ज्ञान युक्त सत्कर्म का महत्व

परम सत्‍य तो यही है कि ज्ञान और उसके अनुरूप कर्म किये‍ बिना कुछ भी प्राप्‍त नहीं किया जा सकता है।


इस भजन में बताया गया है कि वह अदृश्‍य शक्ति किस के साथ है। 

केवल मंदिर, मठ में जाने से काम नहीं चलेगा कर्म भी महत्‍वपूर्ण है। 


कर्म ही वह चाबी है जिसके आधार पर हर ताले को खोला जा सकता है, 


जो अकर्मण्‍य है उसे कुछ नहीं मिलता।

कर्म से ही सब कुछ मिलता है। 


कर्म ही पूजा है, 

कर्म ही भाग्‍य विधाता है, 

कर्म ही तारणहार है।


जहां पर 

जिसके मन में 


हिंसा, 

कामना, 

लालच, 

दुर्गुण 

(पाप/दूषित विचार),


 माया

(अविद्या/अज्ञान), ममता 

(आसक्ति/मोह/राग) र्ईर्ष्‍या (द्वेष), निन्‍दा


आदि नहीं है, 

उसी को उस अदृश्‍य शक्ति का सानिध्‍य प्राप्‍त होता है, और

ऐसा व्‍यक्ति ही उस अदृश्‍य मुक्ति लोक का अधिकारी होता है और 


ऐसे योगियों के‍ दिव्‍य चक्षु खुल जाते हैं 

वे अपने‍ दिव्‍य नेत्रों से ध्‍यान के माध्‍यम से सभी लोको को देखने में सक्षम होते हैं, 

यहां तक कि वहां पर

विद्यमान महापुरूषों को भी देख सकते हैं, लेकिन ऐसे महान योगियों की संख्‍या अल्‍पतम है।


जो अपने तन से हिंसा नहीं करते और मन में भी हिंसक विचार नहीं आने देते,


जो निष्‍कामी है 


जहां निष्‍कामता है वहां पर केवल और केवल सदगुण ही सदगुण है, 


ना किसी तरह का लोभ ना लालच,


लेकिन जो ज्ञानी है वही निष्‍कामी हो सकता है 


अन्‍य नहीं और निष्‍कामी व्‍यक्ति सभी विकारों 

काम,

क्रोध,

लोभ,

मद, 

मोह, 

राग, 

द्वेष, 

ईर्ष्‍या 

आदि से दूर रहता है,


उसकी किसी से

आसक्ति नहीं रहती ।


निन्‍दा के संबंध में यह परम सत्‍य है कि अधिकतर

सभी महापुरूषों ने यह उपदेश दिया है कि व्‍यर्थ के कर्मकांडों को करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। 


यानि के यदि कोई किसी को अपने स्‍वार्थ के लिये लूटना चाह रहा हो या बेवकूफ बना कर अपना उल्‍लू सीधा करना चाह रहा

हो 


तो ऐसे लोगों से सावधान करना निन्‍दा में नहीं आता है, 


हमें असत्‍य निन्‍दा नहीं करनी चाहिये, लेकिन यदि कोई सत्‍य निन्‍दा करता है, तो वह एक सत्‍कर्म ही है, 


जैसा कि कहा है  

निन्दक नियरे राखिये, 

आंगन कुटी छवाय, 

बिन पानी-साबुन बिना, 

निर्मल करे सुभाय ।


यदि कोई सत्‍य निन्‍दा

करता है 

तो वह हमारे दोषों को उजागर करता है और 

हमें अपनी गलतियों को सुधारने का मौका मिलता है, 

सत्य निन्दा से 

हमारा अहंकार दूर होगा, 

असत्‍य बोलने वाले

चापलूसों से सत्‍य बोलने वाला निन्‍दक कहीं बेहतर होता है। 


एक कथा है कि आदमी गढढे में गिरा हुआ था

 लोग उसे बाहर निकालने में लगे हुए थे, 

कह रहे थे कि अपना हाथ दो हम तुम्‍हें उपर खींच लेंगे। 


लेकिन वह व्‍यक्ति था कि हाथ देने को तैयार नहीं था। 

तभी एक संत वहां से गुजरे उन्‍होंने सारा माजरा समझा और 

कहा कि यह हाथ नहीं देगा इससे कहो कि 

हाथ ले लो तब यह हाथ पकड लेगा।


लोगों ने ऐसा ही किया और उसे बाहर निकाल लिया।


सभी ने संत से इसका राज जानना चाहा तो 

संत ने कहा कि जिसने जीवन भर ‍लिया ही लिया हो

 वह आपात स्थिति में भी कैसे कुछ दे सकता है, 

इसलिये उसने हाथ नहीं दिया, 

लेकिन जैसे ही उसे हाथ लेने को कहा गया 

उसने तुरन्‍त हाथ ले लिया, 

यानि कि उसका संस्‍कार केवल और केवल पाने का था देने  का नहीं और 

ऐसे संस्‍कार वाले ही बार-बार इस दुनिया में आते हैं, और ऐसे

लालची लोगों का जन्‍म दरिद्रता में होता है।


इसके विपरीत जिनके मन मे 

दया, 

दान, 

दमन (विषय-विकार पाप का)

