अदृश्य शक्ति सुपर पावर चेतन तत्व ब्रह्म इस जगत का आधार
हर तरफ
हर जगह
हर कहीं पर है
हां उसी का नूर
रोशनी का कोई दरिया तो है
हां कहीं पर जरूर
यह आसमान
यह जमीन चांद और सूरज
क्या बना सका है कभी कोई भी कुदरत
कोई तो है, जिसके आगे
है आदमी मजबूर
इंसान जब कोई है राह से भटका
इसने दिखा दिया
उसको सही रस्ता
कोई तो है,
जो करता है मुश्किल हमारी दूर
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-1
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
हर तरफ
हर जगह
हर कहीं पर है
हां उसी का नूर
रोशनी का कोई दरिया तो है
हां कहीं पर जरूर
यह आसमान
यह जमीन चांद और सूरज
क्या बना सका है कभी कोई भी कुदरत
कोई तो है, जिसके आगे
है आदमी मजबूर
इंसान जब कोई है राह से भटका
इसने दिखा दिया
उसको सही रस्ता
कोई तो है,
जो करता है मुश्किल हमारी दूर
इस संसार में
ऐसा कुछ भी नहीं
जो बिना पावर/उर्जा/शक्ति के गतिमान हो।
चाहे एक छोटा सा बल्ब हो
चाहे मोबाईल हो
चाहे कोई सा भी उपकरण हो
बिना पावर के गति सम्भव नहीं।
तो विचार करें कि क्या
जब एक छोटा सा उपकरण भी
बिना पावर, करंट, उर्जा के
नहीं चल सकता है तो
फिर इतनी बड़ी पृथ्वी
जिस पर ना जाने
कितने अरबों-खरबों,
जीव, पशु, पक्षी, कीट,
कृमि, विषाणु, जीवाणु, वायरस,
मनुष्य, पेड-पौधे वनस्पित आदि विद्यमान हैं और
इतनी भारी भरकम पृथ्वी
हवा में स्थिर है और
घूम भी रही है।
यानि कि इस ब्रह्मांड में
कोई ऐसी अदृश्य शक्ति है,
जो दिखाई नहीं देती है, लेकिन
उसी के कारण सब कुछ
प्रकाशमान है,
गतिमान है
विकासवान है
चेतनावान है
वह अदृश्य शक्ति,
वह सुपर पावर,
वह परम उर्जा
जिसके कारण
सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह,
उपग्रह आदि चलायमान हैं
उसकी पावर/उर्जा/ शक्ति
के आधार पर ही
असंख्य, अनगिनत,
सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह,
उपग्रह आदि
बिना किसी आधार,
बिना किसी सहारे के
इस अन्तहीन ब्रह्मांड में
हवा में घूम रहे हैं।
उसी शक्ति के कारण
अग्नि विद्यमान है
पृथ्वी गतिमान है
वायु गतिमान है
जल विद्यमान है।
आकाश विद्यमान है
आकाश यानि दो अणुओं के बीच का स्थान
अन्तहीन ब्रह्मांड
यदि जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी
आकाश नहीं तो
अन्न फल फूल आदि
कुछ भी नहीं
इन पांचों के बिना
जीवन की कलप्ना ही
नहीं की जा सकती है।
लगातार -----2-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-2
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
वह अदश्य शक्ति /परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म
हम चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारे
वही शाश्वत है,
वही सत्य है,
वही महान है,
वही कृपालु है,
वही पवित्र है,
वही सर्वरक्षक है।
वही शांतिप्रदाता/मोक्षप्रदाता/आनन्दप्रदाता है
वही सर्वव्यापक/सर्वज्ञ/सर्वोत्तम/सर्वोत्पादक है
वही अंतरयामी है
वही सबके प्राणों का पति है
वही अजर/अमर/अभय/अनुपम/अद्वितीय/अवनिाशी है
वही अनुपम/अनन्त/अद्भूत/अकल्पनीय/अविश्वसनीय है।
वही नित्य/न्यायाकारी/निर्विकार/निर्लेप है
उस अदृश्य शक्ति को छोडकर
जो भी दृष्यमान है,
सब नश्वर है,
सब क्षणभंगुर है
यानि कि हर पल/हर क्षण
उनका क्षय हो रहा है
जैसे सूर्योदय से पूर्व
लालिमा छाती है फिर
उसका विकास होता है
प्रकाश बढता ही जाता है,
बढता ही जाता है,
विकसित होता है फिर
प्रकाश मंद पड़ने लगता है
और सूर्यास्त के बाद
पुनः लालिमा छा जाती है,
फिर अंधकार छा जाता है,
फिर रात्रि ओर घनेरी हो जाती है
और सर्योदय के साथ ही
अंधकार समाप्त हो जाता है।
इसी तरह
दिन-रात
शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष
पूर्णिमा-अमावस्या
पतझड़-सावन-बसंत-बहार
सर्दी-गर्मी
सप्ताह-पखवाड़ा-माह-वर्ष
जन्म-बचपन-युवावस्था-वृद्धावस्था-मृत्यु
इन सबका चक्र चलता ही रहता है
जैसे कि एक
चक्र/पहिये/गोले/वृत्त का
कोई अंत नहीं
उसी तरह यह प्रक्रिया
