्य बीज
एक हीरे की तरह है
जिसे तराशे बिना उसका
असली स्वरूप सामने नहीं आता
तो उस बीज पर
जो तामसिकता का आवरण है,
उसे हटाने पर ही
सात्विकता प्रकट होती है।
यानी कि जब अदृश्य बीज
सत्य (सात्विकता) से तराशा जाता है
तब शिव रूपी अंकुर प्रकट होता है
यानी कि सत्य (सात्विकता) में ही
शिव रूपी अंकुर
वह अदृश्य शक्ति प्रकट होती है
जैसे कि दृश्यमान बीज है
अब उसे बंजर भूमि में लगाएंगे
तो उसमें कभी
अंकुर नहीं फूट सकता है
और
यदि उसे उपजाऊ भूमि में उगाएंगे तो उसमें अंकुर फूट जाता है
तो बंजर भूमि तामसिकता का प्रतीक है और
उर्वरक भूमि सात्विकता का प्रतीक है
यानी कि हमारा
अंतकरण चतुष्टय
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बीज की तरह है
अब जब तक हमारा
अंत करण चतुष्टय
सत्य (सात्विकता) में समाहित
नहीं होता
तब तक उस शक्ति से दूर हैं
लगातार _24__
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 24
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
आत्मा परमात्मा दोनों ही सत्य हैं
शिव को तम का प्रतीक
माना गया है लेकिन
उसमें तामसिकता का
केवल एक ही लक्षण है
वह है मृत्यु
इसीलिये शिव को महाकाल
भी कहा जाता है
ऐसा काल जो किसी को
नहीं बख्शता,
चाहे भक्त हो या
उनका विरोधी
अंतर इंतना है कि
जो सत्य मे समाहित होता है
वह उस काल यानि मृत्यु का
हंसते हुए स्वागत करता है।
काल यानि मृत्यु भी आवश्यक है
यदि मृत्यु नहीं तो फिर
इस संसार में दुखों की
भरमार हो जाएगी
क्योंकि वृद्धावस्था
अत्यंत दुखदाई होती है
इसलिए मृत्यु भी आवश्यक है
मृत्यु के कारण ही शिव को
तम का प्रतीक बताया गया है
वह शिव जिनकी
वेद मंत्र में आराधना की है
ओ३म् नमः शम्भवाय च
मयोभवाय च
नमः शंकराय च
मयस्काराय च
नमःशिवाय च
शिवतराय च।।
यानि कि
हे सुखस्वरूप
आप सुख प्रदाता है
कल्याण कर्ता है
मोक्ष प्रदाता है।
धर्ममय कामों के कर्ता हे
अपने भक्तों को सुख देने वाले है
और उन्हें धर्म में समाहित
होने के लिए प्रेरित
करने वाले है,
अत्यन्त मंगलस्वरूप
धार्मिक पवित्र मनुष्यों को
मोक्ष सुख देने वाले है।
इसलिए हम बार बार
आपको नमस्कार करते है।
जिसके कारण भूमि में
सभी वनस्पतियां
फल फूल उपस्थित हैं
जिसके कारण हमारा जीवन
चलता है यानी कि खुला आकाश
ब्रह्मांड की रचना के कारण
हमें जिस तरह
सूर्य का प्रकाश मिलता है
उसी तरह हम सभी को
सांस लेने के लिए
खुला आकाश मिलता है
उस परम शक्ति को बारंबार प्रणाम करते हैं
लगातार----25----
सत्यम, शिवम, सुंदरम
भाग 25
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सूर्य के उदय होते ही
जीवन की शुरुआत होती है और
अस्त होते ही
दिनचर्या थमने लगती है
दिनचर्या ठहरने लगती है
उदित होता हुआ सूर्य
हमें संदेश देता है कि
उस सूर्य कोटि समप्रभ का
हमारे अंतर में दर्शन करें
सूर्य का अस्त होना
हमें यह याद दिलाता है कि
जैसे सूर्य अस्त हो रहा है
वैसे ही हमें भी
एक दिन अस्त होना होगा
आज का दिन पूरा हुआ
कल और अधिक ध्यान से
प्रयास करना होगा
