सेवा और सत्संग

 सेवा और सत्संग 


अधिकतर गुरू नामदान देते हैं और कहते हैं कि इसी से कल्याण हो जायेगा,


तो यह उपदेश भक्ति मार्ग की तरह होता है, 


लेकिन जैसे ही इसमें सेवा शब्द जुड़ता है तो इसमे कर्म योग भी शामिल हो जाता है और जैसे ही सत्संग शब्द जुड़ता है तो 

इसमे  ज्ञान योग भी शामिल हो जाता है।


सेवा और सत्संग शब्द गागर में सागर की तरह है। 


सेवा कर्म का प्रतीक है 

और सत्संग ज्ञान का प्रतीक है । 


अंतिम परम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तीनों में समन्वय आवश्यक है। 


सेवा और सत्संग दोनों ही 

तन, मन, धन से किये जाते है। 


सेवा से जुड़ा एक प्रसंग है-

 सच्ची सेवा  

एक बार एक विद्यालय में सच्ची सेवा विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगियों ने सेवा पर शानदार भाषण दिए। 


परिणाम में एक ऐसे छात्र को चुना, 

जो मंच पर आया ही नहीं। 


तब विद्यार्थियों और शिक्षकों ने पूछा कि आखिर ऐसा क्यों किया? 

तब प्राचार्य ने कहा, कि मैं देखना चाहता था कि कौन से छात्र ने सेवा भाव को समझा है। 


इसलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली रख दी थी। किसी ने उस बिल्ली की ओर ध्यान नहीं दिया। 


यह अकेला ऐसा छात्र था जिसने वहां रुककर उस बिल्ली का उपचार किया व उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और इस वजह से वह मंच पर नहीं आ सका। 


यानि सेवा भाव तो आचरण में होना चाहिए। 


सत्संग

यानि कि सत्य का संग यानि कि असत्य से संबंध विच्छेद। यानि कि सत्य गुरु की सत्य वाणी से संबंध और दुराचार/दुष्कर्म से संबंध विच्छेद। 

सत्संग के उपदेश ज्ञान से संबंधित होते हैं

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