सतत चलती ही रहती हैं ।
जहां से शुरुआत होती है
वहीं पर यात्रा समाप्त होती है
और फिर
जेसे कि पेड के पत्ते की अवस्था होती है,
कोपल फुटती है,
पत्ती आती हे विकसित होती है,
हरी होती है, फिर मुरझा कर पीली हो जाती है,
फिर झडकर नीचे गिर जाती है।
इसी तरह जन्म होता है,
किशोरावस्था आती है,
युवावस्था आती है,
फिर वृद्धावस्था आती है,
फिर शरीर के अंगों का क्षरण प्रारम्भ हो जाता है,
दांत गिरने लगते हैं,
आंखों से धुंधला दिखाई देने लगता है,
जोड़ाें का दर्द प्रारम्भ हो जताा है।
लाठी अथवा बैसाखी का सहारा लेना पडता है,
त्वचा पर झुरिंया पड़ जाती है,
ऐसी अवस्था होने पर भी अधिकतर लोग शरीर नहीं छोड़ना चाहते।
लेकिन शरीर तो नश्वर है और
फिर अंतत पंचतत्व में विलीन हो जाता है।
फिर नया जन्म होता है।
हर यात्रा पूर्ण होने पर फिर नये सिरे से
नयी यात्रा शुरू होती है
यह चक्र चलता ही रहता है
चलता ही रहता है।
लगातार ------3-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-3
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
यह आसमान
यह जमीन चांद और सूरज
क्या बना सका है कभी
कोई भी कुदरत
कोई तो है,
जिसके आगे है आदमी मजबूर
इंसान जब कोई है राह से भटका
इसने दिखा दिया उसको सही रस्ता
कोई तो है, जो करता है मुश्किल हमारी दूर
इस संसार में ऐसा कोई नहीं
जो इतनी विशाल जमीन/धरा/पृथ्वी, सूरज, चांद, तारे ग्रह, नक्षत्र बना सके
इन्हें बनाना तो दूर की बात है
कोई इस अन्नत, अंतहीन ब्रह्मांड का छोर,
इसका किनारा
इसका अंत आदि को मापने में भी असमर्थ है।
इतने विशाल ब्रह्मांड के संचालन के पीछे जो कारण है
उस शक्ति के आगे
सब लाचार हैं, विवश है।
उस अदृश्य शक्ति के आगे
सब खिलौने की तरह है,
जैसे खिलौने में चाबी भरते हैं
तो उसके अनुरूप ही
खिलौना उतनी देर तक गति करता है,
फिर उस खिलौने की गति
रूक जाती है,
थम जाती है,
ठहर जाती है।
जैसे कि खिलौना
चाबी के अनुसार चलता है
पावर के अनुसार चलता है
इसी तरह हमारा जन्म
कहां होगा वह भी उस
अदृश्य शक्ति के हाथ में ही है,
लेकिन वह न्यायाकारी है और
हमारे कर्मों के अनुसार ही
हमें जन्म प्रदान करती है।
यह आत्मा के हाथ में नहीं कि
वह मृत्यु के बाद
सुख-सुविधा सम्पन्न परिवार में
जन्म लेगा/लेगी अथवा
दुख-दारिद्रयजनित परिवार में
जन्म लेगा/लेगी।
अमीर-गरीब,
बलवान-निर्धन,
बुद्धिमान-बुद्धिहीन,
सर्वांग-विकलांग
स्वस्थ-रूग्ण
मनुष्य योनि अथवा
भोग योनि
सब उस अदृश्य शक्ति के
हाथ में ही है और
यह सब कुछ होता है
हमारे कर्मों के आधार पर।
इसीलिय विभिन्न धर्म/मत के
स्थापक अधिकतर सभी
धर्मगुरूओं ने यही कहा है कि
हम सत्कर्म ही करें
दुष्कर्म नहीं करें ताकि
मुक्ति नहीं तो
अगला जन्म तो शुभ हो,
अगला जन्म तो सुखमय हो।
यानि कि हमारे कर्मों के
आधार पर ही वह अदृश्य शक्ति
हमारे इस तन में वायु का संचार
यानि प्राण/श्वांस का प्रवाह
गतिमान रखती है और
फिर वही अदृश्य शक्ति
अचानक हमारी श्वांस के
प्रवाह को रोक देती है।
उसके द्वारा प्राणों की गति
रोकने के कारण ही
किसी की अल्पायु में,
किसी की युवावस्था में
तो किसी की वृद्धावस्था में
प्राणों की गति रूक जाती है,
थम जाती है और यह सब
उसी अदृश्य शक्ति के कारण
होता है, इसीलिये
उस अदृश्य शक्ति का
एक नाम महाकाल भी है,
जो कि सबका काल है
यानि कि समय रूपी काल भी
जिसके नियम के कारण अस्तित्व में रहता है।
लगातार----4----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-4
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
ऐसा इस संसार में कोई नहीं
जो उस महाकाल से बच सके
यानि कि मृत्यु से बच सके,
मृत्यु तो एक ना एक दिन
सबको ही आने वाली है
अंतर यह है कि जो
महाकाल से सच्चे मन से
जुड जाता है,
जिसका मन संसार में विद्यमान
पदार्थ से विरक्त और
एकमात्र उसी से आसक्त
हो जाता है,
उसे वह महाकाल
स्वीकार कर लेता है और
उसका नया जन्म नहीं होता और
उसे फिर मृत्यु का दर्शन