हवा चलती है तो
मन प्रसन्न हो जाता है
लेकिन हवा रुक जाती है तो
मन अशांत हो जाता है
बेचैनी महसूस होने लगती है
वह हवा भी यही याद दिलाती है कि
हवा का चलना
जीवन का प्रतीक है और
हवा का रुकना
मृत्यु का प्रतीक है
जो हमें याद दिलाती है कि
शरीर में चल रहे प्राण वायु का आवागमन ना जाने
कब
कहां
किस घडी
किस समय
ठहर जाये और
प्राणांत हो जाये तथा
इस जीवन के सफर का
अकस्मात ही अंत हो जाये ।
लगातार-----26----
सत्यम, शिवम, सुंदरम
भाग 26
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य बीज है
जैसे कि बीज से ही
पेड़ पौधे प्रकट होते हैं और
फल-फूल लगते हैं
जैसा कि कहा है
बोया पेड बबूल का तो
आम कहां से होय
एक बीज दृश्यमान है
जिसका हमें पता है कि
यह किस का बीज है और
इस से क्या फल प्राप्त होगा तो
इसी तरह एक अदृश्य है
जो कि हमारी आत्मा है
और दूसरा अदृश्य है
परम बीज है, वह परमात्मा है
जो इस संपूर्ण प्रकृति की आत्मा है
हमारे शरीर नश्वर है
पंच तत्वों का मिश्रण है
पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं
हमारा शरीर भी
प्रकृति की ही तरह है
हम सबके समक्ष
दो रास्ते होते हैं
प्रेय मार्ग
यानि कि जब मन प्रकृति में
विद्यमान पदार्थों (सजीव/निर्जीव) की
कामना वासना में प्रवृत्त होता है।
दूसरा
श्रेय मार्ग
यानि कि मन एक उसी की
कामना में रत हो जाता है।
हमारा शरीर सत्कर्म ही करें
मन नश्वरता में नहीं
अनित्य में नहीं
अपितु नित्य में रत रहे
लगातार------27----
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 27
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
तामसिकता और
राजसिकता में
समाहित होना यानी कि
प्रेय मार्ग में प्रवृत्त होना है
यह वह पथ है
वह बंजर भूमि है
जिसमें कि अंकुर कभी
प्रस्फुटित नहीं हो सकता है
यह प्रेय मार्ग है,
50 वर्ष की आयु के बाद अथवा
सेवानिवृत्ति के बाद
सत्यम-शिवम-सुन्दरम का
सफर पूर्ण करना है तो
मन को सांसारिक पदार्थों की
आसक्ति से अलग करना ही होगा
यदि उस अदृश्य शक्ति का
साक्षात्कार करना है तो
सांसारिक पदार्थों
(सजीव/निर्जीव) से मन को
अनासक्त करना ही होगा
श्रेय मार्ग
यह मार्ग
वह खाद
वह जल है
वह उर्वरक भूमि है
जिसमें सत्य का बीज
प्रस्फुटित होता है
यानी कि सत्य (सात्विकता) में
ही वह अदृश्य शक्ति निहित है
चाहे कोई उसे कुछ भी नाम दें
इसलिए कहा है
सत्य ही बीज है
यानी कि जब मन सत्य में
समाहित होता है तब ही
परम सत्य प्रकट होता है
और अंतकरण चतुष्टय
सुंदरतम हो जाता है।
लगातार-----28---
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 28
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य बीज है
अंकुर है शिव
सुंदर फूल हजारा
दया करो प्रभु होना
कलंकित यह वरदान तुम्हारा
दो तरह के बीज हैं
यानी के
सत्य का बीज और
एक तमस का बीज
जैसे एक आम का बीज
एक बबूल का बीज
यदि आम का बीज बोते हैं यानि कि सत्य सात्विकता में समाहित होते हैं तो कल्याण होगां
लेकिन यदि बबूल का बीज बोते हैं तो कांटे ही कांटे प्राप्त होंगे।
