धर्म पथ की एकल यात्रा चरैवेति चरैवेति चलते ही रहे

धर्म पथ की एकल यात्रा 


चरैवेति चरैवेति


चलते ही रहे 

चलते ही रहे

चलते ही रहे


सर्वे भवंतु सुखिनः 


चल अकेला चल अकेला चल अकेला 

तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला


कवि प्रदीप जी की कविताओं/गीतों में आध्‍यात्‍म की झलक मिलती है,  


उनकी एक रचना है, जो कि एक वैरागी के जीवन दर्शन को दर्शाती है।


चल अकेला चल अकेला चल अकेला

तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला


हजारों मील लम्बे रास्ते तुझको बुलाते


यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते


है कौन सा वो इंसान 

यहाँ पर जिसने दुःख ना झेला

चल अकेला...


तेरा कोई साथ ना दे तो

तू खुद से प्रीत जोड़ ले

बिछौना धरती को करके

अरे आकाश ओढ़ ले


यहाँ पूरा खेल अभी जीवन का

तुने कहाँ है खेला


चल अकेला…

चल अकेला 


इस वाक्‍य का उपयोग  ऐतरेय ब्राह्मण में “चरैवेति चरैवेति” वाक्य के रूप में किया गया है। 

यानि कि 50 वर्ष उपरांत अथवा सेवानिवृत्ति के पश्‍चात तो आध्‍यात्‍म की राह पर चलना ही चाहिये,


इससे पूर्व भी यदि कोई शंकराचार्य, भगवान बुद्ध, महावीर स्‍वामी, दयानन्‍द जी, विवेकानन्‍दजी आदि की तरह चलता है तो और भी अच्‍छा है। 

 

अब कुछ लोगों का तर्क है कि यदि सभी संयासी बन जायेंगे तो अव्‍यवस्‍था हो जायेगी, 


तो यह उनका भ्रम है, क्‍योंकि इस संसार में इन्द्रियों का  आकर्षण इतना विकट है कि 

कोई विरला ही इन इन्द्रियों के आकर्षण से 

अपने तन को 

अपने मन को 

मुक्‍त कर पाता है। 


संयासी बनना यानि कि जल का वाष्‍प बनकर ऊपर की ओर गमन, 


जबकि संसारी बनना यानि की उपर से पानी का नीचे की ओर गमन 


चाहे वह वर्षा के रूप में हो 


चाहे पहाडों पर जमी बर्फ का पिघला हुआ पानी हो। 


तो यह सभी को विदित है कि पानी तो एक साथ अत्‍यधिक मात्रा में नीचे गिरता है अथवा नदी के रूप में नीचे की ओर बहता है 


लेकिन

पानी के वाष्‍पीकरण की मात्रा अल्‍पतम होती है।


तो संयासी यानि कि पानी का वाष्‍पीकरण और 

संसारी यानि कि पानी का नीचे की ओर गति करना। 


इस संसार में जो भी आत्ध्‍यात्‍मिक सफर तय करता है 

अकेले ही तय करता है 


हां उसके पास साधन अनेक हो सकते हैं 

जैसे कि 

गुरू प्रदत्‍त ज्ञान,

धर्मग्रंथ आदि 


जैसा कि कबीर जी ने कहा है कि

गुरू की करनी गुरू भोगेगा, 

चेले की करनी चेला। 

उनका यह कथन सिद्ध करता है कि सभी को अपनी-अपनी यात्रा स्‍वयं अकेले ही तय करनी पडती है। 