नहीं करना पडता।
वह हंसता हुआ
मृत्यु का स्वागत करता हुआ
इस संसार से विदा होता है।
लेकिन जिनका मन संसार में
विद्यमान पदार्थों से आसक्त है,
उनको बार-बार महाकाल का
यानि कि मृत्यु का सामना,
मृत्यु का दर्शन करना पड़ता है।
यानि कि वे काल के चक्र में बंधे रहते हैं
यानि कि जन्म/मृत्यु के चक्र में बंधे रहते हैं।
वह महाकाल
हर दिन
हर क्षण,
हर पल
किसी ना किसी का काल
बनता रहता है,
उस अदृश्य शक्ति के कारण ही
इस संसार में प्रतिक्षण
मनुष्य मरते हैं और
प्रतिक्षण जन्मते हैं।
उस महाकाल के चंगुल से
कोई नहीं बचता।
बचता तो केवल वही है
जो सब कुछ उसका ही
मानता है,
सब कुछ स्वपनवत मानता है,
दूसरे के शरीर की तो क्या कहें,
स्वयं का शरीर भी
वह किराये के मकान की तरह मानता है,
शरीर रूपी मकान का
प्रारम्भ और अंत उस अदृश्य शक्ति के ही कारण होता है।
जो स्वयं के शरीर को किराये का घर मानता है,
इस संसार को मुसाफिर खाना मानता है।
सबकुछ क्षणभंगुर मानता है
केवल उसी की कामना रखता है,
केवल उसकी चाहना रखता है।
जिसकी प्रातः भी
उसके वंदन से शुरू होती है और
रात्रि भी उसके ही वंदन से समाप्त होती है,
जिसकी अंतिम अवस्था में
केवल उसके अतिरिक्त
कोई चाह, कोई कामना नहीं रहती
उसे वह महाकाल गले लगा लेता है।
यानि कि जो जन्म-मृत्यु का चक्र है,
डस चक्र से वह अदृश्य शक्ति उसे अलग कर देती है
यानि कि उसे मुक्त कर देती है,
उसके सभी दुखों का
अंत हो जाता है।
लेकिन यह मन इस सृष्टि / प्रकृति के आकर्षण के कारण
मौत के पंजे में जकड़ा हुआ रहता है,
जन्म-मरण के चक्र में बंधा रहता है।
यह सत्य प्रकट होता है
गुरू/ज्ञान के द्वारा
लगातार-----5----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-5
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
इसीलिये कहा है कि
इंसान जब कोई है राह से भटका
इसने दिखा दिया उसको सही रस्ता
कोई तो है, जो करता है
मुश्किल हमारी दूर
यनि कि गुरू के माध्यम से ईश्वर भटके हुओं का राह दिखाता है
जैसे नारदजी के माध्यम से बाल्मिकी जी को
रत्नावली के माध्यम से तुलसीदास जी को
भगवान बुद्ध के माध्यम से अंगुलिमाल को
महावीर स्वामी के माध्यम से शूलपाणि को राह दिखाई थी।
तो गुरू/ज्ञान के द्वारा ही उस महान परम सत्ता की अनुभूति सम्भव हो पाती है।
लेकिन कोई विरला ही
गुरू के सत्य ज्ञान को अपने जीवन में
अपने व्यवहार में स्थान दे पाता है।
हमारे जो रिश्ते नाते हैं,
उनके प्रति हमें कर्तव्य तो निभाना है,
लेकिन हमें गुरू वाणी/ज्ञान के अनुसार
यह भी याद रखना है कि
यह सब रिश्ते नाते अस्थाई हैं,
परिवर्तनशील हैं।
आज कोई पिता अथवा माता है
तो कल वह जिनके पिता अथवा माता है,
उनके पुत्र अथवा पौत्र के रूप में भी जन्म ले सकते हैं।
हमें सबके प्रति अपने कर्तव्य का पालन तो करना है,
लेकिन मन को उस परम सत्य तत्व अदृश्य शक्ति में लगाना है।
उसी तरह जैसे कि एक पनिहारिन सर पर घडा रखकर हाथ छोड़कर बातें करती चलती है, लेकिन उसका सारा ध्यान उस घड़े पर केन्द्रित रखती है,
वह बात करते हुए भी उसे संतुलित बनाये रखती है, गिरने नहीं देती।
तो उसी तरह हम जो भी करें
हमारा मन उस अदृश्य शक्ति से सदैव जुड़ा रहे।
मृत्यु इस संसार का वह परम सत्य है,
जिसका दर्शन हर एक प्राणी शवयात्रा के दौरान करता है,
इस संसार में कोई मुश्किल से ही ऐसा मिल सकता है,
जिसने मृत्यु को नहीं देखा हो।
मृत्यु होने पर जिसे सब अपना मानते थे,
मृत्यु होते ही उसे पंचतत्व में विलीन करने की तैयारी प्रारम्भ हो जाती है।
मृत्यु ही वह सत्य था,
जिसे देखकर
भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी का वैराग्य और प्रगाढ़ हो गया।
जन्म और कुछ नहीं हमने जो पूर्व जन्म में कामनामय कर्म किये हैं,
कामग्रस्त/
मोहग्रस्त/
लोभग्रस्त/
क्रोधग्रस्त/
अहंकार ग्रस्त/
ईर्ष्या ग्रस्त/
रागग्रस्त/
द्वेषग्रस्त
होकर कर्म किये है,
उनका ही परिणाम जन्म है।
