शिव गणेश धर्म चर्चा
सर्वे भवंतु सुखिन:
आप आस्तिक/ नास्तिक जो भी हों
जो गुरू उपदेश के अनुरूप हो ग्रहण करें।
इस लेख का उद्देश्य केवल इतना है कि सत्य उपदेश किसी भी माध्यम से मिले
जिसे भी हम मानते हैं उसकी वाणी के अनुरूप हो तो उसे ग्रहण करना चाहिये ।
इस लेख का उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार करना नहीं
अपितु सत्य का प्रचार करना है।
ग्रंथों के अंदर सार और असार दोनों ही हैं ।
जैसे कि नींबू के रस का उपयोग किया जाता है शेष भाग फेंक दिया जाता है ।
तो इसी तरह अधिकतर सभी ग्रंथों में असार और सार दोनों होते हैं । जो जाग्रत अवस्था में रहते हैं वे सार चुनते हैं और जो निद्रा में जीवन बिताते हैं वह असार को चुनते हैं ।
चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष 6 आस्तिक और 2 नास्तिक दर्शनों का का सार है
१. ज्ञान के अनुसार सत्कर्म करना
२. ज्ञान के अनुसार ध्यान करना
३. मन की एकाग्रता - यानि मन को वश में करना।
सत्कर्म करते हुए मन को वश में करना परमवाश्यक है।
जो मन को वश में करना अनिवार्य नहीं मानता, उससे बडा नादान कोई नहीं।
गुरु ज्ञान के अनुसार सत्कर्म करते हुए मन को वश में करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना ही सार है।
यह परम सत्य है कि मन के जीते जीत है मन के हारे हार
शिव-गणेश संवाद
इस संसार में गुरू को सबसे बडा माना गया है,
लेकिन वास्तव में यदि देखा जाये
तो गुरू की भी जननी एक मां ही होती है,
गुरू का जनक भी एक पिता होता है।
यदि मां नहीं तो ना ही कोई पिता और ना ही कोई गुरू। और
यदि पिता नहीं तो फिर गुरू भी नहीं।
इसीलिये गुरू भी यह उपदेश देते हैं कि
मां-पिता के उपकारों को सदैव याद रखना।
किसी को भी दुख नहीं पहुंचाना।
तो जो कोई भी अपने माता पिता को दुख पहुंचाता है
तो वह किसी भी गुरू को नहीं मानता है,
ऐसे व्यक्ति ही निगुरे होते हैं
यानि के ऐसे व्यक्ति गुरू होते हुए भी बिना गुरू के हो जाते हैं,
गुरू की दृष्टि में मरणशील हो जाते हैं। और
ऐसे व्यक्तियों को कोई गुरू अपना शिष्य नहीं मानता,
ऐसे व्यक्ति से गुरू का नाता/बंधन टूट जाता है।
इस संसार में सबकी मान्यतायें, सबके विचार अलग-अलग हैं
कोई परमात्मा को सबसे बडा मानता है
कोई गुरू को परमात्मा से भी बड़ा मानता है
कोई परमात्मा को ही नहीं मानता
सत्यता तो यह है कि जो सत्कर्म को मानता है, वही वास्तव में आस्तिक है जो नहीं मानता वह नास्तिक है।
परमात्मा से महान कोई नहीं, उसके जितनी पावर/शक्ति किसी में नहीं। जैसा कि कहा है यह संसार रंगमंच की तरह हैा तो जैसे कि कटपुतली के खेल वाला कटपुतलियों को नचाता है तो एक प्रश्न कि कटपुतली बड़ी या उन्हें नचाना वाला बड़ा। तो उत्तर तो यही होगा कि नचाने वाला बड़ा हैा
अंतर केवल इतना है कि कटपुतली निर्जीव है और धागा उसके नृत्य का कारण है।
तो मनुष्य को नचाती है कर्म रूपी डोर, जैसे कि रस्सी को जितना घुमाकर बल दिया जाता हे, तो रस्सी पुन: स्वत- ही घुमती हुई जैसी थी वैसी ही हो जाती है। तो जो भी हम कर्म करते हैं, उसकी प्रतिकिया अवश्यमभावी है, यानि कि जैसा मनुष्य कर्म करता है, उसी के अनुरूप उसे परिणाम प्राप्त होता है