यानि कि तामसिकता में जीते हैं तो जन्म-मरण के बंधन से छूटना असम्भव है।
यानी कि जैसे कि किसी भी
बीज को उगाते हैं
तो यदि वह उर्वरक भूमि में
बोया जाएगा तथा
उसे नियमित रूप से
पानी और सूर्य का प्रकाश
मिलेगा तो ही उसमें
अंकुर प्रस्फुटित होगा और
अंकुर फूटने के पश्चात ही
उससे सुंदर फूल की
प्राप्ति भी होगी
जिस को पाने के लिए
हमने फूल का बीज बोया था
यानि सत्य/शिव/सुंदर का
दर्शन करना है
तो सत्य (सात्विकता) रुपी
बीज का मन में प्रस्फुटित
होना अनिवार्य है।
लगातार-----29----
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 29
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य/शिव/सुंदर का
दर्शन करना है
तो सत्य (सात्विकता) रुपी
बीज का मन में प्रस्फुटित
होना अनिवार्य है
क्योंकि जैसे पत्थर से
पत्थर रगडने पर
अग्नि उत्पन्न होती हैं
उसी प्रकार मन और
सत्य के मिलन से ही
वह शिव रुपी अदृश्य शक्ति
अग्नि की चिंगारी की तरह
उत्पन्न होगी और
जैसे बीज में अंकुरण के
बाद ही फूल खिलता है।
उसी तरह मन के
सत्य (सात्विकता) में
समाहित होने पर ही
शिव रूपी अंकुर
प्रस्फुटित होता है और
फिर सुंदर फूल में
परिवर्तित हो जाता है
यानी कि
अनहद नाद
सूर्य कोटी समप्रभ का
साक्षात्कार उसके साथ ही
परमानंद की अनुभूति हो जाती है
यानी कि
मन का सत्य में समाहित होना
बीजारोपण है और
बीजारोपण का परिणाम
अंकुरण प्रक्रिया है
मन का सत्य मे समाहित होना
सत्य का बीजारोपण है
और इसका परिणाम
अंतर में अदृश्य शक्ति का
प्रकट होना है और
जैसे अंकुरण के बाद
फूल की खुशबू,
फूल की सुंदरता का
अनुभव होता है
उसी तरह अदृश्य शक्ति का
प्रकटीकरण ही
कोटि सूर्य के प्रकाश का
प्रकट होना है
अनहद नाद का
गुंजायमान होना है और
परमानंद/दिव्य सुख की
अनुभूति होना है
इसीलिए कहा है
सत्य (सात्विकता) ही बीज है
और सत्य (सात्विकता) में
समाहित हुए बिना
कुछ नहीं मिलता ।
लगातार ----30--
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 30
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य (सात्विकता) से ही
अदृश्य शक्ति का
प्रकटीकरण होता है और
वह अदृश्य शक्ति सात्विक मन में ही वास करती है और
हमारे अंतर में हमें
दर्शन देती है यानी
यह मनुष्य शरीर
उस परम सत्य का
एक बेशकीमती वरदान है
हे प्रभु यह हमारा शरीर
कभी कलंकित नहीं हो
कभी इससे कोई दुष्कर्म नहीं हो
क्योंकि दुष्कर्म
आपके अनमोल वरदान को
कलंकित करते हैं और
सत्य कर्म उसी तरह से हैं
जैसे कि फूल की खुशबू
चारों ओर बिखरती है,
फैलती है
तो उसी तरह जब आपका
यह वरदान रूपी शरीर
सत्य (सात्विकता) में
समाहित होता है तो
जेसे पारस के संपर्क में
आने पर लोहा स्वर्ण में
परिवर्तित हो जाता है,
उसी तरह शरीर की तथा
मन की कीर्ति
फूल की खुशबू की तरह
बिखरने लगती है
फैलने लगती है
है प्रभु आपका यह
शरीर रुपी वरदान
कीर्तिमय हो
कलंकित ना हो।
लगातार----31----
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 31
