श्री कृष्ण का अर्जुन को दिया गया महत्वपूर्ण उपदेश

 श्रीकृष्‍ण उपदेश

 

श्री कृष्‍ण –

है अर्जुन, मनुष्‍य को मय/अहंकार के घमंड की

मदिरा पिला कर मदहोश करने वालापाखंडी

केवल मन है,

 

पार्थ प्राणी के शरीर का

एक्‍ अदृश्‍य अंग है मन

जो किसी को दिखायी नहींदेता। परन्‍तु

वही सबसे शक्तिशाली हिस्‍सा है शरीर का।

 

मन से बडा बहरूपी ना कोई

पल पल रचता संवाग निराले,

माया ममता में उलझारहे वो

पड जाये जो मन के पाले

मन के बहकावे में ना आ

मन राह भुलाये, भ्रम में डाले ।

तू इस मन का दास ना बन

इस मन को अपना दास बना ले।

 

श्रीकृष्‍ण-

मन के हाथों में मोह माया का जाल है,

जिसे वो मनुष्‍य की कामनाओं पर

डालतारहता है और

मन को अपने वश में करता रहता है।

 

यह मन शरीर से भी मोह करता है,

अपनी खुशियों से भी मोह करता है और

अपने दुखों से भी मोह करताहै

 

मन ही खुशियों में

खुशीयोंसे भरे गीत गाता है

तो मन ही दुख में

दुख भरे गीत गुनगुनाता है।

अपने दुख मेंदूसरों को शामिल करके

इस मन को खुशी होती है।

 

किसी भी प्राणी को उसका मन

जीवनके अंत तक अपने जाल से

निकलने नहीं देता है।

रस्‍सी में बांध कर उसे तरह-तरह के

नाच नचवाता रहता है।

 

वो जीव को इतनी फुरसत भी

नहीं देता कि

जीव अपने अंतर में झांक कर

जीव अपनी आत्‍मा को पहचान सके और

आत्‍मा के अंदर जिसपरमात्‍मा का प्रकाश है

उस परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर सके।

 

धृतराष्‍ट्र -

है संजय अपने परमात्‍मा की प्राप्ति की इच्‍छा

प्रत्‍येक मनुष्‍य को होती है।

मेरे मन में भी यह इच्‍छा है परन्‍तु

परमात्‍मा का साक्षात्‍कार

मुझे आज तक नहीं हुआ।

 

संजय –

कैसे होगा महाराज?

 

धृतराष्‍ट्र -

क्‍यों? मैं अंधा हूं इसलिये?

 

संजय –

नहीं महाराज,

अपने प्रभू के दर्शन के लिये

तन की नहीं मन की आंखों की

आवश्‍यकता होती है, परन्‍तु

आपने तो अपने अंतर्चक्षु

बंद कर रखे हैं फिरआपको

प्रभू का साक्षात्‍कार कैसे हो सकता है?

और मन की आंखें खुली ना हो तो

प्रभू आंखों के सामने भी हो तो

भी दिखाई नहीं देते है।

 

पार्वतीजी -

प्रभू यह संजय कैसी उलझी उलझी बाते कर रहा है, जो मन में है उसे स्‍पष्‍टरूप से क्‍यों नहीं कहता।

 

शिवजी

देवी संजय ईश्‍वर में आस्‍था रखता है

वो भगवान श्री कृष्‍ण का भक्‍त है

और दूसरी ओर वह

महाराज धृतराष्‍ट्र का सेवक भी है।

इसलिये उसे अपनी भक्तिऔर

अपना सेवा धर्म दोनों ही

निभाना पड रहा है। ना तो वह

भगवान श्रीकृष्‍ण के प्रभूत्‍व के विरूद्ध

कुछ कह सकता है और ना ही वह अपने

स्‍वामी महाराज धृतराष्‍ट्र की इच्‍छा के विरूद्ध कुछ कह सकता है

इसलिये वो कुछ खुल कर कहना नहीं चहता।

इस दुविधा के होते हुए भी

संजय ने बडी चतुराई से सच बात

कह दी कि भगवान के दर्शन के लिये

तन से कहीं अधिक मन की आंखों की

आवश्‍यकता होती है और

महाराज धृतराष्‍ट्र तो तन और मन

दोनों आंखों सेअंधे हैं।

 

