जब तक कर्म सही नहीं होंगे - प्रभु कुछ नहीं कर सकते।
सर्वे भवंतु सुखिन:
चाहे लाख निशान लगा ले - भजन भावार्थ -
चाहे लाख निशान लगा ले
कितना भी मुझे मना ले,
ओ मेरे भक्ता, जब तक कर्म सही नहीं होंगे
मैं कुछ नहीं कर सकता।
कहते हैं कि गुरु के साथ रहने से शिष्य का उद्धार हो जाता है।
लेकिन
इतिहास का सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि
श्री आनंद जोकि भगवान बुद्ध के एक सदाचारी, बुद्धिमान, सबसे निकटतम शिष्य थे।
उन को भगवान बुद्ध के सचिव के रूप में चुना गया था और
इसीलिए उन्होंने भगवान बुद्ध के साथ काफी समय व्यतीत किया था ।
कोई अवगुण नहीं था,
ज्ञानी थे,
सदाचारी थे
विषय विकार पाप से रहित थे
इसके बावजूद उन्हें भगवान बुद्ध की मृत्यु तक संबोधी प्राप्त नहीं हुई थी ।
यानी परम सत्य का साक्षात्कार नहीं हुआ था ।
जिसके बिना निर्वाण मुक्ति भी संभव नहीं है और
इसीलिए भगवान बुद्ध ने
उन्हें अंतिम उपदेश दिया था
अपना दीपक स्वयं बनो।
भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद
जब उन्हें संबोधी नहीं मिलने के कारण
साहित्य निर्माण हेतु परिषद में सम्मिलित करने से मना किया गया
तो उन्हें अपनी इस कमी का एहसास हुआ और
उन्होंने 3 दिन और 3 रात तक
अपने कक्ष में बंद रहकर
ध्यान क्रिया के माध्यम से संबोधी प्राप्त की।
यानी के दीपक तैयार था,
बाती, तेल भी था,
सिर्फ चिंगारी बाकी थी ।
गुरु भी उपदेश देते हैं कि
आपको ऐसा करना है
ऐसा नहीं करना है।
गुरु ज्ञान का प्रतीक है और
ज्ञान ही प्रदान करते हैं
ज्ञान के अनुसार ही कर्म करते हैं ।
शिष्य अज्ञान का प्रतीक है
जब तक शिष्य गुरु ज्ञान /गुरुवाणी के अनुरूप
कर्म नहीं करता उसका अज्ञान समाप्त नहीं होता,
वह ऐसे ही रहता है
जैसे ज्ञान रूपी पारस मणि है
लेकिन उसका उपयोग नहीं
गुरु अपने गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान रूपी पारस मणि के उपयोग के कारण
गुरु पद धारण करता है और
गुरु भी यही चाहता है कि
उसके शिष्य भी उसकी तरह बन जाएं और
जैसे वह ज्ञान का प्रकाश फैला रहा है
उसी तरह उसके शिष्य भी ज्ञान का प्रकाश फैलाएं।
जैसे कि एक एक हाथ से ताली नहीं बजती तो
एक तरफ गुरु का ज्ञान है
दूसरी तरफ शिष्य का कर्म
जब तक ज्ञान रूपी हाथ और कर्म रूपी हाथ नहीं मिलेंगे
तब तक ना आत्मदर्शन होगा ना
परमात्मा का दर्शन होगा और
ना ही मुक्ति मिलेगी
सदाचारी होने के बावजूद
गुरुवाणी के अनुसार ध्यान लगाना आवश्यक है
यानी कि गुरु वाणी का पालन उद्धारक है और
उसकी अवज्ञा पतन की अवस्था उत्पन्न करती है।
शिष्यों का आचरण,
उनका व्यवहार ही
उनके गुरु की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है या गिराता है
क्योंकि जहां तक गुरु का प्रश्न है
अधिकतर गुरु ज्ञान ही प्रदान करते हैं
इसलिए गुरु और ईश्वर यही कहते हैं
जब तक कर्म सही नहीं होंगे
मैं कुछ नहीं कर सकता।
चाहे गुरु के पास हो या दूर
परम सत्य के साक्षात्कार के लिए
अपने अंदर स्वयं को प्रवेश करना होगा।
अधिकतर सभी धर्म इस मान्यता से सहमत हैं कि
प्रकृति में बहुत से शरीर हैं
जानवरों के
पक्षियों के
जलचरों के,
परन्तु संसार में सबसे दुर्लभ
सबसे उत्तम शरीर केवल और केवल मनुष्य का शरीर है,
क्योंकि इसके अंदर जो आध्यात्ममिक शक्तियों हैं,
वह किसी अन्य शरीर में नहीं है।
यही वह योनि है जिसमें मानव को अवसर प्राप्त होता है
जन्म-मरण से छुटकारे का दूसरे शब्दों में
सभी दुखों के अन्त का और अन्नत सुख रूपी
स्वर्ग/जन्नत की प्राप्ति का।
एक साधारण मनुष्य अवश्य भेदभाव कर सकता है,
लेकिन वह अदृश्य शक्ति या प्रकृति किसी में भी भेदभाव नहीं करती है,
चाहे मनुष्य उंची जाति का हो या नीच जाति का हो
किसी रंग
किसी नस्ल का हो
सभी शरीरों में आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति का यह भंडार होता है।
जैसे कि
सभी के खून का रंग लाल है।
सभी के अंदर श्वास चल रही है,
सभी के अंदर रक्त दौड रहा है,
जैसे कि
एक शरीर की चीर फाड करने पर
उन सभी में एक से ही अंग,प्रत्यंग मिलते हैं,
उसी तरह वह अदृश्य आध्यात्मिक शक्ति का भंडार भी
सभी के अंदर विद्यमान है। और
इसीलिये ऐसा कोई नहीं जिसे मुक्ति पाने यानि
के सभी सुखों के भंडार की प्राप्ति का अधिकार नहीं हो।
महावीर स्वामीजी, दयानन्दजी दोनों के इस कथन में समानता है कि
हम केवल तीन महिने तक ही
तन-मन से विषय विकार पाप से दूर रहते हुए निष्काम रहते हुए साधना करें
तो सिद्धियां आपको अनायास ही प्राप्त हो जायेंगी,
लेकिन जो इन सिद्धियों में उलझ जाता है और
इनका दुरूपयोग करने लग जाता है,
वह दिव्य सुख/परमानन्द से वंचित हो जाता है।
तो हमारे शरीर के अंदर वह दिव्य सुख/परमानन्द का भंडार भरा हुआ है,
लेकिन हम अंजान होने के कारण
क्षणिक सुखों को ही सच्चा सुख मानकर
जीवन व्यतीत कर देते हैं।
कोई मूलाधार से,
कोई मणिपुरक से,
कोई हृदय/अनाहत चक्र से,
तो कोई आज्ञा चक्र से
अपनी साधना की शुरूआत करते हैं,
लेकिन इसके अनुसार और गुरूनानक जी के अनुसार
स्रहस्त्रार/ब्रहमरंध पर इसका अंत होता है, और वही पर
आलौकिक प्रकाश दिखायी देने अथवा
आलौकिक धुन सुनाई देने अथवा
किसी भी अन्य रूप में उस दिव्य सुख/परमानन्द की अनुभूति होती है।
जब यह शक्ति
जाग्रत होती है तो सब के्न्द्रों में उर्जा और तेज का ऐसा वेग होता है
जैसे गंगा का प्रवाह हो उसका तेज कई सूर्यों की तरह प्रकाशमान होता है और
उसके आभामंडल में तेज की वृद्धि होती है
इसका आधार केवल और केवल
ध्यान के द्वारा साक्षी की तरह मन का ध्यान
रखते हुए मन को वश में करना है,
जो मन को अपने अनुसार चलाता है
किसी बुराई, विकार, पाप के सम्पर्क में नहीं आने देता है,
सत्य को ही ग्रहण करता है
सत्य का ही वितरण करता है
उसे ही उस अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है,
चाहे वह अनूभूति किसी भी रूप में हो लेकिन होती अवश्य है। और
यही ध्यान की चरम अवस्था भी है,
जब साधक उस दिव्य सुख में खो जाता है,
और उसे आदि और अंत सभी का ज्ञान हो जाता है,
ध्यान की चरम अवस्था में ही उसे
सभी लोको का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।
सूर्य उर्जा का सबसे बडा स्रोत्र है, और
यह संसार के समस्त प्राण्यिों
को उर्जा प्रदान करता है,
सुबह उगता हुआ सूर्य
हमारी आंखों के लिये भी अच्छा होता है, और
इसकी सुबह की किरणें
हमारी त्वचा से स्पर्श करती है
तो हमें उर्जा प्रदान करती है
इसलिये प्रात: सूर्य की तरफ मुंह करके
आसान/व्यायाम करना
स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा है।
ज्योति की साधना करने वालों के लिये भी
उगते हुए सूर्य का दर्शन मददगार होता है।
लेकिन मन की शुद्धि के बिना इसका कोई महत्व नहीं।
योग क्या है?