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सत्य ना जाना
शिव को ना माना
सुंदर ना पहचाना
उस परम तत्व की
अनुभूति करने के लिए
उसे जानने के लिए
सत्य (सात्विकता) का
ज्ञान अनिवार्य है
इस नश्वर संसार की
सत्यता समझने के लिए
अधिकतर लोग गुरु
ज्ञानी पुरुषों के पास जाते हैं
सत्य को समझने के लिए
एक कथा है -
एक व्यक्ति को राह में
चमकता हुआ बेशकीमती
लाल पत्थर मिला
उसने उसे अपने गधे के
गले में बांध दिया और
गधे को भी पेड़ के पास ही
बांधकर वहां पर
आराम करने लगा
इतने में एक जोहरी आया
उसने कहा कि 10 रुपये
मुझे बेच दो
उसने कहा कि 20 रूपये लूंगा
जोहरी ने सोचा कि
थोड़ी देर देखता हूं
इसका मन पलट जाए
तभी एक दूसरा जौहरी आया
उसने पूछा कितने में बेचोगे
उसने कहा बीस रुपये में
वह तुरंत तैयार हो गया
उसी समय एक साधु जो कि
वहां से गुजर रहा था
उसने वह लाल पत्थर
उसे बेचने से मना कर दिया
और कहा कि तुम
एक काम करो
पहले सब्जी मंडी में बेचने
जाओ, लेकिन बेचना नहीं
मैं यही तुम्हारा इंतजार
करता हूं आकर बताना
कोई भी 5 रूपये से ज्यादा
देने को तैयार नहीं हुआ
उसने साधु को आकर
सब कुछ बता दिया
साधु ने कहा अब
सर्राफा बाजार जाओ
लेकिन बेचना नहीं
सुनार उसके सौ रुपए
देने को तैयार हो गया
लेकिन उसने मना किया
तो सुनार धीरे-धीरे
एक लाख तक के लिए
राजी हो गए लेकिन
उसने बेचा नहीं
आ कर साधु को
सब कुछ बताया
साधु ने कहा कि
अब जोहरी बाजार जाओ
बैचना नहीं
कीमत करोड़ तक पहुंच गई
लेकिन वह वापस लौट आया
लेकिन साथ ही एक जोहरी भी
उसके पीछे पीछे आ गया और
मुंह मांगी कीमत देने को
तैयार हो गया
लगातार----32---
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 32
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
तब साधु के कारण उसे
अद्भुत
अविश्वसनीय
अकल्पनीय
कीमत उस हीरे की प्राप्त हुई।
तो जो एक सच्चा
वैरागी होता है जिसका मन
सत्य (सात्विकता) में
समाहित हो चुका है
वह निष्काम होता है
विकारों से परे होता है
और वह निस्वार्थ भाव से
ज्ञान का वितरण करता है कि
लोग इस सत्यता को
समझ जाएं कि
उस दिव्य सुख की
तुलना में सांसारिक सुख
धूल के समान हैं
यानी कि वह
परमानंद/ब्रह्मानंद
इस संसार में विद्यामान
समस्त पदार्थों (सजीव/निर्जीव)
से अनंत गुना बहुमूल्य है
अनमोल है
अद्भुत है
अविश्वसनीय है
अकल्पनीय हैं
उसकी कोई कीमत नहीं
लगाई जा सकती है
उसकी कीमत तो केवल
निष्काम भाव से
सत्य (सात्विकता) में
समाहित होना ही है।
निष्काम साधु/गुरु/ज्ञानी
उस परम शक्ति की सत्यता
बिना किसी लालच, लोभ,
कामना के लोगों को बताते हैं
लगातार----33---
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 33
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
इस संसार के लोगों में से
कुछ को तो इस सत्यता का
ज्ञान ही नहीं है
कुछ को ज्ञान है
तो विश्वास नहीं है
कुछ को विश्वास है
लेकिन माया से ग्रसित
होने के कारण इस राह पर
चलना ही नहीं चाहते
कुछ कभी परम सत्य में
