निष्काम प्रेम और सकाम प्रेम
प्रेम /इश्क
यह दो तरह का होता है
पहले प्रेम को कहते हैं
इश्क मजा जी
दूसरे प्रेम को कहते हैं
इश्क हकीकी
इश्क मजा जी ऐसा इश्क जिसमें संसार मैं विद्यमान पदार्थ में शक्ल के द्वारा सुख प्राप्त होता है
यह परिशुद्ध प्रेम नहीं
यह विशुद्ध प्रेम नहीं
दूसरा प्रेम होता है इश्क हकीकी यह ऐसा प्रेम होता है जिसमें कामना नहीं होती वासना नहीं होती केवल विशुद्ध प्रेम होता है अदृश्य चेतन तत्व परमात्मा के लिए
जो कि हकीकत है
जोकि सत्य हैं
इसीलिए कहा है प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय
परमात्मा प्रेम है लेकिन उस विशुद्ध प्रेम को पाने के लिए मन से सांसारिक पदार्थ के प्रति प्रेम की कामना को विसर्जित करना ही पड़ता है।
वह विशुद्ध प्रेम प्रकट होने में जन्म जन्मांतर लग जाते हैं
जिसकी आध्यात्म के प्रति प्रबल रुचि होती है वही अभ्यास के माध्यम से विशुद्ध प्रेम तक पहुंच पाता है
नहीं तो विशुद्ध प्रेम तक पहुंचने की यात्रा बार-बार अवरुद्ध होती रहती हैं बार-बार अशुद्ध प्रेम का संयोग मन से होता रहता है
जैसे एक मूर्ति को बनाने में काफी समय लगता है
महीनों वर्षों लग जाते हैं
लेकिन उसे तोड़ना हो तो कुछ ही मिनटों में तोड़ सकते हैं
उसी तरह तामसिकता यानी कि सांसारिक पदार्थों से प्रेम आसान है उसमें कुछ अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं तामसिकता
एक गहरी खाई की तरह है और
इसके विपरीत सात्विकता
एवरेस्ट की चोटी की तरह है
जहां तक पहुंचने में काफी परिश्रम और समय लगता है वर्षों लग जाते हैं
जब तामसिकता मन से निर्वासित होती है
तब सात्विकता मन मे समाहित होती है
सात्विकता के पश्चात ही वह विशुद्ध प्रेम
कामना वासना रहित प्रेम उत्पन्न होता है
इसीलिए कहा है
प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय
जब तक मन में विषय विकार व पाप विद्यमान है
तब तक विशुद्ध प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता
इसीलिए तिर्गुणातीत निष्काम सात्विकता रूपी मन में ही वह विशुद्ध प्रेम समाहित होता है
यानी कि सात्विकता रूपी म्यान में ही वह (विशुद्ध प्रेम) परमात्मा समाहित होता है
जब मन परिशुद्ध हो जाता है
तब मन से आवाज आती हैं
कबीरा खड़ा बाजार में
मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती
ना काहू से बैर
स्थिति प्रज्ञता
तिर्गुणातीत अवस्था
जैसा प्रेम उपगुप्ता का वासवदत्ता के साथ था
वैसा ही प्रेम मुक्ति का आधार
प्रभु दर्शन का आधार होता है।
उपगुप्त के मन में जैसा प्रेम वासवदत्ता के लिए था,
वैसा ही प्रेम पूरे संसार के लिए था ।
यानी वासना रहित प्रेम
जैसा कि मां वैष्णो का भैरव के साथ था
भैरव के मन में वासना थी मां वैष्णो को पाने की और
मां वैष्णो के मन में वात्सल्य के भाव का प्रेम था भैरव के लिए।
आज इस संसार के मनुष्य की यह दशा है कि पता नहीं कितने पर स्त्री/पुरुषों को अपने मन में बिठा कर रखते है
उनका मन उनके स्वयं के जीवन साथी तक ही सीमित नहीं रहता
जैसे ही उनकी इंद्रियों आंख कान आदि का संयोग पर स्त्री /पुरुष से होता है
तुरंत पर /स्त्री पुरुष के विचारों में खो जाते हैं यह प्रेम नहीं वासनामय संस्कार है
जब मन अपने जीवनसाथी तक सीमित रहता है तो यहां तक का सफर पूर्ण करना भी एक तप हैै
और जब मन में एक केवल एक परमात्मा ही रह जाता है तो
यह महा तप है, विशुद्ध प्रेम है।
इसीलिए कहा है
प्रेम गली अति सांकरी
जामे दो न समाय।
वासना रहित
विकार रहित
प्रेम का भाव
मुक्ति का अधिकारी बनाता है
प्रभु दर्शन का अधिकारी बनाता है आत्म दर्शन का अधिकारी बनाता है
जिस प्रेम में विषय की वासना होती है विकारों की संलिप्तता होती है
ऐसे प्रेमी को
कभी मुक्ति नहीं मिलती।
कभी आत्मदर्शन नहीं होता।
कभी परमात्मा दर्शन नहीं होता।
ऐसे प्रेमी के लिए अपना परिवार ही नहीं सारा संसार ही परिवार बन जाता है इसीलिए कहा है
वसुदेव कुटुंबकम
सब में प्रभु का नूर समाया
कोई नहीं है जग में पराया
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