मां -
एक संतान के लिये यदि कोई सबसे ज्यादा दर्द सहन करता है,
सबसे ज्यादा संतान की सार सम्भाल करता है तो वह होती है मां।
यदि मां नहीं तो फिर कोई पिता भी कैसे बन सकता है और
यदि मां नहीं तो फिर कोई किसी शिष्य का गुरू भी नहीं बन सकता है।
जन्म के बाद मां ही सबसे अधिक संतान के साथ समय व्यतीत करती है,
वही संतान को
चलना सीखाती है,
बोलना सीखाती हे, ,
खाना सीखाती है,
उसकी रक्षक होती है,
उसका पालन करती है।
मां प्रथम गुरू होने व गुरू की भी जननी होने के कारण
उसका स्थान सर्वोपरि कहा गया है।
एक बहू भी यही सोचती है कि
मैं जितना प्रेम अपने पुत्र से करती हूं उतना प्रेम यह सास मेरे पति से नहीं करती है।
इसी तरह से अधिकतर मां यही सोचती
है कि मेरा पुत्र मुझे बहुत चाहता है,
लेकिन उसका यह भ्रम तब टूट जाता है
जब उसके पुत्र का विवाह हो जाता है और
वह बहू से सास बन जाती है तब उसे अहसास होता है कि
मैं अपने पुत्र को सबसे अधिक चाहती थी और यह पुत्र भी
मुझे मेरा लगता था,
लेकिन अब लगता है कि यह मेरा नहीं
अपनी पत्नी का हो गया है,
अब इसकी पत्नी ही इसके लिये सब कुछ है।
एक बहू यह भूल जाती है कि
वह भी किसी की मां है और
जैसी सेवा की अपेक्षा वह अपने पुत्र से करती है,
वैसा ही व्यवहार उसे अपनी सास के साथ करना चाहिये और
यदि उसका पति राह से भटका हुआ है
तो उसे भी समझाना चाहिये कि
यदि हम अपनी मां के साथ गलत व्यवहार करेंगे,
उसकी सार सम्हाल नहीं करेंगे,
तो हमारी संतान भी हमारे साथ गलत व्यवहार करेगी और
वृद्धावस्था में हमारी सार सम्हाल नहीं करेगी।
दुख और सुख का कारण
हमारे कर्म
हमारा व्यवहार ही है,
जैसा हम व्यवहार करेंगे
तो चाहे वैसा ही व्यवहार हमारे साथ हो या नहीं
लेकिन सद्व्यवहार के लिये सुख व
दुर्व्यवहार के लिये दुख भोगने से
हमें कोई नहीं बचा सकता।
पिता –
यदि पिता नहीं हो तो एक संतान के जीवन में
अभाव ही अभाव नजर आता है,
इस अभाव के कारण
कई बच्चे अल्पावस्था में ही
दुनिया से विदा हो जाते हैं।
अधिकतर पिता संतान के उत्पन्न होने से लेकर
उसके युवा होने तक उसके भविष्य के लिये प्रयासरत रहते हैं।
अधिकतर पिता अपने पिता को महत्वहीन समझते हैं और
अहंकार से वशीभूत होने के कारण
स्वयं को अपने पिता से श्रेष्ठ पिता समझते हैं।
जबकि सत्यता तो यह है कि
अधिकतर हर पिता
उसकी संतान के भविष्य के लिये चिंतित रहता है,
लेकिन जब वह संतान युवा हो जाती है और
फिर विवाहोपरांत जब उसकी संतान होती है
तो वह संतान अपने पिता को महत्वहीन मान लेती है और
वह संतान केवल यही सोचती है कि
मेरा पिता मुझे उतना नहीं चाहता था,
मेरी उतनी सार सम्हाल नहीं करता था
जितना कि मैं अपनी संतान को चाहता हूं
उसकी सार सम्हाल करता हूं।
संसार के अधिकतर सभी पिता और पुत्र ऐसा ही सोचते रहते हैं और
यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
जिसका मन शुद्ध होता है
वही श्रवण कुमार जेसा बन जाता है।