अपने मन को रत करते हैं तो
कभी फिर माया के आकर्षण में फंस जाते हैं
तो जिसने
सत्य (सात्विकता) को जाना है और
उस सत्य (सात्विकता) की राह पर
चल रहा है, उसने ही
उस अदृश्य शक्ति को माना है
चाहे हम उसे शिव का नाम दे
अथवा किसी का भी नाम दे
यानी कि जिसका मन
असत्य (तामसिकता) में रत है
वह सत्य (सात्विकता) से दूर है
उसने सत्य (सात्विकता) को
नहीं जाना और जिसने
सत्य (सात्विकता) को नहीं जाना
वह मन्मुख है और वह
किसी को नहीं मानता है केवल
अपने मन की ही सुनता है
अपने मन की ही करता है
ऐसे मन्मुख व्यक्ति मनुष्य
सत्य (सात्विकता) को
नहीं जान पाते और
जो सत्य (सात्विकता) को
नहीं जानना चाहता
वह परम सत्य को भी
नहीं मानता और
जो परम सत्य को
जानने और मानने से विरत है
वह शाश्वत सुंदरता को भी
नहीं जान सकता
इस प्रसंग में एक कथा है -
लगातार-----34----
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 34
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
इस प्रसंग में एक कथा है
राबिया से मिलने
उनके घर हसन पहुंचे
भोर का समय था
दृश्य अति मनोहर था
हसन बाहर से ही चिल्लाया
राबिया बाहर आओ
देखो कितना मनोहर दृश्य है
राबिया जो कि ध्यान में बैठी थी
उसका ध्यान भंग हुआ
उसने कहा कि
हसन बाहर क्या देख रहे हो
अंदर चित्रकार को देखो
जिसने यह चित्रकारी की है
उसके जलवे
उसका नूर
उसका प्रकाश देखो और
उसमें खो जाओ।
सत्य ही शिव तक पहुंचता है
और शिव यानी के
अदृश्य शक्ति तक पहुंचने पर ही
शाश्वत सुंदरता की अनुभूति होती है
जो सत्य को जानता है
वही अदृश्य शक्ति को मानता है और
सत्य से शिव तक पहुंचने की
यात्रा पूर्ण होने पर अंतर में
अतुल्य सुंदरता का दर्शन कर
आत्मा, मन, अंत करण चतुष्टय,
वाणी सब सुंदरतम हो जाता है।
सुंदरता भी दो तरह की होती है
मन की सुंदरता
तन की सुंदरता
लगातार-----35----
सत्यम,शिवम, सुंदरम
भाग 35
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
सुंदरता भी दो तरह की होती है
मन की सुंदरता
तन की सुंदरता
तन की सुंदरता के साथ
यदि मन की सुंदरता
यानी सत्य का संयोग
नहीं होता है
गुणों का संयोग नहीं होता है
तो वह सुंदरता कभी सुंदरतम
नहीं हो सकती लेकिन
जहां मन की सुंदरता होती है
यानी कि
सत्य का संयोग होता है
गुणों का संयोग होता है
वहां चाहे तन की सुंदरता
हो या नहीं लेकिन
ऐसे मन वालों के मन की
सुंदरता की झलक
आचरण में स्पष्ट झलकती है ।
मन की सुंदरता ही
सर्वोपरि है इसीलिए कहा है
सत्य ना जाना
सुंदर ना पहचाना
और फिर कहा है
सत्य ना जाना
शिव को ना माना
सुंदर ना पहचाना
दया करो प्रभु
सीखे हम सब
मन का दीप जलाना
फिल्म सौदागर में भी
यही दिखाया गया था
सुंदर को पाने के लिए
सौदा किया
साधारण गुणवान स्त्री से
शादी की
उसके गुण, उसकी मेहनत से
पैसा कमाया और फिर
उस साधारण गुणवान स्त्री को
छोड़कर उस कमाए हुए पैसे से
रूपवती स्त्री से विवाह किया
रूपवती के पास
केवल रूप था
गुण नहीं और
इसलिए रूपवती ने उसका
धंधा चैपट कर दिया
सत्य यानी
सात्विकता को जाने बिना