योगश्चित्तवृत्ति निरोध:
चित्त में चल रही वृत्तियों यानि कि
काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, द्वैष, ईर्ष्या व
इन्द्रियों की तृप्ति से संबंधित उठ रहे वृत्ति रूपी विचारों को
मन में आने से रोकना।
हमारे शरीर में स्थित जिस भी केन्द्र का हमने चयन किया है,
केवल और केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करना।
चाहे वह धडकन हो,
चक्र हो,
कहीं भी हो रहा स्पंदन हो,
किसी एक केन्द्र बिन्दू से जुडना ही योग है
चाहे किसी नाम
का सहारा लेकर जुडें अथवा
बिना नाम का सहारा लेकर जुडें।
जैसे कि
विशेष प्रकार के लेंस को एक जगह स्थिर रखने पर
वह ज्वलनशील पदार्थों को जलाना प्रारम्भ कर देता है,
उसी तरह एक ही केन्द्र बिन्दू पर मन को स्थित
कर देना यही उस केन्द्र बिन्दू से मन का योग है।
यानी के सबसे महत्वपूर्ण है
मन की एकाग्रता
शक्तिशाली मन जो कि हमारे
बंधन और मुक्ति का कारण होता है,
पाप और पुण्य का कारण होता है,
निरन्तर अभ्यास करने से इसको
वश में किया जा सकता है।
किसी जीव का दुख दूर करना,
उसे सुख पहुंचाना,
अनासक्त भाव से सब से प्रेम भाव रखना
यही पुण्य है
यही धर्म है और
किसी को पीडा देना
किसीका मन दुखाना
यही अधर्म है
यही पाप है
विशुद्ध प्रेम ही पुण्य है
घृणा ही पाप है
इन्हीं पाप-पुण्यों में भरा हुआ जीव
एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है,
मरता है और फिर जन्म लेता रहता है
यानि के स्वर्ग और नरक
यानि के सुख और दूख दोनों की ही अनुभूति करता रहता है।
वह तत्व (आत्मा/चित्त/विज्ञान का प्रवाह)
जिसका विनाश नहीं होता,
उसे ज्योति कणों की संज्ञा दी गई है।
जब वह शरीर में प्रवेश करता है तो
जन्म होता है, और
जब वह शरीर से बाहर निकलता है
तो वह मरण होता है।
सभी आत्मायें अकेले ही सफर तय करती हैं,
क्योंकि जैसे ही आत्मा शरीर से बाहर निकलती है
शरीर निस्तेज हो जाता है,
शांत हो जाता है, इसलिये आत्मा अकेले ही
अपने कर्मों के अनुसार शरीर में प्रवेश करती है, और
शरीर की अवधि पूर्ण होने पर
उसे उसका त्याग करना ही पडता है।
बिछडने वालों का मोह थोडी दूर तक इसके साथ रहता है।
इसके सफर के दौरान इसके रास्ते में
द्वीपों की तरह कई धरतियां,
कई लोक आते हैं जहां यह जन्म लेती हैं,
जहां जन्म लेकर यह दूसरे जीवों के साथ
मिलती बिछडती हैं,
दोस्ती-दुश्मनी का खेल खेलती हैं
फिर एक दिन वहां का शरीर भी छोडकर
समय की लहरों पर फिर से आगे चल देती हैं,
यह जीव नये नये रूप धारण करता है।
नया जन्म होने तक वह कई नये नये लोकों के बीच
नये नये रूपों में अकेला ही भटकता रहता है,
भ्टकता रहता है
जैसा कि अधिकतर धर्मों में अपने अंदर ही
उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति के लिये कहा है,
जैसे कि गीता में उस ज्योति का प्रकाश
हजारों सुर्यों के बराबर कहा गया है,
इसी तरह अपने अंदर ही दर्शन का अनेक महापुरूषों ने भी वर्णन किया है,
जैसे कि गुरूनानकजी, कबीरजी, सूफी संत राबिया, ईसामसीह, आदि ने अलग-अलग तरह से समझाया है,
उन्होंने ईशारा किया है कि
जब तक आप अपनी आंखों से अपने अंदर यानि के
इस भौतिक संसार की तरफ से अपनी आंखें हटाकर
स्वयं के अंदर उस ज्योति,
उस आनन्द की अनुभूति नहीं करेंगे तब तक कल्याण नहीं होगा, मुक्ति नहीं होगी।
जैसा कि सिख धर्म में प्रकाश पर्व मनाया जाता है,
इसाईयों में भी प्रकाश के द्वारा पर्व मनाया जाता है,
ईसामसीह ने कहा कि द्वार खटखटाओ तुम्हारे
लिये खोला जायेगा,
यानि शुभ सत्कर्म करते हुए
अपनी आंखों से अपने अंदर देखने का प्रयास करो।
सुफी संत राबिया ने कहा कि हसन बाहर क्या देखता है अंदर देख।
कबीर जी ने कहा है कि सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देखा माही।
राधास्वामी मत में कहा गया है कि अगर अपने अंदर उसका साक्षात्कार नहीं किया तो नंगा आया और नंगा ही चला गया,
यानि की कंगाल आया और कंगला ही चला गया
यानि के उसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।
किसी सौभाग्यशाली को छोड़कर
प्रारम्भ में अधिकतर सभी को अपने अंदर अंधेरा ही दिखता है,
कुछ कृत्रिम लाईट के द्वारा और
कुछ उस अदृश्य शक्ति की कृपा से
उस दरवाजे के निकट पहुंचते हैं
यानि के उन्हें प्रकाश दिखने लगता है
तो वह उस द्वार पर ही अटक जाते हैं, और
आगे नहीं बढ़ पाते हैं।
जो आगे बढ़ता है उसे ही
उस दिव्य ज्योति के माध्यम से
दिव्य सुख/परमानन्द की अनुभूति होने लगती है।
इसीलिये इस भजन की शुरूआत में ही कहा है कि अंतर घट उजियारा कर दो।
शिव का अर्थ होता है कल्याण कारी अर्थात् कल्याण करने वाला।
वह अदृश्यव शक्ति कितनी महान है, जिसके ध्यान में स्वयं शिवजी बैठे हुए
हैं। इस संसार में कोई भी उसके समान शक्ति शाली नहीं वह सबसे शक्तिशाली
है। संसार में ऐसा कोई नहीं जो सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी आदि सभी ग्रहों उपग्रहों को हवा में रोक सके। सब कुछ उसी अदृश्य शक्ति पर आधारित है, इसलिये उसे सर्वाधार कहा गया है। वह सबके प्राणों का पति है तभी तो
एक समय में पता नहीं कितनों को प्राण-श्वास प्रदान करता है और पता नहीं कितनों की श्वासों को रोक देता है। वेद और गीता में इसीलिये उसे सर्वव्यापक कहा गया है और यानि इतने बडे ब्रहमाण्ड में व्याप्त को कोई आकार, आकृति, रुप, शक्ल कैसे दी जा सकती है। यानि के ऐसा कोई स्थान नहीं जहां उसकी शक्ति उपस्थित नहीं हो।
एक दीपक जलाने के लिये भी किसी की आवश्यकता पडती है, एक लट्टू को घूमाने में भी किसी की आवश्यकता पडती है, तो सूर्य में विद्यमान अग्नि का कारण भी वही है और सभी ग्रह-उपग्रहों को गतिमान/चलायमान करने वाला भी वही है। प्रकाश का स्रोत कोई है तो वह अदृश्यत शक्ति ही है, लेकिन वह निर्लेप अवस्था में है, जैसे सूर्य का प्रकाश सर्वत्र विद्यमान है, लेकिन सूर्य किसी से लिपटा हुआ नहीं है, उसी तरह वह सर्वत्र विद्यमान है। वह प्रकट होता है शुद्ध/मल रहित मन स्थिति होने पर। वह अविनाशी है उसका कोई विनाश
नहीं कर सकता है, इस संसार में विद्यमान सभी शरीरधारी/पदार्थ नश्वर हैं यानि के एक ना एक दिन नष्ट होने वाले हैं। वेद/गीता में इसीलिये उसे अजन्मा कहा गया है। वेद/गीता, गुरूनानक जी ने और अन्य कुछ धर्मों में उसे जन्म.मृत्यु से परे बताया है यानि के अविनाशी बताया है, आज इस संसार में कोई भी ऐसा शरीरधारी विद्यमान नहीं जिसे हम अमर कह सके यानि केजितने भी योगेश्वर, महायोगी, महापुरूष इस संसार में आये हैं और इस संसार
से विदा हुए हैं उन्हें, अदृश्य् शक्ति नहीं माना जा सकता है, हां उन्हें उस अदृश्य शक्ति का सर्वाधिक प्रिय / सर्वाधिक निकटस्थ अवश्य कहा जा सकता है। तो वह ज्योति/प्रकाश का स्रोत, ज्ञान का स्रोत, आनन्द का स्रोत, शांति का स्रोत और भी उसके गुण् के अनुसार उसे पुकारा जा सकता है। तो मुख्य यह चार ही हैं जो किसी भी मनुष्य में साधना के बाद अवतरित होते हैं, शेष गुण तो इनके साथ स्वत ही आ जाते हैं।
अब कुछ लोग ईश्वर को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं, कुछ लोग श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी, विष्णुजी, ब्रहमा आदि को ही ईश्वर मानते हैं, तो कुछ लोग गुरू को ही ईश्वर मानते हैं।
