भाग्य और कर्म/पुरूषार्थ - हाथों की चंद लकीरों का सब खेल है बस तकदीरों का तकदीर है क्या, मैं क्या जानूं मैं आशिक हूं तदबीरों का
हाथो की चंद लकीर का
सर्वे भवंतु सुखिन:
भाग्य और कर्म/पुरूषार्थ
जो गुरू उपदेश के अनुसार हो ग्रहण करें।
हाथों की चंद लकीरों का
सब खेल है बस तकदीरों का
तकदीर है क्या, मैं क्या जानूं
मैं आशिक हूं तदबीरों का
इस गीत में एक भाग्यवादी है
और दूसरा कर्मवादी
लेकिन दोनों ने ही
अर्द्धसत्य बयान किया है।
भाग्यवादी कहता है कि
हाथों की चंद लकीरों का
सब खेल है बस तकदीरों का
भाग्यवादी को पता नहीं कि
हमारे कर्म ही हमारा भाग्य
निर्मित करते हैं।
भाग्य कुछ और नहीं
हमारे पूर्व जन्मों में
किये गये कर्मों का परिणाम है,
यानि जो कर्म
हमने जमा किये हैं,
संचित किये हैं,
उनसे ही हमारा भाग्य
निर्मित होता है,
जिसे प्रारब्ध कहते हैं।
हम जो कर्म वर्तमान में
कर रहे हैं, यानि कि
क्रियमाण कर्म
वह भी हमारे संचित कर्मों में
जुड़ जाते हैं और
और प्रारब्ध तथा क्रियमाण कर्म का मिश्रित माम ही संचित कर्म है और इसलिए संचित कर्म ही भाग्य है।
जैसे कि बहीखाते में
लेन-देन का हिसाब
लिखा जाता है कि
कितना किसको चुकाना है और
कितना किससे वसूलना है।
तो उस अदृष्य शक्ति ने
सबसे सशक्त बहीखाता
हमारे अंतर में स्थापित
किया हुआ है,
जिसे चित्त कहते हैं,
उस चित्त में
प्रत्येक पल,
प्रत्येक क्षण में
हमारे द्वारा किये जा रहे
कर्म संग्रहित होते रहते हैं।
तो हमारा चित्त
एक बहीखाता है,
जिसमें सत्कर्म जुड़ने पर
हमारे भाग्य में
उस सत्कर्म के अनुसार
सुख जुड़ जाता है और
दुष्कर्म करने पर
दुख जुड़ जाता है।
यह उस अदृश्य शक्ति द्वारा
निर्मित ऐसा खाता है जिसमें
कभी गड़बड़ी नहीं होती है।
हाथों की चंद लकीरों का
सब खेल है बस तकदीरों का
तकदीर है क्या, मैं क्या जानूं
मैं आशिक हूं तदबीरों का
सत्कर्म से तात्पर्य
ऐसे सभी कर्म जिनसे
की आत्मा संतुष्ट होती हो तथा
अन्यों को भी सुख, शांति की
प्राप्ति होती है।
दुष्कर्म से तात्पर्य
ऐसे सभी कर्म
जिनसे अन्यों को
दुख,
दर्द,
अशांति की
प्राप्ति होती हो।
ऐसे दुष्कर्म से
दो परिस्थितियां उत्पन्न होती है
(1) जिनसे स्वयं का मन
तनाव ग्रस्त होता हो
क्रोध आता हो
मन की शांति भंग होती हो
(2) सत्ता, शक्ति, संपन्नता के अहंकार में दुर्बल, लाचार, बेबस, निर्धन आदि को दुख, दर्द, अशांति देकर हंसना।
यह एक बड़ा तामसिक कर्म है।
दोनों ही परिस्थितियों में दुख का सामना करना ही पड़ता है
इसीलिए कहां है
कबीरा हाय गरीब की
कबहु ना निष्फल जाए
मरे बैल की चाम सू
लोहा भस्म हो जाए
इसका अपवाद भी है जैसे कि
चिकित्सक जब किसी का
ऑपरेशन करता है
तब मरीज को दर्द का
सामना करना पड़ता है, लेकिन
वह कर्म भी सत्कर्म ही है,
क्योंकि वह कुछ समय का दर्द
मरीज को भविष्य में होने वाले
दर्द से बचाता है,
मरीज की प्राण रक्षा करता है।
जो किसी के प्राणों की रक्षा
के लिये प्रयास करता है,
उसके बहीखाते में
एक और सुख जुड़ जाता है।
लेकिन जो स्वार्थ के लिये
दुसरों को दुख-दर्द देते हैं