स्‍वयं के कर्म ही 

उस यात्रा को पूर्ण करने अथवा 

अधूरा छोडने का कारण बनते हैं। 


कहते हैं गुरू का ध्‍यान करें, 

लेकिन उसका वास्‍तविक अर्थ कोई विरला ही समझ पाता है, 


गुरू का ध्‍यान से तात्‍पर्य है कि 

जिस तरह से कोई विषय विकार व पाप से मुक्‍त होने के कारण गुरू पद तक पहुंचा है, 

जीवन मुक्‍त अवस्‍था तक पहुंचा है, 

तो उस गुरू की तरह से यह ध्‍यान रखना कि 

जिस तरह गुरू निर्विषयी, 

निर्विकारी, 

निष्‍पाप हैं,


उसी तरह हम भी अपने प्रत्‍येक कर्म को अंजाम देते समय य‍ह याद रखें कि 


वह कर्म विषय  विकार पाप से युक्‍त तो नहीं है। 


यानि ज्ञान के अनुरूप 

त्‍याज्‍य कर्मों का त्‍याग करना और सात्विकतापूर्ण अनुकरणीय कर्मों को करना। 

🌺🌺🌺

चल अकेला - 

यानि कि आध्‍यात्‍म की राह जो कि अत्‍यंत लम्‍बी है, 

हिमालय पर्वत की चोटी से भी विकट है, 

उस विकट पथ से हम डरे नहीं, 


उस लम्‍बी यात्रा पर हम बिना रूके,

बिना थके, 

अंतिम श्‍वांस तक उस धर्म पथ पर 

चलते ही रहें, 

चलते ही रहें, 

चलते ही रहे।


अध्यात्म की यात्रा 

दृश्‍यमान से मन काे विरत करके 

अदृश्‍य से जोडने की है और 

जो भी स्वयं को अदृश्‍य से जोडता है 

वह अकेला नहीं होता लेकिन 

दुनिया की दृष्टि में अकेला ही होता है। 


आध्‍यात्‍म की राह पर मनुष्‍य को अकेले ही चलना पडता है,


इस राह में साधन अनकों हो सकते हैं, 

जैसे कि गुरू का ज्ञान


लेकिन उस ज्ञान पर चलना स्‍वयं को ही पडता है। 


जो ज्ञान के सम्‍पर्क में आने पर 

इस संसार की वास्‍तविकता को समझ लेता है, 

उसका तन इस संसार में जुडा रहने के बावजूद भी 

उसका मन इस संसार की भीड से अलग हो जाता है। 


यह ससार रूपी भीड, 

संसार रूपी मैला, 

इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्‍ल 

सब से उसका माेह समाप्‍त हो जाता है और

वह अपनी लम्‍बी आध्‍यात्मिक यात्रा प्रारम्‍भ कर देता है।

 