धृतराष्‍ट्र -

संजय तुम्‍हारी बातें भी श्रीकृष्‍ण की

बातों की तरह गोल मोल है,

मेरी समझमें नहीं आती।

तुम मुझे यह बताओ, कि

इस समय कुरूक्षेत्र में क्‍या हो रहाहै?

श्रीकृष्‍ण –

है पार्थ प्राणी के लिये आवश्‍यक है कि

प्राणी अपने मन को काबू में करके

अपने अंतर में झांककर

आत्‍मा को देखे, तब

उस आत्‍मा के अंदर

उसे परमात्‍मा का प्रकाश

स्‍पष्‍ट दिखाई देगा।

उसी को परमात्‍मा का

साक्षात्‍कार कहतेहैं।

 

अर्जुन -

तुम तो कहते हो कि

अपने अंतर में झांककर

आत्‍मा को और उस आत्‍मा में

प्रकाशित परमात्‍मा को पहचानो।

अर्थात़

आत्‍मा से अलग कोई और है

जो आत्‍मा को पहचानेगा।

यह किसको कह रहे हो कि

आत्‍मा को पहचानो। कौन पहचानेगा अंतर की आत्‍मा को?

 

श्रीकृष्‍ण -

तुम्‍हारा मन

 

अर्जुन

मन

 

श्रीकृष्‍ण -

हां तुम्‍हारा मन

 

अर्जुन -

परन्‍तु तुम तो कहते हो कि

मन माया के भ्रम जाल में फंसाकर

प्राणी कोबहुत नाच नचाता है।

फिर वो आत्‍मा को परमात्‍मा की ओर

क्‍यों ले जायेगा?

 

श्रीकृष्‍ण -

तुमने ठीक प्रश्‍न किया अर्जुन

उसका उत्‍तर यह है कि

जब तक तुम अपने आपको

मन और विषयों के अधीन

रहने दोगे तब तक

वो तुम्‍हें नाच नचाता रहेगा ।

 

मनुष्‍य का शरीर

एक रथ की भांति है।

इस रथ के जो घोड़े हैं उन्‍हें

मनुष्‍य की इन्द्रियां समझो, जैसे

आंख, नाक, कान, मुख्‍,

जिव्‍हा आदि इन इन्द्रियों को

जो घोडों का सारथी चलता है

वह सारथी ही मन है।

इन इन्द्रिय रूपी घोडों को

जो किसी दिशा में चलाता है,

उसे सारथी ही मानो और

उस रथ में बैठा हुआ

जो रथ का स्‍वामी है

वही आत्‍मा है।

 

मनुष्‍य की इन्द्रियां

अपने विषयों की ओर

आकर्षित होती रहती है।

और उसका मन इन्द्रियों को

विषयों की ओर ही

दौड़ाता रहता है।

यह तभी तक हो सकता है

जब तक जीवात्‍मा अपने मन को

अपने काबू में ना लायें।

जब तक मन काबू में नहीं आयेगा वह इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर ही दौड़ाता रहेगा।

विषय उनको बुलाते हैं

इन्द्रियां उनकी तरफ भागती है।

और मन जीवात्‍मा की परवाह

किये बगैर रथ को उस ओर

लिये जाता है। परन्‍तु

जब तुम स्‍वयं मन के आधीन

नहीं रहते हुए

उसेअपने आधीन कर लोगे

तब वही मन

एक अच्‍छे सारथी की तरह

तुम्‍हें सीधे प्रभू के चरणों में ले जायेगा।

 

