योग वशिष्ठ का संदेश Part 1
सर्वे भवंतु सुखिनः
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योग वशिष्ठ का संदेश
जिसका अन्तःकरण निर्मल होता है , उसको सन्त उपदेश करे अथवा न करें,
सहज वचन ही उपदेश हो जाते हैं ।
जैसे शुद्ध मुकुर प्रतिबिम्ब को यत्न बिना ग्रहण करता है
वैसे ही तू मेरे वचनों को ग्रहण कर लेता है तो दुख नष्ट हो जायेंगे और
तू अविनाशी सुख और आदि - अन्त से रहित परमानन्द को प्राप्त होगा ।
इन्द्रियों के सुख आगमापायो
( आने जाने वाले ) है .
अतएव दुख के तुल्य है ,
इनसे रहित होने में परमसुख है ।
हे विद्याधरों में श्रेष्ठ !
जो कुछ तुझे सुखरूप दीख पड़े उसका त्याग कर,
तुझे परमसुख मिलेगा
दुखों का मूल अहंभाव है ।
जब अहंकार का नाश हो ,
तब शान्ति होगी ।
संसार का बीज भी अहंकार है ।
यह संसार मृगतृष्णा के जल सा असत् है ।
तब तक संसार नष्ट नहीं होता , जब तक अहंतारूपी संसार का बीज है,
जब अहंतारूपी बीज नष्ट हो ,
तब जगत् भी निवृत्त हो जायेगा ।
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भावार्थ
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जैसे पांच तत्वों (अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, आकाष) के बिना कोई भी जीव/प्राणी जीवित नहीं रह सकता है।
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उसी तरह अंतकरण की निर्मलता/शुद्धता के बिना
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ना तो उस अदृश्य तत्व की अनुभूति ही हो सकती है और
ना ही मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण/परमानन्द/दिव्य सुख की प्राप्ति ही हो सकती है।
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जैसे 5 तत्व है तो जीवन है
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वैसे ही अंतकरण की निर्मलता/ शुद्धता है
तो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है।
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इन्द्रियों के सुख क्षणिक सुख प्रदान करते हैं,
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इसी कारण प्राणी को बार-बार इन्द्रियों के भोगों की तृष्णा/प्यास सताती है और इन्द्रियों का सुख ऐसा है कि
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जहां यह क्षणिक सुख देता है तो उसके साथ ही अदृश्य रूप से वह क्षणिक सुख साथ में दुख भी देता है।
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जैसे मृग/हिरण रेगिस्तान में चमकती धूप को पानी समझ कर इधर से उधर भागता है,
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लेकिन उसे पानी नहीं मिलता
केवल रेत ही मिलती है।
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इसी तरह संसार को मृग तृष्णा के जल/पानी की तरह भ्रम बताया है।
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इसी तरह प्राणी भोगों काेे भोगता रहता है,
लेकिन कभी उसकी भोग पिपासा/प्यास शांत नहीं होती।
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जैसे हिरण कस्तुरी को ढूंढता फिरता है,
जबकि वह उसके शरीर में ही होती है और वह मर जाता है,
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लेकिन उसे कस्तुरी नहीं मिलती।
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उसी तरह से वह अदृश्य चेतन तत्व जिसे आत्मा/परमात्मा कहते हैं
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उनकी अनुभूति भी इसी मनुष्य के शरीर में होती है,
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लेकिन वह चेतना को इधर-उधर खोजता हुआ तथा
विकारों से ग्रसित होकर
विषयों की तृप्ति हेतु
अपना अंतकरण मैला कर लेता है और कामना/वासनाओं का ताना-बाना बुनकर
उसमें ही कैद होकर शरीर त्याग देता है।
विषय (रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्ष), विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर) व पाप रहित होने पर ही अंतकरण शु़द्ध होता है।
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इसीलिये तो प्रार्थना की गई है विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
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जब विषय विकार और पाप मन से नष्ट हो जाते हैं तब अहंकार जो केवल एक विकार है वह अन्य विकारों के साथ ही समाप्त हो जाता है इसीलिए कहा है जब मैं (अहंकार) था
तब हरि नहीं
अब हरि हैं
मैं (अहंकार ) नाहिं
सब अंधियारा मिट गया
जब दीपक देखा माही
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योग वशिष्ठ Part 2
वशिष्ठ जी श्री राम को समझा रहे हैं
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हे राम !
शून्य - अशून्य ,
जड़ - चेतन ,
किंचन - निष्किंचन ,
सत्य - असत्य
सब आत्मा ही पूर्ण है .
तब निषेध किसका किया जाय ?
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हे राम ! वह ऐसा अनुभवरूप है , जिससे सब पदार्थ सिद्ध होते हैं .
पर ऐसे आत्मा को मूर्ख लोग नहीं जानते ।
जैसे जन्मान्ध व्यक्ति मार्ग को नहीं जानता ,
वैसे ही महाअन्ध अज्ञानी
जागती - ज्योति आत्मा को नहीं जानते ।
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जैसे उलूक आदि उदित हुए सूर्य को नहीं जानते ,
वैसे ही
🌺काम से घिरे हुए अपने को नहीं जान सकते । 🌺
जैसे जाल में पक्षी फँसा होता है ,
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वैसे ही ये जीव माया में फंसे हुए है ।
इसी का नाम बन्धन है ।
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कामना के वियोग का नाम मुक्ति है ।
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योग वशिष्ठ का संदेश -
कामनामाय शुभ/ अशुभ कर्म बंधन का कारण है और कामना रहित निष्काम शुभ कर्म मुक्ति का आधार है ।
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