यह आध्‍यात्मिक यात्रा अत्‍यंत लंबी है, 

किसी अपवाद को छोड दें 

तो अधिकतर सभी को इस यात्रा को पूर्ण करने में 

अत्‍यंत दीर्घ समय लगता है।

🌺🌺🌺

चल अकेला चल अकेला चल अकेला 


तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला


दो तरह की यात्रायें हैं 


एक गोलाकार  है, जिसका कभी अंत नहीं होता। 


जो कि हजारों मील लम्‍बी से भी अत्‍यधिक लम्‍बी 

अंतहीन यात्रा हैं, 


यानि कि जन्‍म-मरण का चक्र ।  


ज्ञान से वंचित मनुष्‍य इस यात्रा पर 

जन्‍म जन्‍मांतरों से चलते आ रहे हैं और

कुछ ज्ञानवान भी 

इस अंतहीन यात्रा के आकर्षण से आकर्षित होकर 

इससे अलग होना नहीं चाहते।


 इस यात्रा का अंत केवल सत्य  ज्ञान के अनुसार आचरण करने पर ही हो सकता हैा 


अन्‍यथा यह परम सत्‍य है कि

 ज्ञान के विपरीत आचरण करने पर 

ज्ञान रूपी अनमोल धन निरर्थक ही रह जाता है। 


दूसरी यात्रा है, 

इस गोलाकार चक्र से अलग होने की और 

इस यात्रा को पूर्ण करने में भी अत्‍यंत दीर्घ समय लगता है। 


इसीलिये कहा है 

धीरे धीरे रे मना 

धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सौ घडा ऋतु आये फल होय


तो इस यात्रा में लक्ष्‍य की प्राप्ति यानि कि परमान्‍नद तक पहुंचने की यात्रा है 

जो परमानन्‍द की प्राप्ति के साथ ही पूर्ण हो जाती है, 

जीवन मुक्‍त की अवस्‍था आ जाती है। 

इस यात्रा को पूर्ण करने में भगवान बुद्ध को 6 वर्ष और 

महावीर  स्‍वामी जी को 12 वर्ष लगे थे। 


दोनों ने ही यह यात्रा अकेले ही प्रारम्‍भ की थी  और 

सात्विकता के बल पर अकेले ही पूर्ण की थी। 


यह यात्रा प्रारम्‍भ में दुखमय प्रतीत होती है, 

यह पथ कांटों भरा प्रतीत होता है, 

लेकिन इसका अंत अत्‍यंत सुखद कल्‍याणकारी होता है। 

यह यात्रा समस्त दुखों से छूटने की यात्रा है। 


दूसरी ओर संसारिक गोलाकार जन्‍म-मरण के चक्र की यात्रा शुरू में अत्‍यंत सुखकारी प्रतीत होती है, 

लेकिन इस यात्रा में बार-बार मन के प्रतिकूल होने के कारण बार-बार सुख के साथ ही दुख से भी सामना होता रहता हैा। 


जन्‍म मरण के चक्र की यात्रा अन्‍तहीन है और 

मन के प्रतिकूल घटित होने पर बार-बार दुख की अनुभूति करनी पडती है।  


इसीलिये इसमें कहा है कि हजारों मील लम्‍बे रास्‍ते तुझको पुकारे 

यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते,


 है कौन सा वो इंसान यहाँ पर जिसने दुःख ना झेला। 


यानि इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो पूर्णतया सुखी हो 

कोई तन से दुखी है, 

तो कोई मन से दुखी है 

तो कोई धन से दुखी है। 


इस संसार में ऐसा कोई नहीं जिसने दुख का सामना नहीं किया हो चाहे वह राजा हो या रंक। 


जिसका मन राग से रहित हो गया है, 

इस संसार के आकर्षण से रहित हो गया है ओर 

अंतिम सांस तक यह अवस्‍था कायम रहने पर ऐसे वैरागी समस्‍त दुखों से छूट जाते हैं। 

🌺🌺🌺

तेरा कोई साथ ना दे तो

तू खुद से प्रीत जोड़ ले

बिछौना धरती को करके

अरे आकाश ओढ़ ले


यह पंक्ति भी रागी से वैरागी बनने के लिये प्रेरित करने वाली है,


यानि कि जब हमें किसी की आवश्‍यकता हो ओर 

वह आवश्‍यकता के समय हमारा साथ नहीं दे 

तो, हमें अपना राग छोडते हुए 

स्‍वयं से प्रीत जोडनी चाहिये


स्‍वयं से ही नाता जोडना चाहिये।


पूर्व में मुल्‍तान में प्‍लेग की महामारी फैलने के कारण मुल्‍तान में वीरानी  छा गयी थी

 

उस समय इन रिश्‍ते-नातों की सत्‍यता प्रकट हुई थी। 

जो प्‍लेग की बीमारी से ग्रसित थे 

उन्‍हें वहीं मरने के लिये छोडकर  उनके प्रियजन वहां से पलायन कर गये। 

जो प्‍लेग से ग्रसित थे, 

उन्‍हें इस संसार के लोगों की सत्‍यता का ज्ञान

 उस प्‍लेग की महामारी ने करवा दिया। 


यानि कि  जिन्‍हें हम अपना कहते हैं 

जब-जब उनका स्‍वार्थ हमें दिखाई देता है अथवा अनुभव होता है 


तब-तब मन में वैराग उत्‍पन्‍न होता है। 

दुख की वेदना वैराग उत्‍पन्‍न करती है और 

सुख का रंग, राग को उत्‍पन्‍न करता है। 


अभी कोरोनाकाल में भी एक वृद्धा कोरोना से ग्रसित थी उसके पुत्र ने अपनी बहिन को फोन किया कि वह बाहर जा रहा है और वह कुछ दिन मां को अपने पास रख ले। उसकी बहन ने उसकी मां को रख लिया, लेकिन जब उसको पता लगा कि मां कोरोना से ग्रसित है और भाई ने इसीलिये बहाना बनाकर मां को उनके यहां छोड दिया है तो वह अपने पति के साथ मां को अस्‍पताल ले जाने के लिये घर से निकली और रास्‍ते में मां से कहा कि आप कुछ देर यहां इंतजार करो हम घर जाकर तुरन्‍त वापस आते हैं और वह वापस अपने घर गई ओर घर पर ताला लगाकर अपने पति के साथ कहीं अन्यत्र चले गयी। 