तो सभी से निवेदन कि आप कुछ भी मानते हैं या नहीं मानते हैं, लेकिन यदि उक्त चारों तरह के लोग साधना करेंगे, यानि ध्यान करेंगे, तो उन्हें चाहे ज्योति के दर्शन नहीं हो, लेकिन शांति, ज्ञान, आनंद की अनुभूति तो अवश्य ही होगी। ज्योति की साधना ईश्वर में विश्वास रखने वाले करते हैं। जैसा कि गीता में लिखा हुआ है कि उस परम शक्ति का प्रकाश हजारों सूर्य के प्रकाश के बराबर है और वह जलाने वाला नहीं अपितू शीतलता प्रदान करने वाला है। जो इस प्रकाश को देख लेता है तो ऐसा कुछ नहीं जो उसे प्राप्त नहीं होता, उसे ज्ञान, शांति, आनंद सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
लेख बडा नहीं हो इसलिये इसके विस्तार में नहीं जाते हुए अब पुन: इस भजन
पर लौट आते हैं।
इस भजन में शिव भक्तिनी को उस प्रकश का ही इंतजार है, वह प्रार्थना कर रही है कि है मेरे स्वामिन, मेरे मालिक, मेरे दाता, मेरे प्रभू, मेरे परमेश्वर मुझे इस संसार व इसमें विद्यमान पदार्थों की कोई कामना नहीं कोई चाह नहीं किसी भी तरह की आशा नहीं, केवल एक ही आशा है, एक ही कामना है, एक ही चाह है कि अपनी दिव्य ज्योति के द्वारा मेरे अंदर जो अंधियारा है, उसे मिटा दो अंतरयामी, उसे हटा दो मेरे स्वामी।
कामना - कौनसा धर्म है जो कामनाओं के बंधन से मुक्त होने का उपदेश नहीं
देता, लेकिन इस संसार के 99.99 प्रतिशत लोग बचपन से लेकर युवा होने तक और फिर अंतिम श्वास तक कामनाओं के बंधन में बंधे रहते हैं। और यही कामनायें उन्हें ना तो अंदर प्रवेश करने देती है और ना ही मुक्ति का अधिकारी बनने देती है।
अतः कबीर जी की तरह सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाये मैं भी भूख ना
रहूं साधू ना भूखा जाये। ऐसा अभ्यास करते हुए इस तरह की भक्ति मैं मन को
लगाना चाहिये कि -
मुझे तरी ही ज्योति की आकांक्षा है, तेरी ज्योति के दर्शन की ही लगन है और तरे दर्शन की तेरी अनूभूति की आकांक्षा में ही शुभ निष्काम कर रहा/रही हू। सत्कर्म कर रहा/रही हूं। क्योंकि जो सत्कार्मी है, जिसके मन में दया, धर्म, सत्य, अंहिसा, अस्तेय, ब्रहमचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वायध्याय, ईश्वर प्राणिधान समाहित है ऐसे मन वाले को ही तो तू दर्शन देता है और मैं ऐसे मन वाली या मन वाला बनने के लिये प्रयासरत हूं।
आकांक्षा - कामना का ही पर्यायवाची है, अधिकतर लोगों का मन गुरू के उपदेश को ताक पर रखकर इस संसार में विद्यमान पदार्थ/षक्लों की आकांक्षा में ही उलझा रहता है। अधिकतर लोग वृद्ध होने पर भी इन आकांक्षाओं की लालसा में अंतिम स्वांस तक लगे रहते हैं। जो कबीरजी व अन्य महापुरूषों की तरह आकांक्षाओं को ताक पर रखकर उसकी प्यास से व्याकुल होते हैं, उनके हर एक अंग प्रत्यंग से यही शब्द निकलते हैं कि -
तुझ से मिलने के लिये व्याकुल हूं, तेरे दर्शन को यह मेरी आंखें तरस रही है, व्याकुल हो रही है, केवल एक बार आप अपनी ज्योति का दर्शन मूझे दे दो तो मेरे अंदर का सार अंधकार समाप्त हो जाये, मेरे अंदर का सारा अज्ञान समाप्त हो, जाये, मेरी अशांति समाप्त हो जाये, मेरी व्याकुलता समाप्त हो जाये। जैसे कि कोई तीन चार दिन से भूखा हो तो उसकी व्याकुलता भोजन के लिये बढ जाती है और यदि उसे खाने के लिये सूखी रोटी भी दी जाये तो वह उसे भी बिना कोई ना नुकर किये शांति के साथ ग्रहण कर अपनी शुधा शांत कर लेता है। तो मुझे भी आपकी केवल एक झलक की प्रतीक्षा है, आपकी एक झलक ही मेरी जन्म.जन्मांतरों की प्यास बुझा देगी। है मेरे परमेश्व।र इस संसार में एक आप ही तो सबसे बडे दाता हैं जो सबको केवल देने का ही काम करते हैं, बदले में कुछ मांगते नहीं, और आपको मांगने की आवश्यकता भी क्यों होगी, क्योंकि जो आपका दर्शन कर लेता/लेती है, आपके आनन्द के सागर की एक बूंद भी पा जाता/जाती है, तो उसे इस पांच तत्व से निर्मित शरीर से मुक्ति मिल जाती है, और उस आत्म तत्व् को ना कुछ खाने की आवश्यकता है, ना पीने की। तो इसी तरह आपको ना कुछ खाने के लिये चाहिये, ना कुछ पीने के लिये चाहिये आप ही तो सबको खिला रहेहैं, आप ही तो सबको पिला रहे हैं।
है मेरे अनुपम दाता मेरी कामना पूरी करो, और आप अंतरयामी है तो आपको तो पता ही है कि मुझे आपके दर्शन के अतिरिक्तै और कुछ नहीं चाहिये। है मेरे प्रभू मेरे तो सर्वस्व ही केवल और केवल आप ही हैं क्यों कि आप के अतिरिक्तत कोई ऐसा नहीं जो या तो मुझ से संबंध तोड कर मुझ से जुदा हो जायेगा, या फिर मैं जिस समय इस संसार से विदा होउंगा तो उनसे मेरा रिश्ता.नाता समाप्त हो जायेगा, धन.दौलत, जागीर, पति/पत्नी, पुत्र/पुत्री, पौत्र/पौत्री, मां.पिता, भाई.बहिन, मित्र.शत्रु, महल, चौबारे सब छूट जायेंगे। तेरा साथ ही केवल सच्चा साथ है, और जो तेरा दर्शन कर लेता है वह तेरा साथ सदा.सदा के लिये प्राप्त कर लेता है। है मेरे स्वामी, मेरे अंतरयामी मेरे तो सर्वस्व केवल और केवल आप ही हैं, आपके अतिरिक्त कोई नहीं, यानि के तुम बिन और ना दूजा आस करूं में जिसकी। केवल आप ही हैं जो आशा के योग्य हैं, आप ही हैं जिनसे मिलने पर सब कुछ मिल जाता है, यानि के पाना था जो पा लिया, अब कुछ पाना शेष नहीं है। है मेरे स्वामी सच्चे मन से तुम्हें पुकार रही/रहा हूं। जब तक तुम दर्शन नहीं दोगे मेरे मन का अंधकार दूर नहीं होगा और यह वियोग रूपी अंधकार बना रहेगा। यह अंधकार असहनीय है स्वामी। आपसे प्रार्थना है, निवेदन है, विनय है, अनुनय है कि मेरा धैर्य नहीं टूटने देना स्वांमी मैं अंतिम श्वास तक आपके दर्शन के लिये प्रतीक्षारत रहूंगा/रहूंगी और मेरी तो ,एक ही कामना है तेरे दर्शन की और ध्यान के दौरान तेरे दर्शन के लिये केवल और केवल तेरी ही पुकार है, मेरी हर धडकन, हर नस, हर नाडी, मेरी हर एक श्वास मेरा हर एक अंग केवल और केवल तेरी ही पुकार करता है, केवल तेरा ही नाम स्मरण करता है। जैसे कि रामतीर्थ जी से यदि कोई पूछता कि क्या बज रहा है, तो वह कहते थे कि एक। किसी ने उनसे पूछा कि आपने ऐसी कौनसी घडी पहन रखी है, जिसमें हर समय एक ही बजता रहता है। उन्होंने उत्तर दिया कि एक इस पूरी दुनिया में तो मूझे लगता है कि भगवान ही एक बज रहा है, बाकी तो कोई बज ही नहीं रहा बाकी तो कुछ बज ही नहीं रहा है, उसका संगीत बज रहा है, उसका ही नाम बज रहा है, और कुछ सुनाई नहीं दे रहा है, क्यों कि तुम बजने की बात पूछते हो, तो बजने में तो भगवान का नाम ही बज रहा है।
अंत में यही प्रार्थना है मेरे स्वामी, मेरे अंतरयामी बस अब और प्रतीक्षा नहीं करवाओ अपना दर्शन मुझे दे दो। तेरे दर्शन की जो शर्त है यानि के विषय.विकार व पाप से रहित होना तो मैंने अपने अंतर मन से विषय.विकार व पाप रूपी गंदगी को निर्वासित कर दिया है, और आपके स्वागत के लिये निष्काम सत्कर्मों की कालीन बिछा दी है। मुझे केवल और केवल आपके दीदार की कामना है, मेरी यह कामना पूरी करें भगवन, पूरी करें।
सबका भला हो
यदि कोई भजन पढना चाहे तो भजन के बोल इस प्रकार है-
मेरे स्वामी अंतरयामी तुम से आस लगायी है, अंतरघट उजियारा कर दो, मिलन
की ज्योत जगायी है। तुमरे दर्श को नैना तरसे व्याकुल है मन मेरा एक छवि दिखला दो तुम तो दूर हो घोर अंधेरा, सत्यम शिवम सुन्दरम तुम हो, विनती करूं मैं तुम से स्वामी तुम से सब कुछ मांगू तुम हो दाता तुम ही विधाता दे दो जो मैं चाहूं तुम शिव हो मैं शिवा तुम्हारी अब कयों देर लगायी है। इस वियोग के अंधियारे से मुझको आन बचाओ। टूट ना जाये धीरज मन का दर्शन देने आओ, आज चरण रज दे दो मुझको काहे देर लगायी है।सुप्रभात
......1......