मन है शरीर के रथ का सारथी

रथ को चाहे जिधर ले जाये

इन्द्रियां हैं इस रथ के घोड़े

इन्द्रियों को विषयों की ओर दौड़ाये।

आत्‍मा और शरीर के मध्‍य

यह मन अपने खेल दिखाये।

मन को वश में कर ले जो योगी

वो इस रथ से मोक्ष को जाये

मन को वश में कर ले जो प्राणी

वो इस रथ से अनन्‍त को जाये।

श्रीकृष्‍ण -

इसीलिये मैंने कहा था –

मनो मनुष्‍यानाम कारण बंधना

अर्थात

यदि मन तुम्‍हारा स्‍वामी है

तो वह तुम्‍हें माया के बंधन में

जकडता रहेगा। और

जब तुम मन पर काबू पा लोगे

और उसके स्‍वामी हो जाओगे

वही मन तुम्‍हें

मोक्ष के द्वार तक ले जायेगा।

 

अर्जुन -

है मधुसूदन यह कहना तो

बहुत आसान है कि

तुम मन के स्‍वामी बन जाओ

मन पर काबू पा लो। परन्‍तु

यही तो सबसे दुश्‍कर कार्य है।

है केशव

मन तो वायु की तरह चंचल है

जिस प्रकार बहती हवा पर

काबू पाना असम्‍भव है, 

उसी प्रकार

इस मन को काबू करना

अति दुश्‍कर कार्य है।

 

श्रीकृष्‍ण -

है अर्जुन

तुम्‍हारा यह कहना सत्‍य है कि

मन अति चंचल है

उसे वश में करनाबहुत मुश्किल है।

 

अर्जुन -

मुश्किल ही नहीं जर्नादन 

असम्‍भव है।

 

श्रीकृष्‍ण -

नहीं अर्जुन,

मुश्किल अवश्‍य है

परन्‍तु असम्‍भव नहीं है।

 

अर्जुन -

तुम्‍हारे कहना है कि

मन को वश में करने का

कोई तरीका,

कोई साधन भी है।

 

श्रीकृष्‍ण –

अवश्‍य है।

 

अर्जुन  -  क्‍या है वो तरीका?

श्रीकृष्‍ण -

असंशयं महाबाहो

मनोनिग्रहंचलं,

अभ्‍यासंतुकौन्‍तय

वैराग्‍येण च विग्रहत:

अर्थात़

मन को वश में करने के लिये

उस पर दो तलवार से हमला

करना होता है,

एक तलवार अभ्‍यास की है और

दूसरी तलवार है वैराग्‍य की।

 

अर्जुन  -

अभ्‍यास और वैराग्‍य।

 

श्रीकृष्‍ण -

हां, अभ्‍यास और वैराग्‍य

देखो अर्जुन

अभ्‍यास का अर्थ है

निरन्‍तर अभ्‍यास और मन को

एक काम पर लगा दो

वह भागेगा,

उसे फिर पकड कर लाओ

वह फिर भागेगा,

उसे फिर पकड़ो

ऐसा बार बार करना पड़ेगा।

 

जैसे घोड़े का नवजात शिशु

एक क्षण के लिये भी

स्थिर नहीं रहता।

क्षण क्षण में ईधर उधर

फुदकता रहता है।

उसी प्रकार मन भी

क्षण क्षण में ईधर उधर

फुदकता रहता है।

 

घोड की तरह मन भी

बहुत चंचल होता है और

ऐसे चंचल मन को काबू करना

उतना ही कठिन है जैसे किसी

मुहजोर घोडे को काबू करना।

ऐसे घोड को काबू करने के लिये

सवार जितना जोर लगता है।

घोडा उतना ही

विरोध करता है और बार बार

सवार को ही गिरा देता है।

परन्‍तु यदि सवार

दृढ संकल्‍प हो

तो अंत में सवार

उस सरकश घोडे पर

सवार हो ही जाता है।

फिर वही घोडा सवार के

ईशारे पर चलता है।

उसी प्रकार मन को भी

नियंत्रण की रस्‍सी में बांधकर

बार बार अपने रास्‍ते पर

लाया जाता है तो अंत में

वह अपने स्‍वामी का कहना

मानने लगता है।

इसी को कहते हैं

अभ्‍यास की तलवार चलाना।

 