लगातार------6----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-6
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
जब मनुष्य
माया/अविद्या के प्रभाव के कारण
विषय, विकार से ग्रसित होकर कर्म करता है,
तो कुछ पुण्य कर्म भी करता है और
कुछ पाप कर्म भी।
पुण्य कर्मों के बदले
उसे सोने की जंजीर
यानि कि सुखमय जीवन मिलता है और
पाप कर्मों के बदले उसे लोहे की जंजीर
यानि कि दुखमय जीवन मिलता है। और
जब कर्म निष्काम भाव से किया जाता है तो
जंजीरें टूट जाती है
यानि कि मुक्ति मिल जाती है,
जन्म मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाता है
दुखों का अंत हो जाता है।
इसलिये मुक्ति चाहिये तो
निष्काम भाव से सत्कर्म करना आवश्यक है,
क्योंकि मनुष्य इस संसार में जिस की भी कामना करता है,
वह तो शरीर धारण करने के बाद ही पूर्ण हो सकती है।
जिसे इन्द्रियों के भोग का नशा है,
उसके मन में भोग का ही चिंतन चलता रहता है,
और इसीलिये वह बंधन में रहता है।
जिसके मन में
केवल एक उस अदृश्य शक्ति की ही अनुभूति की आकांक्षा का नशा छाया हुआ है,
उसका मन उस अदृश्य शक्ति के अतिरिक्त कहीं और जाना नहीं चाहता।
वह नशा अंत तक बरकरार रहने पर बंधन टूट जाते हैं।
संसारी के मन में
कभी अपने प्रियतम/प्रियतमा से संयुक्त होने की कामना हावी रहती है,
तो कभी अपने जीवनसाथी के अतिरिक्त अन्य स्त्री/पुरूष को देखते ही हलचल शुरू हो जाती है।
कभी स्वादु पदार्थों को ग्रहण करने की कामना हावी रहती है
कभी संगीत-नृत्य-गायन आदि की कामना हावी रहती है
कभी चल-चित्र/धारावाहिक, देखने की अथवा मोबाईल चलाने की कामना हावी रहती है
कभी दूसरों का ऐश्वर्य देखकर
वैसा ही अथवा उससे बढ़कर एश्वर्य पाने की कामना हावी रहती है।
कभी सत्ता तो कभी शक्ति तो कभी सम्मान तो कभी सम्पत्ति आदि की कामनायें उत्पन्न होती रहती हैं।
तो इस संसार में विद्यमान पदार्थों की कामना
यानि लोकेषणा
पुत्र के मोह में उचित अनुचित का ध्यान रखते हुए कामनामय कर्म करना
यानि पुत्रेषणा
अपने निकटतम संबंधियों में सबसे अधिक
धन/सम्पत्ति अर्जित करने की कामना
यानि कि वित्तेषणा
लगातार-----7----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-7
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
लोकेषणा/
पुत्रेषणा/
वित्तेषणा
इन तरह की कामनाओं में सभी तरह की कामनायें समाहित हैं।
जो निष्काम हो जाता है,
उसकी केवल एक ही ऐषणा,
एक ही कामना शेष रह जाती है,
उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति करना और
जीते जी ही जीवन मुक्त हो जाना।
इसलिये उसके हृदय से आवाज निकलती है कि
तुम्हें ही ढूंढती रहती हैं,
नजरें मेरी
बिन तेरे कुछ भी नहीं
प्यारे जिंदगी मेरी
भोगी की इन्द्रियां
बाहरी पदार्थों को पाने के लिये अथवा
उनसे संयुक्त होने के लिये ही
व्यवहार करती रहती है।
यानि कि भोगी के मन में
इस संसार के पदार्थाें का ही चिंतन चलता रहता है।
इसके विपरीत जिसने गुरू/ज्ञान को धारण किया है,
उनमें से किसी सौभाग्यशाली का मन
इस संसार के चिंतन से विमुक्त और
उस अदृश्य शक्ति से संयुक्त रह पाता है।
इसलिये जब तक उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति नहीं होती,
वह प्रार्थना करता है और प्रयत्न भी करता है
उस प्रार्थना को अपने जीवन में उतारने के लिये।
वह प्रार्थना करता है कि
है प्रभू यह जो मन है बहुत चंचल है,
जागते हुए भी सोते हुए भी हल पल यह मन भटकता रहता है
जागते हुए भी यह मन सपनों में जीता है और
सोते हुए भी यह मन सपनों में जीता है।
है प्रभू यह आंखें संसार का नहीं तेरा ध्यान करें
यह कान संसार का नहीं तेरे नाद का श्रवण करें
यह वाणी संसार का नहीं तेरा ही नाम जपे
इस मन में संसार नहीं प्रभू आप ही समा जाओ
प्रभू इस मन में
संसार का नहीं अपितू तेरा ही मनन हो
बुद्धि में तेरा ही निष्चय हो
चित्त भी तुझमें ही लय हो जाये
प्रभू नैनों में संसार नहीं अपितु तुम ही समा जाओे