दूसरों की अशांति का
कारण बनते हैं
उनके बहीखाते में
एक और दुख जुड़ जाता है।
वह बहीखाता
जन्म-जन्मांतरों से
हमारे कर्मों की कलम से
लिखा जा रहा है, और
तब तक समाप्त नहीं होता
जब तक़ चाह/कामना/वासना
समाप्त नहीं होती।
जो कर्मयोगी
सत्कर्म करता ही रहता है,
करता ही रहता है, लेकिन
उसके बदले
कुछ चाहता नहीं,
कुछ कामना नहीं रखता
इसलिये उसका बहीखाता बंद हो जाता है।
लेकिन जो अपने
कर्मो के परिणाम का आकांक्षी है,
उसका बहीखाता
चलता ही रहता है,
चलता ही रहता है,
चलता ही रहता है।
हाथों की चंद लकीरों का
सब खेल है बस तकदीरों का
तकदीर है क्या, मैं क्या जानूं
मैं आशिक हूं तदबीरों का
दूसरा पुरूषार्थी है,
जो पुरूषार्थ को ही
सब कुछ मानता है,
लेकिन चाहे कोई
पुरूषार्थी हो या भाग्यवादी
कर्मों की मार से
कोई नहीं बच सकता।
हां कर्मों के द्वारा भाग्य
निर्मित होता है तो इसलिये
पुरूषार्थ/मेहनत/श्रम के द्वारा
हम पूर्व के भाग्य को तो
परिवर्तित नहीं कर सकते हैं,
लेकिन वर्तमान कर्मों द्वारा
हम पूर्व के कर्मों का भार
अवश्य कम कर सकते हैंः -
जैसे कि राम मूर्ति जी थे,
टी.बी. के मरीज थे,
जो टी.बी. का मरीज होता है,
उसके फेफड़े
खराब हो जाते हैं,
तो उनके भी फेफड़े
खराब हो गये थे, लेकिन
उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और
अपनी पूरी शक्ति
अपने स्वास्थ्य को पुनः
प्राप्त करने में लगा दी।
उन्होंने इतना व्यायाम/प्राणायाम
किया कि जो फेफड़े
कमजोर हो गये थे,
उनको अत्यंत मजबूत बना लिया
जैसे कि रबड़ के ट्यूब में
हवा भरने पर वह
भारी वाहन का वजन भी
सहन कर लेता है तो
उन्होंने अपने फेफड़ों में
प्राणवायु को भरकर अपने
वक्षस्थल से हाथी को गुजारा।
माना कि फेफड़े खराब होने
का कारण भी उनके दुष्कर्म
रहे होंगे, लेकिन
यदि हम पुरूषार्थ द्वारा
हमारे स्वास्थ्य का ध्यान रखें
तो हमारे कर्मों के अनुसार
दुख और सुख
तो हमारे सम्मुख आयेंगे ही
लेकिन दुख का माध्यम
परिवर्तित हो जायेगा।
या तो फिर दुख
किसी दुर्घटना के माध्यम से
आयेगा, अथवा अन्य किसी और
कारण से आयेगा, लेकिन
पुरूषार्थ में वह शक्ति है कि
वह मरणासन्न में भी
प्राण फूंक सकता है।
इस फिल्म में भी
यही दिखाया था कि
पुरूषार्थी नायक पुरूषार्थ के
बल पर सब कुछ हासिल
कर लेता है, लेकिन
संचित कर्मों के कारण
दुख से पीछा नहीं छूटता है।
हम कह सकते हैं कि
कुछ सुख हमें पुरूषार्थ द्वारा
प्राप्त हो सकता है, लेकिन
हमारे संचित कर्मों के अनुसार
सुख और दुख दोनों का ही
प्रवाह चलता ही रहता है।
इसीलिये पुरूषार्थी कहता है कि
तकदीर का निर्माण
हम स्वयं करते हैं।
पुरूषार्थी कहता है कि
मैं पुरूषार्थ यानि तदबीरों का
यानि के बार-बार प्रयास
करने में विष्वास रखता हूं।
यानि पुरूषार्थ में वह शक्ति है
जो असम्भव को भी
सम्भव कर सकती है।
जैसे कि विल्मा, जो कि
अपने पूर्व कर्मों के कारण
अपंग थी, जो ढंग से
चल भी नहीं सकती थी,
लेकिन उसने अपना
तन और मन दोनों ही
अपने लक्ष्य के लिये
अर्पित कर दिये और
इसी सर्मपण के कारण
पुरूषार्थ के बल पर ही
वह दौड़ी और
