गुरु, शिष्य, जप/ ध्यान
समस्त विषय विकार व पाप से मुक्त गुरुओं को प्रणाम
यह प्रकृति सत रज तम का मिश्रण है
मनुष्य का मन त्रिगुणातीत होने पर ही मनुष्य मुक्त होता है ।
जैसे की सत रज तम और त्रिगुणातीत अवस्था होती हैं।
गुरु, शिष्य, जप 4 तरह के होते हैं।
1 जिनका मन त्रिगुणातीत होता है, विषय विकार पाप व कामना वासना से मुक्त होता है वही सत्य गुरु है ।
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2, जिनका मन सात्विक होता है, लेकिन कामना वासना मन में दबी रहती है
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3 जिनका मन राजसिक है
मन मे सत और तम का मिश्रण है मन विषय विकार से ग्रसित हैं
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4 जिनका मन तामसिक है लेकिन दिखावा सात्विक होने का करते हैं मन विषय विकार व पाप से ग्रसित है
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इस संबंध में एक प्रसिद्ध गुरु ने अपना अनुभव साझा किया वे अपनी शिष्या के साथ कहीं जा रहे थे
रस्ते में एक चौथी श्रेणी के गुरु से मिले तो उनकी शिष्या ने कहा कि
इन्हें तो कुछ आता ही नहीं है
यह गुरु कैसे बन गए और
आप यहां आए ही क्यों और
उस शिष्या ने सोचा कि जब यह अज्ञानी अपनी पूजा करवा सकता है
तो मैं भी अपनी पूजा करवा सकती हूं
मैं तो इससे अधिक ज्ञानी हूं
तो उनकी शिष्या उन प्रसिद्ध गुरु की अवज्ञा कर
तीसरी श्रेणी की गुरु बनी आज भी उन्हें पूजा जा रहा है
शिष्य
1 जिसके कान गुरु की वाणी को संग्रहित करते हैं
मन गुरुवाणी के अनुसार चलता है
वाणी गुरु वाणी की तुला पर तुल कर निकलती है
मन में उस परमात्मा के अतिरिक्त कोई कामना नहीं होती
यानी जिसका तन मन वाणी
गुरुवाणी में डूबी हुई है
उससे बड़ा जप कोई नहीं
चाहे वह कोई सा भी नाम का जप हो
वही सबसे बड़ा शिष्य है।
उनका मन त्रिगुणातीत, विषय विकार पाप कामना वासना से मुक्त होता है। वही सत्य शिष्य होते है । जीवन मुक्त होते हैं। जप, अजपा जप में परिवर्तित हो जाता है
2, जिनका मन सात्विक होता है, लेकिन कामना वासना मन में दबी रहती है। उनकी कामना वासना बार-बार उन का ध्यान भंग करती है
यदि शिष्य गुरु वाणी को गंभीरता से लेता है तो त्रिगुणातीत अवस्था तक जा सकता है ।
अन्यथा सोने की जंजीर के साथ दुनिया में वापस आता है,।
3 जिनका मन राजसिक होता है यानी मन मे सत और तम का मिश्रण होता है, मन विषय विकार से ग्रसित होता हैं ऐसे शिष्य ना पूरी तरह से गुरु वाणी सुन पाते है और ध्यान करते है तो
नाम जप नाममात्र का रह जाता है बार-बार सांसारिक पदार्थों / शक्ल में मॅ मन उलझा रहता है
4 जिनका मन तामसिक होता है विषय विकार व पाप से ग्रसित रहता है
ऐसे शिष्यों का नाम जप रहता ही नहीं
गुरुवाणी से वंचित रहते हैं और अज्ञानता वश मिश्रित कर्म करते हैं और जप व्यर्थ ही रहता है।
इस संसार में अलग-अलग गुरु
अलग-अलग नाम, जप, सुमिरण विधि सिखाते हैं
कोई ज्योति, कोई शब्द , कोई निराकार, कोई अपने चित्र अथवा अपने आराध्य का
ध्यान करता है
कोई सांसो,चक्रों के साथ
कोई 1,कोई 5, कोई 7 नाम से
कोई बिना नाम से
जप व ध्यान की विधि बताते हैं।
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लेकिन सभी आकृति के पीछे
एक ही प्रकाश
एक ही अनहद नाद
एक ही परिणाम परमानंद
प्रकट होता है
जप /ध्यान तभी सफल होता है
जब मन सात्विक हो
अन्यथा सब निरर्थक
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उन्हीं गुरु ने एक प्रयोग किया
अपने एक नए शिष्य से कहां कि तुम मौन रहना
मैं शिष्यों को कहूंगा कि तुम मोनी और पहुंचे हुए हो
फिर क्या सभी शिष्यों ने उनके पैर छूना शुरु कर दिया
किसी ने कहा कि
मुझे अद्भुत अनुभूति हुई
मेरी कुंडली जग गई
सब ने अपने-2 भाव सुनाएं
मजे की बात तो यह है कि वह जो
शिष्य थे मोनी बनकर बैठे थे उनकी खुद की कुंडली जागृत नहीं हुई थी
उनको खुद को कुछ ज्ञान नहीं था तो ऐसे लोग तीसरी या चौथी श्रेणी के गुरु बन कर बैठ जाते हैं।
उसको जपना ही जीवन है
मरण उसे बिसराने मैं
शिष्य की सारी शक्ति लगे
प्रभु से लगन लगाने में
जब हम सतकर्म करते हैं तो उसका जप होता है
तो हम उसके निकट / सम्मुख होते हैं और जब हम दुष्कर्म करते हैं तो उसे भूला देते हैं, नाम जप मिथ्या हो जाता है और वह निकट होते हुए भी हमसे दूर हो जाता है
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