कृपया आप आस्तिक हो या नास्तिक जो भी आपके गुरू की वाणी के अनुरूप
हो ग्रहण करें।
मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि हमें कहीं से भी सत्य उपदेश मिले और जिसे भी हम मानते हैं उसकी वाणी के अनुरूप हो तो उसे ग्रहण करना चाहिये ।
मेरा उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार करना नहीं अपितु सत्य का प्रचार करना है। ग्रंथों के अंदर सार और असार दोनों ही हैं । जैसे कि संसार में अधिकतर नींबू के रस का उपयोग किया जाता है शेष भाग फेंक दिया जाता है ।
तो इसी तरह अधिकतर सभी ग्रंथों में असार और सार दोनों होते हैं । जो जाग्रत अवस्था में रहते हैं वे सार चुनते हैं और जो निद्रा में जीवन बिताते हैं वह असार को चुनते हैं ।
यदि कोई भी भाई चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष 8 दर्शनों का अध्ययन करे तो
वह पायेगा कि चाहे आस्तिक हो या नास्तिक मन को वश में करना तो परमवाश्यक
है। जो मन को वश में करना अनिवार्य नहीं मानता हो तो वह चाहे आस्तिक हो
या नास्तिक उससे बडा नादान कोई नहीं। गुरुवाणी के अनुसार मन को वश में करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना ही सार है।
यह परम सत्य है कि मन के जीते जीत है मन के हारे हार
शिव व गणेश का संवाद
इस संसार में गुरू को सबसे बडा माना गया है, लेकिन वास्तव में यदि देखा
जाये तो गुरू की भी जननी एक मां ही होती है, गुरू का जनक भी एक पिता होता
है। यदि मां नहीं तो ना ही कोई पिता और ना ही कोई गुरू। और यदि पिता नहीं
तो फिर गुरू भी नहीं। इसीलिये गुरू भी यह उपदेश देता है कि मां-पिता को
उनके उपकारों को सदैव याद रखना। किसी को भी दुख नहीं पहुंचाना। तो जो कोई
भी अपने माता पिता को दुख पहुंचाता है तो वह किसी भी गुरू को नहीं मानता
है, ऐसे व्यक्ति ही निगुरे होते हैं यानि के ऐसे व्यक्ति गुरू होते
हुए भी बिना गुरू के हो जाते हैं, गुरू की दृष्टि में मरणशील हो जाते
हैं। और ऐसे व्यक्तियों को कोई गुरू अपना शिष्य नहीं मानता, ऐसे
व्यक्ति से गुरू का नाता/बंधन टूट जाता है।
मां - एक संतान के लिये यदि कोई सबसे ज्यादा दर्द सहन करता है, सबसे
ज्यादा संतान की सार सम्भाल करता है तो वह होती है मां। यदि मां नहीं
तो फिर कोई पिता भी कैसे बन सकता है और यदि मां नहीं तो फिर कोई किसी
शिष्य का गुरू भी नहीं बन सकता है। जन्म के बाद मां ही सबसे अधिक
संतान के साथ समय व्यतीत करती है, वही संतान को चलना सीखाती है, बोलना
सीखाती हे, ,खाना सीखाती है, उसकी रक्षक होती है, उसका पालन करती है। मां
प्रथम गुरू होने व गुरू की भी जननी होने के कारण उसका स्थान सर्वोपरि
कहा गया है।
एक बहू भी यही सोचती है कि मैं जितना प्रेम अपने पुत्र से करती हूं उतना
प्रेम यह सास मेरे पति से नहीं करती है। इसी तरह से अधिकतर मां यही सोचती
है कि मेरा पुत्र मुझे बहुत चाहता है, लेकिन उसका यह भ्रम तब टूट जाता है
जब उसके पुत्र का विवाह हो जाता है और वह बहू से सास बन जाती है तब उसे
अहसास होता है कि मैं अपने पुत्र को सबसे अधिक चाहती थी और यह पुत्र भी
मुझे मेरा लगता था, लेकिन अब लगता है कि यह मेरा नहीं अपनी पत्नी का हो
गया है, अब इसकी पत्नी ही इसके लिये सब कुछ है।
एक बहू यह भूल जाती है कि वह भी किसी की मां है और जैसी सेवा की अपेक्षा
वह अपने पुत्र से करती है, वैसा ही व्यवहार उसे अपनी सास के साथ करना
चाहिये और यदि उसका पति राह से भटका हुआ है तो उसे भी समझाना चाहिये कि
यदि हम अपनी मां के साथ गलत व्यवहार करेंगे, उसकी सार सम्हाल नहीं
करेंगे, तो हमारी संतान भी हमारे साथ गलत व्यवहार करेगी और वृद्धावस्था
में हमारी सार सम्हाल नहीं करेगी। दुख और सुख का कारण हमारे कर्म हमारा
व्यवहार ही है, जैसा हम व्यवहार करेंगे तो चाहे वैसा ही व्यवहार हमारे
साथ हो या नहीं लेकिन सद्व्यवहार के लिये सुख व दुर्व्यवहार के लिये
दुख भोगने से हमें कोई नहीं बचा सकता।
...............2..................सुप्रभात
......2.....
कृपया आप आस्तिक हो या नास्तिक जो भी आपके गुरू की वाणी के अनुरूप
हो ग्रहण करें।
यदि कोई भी भाई चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष 8 दर्शनों का अध्ययन करे तो
वह पायेगा कि चाहे आस्तिक हो या नास्तिक मन को वश में करना तो परमवाश्यक
है। जो मन को वश में करना अनिवार्य नहीं मानता हो तो वह चाहे आस्तिक हो
या नास्तिक उससे बडा नादान कोई नहीं।
यह परम सत्य है कि मन के जीते जीत है मन के हारे हार
पिता – यदि पिता नहीं हो तो एक संतान के जीवन में अभाव ही अभाव नजर आता
है, इस अभाव के कारण कई बच्च्ो अल्पावस्था में ही दुनिया से विदा हो
जाते हैं। अधिकतर पिता संतान के उत्पन्न होने से लेकर उसके युवा होने
तक उसके भविष्य के लिये प्रयासरत रहते हैं। अधिकतर पिता अपने पिता को
महत्वहीन समझते हैं और अहंकार से वशीभूत होने के कारण स्वयं को अपने
पिता से श्रेष्ठ समझते हैं। जबकि सत्यता तो यह है कि अधिकतर हर पिता
उसकी संतान के भविष्य के लिये चिंतित रहता है, लेकिन जब वह संतान युवा
हो जाती है और फिर विवाहोपरांत जब उसकी संतान होती है तो वह अपने पिता को
महत्वहीन मान लेती है और वह संतान केवल यही सोचती है कि मेरा पिता मुझे
उतना नहीं चाहता था, मेरी उतनी सार सम्हाल नहीं करता था जितना कि मैं
अपनी संतान को चाहता हूं उसकी सार सम्हाल करता हूं। संसार के अधिकतर सभी
पिता और पुत्र ऐसा ही सोचते रहते हैं और यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
जिसका मन शुद्ध होता है वही श्रवण कुमार जेसा बन जाता है।
जैसे कि एक कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि एक पिता अपने पुत्र को अपने
प्राणों से भी अधिक चाहता था, उसके भविष्य के लिये उसने अपनी बहुत सी
सम्पत्ति बेच दी और पुत्र का भविष्य उज्जवल बनाने में एक अहम साधन की
भूमिका का निर्वाह किया। लेकिन वही पुत्र अपनी पत्नी की बातों में आकर
अपने पिता की खांसी की बीमारी से परेशान होकर उसे जिंदा ही जमीन में दफन
करने के लिये तैयार हो गया और उसे इलाज के बहाने से दफन करने के लिये
निकल पडा, लेकिन पौता उनकी इस योजना से वाकिफ हो गया था और वह भी नहीं
माना और जिद करके पिता के साथ चला। पुत्र ने सुनसान जगह पहुंच कर कब्र
खोदी पौते ने भी पास में ही एक कब्र खोदना शुरू कर दी। पिता ने पुछा
क्या कर रहे हो। पुत्र ने कहा जब आप भी दादाजी की तरह खांसने लग जाओगे
तब यह कब्र आपको जीवित दफन करने में काम में आयेगी। पिता को अपनी गलती
का एहसास हुआ और वह अपने पुत्र व पिता के साथ वापस घर आ गया ।
....................3.......................सुप्रभात
भाग 3
कृपया आप आस्तिक हो या नास्तिक पढें जो भी आपके गुरू की वाणी के अनुरूप
हो ग्रहण करें।
यदि कोई भी भाई चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष 8 दर्शनों का अध्ययन करे तो
वह पायेगा कि चाहे आस्तिक हो या नास्तिक मन को वश में करना तो परमवाश्यक
है। जो मन को वश में करना अनिवार्य नहीं मानता हो तो वह चाहे आस्तिक हो
या नास्तिक उससे बडा नादान कोई नहीं।
यह परम सत्य है कि मन के जीते जीत है मन के हारे हार
वह अदृश्य शक्ति तो एक ही है
वेद कहता है वह एक ही है- सबका पिता, सबका स्वामी, सबका मालिक।
गुरु नानक जी और साईं बाबा कहते हैं सबका मालिक एक
जो दृश्य मान धर्ममय कर्म पथ है वह तो लगभग सभी का एक है
मतभेद है तो जो अदृश्य है उसको लेकर है
यदि दृश्य मान के अनुसार सभी धर्म मतवाले कर्म करें तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाए
लेकिन इस संसार के लोग व्यर्थ की बातों में उलझे हुए हैं
जैसा कि भगवान बुद्ध ने समझाया है कि यदि किसी को तीर लग जाए तो सबसे पहले क्या करना चाहिए ? तो इससे सभी सहमत होंगे की
सबसे पहले तीर निकालना चाहिए
और तुरंत उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
यह विश्लेषण नहीं करना चाहिए कि
तीर कहां से आया?