ऐसी दौड़ी की ओलम्पिक में
दौड की प्रतियोगिता में
एक नहीं तीन स्वर्णपदक जीते।
इसलिये पुरूषार्थी कहता है कि
तकदीर है क्या,
मैं क्या जानूं,
मैं आशिक हूं तदबीरों का।
जो आलसी होते हैं और
पुरूषार्थ नहीं करते,
उन्हें तकदीर के कारण
धन-दौलत मिल जाये,
लेकिन आलसियों को
आध्यात्मिक लक्ष्य की
प्राप्ति होना अत्यंत
कठिन कार्य है, क्योंकि
आध्यात्मिक लक्ष्य केवल
गुरू उपदेश /ज्ञान के अनुसार
पुरूषार्थ करके ही प्राप्त
किया जा सकता है, यानि कि
जो गुरू वाणी के अनुसार
निरन्तर विकारों पर
विजय प्राप्त करने के लिये
प्रयासरत हैं, उन्हें ही
अंततः सफलता मिल सकती है।
अपनी तकदीर से कौन लड़े,
पनघट पर प्यासे लोग खड़े
यानि कि जो पुरूषार्थी होते हैं
वे अपने पुरूषार्थ रूपी
कर्म के बल पर विल्मा की तरह
अपंग होते हुए भी
एक बड़ी दौड़ में
विजय हासिल करते हैं।
श्री राममूर्ति जी की तरह
अपने शिथिल फेफड़ों को
इतना मजबूत कर लेते हैं कि
हाथी भी उस पर से गुजर जाये
और किसी तरह की
हानि भी नहीं हो।
इसी तरह वरदराज
जो कि एक मंदबुद्धि थे, और
मंद बुद्धि अथवा कुषाग्र बुद्धि
का कारण भी
पूर्व संचित
कर्म ही होते हैं,
लेकिन जब वरदराज ने देखा कि
कुए पर रस्सी बार-बार
आने जाने के कारण
कुए के पत्थर पर
रस्सी से कटने के निषान
बने हुए है,
तब उसने विचार किया कि जब एक रस्सी जैसा कोमल पदार्थ
एक पत्थर जैसे सख्त पदार्थ को
काट सकता है,
तो वह भी
अभ्यास के बल पर
मंद बुद्धि से बुद्धिमान
बन सकता है और
उन्हीं वरदराज ने
मुग्ध बोध और
लघुसिद्धांत कौमुदी की
रचना की।
यह तो भूतकाल के उदाहरण हैं,
वर्तमान में भी
टी.वी. सीरियल की अदाकारा
सुधाचन्द्रनण जी
जो कि एक नृत्यांगना हैं,
दुर्घटना में
उनका एक पैर कट गया था
और केवल एक पैर से
वह नृत्य नहीं कर सकती थीं।
लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी
और नकली पैर लगवाकर
नृत्य का अभ्यास किया।
पैर से खून भी निकला
पैर में दर्द भी हुआ, लेकिन
अंततः उन्होंने अपनी
नृत्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया
और उनके इस पुरूषार्थ के
कारण उन पर नाचे मयूरी
फिल्म बनायी गयी।
तो जो अपने कर्म रूपी
अस्त्र/शस्त्र से
संघर्ष करता है,
परिश्रम करता है
पुरूषार्थ करता है
वह कर्मों द्वारा ही
निर्धन से धनी
निर्बल से बलवान
मंद बुद्धि से बुद्धिमान
बन सकते है।
अपंग होते हुए भी
नृत्य कर सकते है,
अपंग होते हुए भी
दौड़ सकते हैं।
कर्मों के कारण मिलने वाले
सुख और दुख का तमाश
एक फकीर,
एक साधू,
एक वैरागी
जिनका मन राग-रंग से
विरक्त हो गया है,
जिनका मन संसार से
विरक्त हो गया है
वे दृष्टा बनकर,
साक्षी बनकर
अपने स्वयं के कर्मों पर नजर रखते हैं और कर्मों के परिणाम का
तमाशा देखते हैं।
यदि कोई पनघट पर जाकर
खड़ा हो जाये और कहे कि
पानी अपने आप चलकर
मेरे मुंह में आ जाये तो
ऐसा तो हो नहीं सकता।
जो पानी पीने के लिये
श्रम करता है,
वह प्यासा नहीं रहता।
आलसी लोग
तकदीर को लेकर
रोना, रोते रहते हैं
आलसी भाग्यवादी
तर्क ही देते रहते हैं कि
हमें लक्ष्य प्राप्ति में सफलता