इन होंठों पर इन अधरों पर आपका ही नाम हो
हृदय की हर धडकन में तुम ही समाहित हो जाओ।
है प्रभू अब यह मन संसार का नहीं तेरा हो जाये
ना जाने कितने जन्म जन्मांतरों से यह मन इस संसार से संयुक्त होता रहा है।
है प्रभू इस संसार में तेरे अतिरिक्त कही शांति नहीं
है प्रभू अंतर में ज्ञान रूपी दीपक सदा जलता ही रहे।
है प्रभू ज्ञान रूपी प्रकाश में ही निष्काम भाव से सत्कर्म करते ही रहें, करते रहेंा
है प्रभू हम अविद्यायुक्त/माया युक्त अंधकार मय कर्मों से हर पल हर क्षण विरत रहें।
है प्रभू हर पल, हर क्षण तुझ से योग रहे।
आखें हर पल, हर क्षण तेरे स्वरूप को ही निहारती रहें।
चलते फिरते, उठते बैठते
सोते जागते, खाते पीते
ऐसा कोई क्षण नहीं हो जब तुझ से वियोग रहे, तेरा विस्मरण रहे।
स्वपन में भी तेरा स्मरण रहे।
है प्रभू यह सदैव शिव संकल्प से संयुक्त रहे
है प्रभू यह मन सदा शिव संकल्प से संयुक्त रहे
प्रभू तेरा ही ध्यान, प्रभू तेरा ही गान,
प्रभू तेरा ही मनन
प्रभू मन में कभी भी असत्य भावना उत्पन्न नहीं हो
वाणी से कभी असत्य वंदन नहीं हो
लेखनी से भी असत्य दूर रहे
मन सत्य/सात्विकता से संयुक्त रहे
वाणी से सत्य का ही वंदन हो
लेखनी में भी सत्य ही समाहित रहे।
है प्रभू हमारा मन असत्य को सदा सर्वदा त्याग कर सत्य में समाहित हो जाये।
हमार मन अविद्या/अज्ञान/अंधकार से विरत होकर विद्द्या/ज्ञान/प्रकाश में समाहित हो जायेा
है प्रभू मृत्यु रूपी दुख से छुटकर तेरे अमृत्व की ओर गमन करें।
है प्रभू हम सदैव निर्विषयी/निर्विकारी/निष्पाप धर्मयुक्त आप्त पुरूषों, योगियों/मनीषीयों की राह पर बिना थके, बिना रूके अनवरत चलते ही रहें, चलते ही रहें, चलते ही रहें।
लगातार----8--------
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-8
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
जब भक्त का मन इस तरह अपने आराध्य के लिये समर्पित हो जाता है,
तब समझ लें कि
शरीर रूपी दीपक में
निष्काम सत्कर्म रूपी घी विद्यमान है
और निष्काम सत्कर्म रूपी घी से भक्ति रूपी बाती ओप-प्रोत हो चुकी है,
और किस भी क्षण वह अदृश्य शक्ति उस दिये को प्रज्जवलित कर सकती है,
यानि कि दर्शन दे सकती है,
यानि कि उसकी अनुभूति अपने अंतर में हो सकती है।
जब अंतर में उसके अतिरिक्त कुछ नहीं बचता,
सब कुछ निर्वासित हो जाता है,
तब अंतर में प्रकाश प्रकट हो जाता है,
शब्द नाद भी सुनाई देने लग जाता है और
परमानन्द की प्राप्ति के साथ ही
जीते जी ही जीवनमुक्त की अवस्था आ जाती है।
इस अवस्था से वंचित रहने का कारण विषय-विकार व पाप आदि ही हैं।
इनके कारण ही अधिकतर मनुष्यों के मन में धन-दौलत, सम्पत्ति आदि के संचय की कामना हावी रहती है,
इस ससार के अधिकतर मनुष्य जब तक निधन नहीं हो जाता धन जोडते ही रहते हैं।
यह दौड़ समाप्त होती है मृत्यु के साथ।
समस्त धन सम्पत्ति यहीं छूट जाने के कारण ही लोग कहते हैं कि निधन हो गया।
यानि कि धन रहित हो गया।
जिसका मन माया से ग्रसित है,
नश्वर माया के रंग में रगा हुआ है,
उसे कभी प्रभू दर्शन नहीं हो सकता।
यदि उस अदृष्य शक्ति के स्मरण, चिंतन, मनन के साथ
इस तन मन को निष्काम सत्कर्मों से सराबोर कर लें,
तो फिर उस अदृश्य शक्ति का दर्शन भी सम्भव हो सकता है,
क्योंकि वह अदृश्य शक्ति उन्हीं के समक्ष प्रकट होती है,
जिन्हें उसके अतिरिक्त कोई कामना नहीं, कोई चाहना नहीं
प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पल समस्त कर्म
केवल उसी की चाह में,
उसी के दर्शन की आस में,
उसी के दर्शन की प्यास में होने पर उससे मिलन हो पाता है।
वह अदृश्य शक्ति इमारे अंतर में ही विद्यमान है,
हमारे अंतर में ही उसके परमानन्द की अनुभूति होती है।
जो उसे बाहर खोजते हैं, वे भटकते रहते हैं।
आंखों में उसका ही रूप बसा हो,
कानों में उसका ही नाद,
उसका ही नाम गुंजायमान हो।
मन यह सब नहीं होने देता
वह जीव को उलझाये रखता है विकारों में।
