सुरति और निरति

 सुरति चढ़ी और 

निरति निहारी 

मन की गति पहचानी ।

अनहद पार है ज्ञान बसेरा

 वहां रहते ब्रह्म ज्ञानी । 

अधम नीच की देखो 

सुरति न निरति समानी । 

तेहि कारण या दुनिया 

ज्ञानी नहीं अज्ञानी । 

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मन की गति पहचानने का अभ्यास करते करते जब मन

निष्काम भाव से सात्विकता में समाहित होता है 

तब ही सुरति चढ़ती है 

उधर्वगमन  होता है 

अनहद नाद सुनाई देता है 

ब्रह्म नाद नाद सुनाई देता है

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सात्विकता में समाहित हुए बिना 

निरति असंभव है

निष्काम भाव से सात्विकता में समाहित होने के बाद ही वह प्रकाश दिखाई देता है

और इनके पार है

परमानंद ब्रह्मानंद (परम सत्य परम गुरु की अनुभूति)


यहां  तक की यात्रा वे ही पूर्ण कर पाते हैं 

जो निष्काम भाव से सात्विकता में समाहित होते हुए ध्यान करते हैं 


यह सही है कि 

अधम यानी कि अधार्मिक 

नीच यानि की तामसिक को 

ना श्रवन होता है 

ना दर्शन होता है

 ना परमानंद प्राप्त होता है 

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लेकिन यदि कोई तामसिकता से सात्विकता में समाहित हो जाता है तो उसका कल्याण हो जाता है 

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जैसे कि वाल्मीकि जी मरा मरा से राम तक पहुंचे 

जैसे कि अंगुलिमाल हिंसक से अहिंसक में परिवर्तित हुए।

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जो स्वयं के मन को अंतिम सांस तक परिवर्तित नहीं कर पाता और अंतिम सांस तक इस नश्वर संसार को ही सत्य मानता है, वही अज्ञानी है।

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