हमारी तकदीर के कारण
नहीं मिल पा रही है और
जो पुरूषार्थी हैं
चाहे भाग्य को
मानते हों अथवा नहीं
ऐसे पुरूषार्थी
असहाय होते हुए भी
सशक्त लोगों को भी
विल्मा की तरह
पराजित कर देते हैं।
विल्मा, राममूर्ति, वरदराज,
सुधाचन्द्रनण आदि जैसे
पुरूषार्थी लोग ही
पुरूषार्थ के बल पर
असम्भव को सम्भव
बना सकते हैं।
वैसे तो हम सभी
अपने कर्मों द्वारा
अपनी किस्मत का
निर्माण करते हैं, लेकिन
पुरूषार्थी अपने
पुरूषार्थ के माध्यम से
पुरानी किस्मत के साथ एक
नई किस्मत का
एक नया अध्याय और
जोड़ देते हैं
लेकिन आलसी
अपनी बदकिस्मती का
निर्माण करते हैं।
जैसे कि एक बड़े शहर में
स्टेशन रोड पर
एक बहुत बड़ा क्षेत्र है,
जो आलस्य के कारण ही
बिकते-बिकते बहुत छोटा सा
रह गया है,
यदि कोई पुरूषार्थी
उस परिवार में नहीं हुआ तो
हो सकता है कि
वह छोटा सा भाग भी
बिक जाये।
पुरूषार्थ की ही शक्ति के
कारण यह कहावत है कि
पूत कपूत तो क्यों धन संचय,
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।
यानि पुत्र पुरूषार्थी होगा तो
निर्धन से भी धनवान
बन सकता है तथा
पुत्र आलसी है तो
जो धन है
उसे भी ठिकाने लगा देगा।
घोर आश्चर्य तो यह है कि
इस संसार के कुछ लोग
तो इस सत्य से
परिचित नहीं है, लेकिन जिन्होंने
गुरू/ज्ञान धारण किया है,
ज्ञान अर्जित किया है
वे भी इस सत्य से
परिचित होते हुए भी
विषय-विकार व पाप के साथ
संघर्ष में हारते ही रहते हैं,
हारते ही रहते हैं और
जो हारते हुए भी
जीतने का प्रयास करते हैं,
अंततः उन्हें अपनी
मंजिल भी मिल सकती है।
इसमें कहा है कि
है पुरूषार्थी तू जिद छोड दे,
तू अपनी किस्मत को
नया मोड़ नहीं दे सकता
तू अपना रूप और रंग
परिवर्तित नहीं कर सकता है
क्योंकि रूप और रंग भी
पूर्व संचित कर्मों का ही
परिणाम है,
जो कि पूर्णतः सही नहीं है,
आज के इस युग में
रंग और रूप का परिवर्तन
ऑपरेशन द्वारा सम्भव है।
बिना ऑपरेशन के भी
कुछ लोगों का रंग
परिवर्तित हो जाता है
हां इस नजरिये से यह सही है
कि हम कर्मों के परिणाम
सुख अथवा दुख को
भोगने से बच नहीं सकते हैं
चाहे हम भाग्यवादी हों
अथवा पुरूषार्थी।
लेकिन हम पुरूषार्थ के द्वारा
गुरू वाणी के अनुसार
आचरण करते हुए
असत्य से सत्य में
समाहित हो सकते हैं,
अंधकार से प्रकाश में
प्रवेश कर सकते हैं,
गुरू वाणी को आचरण में
लाने के सतत अभ्यास द्वारा
अज्ञान से ज्ञान में
समाहित हो सकते हैं, और
अंततः मृत्यु से अमृत्व
प्राप्त कर सकते हैं, यानि कि
जन्म मरण के चक्र से
छुटकारा पा सकते हैं, लेकिन
केवल पुरूषार्थ के द्वारा
पुरूषार्थ ही वह शक्ति है,
जिसके बल पर हमारे
सबसे प्रबल शत्रु
विषय-विकार व पाप को
हम परास्त कर सकते हैं
जिस अस्त्र/शस्त्र के
बल पर इन्हें परास्त
किया जा सकता है, वह हैं -
अहिंसा,
सत्य,
अस्तेय,
ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह,
शौच,
संतोष,
तप,
स्वाध्याय,
ईश्वर प्राणिधान
(समस्त कर्म ईश्वर को अर्पित
करते हुए सत्कर्म करना),
प्रत्याहार (अंतरमुखता का अभ्यास)
धारणा
(नाम/चित्र/मंत्र/ज्योति अथवा आकृति के माध्यम से भक्ति)