जैसे कि एक कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि
एक पिता अपने पुत्र को अपने प्राणों से भी अधिक चाहता था,
उसके भविष्य के लिये
उसने अपनी बहुत सी सम्पत्ति बेच दी और
पुत्र का भविष्य उज्जवल बनाने में
एक अहम साधन की भूमिका का निर्वाह किया।
लेकिन वही पुत्र अपनी पत्नी की बातों में आकर
अपने पिता की खांसी की बीमारी से परेशान होकर
उसे जिंदा ही जमीन में दफन करने के लिये तैयार हो गया और
उसे इलाज के बहाने से दफन करने के लिये निकल पडा,
लेकिन पौता उनकी इस योजना से वाकिफ हो गया था और
वह भी नहीं माना और जिद करके पिता के साथ चला।
पुत्र ने सुनसान जगह पहुंच कर कब्र खोदी
पौते ने भी पास में ही एक कब्र खोदना शुरू कर दी।
पिता ने पुछा क्या कर रहे हो।
पुत्र ने कहा जब आप भी दादाजी की तरह खांसने लग जाओगे
तब यह कब्र आपको जीवित दफन करने में काम में आयेगी।
पिता को अपनी गलती का एहसास हुआ और
वह अपने पुत्र व पिता के साथ वापस घर आ गया ।
....................3.......................सुप्रभात
भाग 3
कृपया आप आस्तिक हो या नास्तिक पढें जो भी आपके गुरू की वाणी के अनुरूप
हो ग्रहण करें।
यदि कोई भी भाई चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष 8 दर्शनों का अध्ययन करे तो
वह पायेगा कि चाहे आस्तिक हो या नास्तिक मन को वश में करना तो परमवाश्यक
है। जो मन को वश में करना अनिवार्य नहीं मानता हो तो वह चाहे आस्तिक हो
या नास्तिक उससे बडा नादान कोई नहीं।
यह परम सत्य है कि मन के जीते जीत है मन के हारे हार
गुरू -
गुरूओं की 2 श्रेणी है
एक अभ्युदय हेतु संसारी गुरू
दूसरा निश्रेयस हेतु वैरागी (आध्यात्मिक) गुरू।
संसारी गुरू हमारे
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक उत्थान के लिये
ज्ञान प्रदान करता है,
जिसका एक ही उद़देश्य होता है कि
हम इस संसार में रहते हुए
हमारी और हमसे जुडे हुए स्वजनों की उदरपूर्ति व
अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने में सक्षम बन सकें।
हमारे स्वजनों के प्रति हमारे कर्तव्यों/दायित्वों का सुगमता से निर्वाह कर सकें।
वैरागी (आध्यात्मिक) गुरू –
ऐसा गुरू जिसका मन
इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों से रहित है,
जिसके मन में केवल परमानन्द की आकांक्षा है।
जो हमें उपदेश देता है कि अपने कर्तव्य कर्म करते रहो
लेकिन अपने मन को
इस संसार में विद्यमान पदार्थ/शक्लों से दूर रखो।
ऐसा गुरू हमें वह ज्ञान प्रदान करता है,
जिस पर यदि हम सच्चे मन से चलें
तो जीते जी हम उस अदृश्य परमानन्द का अनुभव कर सकते हैं,
जो संसार के किसी भी पदार्थ/शक्ल में नहीं।
ऐसा गुरू कहता है कि
संसार में कमल की तरह रहो,
भोगों से उपराम हो जाओ, कम से कम आधी उम्र गुजरने के बाद या सेवानिवृत्ति
के बाद तो भोगों का त्याग कर दो।
इन्द्रियों द्वारा वैराग्य पूर्वक भोग ग्रहण करो
केवल जीने के लिये ना कि उनमें डूबने के लिये।
सभी कामनओं/वासनाओं को छोड कर
मन को वश में करने पर ही
वह परमानन्द प्राप्त होता है।
लेकिन होता कया है कि
अधिकतर लोग अज्ञानतावश एक वैरागी गुरू को