तीर किसने चलाया?
तीर क्यों चलाया?
इसी तरह दुनिया के लोग गुरु की शरण में जाने के बावजूद भी,
यानी के गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद भी,
सिद्धांतों को याद करने के बावजूद भी,
अधिकतर लोग सिद्धांतों में ही उलझे रहते हैं
उस तीर को निकालने की कोशिश नहीं करते
जिसे निकालने के लिए ज्ञान दिया गया था ।
जैसा कि धर्म पथ दो भागों में बटा हुआ है
एक ज्ञान
दूसरा उसके अनुसार आचरण यानी कि
ज्ञान और कर्म
ज्ञान तो गुरु या ग्रंथ या किसी अन्य माध्यम से प्राप्त हो सकता है ।
जिसमें ज्ञान सिद्धांत के रूप में रहता है ।
दूसरा कर्म ।
जिसका पालन ज्ञान अर्जन करने वाले या सिद्धांत सीखने वाले शिष्य को करना होता है ।
जैसे कि अपने शरीर की गंदगी और सफाई स्वयं को ही करनी होती हैं
पेट की सुधा भी स्वयं को ही शांत करनी होती है कोई दूसरा नहीं कर सकता
उसी तरह ज्ञान के अनुरूप कर्म भी शिष्य को ही करने होंगे
गुरु किसी शिष्य के लिए कर्म नहीं कर सकता। सबके भले की कामना अवश्य कर सकते हैं।
गुरु का कार्य सिद्धांत सिखाने के बाद समाप्त हो जाता है।
इतिहास साक्षी है कि किसी अपवाद को छोड़कर कोई शिष्य ऐसा नहीं जो मृत्यु होने तक गुरु के साथ रहे ।
मृत्यु होने पर गुरु और शिष्य को अलग होना ही होता है ।
कभी शिष्य पहले अलग हो जाता है।
कभी गुरु पहले अलग हो जाता है ।
और यदि गुरु साथ में रहता है
तो भी कर्म का पालन तो शिष्य को ही करना होगा ।
गुरु के कर्म अपने साथ हैं,
शिष्य के कर्म अपने साथ।
वह तीर और कुछ नहीं इंद्रियों के भोगों की तृप्ति के लिए
विषय, विकार व पाप से ग्रसित कर्म ही है।
जिन्हें निकालने के लिए
यानि विषय विकार व पापमय कर्मों से मुक्त होने के लिए
अधिकतर लोग कोई प्रयास नहीं करते ।
वह उपचार/औषध मय कर्म है-
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणीधान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
जो इस तीर को निकाल कर बाहर फेंकने में मदद करते हैं
और इनकी पालना करने पर जीवन सुधार देते हैं ।
यह कर्म निष्काम होंगे तो मुक्ति होगी
परमधाम/ सचखंड /सच्चा दरबार / ब्रह्मलोक / सिद्धशिला / पवित्र पर्वत/ सतलोक आदि में प्रवेश हो सकेगा
अन्यथा कामना युक्त होने पर भी कम से कम अगला जन्म अवश्य सुधरेगा, सुख मय होगा।
और यदि सभी धर्म के लोग
जिस तरह से यह कॉमन/ समान बात कि
सबका पिता एक है।
उसी तरह से यदि सभी धर्मों में विद्यमान कॉमन /समान ज्ञान को अपने आचरण में ले।
यानी के सामन ज्ञान के अनुसार कर्म करें
तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाए।
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुख भाग भवेत
🌸रामनवमी पर विशेष🌸
धर्म का संदेश है कि
हम केवल अच्छाई का ही ग्रहण करें
चाहे वह राम में हो
या रावण में और
बुराई का त्याग करें
चाहे वह किसी में भी हो ।
वीर तो वही है जो अच्छाई का ग्रहण करता है ।
नीचे गिरने के लिए शक्ति की आवश्यकता नहीं
पर उठने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है।
देवदत्त की तरह बनना आसान है
लेकिन भगवान बुद्ध जैसा बनना बहुत मुश्किल काम है।
राम लक्ष्मण भरत की तरह ऐश्वर्य का त्याग करना मुश्किल है ।
दुर्योधन की तरह दूसरों के हक का सब कुछ हड़पने का प्रयास करना आसान है।
आज भारत में मत मतांतरों की कमी नहीं है,
एक बाढ सी आई हुई हैं,
लेकिन सबसे महत्वपूण जो बाते हैं,
उन्हें दबा दिया जाता है, और
जो बातें महत्वपूर्ण नहीं है,
उनका ही प्रचार किया जाता है।
दान बहुत बडे पुण्य का कारण बनता है,
लेकिन इसी दान के कारण ही
आज मत-मतांतरों की लाईनें लगी हुई हैं,
यदि केवल और केवल जरूरतमंदों/अपाहिजों/बेसाहरों की ही मदद की जाये तो
जिन्होंने इसे दुकान की तरह चला रखा है,
उनकी दुकान बंद हो जाये।
क्योंकि अधिकतर सभी दान करने का उपदेश करते हैं,
लेकिन उनमें से जो स्वार्थी होते हैं
वे दान का कुछ थोडा सा भाग परहित में लगाते हैं और
शेष अपने खजाने में जमा कर देते हैं और
इसी दान के बदले में वे लगभग सभी भोगों को भोगते हैं,
जिनके त्याग का वे उपदेश करते हैं।
दान सुपात्र को ही देना चाहिये।
हम चाहे अदृश्य शक्ति/ईश्वर को मानते हो या नहीं मानते हो,
हम चाहे किसी व्यक्ति विशेष को ही अथवा
ब्रहमा, विष्णु, शिव, दुर्गा आदि को ही ईश्वर मानते हों।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही है है कि
जो विरक्त महापुरूषों की समान वाणी है,
उसे हम अपने जीवन में स्थान दें
तो यही सबसे बडा कर्म है,
यही असली भक्ति है,
यही असली श्रद्धा है।
अब अधिकतर लोग उस बुद्धिहीन छात्र की तरह
गुरू/ईश्वर के नाम को रटते रहते हैं,
लेकिन गुरू/ईश्वर ने जो पाठ पढाया है,
उसे याद ही नहीं करना चाहते हैं,
जबकि उनका पढाया हुआ पाठ तो ऐसे याद होना चाहिये कि परीक्षा
का समय आने पर कलम बिना रूके सही उत्तर लिखती रहे, और
सफलता उनके कदमों में आ जाये।
हम हर कर्म करने से पहले उस कर्म को
उनकी वाणी की तुला में तोलने के पश्चात ही अंजाम दें।
जैसे कि नींबू की शिकंजी बनाने वाला,
रस निकालने के पश्चात् छिलका फेंक देता है तथा
हम किसी भी खाद्य सामग्री को साफ करते समय
कंकड, पत्थर व व्यर्थ सामग्री को फेंक देते हैं।
उसी तरह हमें कोई सा भी ग्रंथ हो उसमें यदि कोई बात त्याज्य है
तो हम ग्रहण नहीं करें,
लेकिन यदि ग्रहणीय है तो अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिये।
अब प्रश्न उठता है कि कैसे
पता चले कि क्या ग्रहण योग्य है और क्या त्याज्य।
तो जिस कर्मफल सिद्धांत को
सारा संसार मानता है,
उसे हम कभी नहीं त्यागें।
हम हंस की तरह केवल शुद्ध का ग्रहण करें
गुरू वशिष्ठ का राम, भरत, लक्ष्मण आदि के साथ वार्तालाप इस प्रकार है-
- प्रकृति में बहुत से शरीर हैं
जानवरों के पक्षियों के जलचरों के,
परन्तु संसार में सबसे दुर्लभ सबसे उत्तम शरीर
मनुष्य शरीर है,
क्योंकि इसके अंदर वो आध्यात्ममिक शक्तियों हैं,
जो किसी दूसरे शरीर में नहीं,
आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति का यह भंडार
हर मनुष्य में होता है चाहे वो शरीर उंची जाति का हो या नीच जाति का हो
किसी रंग
किसी नस्ल का हो प्रकृति उसमें भेदभाव नहीं करती
इसलिये मानव शरीर को मुक्ति का द्वार कहा जाता है
शरीर के मुख्य के्न्द्रों में
निरंतर इस शक्ति का स्पंदन होता रहता है,
जब तक उसे जगा कर अपने काबू में न किया जाये,
उसका कोई फायदा नहीं वो बेकार चीज है।
वेसे ही जैसे किसी कंजूस के घर भंडार तो भरे हों और वो भूखा बैठा रहे।
हर मानव शरीर में इस शक्ति के 7 केन्द्र होते हैं जो
