वशिष्ठ जी व श्री राम संवाद ! 🌺 ज्ञानबन्ध
वशिष्ठ जी व श्री राम संवाद !
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ज्ञानबन्ध
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हे राम ! यह जो ज्ञान तुमसे कहा है , उसका आश्रय लेकर तुम ज्ञानवान् होना, ज्ञानबन्ध न होना ।
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ज्ञानबन्ध से तो अज्ञानी भला है ,
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क्योंकि अज्ञानी भी साधुओं के संग और सत्शास्त्रों के श्रवण से ज्ञानवान् होता है , पर ज्ञानबन्ध मुक्त नहीं होता।
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जैसे रोगी कहे कि मुझको कोई रोग नहीं है ,
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मैं निरोग हूँ तो वह वैद्य की औषध भी नहीं खाता ,
क्योंकि वह अपने को निरोग जानता है ,
वैसे ही जो ज्ञानबन्ध है वह सन्तों का संग और सत्शास्त्रों का श्रवण भी नहीं करता ,
इससे वह अन्धतम को प्राप्त होता है । श्रीराम ने पूछा , हे भगवन् !
ज्ञान और ज्ञानबन्ध का लक्षण क्या है और ज्ञानबन्ध का फल क्या है , यह कहिये !
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वशिष्ठ जी बोले , हे राम !
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जिस पुरुष ने आत्मा के विशेषण शास्त्रों से सुने हैं कि आत्मा नित्य शुद्ध , ज्ञानस्वरूप और तीनों शरीरों से भिन्न है और ऐसे सुनकर अपने को वही मानता है , पर विषयों को भोगने की सदा चाह रखता है कि किसी प्रकार इन्द्रियों के विषय मुझे प्राप्त हों , ऐसा पुरुष ज्ञानबन्ध है ।
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अर्थात
जिसने गुरु धारण नहीं किया है
वह ज्ञान रहित है ।
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लेकिन जो गुरु धारण करने के बाद भी यानी कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी विषय विकार से रहित होने के लिए प्रयासरत नहीं है।
वही ज्ञान बंध कहलाता है ।
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यानी कि वह ज्ञान रूपी साबुन से अपनी आत्मा पर लगी विषय विकार की जन्म जन्मांतर से जमी हुई परतों को नहीं हटाता है और
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गुरुद्वारा प्राप्त उपदेश रूपी
पारस मणि का उपयोग ही नहीं करता है ।
जहर ग्रहण करता है यानी कि गुरुवाणी के विरुद्ध आचरण करता है
लेकिन अमृत ग्रहण नहीं करता
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यानि कि उनकी वाणी के अनुसार आचरण नहीं करता है तो उसे आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त नही हो सकता।
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