ध्यान (जब आंखें बंद हों
तब अंतर में सारे विचारों से
पृथक होकर केवल
किसी भी एक केन्द्र बिन्दू पर
मन को एकाग्र करना तथा
जाग्रत अवस्था में दृष्टा भाव,
साक्षी भाव से अपने कर्मों का
ध्यान रखना)
ज्ञान को जानने वाले तो
इस संसार में बहुतेरे मिलेंगे,
लेकिन उस ज्ञान के अनुसार
आचरण करने वाले
पुरूषार्थियों की संख्या
इस संसार में अल्पतम है।
जो गुरू वाणी/ज्ञान के अनुसार
अज्ञान रूपी निद्रा से
जाग जाता है और
पुरूषार्थ करता है,
उसका कल्याण हो जाता है।
पंच तत्व में विलीन होते ही
उसके हाथों की लकीरें
मिट जाती है, क्योंकि
उसे जन्म-मरण के चक्र से
मुक्ति मिल जाती है और
जब जन्म ही नहीं तो
फिर कौनसा शरीर, और
शरीर ही नहीं तो
फिर कौनसी लकीरें।
जहां पर भी क्षणिक सुख का आभास होता है, मनुष्य का मन तुरंत वहां भागता है
लेकिन जब बात अध्यात्म की आती है तो जो आध्यात्मिक ज्ञान से नहीं जुड़ा है उसको छोड़ दें
लेकिन जिसने ज्ञान धारण किया है वह यदि यह मान कर बैठ जाएं कि
तकदीर में होगा
तो मुक्त हो जाएंगे
तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकता
जैसे कि
केवल पनघट पर खडे होने पर
पानी बिना पुरुषार्थ के मुंह में
नहीं आ सकता ।
तो ऐसे तकदीर के सहारे बैठे हुए
गुरु वाणी की उपेक्षा करने वाले
गुरुवाणी जी अवज्ञा करने वाले
लापरवाह आलसी शिष्य
प्यासे ही रह जाते हैं।
आध्यात्मिक ज्ञान तो
दिया ही इसलिए जाता है कि
उस पर चलकर
मंजिल तक पहुंच सके
उस मंजिल तक
ज्ञान और पुरुषार्थ का संयोग ही
पहुंचा सकता है ।
कुछ लोग बहाना करते हैं कि
कठिन रास्ता हैं,
चल नहीं सकते।
उस परम सत्ता की इच्छा होगी तो मुक्त होंगे अन्यथा नहीं
यह कथन सत्य नहीं है
वह परम सत्ता तो न्यायकारी है और उस अदृश्य शक्ति ने सभी दिशाओं में अपनी बांहें फैला रखी है हमें ब्रह्मलोक /सतलोक / सचखंड / सच्चा दरबार/ परमधाम में ले जाने के लिए
लेकिन मनुष्य बार-बार
अपने मन को दूषित कर
स्वयं ही उससे दूर भागता रहता है
माना कि पथ कठिन है
लेकिन जब बात
सांसारिक लक्ष्य की आती है
तो मनुष्य पूरा जोर लगा देता है और
जब आध्यात्मिक लक्ष्य की बात आती हैं
तो तकदीर का रोना रो देते हैं ।
अध्यात्म के लिए
हमारी तकदीर को जगाने वाले और सुलाने वाले हम स्वयं होते हैं
जो जाग जाता है
अपनी तकदीर को जगा लेता है और मुक्त हो जाता है
जो सोता रहता है
वह बार-बार सोता ही रहता है
जैसे घूमते हुए रहट में पानी बार-बार भरता है और बार-बार खाली हो जाता है
उसी तरह वह जन्म मरण रूपी चक्र में घूमता ही रहता है ।
जिसका केवल एक ही कारण है कि
साक्षी भाव के अभाव में
मन विषय विकार से ग्रसित होता रहता है
इसी कारण मनुष्य अदृश्य को बार-बार भूल कर
ज्ञान के विपरीत आचरण कर
मन को विषय विकार पाप में
लिप्त करता ही रहता है।
निर्मल मन मन वाला
मंजिल तक पहुंचता है और
मल युक्त मन वालों की यात्रा
अपूर्ण रह जाती है
इसीलिए कहा है
कबीरा मन निर्मल भया
जैसे गंगा नीर
प्रभु पुकारता फिर रहा
कहता कबीर कबीर
सबका भला हो।
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