अर्जुन  -

जब अभ्‍यास की तलवार से ही

मन ठीक रास्‍ते पर आ जाये

तो फिर वोदूसरी वैराग्‍य की तलवार की

क्‍या आवश्‍यकता है।

 

श्रीकृष्‍ण -

उसकी आवश्‍यकता इसलिये है कि

एक बार ठीक रास्‍ते पर

आ जाने के बाद

मन फिरसे उल्‍टे रास्‍ते पर

ना चला जाये क्‍योंकि

उल्‍टे रास्‍ते पर

इन्द्रियों के विषय उसे

सदा ही आकर्षित करते रहेंगे।

मिथ्‍या भोग विलास और

काम की तृष्‍णा

उसे फिर अपनी ओर

खींच सकती है।

इसलिये मन को

यह समझना जरूरी है कि

वो सारे विषय भोग

मिथ्‍या हैं,

असारहैं,

योग माया के द्वारा उत्‍पन्‍न

होने वाले मोह का भ्रम है।

मन जब इस सत्‍य को

समझ लेगा तो फिर उसे

विषयों का मोह नहीं रहेगा

बल्कि उससे वैराग्‍य हो जायेगा

और यही वैराग्‍य की तलवार है कि

वो विषयों के मोह को काटकर

मन को संयासी बना देती है।

 

मोह से विमोहित हो

जब बुद्धि तेरी

मोहरूपी दलदल को

पार कर जायेगी।

लोक परलोक से संबंधित

भोगों के प्रति

तब तेरे मन में

विरक्ति भर जायेगी।

वासना की वास ना रहेगी

तेरे पास तनिक

मनस्थित हो जायेगा,

कामना मर जायेगी।

रे अर्जुन मन के स्थिर होने पर

यह आत्‍मा परमात्‍मा रूपी

सागर में उतर जायेगी।


अर्जुन -

है केशव, यह जो तुम

वैराग्‍य की बात करते हो।

यह तो तभी आ सकता है

जब प्राणी को

आपकी इस बात पर

विश्‍वास आ जाये कि

यह सारा जगत वास्‍तव में

मिथ्‍या है, नश्‍वर है, परन्‍तु

आपकी माया के प्रभाव से

वह सत्‍य जान पडता है

इस परम सत्‍य के ज्ञान पर‍

विश्‍वास हो जाये

तभी तो वैराग्‍य होगा

 

श्री कृष्‍ण -

बिल्‍कुल

ज्ञान ही मनुष्‍य के ह़दय में

वैराग्‍य पैदा कर सकता है,

लेकिन वह ज्ञान

मैं तुम्‍हें प्रदान कर रहा हूं

 

अर्जुन -

तुम तो प्रदान कर रहे हो

लेकिन मेरा मन उसको

ग्रहण क्‍यों नहीं कर रहा।

 

श्रीकृष्‍ण -

क्‍योंकि अभी तक

मोह और भ्रम के अंधकार से

नहीं निकले इसलिये तुम

उस ज्ञान को ग्रहण करने में

असमर्थ हो।  इसीलिये

मैं तुम्‍हें समझा रहा हूं कि

केवल शरीर मरते हैं

आत्‍मा नहीं मरती, इसीलिये

तुम शरीर का मोह त्‍याग दो

उनकी मृत्‍यु का मोह त्‍याग दो।

परन्‍तु तुम्‍हारा मन उस

सत्‍य को मानना नहीं चाहता।

 

अर्जुन –

तुम ठीक कहते हो केशव

मैं तुम्‍हारी बात

समझता तो हूं, परन्‍तु मेरा मन

उसे ग्रहण क्‍यों नहीं कर रहा।

इसका कारण क्‍या है

 

श्रीकृष्‍ण -

इस का कारण है वो जंजीर

जो तुम्‍हारे मन ने

अपने ही गिर्द लिपटा रखी है।

 