सात्विक बने बिना
सत्य में समाहित हुए बिना
अदृश्य शिव का दर्शन
नहीं हो सकता और
उसका दर्शन ही सबसे
सुंदरतम है
उसके दर्शन के बाद ही
सत्य सुंदरता का दर्शन होता है
लगातार------36----
सत्यम
शिवम
सुंदरम
भाग 36
जो गुरु उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें
इस भजन का अंत होता है
दया करो प्रभू
सीखें हम सब
मन का दीप जलाना
मन का दीप
यानि कि मन का दीप बुझा हुआ है
तामसिकता के कारण
तामसिकता प्रतीक है
अंधकार का
अज्ञान का
असत्य का
हिंसा का
चोरी का
पर स्त्री पुरुष की ओर आकर्षण का
परिग्रह का
अशुद्धता का
असंतोष का
कर्तव्य पलायन का।
स्वयं के दोषों को अनदेखा करने का।
मन वचन काया से दुष्कर्म करने का।
क्रोध का
लोभ का
नश्वर पदार्थों शक्लो से मोह का ।
सत्ता शक्ति संपत्ति सम्मान के अहंकार का।
जहां यह सब होते हैं मन का दीपक बुझा हुआ रहता है
तामसिकता के कारण ही अंतर में अंधकार छाया हुआ है
कोई वैज्ञानिक नियम के अनुसार
कुछ प्रकाश अथवा उदित होते हुए
सूर्य का प्रकाश अवश्य देख सकता है
लेकिन कोटि सूर्य का प्रकाश तो
केवल तब ही उदित होता है
जब मन का दीप जल जाता है
यानि कि मन से तामसिकता
विषय
(रूप रस गंध शब्द स्पर्श)
विकार
(काम क्रोध लोभ मद मोह राग द्वेष)
पाप
(दुष्कर्म दुराचार घृणा शत्रुता क्रूरता)
निर्वासित हो जाता है
और मन सत्य (सात्विकता) रूपी प्रकाश के संयोग से प्रज्जवलित हो जाता है।
यानी कि
अंधकार का प्रकाश में रूपांतरण।
अज्ञान का ज्ञान में रूपांतरण।
असत्य का सत्य में रूपांतरण।
हिंसा का अहिंसा में रूपांतरण।
चोरी का अचौर्य में रूपांतरण।
पर स्त्री पुरुष की ओर आकर्षण से मन हटाना और प्रभु में लगाना।
परिग्रह का अपरिग्रह में रूपांतरण।
अशुद्धता का शुद्धता में रूपांतरण।
असंतोष का संतोष में रूपांतरण।
कर्तव्य पलायन का तप में रूपांतरण।
स्वयं के दोषों को देख कर उनको सुधार करने का सच्चे मन से प्रयास कर स्वयं के दोषों को खत्म करना ।
मन वचन काया से दुष्कर्म त्याग कर सत्कर्म ही करना ।
क्रोध का क्षमा में रूपांतरण
घृणा का विशुद्ध प्रेम में रूपांतरण।
लोभ का त्याग में रूपांतरण।
नश्वर पदार्थों शक्लों से मोह त्याग कर अदृश्य चेतन तत्व से मोह करना।
सत्ता शक्ति संपत्ति सम्मान के अहंकार को त्याग कर नम्रता में रूपांतरण।
जब यह रूपांतरण होता है
तब ही अंतर का दीप जलता है
इसीलिए धर्म पथ को शास्त्रों में
तलवार की धार पर चलने के समान बताया है
मन का दीप जलना
यानि कि तमस का आवरण मन से हटना
सात्विकता के कारण
अदृश्य शक्ति का प्रकट होना और
अदृश्य शक्ति के प्रकटीकरण से
मन,
वाणी,
कर्म
आदि सब का
सुंदरतम हो जाना।
और जिसके कारण उस परमानंद की प्राप्ति होती है और
जीवन मुक्त की अवस्था आ जाती है। और अंततः
हंसते हुए शरीर का त्याग करते हुए समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता हैं
जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है ।
सबका भला हो।
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