उस वृद्धा ने वहीं राह में ही प्राण त्‍याग दिये। 


तो इस तरह की घटनायें इस संसार की वास्‍तविकता को दर्शाती है और मन में वैराग्‍य उत्‍पन्‍न करती है

🌺🌺🌺

बिछौना धरती को कर ले 

अरे आकाश ओढ ले


वह परमात्‍मा पांचों तत्‍वों में विद्यमान है, 

इसलिये  वैरागी के लिये जब कोई बिछौना नहीं मिलता तो यह धरती ही उसका बिछौना बन जाती है, 


जैसे कि मां की गोद में बच्‍चा चैन से सो जाता है 


तो उसी तरह वैरागी चाहे धरती पर सोये अथवा बिछौने पर वह धरती को भी परमात्‍मा की गोद समझकर विश्राम करता है और 


बिछौने काे भी परमात्‍मा की ही गोद समझकर विश्राम करता है, 


उसके लिये धरती और बिछौने में कोई अंतर नहीं होता। 


वैरागी को वायु का स्‍पर्श भी परमात्‍मा के स्‍पर्श की ही तरह प्रतीत होता है। 


वैरागी कुछ औढता है तो उस चादर में भी परमात्‍मा का ही वात्‍सलय महसूस होता है। 


परमात्‍मा सर्वव्‍यापक है 

अत: वैरागी को चाहे बिछौना और ओढना आदि मिले अथवा नहीं वह हर स्थिति में परमात्‍मा को ही अपना बिछौना और आकाश को ही ओढना मानते हुए

 हर हाल में प्रसन्‍नचित्‍त  रहते हुए विचरण करता है, विश्राम करता है। 


वैरागी को महल घर आंगन की कोई कामना नहीं होती 

एक छोटी सी झौंपडी, 

छोटे से मकान में भी वह आनन्‍द से रहता है

 इस खुले आकाश में भी वह आनन्‍द से रहता है, 

जैसे कि पांडवों ने, श्री राम ने वनवास के दौरान कुछ अल्‍प समय धरती को बिछौना मानते हुए तथा 

आकाश को ओढना मानते हुए व्‍यतीत किया था तथा  

भगवान बुद्ध, महावीर स्‍वामी के जीवन में भी कई बार ऐसा समय आया था जब धरती ही उनका बिछौने थी ओर आकाश ही उनका ओढना  था। 


🌺🌺🌺


यहाँ पूरा खेल अभी जीवन का

तुने कहाँ है खेला

🌺🌺🌺

जब तक उस अंतिम लक्ष्‍य परम आनन्‍द की अनुभूति नहीं होती,

 तब तक इस जीवन-मरण का खेल पूरा नहीं होता। 


सात्विकता के साथ साधना के पथ पर सतत चलते रहने पर ही अंतत उस परम लक्ष्‍य परम आनन्‍द की अनुभूति सम्‍भव हो पाती है और इस अनुभूति के साथ ही जीवन का खेल पूर्ण हो जाता है।


जैसे कि ट्रेन में ब्रेक लगाने पर ब्रेक लगाते ही ट्रेन एकदम से नहीं रूकती कुछ दूर जाने के बाद ही ट्रेन रूक पाती है तो उसी तरह परमानन्‍द की अनुभूति इस जीवन का विराम है, शेष जीवन उसी तरह का है जैसे कि ट्रेन ब्रेक लगने के बाद भी गतिमान रहती है। 


राग के कारण उत्‍पन्‍न कामनाओं/वासनाओं के कारण यह जन्‍म मरण का खेल यानि कि जन्‍म-मरण का चक्र अनवरत चलता रहता है और 

वैराग के कारण नष्‍ट हुई कामनाओं/वासनाओं के कारण इस जन्‍म-मरण के खेल का यानि कि जन्‍म-मरण के चक्र का अंत हो जाता है।

 

सबका भला हो 


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