अपना गुरू बना लेते हैं और
उसी से अपनी कामनायें जोड देते हैं,
जिस गुरू ने संसार के हर एक पदार्थ/शक्ल से विरत रहने का उपदेश दिया है,
उसी गुरू से नादान शिष्य यही सब कुछ मांगते रहते हैं और
कहते हैं कि हम पर गुरू कृपा है और
वे इसीलिये गुरू को सबसे बडा मानते हैं कि
उनके गुरू की कृपा से दुख उनसे दूर रहे।
लेकिन सुख और दुख तो हमारे कर्मों से जुडे हुए हैं,
इसलिये इस संसार में ऐसा कोई नहीं
जिसके जीवन में दुख नहीं आता हो।
वैरागी गुरू उस परमानन्द का अनुभव करने का ज्ञान देता है और
नादान शिष्य नश्वर आनन्द की प्रार्थना करते रहते हैं।
संतान की जिज्ञासा को धैर्य के साथ
सही तर्क और उत्तर के साथ
समझाना अति आवश्यक है,
यदि उनकी शंका का समाधान नहीं करते हैं
तो संतान अज्ञानतावश गलत दिशा में जा सकती है। और
यदि माता पिता उसके प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे और
क्रोध ही करते रहेंगे तो संतान भयभीत होकर दुविधा में रहेगी तथा
गलत निर्णय भी कर सकती है।
जैसा कि माता-पिता संतान के प्रथम गुरू होते हैं
अत: यदि वे संतान को जन्म देते हैं
तो यह उनका उत्तरदायित्व है कि
वह अपनी संतान के व्यक्तित्व के सुधार के लिये पूर्ण प्रयास करे।
पूजा भी दो तरह की होती है,
एक शारीरिक और
दूसरी मानसिक।
शरीर द्वारा जो पूजा की जाती है
वह हमारे सुख का कारण बनती है,
लेकिन मन के द्वारा जो पूजा की जाती है
वह अदृश्य पूजा परमानन्द की प्राप्ति करवाती है।
जैसे कि लैंस को
किसी कागज या घास पर
एक जगह स्थिर रखा जाये तो अग्नि पैदा हो जाती हे,
उसी तरह जब मन एकाग्रता का अभ्यास करते-करते शांत हो जाता है
तो उस महान उर्जा से जुड जाता है और
यह पूर्ण एकाग्रता का ही परिणाम होता है।
एकाग्रता द्वारा शांत मन होने पर ही ज्ञान के द्वार खुल जाते हैं,
जैसे कि किसी पात्र में कुछ भरा हुआ है
तो जब तक वह पात्र खाली नहीं होगा
उसमें कुछ भी नहीं भरा जा सकता है।
उसी तरह जब तक इस मन में बेशुमार विचार हैं और
मन में आ रहे उन व्यर्थ विचारों से ध्यान हटाकर
किसी एक केन्द्र बिन्दु पर ध्यान लगाने पर ही मन शांत होने पर ज्ञान के लिये
स्थान रिक्त हो पाता है
मन के शांत होने पर ही
इस भौतिक संसार की निर्थकता समझ में आने लगती है। और
यह ज्ञान ही वैराग्य भाव से इस संसार से मन को हटाकर
उस अदृश्य शक्ति/परमानन्द की ओर मन को ले जाता है।
ज्ञान होने पर ही हमारा मन
स्वार्थ से परे होने लगता है,
क्रोध से परे होने लगता है,
काम और अन्य कामनाअें से परे होने लगता है और
इसी ज्ञान से हमें इस संसार की वास्तविकता,
उसकी सच्चाई का पता चलता है
अपने अंतकरण से मुक्त होकर
जितना हम बाहर देखेंगे उतना ही भटकेंगे और
भटकने का अर्थ है कि
हम नहीं चाहते हुए भी
हमारी इन्द्रियों के वशीभूत होकर पाप मय कर्म भी कर सकते हैं और
यह दृश्यमान संसार हमारे अंदर आवश्यकताओं को
कामनाओं को वासनाओं को उत्पन्न करेगा और
यह कामना/वासना/आवश्यकतायें
हमें भटकाने के लिये हमेशा तैयार रहेगी।
सबका भला हो।
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