योगाभ्यास द्वारा जाग्रत किये जा सकते हैं,
मैं अपने शरीर में तुम्हें यह सातों चक्र दिखाता हूं।
यह देखो सबसे पहला है
मूलाधार चक्र यह इस शक्ति का निवास स्थान है
यहां जिस रूप में यह शक्ति निवास करती है,
उसे कुंडलिनी कहते हैं।
गुरू की कृपा और सहायता से
इसको जगाकर यहां से दूसरे केन्द्र तक पहुंचाया जाता है,
जिसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं,
फिर स्वाधिष्ठान चक्र को भेद कर
जब यह शक्ति आगे बढती है, तो
तीसरे केन्द्र पर पहुंचती हे,
जिसे मणिपुरक चक्र कहते हैं,
फिर मणिपुरक चक्र का भेदन करके
इस शक्ति को आगे बढाकर
चौथे केन्द्र पर पहुंचना होता है
इसे अनाहत चक्र कहते है।
यहां से विशुद्ध चक्र और
फिर यह शक्ति आज्ञा चक्र को जाग्रत करती है।
आज्ञा चक्र श्वेत वर्ण और भृकुटि के मध्य में
दो पंखुडियों के बीच स्थित होता है
उसका बीज मंत्र है ओ३म
यदि इस परम
शक्ति का दुरूपयोग किया जाये या
इसमें कोइ्र भूल की जाये तो यही शक्ति
बेकाबू हो जाती हे,
जिससे साधक भटक जाता है और
भटका हुआ साधक खतरनाक होता है,
वो इस शक्ति से दूसरों का विनाश कर सकता है, और
अंत में यही शक्ति उसका विनाश कर देती है।
इसलिये यह आवश्यक है कि
गुरू कि आज्ञा और सहायता के बिना
यह अभ्यास नहीं किया जाये।
जब यह शक्ति जाग्रत होती है
तो सब के्न्द्रों में उर्जा और तेज का ऐसा वेग होता है
जैसे गंगा का प्रवाह हो
उसका तेज कई सूर्यों की तरह प्रकाशमान होता है
कुडलिनी जब आगे बढती है
तो साधक को चेतना की अलग-अलग परतों का अनुभव होता है
यहां तक कि जब वह छठे चक्र का भेदन करके
सह्रस्त्रारतक पहुंचती है
तो योगी पूर्ण समाधि में लीन हो जाता है.
जहां रोशनी ही रोशनी है,
प्रकाश ही प्रकाश है
वहां पहुंचकर
एक अलौकिकआनंद की अनुभूति होती हे,
जहां मानव की चेतना आदि और अंत की सीमाओं को पार कर जाती है
वो परम चेतना की परिसीमा है
जहां तीनों काल और
समस्त लोक उसके सामने प्रकाशित हो जाते हैं
सूर्य वंदना वैज्ञानिक भी है आध्यात्मिक भी
सूर्यादय के समय सूर्य की ओर मुंह करके वंदना करने से
शरीर स्वस्थ होता है।
मन में प्रकाश होता है। और
जीव के अंदर उर्जा बढती है
यही समय योग साध्ना के लिये भी उत्तम होता है।
योग क्या है?
योगश्चित्तवृत्ति निरोध
मन की सारी वृत्तियों को रोककर एक ही केन्द्र पर
मन का ध्यान लगाने को योग कहते हैं
योग से मन काबू में आ जाये
तो सारी सिद्धियां मिल जाती हैं।
मन ही इस संसार में सबसे शक्तिशाली है।
वही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण होता है
वही पाप और पुण्य का कर्ता है
पुण्य क्या है? पाप क्या है? गुरूदेव।
किसी जीव का दुख दूर करना,
उसे सुख पहुंचाना,उससे प्रेम करना यही पुण्य है यही धर्म है और
किसी को पीडा देना
किसी का मन दुखाना
यही अधर्म है यही पाप है
प्रेम ही पुण्य है
घृणा ही पाप है
इन्हीं पाप
पुण्यों में भरा हुआ जीव
एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है,
मरता है और फिर जन्म लेता रहता है
यह जन्म लेना क्या होता है? गुरूदेव
मरण। गुरूदेव यह मरण क्या होता है?
प्राणी जब किसी शरीर में आता है
तो उसे जन्म कहते हैं
और
उस शरीर को छोडकर किसी ओर स्थान पर चला जाता है
तो उसे मरण कहते हैं
असल में केवल शरीर मरते हैं,
आत्मा नहीं मरती, हमारे अंदर जो जीवित है
वो जीवात्मा है।
हम सब जीवात्मा ज्योति कणों की तरह
समय की अनन्त लहरों पर बहते चले जा रहे हैं।
बहते चले जा रहे हैं।
असल में हर जीवात्मा इस अनन्त पथ पर
अकेली ही सफर करती है
रास्ते में द्वीपों की तरह कई धरतियां, कई लोक आते हैं
जहां हम जन्म लेते हैं,
जहां जन्म लेकर हम दूसरे जीवों के साथ मिलते बिछडते हैं,
दोस्ती दुश्मनी का खेल खेलते हैं
फिर एक दिन वहां का शरीर भी छोडकर हम समय की लहरों पर फिर से आगे चल देते हैं
बिछडने वालों का मोह थोडी दूर तक पीछा करता है
परन्तु जीव तो नये नये रूप धारण कर लेता है।
नया जन्म होने तक वह कई नये नये लोकों के बीच नये नये रूपों में अकेला ही
भटकता रहता है,
भटकता ही रहता है,
भटकता रहता है।
श्री राम- इसका अंत कहां है?
गुरू वसिष्ठ -
अंत केवल मुक्ति में है और
मनुष्य मुक्ति तभी पा सकता है जब
पाप और पुण्य दोनों से परे हो जाये क्योंकि पाप और पुण्य
दोनों ही जंजीरें हैं
एक लोहे की
एक सोने की।
श्रीराम - परन्तु जब तक जीयेगा कर्म करेगा ही,
वह कर्म या तो पाप होगा या पुण्य
फिर प्राणी कैसे छूटेगा इस माया के बंधन से ।
गुरू वसिष्ठ - तुमने ठीक कहा, कर्म तो करना ही पडता है।
परन्तु कर्म जब निष्काम कर्म हो जाता है।
फल की इच्छा से रहित हो जाता है
तो जीव कर्मफल से मुक्त हो जाता है।
इसके दो ही सरल तरीके हैं
एक तो भक्ति दूसरा साक्षी भाव का अभ्यास।
अर्थात कर्ता का अहंकार छोडना, कर्ता
होते हुए भी दृष्टा होना
श्री राम- कर्ता होते हुए भी दृष्टा कैसे हो सकता है गुरूदेव
गुरू वसिष्ठ - मेरे पास आओ मैं बताता हूं।
राम अब अपने अंतर मन को इस शरीर से बाहर निकाल कर आओ मेरे साथ,
अब यहां से देखों अहंकार और माया का संसार ।
एक गुरू है वसिष्ठ
जो अपने आपको बहुत बडा ज्ञानी समझता है और
अपने शिष्यों पर अपनी विद्वता का सिक्का जमाने की कोशिश कर रहा है।
श्रीराम - परन्तु वह तो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं,
विद्या दान तो पुण्य है।
गुरू वसिष्ठ - पुण्य हे,
परन्तु पुण्य में भी एक डर है यह अहंकार पैदा कर सकता हे,
इससे बचना चाहिये।
उधर देखो – यह अभी साथ पढ रहे थे अभी लड रहे हैं ।
इन्हें इनका अहंकार लडा रहा है।
क्योंकि हर बच्चा अपने आप को दूसरे बच्चे से अधिक बुद्धिमान समझता है
यही हाल बडे लोगों का है,
जब मनुष्य इसी तरह से साक्षी भाव से
अपने कर्मों को देखता है तो उसमें अहंकार की भावना पैदा नहीं होती,
विनम्रता आती है इसलिये कहा है
विद्या ददाति विनयं,
सच्ची विद्या विनय प्रदान करती है इसी वजह से जीव भक्ति पाता है और
जो भक्ति पा लेता है उसे अब और कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता है।
वो जहां बैठता है
वही तीर्थ स्थान बन जाता है
जो कहता है
वही शास्त्र हो जाता है
सबका भला हो
जबकि
परम सत्य तो यही है कि जो ज्ञान
अधिकतर धर्मों में समान रूप से
विद्यमान है
वह ज्ञान तो
परम सत्य है और जो
ऐसे परम सत्य ज्ञान को नहीं
मानता उससे बढकर अभागा इस संसार में अन्य कोई नहीं। ज्ञान का सार तो इस
छोटी सी कहानी से स्पष्ट हो जायेगा।
बुद्ध के धर्म का सार
पो चीन के तांग राजवंश में उच्चाधिकारी और कवि था.
एक दिन उसने एक पेड़ की शाखा पर बैठे बौद्ध महात्मा को ध्यान करते देखा.