चालाकी और छल प्रपंच
माया रूपी जगत में तो काम आ सकते हैं,
लेकिन उस अदृश्य शक्ति से मिलन में
यह सब व्यर्थ हो जाते हैं,
बेकार हो जाते हैं।
दिन हो या रात
जिसका मन प्रतिपल/प्रतिक्षण निष्काम सत्कर्म रूपी रंग में रंगा है,
उसी का यह जन्म यह जीवन सफल होता है,
वही समझदार है,
वही बुद्धिमान है,
जैसे अग्नि के निरन्तर सम्पर्क में रहने पर
लोहा भी अग्निमय हो जाता है
तो इसी तरह ऐसे मनुष्य ही सत्य के संग से
सत्य में समाहित हो जाते है,
शिव यानि कल्याणकारी का संग पाकर कल्याण कारी बन जाते हैं, और
अपनी वाणी से सबका कल्याण करते हैं,
सुन्दरतम बन जाते हैं,
यानि विकार व पाप रूपी कुरूपता समाप्त हो जाती है,
मन सुन्दरतम बन जाता है।
लेकिन जिसका मन इस संसार के पदार्थों की कामना/वासना में अटका हुआ है,
वह शकुनि की तरह बुद्धिमान होते हुए भी नादान है और
उसके बंधन और प्रगाढ हो जाते हैं और
वह असत्य, अशिव, असुन्दर रह जाता है।
लगतार-----9----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-9
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
दुर्बुद्धि मनुष्य ठगी करके,
झूठ बोलकर,
ताकत के बल पर,
धन के बल पर जो कुछ भी अर्जित करता है,
उसे अर्जित करने के बाद उसे अहंकार भी हो जाता है,
उसे लगता है कि उसने दुनिया को जीत लिया है,
दुनिया को मुर्ख बना दिया है और
जो ऐसा करता है वह ना किसी गुरू को मानता है,
ना किसी देव को मानता है,
ना ही परमात्मा को ही मानता है।
ऐसे दुष्कर्मियों को ना तो मुक्ति ही मिलती है और
ना ही दुख उनका पीछा छोडता है,
क्योंकि सत्कर्म और दुष्कर्म दोनों ही छाया की तरह मनुष्य के साथ रहते हैं,
सत्कर्म के कारण सुख की प्राप्ति होती है
तो दुष्कर्म के कारण दुख की प्राप्ति होती है
यदि उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति करनी है,
उस दिव्य सुख, परमानन्द की अनुभूति करनी है,
यदि उस अद़भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय प्रकाश का दर्शन करना है,
यदि उस नाद का श्रवण करना है
तो विकारों से मुक्त होना ही होगा
इसके अतिरिक्त कोई और मार्ग नहीं,
चाहे हम किसी भी धर्म को मानते हों।
लगातार -----10---
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-10
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
मनुष्य निन्दा दो कारणों से करता है
पहला तो जलन/ईर्ष्या के कारण
दूसरा किसी को असत्य से बचाने के लिये
जो जलन/ईर्ष्या के कारण निन्दा करता है,
उसकी मुक्ति भी असम्भव है,
लेकिन जो असत्य से सत्य में,
अज्ञान से ज्ञान में,
अंधकार से प्रकाश में
मृत्यु से अमृतत्व में समाहित करने के उद्देश्य से
निस्वार्थ भाव से निन्दा करता है
तो वह कबीर जी की वाणी में सराहनीय है
यानि कि
निन्दक नियरे राखिये
आंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना,
निर्मल करे सुभाय
गुरू/ज्ञान भी हमें यही बताता हैं कि
कौनसी बाधा है,
जिसके कारण मनुष्य
अदृश्य शक्ति की अनुभूति से वंचित हैं।
मनुष्य कि एक सबसे बड़ी कमजोरी उसकी याददाश्त शक्ति है,
या तो वह उपदेश को याद ही नहीं रखता अथवा
याद रखता है, तो जैसे ही नये उपदेश को सुनता है,
पुराने उपदेश को भूल जाता है।
आरती में जो एक कड़ी आती है,
यदि उसे मन में समाहित कर लिया जाये तो मनुष्य का कल्याण हो जाये -
आरती में प्रश्न किया है कि
है जगत के स्वामी आप अदृष्य हैं,
आपसे किस विधी के द्वारा मिलें,
जिसका उत्तर भी उसी में दिया है,
विषय-विकार मिटावो पाप हरो देवा।
जब विषय-विकार व पाप जीवन से निर्वासित हो जाता है,
तो मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है,
कमल के फूल की तरह विषय-विकार व पाप रूपी कीचड़ से निर्लिप्त हो जाता है।
जो विषय-विकार व पाप रूपी श्रृंखला को तोड़ देता है,
वह जीते जी ही बंधन मुक्त हो जाता है।
जो साक्षी भाव से दृष्टा भाव से अपने मन को
बाहरी सांसारिक पदार्थों शक्लों से हटाकर
अंतर में एकाग्र करते हैं,