अर्जुन –

कौनसी जंजीर

 

श्रीकृष्‍ण –

रिश्‍तेदारी की जंजीर

यह नातेदारी का मोह की

यह मेरा भाई है

यहमेरा मामा है

यह मेरा श्‍वसुर है

यह पितामाह है।

सुप्रभात

 

अर्जुन –

तुम ठीक कहते हो कि

रिश्‍ते नाते की जंजीरों ने

मुझे चारों ओर से

जकड़ रखा है परन्‍तु

मैं इस जंजीर को

कैसे तोड़ दूं।

मैंने मान लिया कि

यह सारे शरीर नाश्‍वान हैं, परंतु

इनके साथ जो मेरे रिश्‍ते हैं

वो तो नाश्‍वान नहीं है।

वो तो सच्‍चे हैं

भीष्‍म्‍ मेरे पितामाह हैं

अभिमन्‍यु मेरा पुत्र है

महाबलि भीम मेरा सहोदर है

यह रिश्‍ते तो सच्‍चे हैं, भले ही

इनके शरीर मर जायेंगे परन्‍तु

इनके साथ मेरे जो रिश्‍ते हैं ।

वो तो नहीं मरेंगे। 

जैसे आज मेरे पिता

महाराज पाण्‍डु का

शरीर नहीं है, परन्‍तु

वे मेरे पिता आज भी

महाराज पाण्‍डु है

पिता पुत्र का रिश्‍ता तो

समाप्‍त नहीं हुआ

इन रिश्‍तों की पवित्रता पर

मैं कैसे प्रहार करूं।

शरीर को भूल जाउं पर अपने

दादे के रिश्‍ते पर

तीर कैसे चलाउं।

भाई के नाते पर

तलवार कैसे उठाउं।

श्रीकृष्‍ण –

अर्जुन यह रिश्‍ते नाते

इसी जन्‍म तक के हैं

इस जन्‍म से पहले या

इस जन्‍म के पश्‍चात इनका

कोई अस्तित्‍व नहीं रहता

काका, मामा, भाई, पुत्र, पितामाह

पिछले जन्‍म में कहां थे

तुम्‍हारे क्‍या लगते थे और

अगले जन्‍म में

ये क्‍या होंगे,

कहां होंगे

इसका उत्‍तर है तुम्‍हारे पास।

 

अर्जुन -

नहीं केशव

 

श्रीकृष्‍ण –

इसीलिये कहता हूं कि

जब शरीर नाश्‍वान है तो

यह रिश्‍ते भी नाश्‍वान हैं।

क्‍योंकि यह सब नाते

शरीर के हैं , तुमने अपने

पिता का उदाहरण दिया कि

उनके साथ तुम्‍हारा नाता

समाप्‍त नहीं हुआ, तो यह भी

तुम्‍हारा भ्रम है।

अज्ञान है

केवल तुम्‍हारे मन में अभी तक

वह रिश्‍ता जीवित है, क्‍योंकि

तुम अभी तक उसी जन्‍म में हो

परन्‍तु तुम्‍हारे पिताश्री इस समय

जिस योनि में भी होंगे

उनके लिये तुम्‍हारा रिश्‍ता

समाप्‍त हो चुका है

पिता की बात छोडो

अपनी बात करो।

पिछले जन्‍म में जब तुम्‍हारी

मृत्‍यु हुई होगी, उस समय

तुम्‍हारे समस्‍त सगे संबंधी

तुम्‍हारे लिये रोये होंगे।

तुम्‍हारी पत्‍नी ने

तुम्‍हारे पुत्रों ने तुम्‍हारे लिये

बहुत विलाप किया होगा।

परन्‍तु आज इस जन्‍म में

तुम्‍हें याद भी नहीं कि किस किस ने

तुम्‍हारी मृत्‍यु पर विलाप किया था।

आज तुम्‍हारे लिये

उनका या उनके रोने धोने का

कोई मोल नहीं।

इसलिये समझा रहा हूं

ना किसी के मरने का

शोक करो

ना किसी से नाता टूटने का

दुख मानो

वैसे भी मेरी माया

इतनी प्रबल है अर्जुन कि

जिन्‍हें तू समझता है कि

तेरी मृत्‍यु के बाद शोक करेंगे

सारा जीवन रोते रहेंगे

वो भी असत्‍य है।

मेरी माया के प्रभाव से

उन रोने वालों को

थोडे दिन बाद

तू हंसता खेलता देखेगा ।

 