के भाव हैं, निष्‍कामता के भाव हैं, 

वे जन्‍म –मरण के चक्र से छूट जाते हैं यदि कोई कमी रहती भी है तो

अगला जन्‍म एैश्‍वर्यपूर्ण/सुख्‍मय होता है। 


दान की जब बात आती है तो

कर्ण से बडा दानी कोई इस संसार मे नहीं 

उन्‍होंने अपना जीवन रक्षक कवच तक दान में दे दिया था।

यही नहीं अंतिम समय में भी श्रीकृष्‍ण्‍ द्वारा वेश बदल कर दान मांगने पर 

उन्‍होंने पत्‍थ्‍र से अपना सोने का दांत तोडकर दान में दिया।


दया का भाव ईसामसीह ने अपने हत्‍यारों को माफ कर दिया था, 

उनकी शिक्षा है कि कोई तुम से थोडी सी मदद मांगे तो यदि सक्षम हों तो 

बढचढकर मदद करने का प्रयास करें। 

कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा भी आगे करना। 

जो तुम्‍हारा अहित करे उसका भी हित करने का प्रयास करना 


यही भाव कबीर जी के भी है 

जो तोको कांटे वोये 

वाही बोय तू फूल 

तोको फूल को फूल है 

वाको है त्रिशूल। 


इसी तरह से दयानन्‍द जी को जिसने दूध में कांच मिश्रित जहर दिया 

उसे भी दयानन्‍दजी ने क्षमा कर दिया और 

उसके प्राणों की रक्षा के लिये कुछ धन देकर कहीं अन्‍यत्र जाने के लिये कहा।


रामतीर्थ जी संत जैसा जीवन जी रहे थे, 


कामना/

वासना/

इन्द्रियों के दमन

में अभ्‍यास रत थे। 

बाजार से गूजरे नींबू दिखाई दिये

 मन ने कहा देखने में क्‍या हर्ज है, देखने लगे 

फिर मन ने कहा खरीद ले, खरीदने में क्‍या हर्ज है, 

खरीद लिये घर पहुंचे

 मन ने कहा अब खरीद ही लियें हैं तो थोडा सा रस चखने में क्‍या हानि।

नींबू काटा और मूंह तक गया

 फिर अपना लक्ष्‍य याद आया 

उसे तुरन्‍त खिडकी से बाहर फेंक दिया। 


ऐसे अभ्‍यासी ही

निष्‍कामी बन कर अंत में मुक्तिस्‍थल के अधिकारी होते हैं।


इय भ्‍मजन से सिद्ध होता है कि 

जहां केवल और केवल

सच्‍चाई/अच्‍छाई/सदगुण/निष्‍कामता  है तथा

दुर्गणों/असत्‍यता/बुराई/कामना/वासना का लेश मात्र भी नहीं है,

 उसी को उस अदृश्‍य शक्ति का सानिध्‍य मिलता है, 

जिस अदृश्‍य शक्ति के कारण 

अगुलिमाल

भ्‍गवान बुद्ध को और 

शूलपाणि

 महावीर स्‍वामी को मारना तो क्‍या

 स्‍पर्श भी नहीं कर पाये। 

और अंतत ऐसे पुरूष मानव से महामानव बनकर अंतत:

जन्‍म-मरण के चक्र से छूटकर ब्रहमलोक के अधिकारी बनते हैं।


सबका भला हो


मुझको प्रभू तू इतना बता दे 

मेरे हृदय के भीतर तू है कि नहीं 

तुझको जहां में ढूंढता फिरा मैं, 

मठ और मंदिरों में तू है कि नहीं। 

पर तूने ही बताया

तेरा पता 

जहां हिंसा नहीं, 

जहां इच्‍छा नहीं 

मैं हूं बस वहीं। 


ना ही सोचा

ना ही समझा 

पाने जैसा क्‍या यहां,

ना ही खोजा 

दुख रहित वो ठिकाना है कहां

धन की खातिर 

खुद को बेचा 

दुर्गणों को ही भरा, तुझको पाने का यह नाटक 

करता भव भव में फिरा 

पर तू ने ही बताया तेरा पता 


जहां माया नहीं 

जहां ममता नहीं 

मैं हूं बस वहीं 

इस जीवन में 

जो खुशी है 

उसकी तू ही है वजह तू जो मुझ पे खुश हुआ तो 

देता तेरी ही जगह, सोच मेरी है अधूरी पर तम्‍न्‍ना यह रहे खोज तेरी अब हो पूरी हीर इतना ही चाहे 

पर तूने ही बताया तेरा पता

जहां ईर्ष्‍या नहीं, 

जहां निन्‍दा नहीं 

मैं हूं बस वहीं।

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