उनके मध्य यह वार्तालाप हुआ:
पो: “महात्मा, आप इस पेड़ की शाखा पर बैठकर ध्यान क्यों कर रहे हैं?
ज़रा सी भी गड़बड़ होगी और
आप नीचे गिरकर घायल हो जायेंगे!”
महात्मा: “मेरी चिंता करने के लिए आपका धन्यवाद, महामहिम.
लेकिन आपकी स्थिति इससे भी अधिक गंभीर है.
यदि मैं कोई गलती करूंगा तो मेरी ही मृत्यु होगी,
लेकिन शासन के इतने ऊंचे पद पर बैठकर
आप कोई गलती कर बैठेंगे तो
सैंकड़ों-हजारों मनुष्यों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा”.
पो: “शायद आप ठीक कहते हैं. अब मैं कुछ कहूं?
यदि आप मुझे बुद्ध के धर्म का सार एक वाक्य में बता देंगे
तो मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा, अन्यथा, मैं
आपसे कभी मिलना नहीं चाहूँगा”.
महात्मा: “यह तो बहुत सरल है! सुनिए. बुद्ध के धर्म का सार यह है,
‘बुरा न करो,
अच्छा करो, और
अपने मन को शुद्ध रखो’.”
पो: “बस इतना ही!?
यह तो एक तीन साल का बच्चा भी जानता है!”
महात्मा: “आपने सही कहा.
एक तीन साल के बच्चे को भी इसका ज्ञान होता है,
लेकिन अस्सी साल के व्यक्ति के लिए भी इसे कर सकना कठिन है.”
तो यह तो अधिकतर सभी धर्मों का सार है और
रामायण का यह प्रसंग भी यही संदेश देता है कि
बुरा न करो, अच्छा करो, और अपने मन को शुद्ध रखो’.”
वास्तव में यह बहुत छोटी सी लाईन है,
लेकिन इसको जीवन में उतारने के लिये वर्षों लग जाते हैं।
अधर्मी की तो हम छोडें जो धर्म से जुडे हुए हैं वे लोग इस सिद्धांत को तो स्वीकारते हैं कि
हमें बुरा नहीं करना चाहिये,
मन को शुद्ध रखना चाहिये,
किसी कि निन्दा नहीं करनी चाहिये,
लेकिन ऐसे लोग ही इस सिद्धांत को भूलकर दूसरों की निंदा करते रहते हैं।
जैसे एक बच्चा बिजली के करंट के तार की तरफ बढ रहा हो तो
उसे रोकने का प्रयास करना यह निन्दा में नहीं आता है,
आज इस संसार में यही हो रहा है कि
सभी एक दूसरे कि निन्दा करने में लगे हुए हैं।
ऐसे बहुत कम लोग हैं
जो किसी को बख्शते हैं।
किसी को गलत राह पर जाने से बचाने के लिये की गई निन्दा,
निन्दा नहीं
अपितु नवजीवन प्रदान करने का काम करती है,
इसीलिये कहा है कि
निन्दक नियरे राखिये
आंगन कुटी छवांय,
बिन पानी, साबून बिना निर्मल करे सुभाय।
यानि कोई हमारे हित के लिये निन्दा करता है
तो ऐसे निन्दक के हमें समीप रहना चाहिये,
तन/वस्त्र को साफ करने के लिये
साबुन व पानी की आवश्यकता होती है,
तो निन्दक की गलत पथ पर जाने से बचाने के लिये की गई निन्दा
वही कार्य करती है जो इस तन/वस्त्र को धोने के लिये
साबुन और पानी करते हैं।
तो सत्य निन्दक की बातें
करेले/नीम आदि की तरह कडवी अवश्य होती हैं,
लेकिन अंदर जाने पर जैसे करेला/नीम शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करता है
उसी तरह यह सत्य कडवे वचन इस मन को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं।
जैसे कि रत्नावली ने अपने पति तुलसीदास जी की सत्य निन्दा की थी कि
जितना प्रेम आपने मुझ में जताया
उतना ईश्वर/मुक्ति से करते तो आपका कल्याण हो जाता ।
बात कडवी थी लेकिन सत्य थी,
उस सत्य निन्दा ने उनका जीवन ही परिवर्तित कर दिया।
तो सार तो यही है कि
हम ऐसा व्यवाहर किसी के भी साथ नहीं करें
जो हमें अपने लिये पसन्द नहीं करते हों।
यानि के हम बुरा नहीं करें,
अच्छा ही करें, ध्यान और दृष्टा भाव से निष्काम सत्कर्म यानि के नेकी करें और
उसे भूल जायें ऐसे कर्म करते हुए अपने मन को शुद्ध रखें।
सबका भला हो।
सुप्रभात
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं
है पार्थ जो कर्म योगी होते हैं वो
आसक्ति छोडकर
कर्म की सफलता और विफलता में
समबुद्धि
से काम लेकर योग द्वारा
परमात्मा पर आस्था रखते हुए कर्म करते हैं।
इसे ही समत्व योग कहते हैं।
है पार्थ
ईश्वर को समर्पण करने की भावना से किया हुआ कर्म फल प्राप्ति की कामना से किये हुए कर्म से कई गुणा अधिक श्रेष्ठ है
ज्ञानी पुरूष कर्मफल की आशा किये बिना
समबुद्धि योग द्वारा कर्म करते हैं
और पाप पुण्य आदि भावनाओं से मुक्ति पाते हैं,
पार्थ
तुम भी ऐसी भावनाओं से मुक्त हो जाओगे
जब तुम समबुद्धि कर्म का आचरण करोगेा
पार्थ एक बात ध्यान में रखो
फल की वासना से
फल पर ही दृष्टि रखकर कर्म करने वाला
सकाम मनुष्य उत्तम कर्म करने पर भी कर्मयोगी नहीं हो सकता।
ऐसे मनुष्य को ख्याति आदि लाभ तो प्राप्त हो सकते हैं,
किन्तु उसे
परमात्मा और शांति
नहीं प्राप्त हो सकते।
है केशव मनुष्य को पाप पुण्य दोनों बंधन कारक हैं
दोनों से भला बुरा प्रारब्ध बनता है,
प्रायश्चित द्वारा पाप से मनुष्य मुक्त हो सकता है,
परन्तु पुण्य से वो मुक्त कैसे होगा?
है अर्जुन पाप, पुण्य, सुख-दुख यश-अपयश आदि
भावनायें साधारण मनुष्य के लिये हैं,
परन्तु जो कर्मयोगी होते हैं
वो इन भावनाओं से मुक्त होते हैं,
आलिप्त होते हैं।
कर्मयोगी अपनी अंतर-आत्मा की आवाज को
परमात्मा का आदेश मानकर आचरण करते हैं।
इसमें कहां आती है पाप पुण्य की भावना।
है पार्थ यदि तुम
मोह के आधीन हो गये हो
तो निष्काम कर्मयोग कैसे कर पाओगे,
तुम्हारी बुद्धि पर जन्मों के अंधकार का पटल छा गया है
उसे ज्ञान के प्रकाश से हटा दो और
अपनी बुद्धि को मोह के दलदल से बाहर निकालो।
है पार्थ मोह बुद्धि का अज्ञान होता है और
इसी अज्ञान के कारण मनुष्य भौतिक आकर्षण में फंस जाता है
वो जानता नहीं कि
देह और समस्त भोग
मिथ्या है
नश्वर है,
मनुष्य सत असत
नित्य अनित्य का भेद जान जाता है,
तब वह निरासक्त हो जाता है,
उसे किसी भी चीज का आकषर्ण नहीं रह जाता।
इसका दूसरा अर्थ है
मोह का त्याग करना तथा
मोह का लोप होने पर
मनुष्य किसी भी प्रकार से
किसी भी वस्तु की ओर आकर्षित नहीं हो सकता है
है पार्थ यर्थाथ ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद
मोह का त्याग होता है
आत्मिक योग बल में वृद्धि हो जाती है
योग बल के कारण
मन स्थिर जाता है। और
स्थितप्रज्ञ होने के कारण
मनुष्य का परमात्मा के साथ योगहो जाता है।
पार्थ तुम भी आत्मिक योग बल द्वारा
अपनी अंतर-आत्मा में झांककर परमात्मा को देखने का प्रयास करो
समबुद्धि कर्म का आचरण करो और स्थितप्रज्ञ बन जाओ।
है मधुसूदन यह स्थितप्रज्ञ क्या होता है,
इसे समझाओ।
प्रार्थ - दुख भोगते हुए भी जिसके मन में
उद्वेग नहीं होता और ना ही
जो सुख की लालसा रखता है तथा
जिसके हृदय में क्रोध मोह भय आदि विकारों के लिये कोई स्थान नहीं होता
वह मनुष्य स्थित प्रज्ञ है।
है पार्थ स्थित प्रज्ञ महापुरूष
सुख दुख प्रत्येक अवस्था में
आत्मकि शांति प्राप्त कर लेता है,
परमानंद में लीन होने से
ऐसे मनुष्य को दुख और सुख
कभी भी विचलित नहीं करते
ऐसे स्थित प्रज्ञ मनुष्य का मन
उस दीये की भांति होता है,
जिसकी लौ स्थिर होती है
कभी डौलती नहीं।
दीये की लौ तो अधिक समय तक
अचल और अडौल तो रहती नहीं
वह हवा के हलके से झौंके से भी तडपने लगती हैं।