मित्र चार दिन रोता है

 

भाई 10 दिन रोता है,

 

पत्‍नी उससे अधिक रोती है।

 

माता सबसे अधिक समय तक

रोती है।

 

परंतु सबके आंसू धीरे धीरे

सूख जाते हैं और उन आंखों में

फिर से नये नये सपनों की

चमक आने लगती है।

 

है अर्जुन

क्‍या तुम बता सकते हो कि

पिछले जन्‍म में,

तुम्‍हारे किस रिश्‍तेदार ने

तुम्‍हारे लिये कितना विलाप किया था।

 

अर्जुन –

नहीं केशव,

यह मैं कैसे बता सकता हूं।

मुझे तो यह तक ज्ञात नहीं कि वो कौन थे।

श्रीकृष्‍ण -

बस जिस तरह तुम अपने पिछले जन्‍म को भूल गये हो,

इसी तरह तुम अपने इस जन्‍म को भी भूल जाओगेा।

इस जन्‍म के रिश्‍तों का अर्थ

तुम्‍हारे आने वाले जन्‍म में

कुछ भी नहीं रह जायेगा।

आज अभिमन्‍यु को तुम

अपना पुत्र समझ रहे हो।

हो सकता है पिछले जन्‍म में

वो तुम्‍हारा पिता रहा हो।

या आने वाले जन्‍म में

तुम्‍हारा महाशत्रु बन जाये।

आज तुम जिनको अपना

रिश्‍तेदार समझ रहे हो

जिनको अपना आदरणीय

समझ रहे हो और इसी कारण

संकोच कर रहे हो

हो सकता है उन्‍हीं में से किसी ने

पिछले जन्‍म में

तुम्‍हारी हत्‍या की हो। या

तुम अगले जन्‍म में

उनकी हत्‍या कर दो।

 

है अर्जुन यह रिश्‍ते

शरीर के जन्‍म के साथ

पैदा होते हैं और

शरीर की मृत्‍यु के साथ

मर जाते हैं। इसलिये

इन रिश्‍ते नातों के चक्रव्‍यूह से

बाहर आ जाओ।

 

आत्‍मा अमर है

इस अमर सत्‍य को पहचानो

रिश्‍ते तो बदलते रहते हैं।

 

धृतराष्‍ट्र -

संजय ऐसे ही लोग होते हैं जो

ऐसे ही लोग परिवारों में

फूट डाल देते हैं। भाई को

भाई से अलग कर देते हैं

अखण्‍ड परिवार में

दुश्‍मनी के बीज बो देते हैं,

यह कृष्‍ण तो बातों का धनी है

बचपन में माखन खा खा कर

इसकी बातें भी चिकनी चुपडी

हो गई हैं, लगता है, यह

अर्जुन को रिश्‍तेदारी के

मोह से निकाल कर ही छोडेगा।

 

संजय

महाराज बातें सच्‍ची हो तो

मनुष्‍य उसे तुरन्‍त मान लेता है।

श्रीकृष्‍णकी बातें सच्‍ची हैं।

तभी तो दिल को भाती है।

 

