कर्म /भक्ति/ ज्ञान योग का समन्वय

 सर्वे भवंतु सुखिनः


कर्म /भक्ति/ ज्ञान योग का समन्वय


चाहे कोई सा भी योग हो, 

मुक्ति के लिये वासना/कामना रहित शुभ सत्कर्म तो करने ही होंगे। 


संत कबीर जी और संत रैदास जी दोनों में ही कर्मयोग, 

भक्ति योग 

ज्ञान योग तीनों ही योगों का संगम था।


दोनों ही जो कुछ भी कर्म करते थे, 


चाहे नित्य कर्म करते थे, 


चाहे आजीविका अर्जन हेतु कर्म करते थे, 


चाहे शयन करते थे, चाहे ध्यान करते थे, उनका मन सदैव प्रभू भक्ति में लीन रहता था। 


ज्ञान के अनुरूप ही कर्म करते थे, 


जग में रहते थे, लेकिन उनका मन जग से कटा हुआ रहता था और 


उस अदृश्य शक्ति से जुडा रहता था।


इसीलिये उनका एक दोहा है कि 


ताका काल क्या करे जो आठ प्रहर होशियार, 


यानि जो 24 घंटे सतर्क है, 

उसके आगे काल भी नतमस्तक हो जाता है। 

भक्ति/ज्ञान और कर्म इन तीनों ही योगों में समन्वय का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण कबीर जी ने दिया है। 


किसी ने उनसे पूछा कोई आजीविका अर्जित करने हेतु कार्य करते समय भक्ति कैसे कर सकता है? 


तो उन्होंने बड़ा सुन्दर जवाब दिया कि गांव की महिलायें सिर पर घड़ा रखकर बिना उसे हाथ से पकड़े आपस में गपशप करती हुई चलती रहती है और फिर भी घडा नहीं गिरता।


देखने वाले सोचते हैं कि उनका ध्यान घड़े की तरफ नहीं है,


लेकिन वास्तव में वे चाहे कुछ भी बातें कर रही हों लेकिन उनका मन उस घड़े पर टिका रहता है और इसीलिये घड़ा गिरता नहीं है। 


तो कबीर जी यही समझाना चाह रहे थे कि हमारा तन, हमारी इन्द्रियां कुछ भी करें, 

लेकिन हमारा मन उस अदृश्य शक्ति से जुड़ा रहे। 


जो नानकजी, कबीरजी, 

रैदासजी आदि की तरह पूरी तन्मयता से उस अदृश्य शक्ति में अपने मन को रत रखते हुए अपना कर्तव्य पूर्ण करता है, वही कर्मयोगी है। 


ज्ञान योग - इसके अन्तर्गत उन्हें रखा जा सकता है, 


जो संयासी, भिक्षु आदि हैं। 


लेकिन सत्यता तो यह है कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो कर्म नहीं करता हो।


संयासी/भिक्षु का भी कर्तव्य है कि जो भोजन उसे मिला है, उसके बदले में जन-कल्याण के लिये सत्य उपदेश दें। 


लेकिन इस संसार के अधिकतर लोग ज्ञानवान होते हुए भी अज्ञानी की तरह कर्म करते हैं और 


वे उस नेत्रहीन की तरह है, 


जिन्हें ज्ञान रूपी चश्मा मिल गया है, लेकिन जब वह कर्म पथ पर यात्रा करते है तो उस चश्मे को उतार कर कहीं पटक देते हैं और उल्टी दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं। 


इस बात की भी चिंता नहीं करते कि किस तरफ जाने से सुरक्षित रहेंगे और किस तरफ जाने से खाई /गढढे में गिर जायेंगे, 


पानी में डूब जायेंगे अथवा आग से झुलस जायेंगे। 


तो ऐसे नेत्रहीन कभी कुंए में गिर जाते हैं, कभी खाई, 

गढ़ढ़े में गिर जाते है, कभी पत्थर से टकरा कर गिर जाते है, कभी किसी से टकरा कर गिर जाते है। 


जैसे यदि शरीर  आंखें रहित हैं 


तो जब तक आंखे  किसी के शरीर से संयुक्त नहीं होती 


तब तक अनमोल होते हुए भी वे निरर्थक है ।


उसी तरह से यदि 

तन आंख रहित है 

तो वह शरीर अधूरा ही रहता है, और


 दूसरों पर आश्रित रहता है। 


यह सभी जानते हैं कि बिना आंख वालों को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। 


तो जिसने भी ज्ञान रूपी आंखें पा ली हैं और ज्ञान के अनुसार चल रहा है, 

वही ज्ञान योग का पथिक है और जो ज्ञान के विपरीत चल रहा है उसे ज्ञान मार्ग का पथिक नहीं कहा जा सकता। 


गम्भीरता से देखा जाये तो 

भक्ति, 

कर्म और 

ज्ञान योग में कुछ प्रमुख समानतायें हैं, जैसे कि- 

तीनों का ही मन इस संसार में विद्यमान पदार्थ/ शक्लों से विरत रहता है। 


तीनों का ही मन छल, 

कपट 

पाप से 

मुक्त रहता है। 


तीनों ही 

सदाचारी, 

परमार्थी होते हैं। 


तीनों ही 

दूराचार, 

दुष्कर्म, 

स्वार्थ से दूर रहते हैं। 


तीनों का ही मन 

प्रेम (वासना/कामना रहित) 

करूणा, से भरा होता है। 


तीनों का ही मन परमार्थ से भरा होता है। 


तीनों ही 

सत्यवादी, 

सत्यमानी, 

सत्यकारी होते हैं


याने के सत्य बोलते हैं, 

सत्य को मानते हैं,

सत्य कर्म ही करते हैं। 


तीनों का ही मन लोकेषणा, 

वित्तेषणा, 

पुत्रेषणा से रहित रहता है।


लोकेषणा - यानि के इस लोक की कामना से रहित। 


वित्तेषणा - यानि के धन-सम्पत्ति आदि की कामना से रहित। (कर्मयोगी के लिये सांई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय में भी भूखा ना रहूं साधू ना भूखा जाये) 


यानि के तीनों का ही मन संसार से कटा हुआ रहता है, 

 

तीनों ही जीते हैं केवल उसकी अनुभूति की आस में, 


उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति के बाद तीनों की ही आत्मा/मन/चित्त आदि सभी तृप्त हो जाते हैं, 


सभी इन्द्रियां पूर्णतः शांत हो जाती है, 


तीनों को ही परम शांति प्राप्त होती है। 


कहने का तात्पर्य यह है कि हमने चाहे जो भी मार्ग चुना हो, लेकिन हमें सदाचारी तो बनना ही होगा,

 

यदि कर्मयोगी हैं तो अपने कर्तव्यों का पालन तो करना ही होगा। 


यानि कि चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ नहीं चाहिये वह शाहों का शाह।


यानि के उसकी अनुभूति की चाह को छोड़कर अन्य कोई चाह नहीं, 


उसके चिंतन को छोड़कर अन्य कोई चिंतन/चिंता नहीं,


और ऐसे मनुष्य ही उस अदृश्य तत्व की अनुभूति करते हैं, चाहे वह किसी भी योग मार्ग पर चलने वाले हों। 


सबका भला हो

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