हां श्रीकृष्ण यही तो समझा रहे हैं कि
मनुष्य का मन
कामनओं की आंधी में रखे हुए
एक दीपक की तरह होता है,
कामनाओं के तेज झौंके
उस दिये की बाती को स्थिर नहीं रहने देते।
प्रभू यह उपदेश दे रहे हैं कि
मन को स्थिर रखने के लिये
मन की कामनाओं को लगाम देना चाहिये।
यदि कामनाओं को लगाम नहीं दी जाये तो
एक कामना से दूसरी
फिर दूसरी से तीसरी कामना जन्म लेती रहती है और
यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता,
जैसे किसी व्यक्ति के पास घर नहीं हो तो
वह मनुष्य एक झौंपडे की कामना करता है।
झौंपडा मिल जाता है, तो उससे बडा घर चाहता है,
फिर उससे भी बडा घर और फिर राजमहल की कामना करता है
उसकी एक ही कामना असीम रूप लेकर बढती रहती है
तो फिर मनुष्य इन कामनाओं पर कैसे लगाम लगा सकता है,
इसका सरल उपाय यही है कि
मनुष्य अपने मन में
संतोष
पैदा करें।
जहां जिस अवस्था में,
जिस क्षण में उसे संतोष प्राप्त हो जाये
वहीं उसी क्षण में प्राणी सुखी और शांत हो जायेगा।
अधिकतर सभी धर्मों ने कहा है कि
हम पशुवत कर्मों को त्याग दें,
बुरे कर्मों को त्याग दें,
स्वार्थ को त्याग दें,
समस्त बुराईयों को त्याग दें,
लेकिन यदि कोई धर्म कहता है कि
पशुवत कर्म करें,
बुरे कर्म करें,
बुराईयों को जीवन में स्थान दें,
स्वार्थी बनें
तो उसे धर्म नहीं अपितू अधर्म की ही श्रेणी में रखा जा सकता है।
जिसमें धैर्य, क्षमा (अपना अपकार करने वाले को भी क्षमा करना)
संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करना,
चोरी न करना,
तन व मन की पवित्रता,
इन्द्रियों से सदाचार करना,
बुद्धि को सत्कर्म में लगाना,
सत्य ज्ञान ग्रहण करना,
सत्य आचरण करना,
शांत रहना,
हिंसा नहीं करना,
तन,मन व धन से दयावान होते हुए
लोभ से बचते हुए परहित करना आदि गुण् है
वही पूर्णत: धर्मवान है।
भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, दयानन्द जी आदि व कुछ अन्य धर्म के
महापुरूष धर्मवान थे।
जैसे कि कोयले से हीरा बनने में
हजारों वर्ष् लगते हैं,
तो हमें पूर्ण प्रयास करना चाहिये कि
हम भी सत्य ज्ञान, सत्य आचरण के द्वारा कोयले से हीरा बन जाये।
जैसे कि दौड में तो सभी भाग लेते हैं लेकिन निर्धारित समय के अंदर
उस निर्धारित लक्ष्य रूपी रेखा को कुछ लोग ही पार कर पाते हैं।
तो हमें बिना अंजाम की परवाह किये,
इस दौड में शामिल होना ही चाहिये।
हमने कई बार यह लाईन सुनी अथवा पडी होगी कि
मनुष्य का जन्म पुण्य कर्मों से ही मिलता है।
अज्ञानता में जीवन पर्यन्त किये गये
पशुवत कर्मों के कारण ही भोग योनि प्राप्त होती है और
पशुवत कर्मों के भोग भोगने के बाद ही
मनुष्य जन्म प्राप्त होता है।
इसीलिये यह जन्म सबसे अनमोल है, और
हमें यही प्रयास करना चाहिये कि
हम जीते जी उस अनमोल हीरे रूपी
दिव्य सुख/परमानन्द को प्राप्त कर लें।
भोग योनि में उस दिव्य सुख/परमानन्द की सामर्थ्य नहीं
यह सामर्थ्य केवल मनुष्य योनि में ही है।
इसीलिये इसे दुर्लभ कहा जाता है।
बेशकीमती कहा जाता है,
लेकिन इसकी कीमत पारखी ही जानता है,
यानि के जिसने स्वयं को तराश कर
मन पर विजय प्राप्त कर
इस शरीर के अंदर
उस अनमोल दिव्य सुख/परमानन्द रूपी खजाने को प्राप्त किया,
उसने ही यह जाना कि यह शरीर बेशकीमती है,
यह शरीर ऐसी नौका है
जो नश्वर होते हुए भी
इस संसार रूपी भवसागर से पार लगा सकती हैं।
महात्मा बुद्ध के जीवन की एक प्रेरक कथा।
एक बार एक आदमी महात्मा बुद्ध के पास पहुंचा।
उसने पुछा- ''प्रभू, मुझे यह जीवन क्यों मिला?
इतनी बड़ी दुनिया में मेरी क्या कीमत है?''
बुद्ध उसकी बात सुनकर मुस्कराए और
उसे एक चमकीला पत्थर देते हुए बोले,
''जाओ, पहले इस पत्थर का मूल्य पता करके आओ।
पर ध्यान रहे, इसे बेचना नहीं,
सिर्फ मूल्य पता करना है।''
वह आदमी उस पत्थर को लेकर एक आम वाले के पास पहुंचा और
उसे पत्थर दिखाते हुए बोला,
''इसकी कीमत क्या होगी?''
आम वाला पत्थर की चमक देखकर समझ गया कि
अवश्य ही यह कोई कीमती पत्थर है।
लेकिन वह बनावटी आवाज में बोला,
"देखने में तो कुछ खास नहीं लगता,
पर मैं इसके बदले 10 आम दे सकता हूं।''
वह आदमी आगे बढ़ गया।
सामने एक सब्जीवाला था।
उसने उससे पत्थर का दाम पूछा।
सब्जी वाला बोला,
''मैं इस पत्थर के बदले एक बोरी आलू दे सकता हूं।''
आदमी आगे चल पड़ा।
उसे लगा पत्थर कीमती है,
किसी जौहरी से इसकी कीमत पता करनी चाहिए।
वह एक जौहरी की दुकान पर पहुंचा और
उसकी कीमत पूछी।
जौहरी उसे देखते ही पहचान गया कि
यह बेशकीमती रूबी पत्थर है,
जो किस्मत वाले को मिलता है। वह बोला,
''पत्थर मुझे दे दो और मुझसे 01 लाख रू. ले लो।''
उस आदमी को अब तक पत्थर की कीमत का अंदाजा हो गया था।
वह बुद्ध के पास लौटने के लिए मुड़ा।
जौहरी उसे रोकते हुए बोला, ''अरे रूको तो भाई,
मैं इसके 50 लाख दे सकता हूं।''
लेकिन वह आदमी फिर भी नहीं रूका।
जौहरी किसी कीमत पर उस पत्थर को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहता था
वह उछल कर उसके आगे आ गया और
हाथ जोड़ कर बोला,
''तुम यह पत्थर मुझे दे दो, मैं 01 करोड़ रूपये देने को तैयार हूं।''
वह आदमी जौहरी से पीछा छुडा कर जाने लगा।
जौहरी ने पीछे से आवाज लगाई,
''ये बेशकीमती पत्थर है, अनमोल है।
तुम जितने पैसे कहोगे, मैं दे दूंगा।''
यह सुनकर वह आदमी हैरान-परेशान हो गया।
वह सीधा बुद्ध के पास पहुंचा और
उन्हें पत्थर वापस करते हुए सारी बात कह सुनाई।
बुद्ध मुस्करा कर बोले,
''आम वाले ने इसकी कीमत '10 आम' लगाई,
आलू वाले ने 'एक बोरी आलू' और
जौहरी ने बताया कि 'अनमोल' है।
इस पत्थर के गुण जिसने जितने समझे,
उसने उसकी उतनी कीमत लगाई।
ऐसे ही यह जीवन है।
हर आदमी एक हीरे के समान है।
दुनिया उसे जितना पहचान पाती है,
उसे उतनी महत्ता देती है।
लेकिन आदमी और हीरे में एक फर्क यह है कि
हीरे को कोई दूसरा तराशता है, और
आदमी को खुद अपने आपको तराशना पड़ता है।
तुम भी अपने आपको तराश कर अपनी चमक बिखेरो,
तुम्हें भी तुम्हारी कीमत बताने वाले मिल ही जाएंगे।''
यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि
हमें पता नहीं कि
हमारा यह शरीर नश्वर होते हुए भी
कितना मूल्यवाण है, जैसे कि
हीरा भी नश्वर है, लेकिन जब इसे तराशा जाता है
तो यह बेशकीमती बन जाता है।
जैसे कि कोई पदार्थ हजारों वर्षों तक दबा रहता है
तो वह कोयले में परिवर्तित हो जाता है। और
वह कोयला यदि और हजारों वर्षों तक दबा रहता है तो
वह हीरे में परिवर्तित हो जाता है।
तो इसी तरह असंख्य दूख भोगने के पश्चात्
हमारे सदकर्मों के कारण हमें यह मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है।
अब इसे निष्काम सत्कर्म द्वारा ही
हीरे में परिवर्तित किया जा सकता है। और
यह परिवर्ततन अंतिम परिवर्तन है।
सबको भला हो।
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