धृतराष्‍ट्र -

भाती है

मेरे दिल में तो तीर की तरह

चुब रही हैं उसकी बातें।

मैं तो खुश था कि

कृष्‍ण इस युद्ध में

हथियार नहीं उठायेगा।

परन्‍तु आज पता चला कि

उसका असली भयंकर शस्त्र

तो उसकी जिव्‍हा है। और

वह इस शस्‍त्र का

बेधडक प्रयोग कर रहा है और

कोई कुछ नहीं कर सकता

अब बताओ कि उसकी जीभ

कौन से अंगारे बरसा रही है।

श्रीकृष्‍ण –

है अर्जुन इसलिये तुम्‍हें

ना रिश्‍तों से मोह करना चाहिये

ना रिश्‍तों के टूटने का

शोक करना चाहिये।

यही सांख्‍य योग का ज्ञान है कि

मनुष्‍य को एक संयासी की भांति

सोचना चाहिये कि

यह सब रिश्‍ते नाते मोह को

उत्‍पन्‍न करते हैं और

मोह इन रिश्‍तों को इतनी

जोर से पकड लेता है जैसे

एक लोभी पुरूष

नदी में डुबते हुए भी धन की

गठरी को नहीं छोडता। और

आखिर में उस गठरी के बोझ से

खुद भी डूब जाता है।

इसलिये अपने मन को

संयासी बनाओ और इस

मोह के बंधन को छोडो और

इस बात पर ध्‍यान दो कि

इस समय

तुम्‍हारा कर्तव्‍य क्‍या है।

तुम्‍हारा धर्म क्‍या है और

उसी के अनुसार कर्म करो।

 

पार्वतीजी -

प्रभू भगवान श्रीकृष्‍ण अर्जुन को

एक ओर तो यह समझाने का

प्रयास कर रहे हैं कि

यह रिश्‍ते नाते सब व्‍यर्थ हैं,

इनका मोह त्‍याग दो,

इन बंधनों से मुक्‍त हो जाओ

और दूसरी ओर

वह अर्जुन को युद्ध करने की

प्रेरणा दे रहे हैं।

उसे सगे संबंधियों के विरूद्ध

हथियार उठाने को कह रहे हैं।

उनकी हत्‍या करने को कह रहे हैं।

 

शिवजी –

देवी,

अर्जुन को भगवान श्रीकृष्‍ण का

उपदेश ठीक ही है, इसमें शंका

और संदेह की कौनसी बात है।

 

पवर्ती जी-

प्रभू, युद्ध करना और

अपने शत्रुओं की हत्‍या करना

यौद्धाओं का काम है

संयासी का नहीं, परंतु

भगवान श्री कृष्‍ण, अर्जुन को

संसारी मोह त्‍यागने को

भी कह रहे हैं और

युद्ध करने को भी कह रहे हैं

तो भला एक ही समय में

एक मनुष्‍य यौद्धा भी बने और

संयासी भी बन जाये।

यह कैसे सम्‍भव है

यह तो परस्‍पर विरोधी

विचार है

संयासी हो जाये

तो युद्ध क्‍यों करें और

युद्ध करे तो संयासी

कहां रहा

 

शिवजी -

नहीं देवी, भगवान श्रीकृष्‍ण ने

अर्जुन को संयासी बनने का

उपदेश नहीं दिया है बल्कि

मन से संयासी

बनने को कह रहे हैं।

 

पावर्ती जी -

संयासी बनने का

उपदेश नहीं दिया तो

मोह त्‍याग की मांग का

क्‍या अर्थ है।

 

शिवजी -

देवी, भगवान श्रीकृष्‍ण इस

संसार को त्‍यागने के

पक्ष में नहीं है वो तो

केवल यह चाहते हैं कि

मनुष्‍य इस संसार में रहते हुए

अपने कर्तव्‍य कर्म के

फलस्‍वरूप मिलने वाले

समस्‍त भोगों का भोग करे

परन्‍तु आसक्ति रहित होकर

मनुष्‍य को मुक्ति के लिये

संयासी बनने की

आवश्‍यकता नहीं है।

केवल मन से संयासी बनकर

अपने अपने सुख दुख को

भोगता हुआ भी

अपने धर्म को नही भूले

मोह माया के चक्‍कर में

पडे हुए बिना धर्म को निभाये ।

सबका भला हो।

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