ऐसा अभ्यास करते-करते अंततः
उनके विषय-विकार व पाप के भाव
मन से निर्वासित हो जाते हैं।
जो अपने मन को गुरू वाणी के पालन में रत रहते हुए
निष्काम भाव से सत्कर्म करते हैं और
गुरू वाणी के अनुसार प्रकाश का ध्यान करते हैं,
अथवा नाद का श्रवण करते हैं।
वे तटस्थ हो जाते हैं उनका किसी से बैर नहीं रहता,
किसी से राग भी नहीं रहता,
सभी के लिये प्रेम का भाव रहता है।
सब मैं प्रभू का नूर समाया
कोई नहीं है जग में पराया
वसुधेव कुटुम्बकम
की भावना मन में समाहित हो जाती है
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
यानि ना किसी से अनुराग ही रहता है
ना किसी से शत्रुता ही रहती है,
केवल मानव धर्म शेष रह जाता है
भवतु सब्ब मंगलं
सबका भला हो।
सबके भले का भाव मन में शेष रह जाता है,
लगातार-----11-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-11
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
वैरागी के पास देने के लिये केवल ज्ञान होता है और
वह इसी ज्ञान के माध्यम से
सबके भले के लिये अपना जीवन व्यतीत करता है।
अहंकार रूपी महाविकार का त्याग करने पर ही
परमपद प्राप्त किया जा सकता है।
अहंकार का आध्यात्मिक भावार्थ है कि
शरीर भाव में जीना
जो शरीर भाव में जीता है,
वह अपने कर्मों का निरीक्षण नहीं करता,
वह बिना विचारे कर्म करता है,
बिना सत्य-असत्य का विचार किये बोलता है,
उसके मन में संसार का चिंतन ही चलता रहता है और
इसीलिये वह गुरू वाणी/ज्ञान का भी उल्लंघन करता रहता है।
वह सत्कर्म भी करता रहता है कि
कहीं मुझे किसी तरह की धन-सम्पत्ति का नुकसान नहीं हो जाये,
लेकिन इसके लिये सतर्क नहीं रहता कि
मैं जो कर्म बिना विचारे विकारों से ग्रसित होकर मन के बहकावे में आकर कर रहा हूं,
इससे मुझे किसी तरह की हानि तो नहीं होगी।
लेकिन जब मनुष्य आत्म भाव में जीता है,
वह यह मानता है कि
यह शरीर केवल एक साधन है,
उस परमात्मा तक पहुंचने का और
यह साधन एक दिन मुझ से छीन लिया जायेगा।
जिससे पहले कि यह साधन मुझसे छीन लिया जाये,
मुझे इसका पूर्ण सदुपयोग कर लेना चाहिये।
इसीलिये कहा है कि
सांई इतना दीजिये, जामे कुटुम्ब समाय
मैं भी भूखा ना रहूं साधू ना भूखा जाये।
वह याद रखता है कि
यह शरीर पंच तत्व से निर्मित है और
अंततः एक ना एक दिन पंचतत्व में विलीन हो जाने वाला है।
इसीलिये कहा है कि
यह तन तेरा नहीं है बंदे
साथ ना तेरे जाये रे
कंचन सा तेरा रूप सलौना
मिट्टी में मिल जाये रे।
इसीलिये वह सतर्क रहता है
अपने हर एक कर्म के प्रति
इसीलिये वह अपने प्रत्येक कर्म पर नजर रखता है,
वह खाता है तो भी ध्यान रखता है कि
क्या खा रहा है, क्या वह जो खा रहा है स्वास्थ्य के लिये नुकसान दायक तो नहीं है,
आध्यात्म मार्ग में बाधक तो नहीं है।
जैसे कि तामसिक भोजन।
पीता है तो भी ध्यान रखता है कि क्या पी रहा है और
जो पी रहा है, वह नुकसान दायक तो नहीं है,
उसके पीने से आध्यात्म मार्ग में बाधा तो नहीं आयेगी।
जैसे कि तामसिक पेय।
जब आंखें खुली हो तो आंखों से सात्विक दृश्यों का ही दर्शन करता है,
तामसिक से अपनी नजरें हटा लेता है।
जब आंखें बंद होती है,
तो अपने अंतर में उस प्रकाश का ध्यान करता है,
उस प्रकाश का दर्शन करता है,
जिसके अभ्यास के कारण
अंततः उसे परम प्रकाश का दर्शन अपने अंतर में होता है।
लगातार------12-----
सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-12
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
उस अदृश्य शक्ति के वास्तविक नाम को
इन्द्रियों से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
उसका स्वरूप केवल अनुभूति का विषय है
और वह अनुभूति अव्यक्त है
यह अनुभूति भी मन को निर्मल बनाने पर
मल रहित बनाने पर ही हो पाती है।
इसीलिये कहा है
कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर
प्रभू पुकारता फिर रहा, कहता कबीर-कबीर
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा
जो दृष्टा भाव रखते हुए,
साक्षी भाव रखते हुए
निष्काम भाव से सत्कर्म करते हैं,
उनके अन्तर में ही ना केवल उसकी अनुभूति होती है,
अपितू उस प्रभू का परम पावन प्रसाद
अनमोल/बहुमूल्य हीरे रूपी उसका ज्ञान भी प्राप्त होता है।
साक्षी भाव, दृष्टा भाव से
निष्काम सत्कर्म करने वालों के मन में
धैर्य/धीरज भी उत्पन्न होता है।
इसीलिये कहा है
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।
यानि कि जब कोई साक्षी/दृष्टा भाव से कर्म करने का अभ्यास करता है,
तो उसे ऐसा लगता है कि
इतना कठिन कार्य कैसे पूर्ण होगा।
लेकिन जैसे ही वह इस राह पर अग्रसर होता है,
उसे यह दोहा भी याद आ जाता है कि
एक दिन में बीज से पेड़ नहीं उगाया जा सकता है,
ना जाने माली कितने ही घड़े पानी से बीज को सींचता है
तब उस बीज में अंकुर फुटता है,
फिर वह पौधा बनता है और
फिर अंततः वृक्ष बनता है।
तो आध्यात्म का सफर भी बीज से वृक्ष बनने तक की यात्रा का लम्बा सफर है।
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सर्वे भवंतु सुखिन:
अदृश्य शक्ति/परमात्मा/परमेश्वर/ब्रह्म/
भाग-13
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो
ग्रहण करें।
एक यात्रा आध्यात्मिक ज्ञान से पूर्व प्रारम्भ होती है,
जिसमें मनुष्य जीविका अर्जित करने का लक्ष्य प्राप्त करता है।
आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की यात्रा की शुरूवात उसका दूसरा जन्म होता है,
इसलिये गुरू/ज्ञान धारण करने के बाद द्विज कहलाते हैं,
यानि कि दूसरा जन्म।
इसीलिये हमें इतनी दीर्घ आयु प्राप्त हुई है कि
हम धीरे-धीरे इस राह पर सावधानीपूर्वक चलते हुए
अपनी गलतियों को देखते हुए,
उन गलतियों को सुधारते हुए
आगे बढ़ते ही रहें, बढते ही रहें।
गुरू की वाणी उनका ज्ञान,
उनके शब्द ही वह पानी है,
जिससे सिंचाई करने से बीज एक दिन वृक्ष बन जाता है।
जो गुरू ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता
वह बिना पानी के सिंचाई कर रहा है और
इस तरह सिंचाई करने वालों द्वारा उगाये बीज में
ना तो अंकुर ही फुटता है,
ना पौधा ही बनता है,
ना पेड ही बन पाता है।
वह बीज सड़ जाता है।
यानि कि गुरू/ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करने पर
वह सब कुछ प्राप्त नहीं होता,
जिसे प्राप्त करने के लिये गुरू/ज्ञान की शरण ग्रहण करते हैं।
जैसा कि कहा भी है कि
गुरू के शब्द से ही भवसागर से पार हो सकते हैं,
बंधन मुक्त हो सकते हैं।
तो शब्द और कुछ नहीं
उनके उपदेश ही वह शब्द हैं,
जिनको हृदय में उतारकर,
अंतरमन में समाहित कर,
उन उपदेशों/उन शब्दों के अनुसार
आचरण करने पर ही कल्याण होता है।
गुरू के मुख से निकले हुए उपदेश,
उसके शब्द की पालना करने पर ही
वह अद्भूत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय शब्द/नाद अंतर में सुनाई देता है।
जब तक कानों में पड़ने वाले
ज्ञानमय बाहरी शब्द के अनुसार
आचरण नहीं किया जाता है,
तब तक मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।
जो गुरूमुख होता है,
यानि कि गुरू के मुख से निकले हुए शब्दों को अंतर में समाहित करता है
वही मुक्ति का अधिकारी होता है।
जो मन मुख होता है,
वह मन के बहकावे में आकर
गुरू की वाणी,
गुरू के शब्द की
अवलेहना करता है,
अवज्ञा करता है,
उसका मन संसार में समाहित रहता है और
इसी कारण वह बंधन मुक्त नहीं हो पाता है।
ना जाने गुरू कितने ही शब्द शिष्यों के कानों तक पहुंचाते हैं,
ना जाने कितने ही शब्द बार-बार गुरू दोहराते हैं
लेकिन जो उन शब्दों की कद्र करते हैं,
उन शब्दों को अपने जीवन में स्थान देते हैं,
उनके बंधन खुल जाते हैं,
उनका कल्याण हो जाता है।
मनुष्य को अपने मन को अपने अंतर में
किसी भी एक चक्र में अथवा हृदय चक्र में अथवा
आज्ञा चक्र में अथवा ब्रह्मरंध्र में एकाग्र करने का प्रयास करना चाहिये।
सबका भला हो
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